20-03-2019 (Important News Clippings)

Afeias
20 Mar 2019
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Date:20-03-19

Crony Bonds ?

Electoral bonds are an opaque channel for political funding and make crony capitalism more likely

TOI Editorials

To counter CPM’s writ petition to the Supreme Court challenging anonymous electoral bonds, the government has filed an affidavit claiming such bonds enhance transparency in electoral funding as they are routed through the banking channel. This is a fallacious argument. The important point here is that the donor’s identity is kept secret from the public, while being known to the government. Not only does it have disadvantages associated with cash donation, it compounds problems by giving a disproportionate and unfair advantage to the ruling party. It’s not a coincidence that about 95% of political funding through electoral bonds went to BJP last financial year.

The electoral bond scheme, by its design, makes funding opaque. An amendment to income tax legislation removes the need to reveal the identity of the donor. In another legislative change, companies which donate to political parties no longer have to disclose this in their financial statements. A series of legislative changes therefore have removed even a semblance of public scrutiny over donations to political parties, which degrades the quality of democracy and enhances the possibility of crony capitalism as governments wield enormous discretionary power in economic policy making.

This toxic combination looks even more alarming when juxtaposed with other legislative changes. Last year, FCRA was amended in a manner which opens the door to foreign funding of political parties. The US and UK ban foreign funding of elections for very good reason – it’s the difference between being a democracy and a banana republic. But India has moved from a ban to opening the door along with guaranteed anonymity. These issues are to come up for hearing soon in the Supreme Court. When the relevant legislative changes are juxtaposed with Constitution’s fundamental rights and prior judgements, the electoral bond scheme doesn’t hold water.

India needs to clean up its political funding. The government’s argument that opacity is necessary to protect privacy of the donor is indefensible. Privacy in political funding can only breed corruption. It also imperils national security as foreigners can anonymously buy influence with ruling political parties. In the US, President Donald Trump faces serious charges of having received Russian campaign funding and could be impeached if the charges are proved. In India, there are no analogous legal barriers if a similar case comes up. The Supreme Court must move swiftly to remedy this anomalous state of affairs.


Date:20-03-19

Nitrogen Pollution: Neglected Menace

ET Editorials

Essential for life and by itself harmless, nitrogen has emerged as a potent pollutant in its chemically reactive forms in compounds, such as ammonia, urea and nitrates. The chief culprit is chemical fertilisers, though the transport boom, sewage and organic waste, too, boost emissions of reactive nitrogen. The level of nitrogen in the ecosystem has begun to degrade life. Nitrogen pollution has escaped the attention that carbon dioxide has got. That changed last week at the fourth United Nations Environment Assembly, where India piloted a resolution adopted by all countries to work towards a more sustainable management of nitrogen.

In India, chemical fertilisers — accounting for 77% of agricultural nitrogen oxide emissions — are the primary driver of nitrogen pollution. The government has set the goal of cutting down consumption of nitrogen-based fertilisers by half by 2022. The surest way to achieve the goal is to slash subsidy on urea. Nitrogen pollution from industrial and domestic sewage is growing at four times the rate of that from fertilisers. Improved management of sewage and solid waste, including nutrient recovery and recycling of nitrogen for use as fertilisers, could reduce chemical fertiliser use by as much as 40%. Vehicular emission is another source, and this can be addressed through improved public transport and a transition to electric mobility.

Excess of nitrogen adversely affects soil health and crop yields, water and air quality, and contributes to climate change. As one of three countries to undertake a nitrogen assessment, India has a ready roadmap. It will need to close the nitrogen loop. For this, it will need to move to more sustainable consumption and production spanning agriculture, livestock, industry, waste management and mobility.


Date:20-03-19

जल प्रबंधन का अनूठा चीनी तरीका

चीन का नदी संरक्षण कार्यक्रम भारत में नदियों को प्रदूषण-मुक्त करने के लिए एक मिसाल बन सकता है।

विनायक चटर्जी , (लेखक ढांचागत सलाहकार फर्म फीडबैक इन्फ्रा के चेयरमैन हैं)

चीन में जल प्रबंधन को लेकर लंबे समय से यह कहा जाता रहा है कि ‘पानी को नौ ड्रैगन संभालते हैं’। यह कोई सराहना न होकर एक उपमा है जिसका मतलब है कि चीन के जल संसाधनों को संभालने में जुटी एजेंसियों के दायित्व एवं जिम्मेदारियां एक-दूसरे का आच्छादन करती हैं। आश्चर्यजनक रूप से यह उपमा भारत के जल प्रबंधन के बारे में भी काफी सही है। दोनों ही देशों में जल प्रबंधन केंद्र एवं राज्यों के स्तर पर मंत्रालयों और जल प्रबंधन एवं जल प्रदूषण से जुड़ी विभिन्न एजेंसियों में बंटा हुआ है।

जल प्रबंधन की जटिल एवं अस्पष्ट व्यवस्था होने के अलावा तीव्र विकास और पानी के बेलगाम होते इस्तेमाल का नतीजा यह हुआ है कि चीन के सतही जल का एक-तिहाई हिस्सा पीने के लायक नहीं रह गया है (स्रोत: ग्रीनपीस रिपोर्ट)। इस हालात का मुकाबला करने के लिए चीन ने पिछले साल एक गैर-परंपरागत लेकिन महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम ‘रिवर चीफ्स’ शुरू किया था। इस कार्यक्रम में एक सरकारी अधिकारी को ‘नदी का मुखिया’ (रिवर चीफ) नियुक्त किया जाता है जो अपने इलाके में मौजूद जलाशय या नदी के खास हिस्से में पानी की गुणवत्ता संकेतकों का प्रबंधन करता है। उनका प्रदर्शन और भावी करियर इस बात पर निर्भर करता है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में जल गुणवत्ता संकेतकों को सुधारने में कितनी कामयाबी हासिल की है। स्थानीय समाचारपत्र चाइना डेली में पिछले साल प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरे चीन में नदियों एवं जलाशयों की गुणवत्ता पर नजर रखने के लिए 4 लाख से अधिक रिवर चीफ नियुक्त किए गए। इनके अलावा ग्रामीण स्तर पर 7.6 लाख और लोगों को नदियों की देखरेख का जिम्मा दिया गया। इस तरह समूचे चीन में नदियों के पानी की हालत सुधारने के काम में 10 लाख से अधिक लोग लगाए गए।

चीन में जल संरक्षण के काम में लगे संगठन ‘चाइना वाटर रिस्क’ के मुताबिक, रिवर चीफ कार्यक्रम का हिस्सा बनने का मतलब है कि ‘स्थानीय अधिकारियों को अपने-अपने क्षेत्र में दिखाए गए पर्यावरणीय प्रदर्शन के लिए आजीवन जवाबदेही का सामना करना पड़ेगा’। नदी के जिस हिस्से के लिए उस अधिकारी को नियुक्त किया गया है वहां पर उसके नाम केे साथ संपर्क ब्योरा भी अंकित होता है। अगर स्थानीय लोग किसी व्यक्ति या कंपनी को उस नदी खंड में कूड़ा-करकट डालते हुए देख लेते हैं या वहां पर काई जम रही है तो वे उस अधिकारी को फोन पर इसकी जानकारी देते हैं। नदी के अहम एवं बड़े हिस्से का दायित्व अधिक वरिष्ठ अधिकारी को दिया गया है। इससे अधिकारी तमाम विभागों को एक साथ काम करने के लिए जोड़ सकता है।

रिवर चीफ प्रणाली की शुरुआत सबसे पहले वर्ष 2007 में च्यांग्सु प्रांत के स्थानीय अधिकारियों ने की थी। उस समय एक जल-क्षेत्र में फैल रही काई से निजात पाने के लिए एक स्थानीय अधिकारी को दायित्व सौंपा गया था। ‘साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट’ समाचारपत्र के मुताबिक, जल-क्षेत्र को काई से आजाद कराने के बाद समूचे प्रांत में रिवर चीफ व्यवस्था लागू कर दी गई थी जिससे पानी की गुणवत्ता में खासा सुधार देखा गया था। हालत यह हो गई कि च्यांग्सु में इंसानों के पीने लायक सतही जल का अनुपात 35 फीसदी से बढ़कर 63 फीसदी हो गया।

भारत में इस तरह की व्यवस्था क्या कारगर हो पाएगी? हमारी समस्याएं भी काफी हद तक ऐसी ही हैं। पानी में प्रदूषण की अधिकता के अलावा जल प्रबंधन से जुड़े कार्यों का जिम्मा कई संगठनों एवं सरकारी विभागों को सौंपा गया है। भारत में प्रदूषण से निपटने के लिए पहले से ही कानून लागू होने के अलावा केंद्र एवं राज्य दोनों स्तरों पर प्रदूषण मानकों के क्रियान्वयन के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बने हुए हैं। चीन के संदर्भ में खास बात यह है कि प्रदूषण के नियंत्रण से संबंधित तमाम जिम्मेदारियां स्थानीय स्तर के अधिकारी को दे दी गई हैं और विभिन्न सरकारी विभागों को प्रदूषण नियंत्रण से संबंधित आदेश देने की शक्ति भी उसके पास ही होती है। इस तरह स्थानीय निवासियों को सिद्धांत रूप में पता होता है कि हालत न सुधरने पर किसकी गरदन पकडऩी है। पर्यावरण के मोर्चे पर दिखाए गए प्रदर्शन को अधिकारियों के लक्ष्यों एवं आकलन का अहम हिस्सा बनाया गया है जिससे वे इन चुनौतियों से निपटने के लिए गंभीर प्रयास करते हैं। जल गुणवत्ता सुधार के लक्ष्य स्पष्टत: तय किए जाने के साथ उनकी निगरानी भी स्वतंत्र रूप से की जा सकती है।

हालांकि चीन में रिवर चीफ कार्यक्रम के वास्तविक नतीजों के बारे में कुछ बता पाना संभव नहीं है क्योंकि वहां पर इसे राष्ट्रीय स्तर पर पिछले साल ही लागू किया गया है। फिर भी पहले से संचालित कुछ इलाकों में पानी की गुणवत्ता में सुधार देखा गया है, लेकिन कई इलाकों में हालात जस-के-तस बने हुए हैं या फिर बदतर भी हुआ है। अगर नदी में प्रदूषक कचरा गिराने वाले कारखानों पर जुर्माना लगाने की शक्ति रिवर चीफ के पास नहीं है तो फिर उसे पानी के गुणवत्ता स्तर में सुधार का लक्ष्य देने का कोई मतलब नहीं है।

भारत में राज्यों के स्तर पर गठित प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास तो जुर्माना लगाने की शक्ति पहले से ही है। दरअसल राज्यों में शीर्ष स्तर पर राजनीतिक इच्छाशक्ति होना ज्यादा जरूरी है। आखिर किसी भी योजना के जमीनी क्रियान्वयन में राज्यों की भूमिका अहम होती है। राजनीतिक संपर्क रखने वाले किसी कारखाना मालिक को प्रदूषण मानकों का उल्लंघन करने पर जुर्माना भरने के लिए तभी मजबूर किया जा सकता है जब राज्य सरकार ऐसा करना चाहे, भले ही भारत में इस तरह का कार्यक्रम लागू हो या नहीं।

लेकिन रिवर चीफ कार्यक्रम से जुड़े व्यापक सबक तो मौजूं हैं। प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों पर जुर्माना लगाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि स्थानीय समुदायों को इसका जिम्मा दिया जाए और उन्हें पर्यावरण प्रबंधन का प्रभारी बना दिया जाए। लंबे समय से भारत की पर्यावरण नीति टॉप-डाउन परिप्रेक्ष्य से संचालित होती रही है लेकिन उसके नतीजे मिश्रित ही रहे हैं। इसकी जगह बॉटम-अप परिप्रेक्ष्य अपनाने की जरूरत है जिसमें जरूरी सुधारों की पहल सर्वाधिक प्रभावित लोग ही करें। चीन में लागू हुआ रिवर चीफ कार्यक्रम इसी नजरिये की उपज है।


Date:20-03-19

आखिरकार, लोकपाल

संपादकीय

संसद में पहली बार प्रस्ताव लाए जाने के 56 साल और लोकपाल कानून बनने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के 5 साल बाद जाकर देश को पहला लोकपाल मिलने जा रहा है। राजग सरकार ने देश के पहले लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया पूरी कर ली है। उच्च पदों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में इस कदम को मील का पत्थर माना जाना चाहिए। लेकिन वर्ष 2014 के चुनाव में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का वादा कर सत्ता में आने वाली सरकार के कार्यकाल के एकदम अंत में लोकपाल की नियुक्ति होना काफी अजीब है। इस विलंब का यह कारण बताया जाता रहा कि लोकपाल चयन समिति में विपक्ष के एक सदस्य की भी उपस्थिति अनिवार्य है लेकिन इसके लिए जरूरी 10 फीसदी सीटें किसी भी विपक्षी दल को नहीं मिली थीं। हालांकि सरकार सीबीआई अधिनियम को भी नजीर के तौर पर देख सकती थी जिसमें जांच एजेंसी के प्रमुख का चयन करने वाली समिति में बड़े विपक्षी दल के नेता को आमंत्रित करने का प्रावधान है। सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस के नेता को लोकपाल चयन समिति की बैठक में विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर बुलाने से गतिरोध दूर नहीं हुआ क्योंकि उसे निर्णय-निर्माण में कोई शक्ति नहीं दी गई थी। शायद इसीलिए कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने बैठक से बाहर रहना ही ठीक समझा। यह फैसला नई सरकार के आते ही कई समस्याएं पैदा कर सकता है।

बहरहाल लोकपाल के रूप में न्यायमूर्ति पी सी घोष का चयन एक निरपवाद पसंद है। उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश रहते समय न्यायमूर्ति घोष ने सभी दलों के नेताओं से संबंधित मामलों में निष्पक्ष निर्णय सुनाए थे। न्यायमूर्ति घोष उस पीठ में शामिल थे जिसने जयललिता और उनकी सहयोगी शशिकला को सार्वजनिक पद का दुरुपयोग कर धन जमा करने का दोषी ठहराया था। वह उस पीठ में भी शामिल थे जिसने बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में भाजपा के कई दिग्गज नेताओं के खिलाफ आरोप तय करने का निर्देश दिया था।

हालांकि लोकपाल से संबंधित दो अहम मुद्दे सामने आ रहे हैं। पहला, नियुक्त करने वाले सदस्य भी उसी तरह नियुक्त किए जाएंगे जिस प्रक्रिया के तहत लोकपाल नियुक्त किया जाएगा। कानून में अधिकतम 8 सदस्य नियुक्त करने का प्रावधान है जिनमें से आधे सदस्य न्यायिक पृष्ठभूमि से होने चाहिए। बाकी सदस्य अनूसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ी जाति, अल्पसंख्यक और महिला वर्ग से होने चाहिए। अगर ये शर्तें चुनौतीपूर्ण हैं तो इससे मुश्किल और बढ़ जाती है कि इन सदस्यों के बारे में सुझाव देने वाली समिति के लिए भी समान नियम-शर्तें लागू होंगी। ऐसे पदों की विवादास्पद प्रकृति और लोकसभा चुनावों से उथल-पुथल की आशंका के चलते इसकी संभावना कम ही है कि लोकपाल फिलहाल काम शुरू कर पाएगा। दूसरी चुनौती संस्थागत स्वतंत्रता से जुड़ी हुई है। शीर्ष अदालत से लेकर चुनाव आयोग तक सबके लिए मौजूदा सरकार समेत ज्यादातर सरकारों का नजरिया बहुत आदर वाला नहीं रहा है। सीबीआई को पहले ही ‘पिंजरे में कैद तोता’ कहा जाता रहा है।

लोकपाल और इसके सदस्यों का नैतिक प्राधिकार सबसे अधिक मायने रखता है। मसलन, लोकपाल कानून में प्रधानमंत्री सहित सहित अधिकतर सरकारी अधिकारी शामिल हैं। लेकिन इस कानून में प्रधानमंत्री के उन कार्यों को जांच के दायरे में न रखना भी विवाद का विषय है जो अंतरराष्ट्रीय संबंध, बाहरी एवं आंतरिक सुरक्षा, लोक व्यवस्था, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष से जुड़े हों। इनकी व्याख्या व्यापक या सीमित हो सकती है और यह पूरी तरह से लोकपाल की इच्छा पर निर्भर करेगा। वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की बढ़ती भागीदारी को देखते हुए लोकपाल को एक उच्च मानक स्थापित करना चाहिए और राजनीतिक दबाव से स्वतंत्र रहते हुए एक ऐसे संस्थान के तौर पर अपनी पहचान स्थापित करनी होगी जो सबके सम्मान का विषय हो।


Date:20-03-19

फितरत नहीं बदलेगा दोगला चीन

आतंकवाद पर चीन के दोहरे रवैये को देखते हुए उचित यही होगा कि भारत उसके खिलाफ सख्त तेवर अपनाए।

विवेक काटजू , (लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)

इसमें कोई हैरानी नहीं कि चीन ने एक बार फिर जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने की राह में अड़चन पैदा कर दी। आश्चर्य तो इसी बात पर हुआ कि भारतीय सुरक्षा बिरादरी में कुछ लोगों ने यह सोचा कि चीन आसानी से इस मुद्दे पर सहमत हो जाएगा। हालांकि अभी भी ऐसा हो सकता है, लेकिन वह मुश्किल से ही ऐसा करेगा और वह भी तभी जब पाकिस्तान इसका बहुत ज्यादा विरोध न करे। अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन इस मसले पर चीन से चर्चा कर रहे हैं। यह चर्चा मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने के इन तीन देशों द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव पर चीन द्वारा अड़ंगा लगाए जाने के बाद से ही हो रही है। उन्होंने चीन को चेतावनी दी है कि पहले की तुलना में वे इस मामले को लेकर अब कहीं अधिक गंभीर हैं और आतंकवाद को लेकर चीन के दोहरे रवैये को बेनकाब करने की कोशिश करेंगे। इससे चीन पर दबाव बढ़ेगा, क्योंकि वह तब तक अलग-थलग होने का जोखिम नहीं लेगा जब तक उसका खुद का कोई बड़ा हित दांव पर न लगा हो।

अगर मसूद अजहर को लेकर चीन के रवैये को समझना है तो फिर 14 फरवरी के बाद के घटनाक्रम पर गौर करना होगा। यह जानना जरूरी होगा कि पुलवामा में 14 फरवरी को हुए हमले के बाद चीन का व्यवहार कैसा रहा। ध्यान रहे कि इस हमले की जिम्मेदारी जैश-ए-मोहम्मद ने ही ली थी। जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के तीन दशकों के इतिहास में भारतीय सुरक्षा बलों पर किया गया यह सबसे दुर्दांत आतंकी हमला था। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को तुरंत भान हो गया कि भारत इस हमले से बहुत कुपित हो गया है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आतंकवाद के खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई करेंगे। ऐसे में बड़े देशों द्वारा निजी दायरे में की जा रही भर्त्सना ही काफी नहीं होती। कुछ इससे अधिक करने की जरूरत थी और सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने निर्णय किया कि इस हमले की निंदा से जुड़ा एक बयान जारी किया जाए। इसमें कोई रहस्य नहीं कि चीन ने इसमें भी अड़ंगा लगा दिया, अन्यथा यह पहला मौका होता, जब सुरक्षा परिषद भारतीय सुरक्षा बलों पर हुए आतंकी हमले की एक सुर में निंदा करती। चीन जैश-ए-मोहम्मद के नाम के उल्लेख में हिचक रहा था। वह तभी सहमत हुआ, जब बयान में जैश का नाम शामिल नहीं किया गया, जबकि खुद जैश ने इस हमले की जिम्मेदारी ली थी। यह विरोधाभास किसी विडंबना से कम नहीं था। कुल मिलाकर चीन किसी तरह इस भंवर से निकल पाया, जो एक तरह से भारत के लिए सकारात्मक ही रहा।

संयुक्त राष्ट्र ने जैश-ए-मोहम्मद पर अक्टूबर 2001 में ही प्रतिबंध लगा दिया था। सितंबर, 2001 में न्यूयॉर्क में हुए अलकायदा के हमले के महीने भर बाद ही यह कार्रवाई हो गई थी। चीन ने तब इसे आतंकी सूची में डालने पर आपत्ति नहीं जताई थी। न ही उसने पाकिस्तान में सक्रिय 21 अन्य आतंकी संगठनों और 132 आतंकियों पर हुई कार्रवाई का विरोध किया। हालांकि वह 2009 से ही मसूद अजहर की ढाल बना हुआ है और जब भी उसे अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने की पहल हुई, चीन ने उसमें रोड़ा अटका दिया। वर्ष 2009 के बाद 2016 और फिर 2017 में भी उसने यही किया। स्पष्ट है कि चीन जैश और उसके आका मसूद अजहर को लेकर दोहरे मापदंड अपना रहा है। चीन केवल और केवल पाकिस्तान के साथ रिश्तों की खातिर ही यह सब कर रहा है।

भारत के प्रति नफरत ही चीन-पाकिस्तान के रिश्तों की बुनियाद है। पाकिस्तान ने 1963 में अपने कब्जे वाले कश्मीर यानी पीओके का कुछ हिस्सा चीन को भेंट किया था। इसके बदले में चीन ने पाकिस्तान को परमाणु हथियार विकसित करने में मदद की। अगर हाल के दौर की बात करें तो पाकिस्तान जहां चीन में उइगर मुसलमानों को दी जा रही भयानक यातनाओं पर चुप्पी साधे हुए है, तो बदले में चीन पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर मौन रहता है। इन दोनों की साठगांठ में हाल में एक जुड़ाव चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपेक के रूप में भी हुआ है।

चीन पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में भारी निवेश कर रहा है और ग्वादर बंदरगाह को अपनी रणनीतिक परियोजना के रूप में विकसित कर रहा है। ऐसे में भारतीय नीति-नियंताओं को हमेशा के लिए यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि जब भी भारत-पाकिस्तान के बीच कोई पेंच फंसेगा तो चीन हमेशा पाकिस्तान का ही पक्ष लेगा। हाल के दौर में भारत-चीन के रिश्तों में कुछ सुधार के बावजूद इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। एक के बाद एक भारतीय सरकारों ने भारत-चीन रिश्तों में प्रतिस्पर्द्धी पहलुओं की अनदेखी कर सहभागी पहलुओं पर ही ज्यादा ध्यान केंद्रित किया है। इसी कारण भारत ने चीन के साथ मुक्त व्यापार को आगे बढ़ाते हुए उसके निवेश को गले लगाया। यहां तक कि संचार जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भी चीनी निवेश के लिए लाल कालीन बिछा दी। यह सब भारत के विनिर्माण उद्योग की कीमत पर किया गया। वैश्विक स्तर पर जब भी साझा हितों की बात आती है तो भारत और चीन एक हो जाते हैं। यह ठीक भी है, लेकिन इससे भारत को उस खतरे की अनदेखी नहीं करनी चाहिए, जिसका जाल चीन श्रीलंका और मालदीव जैसे हमारे पड़ोसी देशों में बिछा रहा है। हालांकि मालदीव में हालिया चुनाव के बाद भारत के साथ उसके समीकरण सुधरे हैं, फिर भी चीन की नीयत और मंशा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

भारत को एक बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन हर कीमत पर अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी करना चाहता है। इसमें उसे न तो अपने पड़ोसियों के हितों की फिक्र है और न ही अंतरराष्ट्रीय प्रावधानों का लिहाज। ऐसे में भारत को भी अपना रुख कड़ा करना चाहिए, जैसा उसने 2017 में डोकलाम गतिरोध के दौरान किया था। उसने चीन को एहसास करा दिया कि भारत अपने हितों की रक्षा करने में सक्षम है। हर मौके पर उसे यही तेवर दिखाने होंगे। जब चीन ने मसूद अजहर के मामले में अवरोध पैदा कर ही दिया है, तो भारत को भी दुनिया के सामने चीन का असली चेहरा बेनकाब करने से हिचकना नहीं चाहिए। यह ठीक नहीं कि भारत ने एक देश की ओर इशारा तो किया, लेकिन सीधे तौर पर चीन का नाम नहीं लिया। यह कूटनीतिक कमजोरी ही है खासकर तब जब संयुक्त राष्ट्र के अन्य सदस्य देश चीन का नाम लेने से नहीं हिचक रहे। यह मामला ‘मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त की तरह नहीं होना चाहिए। चीन के परिप्रेक्ष्य में दो और पहलू गौरतलब हैं। पहला यह कि यदि भारत इस पर अपनी नाखुशी जाहिर करना चाहता है तो उसे कीमत भी चुकानी होगी यानी उसे व्यापार के मामले में कुछ कदम उठाने होंगे। क्या भारतीय उपभोक्ता सस्ते चीनी उत्पादों की तुलना में दूसरे देशों के महंगे उत्पाद खरीदना गवारा करेंगे? दूसरा पहलू यह है कि जब राष्ट्रीय हितों की बारी आती है तो नेताओं की निजी दोस्ती मायने नहीं रखती।


Date:20-03-19

संकुचित होती है क्षेत्रीय पार्टियों की दृष्टि

प्रो. निरंजन कुमार , ( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं )

17वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव की तिथियों की घोषणा के साथ ही विश्व के सबसे जटिल लोकतंत्र के महापर्व की शुरुआत हो गई है। जटिल इस रूप में कि भारत जाति एवं उपजाति, मजहब और संप्रदाय, भौगोलिक क्षेत्र, भाषा, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से विविध एवं बहुरंगी, बल्कि परस्पर अंतरविरोधी तत्वों वाला देश है। संसार में शायद ही कोई ऐसा दूसरा राष्ट्र होगा जहां इतनी विविधताएं होंगी, लेकिन हमारी खासियत रही है कि इन विविधताओं एवं अंतरविरोधों के बावजूद भारतभूमि ने सामान्यतया अपना राष्ट्रीय भाव बनाए रखा है। लोकसभा चुनावों में भी एकाध अपवादों को छोड़ दें तो इस देश की जनता ने अपने इस राष्ट्रीय विवेक का परिचय हमेशा दिया है।

पुलवामा में हालिया आतंकी हमला, चीन द्वारा पाकिस्तान का समर्थन, फिर चीन की भारत के प्रति आक्रामक नीति और उससे हमारा सीमा विवाद, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समस्याएं एवं चुनौतियां, रोजगार एवं भ्रष्टाचार, विदेश नीति के प्रश्न इत्यादि आगामी लोकसभा चुनावों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दे होंगे। फिर एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भारतीय मतदाताओं का या रुख होना चाहिए जब कुछ राष्ट्रीय पार्टियों के साथ-साथ क्षेत्रीय दल भी ताल ठोंक रहे हैं? इस संदर्भ में इन राजनीतिक दलों का चरित्र, चाल और चेहरा जानना प्रासंगिक होगा। आगामी आम चुनाव में एक तरफ भाजपा है जिसने कई क्षेत्रीय दलों से सहयोग करके चुनाव में उतरने का फैसला किया है। दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी के साथ-साथ बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देसम पार्टी, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति, अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, नवीन पटनायक की बीजू जनता दल और विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियां प्रमुख रूप से खम ठोंक रही हैं। उपरोत पार्टियों की नीति, दृष्टिकोण और आधार आदि की पड़ताल करें तो इनमें भाजपा और कांग्रेस ही सच्चे राष्ट्रीय दलों के रूप में सामने आते हैं। हालांकि तकनीकी रूप से चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार तृणमूल कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, माकपा, भाकपा आदि भी कहने को राष्ट्रीय पार्टियां हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर दलों का मूलभूत चरित्र, चाल और चेहरा क्षेत्रीय पार्टियों वाला है। अपने अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर रहीं माकपा और भाकपा पहले से ही पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल तक सिमटकर रह गई थीं, पिछले कुछ वर्षों में ये और भी ज्यादा सिकुड़ चुकी हैं। अपने सबसे बड़े गढ़ पश्चिम बंगाल में ही ये तीसरे नंबर पर धकेल दी गई हैं। त्रिपुरा भी इनके हाथ से निकल चुका है और अब केरल में भी इनको नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस विशुद्ध रूप से पश्चिम बंगाल केंद्रित पार्टी है। यही हालत राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की है जिसकी जड़ें मुख्य रूप से महाराष्ट्र में हैं। मायावती की बसपा भी इनसे भिन्न नहीं है जो उार प्रदेश की धरती से प्रमुख रूप से अपनी जीवन शति लेती है। इस क्रम में अलग-अलग स्थितियों और परिप्रेक्ष्य में इन क्षेत्रीय पार्टियों की नीति, दृष्टिकोण और आधार को भी परख लिया जाए। एक तो ये राजनीतिक दल प्रमुख रूप से केवल किसी राज्य विशेष तक सीमित हैं और इसलिए अपनी नीति और दृष्टिकोण में राष्ट्रहित के बजाय एक संकुचित दृष्टि से परिचालित होते हैं।

उदाहरण के लिए भारत और बांग्लादेश के बीच तीस्ता नदी जल के बंटवारे का विवाद 2011 या 2018 में हल हो गया होता, अगर ममता बनर्जी ने इसमें अड़ंगा न लगाया होता। यहां बताना जरूरी है कि इस विवाद का निपटारा बांग्लादेश से बेहतर संबंधों के लिए बहुत जरूरी है और इस रूप में यह राष्ट्रहित में है, योंकि बांग्लादेश एक तरफ पाकिस्तान को विभिन्न प्रसंगों में काउंटर बैलेंस करने के काम में आता है तो दूसरी तरफ ‘एट ईस्ट पॉलिसी’ के लिए भी बहुत अहम है। ध्यान रहे कि मोदी सरकार के साथ-साथ मनमोहन सरकार भी इस समझौते की पक्षधर थी। यहीं राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के अखिल भारतीय या राष्ट्रीय हित की दृष्टि बनाम क्षेत्रीय दल के संकीर्ण स्वार्थ का अंतर स्पष्ट हो जाता है। एक अन्य उदाहरण तमिलनाडु की पार्टियों का ले सकते हैं, जिनके रवैये के कारण एक समय भारत और श्रीलंका के रिश्ते में खटास पैदा हो रही थी, योंकि केंद्र सरकारें तमिलनाडु के दलों से अलग विचार रखती थीं। कहने का तात्पर्य है कि क्षेत्रीय दल सीमित दृष्टि की वजह से संकुचित नीतिगत फैसले लेते हैं जो कई बार व्यापक राष्ट्रहित में नहीं होता।

दूसरे, अधिकांश क्षेत्रीय राजनीतिक दल न केवल किसी राज्य विशेष तक सिमटे हैं, बल्कि आमतौर पर किसी खास जातिगत आधार तक भी सीमित हैं। मिसाल के लिए लालू प्रसाद यादव की राजद मुख्य रूप से यादवों की पार्टी है तो बसपा दलितों और उनमें भी जाटवों की पार्टी है। लोकदल जाटों की पार्टी है तो सपा भी मुख्य रूप से यादवों की पार्टी है। इसी तरह से कर्नाटक की जेडी(एस) वोकालिगाओं, टीडीपी कम्मा जाति वालों, अपना दल पटेल कुर्मियों, लोक जनशति पासवान समुदाय की पार्टियां हैं। जाहिर है कि जाति आधारित ये राजनीतिक दल आमजन के हित और राष्ट्रहित से अधिक अपनी-अपनी जातियों के हित की बात ज्यादा सोचेंगे। लोकतंत्र के उत्सव में भागीदारी के वत या हम इसकी अनदेखी कर सकते हैं कि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में से कई परिवार विशेष के कब्जे वाली पार्टियां हैं? राजद, सपा, लोकदल, जेडी(एस), डीएमके, टीआरएस, अकाली दल, इनेलो, लोक जनशति पार्टी, झामुमो जैसी कई पार्टियां हैं, जो इस देश और समाज से ज्यादा अपने परिवार के हित की चिंता करती हैं। यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि इनमें से अधिकांश दल ‘अपनी डफली-अपना राग’ अलापते हुए किसी एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम या एक साझी राष्ट्रीय नीति अपनाने के बजाय अलग-थलग चुनावी मैदान में खड़े होते रहते हैं। जाहिर है कि यह सवाल जनता के सामने उठ खड़ा होता है कि या राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद से परे जाति, परिवार आधारित क्षेत्रीय राजनीतिक दलों पर हम अपना दांव लगा सकते हैं? कुछ क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने भाजपा और कांग्रेस से गठबंधन जरूर किया है और इससे उनके संकुचित दृष्टिकोण पर कुछ लगाम लगेगी, लेकिन इसके लिए भाजपा और कांग्रेस को मजबूती से उभरना होगा।


Date:19-03-19

पहला लोकपाल

संपादकीय

लोकसभा चुनाव की घोषणा के तुरंत बाद नरेन्द्र मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज पिनाकी चंद्र घोष को भारत का पहला लोकपाल नियुक्त करके विपक्ष के हाथ से एक प्रमुख मुद्दा छीन लिया है। हालांकि सरकार के लिए लोकपाल नियुक्त करने का फैसला लेना आसान नहीं रहा होगा। लोकपाल का पद उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार की शिकायत सुनने एवं उस पर कार्रवाई करने वाली एक ताकतवर संस्था है। लोकपाल कानून अपनी प्रकृति और स्वरूप में काफी कठोर है। उसका न्यायिक क्षेत्राधिकार काफी विस्तृत है। लोकपाल पूर्व और वर्तमान प्रधानमंत्री, पूर्व और वर्तमान मंत्री, सांसद और सभी लोकसेवकों के विरुद्ध भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच कर सकता है।

कानून द्वारा प्राप्त उसकी असीम शक्तियां इस संस्था की कमजोरी भी हैं। देश में जो संसदीय परम्पराएं विकसित हुई हैं, उनके लिहाज से प्रधानमंत्री पद की सत्ता सवरेपरि है। आज भारतीय राजनीति जिस तरह ओछी और गर्हित हो गई है, उसमें प्रधानमंत्री से लेकर किसी भी उच्च पदों पर आसानी व्यक्ति के विरुद्ध भ्रष्टाचार का आरोप बहुत आसानी से लगाया जा सकता है। अगर लोकपाल के पद पर किसी राजनीति प्रेरित व्यक्ति की नियुक्ति हो गई तो वह किसी भी सरकार को सुचारु रूप से अपने दायित्वों के निर्वहन में अवरोध बन सकता है। मोदी सरकार इन परिस्थितियों से वाकिफ रही है। यही वजह है कि मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के दबाव और विपक्ष के विरोध के कारण अपने कार्यकाल के आखिरी में फैसला लेना पड़ा है। लोकपाल को टाले रखने के सरकार के सभी बहानों व दलीलों को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज करते हुए फरवरी के अंत तक लोकपाल को नियुक्त करने का निर्देश दिया। लोकपाल की नियुक्ति के लिए चयन समिति की जो बैठक बुलाई गई थी, उसी के साथ ओछी राजनीति भी शुरू हो गई है।

कांग्रेस के मलिकाजरुन खड़गे संसदीय परम्पराओं और नियमावलियों के मुताबिक अधिकृत विपक्ष के नेता नहीं हैं, अत: उन्हें विशेष आमंत्रित सदस्य बतौर बुलाया गया था। लेकिन उनका बैठक-प्रस्ताव को ठुकराना बताता है कि विपक्ष अच्छे कामों में भी सरकार को सहयोग करना नहीं चाहता है। लोकपाल संस्था अभी निर्माण की प्रक्रिया में है। वह किस तरह से कामकाज करेगी, अभी इसका निर्धारण होना है। इसलिए विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों को एक दूसरे को सहयोग करना होगा, वरना लोकपाल नामक संस्था खड़ी भी न हो पाएगी।


Date:19-03-19

A Model Problem

Fall in emigration, and reverse migration from the Gulf, challenge Kerala’s welfare model. The state must find a way

Editorial

Migration trends indicate that the Gulf, which had long funded the Kerala development story, may soon turn out to be a headache if not a nightmare. Economic slowdown in the Gulf countries, state policies favouring replacement of migrants with local labour, influx of workers from Africa and countries such as the Philippines, are forcing a reverse migration that has serious repercussions for Kerala’s economy and society. Fortunately, the rising dollar-rupee exchange rate has prevented a fall in foreign remittances to Kerala, but the return of a large number of migrants, many of them blue collar workers, could squeeze employment and impact consumption and retail trade.

According to the Kerala Migration Survey, 2018, by the Centre for Development Studies, Thiruvananthapuram, overall migration from the state has been showing a negative trend in the last five years. In fact, over the past decade, the number of people migrating to the Gulf has fallen (it stands at 1.89 million in 2018, down from 1.94 million in 2008 after peaking at 20.7 million in 2013) whereas the number of reverse migrants has gone up in the same period. The prolonged slowdown in the Gulf economies since 2008 and visions of a post-oil economy influenced many of these countries to embark on policies such as Nitaqat in Saudi Arabia, which encouraged employment of local labour over migrants. The welfare society built by the Kerala model of development and higher wages, both partly facilitated by remittances, has also worked against migration: Higher wages have turned Kerala labour non-competitive in the Gulf countries and demographic changes, especially population reduction in the migration prone age-group, militate against migration. The state government realises the implications of this trend and has been introducing policies to cushion the impact of the reverse migration.

The state budget in February has proposed new pension, savings and loan schemes for expatriates. Loans, technical advice to start businesses, have been offered to integrate the returning migrants in the local economy. It is too early to say if these steps are sufficient to address the looming crisis. For instance, nearly a quarter of the households in Kerala have a migrant — and 90 per cent of migrants from the state are in Gulf countries — who sends money home. Any large-scale change in the numbers are sure to influence spending patterns at home, and thereby, Kerala’s service economy.

Kerala’s outward migration has co-existed with inward migration of labour from northern and eastern India. Studies indicate that nearly 2.5 million migrants, mainly from West Bengal, Odisha, UP, Bihar, are a part of the workforce in Kerala, mostly doing relatively low-paying jobs. Kerala’s way out of the reverse migration crisis may hinge on the economy expanding to absorb the returnees in the workforce and for the low-skilled among them to compete with the non-Malayali internal migrants.


Date:19-03-19

Lokpal, at last

The establishment of the anti-graft body is a welcome development

EDITORIAL

The selection of Justice P.C. Ghose as the first Lokpal has come after an unjustified delay of five years. Nevertheless, it ought to be welcomed as a milestone in the cause of fighting corruption in high places. The concept of an institutional mechanism, or an anti-corruption ombudsman, has been around for over 50 years. It was finally enacted as a law in 2013, and came into effect on January 16, 2014. Some of the credit for driving this legislation must be given to Anna Hazare’s movement against what many saw as unreasonable levels of corruption under the previous UPA regime. However, since then, barring a report by the Standing Committee of Parliament and a couple of amendments passed in 2016 on the declaration of assets by public servants, there has been very little progress. At one point, the government’s lack of political will to establish a Lokpal became obvious, leading to the Supreme Court repeatedly asking it to show progress in its efforts. Ultimately, it was the court’s stern ultimatum to appoint a Lokpal within a timeframe that worked. The appointment system is quite long, a two-stage process. A search committee has to be formed. It recommends a panel of names to the high-power selection committee, which comprises the Prime Minister, the Speaker of the Lok Sabha, the Leader of the Opposition, the Chief Justice of India (or his nominee) and an eminent jurist. The selection panel has to choose from a short-list consisting of names for the posts of Lokpal chairperson, and judicial and non-judicial members.

The government had initially taken the position that it was awaiting the passage of amendments based on the parliamentary committee report. One amendment pertained to including the leader of the largest party in the Opposition in the selection committee, in the absence of a recognised Leader of the Opposition. In a verdict in April 2017, the Supreme Court rejected the excuse and said there was no legal bar on the selection committee moving ahead even if there was a vacancy. It is not clear why this simple amendment, carried out in respect of selection committees for the posts of CBI Director and Chief Information Commissioner, was not made in the Lokpal Act. The Congress leader in the Lok Sabha, Mallikarjun Kharge, did not want to attend selection committee meetings as a ‘special invitee’ and wanted full membership. Now that the Lokpal has been chosen, victims of corruption have a viable avenue of redress. The Lokpal will take over the work of sanctioning prosecution, besides exercising its power to order preliminary inquiries and full-fledged investigations by any agency, including the CBI. It may be unrealistic to expect any dramatic impact on the lives of the common people, but the Lokpal and other members have a historic responsibility to live up to popular expectations.


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