14-11-2019 (Important News Clippings)

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14 Nov 2019
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Date:14-11-19

Transparent Win

SC’s decision to bring Chief Justice under the RTI Act is a morale booster for the beleaguered law

TOI Editorials

By holding the Chief Justice of India as a public authority falling under the ambit of the Right to Information Act, Supreme Court’s verdict strikes a blow for transparency and accountability. The judgment comes at a time when the RTI Act and the information commissioners overseeing RTI appeals have been weakened by the Centre assuming greater powers in determining their tenure and terms of service. In a way judiciary has restated the salience of the RTI Act, just when the executive seemed intent on devaluing it.

The verdict sets at rest notions that RTI Act provisions pose a threat to judicial independence. SC has accepted the principle that disclosures serve public interest. However, the court also underscored the threats facing the judiciary while noting that RTI Act must not be used to destroy the institution. Therefore the judgment is justified in carving out certain limitations for exercising the Act’s provisions. In recent years, controversies have brought out severe churning within Supreme Court on issues like collegium deliberations, executive interference in judicial appointments and transfers, and CJI’s powers as master of roster in charge of setting up benches.

Given the enormous pressures under which judges work, information commissioners have the two-pronged task of ensuring their orders serve urgent public interest while not impeding the functioning of judges. By embracing transparency despite these recent setbacks, SC has sent out a strong message to other public functionaries. Political parties refuse to come under the RTI Act despite a Central Information Commission ruling in 2013. The claim that parties are not public functionaries is facetious given how they depend on funds collected from the public and exist for serving public interest. The RTI Act’s prescription of proactive disclosure of information should become the credo of every public institution.


Date:14-11-19

नए तथ्यों के मद्देनज़र सरकार बदले अपनी प्राथमिकताएं

संपादकीय

मोदी सरकार को अपनी प्राथमिकताओं पर गौर करने की जरूरत है। प्रचंड बहुमत, फिलहाल चुनाव का दबाव न होना, योजनाओं को जमीन पर लाने के लिए पिछले पांच साल का अनुभव और आगे के निर्द्वंद्व पांच साल। ये तीनों बातें सरकार को अर्थव्यवस्था मजबूत कर बेहतर डिलीवरी के प्रति उत्प्रेरित करती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि तीन तलाक कानून लाना, अनुच्छेद 370 हटाना, राम मंदिर का निर्माण आदि देश में उत्साह का वातावरण बनाते हैं। लेकिन, यह भी सरकार को देखना होगा कि औद्योगिक उत्पादन पिछले आठ साल में न्यूनतम स्तर पर आ गया है। प्रधानमंत्री कार्यालय से संबद्ध आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्ययन के मुताबिक देश की आबादी में अगर 100 लोगों की वृद्धि हो रही है तो नौकरी केवल 50 को मिल रही है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकोनॉमी की रिपोर्ट के अनुसार मनरेगा में काम करने वाले युवाओं का प्रतिशत बढ़ा है, क्योंकि शहरों में नौकरियां कम होने से वे फिर से गांवों को लौट रहे हैं। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि निर्यात के क्षेत्र में चीनी और कुछ मसालों को छोड़कर हर जिंस में जबर्दस्त गिरावट आई है। अर्थशास्त्र का मूल सिद्धांत है कि अगर देश के 67 प्रतिशत वर्ग के हाथ में पैसे नहीं होंगे तो खरीद नहीं होगी, उत्पादन गिरेगा फिर बेरोजगारी बढ़ेगी। अर्थशास्त्री नर्स्क के अनुसार यह कभी न ख़त्म होने वाली शृंखला है। अच्छी नीतियों और सक्षम डिलीवरी मशीनरी के जरिये इस शृंखला को तोड़ा जा सकता। ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार ऐसे प्रयास नहीं कर रही है, लेकिन आज जब अधिकांश राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, मुख्यमंत्रियों को सख्त संदेश देना होगा कि उनका प्रदर्शन, सरयू नदी के तट पर पांच लाख दिये जलाने से या बिहार में तेजस्वी यादव की आलोचना करने से नहीं, बल्कि फसल बीमा योजना पर सही अमल और अपराध नियंत्रण कर नए उद्योगों को बढ़ावा देने से तय होगा। राजनीतिक दलों को और खासकर सत्ताधारी दल को यह समझना होगा कि भावनात्मक मुद्दों की भी एक मियाद होती है। बेटे को नौकरी नहीं मिली और फसल के दाम भी लागत से नीचे रहे तो सशक्तिकरण की खोखली चेतना या मंदिर का अंकोरवाट के तर्ज पर बनाया जाना जनमानस को कुछ समय के बाद बांधकर नहीं रख सकेगा। केंद्र की योजनाएं अच्छी और दूरगामी परिणाम देने वाली हैं, लेकिन उनके अमल में राज्यों की शिथिलता महंगी पड़ सकती है।


Date:14-11-19

सायबर सुरक्षा के लिए हो निर्णायक पहल

कुडनकुलम के नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र में सितंबर में हुए मैलवेयर हमले की पुष्टि ने बढ़ाई चिंता

शशि थरूर , ( पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद)

नेशनल पॉवर कारपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआईएल) ने स्वीकार किया है कि सितंबर में उसके कुडनकुलम नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र पर मैलवेयर हमला हुआ था। इससे साइबर सुरक्षा को लेकर सरकार के लचर रुख के प्रति लोगों की चिंता शायद ही कम हो सके। एनपीसीआईएल ने लोगों को यह आश्वासन देने की कोशिश की कि किसी महत्वपूर्ण सिस्टम पर इसका कोई असर नहीं हुआ है और मैलवेयर ने सिर्फ प्रशासनिक नेटवर्क को ही हिट किया। लेकिन, यह प्रशासन एक नाभिकीय प्लांट का है!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार द्वारा डिजिटल इंडिया की घोषणा के बावजूद उस तंत्र और नेटवर्क को सुरक्षित बनाने के लिए बहुत ही कम काम किया गया, जिस पर देश की डिजिटल अर्थव्यवस्था खड़ी है। अगर इस बयान से कोई बात खड़ी होती है तो उसमें सवाल अधिक और जवाब कम हैं। यह मैलवेयर नाभिकीय संयंत्र के परिसर में कैसे आया और आम इंटरनेट से कटे हुए डिजिटल ढांचे मंे इसका प्रवेश कैसे हुआ? क्या इसने वास्तव में कुडनकुलम संयंत्र को निशाना बनाया था या फिर यह किसी अन्य सायबर हमले के बाद बचे हुए संक्रमण का असर भर था ?

सरकार को इन अहम सवालों के जवाब देने चाहिए –

  • अगर कुडनकुलम जैसे भारतीय रणनीतिक संस्थान को जान-बूझकर निशाना बनाया गया तो कौन सी जानकारी चुराई गई?
  • यह कहना पर्याप्त नहीं है कि संक्रमित सिस्टम प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए उपयोग हो रहा था। क्या इस सिस्टम में पासवर्ड या अन्य ऐसी गोपनीय जानकारियां थीं, जिनसे भविष्य में ऐसे और हमलों के लिए रास्ता बन सकता है?
  • इस घटना से हुए नुकसान को न्यूनतम करने और भविष्य में ऐसे साइबर अटैक को रोकने के लिए सरकार की क्या योजना है?

सूचना तकनीक कानून, 2000 के अनुच्छेद 70-ए के तहत सरकार रणनीतिक महत्व के संस्थानों को ‘महत्वपूर्ण सूचना इंफ्रास्ट्रक्चर’ घोषित कर सकती है और इस आधार पर उन्हें डिजिटल हमलों से बचाने के लिए उनकी घेराबंदी कर सकती है। इस उद्देश्य के लिए नोडल एजेंसी नेशनल क्रिटिकल इन्फार्मेशन इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोटेक्शन सेंटर (एनसीआईआईपी) है। 2017 में तत्कालीन ऊर्जा व कोयला मंत्री पीयूष गोयल ने संसद में घोषणा की थी कि एनसीआईआईपी ने संवेदनशील ऊर्जा संस्थानों को साइबर हमलों से बचाने के लिए कई कदम उठाए हैं। क्या सरकार अब यह बताएगी कि ये कदम क्या थे? हकीकत यह है कि डिजिटल इंडिया की घोषणा के बावजूद इस तंत्र को सुरक्षित बनाने के लिए बहुत ही कम काम हुआ है। यूपीए-II द्वारा 2013 में लागू की गई राष्ट्रीय सायबर सुरक्षा नीति डिजिटल नवाचार के क्षेत्र में आई तेज प्रगति की वजह से पीछे रह गई है। आज सायबर दुनिया में विध्वंसात्मक गतिविधियां करना सस्ता है, जबकि इससे बचना या इसका जवाब देना महंगा है। लेकिन, आज की चुनौतियों से निपटने के लिए इस नीति को संशोधित करने की कोई भी कोशिश अब तक नहीं हुई है। राष्ट्रीय सुरक्षा नीति बनाने पर ‘बीरबल की खिचड़ी’ की तरह लंबे समय से काम चल रहा है, जैसे कि डिफेंस सायबर एजेंसी (डीसीए) के गठन पर हुआ। कहा गया कि इस गर्मी में डीसीए को स्थापित कर दिया है, लेकिन कोई नहीं जानता कि क्या यह वास्तव में मौजूद है ?

यह अभी स्पष्ट नहीं है कि राष्ट्रीय सुरक्षा नीति या डीसीए का असर क्या होगा, क्योंकि मोदी सरकार भारत के रणनीतिक उद्देश्यों के प्रति पहल को लेकर खुद भी दुविधा में और बिना पतवार के है। कुडनकुलम पर सायबर हमला इसका उदाहरण है। यह कथित तौर उत्तर कोरिया के लाजारुस ग्रुप का काम हो सकता है। लेकिन, क्या होगा अगर यह या कोई और सायबर ग्रुप चीन या पाकिस्तान के छद्म प्यादे हों? इस हमले पर भी सफाई एकदम नौकरशाही वाले अंदाज में आई। पहले इस घटना को ही पूरी तरह नकार दिया गया और बाद में यह कहकर इसे स्वीकार किया गया कि महत्वपूर्ण सिस्टम सुरक्षित हैं। जबकि हमले के बड़े उद्देश्य को नजरअंदाज कर दिया गया।

भारत को डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर की किलेबंदी के साथ ही राजनयिक कोशिशें भी करनी चाहिए, ताकि विभिन्न देशों को सायबर स्पेस में संयम बरतने को कहा जा सके। भारत 2016-17 से ही ग्रुप ऑफ गवर्नमेंटल एक्सपर्ट (जीजीई) में सक्रिय भागीदार रहा है। इस ग्रुप के गठन का उद्देश्य सायबर स्पेस में आचरण के प्रति विभिन्न देशों के लिए नियम-कायदे तय करना था, लेकिन इसे सहमति के बिना ही खत्म कर दिया गया। 2015 में जीजीई की रिपोर्ट में विभिन्न देशों से आग्रह किया गया था कि वे अन्य देशों के महत्वपूर्ण ढांचे को निशाना न बनाएं, लेकिन, इन नियमों काे लागू कैसे करना है, यह चुनौतीपूर्ण साबित हुआ। दिसंबर, 2019 से इसे छठी बार पुनर्गठित किया जा रहा है। इस बार इसकी अवधि दो साल होगी। यह इस बात का पता लगाएगी कि सायबर स्पेस में सरकारों और गैर-सरकारी संस्थानों पर अंतरराष्ट्रीय नियम किस तरह से लागू हो सकते हैं। भारत इस ग्रुप का हिस्सा है और उसे अपनी कुशल संस्थाओं का इस्तेमाल करके ऐसी मजबूत रिपोर्ट तैयार करानी चाहिए, जिससे नाभिकीय संयंत्रों समेत महत्वपूर्ण संस्थानों को निशाना बनाने से बचाया जा सके। इन प्रावधानों का तब तक कोई महत्व नहीं जब तक कि उन्हें अंतरिक्ष के इस्तेमाल के समान ही अंतराष्ट्रीय रूप से बाध्यकारी दर्जा न हासिल हो।

आखिर में, इस तरह के किसी भी गंभीर अतिक्रमण को रोकने और ऐसा करने वाले को दंडित करने के लिए भारत को अपनी आक्रामक सायबर क्षमताओं को नियमित रूप से और मजबूत बनाना चाहिए। धैर्य के लिए कहना बहुत अच्छा है, लेकिन एक कहावत है कि ‘अगर आप शांति चाहते हैं तो युद्ध की तैयारी करें’ और यह सायबर युद्ध पर भी लागू होती है। देश की अनेक संस्थाएं भी चाहती हैं कि हमारी सायबर क्षमता बढ़े, लेकिन इसके लिए उच्च स्तर से पहल होनी चाहिए। बहुत कुछ निजी क्षेत्र से प्रतिभाओं की जोड़ने की सरकार की क्षमता पर निर्भर करेगा। इसके लिए तेजी से फैसला लेने की जरूरत है। कुडनकुलम की घटना ने उन सब के लिए खतरे की घंटी बजा दी है, जो देश की सायबर सुरक्षा की चिंता करते हैं। यह समय सरकार के लिए अगली ऐसी किसी भी सायबर सेंध को रोकने के लिए निर्णायक कदम उठाने का है।


Date:14-11-19

राष्ट्रहित में किया आरसेप से किनारा

एफटीए के जरिये आसियान के साथ हमारा व्यापार प्रगति पर है वहीं आरसेप को खारिज करके हमने चीन के संभावित नकारात्मक प्रभाव को खत्म कर दिया है।

अमित शाह , ( लेखक केंद्रीय गृहमंत्री हैं )

भारत ने रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप यानी आरसेप को खारिज कर दिया और इस तरह 4 नवंबर, 2019 की तारीख भारत के व्यापारिक समझौता वार्ताओं के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो गई। आज का भारत अंतरराष्ट्रीय दबाव में झुकने वाला नहीं, बल्कि अपने हितों की रक्षा करने वाला भारत है। पहले के मुकाबले देश में एक नई ऊर्जा का प्रवाह है। इस ऊर्जा के सूत्रधार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। आरसेप प्रस्ताव को नकारने का मर्म प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान में समाहित है, ‘जब मैं सभी भारतीयों के हितों के संबंध में आरसेप समझौते को मापता हूं तो मुझे सकारात्मक जवाब नहीं मिलता है। न तो गांधीजी की नीति (स्वदेशी) और न ही मेरा विवेक मुझे आरसेप में शामिल होने की अनुमति देता है।’

इस निर्णय से मोदी जी ने देश के किसानों, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों, कपड़ा व्यापार, डेयरी और विनिर्माण क्षेत्र, दवा, इस्पात और रासायनिक उद्योगों के हितों की रक्षा की है। उन्होंने बड़ी मजबूती के साथ भारत का पक्ष विश्व के बडे़ नेताओं के समक्ष रखा और तब तक इस समझौते में शामिल नहीं होने का निर्णय लिया जब तक भारत के व्यापारिक घाटे, डंपिंग और अन्य महत्वपूर्ण शर्तों पर सहमति नहीं बन जाती।मेरा मानना है कि भारत को किसी भी ऐसे अंतरराष्ट्रीय करार का हिस्सा नहीं बनना चाहिए जो एकतरफा हो और जिसमें भारत के किसानों और उद्यमियों के हितों से समझौता किया गया हो, मगर बड़े दुख की बात है कि कांग्रेस के नेतृत्व में संप्रग सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के हितों की रक्षा करने में पूरी तरह असफल रही। 2007 में कांग्रेस सरकार ने चीन के साथ क्षेत्रीय व्यापार समझौता यानी आरटीए पर विचार करना शुरू कर दिया था। भारतीय अर्थव्यवस्था को कांग्रेस ने कितना नुकसान पहुंचाया, यह इससे प्रमाणित होता है कि चीन से भारत का व्यापार घाटा उसके कार्यकाल में 23 गुना बढ़ा। 2005 में भारत का यह घाटा 1.9 अरब डॉलर था। वहीं 2014 में यह बढ़कर 44.8 अरब डॉलर हो गया। आप कल्पना कर सकते हैं कि इससे स्थानीय उद्योगों को कितना भारी नुकसान हुआ होगा।

अंतरराष्ट्रीय दबाव में भारतीय किसानों और उद्योगों के हितों से समझौता करना कांग्रेस का इतिहास रहा है। 2013 का बाली समझौता इसका उदाहरण है। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने बाली में हुई डब्ल्यूटीओ बैठक में देश को कृषि सब्सिडी और कृषि उत्पादों को समर्थन मूल्य देने के प्रावधान को कमजोर करने की राह पर डाल दिया। जब 2014 में निजाम बदला तब पीएम मोदी के निर्देश पर तत्कालीन वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने इसे खारिज कर देश के किसानों का भविष्य सुरक्षित किया।

आरसेप में भारत के पक्ष को कमजोर करने के बीज कांग्रेस सरकार में बोए गए थेआरसेप में शामिल होने से व्यापारियों और किसानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता शुरुआती स्तर पर आरसेप में दस सदस्यीय आसियान देशों के अलावा केवल चीन, जापान और दक्षिण कोरिया के शामिल होने की योजना थी, मगर अतिउत्साह की शिकार कांग्रेस सरकार ने आरसेप संबंधी वार्ता को मंजूरी दी जबकि यह स्पष्ट था कि यह चीनी उत्पादों के लिए भारतीय बाजार को खोलने का दरवाजा है। भारत का इन देशों के साथ भारी व्यापार घाटा है, फिर भी कांग्रेस सरकार ने आरसेप में शामिल होना उचित समझा। इसका हमारे छोटे व्यापारियों, दुग्ध उत्पादकों और किसानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना निश्चित था।

इससे पहले कांग्रेस ने राष्ट्रीय हितों को आसियान-एफटीए समझौते में भी दरकिनार किया। भारत ने लगभग 74 प्रतिशत वस्तुओं के लिए अपना बाजार खोलने का निर्णय लिया जबकि इंडोनेशिया और वियतनाम जैसे देशों ने भारत के लिए मात्र 50 प्रतिशत और 69 प्रतिशत तक ही अपना बाजार खोला। इसका नतीजा रहा कि भारत का आरसेप देशों से व्यापारिक घाटा, जो 2004 में सात अरब डॉलर था, 2014 आते-आते 78 अरब डॉलर पहुंच गया।

अपनी खराब नीतियों के चलते कांग्रेस ने आरसेप की शुरुआत में ही कई गलत प्रस्ताव स्वीकार कर लिए थे। 2014 से ही मोदी सरकार ने कांग्रेस की गलतियों को सुधारने का अथक प्रयास किया। तबसे भारत आरसेप समझौता वार्ता में लगातार अपने हितों की रक्षा करता रहा और अपनी तमाम मांगें मनवाईं। जैसे पहली बार सेवा क्षेत्र भारत के लिए खोला गया। इससे भारतीयों के लिए इन देशों मेें रोजगार के अवसर मिलने की राह खुली। भारत को बड़े पैमाने पर अपने उत्पादों के निर्यात का मौका भी मिला। साथ ही निवेश संबंधी प्रस्ताव भी भारतीय मांग के अनुरूप मंजूर किए गए।

आरसेप में शामिल होने के लिए कांग्रेस इतनी अधीर थी कि उसने 2016 तक समझौता लागू होने के अनुमान से यह तय कर लिया कि जो इंपोर्ट ड्यूटी 1 जनवरी, 2014 को लागू थी, उसे ही बेस रेट मान लिया जाए। इसका परिणाम यह होता कि जब भी आरसेप लागू होता तब भारत में जो इंपोर्ट ड्यूटी होती वह इन देशों के आयात पर (जो हमारे घरेलू उद्योगों का संरक्षण करती है) घटकर 2014 के स्तर पर लागू होती। इससे आयात बढ़ता और भारतीय उद्योगों को भारी नुकसान होता।

इस बीच हमारी एक मुख्य मांग यह रही कि मौजूदा हालात को देखते हुए इंपोर्ट ड्यूटी के लिए 2019 को ही आधार वर्ष बनाया जाए। हालिया आरसेप बैठक में प्रधानमंत्री मोदी और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने भारतीय किसानों, डेरी उद्योग, लघु/मध्यम और विनिर्माण उद्योग के हितों को आधार बनाकर भारत का पक्ष मजबूती के साथ रखा। इस वार्ता में राष्ट्रहित से जुड़े तमाम अहम मुद्दे उठाए गए। जैसे टैरिफ डिफरेंशियल में संशोधन, सीमा शुल्क की आधार दर में बदलाव, मोस्ट फेवर्ड नेशन नियम का उन्मूलन, संवेदनशील क्षेत्रों में निवेश को एक विशेष नियम से बाहर रखना, निवेश प्रक्रिया में भारत के संघीय ढांचे के महत्व का सम्मान आदि। वास्तव में इस वार्ता के एजेंडे में शामिल 70 में से 50 बिंदु भारत के थे।

फिलहाल भारत ने आसियान समझौते और दक्षिण कोरिया के साथ सेपा समझौते की समीक्षा शुरू कर दी है। हम जापान, अमेरिका, यूरोपीय संघ और अन्य विकसित देशों के साथ निकट भविष्य में समझौते करने वाले हैं। इनसे देश के किसानों, लघु-मध्यम उद्योगों और विनिर्माण क्षेत्र को भारी लाभ होगा। इससे देश को पांच ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था बनाने में मदद मिलेगी। जहां तक आरसेप का प्रश्न है तो प्रधानमंत्री वैश्विक स्तर पर भारत को जिस तरह स्थापित कर रहे हैं उसे देखते हुए आरसेप में हमारी मांगों की लंबे अर्से तक अनदेखी नहीं की जा सकती। एफटीए के जरिये आसियान के साथ हमारा व्यापार प्रगति पर है वहीं आरसेप को खारिज करके हमने चीन के संभावित नकारात्मक प्रभाव को खत्म कर दिया है।


Date:14-11-19

पारदर्शिता के पक्ष में

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना अधिकार कानून के तहत लाने वाला फैसला राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ा संदेश है।

संपादकीय

देश की सबसे बड़ी अदालत का यह फैसला पारदर्शी प्रशासन के पक्ष में एक बड़ी जीत है कि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय सूचना अधिकार कानून के अधीन होगा। उच्चतम न्यायलय की संविधान पीठ के इस फैसले से स्पष्ट हो गया कि 2010 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह सही निर्णय दिया था कि शीर्ष अदालत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना अधिकार कानून के तहत आना चाहिए। यह निर्णय देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने साफ किया था कि पारदर्शिता से न्यायिक स्वतंत्रता प्रभावित नहीं होती, लेकिन उच्चतम न्यायालय के महासचिव इससे सहमत नहीं हुए और उन्होंने इस फैसले को चुनौती दी। इसकी बड़ी वजह यही रही कि उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय के आदेश से असहमत थे। इस असहमति के चलते एक तरह से खुद उच्चतम न्यायालय मुकदमेबाजी में उलझा। इससे बचा जाता तो बेहतर होता, क्योंकि सूचना के अधिकार को निजता के अधिकार में बाधक नहीं कहा जा सकता।

यह अच्छा नहीं हुआ कि दिल्ली उच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण फैसले पर उच्चतम न्यायालय को मुहर लगाने में नौ साल लग गए। देर से ही सही, इस मामले की सुनवाई कर रही संविधान पीठ इस निर्णय पर पहुंचना स्वागतयोग्य है कि पारदर्शिता और उत्तरदायित्व का निर्वहन साथ-साथ किया जा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि इस पीठ में वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ वे तीन न्यायाधीश भी शामिल थे जो भविष्य में उनके उत्तराधिकारी बन सकते हैं।

चूंकि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय कुछ शर्तो के साथ ही सूचना अधिकार कानून के दायरे में आएगा इसलिए यह देखना होगा कि उससे क्या जानकारी हासिल की जा सकती है और क्या नहीं? यह आशा की जानी चाहिए कि इस फैसले का असर कोलेजियम के कामकाज को भी पारदर्शी बनाएगा। आखिर जब खुद उच्चतम न्यायालय यह मान चुका हो कि कोलेजियम व्यवस्था को दुरुस्त करने की जरूरत है तब फिर उसके कामकाज को पारदर्शी बनाने की दिशा में आगे बढ़ा ही जाना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना अधिकार कानून के तहत लाने वाला फैसला यह एक जरूरी संदेश दे रहा है कि लोकतंत्र में कोई भी और यहां तक कि शीर्ष अदालत के न्यायाधीश भी कानून से परे नहीं हो सकते। बेहतर हो कि इस संदेश को वे राजनीतिक दल भी ग्रहण करें जो इस पर जोर दे रहे हैं कि उन्हें सूचना अधिकार कानून के दायरे में लाना ठीक नहीं। यह व्यर्थ की दलील है। इसका कोई औचित्य नहीं कि राजनीतिक दल सूचना अधिकार कानून से बाहर रहें। राजनीतिक दलों का यह रवैया लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध है।


Date:14-11-19

फैसले से पुष्ट हुई सांस्कृतिक अस्मिता

राम भारतीय सभ्यता और संस्कृति के आधार हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से देश को अपनी राजनीतिक-सांस्कृतिक पहचान मिली है।

प्रदीप सिंह ,(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

जिस देश की आजादी के आंदोलन का लक्ष्य रामराज्य की स्थापना रहा हो, उसी देश में राम के जन्मस्थान के लिए करीब पांच सौ साल संघर्ष करना पड़े तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है? सुप्रीम कोर्ट का अयोध्या फैसला पूरे हिंदू समाज को निराशा और अंधेरे से निकालने वाला है। हिंदुओं के लिए यह मुद्दा जमीन के एक टुकड़े का नहीं है। यह उनकी सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ा हुआ है। राम किसी एक धर्म के नहीं, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के आधार हैं। राम के बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना कठिन है। विवादित भूमि के मालिकाना हक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से क्या हिंदुओं को जमीन का एक टुकड़ा मिला है? जी नहीं। इस फैसले से इस देश को अपनी राजनीतिक-सांस्कृतिक पहचान मिली है। वह पहचान जिसे आजादी के बाद समाजवाद की स्थापना की खातिर विस्मृत कर दिया गया था, जिसे योरपीय और भारत के वामपंथी इतिहासकारों ने एक विकृति की तरह निरूपित किया। भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म की बात करना प्रतिगामी, रूढ़िवादी और धर्मनिरपेक्षता के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा के रूप में पेश किया गया। हिंदू विरोध ही धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी कसौटी बन गई। इससे बहुसंख्यक आबादी के मन में यह बात घर कर गई कि वे अपने ही देश में दोयम दर्जे के नागरिक बन गए हैं।

अयोध्या में जिसने भी नौ नवंबर से पहले रामलला विराजमान के दर्शन किए होंगे, वह कलेजे पर पत्थर रखकर ही लौटा होगा। कुछ इतिहासकारों की नजर में तो शिकागो की विश्व धर्म संसद में कही स्वामी विवेकानंद की बातों की भी कोई अहमियत नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘हिंदू धर्म ने एक धर्म के रूप में दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौम स्वीकार्यता सिखाई है। इसीलिए यहां इतने धर्म आए और सब भारतीय समाज में समाहित हो गए। इस देश ने किसी भी धर्म का विरोध नहीं किया।

राम जन्मस्थली हिंदुओं के लिए एक पावन स्थान है। उसे हिंदुओं को लौटाकर किसी से कुछ छीना नहीं गया, बल्कि इतिहास की उस एक गलती को सुधारा गया है, जो बहुत पहले ही सुधार ली जानी चाहिए थी। कम से कम आजादी के बाद तो यह हो ही जाना चाहिए था। आजादी से पहले तो अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुसलमानों को लड़ाया। उसके बाद भी यह सिलसिला थमा नहीं। 1934 में अयोध्या में हुए दंगे में विवादित ढांचे के गुंबद को नुकसान पहुंचा तो प्रशासन ने उसकी मरम्मत का पैसा हिंदुओं से यह कहकर वसूला कि यह तोड़फोड़ के अपराध की सजा है। 1934 से निकलिए और 1994 में आइए। पीवी नरसिंह राव की सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति को मिले अधिकार का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह बताए कि राम जन्मस्थान-बाबरी मस्जिद के निर्माण के पहले क्या वहां कोई हिंदू मंदिर या कोई हिंदू धार्मिक ढांचा था? सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने बहुमत के फैसले में इस सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक इसका जवाब देना एक पक्ष (हिंदू) की हिमायत करना होगा, जो धर्मनिरपेक्षता के लिए ठीक नहीं है। बात यहीं तक सीमित नहीं रही। बहुमत का फैसला प्रधान न्यायाधीश वेंकटचेलैया और जीएन रे के लिए जस्टिस जेएस वर्मा ने लिखा। उन्होंने लिखा, ‘हिंदुओं को कामचलाऊ मंदिर में पूजा के अधिकार से वंचित किया जाना उचित है, जो उन्हें छह दिसंबर से पहले हासिल था। उन्होंने यह भी लिखा, ‘हिंदुओं को यह सलीब अपने सीने पर लगाकर चलना होगा, क्योंकि जिन शरारती तत्वों ने ढांचे को गिराया, वे हिंदू धर्म के अनुयायी माने जाते हैं। दुनिया के किसी देश में क्या ऐसा संभव है कि बहुसंख्यक समाज अपने सबसे बड़े आराध्य की पूजा से सजा के तौर पर वंचित कर दिया जाए? इसके बावजूद कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने इसी फैसले में माना कि विवादित ढांचे के ध्वंस के लिए पूरे हिंदू समाज को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इस फैसले से ही मुस्लिम पक्ष को यह हक मिला कि वह समय-समय पर जाकर देख सके कि राम जन्मस्थान पर यथास्थिति में कोई बदलाव तो नहीं किया गया? इसका मुस्लिम पक्ष ने कैसा लाभ उठाया, इसका एक उदाहरण रामलला विराजमान के मुख्य पुजारी सत्येंद्र दास जी ने दिया। उनके मुताबिक टेंट के पास तुलसी के दो छोटे पौधे उग आए थे। मुस्लिम पक्षकारों ने उन्हें यह कहकर उखड़वा दिया कि इससे यथास्थिति बदल जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने देश के बहुसंख्यक समाज को यह यकीन दिलाया है कि धर्मनिरपेक्षता की सूली पर हमेशा उसे ही नहीं चढ़ाया जाएगा। फैसले से पहले और फैसले के बाद टेंट में रामलला विराजमान को देखने की लोगों की दृष्टि बदल गई है। रामलला को टेंट में देखकर जो खून के आंसू रोते थे, वे आज उसी टेंट में उन्हें देखने के बावजूद खुश हैं। अब उन्हें लगता है कि रामलला का यह टेंटवास रूपी वनवास जल्द खत्म होने वाला है। फैसले के तीन दिन पहले से मैं अयोध्या में था और दो दिन बाद तक रहा। फैसला कार्तिक के महीने में आया। यह कल्पवास का महीना माना जाता है। देश के तमाम प्रांतों से हजारों भक्त अयोध्या में थे। फैसले के बाद किसी के चेहरे पर हार्दिक खुशी की चमक थी तो किसी के भाव गूंगे के गुड़ की तरह।

वामपंथी इतिहासकारों को समय-समय पर भारत और भारत के बाहर से भी भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म के बारे में उनके पूर्वग्रह का जवाब मिलता रहा है। प्रसिद्ध नाट्य समालोचक विलियम आर्चर ने भारतीय संस्कृति पर आक्रमण करते हुए भारतीय दर्शन, धर्म, काव्य, चित्रकला, मूर्तिकला, उपनिषद, रामायण और महाभारत को अवर्णनीय बर्बरता का घृणास्पद स्तूप कह दिया था। उसका जवाब देने के लिए विख्यात विद्वान एवं तंत्र-दर्शन के व्याख्याता सर जॉन वूड्रॉफ ने ‘क्या भारत सभ्य है? शीर्षक से एक किताब लिखी। उसमें उन्होंने कहा कि भारतीय सभ्यता संकट के दौर से गुजर रही है। इसका विनाश पूरी दुनिया के लिए विपत्तिकारक होगा। पुस्तक का सार यह था कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करना भारत के लिए ही नहीं, पूरी मानव जाति के लिए परम आवश्यक है।

सुप्रीम कोर्ट का अयोध्या फैसला भारतीय सभ्यता की रक्षा की दिशा में उठा बहुत महत्वपूर्ण कदम है। इसे कानूनी दांव-पेंच, जमीन, हिंदू-मुसलमान या हार-जीत के चश्मे से देखना इसकी महत्ता को घटाना होगा। यह फैसला भारतवासियों को एक बार फिर अपनी जड़ों की ओर लौटने का का अवसर देता है। सुप्रीम कोर्ट की अपनी सीमा है। वह इतना ही कर सकता था। अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि इस अवसर का लाभ उठाएं और आगे बढ़ें। क्या और क्यों हुआ, यह सब भूलकर इस पर ध्यान दें कि आगे क्या करना है? यह पीढ़ी भाग्यशाली है कि उसे यह दिन देखने का अवसर मिला। मर्यादा पुरुषोत्तम राम जीवन में उन सब बातों के प्रतीक हैं जो शुभ, सुंदर और नैतिक हैं ।


Date:13-11-19

ई-कचरे के तमाम खतरों से बेपरवाह क्यों हैं हम

पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

जब जहरीले धुएं ने दिल्ली और उसके आस-पास लोगों की सांसों में सिहरन पैदा करना शुरू किया, तो प्रशासन भी जागा और राजधानी से सटे लोनी के सेवाग्राम में पुलिस ने 30 जगह छापा मारकर 100 क्विंटल से ज्यादा ई-कचरा जब्त किया। असल में इन सभी कारखानों में ई-कचरे को सरेआम जलाकर अपने काम की धातुएं निकालने का अवैध कारोबार होता था। इसके धुएं से पूरा इलाका परेशान था। प्रशासन हैरान था कि इतना सारा ई-कचरा आखिर यहां आया कैसे? अब पुलिस के पास ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां इस कचरे को सहेजकर रखा जा सके। डर है कि घूम-फिरकर आज नहीं, तो कल वहीं पहुंच जाएगा, जहां से आया है। यह ऐसा कूड़ा है, जिसके लिए जगह बनाने या रिसाइकिल करने की व्यवस्था हमने अभी तक की ही नहीं है।

एक अनुमान है कि इस साल के अंत तक कोई 33 लाख मीट्रिक टन ई-कचरा जमा हो जाएगा। यदि इसके सुरक्षित निपटारे के लिए अभी से काम नहीं किया गया, तो धरती, हवा और पानी में घुलने वाला इसका जहर जीना मुश्किल कर सकता है। कहते हैं न कि हर सुविधा या विकास की माकूल कीमत चुकानी होती है, लेकिन इस बात का पता नहीं था कि इतनी बड़ी कीमत चुकानी होगी। देश की कारोबारी राजधानी मुंबई से हर साल 1.20 लाख टन कचरा निकलता है, देश की राजनीतिक राजधानी भी बहुत पीछे नहीं है, यहां सालाना 98 हजार मीट्रिक टन ई-कचरा जमा हो जाता है और इसके बाद 92 हजार मीट्रिक टन ई-कचरे के साथ बेंगलुरु तीसरे नंबर पर है। दुर्भाग्य है कि इसमें से महज ढाई फीसदी कचरे का ही सही तरीके से निपटारा हो रहा है। बाकी कचरा इससे जुड़े अवैध कारोबार को आमंत्रित करता रहता है।

गैर-सरकारी संगठन ‘टॉक्सिक लिंक’ की ताजा रिपोर्ट पर भरोसा करें, तो दिल्ली में सीलमपुर, शास्त्री पार्क, तुर्कमान गेट, लोनी, सीमापुरी सहित कुल 15 ऐसे स्थान हैं, जहां पूरे देश का ई-कचरा पहुंचता है और वहां इसका गैर-वैज्ञानिक व अवैध तरीके से निस्तारण होता है। इसके लिए बड़े स्तर पर तेजाब का इस्तेमाल होता है, जो वायु प्रदूषण के साथ ही धरती को बंजर करता है और यमुना को जहरीला बनाता है।

पुराने टीवी और कंप्यूटर मॉनिटर की पिक्चर ट्यूब रिसाइकिल नहीं हो सकती। इसमें लेड, मरक्युरी, कैडमियम जैसे घातक पदार्थ होते हैं। इसके साथ ही हम अगर बैटरियों व मोबाइल फोन के कचरे को भी जोड़ लें, तो निकिल, कैडमियम और कोबाल्ट जैसे तत्व भी इस कचरे में अपनी भूमिका निभाने आ जाते हैं।

कैडमियम से फेफड़े प्रभावित होते हैं, जबकि कैडमियम के धुएं व धूल के कारण फेफड़े व किडनी, दोनों को गंभीर नुकसान पहुंचता है। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा सीसा और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है। ये सारे पदार्थ जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। इनका अवशेष पर्यावरण के विनाश का कारण बनता है। इसमें से अधिकांश सामग्री गलती-सड़ती नहीं है और जमीन में जज्ब होकर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने के अलावा भूजल को जहरीला बनाने का काम करती है। इन रसायनों का एक अदृश्य भयानक सच यह है कि इसकी वजह से पूरी खाद्य शृंखला बिगड़ रही है।

वैसे तो केंद्र सरकार ने 2012 में ई-कचरा (प्रबंधन और संचालन) कानून लागू किया है, लेकिन इसमें दिए गए दिशा-निर्देश का पालन होता कहीं दिखता नहीं है। मई 2015 में ही संसदीय समिति ने देश में ई-कचरे के चिंताजनक रफ्तार से बढ़ने की समस्या को देखते हुए इस पर लगाम लगाने के लिए विधायी तंत्र स्थापित करने की सिफारिश की थी, पर इस दिशा में ज्यादा प्रगति नहीं दिख रही।

ऐसा नहीं कि ई-कचरा महज आफत है। झारखंड के जमशेदपुर स्थित राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला के धातु निष्कर्षण विभाग ने ई-कचरे में छिपे सोने को निकालने की सस्ती तकनीक खोजी है। इसके माध्यम से एक टन ई-कचरे से 350 ग्राम सोना निकाला जा सकता है। समाचार यह भी है कि अगले ओलंपिक में विजेता खिलाड़ियों को मिलने वाले मेडल भी ई-कचरे से बनाए जा रहे हैं। जरूरत यह है कि कूडे़ को गंभीरता से लिया जाए, उसके निस्तारण की गंभीरता को समझा जाए।


Date:13-11-19

Swachh Bharat In The City

Urban areas require a different approach to end open defecation

Himanshu Gupta , [ The writer is secretary, planning and investment, Government of Arunachal Pradesh.]

The Swachh Bharat Mission is being executed by two different ministries — the Ministry of Drinking Water and Sanitation for rural areas and the Ministry of Housing and Urban Affairs for urban areas. In the rural areas, the major challenge was to change the mindset of the populace so that they would start using household toilets rather than defecate in open areas. As majority of the households did not have toilets in their homes, the main component of Swachh Bharat Mission (Grameen) was to construct household latrines and to focus on information, education and communication (IEC) activities. The need for a dedicated sewerage network is less in rural areas as the toilets are connected with in-house soak pits. Domestic waste in rural areas is also managed in a much better manner as it is segregated at the household level and a majority of it is used in the fields. Thus, improving the cleanliness level in a rural area is much less complex than in an urban set up.

An urban area faces two major challenges — disposal of solid waste and sewerage/liquid waste. Disposal of solid waste has three key components. First, waste collection, then transfer of the waste, and lastly, proper disposal at the landfill site. The task of waste collection and its transfer to the landfill site requires both manpower as well as an efficient transportation system. The segregation of waste can either be at the source or at the landfill. Segregation at source is more economical. At the landfill, it is done by either using high-end segregation plants or manual conveyors.

In most urban areas, disposal of solid waste is primarily the responsibility of municipalities. However, these municipalities are not equipped with the manpower, financial resources and technology for the task. Most of them are dependent upon the state governments for resources. These municipalities do not have sufficient human resources in terms of engineers or sanitation staff to manage the waste. Landfill site management is very poor due to lack of technical know-how.

The second challenge is to manage sewerage in urban areas. Merely constructing toilets cannot solve the problem as these areas require proper sewerage network. The soak pit system that works in rural areas cannot work in urban areas due to a space crunch and increasing population density. The job of laying the sewerage network is again distributed between the state’s public health engineering department and the municipalities.

If we look at strategy adopted by the Swachh Bharat Mission (Urban), its main focus is on the construction of individual household toilets, community toilets, public urinals and IEC activities. The funds earmarked for solid waste management are minimal. Similarly, there is limited provision of funds for laying the sewerage networks. The strategy used for Swachh Bharat Mission (Grameen) will not yield results in the urban mission.

Hence, there is a need for revamping the Swachh Bharat Mission (Urban) wherein the focus is on solid waste and sewer management. The ministry must ask the state governments to assess their capabilities in waste handling. Recurring funds must be provided for collection of waste and its disposal. A window may be given to municipalities for upgrading their capabilities to augment their revenue collection. Separate funds must be given for the development of landfill sites. Best possible practices for waste collection across key cities must be studied and emulated.

Adopting a piecemeal approach for constructing toilets and litter bins will not solve the systemic issue of waste disposal in cities. Unless we are able to lift the waste from the streets systematically, cleanliness will not have any meaning. The success of the Swachh Bharat Mission depends not only on changing the mindset, but, also on changing in the way waste is disposed of by the municipalities and the state governments.


 

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