13-11-2019 (Important News Clippings)

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13 Nov 2019
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Date:13-11-19

अलग होता है वोट और विधायिका का बहुमत

संपादकीय

कई दिनों की जद्दोजहद के बाद भी महाराष्ट्र में सरकार नहीं बन सकी और राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा। दशकों से जिनके बीच नाभि-नाल बद्धता वाला रिश्ता था, वह सत्ता-लोलुपता की वजह से जुदा हो गए और जो सत्ता के लिए मिलने जा रहे थे, वे दशकों से नहीं अभी दो हफ्ते पहले तक एक-दूसरे की लानत-मलानत करते हुए जनता से वोट मांगते रहे। जनता ने इस सरकार के लिए तो वोट नहीं दिया था।

ऐसी सरकार शायद उसके तसव्वुर में भी नहीं रही होगी। भारत के प्रजातंत्र में कहने को तो बहुमत का शासन होता है, लेकिन वह बहुमत विधायिकाओं में संख्या के आधार पर होता है। लिहाज़ा, वोट का बहुमत और विधायिका में बहुमत में फर्क हो जाता है। जनमत का चीर-हरण होता है और वह भी संविधान का अनुपालन करते हुए, क्योंकि लिखा हुआ है लोकसभा या विधानसभा में बहुमत ही सरकार का आधार है। पहले कर्नाटक में और तमाम अन्य राज्यों में।

क्या भारतीय प्रजातंत्र वास्तव में प्रजा का तंत्र है? क्या हम मात्र राजनीतिक वर्ग को बुरा-भला कहकर बच सकते हैं? क्या जब हम जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाई-भतीजावाद से प्रभावित होकर वोट करते हैं तो कभी सोचते हैं कि हमने जिसे दो दिन पहले अपना रहनुमा चुना था उसे ‘रिसोर्ट’ में ‘आराम’ फरमाने के लिए इस डर से छोड़ा जाएगा कि वह पैसा-पद के लालच में पाला न बदल दे यानी आपकी भावना उसकी लालसा के वेदी पर दम तोड़ दे?

चूंकि सत्ता के खेल में लगा व्यक्ति या उससे बनी पार्टी यह कमजोरी जानती है, इसीलिए कोई यादव का, तो कोई दलित का, कोई पाटीदार का, कोई मुस्लिम का और कोई हिंदू का रहनुमा बनने का स्वांग करने लगता है। दलितों की रहनुमा मायावती किसी महारानी की तरह जीवन जीती हैं और भ्रष्टाचार के आरोप में सजा काट रहे लालू यादव का बेटा किसी व्यापारी के चार्टर्ड विमान में अपना जन्मदिन मनाता है तो भी उनका वोटर उन्हें वोट देता है।

अंग्रेज़ शासकों और राजनीति शास्त्र के पंडितों ने आगाह किया था कि भारत में ब्रितानी ‘वेस्टमिंस्टर मॉडल’ न लाएं, क्योंकि इसकी सफलता के लिए परिपक्व, वैज्ञानिक और तार्किक सामूहिक चेतना की ज़रूरत होती है। आज विकास-विहीन उत्तर प्रदेश और बिहार इस प्रयोग की असफलता के सबूत हैं।


Date:13-11-19

खुशहाली के नए दौर की शुरुआत संभव

विराग गुप्ता, (सुप्रीम कोर्ट के वकील)

अयोध्या मामले में फैसला देने वाले पांच जजों की पीठ के मुखिया और मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने कुछ दिनों पहले एक व्याख्यान में कहा था कि लोग खुशहाल रहें तो मुकदमेबाजी कम हो सकती है। कुछ आलोचकों ने नुक्ताचीनी करते हुए फैसले में आस्था, तर्क, प्रमाण और कानून के घालमेल का आरोप लगाया है। लेकिन, राष्ट्रीय स्तर पर इस फैसले पर व्यापक सहमति और स्वीकार्यता से यह माना जा सकता है कि अब देश में मंडल-कमंडल युग का अंत और खुशहाली के नए दौर की शुरुआत हो सकती है। यदि कोई पुनरावलोकन याचिका दायर भी हुई तो सर्वसम्मति से दिए गए फैसले में बदलाव की कोई उम्मीद नहीं दिखती। अनेक पौराणिक ग्रंथ, पुरातात्विक प्रमाण और विदेशी यात्रियों के अध्ययनों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्मभूमि के हक में फैसला दिया है। दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद के पैरोकारों के पास अनेक कानूनी तर्क तो थे, लेकिन मस्जिद के पक्ष में ऐतिहासिक आस्था या महात्म्य का कोई भी प्रमाण सामने नहीं आया। मद्रास हाईकोर्ट के नए मुख्य न्यायाधीश शाही ने स्वागत समारोह के दौरान कहा कि जजों को दिमाग के साथ दिल से भी फैसला देना चाहिए। पांच जजों ने सर्वसम्मति से राम मंदिर के पक्ष में फैसला देकर सबसे पुराने न्यायिक विवाद का अंत और जनता के दिलों को जीतकर पंचपरमेश्वर को सार्थक कर दिया।

अदालतों की चौखट के बाद यह मामला अब सरकारी फाइलों में नहीं अटकना चाहिए। मंदिर निर्माण के लिए तीन चरणों में काम करना होगा। केंद्र सरकार को अगले तीन महीने में मंदिर निर्माण हेतु नए ट्रस्ट का गठन और सदस्यों का मनोनयन करना होगा। अदालत के फैसले के अनुसार निर्मोही अखाड़े के साथ उन सभी लोगों को ट्रस्ट में स्थान मिलना चाहिए, जिससे राम मंदिर एक वैश्विक मिसाल बन सके। दूसरे चरण में विवादित भूमि और आसपास की अधिग्रहित भूमि को ट्रस्ट के पक्ष में हस्तांतरित किया जाएगा। संसद के कानून के अनुसार सभी भूमि मालिकों को बाज़ार दर के अनुसार समुचित मुआवजा मिलना चाहिए, जिससे मंदिर निर्माण में अब नई बाधाएं पैदा न हो सकें। देश के अन्य प्रमुख मंदिरों में अधिकांशतः राज्य सरकारों की भूमिका है, क्योंकि भूमि के मामले पर राज्यों का संवैधानिक अधिकार है, परंतु राम मंदिर में केंद्र सरकार की बड़ी भूमिका रहेगी, इसीलिए इसे राष्ट्रीय मंदिर बनाने का प्रयास होना चाहिए। उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगने की वजह से केंद्र सरकार ने संसद के 1993 के कानून के माध्यम से विवादित स्थान और उसके आसपास की भूमि का अधिग्रहण कर लिया था। फैसले के अनुसार मस्जिद हेतु पांच एकड़ भूमि को केंद्र सरकार द्वारा अधिग्रहित कुल 67 एकड़ भूमि से दिया जा सकता है। अन्यथा अयोध्या के महत्वपूर्ण स्थान पर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मस्जिद के लिए भूमि का आवंटन करना होगा। जमीन का इतना बड़ा प्लाट यदि पुरानी अयोध्या में उपलब्ध नहीं हुआ तो इसे सरयू नदी के पार आवंटित किया जा सकता है। कुछ मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा वैकल्पिक भूमि लेने से इनकार किया जा रहा है पर इस बारे में आखिरी निर्णय सुन्नी वक्फ बोर्ड को लेना है। कई प्रगतिशील मुस्लिमों ने प्रस्तावित नई भूमि पर अस्पताल या शिक्षण संस्थान बनाने की मांग की है। केंद्र और राज्य सरकार द्वारा मंदिर और मस्जिद के लिए एक साथ भूमि का आवंटन किया जाए तो अवध क्षेत्र और भारत में सही मायनों में गंगा-जमुनी संस्कृति के साथ राम-रहीम के भाव को बल मिलेगा। तीसरे चरण में नए ट्रस्ट द्वारा मंदिर निर्माण की शुरुआत होगी, जिसके लिए नए ट्रस्ट द्वारा ठोस कार्ययोजना देश की जनता के सामने रखी जानी चाहिए।

इस फैसले में देवता को न्यायिक व्यक्ति के दर्जे की मान्यता की पुष्टि के बाद अन्य धार्मिक स्थलों पर विवाद की बात कही जा रही है। लेकिन, संसद ने धार्मिक स्थलों की स्थिति और दर्जे को सुरक्षित रखने के लिए 1991 में पहले ही कानून बनाया हुआ है, इसलिए ऐसी आशंकाएं गैरवाजिब हैं। पूरे भारत के जनमानस में व्याप्त राम की जन्मभूमि के मामले की अन्य धार्मिक स्थानों के साथ तुलना भी नहीं की जा सकती। दरअसल आजादी के बाद अनेक अन्यायकारी पहलुओं को गलत तरीके से धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक बनाए जाने पर बहुसंख्यक जनमानस में आक्रोश था। इस फैसले के बाद उभरे राष्ट्रीय सहमति के स्वरों से यह उम्मीद जागती है कि अब वास्तविक अर्थों में देश में धार्मिक समरसता और सौहार्द का विकास हो सकेगा।

आजाद भारत में अयोध्या मामले में पहला न्यायिक सूट जनवरी 1950 में दायर हुआ था। दिलचस्प बात यह है कि फैसला देने वाले पांचों जजों का जन्म उसके बाद हुआ है। संविधान के अनुच्छेद 21 में लोगों को जल्द न्याय का अधिकार है। दो शताब्दियों तक प्रशासन और अदालतों के धक्के खाते राममंदिर मामले में फैसले के बाद अब जनमानस की पीड़ा को भी समझने की जरूरत है। अदालत से पूजा का अधिकार मांगने वाले गोपाल सिंह विशारद और ‘रामलला विराजमान’ की तरफ से सन 1989 में मुकदमा दायर करने वाले रिटायर्ड जज देवकीनंदन अग्रवाल बहुत पहले स्वर्गवासी हो गए। अनेक सालों की सुनवाई के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जमीन को तीन हिस्सों में बांटकर एक नई अन्यायपूर्ण स्थिति पैदा कर दी थी। इसी तर्ज़ पर आम जनता के मामलों में पहले तो समय से फैसला नहीं आता और जब आता है तो सार्थक न्याय नहीं मिलता। सुप्रीम कोर्ट में दस साल लटके रहने के बाद सिर्फ दो महीनों में इस मामले के निपटारे से जाहिर है कि करोड़ों लंबित मुकदमों के जल्द निपटारे के लिए, जजों की दृढ़ इच्छाशक्ति काफी है। अपने ही पुराने फैसले पर अमल करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा यदि राम मंदिर मामले की कार्यवाही और फैसले का सीधा प्रसारण किया जाता तो पारदर्शिता बढ़ने के साथ ही अदालती कैंपस में अराजक भीड़ से भी बचा जा सकता था। स्वामी विवेकानंद के सपनों के विश्वगुरु भारत में बनाए जाने वाले प्रस्तावित राम-मंदिर के माध्यम से, यदि प्रशासन और अदालतों का सिस्टम भी सुधर जाए, तो देश में सही अर्थों में खुशहाली और रामराज्य आएगा।


Date:13-11-19

समझौतों का लाभ लेने के लिए तैयार हो भारत

हर्ष वी पंत, (प्रो. इंटरनेशनल रिलेशन्स, किंग्स कॉलेज, लंदन)

इस साल की आसियान बैठक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) समझौते को नकारने के लिए याद की जाएगी। इस बैठक में आसियान के 10 सदस्य देशों के साथ ही उसके छह मुक्त व्यापार सहयोगी, चीन, भारत, दक्षिण कोरिया, जापान, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया शामिल थे। बैंकॉक में आरसीईपी की बैठक में मोदी ने कहा कि भारत शुरुआत से ही इसके साथ शामिल है, लेकिन समझौते का ड्राफ्ट आरसीईपी की मूल भावना और तय सिद्धांतों को पूरी तरह प्रतिबिंबित नहीं करता है। और तो और यह भारत के लंबित मुद्दों और चिंताओं का भी वाजिब समाधान नहीं करता है। आरसीईपी पर बातचीत 2012 में शुरू हुई थी और इस साल इसे अंतिम रूप देने का भारी दबाव था। भारत द्वारा इसे नकारने के बाद बचे हुए 15 देशों ने इस पर आगे बढ़ने का फैसला किया और अगले साल किसी समय इस व्यापार समझौते पर दस्तखत करने का इरादा जाहिर किया है। साथ ही भविष्य में किसी भी समय भारत के इसमें शामिल होने का रास्ता भी खुला रखा है।

अमेरिका से व्यापार के मसले पर तनाव की वजह से चीन चाहता था कि आरसीईपी एक सफल मुकाम पर पहुंच जाए। वह इसके लिए जबरदस्त तरीके से कोशिश भी कर रहा था। लेकिन, यहीं पर भारत के लिए समस्या थी। भारत की मांग थी कि आरसीईपी में टैरिफ में कटौती के लिए आधार वर्ष को 2014 की बजाय 2019 किया जाना चाहिए, ताकि चीन से बड़ी मात्रा में होने वाली आयात वृद्धि को रोका जा सके। इसके अलावा चीन से डंपिंग को रोकने व समझौतों में बेहतर सेवाओं के लिए भारत कड़े कानून चाहता था। लागत और लाभ का अनुमान लगाने के लिए चीन फैक्टर भारत के लिए प्रमुख था। आरसीईपी के इन 15 देशों में से 11 के साथ भारत का कुल 105 अरब डॉलर का व्यापार घाटा है और इसमें से 53 अरब डॉलर अकेले चीन के साथ है। चीन अपने निर्माण उद्योग के लिए भारत के बाजार में बड़ी पहुंच चाहता है और भारत अपने उद्योगों और किसानों को चीनी आयात से बचाना चाहता है।

घरेलू स्तर पर भी इस समझौते का विरोध हो रहा था। किसान, डेयरी उद्योग और कॉरपोरेट सेक्टर इसके खिलाफ थे। सात साल पहले आरसीईपी वार्ता में शामिल होने का फैसला करने वाली कांग्रेस भी अब इसके खिलाफ थी। भारतीय अर्थव्यवस्था में हो रही मुश्किलों ने सरकार की समस्याओं को और बढ़ा दिया था। अगर वैश्विक बातचीत दो स्तरीय खेल था तो भारत को दोनों ही स्तरों से गंभीर चुनौती मिल रही थी, जिस वजह से इस समझौते को नकारना जरूरी हो गया था। अगर यह समझौता हो जाता तो दुनिया की आधी आबादी, 40 फीसदी व्यापार और 35 प्रतिशत जीडीपी के साथ आरसीईपी दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र होता। भारत इसमें तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होता। भारत के बिना आरसीईपी उतना आकर्षक व्यापार समझौता नहीं रह गया है। इसलिए यह चौंकाने वाला नहीं है कि भारत के बिना आरसीईपी पर आगे बढ़ने को लेकर आसियान में भी मतभेद उभर आए हैं। भारत द्वारा आरसीईपी से अलग रहने के फैसले से निश्चित तौर पर क्षेत्र में भारत की लंबी योजना को लेकर चिंता हो रही है। अगर, भारत ने क्षेत्र में अपनी भूमिका को फिर से बनाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया तो नई दिल्ली की पूरी हिंद-प्रशांत नीति पर ही सवाल उठ सकते हैं।

भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक तौर पर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन अब दबदबा कायम करने को तैयार दिख रहा है और यह पूरे क्षेत्र व भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है। यही वजह है कि जापान कह रहा है कि वह ऐसे समझौते के लिए काम करेगा, जिसमें भारत भी शामिल हो। चीन द्वारा जल्द समझौते के दबाव के बावजूद जापान के वाणिज्य मंत्री हिरोशी काजीयामा ने दो टूक कहा कि टोक्यो चाहता है कि भारत सहित सभी 16 देश किसी समझौते पर पहुंचे और वे इसके लिए भूमिका निभाना चाहते हैं। आर्थिक तौर पर अलग-थलग रहना भारत के लिए भी कोई विकल्प नहीं है, इसीलिए वह द्विपक्षीय समझौतों की ओर बढ़ रहा है। भारत को इस तरह के समझौतों का लाभ लेने के लिए खुद को पूरी तरह तैयार करना होगा। घरेलू सुधार वक्त की जरूरत है। भारत को ऐसी रणनीति की जरूरत है, जो उसकी कूटनीतिक सोच के आर्थिक व राजनीतिक पहलुओं को साथ ला सके। आरसीईपी को नकारकर भारत ने संकेत दे दिया है कि हर कीमत पर राजनीतिक और आर्थिक रूप से चीन के उभार से निपटेगा। पूर्व और दक्षिण-पूर्व एशिया के बाकी देश भारत के कदम का कैसा जवाब देते हैं, उससे ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन का भविष्य निर्धारित होगा।


Date:13-11-19

पूर्वाग्रहों से मुति के लिए पुनर्जागरण की जरूरत

रामिश सिद्दीकी

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले से सदियों पुराने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को सुलझा कर देश में सांप्रदायिक सौहार्द की एक मजबूत नींव रख दी है। शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार को मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट स्थापित करने और मस्जिद के लिए वैकल्पिक भूमि आवंटित करने का आदेश दिया है। देखा जाए तो यह विवाद हमारे समय के सबसे तल्ख मुद्दों में से एक था जिसका अब अंत हो गया है। उमीद की जानी चाहिए कि मुस्लिम समुदाय इससे सबक लेगा और सामाजिक सद्भाव कायम करने में आगे बढ़कर अपनी भूमिका निभाएगा। दरअसल 1947 में धर्म के आधार पर भारतीय उपमहाद्वीप का विभाजन तमाम गहरे जम छोड़ गया था। हमारे स्वतंत्रता संग्र्राम के दौरान हिंदू और मुस्लिम, दो ऐसे समुदाय थे जो एक-दूसरे के बहुत करीब थे और कंधे से कंधा मिलाकर चलते थे, लेकिन विभाजन के बाद प्रेम, सद्भाव और भाईचारे जैसी भावनाएं नाराजगी, अविश्वास और संदेह में बदल गई थीं। विभाजन के लगभग चार दशक बाद राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ने तो जैसे दोनों समाजों के बीच विभाजन की खाई को और चौड़ा कर दिया। हालांकि मुस्लिम नेता इसे सद्भाव बहाल करने के लिए दूसरे ऐतिहासिक अवसर के रूप में ले सकते थे। मगर ऐसा नहीं हुआ। बेहतर होता कि उन्हें शुरू में ही मंदिर निर्माण के प्रस्ताव को पूरी ईमानदारी से स्वीकार कर मस्जिद को स्वयं स्थानांतरित करने का सुझाव देना चाहिए था, लेकिन ऐसा सोच पाना जैसे उनकी बुद्धिमता के परे था। इस्लामिक देशों में ऐसे पर्याप्त उदाहरण हैं जहां मस्जिदों को स्थानांतरित कर दिया गया है। मुस्लिम देश इस फॉर्मूले को पहले ही अपना चुके थे जो अपनी अर्थव्यवस्था की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने यहां स्थित मस्जिदों को स्थानांतरित कर रहे थे। धर्म एक ऐसा अनुशासन है जो अपने अनुयायियों को समाज का एक शांतिपूर्ण सदस्य बनने का संदेश देता है, लेकिन इसके विपरीत धर्म को हमेशा एक विभाजनकारी शति के रूप में देखा गया। मैने यह बात कुछ वर्ष पहले भी कही थी कि भारतीय मुस्लिम नेतृत्व समूचे अयोध्या प्रकरण में मुस्लिम समुदाय के विचारों को एक सकारात्मक ढांचा नहीं दे पाया। समुदाय के नेताओं को अतीत से बाहर आकर देश को विकास की दिशा में आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए थी। इसके बजाय वे नकारात्मक भावनाओं में जकड़े रहे और अपने दिलों में नाराजगी को रखते हुए अपनी संपूर्ण शति को नकारात्मक दिशा में लगाते रहे। एक राष्ट्र अपनी संस्कृति, समाज, आस्था और इतिहास का एक सिमश्रण होता है। संस्कृति और इतिहास का संरक्षण और किसी धर्म या आस्था में विश्वास किसी भी समाज के अस्तित्व के दो अलग- अलग पहलू हैं। उदाहरण के लिए अरब देशों ने अपने इतिहास को पुनस्र्थापित करने के लिए पिछले कुछ वर्षों से भारी निवेश करना शुरू कर दिया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने अपना धर्म त्याग दिया है। मैं एक बार संयुत अरब अमीरात के शहर दुबई में एक बहु-सांस्कृतिक कार्यक्रम में गया था जहां मैंने मिस्न के हॉल का दौरा किया था। मुझे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ था कि एक मुस्लिम देश होने के बावजूद मिस्न अपनी इस्लाम से पूर्व की संस्कृति को विश्व के सामने लाने में बिल्कुल पीछे नहीं था, बल्कि वह इस्लाम पूर्व की संस्कृति को अपना अभिन्न अंग मानता है। यह हमारे लिए भी एक सीख थी। मिस्न का इतिहास किसी से छिपा नहीं है। ‘मुस्लिम ब्रदरहुड जैसा कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन मिस्न की जमीन पर ही पनपा है, लेकिन ऐसा हिंसक संगठन भी मिस्न को अपने इतिहास एवं संस्कृति का समान करने से नहीं रोक पाया। भारतीय मुसलमानों के लिए भी यह जरूरी है कि वे इस देश का नागरिक होने के कारण यहां के विकास और भारत की प्राचीन संस्कृति के संरक्षण में सकारात्मक भूमिका निभाएं। भारत हमेशा से आध्यात्मिकता और आत्मज्ञान का जन्मस्थान रहा है। एक भारतीय के रूप में हमारे लिए आवश्यक है कि हम स्वयं को बेहतर बनाते हुए एक-दूसरे की आस्थाओं का समान भी करें। मुस्लिम समुदाय के चंद नेताओं ने न सिर्फ सामाजिक ताने-बाने को, बल्कि इस भावनात्मक मुद्दे पर आम आदमी की भावनाओं को भी काफी नुकसान पहुंचाया है। वर्तमान समय में भारत के मुस्लिम युवाओं के लिए अब बहुत आवश्यक हो गया है कि वे समुदाय के इन नेताओं का अंधानुकरण बिल्कुल न करें। उनके लिए जरूरी है कि वे अपनी सोच और ताकत को देश निर्माण के सकारात्मक कार्यों में लगाएं। मध्यकालीन यूरोप में जब धार्मिक व्यतियों द्वारा बौद्धिक उत्पीडऩ अपने चरम पर था और इतिहास को धीरे-धीरे मिटाया जा रहा था तब वहां चंद लोगों ने एक शांतिपूर्ण आंदोलन छेड़ा जिसे विश्व ‘पुनर्जागरण के नाम से जानता है। यह एक ऐसा आंदोलन था जिसने न सिर्फ उनके जीवन को, बल्कि पूरे विश्व को एक नई दिशा दी।

पुनर्जागरण ने मानवता को आधुनिक सभ्यता के मार्ग पर आगे बढ़ाया। उसका परिणाम आज हम देख रहे हैं,जो केवल एक समाज या एक देश तक सीमित नहीं है, बल्कि समस्त मानवजाति तक पहुंचा है। पुनर्जागरण ने यूरोपीय लोगों की सोच को हमेशा के लिए बदल दिया। जो लोग स्वयं अंधकार के दलदल में धंस चुके थे, उन्होंने अपनी इच्छाशति से पूरी दुनिया की खोज कर डाली। भारतीय मुस्लिम समुदाय को आज एक ऐसे ही बौद्धिक पुनर्जागरण की जरूरत है, ताकि वे दशकों से फंसे पूर्वाग्रहों की गहराइयों से बाहर निकल सकें, लेकिन इस तरह के आंदोलन की शुरुआत तब होती है जब हम जानते और मानते हैं कि अतीत में हमसे या गलतियां हुई हैं। कोई भी व्यति या समाज इतिहास में वापस जाकर उसे दोबारा नहीं लिख सकता है, लेकिन एक कार्य हम सब निश्चित रूप से कर सकते हैं। और वह है कि हम इतिहास से सबक लें, ताकि हम आने वाली पीढिय़ों के लिए एक बेहतर भविष्य का निर्माण करने में कामयाब हो सकें। एक राष्ट्र का सबसे बड़ा संसाधन उसके लोग होते हैं। यह स्वाभाविक है कि किसी भी राष्ट्र को विकास की राह पर आगे बढ़ाने के लिए वहां के नागरिक अपने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखें।


Date:12-11-19

तूफान से तबाही

संपादकीय

चक्रवाती तूफान ‘बुलबुल’ ने रविवार को पश्चिम बंगाल के बड़े हिस्से और बांग्लादेश के तटीय इलाकों में जिस तरह से कहर बरपाया है, उससे राज्य के आपदा प्रबंधन की पोल खुल गई है। ऐसा नहीं है कि यह चक्रवाती तूफान कोई अचानक आया हो, इसके बारे में मौसम विभाग पहले से ही संकेत दे चुका था। लेकिन समय रहते उन इलाकों को खाली नहीं कराया गया जहां तूफान से सबसे ज्यादा तबाही हुई है। अभी तक दस लोगों के मारे जाने की खबर है, लेकिन बेघरों की संख्या लाखों में है। सबसे ज्यादा तबाही तो दक्षिण चौबीस परगना जिले में हुई है, जहां मछुआरों की एक पूरी बस्ती ही तूफान में उड़ गई।

इस चक्रवात ने राज्य के नौ जिलों को अपनी चपेट में ले लिया। ज्यादा तबाही इसलिए भी हुई कि तूफान शनिवार देर रात आया और रविवार तड़के उसने उग्र रूप धारण कर लिया। इसलिए रात को लोग बचाव के लिए कोई उपाय भी नहीं कर पाए। पश्चिम बंगाल में इस साल मई में तूफान ‘फनी’ आया था और तब भी भारी नुकसान हुआ था। तटीय राज्य होने की वजह से पश्चिम बंगाल को बंगाल की खाड़ी में उठने वाले तूफानों का अक्सर सामना करना पड़ता है। ऐसे में सवाल उठता है कि राज्य में आपदा प्रबंधन के पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किए जाते?

इस वक्त तूफान पीड़ित जिलों में हालात खराब हैं और बड़े पैमाने पर राहत कार्यों की जरूरत है। पेड़ों और बिजली के खंभे गिरने से तबाही वाले इलाकों में पहुंचना भी मुश्किल भरा साबित हो रहा है। ज्यादा चिंता की बात यह है कि तूफान से बड़ी संख्या में मकानों को नुकसान पहुंचा है और इनमें भी कच्चे घरों की तादाद काफी है। हालांकि केंद्र सरकार ने भी राज्य को हरसंभव मदद देने की बात कही है। लेकिन अक्सर देखने में आता है कि ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के बाद दो-तीन दिन तक तो राहत काम चलते हैं, बस्तियों में नेताओं-मंत्रियों के चक्कर लगते हैं, तूफान पीड़ित इलाकों के हवाई दौरे होते हैं, लेकिन सरकारें फिर से पुराने ढर्रे पर लौट आती हैं और लोग राहत को तरसते रहते हैं।

ऐसे में जिस तरह की जिम्मेदार सरकार और प्रशासन की लोगों को आस होती है वह नदारद दिखता है। हालांकि बंगाल की खाड़ी में एक जहाज से पचहत्तर लोगों को बचाया भी गया। अगर सरकार और प्रशासन समय पर चेते होते तो लोगों को हताहत होने से बचाया जा सकता था। ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए राज्यों के पास पुख्ता सूचना तंत्र, मौसम विभाग की सटीक सूचनाएं और आपदा प्रबंधन के पर्याप्त इंतजाम होने चाहिए। लेकिन ज्यादातर जगहों पर देखने में यही आता है कि सब कुछ हो जाने के बाद ही हमारी आंखें खुलती हैं। हालांकि चक्रवाती तूफान जैसी आपदा से निपटने में ओड़िशा से सबक लेना चाहिए जिसने कुछ महीनों पहले ही ऐसी आपदा से सुव्यवस्थित तरीके से निपटा था।

हालांकि भारत में अब मौसम विभाग की भविष्यवाणियां और चेतावनियां पहले के मुकाबले ज्यादा सटीक साबित होती हैं। बिगड़ते मौसम को लेकर मौसम विभाग आगाह कर रहता है। लेकिन अब मौसम चक्र में आए बदलाव और बढ़ते तापमान से चक्रवाती तूफान, तेज आंधी-बारिश जैसे जो चक्र चल रहे हैं वह मौसम विज्ञानियों के लिए भी एक चुनौती है। पिछले कुछ सालों में खासतौर से उत्तर भारत को जिस तरह की प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा है, उसमें मौसम तंत्र से जुड़ी कई घटनाएं ऐसी हुर्इं जो पहले कभी नहीं देखी गईं। मौसम अब एक तरह से चुनौती बन गया है। इसलिए प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के इंतजाम भी पुख्ता रखने की जरूरत है।


Date:12-11-19

याद रहेगी निडरता

संपादकीय

कुछ महान राष्ट्रीय हस्तियां ऐसी होती हैं, जिनकी निष्ठा और सेवा राष्ट्र की रगों में हमेशा के लिए बस जाती हैं। ऐसी ही एक महान विभूति थे तिरुनेल्लई नारायण अय्यर शेषन, जिन्हें दुनिया टी एन शेषन के नाम से जानती है। वह भारतीय चुनावी व्यवस्था ही नहीं, बल्कि समग्र भारतीय लोकतंत्र में एक अनुपम अध्याय की तरह हैं। जब भी कहीं भारत में लोकतंत्र या चुनाव की चर्चा होगी, ‘शेषन अध्याय’ को अवश्य याद किया जाएगा।

आज जिस चुनाव व्यवस्था पर हम गर्व करते हैं, उस गर्व को गढ़ने में सर्वाधिक योगदान शेषन का ही है। मोटे तौर पर 1991 से लेकर 1996 तक के पूरे छह वर्ष के समय में यह जो ऐतिहासिक अध्याय रचा गया था, उसे शेषन ने अपनी ईमानदारी, कर्मठता और सबसे बढ़कर निडरता से सींचा था। ईमानदारी उन्हें दूसरों की बेईमानी पर उंगली रखने का नैतिक बल देती थी।

वह भ्रष्ट, पक्षपाती और कमियों से बोझिल चुनाव तंत्र की मरम्मत इसलिए कर पाए, क्योंकि वह ईमानदार थे। इस ईमानदारी ने ही उन्हें देश सेवा में कर्मठता के लिए प्रेरित किया और ईमानदारी व कर्मठता के कारण ही उनकी निडरता का देश को अमिट लाभ हुआ। तभी शेषन वह अविस्मरणीय योगदान दे पाए, जिसकी तलाश भारतीय लोकतंत्र को 40 वर्षों से थी। जब वह रिटायर होकर सामान्य जीवन जीने लगे थे, तब भी लोग उन्हें नहीं भूले थे।

जिन लोगों ने 1990 के पहले के चुनावों को देखा है, उन्हें शेषन होने का मतलब बेहतर पता होगा। किस तरह से कुछ सरकारें अपने हिसाब से अधिकारियों को चुनाव के समय पदस्थ करती थीं, किस तरह से कई मतदान केंद्रों को लूट लिया जाता था? कैसे चुनाव व्यवस्था पर स्थानीय दबंग-अपराधी हावी हो जाते थे? ऐसे में, शेषन पहले ऐसे चुनाव आयुक्त थे, जिन्होंने चुनाव-प्रशासन को चुनाव आयोग के निर्देशों पर चलाना शुरू किया। पहली बार आचार संहिता को मजबूती से लागू किया गया। पहली बार धन और बल के जोर पर होने वाले चुनावी खिलवाड़ पर शिकंजा कसा गया। पहली बार सुरक्षा बलों को निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए बड़ी जिम्मेदारी देकर तैनात किया गया। पहली बार देश पुख्ता मतदाता पहचान पत्र की ओर बढ़ा।

शेषन भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के लिए हमेशा एक मिसाल रहेंगे। उन्होंने सिद्ध किया कि अधिकारी चाह ले, तो बहुत कुछ कर सकता है। संविधान ने आयोग को शक्तियां पहले भी दे रखी थीं, पर उन शक्तियों के उपयोग का नैतिक बल शेषन में था। वह समझ गए थे कि संविधान ने निष्पक्ष चुनाव कराने की महती जिम्मेदारी चुनाव आयोग को दे रखी है।

यह चुनाव आयोग का कर्तव्य है कि वह निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करे, ताकि मतदान सही हो और वाकई चुने हुए लोग ही सरकार बनाएं। शेषन की यादों के साथ जुड़े कुछ अफसोस भी हैं, जो अनायास उनके साथ हमेशा जुड़े रहेंगे। एक अफसोस तो यही कि देश के सबसे क्रांतिकारी चुनाव आयुक्त पर लगाम के लिए सरकार ने चुनाव आयोग का विस्तार किया था। शेषन रिटायर होने के बाद भारतीय व्यवस्था में अपने लिए भूमिका तलाशते रहे, मनचाहा नहीं कर पाए। भारत का लोक आज शेषन को तहेदिल से श्रद्धांजलि दे रहा है, भारतीय शासन-प्रशासन उन्हें तभी सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएगा, जब व्यवस्था में ईमानदार, कर्मठ और निडर अधिकारियों को आगे लाया जाएगा।


Date:12-11-19

The Seshan effect

How he transformed the EC is a lesson for those at the helm of watchdog institutions, more relevant now than ever.

Editorials

The Election Commission of India was established as a constitutional authority in 1950 with the mandate to hold free and fair elections. But it wasn’t until 1990, when TN Seshan took charge as Chief Election Commissioner, that citizens, and even EC officials, became aware of the extraordinary powers that the Constitution vests in the institution. The EC was a different body, after Seshan. In his six years as CEC, the 1955-batch IAS officer from Palakkad, Kerala, turned an unremarkable body into a powerful pillar of democracy, and in the process reformed and strengthened the election process. Changes initiated by Seshan had far-reaching implications, especially in northern India, and went a long way in deepening representative democracy. Elections in India have since become freer and fairer, and the EC itself a model institution for democracies across the world.

The story of Seshan and the EC is a striking example of the transformation an individual can achieve in a complex society with multiple levers of power. In retrospect, all that Seshan did was to enforce the authority of the EC as per its powers laid out in the Constitution. When the push-back came from the politicians, he stood his ground with the backing of the law. In clashes with the political class, his persona, aggressive, even abrasive, loomed larger than life, but it was the institution that ultimately won the battle. Seshan dusted off the model code of conduct and turned it into a powerful instrument to rein in political parties that were playing fast and loose with the rules of the game. The EC began to enforce campaign spending limits and candidates were asked to submit accounts of poll expenses within a reasonable time limit. Cases were slapped on those who refused to comply. The EC also began to monitor the campaign process more closely by staggering elections and deploying a large number of poll observers and central forces. Violations of the model code were punished. Seshan’s actions helped weaken the politician-bureaucrat cabal that was subverting the democratic process in large parts of the country and ended practices such as booth-rigging and booth-capturing widely prevalent in states like UP and Bihar. These reforms allowed the less privileged groups which had acquired a new political voice in the wake of Mandal to vote more freely.

As SY Quraishi, a former CEC, wrote in this newspaper, “all his successor CECs basked in his glory, though we always carried the burden of being compared with him all the time”. It is Seshan’s lasting legacy that the bar has been raised for those who succeed him at the helm of the Election Commission.


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