27-01-2018 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
The Other Half
India is turning into a republic of inequality, meriting frank discussion
TOI Editorials
As India celebrates its 69th Republic Day today, what is the state of the republic? The conversation is about when its growth story will come back; IMF projects GDP growth this year, at 7.4%, will surpass China’s (6.8%). A more disturbing statistic is that the total increase in wealth earned by the 67 crore Indians who make up the poorer half of the population was a mere 1% last year. This suggests wealth is not trickling down to the poorer half of the population. To corroborate that statistic the Inclusive Development Index of the World Economic Forum (WEF) ranks India a lowly 62nd among 74 emerging economies, falling behind even such champions of inequality as Brazil, Russia, China and Pakistan.
The elephant in the room is that India’s growth is not really leading to a burgeoning middle class, as was envisaged and as did happen in China and east Asia. Indian growth has a ‘missing middle’: failure to significantly grow labour intensive industry, which can absorb surplus agricultural labour. ‘Make in India’ has not really taken off. Not just the poor but even the middle class – limited in numbers as they are – are hurting from the lack of opportunity.Addressing WEF at Davos, Prime Minister Narendra Modi promised that red tape would be replaced by a red carpet for business. However India’s political class, BJP included, has a strong penchant for populism which has certain staples: opposition to land and labour reform, cossetting the public sector while enmeshing private business in red tape. This often masquerades as pro-poor and anti-elitist policymaking but is, in reality, pro-poverty and pro-inequality. It is what marks out India from China and the Asian tigers.
Rigid labour laws derived from the socialist era lead, for example, to large scale informalisation of labour. Tough land acquisition laws make it tough to build factories. Red tape helps established big business to the detriment of emergent small businesses; only the former has the wherewithal to lobby government and work the bureaucracy. The cossetted public sector is notoriously inefficient and unaccountable; impoverishing the quality of public education, public health or even law and order and thereby massively amplifying inequality. To compound the effects of pseudo-socialism we have pseudo-Hinduism imposing its own layers of red tape these days by, for example, restricting cattle trade when cattle is one of the few forms of capital available to poor farmers. These sources of inequality must be candidly debated and reversed, if India’s growth is to trickle beyond a tiny elite and become inclusive in character. But who can bell the (fat) cat?
Date:26-01-18
Shaming India
Citizens need security, not governments that bend before mobs
TOI Editorials
In a replay of the violence and bloodshed after Ram Rahim was convicted, Haryana government failed to read the warning signs and mobilise its police force. That 13-second video of schoolchildren cowering in fear could be from anywhere on the globe wracked by terrorism and yet it is from Gurgaon, in the national capital’s neighbourhood. India can no longer afford to stay silent on mob violence: from the PM down to the person on the street, responsibility lies with every citizen to condemn the vicious violence of Karni Sena members.
Your right to feel offended should not take away my right to life and liberty: The Constitution is clear on this count. Yet four states dithered, banned a movie, and are now paying a costly price. What is the message India is sending the world? Only this week PM Narendra Modi laid down a red carpet for foreign investors. We invited ten Asean leaders to witness the pomp and splendour of our Republic Day and understand our unflinching commitment to democracy. This is not the environment where business flourishes, young minds flower and freedoms are cherished.
In 2011-12 the crisis of credibility facing the political class fuelled a powerful anti-corruption movement. Politicians are rekindling similar cynicism. There are exceptions too. Commerce minister Suresh Prabhu said the Union government wouldn’t tolerate the Karni Sena. UP government under CM Yogi Adityanath has issued instructions to all district officials to take stern action. Those destroying public and private property in the guise of protesting must be forced to pay the price. Seizure of the Dera Sacha Sauda’s assets to pay for the Panchkula arson can set the norm.
भारत-आसियान दोस्ती का नया दौर
ली सीन लूंग, (लेखक सिंगापुर के प्रधानमंत्री हैं)
भारत-आसियान रिश्तों की रजत जयंती मनाने की तैयारी के बीच हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भारत के रिश्ते दो हजार वर्षों से भी अधिक पुराने हैं। इतिहास में स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि प्राचीन भारत और कंबोडिया, मलेशिया और थाईलैंड के बीच व्यापार हुआ करता था। इन प्राचीन संपर्कों ने दक्षिण-पूर्व एशियाई संस्कृति, परंपराओं और भाषाओं को प्रभावित किया। फिर चाहे वह कंबोडिया में अंकोरवाट मंदिर परिसर हो या इंडोनेशिया में बोरोबुदूर और प्रंबनन मंदिर या फिर मलेशिया के कई स्थल, इन सभी जगहों पर भारतीय हिंदू-बौद्ध प्रभाव की छाप साफ नजर आती है। इंडोनेशिया, म्यांमार व थाईलैंड सहित कई दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में रामायण को खासा महत्व दिया जाता है। सिंगापुर के मलय नाम की उत्पत्ति भी संस्कृत भाषा से ही हुई है, जिसका अर्थ होता है लॉयन सिटी यानी सिंह का शहर। भारत 1992 में आसियान की एक श्रेणी में संवाद साझेदार बना और 1995 में पूर्ण रूप से संवाद साझेदार।
समय के साथ भारत-आसियान रिश्ते और परवान चढ़ते गए और 2012 में दोस्ती की बीसवीं वर्षगांठ के अवसर पर रणनीतिक साझेदारी में बदल गए। दोनों पक्ष आज आसियान के विभिन्न् राजनीतिक, सुरक्षात्मक, आर्थिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर साथ मिलकर काम कर रहे हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक्ट ईस्ट नीति में भी व्यापार, संपर्क और संस्कृति की तिकड़ी पर जोर दिया गया है। इस मंत्र के माध्यम से वह आसियान के साथ सक्रियता को और धार देना चाहते हैं जो हमारे बहुस्तरीय और व्यापक सहयोग को दर्शाता है। हमारे पास सहयोग के लिए लगभग 30 प्लेटफॉर्म हैं जिनमें एक वार्षिक शिखर सम्मेलन और सात मंत्रिस्तरीय संवाद मंच हैं। चाहे आसियान के नेतृत्व में आसियान क्षेत्रीय मंच हो या आसियान रक्षामंत्रियों का सम्मेलन या फिर पूर्वी एशिया सम्मेलन, भारत ने इन आयोजनों में हमेशा बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। समय के साथ दोनों पक्षों के बीच व्यापार में भी बहुत तेजी आई है। इसमें आसियान-भारत मुक्त व्यापार क्षेत्र यानी एआईएफटीए जैसे समझौते की अहम भूमिका रही है। आसियान-भारत व्यापार 1993 के 2.9 अरब डॉलर से उछलकर 2016 में 58.4 अरब डॉलर हो गया। सामाजिक, सांस्कृतिक मोर्चे पर भी आसियान-भारत छात्र विनिमय कार्यक्रम और दिल्ली डायलॉग ने दोनों पक्षों के बीच जनसंपर्क को और तेजी दी है। इन मंचों के माध्यम से हमारे युवा, अकादमिक और कारोबारी जगत के लोगों को एक-दूसरे से मुलाकात के दौरान सीखने-समझने का अवसर मिला है, जिससे रिश्ते और मजबूत हुए हैं।
आसियान-भारत संबंधों की रजत जयंती मनाने के लिए तमाम कार्यक्रम किए जा रहे हैं। हाल में सिंगापुर में आयोजित प्रवासी भारतीय दिवस में भारतवंशियों के योगदान को सराहा गया। भारत के गणतंत्र दिवस समारोह में आसियान की भागीदारी से दोनों पक्षों की उत्सवधर्मिता चरम पर पहुंच रही है। गणतंत्र दिवस परेड हेतु मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रण आसियान नेताओं के लिए बहुत सम्मान की बात है।भू-राजनीतिक अस्थिरता ने आसियान को भारत जैसे सहयोगी के साथ गलबहियां बढ़ाने की दिशा में नई ऊर्जा और नजरिया दिया है। कई अहम पैमानों पर भारत और आसियान की सोच भी एकसमान है। क्षेत्र में शांति और सुरक्षा के साथ ही खुली, संतुलित और समावेशी अवधारणा पर भी दोनों एकमत हैं। भारत की भौगोलिक स्थिति रणनीतिक रूप से बेहद अहम है। यह हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के बीच कई प्रमुख समुद्री मार्गों के बीच स्थित है। ये समुद्री मार्ग तमाम आसियान देशों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग भी हैं। ऐसे में व्यापार को सुगम बनाए रखने के लिए इन समुद्री मार्गों की सुरक्षा दोनों पक्षों के लिए समान रूप से आवश्यक है।
आसियान और भारत की कुल आबादी करीब 180 करोड़ है, जो दुनिया की एक चौथाई आबादी के बराबर है। हमारा सम्मिलित जीडीपी भी 4.5 लाख करोड़ डॉलर से अधिक है। वर्ष 2025 तक भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार बन जाएगा तो दक्षिण-पूर्व एशिया में भी मध्यवर्ग का दायरा दोगुना बढ़कर 16.3 करोड़ होने का अनुमान है। दोनों पक्षों को जनसांख्यिकीय लाभांश का भी फायदा हासिल है, क्योंकि इनकी अधिकांश आबादी युवा है। आसियान व भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की मांग भी तीव्र गति से बढ़ रही है जिससे डिजिटल अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ सकती है। दोनों पक्षों में इतनी अनुकूलता होने के बावजूद संबंधों को नया आयाम देने के लिए अभी भी काफी गुंजाइश है। आसियान के विदेशी व्यापार में भारत की हिस्सेदारी महज 2.6 फीसदी है जिसे और बढ़ाया जा सकता है।परस्पर लाभ के लिए मैं तीन सुझाव देना चाहूंगा। पहला यह कि व्यापार और निवेश को और गति देने के लिए भारत और आसियान को दोगुनी गति से प्रयास करने चाहिए। हमें मुक्त व्यापार सहित मौजूदा रास्तों को समय रहते सुधारने के साथ उन्हें प्रासंगिक बनाए रखना होगा। मौजूदा एआईएफटीए से भी बढ़कर उच्च स्तरीय क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी यानी आरसीईपी जैसी पहल की ओर कदम बढ़ाने होंगे। इससे ऐसे एकीकृत एशियाई बाजार का निर्माण होगा जिसमें दुनिया की लगभग आधी आबादी और एक तिहाई जीडीपी शामिल होगी। दोनों ओर से नियम-कानूनों को सुसंगत बनाना होगा और भारत की एक्ट ईस्ट नीति को सफल बनाने के साथ ही क्षेत्र में निर्यात बढ़ाने के मकसद से मेक इन इंडिया को भी हरसंभव मदद देना होगी।
दूसरा सुझाव यह है कि जल, थल और वायु परिवहन के मोर्चे पर सुधार हो। इससे हमारी जनता को बहुत फायदा होगा। इस दिशा में भारत के प्रयास सराहनीय हैं। वह भारत-म्यांमार-थाईलैंड हाईवे के विस्तार के साथ ही आसियान के साथ बेहतर कनेक्टिविटी के लिए बुनियादी ढांचा विकास हेतु एक अरब डॉलर की राशि के लिए सहमत हुआ है। तीसरा सुझाव डिजिटल कनेक्टिविटी सहयोग का है। यह एक महत्वपूर्ण पहलू है जो बेहतर भविष्य की इबारत रखेगा। भारत में आधार से जुड़ा तंत्र नए अवसर तैयार कर रहा है।साझेदारी के लिए हमें नित नए आयामों की तलाश में जुटे रहना चाहिए। आसियान का अध्यक्ष होने के नाते सिंगापुर का एक लक्ष्य आसियान स्मार्ट सिटी नेटवर्क तैयार करना भी है, जिसमें भारत हमारा स्वाभाविक साझेदार बन जाता है। भारत ने 100 स्मार्ट सिटी विकसित करने का लक्ष्य तय किया है। एक शहरी-राष्ट्र होने के नाते हम अपने अनुभव से इसमें भारत की पूरी मदद करेंगे। आसियान का अध्यक्ष होने के नाते सिंगापुर भारत के साथ रिश्तों को प्रगाढ़ करने के लिए प्रतिबद्ध है। अगर दोनों पक्ष अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जुड़ाव से मौजूदा चुनौतियों का समाधान निकालकर भविष्य के लिए बेहतर बुनियाद रखते हैं तो हमारी आने वाली पीढ़ियां ही इससे सबसे अधिक लाभान्वित होंगी।
दावोस के रास्ते
संपादकीय
स्विट्जरलैंड के दावोस शहर में चल रहे विश्व आर्थिक मंच के सालाना सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अर्थव्यवस्था, संरक्षणवाद, आतंकवाद और जलवायु संकट जैसे जो गंभीर वैश्विक मुद्दे उठाए हैं, उनका सरोकार न सिर्फ भारत, बल्कि दुनिया के सभी मुल्कों से है। ऐसे में इस वैश्विक मंच से की गई अपीलें और आह्वान काफी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। विश्व आर्थिक मंच का यह सम्मेलन दुनिया के नेताओं और कारोबारियों का ऐसा बड़ा जमावड़ा है, जहां मुख्य रूप से अर्थव्यवस्था और कारोबार से संबंधित मुद्दे केंद्र में रहते हैं। इसलिए दुनिया के कारोबारियों और कंपनियों को भारत में निवेश के लिए न्योता देने का यह एक बड़ा मौका है। मोदी ने सम्मेलन के पहले दिन अपने संबोधन में दुनिया भर के कारोबारियों से कहा कि भारत आइए और कारोबार कीजिए। बाहर के कारोबारियों के लिए अब कोई अड़चन नहीं रह गई है। पहले लालफीताशाही की जो अड़चन थी, वह अब नहीं है। दूसरे देशों के कारोबारियों के लिए भारत में लाल कालीन बिछा है। दावोस सम्मेलन में पहुंचे भारत के दिग्गज कारोबारियों के मन में उन्होंने यह भरोसा पैदा करने की कोशिश भी की कि आर्थिक मुद्दों को लेकर सरकार गंभीर है और किए गए वादों पर अमल को लेकर भी।
पिछले बीस साल में पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने दावोस के मंच से वैश्विक कंपनियों से निवेश का आह्वान किया है। यह भारत की बड़ी जरूरत भी है। आर्थिक सुधारों को जारी रखने और उसकी रफ्तार बढ़ाने के लिए विदेशी निवेश की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता। पिछले ढाई साल के दौरान देश की अर्थव्यवस्था के सामने बड़ी चुनौती निवेश में ठहराव है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) के आंकड़े बताते हैं कि 2015-16 की पहली तिमाही में मौजूदा मूल्य निवेश अनुपात 30.4 फीसद था, जो 2017-18 की दूसरी तिमाही में घटता हुआ 26.4 फीसद पर आ गया। इतना ही नहीं, इस पूरे साल कमोबेश यही स्थिति रहनी है। आखिर निवेश में आई यह कमी कहीं न कहीं परियोजनाओं से जुड़ी है, जो या तो शुरू नहीं हो पार्इं या हुर्इं तो अधूरी पड़ी हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकोनॉमी के आंकड़े इसकी तसदीक करते हैं कि नई परियोजनाओं का क्या हश्र हो रहा है। इसीलिए निवेशक नई परियोजनाओं से दूरी बना रहे हैं। पहले से लटकी परियोजनाओं का क्या होगा, कोई नहीं जानता। ऐसे में हालात समझते हुए कोई विदेशी कंपनी क्यों आएगी निवेश करने? इसलिए यह चुनौती भरा काम है कि विदेशी निवेशकों के मन में यह बात गहरे पैठाई जाए कि आप यहां अपना पैसा लगाइए, कोई दिक्कत नहीं होगी।
हालांकि दावोस सम्मेलन के दौरान ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने भारत की आर्थिक वृद्धि को लेकर जो अनुमान दोहराया है वह विदेशी कारोबारियों के संदेह को अब दूर करने में मदद कर सकता है। आइएमएफ ने कहा कि भारत आज दुनिया की तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है और इसकी वृद्धि तथा कामयाबी इस पर निर्भर होगी कि वह अपने यहां आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया को किस तेजी से बढ़ाता है। ऐसे में भारत के लिए अवसरों के साथ चुनौतियां भी काफी हैं। आइएमएफ ने कहा है कि भारत को अपनी अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बढ़ानी होगी, तभी सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होगी। ऐसे में भारत दावोस मंच से कितना हासिल कर पाएगा और कैसे निवेशकों को आकर्षित कर पाएगा, यह सिर्फ आर्थिक सुधारों पर निर्भर करेगा।
Date:25-01-18
कानूनी तकाजा
संपादकीय
यह उम्मीद की जाती है कि किसी विवाद की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट का फैसला सभी पक्षों के लिए मान्य होगा और सरकार उस पर अमल के लिए बाध्य होगी। पिछले हफ्ते अठारह जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के जरिए ‘पद्मावत’ फिल्म के प्रदर्शन को लेकर रास्ता साफ कर दिया था। उसके मुताबिक भाजपा शासित उन प्रदेशों की सरकारों को भी फिल्म का प्रदर्शन सुनिश्चित करने को कहा गया था, जिन्होंने अपने राज्य में उसके प्रदर्शन पर पाबंदी की घोषणा कर दी थी। मगर उसके बाद भी मध्यप्रदेश और राजस्थान की सरकारों ने फिर से अदालत में दलील दी कि इस फिल्म के प्रदर्शन से राज्यों में कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है। यानी क्या सरकारें यह कहना चाहती हैं कि राज्य का सुरक्षा तंत्र किसी जातीय समूह की ओर से हिंसा या उत्पात की धमकी का सामना कर सकने की क्षमता नहीं रखता है? अगर ऐसा नहीं है तो कम से कम सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हालात से निपटने के लिए राज्य सरकारों को जहां कानून-व्यवस्था बनाए रखने और आम नागरिकों की सुरक्षा की पूरी तैयारी करनी चाहिए थी, उन्होंने दोबारा अदालत से फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग क्यों की!
स्वाभाविक ही सुप्रीम कोर्ट ने कड़े शब्दों में कहा कि लोगों को निश्चित तौर पर यह समझना चाहिए कि उन्हें अठारह जनवरी के अदालत के फैसले का पालन करना ही होगा; हम अपने आदेश में संशोधन करने के इच्छुक नहीं हैं और कानून-व्यवस्था बनाए रखना राज्यों की जिम्मेदारी है। दरअसल, भावनाएं आहत होने के नाम पर ‘पद्मावत’ फिल्म के प्रदर्शन के खिलाफ करणी सेना नाम के एक जातीय संगठन ने हिंसक रुख अख्तियार किया हुआ है। हालत यह है कि सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र मिलने और शीर्ष अदालत के फैसले के बावजूद कुछ लोग अब भी इस फिल्म को रोकने की जिद ठाने हुए हैं और धमकी भरे संदेश जारी किए जा रहे हैं। सवाल है कि इन लोगों की नजर में सुप्रीम कोर्ट की राय और कानून की कोई अहमियत है या नहीं! विडंबना यह है कि जब करणी सेना ‘पद्मावत’ के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन कर रही थी या इस मसले पर कानून को ताक पर रखने की धमकी जारी कर रही थी तो कुछ राज्यों की सरकारों ने उस पर काबू पाने के बजाय एक तरह से उसकी बात मान कर फिल्म पर रोक की घोषणा कर दी।
जाहिर है, सरकारों के इस तरह के रुख से अराजक तत्त्वों को शह मिली और वे अदालत के फैसले तक को महत्त्व देने के लिए तैयार नहीं हैं! सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले और कानून तक को धता बताने वाले ऐसे तत्त्वों को कैसे देखा जाएगा! भावनाएं आहत होने के नाम पर किसी अभिव्यक्ति को बाधित करने की सीमा आखिर क्या होगी? जो लोग या समूह आज किसी फिल्म के पात्र को ऐतिहासिक बता कर अपनी भावनाएं आहत होने के नाम पर हिंसक रुख अख्तियार किए हुए हैं, क्या वे दूसरे सामाजिक समूहों या समुदायों की ओर से उठने वाले सवालों को भी स्वीकार कर पाएंगे? यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस सिरे से उपजे विवाद देश के सामने गंभीर समस्या खड़ी कर सकते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि सरकारें सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ‘पद्मावत’ के सुरक्षित प्रदर्शन और कानून-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हर जरूरी कदम उठाएं।
पूरब से संबंधों की नई जमीन
सलमान हैदर, पूर्व विदेश सचिव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी प्रभावशाली उपस्थिति को लेकर खासा संजीदा रहते हैं। उनकी कूटनीतिक शैली की यह एक बड़ी खासियत रही है। यह गुण उनमें शुरुआत से ही दिखने लगे थे, जब अपने शपथ-ग्रहण समारोह में उन्होंने सबको चकित करते हुए पड़ोसी मुल्कों के शीर्ष नेताओं को आमंत्रित किया था। ऐसा उससे पहले कभी नहीं हुआ था। जाहिर है, उसे दक्षिण एशिया में एकजुटता के नए युग की शुरुआत के रूप में देखा गया। आमंत्रित मेहमानों की उस सूची में पाकिस्तान का भी नाम था, जो इस प्रकार के किसी समूह का शायद ही कभी हिस्सा रहा है। नेताओं का यह जमावड़ा प्रधानमंत्री मोदी की एक प्रभावशाली भंगिमा थी, जिसका उन्हें गर्मजोशी भरा जवाब भी मिला। तमाम नेतागण नई दिल्ली आए और शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होकर एक अद्भुत छटा बिखेरी।हालांकि प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल की शुरुआत जितनी प्रभावशाली रही, उससे बंधी उम्मीदें उस हद तक पूरी नहीं हो सकीं। कुछ वक्त के बाद ही पड़ोसियों के साथ तनातनी की खबरें आने लगीं। विशेष रूप से पाकिस्तान के साथ हमारा तनाव बढ़ने लगा। एक के बाद दूसरी घटनाओं से दोनों देशों के रिश्ते तल्ख होते गए। सीमा पर सैन्य टकराव भी बढ़ा। विवादित मसलों का समाधान नहीं निकल सका, और बदलाव की ऊंची उम्मीदों के साथ शुरू हुई प्रधानमंत्री मोदी की पारी पारंपरिक सीमा-विवाद में उलझकर रह गई।
राज्य-प्रायोजित आतंकी गतिविधियों से हमें नुकसान पहुंचाने की मंशा पालने वाले इस पड़ोसी से मिली निराशाजनक प्रतिक्रिया और तनावपूर्ण रिश्तों के बावजूद भारत और पाकिस्तान ने बातचीत का इतना रास्ता जरूर रख छोड़ा है कि तनाव के समय संपर्क के न्यूनतम प्रावधानों का पालन हो सके। हालांकि आर्थिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान, जो बिना ज्यादा मुश्किलों से बहाल किए जा सकते हैं, अब भी असमंजस की स्थिति में हैं। सियासी मतभेदों ने सांस्कृतिक रिश्तों को भी चोट पहुंचाई है और वे सभी समझौते बेपटरी हो चुके हैं, जिन पर कभी गर्मजोशी से हस्ताक्षर किए गए थे।बहरहाल, अब एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ नया करने का फैसला लिया है। यह कुछ हद तक उनके पिछले प्रयासों की ही याद दिला रहा है। इस बार उन्होंने आसियान के तमाम प्रमुखों को गणतंत्र दिवस के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया है। गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि का दर्जा देना भारत की तरफ से दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है। चूंकि मुख्य अतिथि भारत के प्रथम व्यक्ति के साथ मंच साझा करते हैं, इसलिए इस सम्मान के लिए उन्हीं का चयन किया जाता है, जिनके साथ हमारे खास रिश्ते होते हैं। स्पष्ट है कि इस बार भारत ने आसियान के तमाम देशों को इस सर्वोच्च सम्मान से नवाजा है। यह आसियान के साथ रिश्तों को नई ऊंचाई देने के भारत के मजबूत इरादे का सार्थक बयान है।
आसियान नेताओं को आमंत्रित करने के संकेत साफ हैं। पिछले कुछ वर्षों से भारत ने ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ यानी ‘पूरब की ओर देखो’ नीति की तरफ अपने कदम बढ़ाए हैं। इसके तहत पूर्वी हिस्से के उन सभी उभरते विकासशील देशों को तवज्जो दी जाती है, जहां आपसी सहयोग व साझा आर्थिक लाभ के बीज मौजूद होते हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ आज हमारे संबंध काफी मजबूत हो गए हैं और आपसी हितों को देखते हुए दोनों पक्ष इसे आगे बढ़ाने के प्रयास भी कर रहे हैं, पर रिश्तों में ऐसी गरमाहट हमेशा से नहीं थी। जब भारत ने पहली बार पूरब की ओर देखना शुरू किया, तो नई दिल्ली को संदेह की नजरों से देखा गया। ऐसा माना गया कि भारत में मौजूद संकीर्ण सोच और प्रक्रियागत पेचीदगियां खुद आसियान पर प्रतिकूल असर डाल सकती हैं। मगर उसके बाद भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को उदार बनाया और तमाम प्रक्रियागत कठिनाइयां दूर कीं। नतीजा यह निकला कि पूरब के देशों के साथ आज नई दिल्ली के कई हित साझा जुड़ गए हैं। अब जरूरी है कि इस रिश्ते को एक नया क्षितिज दिया जाए। यही वक्त का तकाजा भी है। इसीलिए गणतंत्र दिवस पर आसियान प्रमुखों को बुलाने के सुखद नतीजे निकलने की उम्मीद जताई जा रही है।आसियान की स्थापना भले ही एक आर्थिक और कारोबारी समूह के रूप में हुई हो, पर इसका फलक कहीं अधिक व्यापक है। यह अपने सदस्य देशों के बीच लोकतांत्रिक व उदार मूल्यों को साझा करता है, जो इसे एक कूटनीतिक आयाम भी देता है। आसियान सौहार्द व सहनशीलता को तवज्जो देता है, यहां तक कि सबसे उद्दंड सदस्य देश पर भी यह अपने विचार नहीं थोपता। इसके अच्छे नतीजे निकले हैं। क्षेत्र में पैदा हुए तमाम तनावों के बावजूद आसियान एक सुसंगत व सुगठित संगठन बना हुआ है, जिस कारण इसे आज दूसरे तमाम सगंठनों के लिए आदर्श माना जा सकता है।
भारत और आसियान का यह नया रिश्ता ऐसे वक्त में परवान चढ़ रहा है, जब एशिया महादेश चीन की वजह से दूरगामी बदलावों के दौर में है। चीन एक मैन्युफैक्चरिंग ताकत के रूप में उभरा है, जिसकी पहुंच विश्वव्यापी है। इसका आर्थिक व सामरिक महत्व है। इतना ही नहीं, जमीन के साथ ही समुद्र में भी वह अपनी सैन्य ताकत बढ़ा रहा है। खासकर समुद्री ताकत की चर्चा लाजिमी है। हिंद महासागर में उसके नौसैनिकों की मौजूदगी तेजी से बढ़ रही है, जिसे लेकर उसके पड़ोसी भी चौकन्ने हैं। अपनी समुद्री सीमा को लेकर भी वह पड़ोसियों के साथ विवाद में उलझा है। इन्हीं मतभेदों की वजह से इस क्षेत्र में समय-समय पर तनाव भी दिखे हैं। यह सही है कि अब तक यहां कोई बड़ा सैन्य टकराव नहीं हुआ है, लेकिन जब भारत और आसियान के बीच संबंधों का नया अध्याय शुरू होने जा रहा है, तो हिंद महासागर की स्थिति को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए।बदले परिदृश्य में देखें, तो भारत का यह गणतंत्र दिवस पहले की तरह महज औपचारिक मेल-मुलाकात का मौका शायद नहीं रहे। उम्मीद यही है कि इससे भारत के विदेश-संबंधों की एक नई शुरुआत होगी। आसियान प्रमुखों का आगमन हमारे लिए लंबी अवधि में फायदेमंद हो सकता है। हम न सिर्फ इस क्षेत्र के कहीं ज्यादा करीब आ सकते हैं, बल्कि एक क्षेत्रीय समुद्री ताकत के रूप में भी अपना कद बढ़ा सकते हैं।
Offices Without Profit
Disqualification of AAP MLAs is questionable on both legal and procedural grounds
Shreenath A. Khemka, [The writer is King’s Law Scholar at the University of Cambridge]
Political structures almost entirely run on conventions and formalised mores. We borrow heavily from our English antecedents, especially in terms of organising what is called the state. With the recent recommendation by the Election Commission (ECI) to disqualify 20 AAP MLAs, two important conventions have been thrown into sharp relief.The first convention of state practice comes from the Commons tradition of England. In the Act of Union 1707, the House of Commons sought to secure its independence from the Crown. As a result, the legislative body espoused the disqualification that “no person who has an office or place of profit under the King, or receives a pension from the Crown, shall be capable of serving as a member”. The idea was to adopt a House that was free from the executive influence of the monarch (executive or government); against whom the tussle of power was underway. The US Constitution embodies a similar principle in Article I (6)(2) for its Senators and Representatives.
As such, the convention is better suited to Presidential forms of government because the government under the Parliamentary set-up sits in the Commons. Yet until 1919, Commoners lost membership to the House if they accepted appointments to ministerial positions. Unlike the Indian set-up, in the UK, Commoners do not have a right to resign; therefore, nominal positions of the “Crown Steward and Bailiff” are still used sparsely to terminate membership. Article 191(1)(a) of the Constitution exemplifies the Office of Profit convention. Simply put, it is the holding of any public office (at the behest of the government) which leads to a pecuniary advantage. That is how the word “profit” qualifies the “office” under Article 191. It does not extend to positions which are ministerial (saved by Article 191(1)), nor does it cover posts which do not grant monetary benefits in the form of remunerations, profits, and fees (Supreme Court in U. C. Raman v. P. T. A. Rahim). This brings us to the second convention in the AAP controversy.
The post of parliamentary secretary in India carries the equivalence of minister of state. However, in the Westminster praxis, such a position was primarily used as a training ground for prospective ministers. It was only much later that the same was subsumed as a ministerial position. But unlike India, the position in the UK is of a third order under the minister of state and secretary of state. The British convention restricts the position to somewhat of an aid-cum-intern to a minister, while in India it is used to appease backbenchers.Observing the tendency to defeat the first convention of Office of Profit by appointing an obnoxious amount of ministers, the 91st constitutional amendment sought to restrict it to 15 per cent (10 per cent in Delhi under Article 239AA(4)). In order to circumvent this new constitutional framework, the position of parliamentary secretaries mushroomed. The manoeuvring was clever: Parliamentary secretaries were not ministers and, therefore, evaded the 15 (or 10) per cent rule; yet their status equivalence as minister of state meant plush rewards.
The courts, however, did not take well to this ploy and in the Delhi government case it was held that parliamentary secretaries were counted in the 10 per cent cap under Article 239AA. Subsequently, the positions of the 21 AAP MLAs as parliamentary secretaries were thrown out. The question of holding an Office of Profit would only arise if that office had been held. But as per the Delhi High Court, none of them could hold that post owing to the cap under Article 239AA. Therefore, several doubts rose when the ECI recommended the suspension of the 20 AAP MLAs, considering that all of these posts had been previously quashed by the Delhi HC and that none of them was enjoying remuneration to qualify as “profit” under Article 191(1)(a).While the ECI’s recommendations are questionable both on substantive legal points and procedure, what is unquestionable is that the conventions are in serious jeopardy. The Indian Constitution only refers to Offices of Profit; unlike the American constitution which differentiates between Office of Profit, Office of Honour, and Office of Trust. Therefore, we must distinguish between the same, and the tendency to collate all public offices as Office of Profit is problematic. “Profitability” is the fundamental ground in determining an Office of Profit and the same, in the AAP case, is absent.
The arc to Southeast Asia
India and ASEAN must draw up a functional road map to enhance ties
Harsh V. Pant is Distinguished Fellow at Observer Research Foundation, New Delhi and Professor at King’s College London
This week India will host heads of state or government of all 10 nations of the Association of Southeast Asian Nations (ASEAN) for the Republic Day celebrations in a dramatic declaration of intent by New Delhi to boost India’s ties with Southeast Asia. The year 2017 was an important landmark as India and the ASEAN commemorated 25 years of their partnership, 15 years of summit-level interaction, and five years of strategic partnership. The challenge now is to map out next steps in the India-ASEAN partnership at this time of unprecedented geopolitical flux in the wider Indo-Pacific.
Overcoming disillusionment
There has been a sense of disillusionment on both sides about the present state of play in the relationship. While the ASEAN member states have been disappointed that India continues to punch below its weight in the region, New Delhi’s expectations regarding a more robust support for its regional outreach too have not been met. India’s capacity to provide development assistance, market access and security guarantees remains limited and ASEAN’s inclination to harness New Delhi for regional stability remains circumscribed by its sensitivities to other powers. The interests and expectations of the two sides remain far from aligned, preventing them from having candid conversations and realistic assessments.
Though the Modi government’s ‘Act East’ policy is aimed at enhancing India’s strategic profile in East and Southeast Asia, New Delhi’s main focus remains on South Asia and the Indian Ocean region. There has been a shift in emphasis, of course, with India moving away from the South Asian Association for Regional Cooperation (SAARC) to the Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation (BIMSTEC) and asserting its centrality in the evolving geography of the Indo-Pacific. But it is no match for China’s regional profile which is largely about viewing Southeast Asia as its backyard. India’s economic focus too is not in tune with other regional powers which view ASEAN as an important market for exports and investments. India’s export sector remains weak and the government’s focus has shifted to boosting manufacturing domestically.
India’s interest in ASEAN as a multilateral forum remains lacklustre as it continues to privilege bilateral partnerships to further its own interests. As New Delhi’s gaze shifts to the Bay of Bengal, Myanmar and Thailand have emerged as key players in its southeastern outreach. The hope is to use these nations as a bridge to ASEAN. The temptation to prioritise these countries over others in ASEAN may also prevent others from looking at India as a regional stakeholder. New Delhi is signalling, perhaps inadvertently, that it is more interested in becoming a member of various regional organisations because of global power credentials even when its substantive engagement with such platforms remains limited.
It is important for India and ASEAN to chart out a more operational, though modest, agenda for future cooperation. The three Cs of commerce, connectivity and culture have been highlighted but a more granular perspective is needed in terms of a forging a forward-looking approach. There is no getting away from enhancing trade and economic linkages between India and ASEAN. They also need to focus on areas such as digital technologies. India, as a fast emerging major player, has significant comparative advantages. As Chinese giants begin to dominate the digital space in Southeast Asia and concerns rise about their ability to own data, the Indian IT sector may take some advantage of the seeming reluctance of ASEAN states to put all their eggs in the Chinese basket. India as a facilitator of the ASEAN-wide digital economy would not only challenge China but also emerge as an economic guarantor of its own.
Focus on projects
Instead of talking about ASEAN-wide connectivity projects, New Delhi now needs to focus on more effective delivery of projects it is already committed to. In this context, prompt completion of the India-Myanmar-Thailand Trilateral Highway, which will run from Moreh in Manipur to Mae Sot in Thailand via Myanmar, is key. The plan is to extend this highway to Cambodia, Laos and Vietnam in an attempt to project India’s role in the emerging transportation architecture. With China having three times more commercial flights than India to Southeast Asia, improving air connectivity between India and ASEAN countries should also be high on the agenda. Besides, the Bay of Bengal can be used as an exploratory ground for the development of an India-ASEAN maritime framework.
Finally, the cultural connect between the two needs strengthening. While India offers scholarships to students from ASEAN states to study at Nalanda University, this initiative should be extended to the IITs and the IIMs. Tourism too can be further encouraged between India and the ASEAN with some creative branding by the two sides.While India and the ASEAN have been very ambitious in articulating the potential of their partnership, they have been much less effective in operationalising their ideas. The need now is to focus on functional cooperation and make the idea of an India-ASEAN partnership more exciting.