26-12-2016 (Important News Clippings)

Afeias
26 Dec 2016
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Date: 26-12-16

Amazonian Opportunity

A few weeks ago, the founder of Flipkart suggested the government find ways to curb foreign rivals. Meanwhile, Jeff Bezos, whose firm he aped, met Donald Trump and pitched he was “super excited about the possibilities this could be an innovation administration”.

The difference in the public stance of the two entrepreneurs signals Indian firms shouldn’t fear deep pocketed rivals, but their own lack of imagination. In the 20 years since Amazon came into being as seller of books, it’s changed the shape of retailing globally and also reimagined its business model every step of the way. The firm — which is a technology company with a deep logistics network — is not longer just a seller of clothes, gadgets, groceries and furniture. It is the seller of convenience — to individuals and to businesses.

Amazon delivers goods to customers in under an hour in some countries. It’s experimenting with Amazon Go, a kind of basic grocery store where customers won’t have to deal with a cashier. A raft of technologies, from a smartphone to cameras, will ensure the customer can walk out with goods for which he will be billed automatically. Meanwhile, Amazon Web Services (AWS), a cloud platform, is slaying it: making mainframe storage obsolete. And technology giants ranging from Microsoft to the omnipresent Google are lagging. In just five years, Amazon has grown its cloud business from $750 million to an estimated $12 billion this year.

In the AWS giant software market- place, anyone hosting on cloud can buy other software they need and strap it on to the Amazon bill. That’s the same as telling a shopper he can buy the rug for the living room, and the floor cleaner at the same time.

By doing all these things, centred around convenience, Amazon has demonstrated that while it’s a huge company, it behaves like a nimble startup. It’s truly obsessed with how to serve the customer using technology, rather than being focused on competition.Contrast that with Flipkart’s founder Sachin Bansal, who is sweating over rivalry when he should be thinking innovation. In the decade Flipkart’s been around, its talked-of customer-centric innovation has been cash-on-delivery. That now risks being strangled in the push for digital payments in India.

Bansal, instead, is collecting acolytes for a kind of Bombay Club — a throwback to the early 1990s when India’s family-run firms lobbied against opening the economy to international ones. That plan was flawed then, as it is now.Bansal’s emissary seems to be Bhavish Aggarwal, another copycat who founded Ola, modelled on cabhailing service Uber. Aggarwal insists the market is distorted by capital, not innovation. Sure, deep pockets do help, but despite vast troves of money, Uber was browbeaten by smaller rival Didi in China.

Uber is looking beyond, though. It has just set up an artificial intelligence lab, delivers food, is experimenting with driverless cars and shipment delivery. In the shared Uber world, there will be way fewer vehicles, more shared Uber rides. Uber’s emphasis on getting rid of personal vehicles is giving established automakers sleepless nights. Ola, though, is still very much the ridehailing service. Bansal and Aggarwal, the two poster boys of Indian startups, must know they have spent too much time driving up valuation, and too little reimagining what their business could become.

Preventing larger rivals access to the Indian markets will only help make the local firms more pricey, not more innovative. It doesn’t serve the consumer, but it does serve the promoters.

What India needs is startups that make the most of the vast pool of technology talent on offer, to bring convenience to underserved Indians. In the years they have been around, neither Flipkart nor Ola found ways to truly disrupt the rural marketplace — India’s most parched market — and arguably that offering the most potential.Rural markets lack last-mile connectivity and have poor access to goods and services. A startup that’s able to find a way to plug these gaps has the potential to be as respected as Amazon and as valuable as Uber.

In missing that market and creating a poor also-ran to Amazon and Uber, Indian firms risk writing their own obituary. They shouldn’t expect too many tears at the funeral. Conventional wisdom links performance evaluations, ratings and compensation. To meet the expectations, mean performance levels would be pegged around the market average. Overperformance would beat the market rate, to attract and retain top talent.

And poor scores would bring employees below the market average, to provide a disincentive for underperformance. This logic is appealing and consistent with the Gaussian view. In fact, the distribution guide, with its target percentages across ratings, gives companies a simple template for calculating differentiated pay while helping them to stay within a compensation budget.…Linking performance ratings and compensation in this way ignores recent findings in the cognitive sciences and behavioural economics. The research of Nobel laureate Daniel Kahneman and others suggests that employees may worry excessively about the pay implications of small differences in ratings, so the fear of potential losses, even small, should influence behaviour twice as much as potential gains do.

This idea is counterintuitive, but linking performance with pay can demotivate employees even if the link produces only small net variances in compensation. Since only a few employees are standouts, it makes little sense to risk demotivating the broad majority by linking pay and performance. More technology companies, for instance, have done away with performance-related bonuses.

Anjana Menon  The writer is founder, Content Pixies From“Aheadof thecurve:Thefuture of performance management”


Date: 26-12-16

चयन में योग्यता का आधार सही मगर बीच में न आए राजनीति

सन 1949 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू देश के पहले कमांडर इन चीफ (सन 1955 में इसे चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ में बदल दिया गया) की नियुक्ति कर रहे थे तो उनको तीन लोगों के बीच चयन करना पड़ा। जनरल के एम करिअप्पा सबसे वरिष्ठ थे। वह अंग्रेजों के प्रति सराहना का भाव रखते और धोतीवालों यानी कांग्रेस नेताओं के प्रति विरोध का। दूसरे थे जनरल महाराज श्री राजेंद्र सिंह जी। ये नवानगर के जाम साहब के भाई थे। तीसरे थे जनरल नाथू सिंह। ये जमीन से जुड़े राजपूत थे। राजेंद्र सिंह जी और नाथू सिंह ने नेहरू से कहा कि इस पद पर करिअप्पा की नियुक्ति की जानी चाहिए क्योंकि वे वरिष्ठ भी हैं और सक्षम भी है।

नेहरू को डर था कि एक आक्रामक और अधिक सक्रिय जनरल देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को अस्थिर कर सकता है। ऐसा कई नव स्वतंत्र राष्ट्रों में देखने को मिल भी रहा था। नेहरू सोच रहे थे कि क्या भारतीय सेना में एक ब्रिटिश कमांडर इन चीफ बरकरार रखना चाहिए क्योंकि भारतीय सैन्य अधिकारी अनुभव में कमतर थे। नौसेना और वायुसेना में तो आने वाले कुछ वर्ष तक ब्रिटिश अधिकारी बरकरार रहे। बहरहाल इस बात से आहत नाथू ने हल्के मजाक में कहा कि इस आधार पर तो प्रधानमंत्री भी ब्रिटिश हो सकता था। इसके बाद करिअप्पा की नियुक्ति तय हो गई।
आज ऐसी निष्पक्षता की उमीद बेमानी है। अब कमोबेश यह मान भी लिया गया है कि वरिष्ठïता सेना प्रमुख पद के लिए इकलौता मानक नहीं होना चाहिए। अब सरकार ने लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत को नया सेना प्रमुख बनाना तय किया है। उन्हें दो वरिष्ठ अधिकारियों प्रवीण बख्शी और पीएम हारिज पर तवज्जो दी गई। कहा गया कि वह भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए बेहतर तैयार हैं। प्रश्न यह है कि यह बेहतर तैयारी या श्रेष्ठता कैसे तय होती है?
बीते चार दशकों के दौरान मैंने इन तीनों लोगों को करीब से देखा है। खासतौर पर बख्शी और रावत को जिनके साथ मैं राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में एक ही स्क्वाड्रन में था। बाद में बख्शी, हारिज और मैंने अपनी रेजिमेंटों को एक साथ में कमांड किया था। उसके बाद मैंने रक्षा पत्रकार बनने का निर्णय ले लिया जबकि बाकी लोग उच्च कमांड में चले गए। मैं कह सकता हूं कि ये तीनों बेहतरीन नेतृत्वकर्ता हैं।
बख्शी और हारिज मैंने भी लंबा अरसा पंजाब के मैदानी और राजस्थान के रेतीले इलाके में बिताया। इसके अलावा मैंने नगालैंड, मणिपुर, जम्मू कश्मीर और अफ्रीका तक में सेवाएं दीं। सरकार के पैरोकार लगातार कह रहे हैं कि बख्शी के पास आतंकवाद विरोधी अभियानों का अनुभव कम है। इस आधार पर तो यह बेतुकी दलील भी दी जा सकती है कि रावत को मैदानी इलाकों का कम अनुभव है और इसलिए वह पाकिस्तान के साथ किसी जंग में उतने प्रभावी नहीं रहेंगे।
बख्शी की आलोचना और रावत को उन पर तरजीह देना यह स्वीकार करना भी है कि सेना का मूल काम अब पारंपरिक युद्घ नहीं बल्कि आतंकवाद विरोधी अभियान हैं। यह पाकिस्तान से हार स्वीकार करने के समतुल्य है क्योंकि उसकी सैन्य नीति हमेशा से भारत को अपारंपरिक तरीके से नुकसान पहुंचाने की रही है। अलगाववादियों से निपटना इसके बाद आता है।राजनीतिक निर्णय करने वालों को यह समझना चाहिए कि सेना के सभी धड़े दो मैकेनाइज्ड फोर्स अधिकारियों को किनारे किए जाने को निराशा से तक रहे हैं। सैन्य बलों में पदोन्नति का मुद्दा काफी समय से आलोचना के घेरे में है। पदोन्नति नीतियों को लेकर कई मुकदमे चल रहे हैं। इन नीतियों के तहत इन्फैंट्री को तवज्जो दी जाती है। अब दो दशक बाद जब अन्य सशस्त्र कोर के जनरल स्वाभाविक रूप से सेना के प्रमुख बन रहे हैं तब इन्फैंट्री जनरल को इस आधार पर तवज्जो दी जा रही है जो छोटे मोटे फेरदबदल के साथ हर जनरल पर लागू होते हैं।
इस बात पर आम सहमति बन रही है कि सेवा प्रमुखों का चयन वरिष्ठïता पर नहीं बल्कि श्रेष्ठता पर होना चाहिए। ऐसे में अहम प्रश्न यह है कि क्या श्रेष्ठïता तय करने के कुछ स्थापित मानक होने चाहिए? फिलहाल तो ऐसा नहीं है। यह दलील दी जा सकती है कि जो जनरल आर्मी कमांडर बनाने जाने लायक समझा गया हो उसमें यह गुण होंगे ही कि उसे सेना प्रमुख बनाया जा सके। लेकिन यह बात आंशिक रूप से ही सही है। सेना प्रमुख के दो अन्य प्रमुख कार्य भी होते हैं। पहला, वह प्रतीकात्मक रूप में और प्रेरणा के स्तर पर भी सेना का प्रमुख होता है। एक ऐसा व्यक्ति जो संचार में कुशल और मीडिया के साथ तालमेल वाला हो वह सकारात्मक छवि के साथ लोगों का भरोसा बढ़ाता है।
फिलहाल सेना के साथ राजनैतिक नेतृत्व के रिश्तों को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि शीर्ष राजनैतिक नेतृत्व का प्रमुख सैन्य कमांडरों के साथ नाम मात्र का ही संवाद है। बात अगर सेना प्रमुख के चयन की हो तो रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री ने जिन कमांडरों के बीच से चयन किया उनसे उनका औपचारिक संवाद ही हुआ होगा। तीनों सेनाओं की भौगोलिक कमांड का ढांचा लंबे समय से प्रस्तावित है और इसका क्रियान्वयन इस चयन को पांच-सात कमांडरों के बीच सीमित कर देगा। ये वे कमांडर होंगे जिनको राजनेता निजी तौर पर जान सकें। तब तक नेताओं को अपना चयन दूसरों की राय के आधार पर ही करना होगा।
रावत की नियुक्ति से यह स्पष्ट है कि कथित श्रेष्ठता आधारित चयन देश के सर्वाधिक अराजनीतिक संस्थान के राजनीतिकरण की राह प्रशस्त कर रहा है। इसके अलावा यह वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को राजनीतिक रिश्ते बढ़ाने के लिए भी प्रेरित कर रहा है। अब तक सेना आंतरिक निर्णयों में राजनीतिक हस्तक्षेप टालते रहने में सफल रही है। अब जबकि महत्त्वाकांक्षी जनरलों को पता चल चुका है कि राजनीतिक संरक्षण से लाभ हो सकता है तो कहा जा सकता है कि सेना के राजनीतिकरण का एक चिंतित करने वाला समय हमारे सामने है।
अजय शुक्ला

Date: 25-12-16

ग्राम्य कलाओं का विस्थापन

देश-दुनिया में आधुनिक हुए लोगों को विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने बड़ी सुविधा दी है।

देश-दुनिया में आधुनिक हुए लोगों को विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने बड़ी सुविधा दी है। लोग बहुत खुश हैं। ऐशो-आराम की सारी वस्तुएं उनसे मात्र एक फोन-कॉल की दूरी पर हैं। पर लोग चिंतित भी बहुत हैं। अक्सर चिंता करते रहते हैं कि विज्ञान ने हमारा बहुत कुछ छीन लिया; कुछ भी पहले जैसा नहीं रह गया। सामाजिकता खत्म हो गई; मनुष्य का नैतिक पतन हो गया; लोग मशीनवत हो गए; मानवीय सरोकार बेमानी हो गया। पर उन्हें अपने किए पर पश्चाताप करने की फुरसत नहीं मिलती। बेमतलब विज्ञान को कोसते रहते हैं। वे याद ही नहीं करते कि विज्ञान ने उनका कुछ नहीं छीना; किसी वैज्ञानिक उपकरण ने उन्हें अपनी विरासत से मुंह मोड़ने को विवश नहीं किया।

मान्य परिभाषा के अनुसार किसी विषय के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। परिकल्पना और प्रयोग द्वारा इसमें तथ्य, सिद्धांत और तरीकों को व्यवस्थित किया जाता है। इस अर्थ में विज्ञान स्वयं में एक कला है। क्योंकि मनुष्य के शारीरिक और बौद्धिक कौशल से किया गया हर सृजन कला होता है। विज्ञान की दिशा में आगे बढ़ते हर कदम पर कौशल की जरूरत होती है। इस हाल में कला-समूह के विलुप्तीकरण का दोष विज्ञान पर थोपना कहां तक समीचीन है! किसी वस्तु की प्रयुक्ति का मानवीय विवेक तार्किक न हो तो विज्ञान इसमें क्या कर सकता है। अतिरिक्त सुविधा के आखेट में लोग लगातार अपनी परंपरा और नैतिक सरोकार से कटते गए और अब जब सब कुछ हाथ से निकल गया, तो हाथ मलने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं रह गया है।

लोग अक्सर आरोप लगाते हैं कि वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण ग्राम्य-कलाएं नष्ट हो गर्इं। तथ्य है कि आधुनिक और सभ्य होने की आपाधापी में आज गांव से सभी पारंपरिक कलाएं लुप्त हो गई हैं। पर प्राथमिक सच्चाई यह है कि समाज से जीवन जीने की कला लुप्त हो गई है। सामाजिक जीवन जीने की पहली शर्त मानवीय सरोकार है! वे उसी में ईमानदार नहीं हैं, फिर चरखा, छींका (सिकहर), बियनी, खटिया, टोकरी, रस्सी बटने का टेरुआ, मूंज की रस्सी, पशुओं के पगहे, मुखारी, जाबी, हेंगा, कांड़ी, ढेकी, करीन, कुश-पटपटी की चटाई, सुजनी, कथरी आदि लुप्त हो गई, तो कौन-सा अनर्थ हो गया!

पर्यावरणविदों के बीच एक दंतकथा प्रचलित है कि किसी खास समाज के लोग जीवंत पेड़ को नहीं काटते; जीवन-व्यवस्था के संचालन में कोई पेड़ बाधक होता है, तो लोग सामूहिक रूप से उस पेड़ के पास जाते हैं, धिक्कार-तिरस्कार के साथ उस पेड़ की फजीहत करते हैं; और वापस आ जाते हैं। आगे के दो चार दिनों में वह पेड़ सूख जाता है; फिर लोग उसे काट कर हटा देते हैं। इस टोटके में संभव है कि किसी को अंधविश्वास की बू लगे। पर, बात यहां सार्थकता की है। संकेत यह है कि जड़ होने के बावजूद पेड़ जीवंत है; सामाजिक जीवन में अपने सम्मान और सार्थकता का लोप देख कर वह प्राण त्याग देता है, सूख जाता है। ग्राम्य-कला की भी यही दशा है। नागरिक-जीवन में जब उसका सम्मान और सार्थकता बची नहीं रही, तब उसे जिला कर कौन रखे बिसुखी हुई गाय को हरी घास तो किसान भी नहीं खिलाते।

इन कलाओं का जन्म तथ्यत: ग्राम्य-जीवन की जरूरतों के अनुसार ही हुआ। कलाकारों ने अपने कौशल को समाज में ही पुख्ता किया। पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसकी दीक्षा मिलती गई। अनुभव और प्रयोजन के अनुसार इनमें परिपक्वता आती गई। अपने उद्भव-काल से ये कलाएं सामाजिक-जीवन में गरिमा पाती रहीं, कला और कलाकारों का सम्मान होता रहा। कलाएं सार्थक और उपयोगी बनी रहीं। उल्लेखनीय है कि जीवन-यापन की जरूरतों के अलावा ये कलाएं सामाजिक सौहार्द और मानवीय मूल्य की भी रक्षा करती थीं। जिनके पास इन कलाओं में निपुणता होती थी, उन्हें लोग महत्त्व देते थे। जीवन-यापन में सामूहिकता थी। हर व्यक्ति को अपने जीवन में दूसरे व्यवसाय के लोगों की अनिवार्यता दिखती थी।

विगत तीन दशक में ग्राम्य-कलाओं के उत्पाद्य भारी मात्रा में सामाजिक जीवन के लिए त्याज्य हो गए हैं। गौरतलब है कि सामाजिक जीवन के मानवीय सरोकार, भाषिक ऊर्वरता और जनपदीय संस्कृति पर इसका गहरा असर हुआ है। दीपावली के अगले दिन गोवर्द्धन पूजा या सुकराती पर्व होता है। किसानी-संस्कृति में पशु-धन और कृषि-कर्म के औजारों का पूजन अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। प्रति वर्ष इस दिन किसान अपने मवेशियों के पगहे बदलते थे। नए रंगारंग पगहे पहने हुए पशुधन का रूप-रंग इस दिन देखते ही बनता था। इस दिन की तैयारी में किसान दशहरे के तत्काल बाद से लग जाते थे। गहने जैसी दिखने वाली किसक-किसिम की रस्सियां बनाई जाती थीं। पूरा किसान परिवार सुतली और रस्सियों में रंग जमाते हुए विभोर रहता था। रस्सियों के उन गहनों का एक से एक नाम होता था-गरदामी, मुखारी, नाथ, रास, ठेका, पगहा, गुल्ठी, जाबी, कराम, लदहा, बरहा आदि। यह सारी उत्सवधर्मिता प्लास्टिक की रस्सी निगल गई।

यही हाल सुजनी और चटाई का था। पटपटी और मोथी से चटाइयां बनाई जाती थीं, आकार-प्रकार और बुनने के तरीके से उनके नाम बदलते थे-चटकुनी, चटाई, गोनरि। मूंज, कुश, साबे, डाभी, कास, पटेर, मोथी, सीकी के उपयोग से एक से एक टोकरियां बनाई जाती थीं-ढाकी, पथिया, धामी, भौकी, दौड़ी, मौनी, पौती। आकार के अनुसार इनकी सामग्री और बुनावट बदलती थी। रूप-स्वरूप देखते ही बनता था। रचना शुरू करने से पूर्व ही कलाकार उसका उद्देश्य घोषित कर देते थे कि यह किसके लिए बनाया जा रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में कलाकार और कला के उपयोक्ता का स्नेह-सूत्र लगातार संचालित रहता था। रेडीमेड प्लास्टिक बास्केट ने इन कलाओं को विस्थापित कर दिया। इस तरह संस्कृति के साथ-साथ भाषा को भी आहत कर गर्इं। आज की पीढ़ी के बच्चे इन शब्दों के अर्थ नहीं समझते। जिन प्राकृतिक पदार्थों और घरेलू औजारों का इनमें उपयोग होता था; आज के बच्चे उन्हें जानते तक नहीं। खटिया और मचान-किसानी चौपाल के लिए अत्यंत उपयोगी थे, जो अब पाए नहीं जाते।

गांवों में अक्सर फूस के घर होते थे। उसके मुख्य कारीगर को ‘घरामी’ कहा जाता था। वे निरक्षर कारीगर कहीं से इंजीनियरिंग पढ़ कर तो नहीं आते थे, पर उनका ज्यामितीय ज्ञान इतना सधा होता था कि दूर-दूर के गांवों तक उनकी ख्याति फैली रहती थी। अमुक कारीगर द्वारा घर छवाया जाए तो पांच बरस तक घर में बारिस की बूंद न टपके!ताड़ के पत्तों से चटाई बनती थी, पंखा बनता था, बियनी बनती थी; बनावट के अनुसार इनके नाम और उपयोग की पद्धति निर्धारित होती थी। प्लास्टिक के पंखे ने इन सबको विस्थापित कर दिया। असंख्य उदाहरण हैं। उपभोक्ता की अमीरी ने इन कला-रूपों को विस्थपित किया या बाजार के दबाव ने, या कि सामान के टिकाऊपन ने, या फिर आधुनिकता की आंधी ने- कहना मुश्किल है। पर इतना तय है कि इस पूरी प्रक्रिया ने केवल कलाओं को आहत नहीं किया, संस्कृति ही क्षरित नहीं हुई; हमारी भाषा का बहुत बड़ा नुकसान हुआ। सामाजिक सौहार्द बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुआ है। इन क्षतियों की भरपाई असंभव है। इससे गांव का भदेसपन समाप्त हुआ है, जो किसी न किसी हद तक भरतीयता का प्रतीक था। अब ओहार लगी बैलगाड़ी या गुड्डा-गुड्डी के विवाह का खेल हमारे समाज के बच्चे सिनेमा, संग्रहालय या किताबों में ही देखेंगे।


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