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26-07-2016 (Important News Clippings)

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26 Jul 2016
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Date: 26-07-16

 

सुरक्षित जीवन से जुड़ी है आजादी की मांग

मिहिर शर्मा

कश्मीर में ‘आजादी’ की मांग को लेकर लग रहे नारों की अब नई दिल्ली में अनदेखी नहीं की जा सकती है। हाल ही में जब संसद में कश्मीर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों पर बहस चालू हुई तो एक अंतर एकदम स्पष्ट था। देश की संसद में मौजूद प्रतिनिधि यह नहीं कह सकते कि इन सबके पीछे पाकिस्तान का हाथ था। इस बार उनको यह स्वीकार करना पड़ा कि उदार लोकतांत्रिक भारत के हजारों नागरिक गुस्से में सड़कों पर उतर आए और उन्होंने ‘आजादी’ के नारे लगाए। यह भारतीय राज्य की विफलता है। सवाल यह है कि यह कैसी विफलता है? इस प्रश्न का कोई भी सही उत्तर तलाश करने के पहले हमें ‘आजादी’ शब्द को गंभीरता से लेना होगा। हमें इसे उतनी ही गंभीरता से लेना होगा जितनी गंभीरता से इसे हमारा संविधान लेता है और जितनी गंभीरता से इसे एक हालिया फैसले में देश की सर्वोच्च अदालत ने लिया।

एक अन्य संकटग्रस्त राज्य मणिपुर में अनगिनत ऐसे मामले हैं जहां अदालती आदेश के बगैर लोगों की जान गई। देश की सबसे बड़ी अदालत ने ऐसे ही आरोपों से जुड़े एक मामले में कहा था, ‘अगर हमारे सशस्त्र बलों के जवानों की नियुक्ति और उनका रोजगार इस आधार पर तय है कि वे अपने ही देश के नागरिकों को दुश्मन होने के ‘संदेह’ में जान से मारें तो यह विधि के शासन ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के लिए भी गंभीर खतरे की बात है। अगर एक नागरिक बंदूक के साये में जिंदगी बसर कर रहा है जिसे कभी भी बिना हिचक चलाया जा सकता है और यह बात सहज स्वीकार्य है तो यह भी उतना ही असहज और निराश करने वाला है। खासतौर पर भारत जैसे संवैधानिक लोकतंत्र में।’
मणिपुर तथा देश के अन्य हिस्सों की ही तरह कश्मीर में भी भारतीय राज्य को उसकी हरकतों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जाता। जैसा कि अदालत ने कहा भी इसके तमाम जोखिम हैं। इतना ही नहीं ऐसा होने की वजह से वहां के लोग बंधन महसूस करते हैं। किसी भी व्यक्ति की आजादी का सबसे बुनियादी तत्त्व है राज्य के मनमाने आचरण से उसकी रक्षा। भारत कश्मीर में अपने नागरिकों को यह मुहैया कराने में लगातार विफल रहा है। किसी व्यक्ति की आजादी का दूसरा बुनियादी तत्त्व है किसी भी व्यक्ति की भड़काई हिंसा से संरक्षण। हमारा देश कश्मीर में 25 साल पूर्व कश्मीरी पंडितों से लेकर अब तक तमाम लोगों को यह मुहैया कराने में भी विफल रहा है। किसी भी उदार लोकतंत्र और उसके नागरिकों के बीच के रिश्ते की यह बुनियाद है।
जब इस बुनियाद को ठेस पहुंचती है तो ‘आजादी’ की क्रोध भरी मांगें सुनने को मिल सकती हैं। लेकिन यहां एक समस्या है: कश्मीर में आज जिस आजादी की मांग की की जा रही है वह सामूहिक आजादी नहीं है। उसमें कश्मीरी पंडितों अथवा शियाओं के लिए गुंजाइश नजर नहीं आती। या फिर लद्दाखी बौद्धों की भी। ऐसे में इसका विरोध करने की पर्याप्त वजह मौजूद है।
इसी बीच आ रही एक अन्य खबर पर गौर कीजिए। गुजरात में दलितों ने अपने मूल अधिकारों की मांग के साथ प्रदर्शन किया। ऐसा एक वीडियो सामने आने के बाद हुआ जिसमें उच्च वर्ग के कुछ लोग उन दलितों के साथ बुरी तरह मारपीट कर रहे हैं जो एक मृत गाय को चमड़ा निकालने के लिए ले जा रहे थे। जरा सोचिए राज्य किस प्रकार लोगों को उनकी व्यक्तिगत आजादी सुनिश्चित करा पाने में नाकाम रहा। उसने उन दलित कामगारों को हिंसा से नहीं बचाया बल्कि उनके साथ हिंसा होने दी। यहां एक अतिरिक्त तत्त्व भी है। उन दलितों को इस बात के बावजूद पीटा गया कि मृत पशुओं का चमड़ा निकालना उनका पेशा था।
आजादी का तीसरा अहम घटक है दुनिया में अपनी राह खुद बनाने का अधिकार। रोजगार का अधिकार या कारोबार करने का अधिकार ताकि बेहतर जीवन जिया जा सके। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप मृत गायों से जुड़ा काम कर रहे हैं। उच्च वर्ग के लोगों ने दलितों पर हमला किया और भारतीय राज्य उनको सुरक्षा की गारंटी देने में विफल रहा।
ठीक कश्मीर की तरह लोगों की व्यक्तिगत आजादी की सुरक्षा न कर पाने का नतीजा सामूहिक मांगों के रूप में सामने आएगा और जाति की राजनीति मुखर होगी। 
ऐसा भी नहीं है कि हमारी सरकार केवल दलितों, वंचितों और कश्मीरियों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता मुहैया करा पाने में नाकाम रही है। हाल ही में गुजरात में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न पाटीदार समुदाय के प्रदर्शन ने हिंसात्मक रूप धारण कर लिया था। वे सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग कर रहे थे। आपको लग सकता है कि पाटीदार आंदोलन का आजादी से क्या लेनादेना? समुदाय को लगता है कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में वह पिछड़ रहा है। क्यों? इसकी एक अहम वजह यह है कि वे जमीन पर कब्जे के अपने दबदबे को आधुनिक अर्थव्यवस्था के हिसाब से बदलने में नाकाम रहे। उस पर भी इस समुदाय के अधिकांश लोगों के पास बहुत छोटी जोत का स्वामित्व है या वे छोटामोटा कारोबार करते हैं। देश में भूमि चकबंदी का काम नहीं हो सका है और नियम कायदों की कमजोरी ने छोटे उद्यमों को विकसित नहीं होने दिया है। इसीलिए वे सरकारी नौकरियों की मदद से आर्थिक सुरक्षा हासिल करना चाहते हैं। हरियाणा में जाट हिंसा और राजस्थान में गुज्जर आंदोलन तथा आंध्र प्रदेश में कापू हिंसा के पीछे भी यही वजह हैं।

एक उदार लोकतांत्रिक समाज में लोगों की आर्थिक और सामाजिक आजादी से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता।
उनको सुरक्षित जीवन और विकास का अवसर मिलना चाहिए। बीते सात दशक में हमने इन बातों को महत्त्व नहीं दिया। यही वजह है कि अब अलग-अलग तरह की आजादी की मांगें चारों ओर से उठ रही हैं।

jagran

Date: 26-07-16

एएमयू की प्रकृति का प्रश्न

केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सरकार द्वारा पोषित एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देना संभव नहीं है। एएमयू का अल्पसंख्यक चरित्र एक बार फिर परीक्षण के दायरे में आया है।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) का अल्पसंख्यक चरित्र एक बार फिर कानूनी और राजनीतिक परीक्षण के दायरे में आया है। 17 जुलाई को केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सरकार द्वारा पोषित एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देना संभव नहीं है। पूर्व में 11 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू से कहा था कि वह केंद्र सरकार के समक्ष इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले के संबंध में अपना बयान दर्ज कराए जिसमें कहा गया था कि विश्वविद्यालय कभी भी अल्पसंख्यक संस्थान नहीं रहा है। 2005 में हाईकोर्ट के एक जज ने फैसला सुनाया था कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देना और एएमयू द्वारा मुस्लिमों को पचास फीसद आरक्षण देना असंवैधानिक है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के अनुसार अल्पसंख्यकों को अपनी सांस्कृतिक पहचान की सुरक्षा और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना का अधिकार है। अनुच्छेद 30 (1) कहता है कि सभी अल्पसंख्यकों (चाहें वे धार्मिक हो या भाषाई) को अपनी पसंद की शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना और प्रबंधन का अधिकार होना चाहिए। इस प्रकार संविधान मुस्लिमों या दूसरे समुदायों को शैक्षणिक संस्थाओं को स्थापित करने और प्रबंधन करने से नहीं रोकता है। एएमयू की स्थापना मुस्लिमों का वैज्ञानिक उत्थान करने वाले एक कॉलेज के रूप में की गई थी। ऐसे अल्पसंख्यक संस्थाओं की फंडिंग स्वयं मुस्लिम समुदायों द्वारा होनी चाहिए, न कि भारतीय शासन द्वारा। सर सैयद अहमद खान ने 1875 में मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की थी। उसे 1920 में विघटित कर दिया गया और भारतीय संसद के अधिनियम द्वारा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में पुन: स्थापित किया गया था। इस प्रकार एएमयू की स्थापना संविधान के प्रावधानों के तहत हुई है। यह ठीक है कि शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना करने का अल्पसंख्यकों को अधिकार देता है, लेकिन ऐसी संस्थाएं अल्पसंख्यक का दर्जा बरकरार नहीं रख सकतीं, यदि उनकी फंडिंग भारतीय शासन द्वारा हो रही हो। भारत एक पंथनिरपेक्ष देश रहा है, ऐसे में एएमयू यदि स्वयं को अल्पसंख्यक संस्थान मानता है तो वह देश के करदाताओं का पैसा नहीं ले सकता है। अनुच्छेद 30 (2) के अनुसार शासन तंत्र अल्पसंख्यक संस्थाओं को सहायता दे सकता है, लेकिन एएमयू का मामला सिर्फ सरकार द्वारा मदद देने भर का नहीं है, बल्कि एक सरकार द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के लिए संस्थान चलाने और उसे फंडिंग करने का है।

एएमयू के साथ एक अन्य मामला यह है कि वह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय भी है। इसका अर्थ है कि देश में राष्ट्रीय महत्व के एक संस्थान को धार्मिक मान्यता को पोषित करने, किसी धर्म की शिक्षा को बढ़ावा देने या मुख्य रूप से एक धार्मिक समुदाय के छात्रों को स्वीकारने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों को अपने छात्रों में राष्ट्रीय एकता का भाव भरना अनिवार्य है और ऐसा तभी हो सकता है जब बिना किसी धार्मिक, क्षेत्रीय या जातीय भेदभाव के एएमयू में भारत के सभी समुदायों और क्षेत्रों के छात्रों को पढऩे का अवसर मिले। 2004 में एएमयू ने मेडिकल के पाठ्यक्रम में मुस्लिमों को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया, जो संविधान का उल्लंघन है, क्योंकि विश्वविद्यालय की स्थापना भारतीय संसद के अधिनियम द्वारा की गई है। ऐसे में यह धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता।

एएमयू के नेतृत्व को अल्पसंख्यक मनोदशा से बाहर निकलने की जरूरत है। उसे एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा बनाए रखने पर जोर नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे देश के मुस्लिमों में गलत संदेश जाता है कि उनके लिए देश में सिर्फ एक ही विश्वविद्यालय है। जबकि तथ्य यह है कि भारत में मुस्लिमों को भी अन्य समुदायों के नागरिकों के समान ही अपने शैक्षिक उत्थान के लिए देश के अन्य हजारों कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने का अधिकार है। उत्तर भारत खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश के मुसलमानों में एएमयू को एकमात्र विकल्प के रूप में देखने की प्रवृत्ति रही है। यहीं से भारतीय समाजकी मुख्यधारा से उनके बौद्धिक विलगाव का जन्म होता है। यह अलगाव मुस्लिमों के हितों को नुकसान पहुंचाता है। एएमयू परिसर से निकलने वाले इसी बौद्धिक अलगाववाद ने पाकिस्तान के विचार को जन्म दिया था।

चिंता की एक बात यह भी है कि पंथनिरपेक्ष भारतीय गणतंत्र के पास इस बात को लेकर स्पष्टता की कमी है कि वह कैसे सभी धर्मों से समान दूरी बरकरार रखे। राजनीतिक बाध्यताओं के कारण भारत की सरकारें इस्लाम और उसकी धार्मिक रूढिय़ों को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं को धन मुहैया कराती रही हैं। उदाहरण के रूप में एएमयू में भारत सरकार सुन्नी और शिया की धार्मिक शिक्षा देने वाले धर्मशास्त्र विभाग को फंड मुहैया कराती है। इसके साथ ही कई गैर शैक्षणिक कर्मचारियों की प्रोफेसर रैंक पर नियुक्ति की गई है और वे मुस्लिमों को धार्मिक रूढिय़ों की शिक्षा देने के लिए पंथनिरपेक्ष भारतीय शासन से वेतन ले रहे हैं। जाहिर है भारतीय शासन द्वारा इस विभाग की फंडिंग संविधान की पंथनिरपेक्ष भावना का उल्लंघन है।

एएमयू मामले का व्यापक निहितार्थ भी है। भारतीय शासन उन मदरसों को भी फंडिंग करता है जो कि शैक्षणिक संस्थाएं नहीं हैं और मुस्लिमों में धार्मिक रूढि़वादिता को बढ़ावा देते हैं। इस प्रकार पंथनिरपेक्ष भारतीय शासन मदरसों और धर्मशास्त्र संबंधी विभागों को धन देकर मुस्लिमों की उनके धार्मिक खोह में बनाए रखता है। भारतीय शासन ने मुस्लिम बच्चों को पढ़ाने की भूमिका छोड़ दी है। भारत के मुस्लिम नेतृत्व को एक बात जान लेनी चाहिए कि एएमयू का अल्पसंख्यक स्वरूप मुस्लिमों में यहूदी मानसिकता को जन्म देता है और उन्हें देश के दूसरे विश्वविद्यालयों की ओर रुख करने से रोकता है। यह मानसिकता उनमें शिकायत, हार और उत्पीडऩ की भावना पैदा करती है। एएमयू के सभी छात्रों में सामाजिक अलगाववाद की भावना उनके विकास और देश के रोजगार बाजार में प्रवेश में बाधक बनती है। राजग सरकार का एएमयू की अल्पसंख्यक प्रकृति का विरोध न सिर्फ संवैधानिक रूप से सही है, बल्कि मुस्लिमों के उत्थान की दृष्टि से भी उचित है। जबकि पूर्व की कांग्रेस सरकारें मुस्लिमों को सिर्फ वोट बैंक के रूप में देखती रहीं। मुस्लिमों के भारत की सामाजिक मुख्यधारा में शामिल होने के लिए जरूरी है कि भारत सरकार सिर्फ एएमयू ही नहीं, बल्कि सरकार द्वारा वित्त पोषित दूसरे विश्वविद्यालयों की मुस्लिमों को देश की मुख्यधारा से काटने की भूमिका का परीक्षण करे। विभिन्न विश्वविद्यालयों में इस्लाम की शिक्षा देने वाले विभाग धन सरकार द्वारा ग्रहण करते हैं, लेकिन भारत की लोकतांत्रिक बौद्धिक बहस में कुछ भी योगदान नहीं करते हैं। वे सिर्फ मुस्लिमों को धर्म के जाल में उलझाए रखने का काम करते हैं।

[ लेखक तुफैल अहमद, वाशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं ]


Date: 26-07-16

कश्मीर समस्या का सच

कश्मीर फिर से सुर्खियों में है। संसद में कश्मीर पर चर्चा के दौरान नसीहत और हिदायत का अंबार लग गया। हर दल का प्रतिनिधि मुद्दे की किसी पेशेवर हकीम की तरह नब्ज टटोलता और नुस्खे बताता दिखा। घूम-फिरकर ढाक के वही तीन पात। वही पुरानी लफ्फाजी कि ‘नौकरी दो, पैकेज दो, विकास करो, कुछ बात करो, इसको पुचकारो, उसको डांटो, गोली मत दागो, छर्रे वाली गन क्यों चलाते हो, चलाओ भी तो आहिस्ते से चलाओ आदि-आदि।’ इसके बाद यह भी सुनने को मिला कि कुछ राजनीतिक हल सोचो। पाकिस्तान को आंखें दिखाओ, लेकिन हुर्रियत कांफ्रेंस के लोगों से तो आंखें मिलाओ। फौज लगाओ पर अफस्पा हटाओ, कोई जुगत बिठाओ, अपने हैं, कहने दो-करने दो, जरूरी नहीं कि हर बात का जवाब दो, अपने जवानों को थोड़ा संयम सिखाओ, संवेदनशीलता दिखाओ, धैर्य रखो, जरूरत पड़े तो सीने पर पत्थर भी रखो, किसी भी तरह निभा लो।

एक लंबे अर्से से इसी तरह पैबंद लगा-लगाकर काम चल रहा है। दिक्कत यह है कि हमारे अधिकांश नेता कश्मीर से कतई परिचित नहीं हैं। इससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि जो परिचित हैं वे सच बोलने से परहेज करते हैं। कश्मीर समस्या समझने के लिए अतीत में लौटने की जरूरत है। लगभग 95 साल पहले जब शेख अब्दुल्ला अलीगढ़ से महाराजा हरि सिंह की ही छात्रवृति पर पढ़कर कश्मीर लौटे थे तो उन्हें महाराजा ने उनकी योग्यता के अनुसार कॉलेज नहीं स्कूल में पढ़ाने के लिए नियुक्त किया। उन्हें यह कुछ नागवार गुजरा। उन दिनों रूस की ताजी-ताजी क्रांति के कारण वामपंथ और सामंती विरोध की बयार भी चल रही थी। शेख अब्दुल्ला ने घाटी की मुस्लिम बहुल प्रजा में हिंदू राजा का विरोध करने के लिए ‘मुस्लिम कांफ्रेंस’ बनाई। यह उस समय की बात है जब अंग्रेज शासक महाराजा हरि सिंह से रूस पर नजर रखने के लिए गिलगिट का इलाका लंबे समय के लिए पट्टे पर चाह रहे थे, लेकिन महाराजा ने मना कर दिया था। अंग्रेजों ने क्षुब्ध होकर शेख अब्दुल्ला का इस्तेमाल करना शुरू किया। यहीं से घाटी के मुसलमानों के सांप्रदायीकरण की शुरुआत मानी जा सकती है। 1930 की गोलमेज वार्ता में महाराजा हरि सिंह ने दो टूक शब्दों में भारत की स्वाधीनता की वकालत की तो अंगे्रज शासकों के साथ उनके रिश्ते और बिगड़ गए। 1931 में पहला सांप्रदायिक दंगा श्रीनगर में हुआ। इसके मूल में एक पठान द्वारा श्रीनगर के मुसलमानों को कुरान का हवाला देकर भड़काना था। उसकी ओर से कहा गया, ‘हिंदू राजा के अधीन रहना इस्लाम में हराम है।’ 13 जुलाई 1931 को हुए इस दंगे में केवल हिंदुओं को ही निशाना बनाया गया। बाद में उस पठान को इसके लिए गिरफ्तार किया गया, लेकिन छिटपुट खुराफात चलती रही। बढ़ती खुराफात और अंग्रेजों के निरंतर बढ़ते दबाव के कारण 1935 में महाराजा हरि सिंह ने गिलगिट का क्षेत्र पट्टे पर देना स्वीकार कर लिया। तब तक शेख का नेतृत्व चमक चुका था।

1947 आते-आते जिन्ना भारतीय मुसलमानों के एकमात्र नेता बनकर उभर आए। शेख अब्दुल्ला की कश्मीर पर अलग से पकड़ उनके अहं को रास नहीं आई। यही वजह थी कि शेख अब्दुल्ला जिन्ना की पाकिस्तान मांग को लेकर अधिक उत्साही नहीं थे। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को इसलिए भी चुना, क्योंकि वह लाहौर में पंजाबी मुसलमानों की धौंस भुगत चुके थे। उन्हें कश्मीरी मूल के हिंदू नेहरू अधिक काम के लगे। हालांकि शेख के कई साथी और खासकर जम्मू के गैर कश्मीरी मुसलमान इससे खुश नहीं थे। नेहरू और कश्मीरी हिंदुओं के आग्रह पर जब शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम कांफ्रेंस को नेशनल कांफ्रेंस में बदला तो पार्टी टूट गई। कश्मीर के भारत में विलय पर घाटी से बाहर के मुसलमान अधिकांशत: पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चले गए। घाटी के मुसलमान शेख के नेतृत्व में भारत के साथ आए। यह जमात-ए-इस्लामी को कतई नहीं भाया, लेकिन शेख की लोकप्रियता के सामने जमात वालों की एक नहीं चली। शेख कश्मीर की मुख्यधारा ‘ऐतेकादी इस्लामÓ को मानते थे। यह सूफी-पीर-औलिया का इस्लाम था। जमात-ए-इस्लामी कट्टर वहाबी इस्लाम के प्रसार में लग गई। विडंबना यह रही कि बीते 60 सालों में किसी ने इसकी न तो परवाह की और न इस ओर ध्यान दिया। इस तथ्य की भी अनदेखी होती रही कि शेख विरोधी राजनीति जिसमें कांग्रेस मुख्य थी, जमात के कामों को हवा देने और उसका लाभ लेने की कोशिश करती रही। जमात ने मदरसों द्वारा और राजकीय शिक्षा व्यवस्था में घुसपैठ करके बीते छह दशकों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ऐसा बड़ा तबका तैयार कर लिया है जो पाकिस्तान परस्त है। यह तबका न सिर्फ कश्मीरी हिंदुओं, सिखों के खिलाफ है, बल्कि शिया मुसलमानों से भी द्वेष रखता है। भारत विरोध की जड़ में यही कट्टरता पसंद और पाकिस्तान परस्त मानसिकता है। इस मानसिकता के लोगों की संख्या बढ़ी है। उनकी शेख अब्दुल्ला के प्रति भी घृणा इतनी है कि उनकी मजार पर भी पहरा बैठाना पड़ता है। उनके भारत विरोधी रुख को पाकिस्तान से शह, पैसा, हथियार आदि मिले हैं। इस मुहिम को वे ‘जिहाद’ कहते है। चुनावों में धांधली, भयंकर भ्रष्टाचार, लचर न्याय-व्यवस्था जैसे मुद्दे राजनीतिक संवाद में इस उन्मादी जिहाद को कुछ तार्किक आधार भले ही दें, लेकिन मूल में जो है वह है मजहबी कट्टरपन। इसीलिए सैयद अली शाह गिलानी यह बात दोहराता रहता है, ‘कश्मीर की तहरीक तरक्की और नौकरी के लिए नहीं है। तुम हमारी सड़कों को सोने से भी पाट दो, हम तब भी अपना मुतालबा नहीं छोड़ेंगे।’

भारत की सेक्युलर राजनीति कट्टर इस्लाम को पुचकार कर, मनाकर, रिझाकर काम करती आई है। जिहाद की निशानदेही करना, उसे पहचान कर उसके बारे में सच बोलना तो इस राजनीति के मिजाज में ही नहीं है। विरोध तो बहुत बाद की बात है। कश्मीर में भारत का सामना उसी जिहाद से है जो लोकतंत्र नहीं निजाम-ए-मुस्तफा मांगता है और सेक्युलरिज्म नहीं इस्लाम को सर्वोपरि मानता है। वह भारतीय राष्ट्रवाद नहीं इस्लामी उम्मा का हामी है, अहिंसक सत्याग्रह नहीं, बल्कि क्लाश्निकोव और बारूद की ताकत आजमाता है। वह कश्मीर तक ही सीमित रहने वाला नहीं है। इसके पहले कि भारत में जगह-जगह कश्मीर खड़े हों, यह सोचना होगा कि जिहाद से क्या बात करेंगे और उसका क्या ‘राजनीतिक हल’ तलाशेंगे?

[ लेखक सुशील पंडित, कश्मीर के विस्थापित हिंदुओं के लिए संघर्षरत संस्था रूट्स इन कश्मीर के सह-संस्थापक हैं ]