25-12-2019 (Important News Clippings)

Afeias
25 Dec 2019
A+ A-

To Download Click Here.


Date:25-12-19

आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्र में सामान्य दौर लौटा

संपादकीय

न्यूयॉर्क में रहने वाले एक भारतीय के तौर पर मैं हर तीन-चार महीनों में एक बार भारत जरूर आता हूं, ताकि मैं अपने देश को महसूस कर सकूं। अपनी ताजा यात्रा में मुझे यह देखकर सुकून मिला कि देश एक काले दौर के बाद एक बार फिर से अपनी सामान्य स्थिति में लौट रहा है। अगस्त की यात्रा में भारत की संभावनाएं बहुत आशाजनक नहीं दिख रही थीं। अर्थव्यवस्था 1998 के एशियाई संकट की तरह लुढ़क रही थी और रुपया 2013 की तरह अधोगति पर था। देश पर डर की मानसिकता हावी हो गई थी। अनेक टिप्पणियों में कहा जा रहा था कि भारतीय लोकतंत्र मर रहा है।

अभिजात्य वर्ग हमेशा से ही कहता रहा है कि भारत हमेशा आर्थिक तौर पर एक कम उपलब्धि वाला लोकतंत्र बना रहना पसंद करेगा, न कि चीन की तरह एक आर्थिक तौर पर बड़ी उपलब्धि वाली तानाशाही। यह हमेशा ही गर्व की बात रही है कि भारतीयों ने विपुल संपत्ति के मुकाबले स्वतंत्रता को चुना। अगस्त तक लग रहा था कि हम दोनों ही मोर्चों पर खराब स्थिति में हैं। निरंकुशता बढ़ रही थी और विकास दर गिर रही थी। पूरा देश एक ही पार्टी भाजपा के शासन की ओर बढ़ रहा था। तब से हालांकि, हालात बदल गए हैं, लेकिन अभिजात्य वर्ग का मूड अब भी दुखी है। चुनावी झटकों से अनेक राज्यों में भाजपा की उपस्थिति घट गई है। संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद क्षेत्रीय दल भाजपा को चुनौती देने में सक्षम हैं। महाराष्ट्र से लेकर झारखंड तक के चुनावी नतीजों ने दिखा दिया कि देश के जो उदारवादी भाजपा के उग्र राष्ट्रवाद को देश के लोकतंत्र के लिए खतरा मान रहे थे, वे देश के उपराष्ट्रीय गर्व के नियंत्रण व लगातार बढ़ती क्षेत्रीयता को कम आंक रहे थे। स्थानीय मुद्दे कई बार राष्ट्रीय मुद्दों पर हावी होते हैं। एक राज्य से दूसरे राज्य में इनका प्रभाव अलग-अलग होता है, लेकिन वे किसी भी राष्ट्रीय धारणा को राेकने में सक्षम होते हैं, कम से कम विधानसभा चुनाव में।

इस बीच, गर्मियों में लगभग थम गई अर्थव्यवस्था एक बार फिर से पटरी पर लौटने लगी है। विकासशील दुनिया की हर सरकार की तरह केंद्र सरकार ने भी कोई चारा न रहने पर अब सही दिशा में कदम उठाना शुरू कर दिया है। कॉर्पोरेट टैक्स में कमी, निजीकरण की कवायद और कई अन्य मार्केट उन्मुख उपाय इस दिशा में किए गए हैं। कहा जाता है कि जब सरकार में हड़बड़ी मचनी शुरू होती है तो बाजार में हड़बड़ी बंद हो जाती है। इन सुधारों पर अगस्त से मार्केट लगातार बढ़ रहा है, जबकि प्रमाण कहते हैं कि अर्थव्यवस्था अब भी गंभीर तंगहाली में है। मूल तथ्य यह है कि जैसे ही सुधार स्थापित होंगे, देश में विकास दर अपने आप सामान्य हो जाएगी। 1980 में जब भारत ने अपना बाजार दुनिया के लिए खोलना शुरू किया, तब से इसकी अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ ही बढ़ती व गिरती है। यही बात पिछले दशक के बूम में और अब इस दशक की मंदी में देखी गई। लेकिन, सत्ता पर पकड़ से अतिआत्मविश्वास में आई भाजपा की बड़ी नीतिगत गलतियों से इसने टूटना शुरू कर दिया था। पहले नोटबंदी, उसके बाद जीएसटी को बेढंगे तरीके से लागू करना, फिर वित्तीय सेक्टर की मुश्किलों से गलत तरीके से निपटना और इस जुलाई में अमीरों को चूसने वाला बजट पेश करना एक तरह से समाजवादी भारत में लौटने जैसा रहा। 2017 में भारत की अर्थव्यवस्था ने उस समय बाकी दुनिया से अलग होना शुरू किया, जब वह वैश्विक बढ़त के साथ चलने में विफल रही। अगस्त तक स्थिति बहुत खराब थी, जब कारों की ब्रिकी घट रही थी और सामान के ढेर लग रहे थे। सरकार का परंपरागत नीतियों पर लौटना राहतभरा रहा। अगर बीता हुआ कल कोई गाइड है तो सरकार को इसे पहले स्थायित्व देने के लिए काम करना चाहिए।

यद्यपि, 2015 में डाटा जमा करने का नया तरीका अपनाने के बाद जीडीपी के सरकारी आंकड़ों पर संदेह किया जाता है, इसके बावजूद अार्थिक सफलता के लिए भारत को सात फीसदी की विकास दर की जरूरत है। आज दुनिया में गिरती जनसंख्या और उत्पादकता की वजह से सात फीसदी की विकास दर दुर्लभ नजर आती है। पिछले दशक के दौरान हर पांचवीं अर्थव्यवस्था सात फीसदी की दर से बढ़ रही थी। लेकिन 2019 में आईएमएफ का अनुमान है कि 200 में से सिर्फ आठ अर्थव्यवस्थाएं ही इस गति से बढ़ पाएंगी और इनमें कोई भी प्रमुख देश नहीं है। भारत भी इस वैश्विक मंदी से अलग नहीं है। ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताता है कि किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए तब तक छह फीसदी की विकास दर कायम कर पाना कठिन है, जब तक कि उसकी कामकाजी जनसंख्या दो प्रतिशत वार्षिक दर से न बढ़े और भारत की कामकाजी जनसंख्या की वृद्धि दर महज 1.4 फीसदी है। भारत में सात फीसदी की वास्तविक दर (बढ़ाए गए सरकारी आंकड़े नहीं) की उम्मीद का वैश्विक व घरेलू हकीकतों से तलाक हाे गया है।

दुनिया के हर देश की तरह भारत को भी अपनी उम्मीदें घटाने की जरूरत है और इसे स्वीकार करना चाहिए की कम आय वाले देशों के लिए पांच फीसदी की विकास दर सफलता का नया मानदंड है। इसके बावजूद मैं गर्मी और सर्दियों में जो राजनीतिक और आर्थिक बदलाव देख रहा हूं, वह बेहतरी के असली परिवर्तन को प्रतिबिम्बित करता है। बढ़ती तानाशाही की जगह भारत अपने राजनीतिक कोर को फिर से खोजता हुआ दिख रहा है। वह एक दल के शासन को स्वीकार करने के प्रति अति लोकतांत्रिक है तो एकात्मक राष्ट्र के विचार को पूरी तरह स्वीकार करने के प्रति अति विविधता वाला भी है। निराश वोटरों के दबाव में भाजपा ने समझदारीभरे आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है और अब उसकी नीतिगत गलतियां पुरानी बात हो जाएंगी।

अगर ऐसा हुआ तो भारत की अर्थव्यवस्था अपनी पुरानी गति को पा लेगी। कई भविष्यवक्ताओं को उम्मीद है कि 2020 में दुनिया की अर्थव्यवस्था चक्रीय गति से बढ़ेगी, लेकिन यह जिस और भी जाए, भारत को इसके साथ ही चलना होगा। अभी तो भारत खुद सामान्य हालात की ओर बढ़ रहा है : यह चमत्कारी अर्थव्यवस्था नहीं, लोकतंत्र का चमत्कार है।


Date:25-12-19

कहां है साझा मूल्यों की नींव पर खड़ा हमारा राष्ट्रवाद ?

संपादकीय

राजस्थान के उदयपुर जिले के पटेला गांव में गरीबी की मार झेल रही मंगली गुजरात के मेहसाणा में ऑइल मिल में 100 रुपए दिहाड़ी पर काम करने गई थी। मशीन में पैर फंसा, जिसे अस्पताल में काटना पड़ा। अपंग होकर वापस घर लौटी। अब उसे कोई दिहाड़ी पर भी नहीं रखता। देश में बाल मजदूरी गैरकानूनी है, काम करते वक्त पैर कटने पर मालिक द्वारा भारी मुआवजा देने का कानून है पर शायद गरीब के लिए नहीं। मरियम-वेबस्टर डिक्शनरी के अनुसार ‘राष्ट्रवाद साझा मूल्यों की बुनियाद पर खड़ी चेतना के साथ राष्ट्र के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता’ है। मंगली यह भावना कहां से लाए। भास्कर टीम के एक ‘खोजी अभियान’ में दस्तावेजों और कैमरे में कैद सबूतों से खुलासा हुआ है कि राजस्थान से रोजाना हजारों की संख्या में बच्चों की तस्करी होती है, उन्हें बेचने की मंडी लगती है। एनसीआरबी की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार यह राज्य देश में बाल तस्करी में नंबर एक पर है और यह गोरखधंधा दसियों सालों से पुलिस और सरकारी तंत्र की शह पर चल रहा है। गरीब मां-बाप अपने नौनिहाल को इसलिए बेचता है कि उसे भी खाना मिल जाएगा और वह भूख से नहीं मरेगा। फ्लाईओवर बनाकर या शहर में वाईफाई लगवाकर वोट हासिल करने वाली सरकारें क्या यह सोचती हैं कि इन बेचे गए बच्चों में कोई आइंस्टीन भी हो सकता है अगर उसे पढ़ाया जाए? उन्नाव के बलात्कारी विधायक को सजा देने के साथ जज ने कहा ‘सीबीआई ने सत्ताधारी दल के इस बाहुबली के खिलाफ महत्वपूर्ण साक्ष्य दाखिल ही नहीं किए। खौफ इतना था कि इसके भाई ने एक आईपीएस अधिकारी पर सरेआम गोली चलाई, लेकिन कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ’। दिल्ली या सटे गाज़ियाबाद में मोबाइल लूट लिए जाते हैं और महिलाओं की सोने की चेन झपटमार सरेबाज़ार लूटकर निकल जाते हैं और पुलिस रिपोर्ट नहीं लिखती। यानी घर से बाहर निकलना मुश्किल है। जरा सोचिए जिस देश में बच्चे मंडी लगाकर बेचे जाते हों, जहां विधायक दुष्कर्म करता हो और शिकायत करने पर पीड़िता के पिता को मार दिया जाता हो, उसे हम अपना ‘भारत महान’ कहकर खुद को धोखा तो नहीं दे रहे हैं? राष्ट्रवाद के लिए जिन साझा मूल्यों की बात कही गई है क्या वे यही मूल्य हैं? मंगली के कटे पैर क्या इसी महानता की तस्दीक हैं? आज अगर ‘भारत महान’ बनाना है तो एक नई सामाजिक क्रांति की जरूरत है।


Date:25-12-19

एनपीआर की तैयारी

संपादकीय

केंद्रीय कैबिनेट ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर तैयार करने के काम को हरी झंडी देकर वही किया जिसे मनमोहन सरकार ने करने का बीड़ा 2010 में उठाया था। इतना ही नहीं, नागरिकता कानून में संशोधन कर एनपीआर तैयार करने संबंधी प्रावधान भी 2004 में मनमोहन सरकार के समय जोड़ा गया था। इन तथ्यों के बाद राजनीतिक रोटियां सेंकते विपक्षी दल न सही, आम जनता के समक्ष यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि मोदी सरकार कोई नया काम करने नहीं जा रही है। यह समझा जाना इसलिए जरूरी है, क्योंकि एनपीआर तैयार करने की घोषणा होते ही यह दुष्प्रचार शुरू हो गया है कि यह तो पिछले दरवाजे से एनआरसी यानी नागरिकता रजिस्टर तैयार करने की कोशिश हो रही है।

दुष्प्रचार के इस दौर में यह भी समझने की जरूरत है कि एनआरसी तैयार करना भी कोई गैर-जरूरी काम नहीं। दुनिया के हर जिम्मेदार देश ने यह काम किया है। चूंकि नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी को लेकर लोगों को गुमराह करने का काम अभी भी चालू है इसलिए इसकी प्रबल आशंका है कि एनपीआर को लेकर भी ऐसा ही किया जाएगा। सरकार को इसकी काट करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

नि:संदेह ऐसे सवाल उठना स्वाभाविक हैं कि आखिर जनगणना के अतिरिक्त एनपीआर तैयार करने की क्या जरूरत है? यह एक सही सवाल है, लेकिन इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि जनगणना के जरिये एकत्रित किया जाना वाला विवरण सरकारी योजनाओं को लागू करने के लिए पर्याप्त नहीं। एनपीआर से मिली जानकारी से जन कल्याणकारी योजनाओं को कहीं अधिक प्रभावी तरीके से लागू करने में मदद मिलेगी। वैसे भी जनगणना की प्रक्रिया एनपीआर से इतर है। जनगणना एक अलग कानून के तहत होती है।

हालांकि एनपीआर तैयार करने का कैबिनेट का फैसला आते ही गृहमंत्री अमित शाह ने उन कई सवालों का जवाब दिया जो उठने शुरू हो गए थे, लेकिन बेहतर होगा कि सरकार आगे भी यह सिलसिला कायम रखे ताकि विपक्षी दल अपने दुष्प्रचार से लोगों को भ्रमित न करने पाएं। यह सतर्कता बरतनी इसलिए और आवश्यक है, क्योंकि कई राज्य सरकारें एनपीआर से पीछे हटने का दिखावा कर सकती हैं।

यह संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए जनता के हितों से खिलवाड़ करने वाली राजनीति के अलावा और कुछ नहीं होगा। सच तो यह है कि यह गरीब विरोधी राजनीति होगी, क्योंकि यदि एनपीआर सही तरह तैयार नहीं होता तो इससे सबसे अधिक नुकसान निर्धन तबके का ही होगा। जो राजनीतिक दल पहले से ही नागरिकता कानून, एनआरसी और अब एनपीआर पर लोगों को भड़का रहे हैं वे यह समझें तो बेहतर कि राजनीतिक क्षुद्रता की भी एक सीमा होती है।


Date:24-12-19

अधिकारों पर अंकुश लगाने का बढ़ता चलन

धारा 144 जैसे कानून और इंटरनेट को बंद किया जाना लोगो के नागरिक अधिकारों का हनन ही है

गौतम भाटिया, (अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट)

नागरिकता संशोधन अधिनियम के संसद से पारित होने के बाद देश भर में बहुत विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं। इसमें चौंकने वाली कोई बात नहीं है और इसका स्वागत होना चाहिए। एक जीवंत लोकतंत्र में सरकार के किसी भी विवादित कदम के विरुद्ध अहिंसक विरोध को सही रूप में देखना चाहिए। भारत में विशेष रूप से मतभेद और विरोध की सदियों पुरानी राजनीतिक, सामाजिक या सांस्कृतिक परंपरा रही है।

ऐसे विरोध-प्रदर्शनों के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया के दो रूप हैं- पहला, सीआरपीसी के तहत अनेक राज्यों में धारा 144 लागू करना और दूसरा, अनेक इलाकों में इंटरनेट सेवा निलंबित करना। धारा 144 की जड़ें औपनिवेशिक काल में हैं। धारा 144 कार्यकारी मजिस्ट्रेट (अक्सर पुलिस के प्रतिनिधि) को निषेधात्मक आदेश पारित करने के लिए अधिकृत करती है। यह धारा एक जगह पर चार से अधिक लोगों के एकत्र होने या उनकी सभा को प्रतिबंधित करती है। इसके पीछे तर्क यह है कि लोगों को एक जगह एकत्र होने से रोककर सार्वजनिक व्यवस्था के उल्लंघन या हिंसा भड़कने से रोका जा सकता है।

अगर कोई ऐसी भीड़ एकत्र हो रही हो, जो हिंसा करने या आग लगाने का इरादा रखती हो या लोगों को इसके लिए भड़काने का इरादा रखती हो, तब धारा 144 का अर्थ है। धारा 144 को ऐसे अस्पष्ट ढंग से बनाया गया है कि इसमें फैसला अधिकारियों के विवेक पर छोड़ दिया गया है। आज के समय में यह हिंसा के खिलाफ ढाल नहीं, बल्कि सार्वजनिक प्रदर्शन और विरोध के माध्यम से असंतोष की अभिव्यक्ति रोकने के लिए एक तलवार है।

धारा 144 के उपयोग से कौन-से कानूनी मानक संचालित होते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने भी स्पष्ट किया है। उसने सांविधानिक अधिकारों पर प्रतिबंध को केवल तभी स्वीकार्य माना है, जब हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था के साथ प्रत्यक्ष या निकट संबंध हो। दूसरे शब्दों में, अगर हिंसा या दंगे के लिए उकसाने का स्पष्ट मामला है, तो राज्य प्रतिबंधात्मक कार्रवाई कर सकता है। केवल इस आशंका के आधार पर वह ऐसी कार्रवाई नहीं कर सकता कि विरोध के कारण सार्वजनिक अव्यवस्था हो सकती है। यह सुनिश्चित करना राज्य का काम है कि पर्याप्त सुरक्षा-व्यवस्था की जाए, ताकि विरोध-प्रदर्शनों को अहिंसक तरीके चलाया जा सके।

हालांकि व्यवहार में इस उच्च मानक का पालन कभी नहीं किया जाता। यह पिछले कुछ दिनों में धारा 144 के व्यापक उपयोग से स्पष्ट है। मिसाल के लिए, पूरे बेंगलुरु शहर में धारा 144 लगाई गई। अर्थात 86 लाख लोगों को इसके दायरे में ले लिया गया, जबकि बेंगलुरु में हिंसा के भय का संकेत भी नहीं था। बेंगलुरु पुलिस ने धारा 144 के आदेश को सही ठहराने के लिए देश के अन्य हिस्सों में अव्यवस्था और संभावित असुविधा का हवाला दिया। हालांकि इन तर्कों में से कुछ भी हमारे संविधान के तहत स्वीकार्य नहीं हैं।

देश के अन्य हिस्सों में समस्या और भी विकट है। मिसाल के लिए, पूरे उत्तर प्रदेश में धारा 144 लगा दी गई, तो 20 करोड़ लोगों ने विरोध करने के अपने अधिकार गंवा दिए। यह एक बेहद परेशान करने वाली प्रवृत्ति है। इस प्रकार शहरव्यापी और राज्यव्यापी स्तर पर धारा 144 का आदेश हमारे मौलिक अधिकारों का थोक में निलंबन से ज्यादा कुछ नहीं है। ऐसा केवल आपातकाल के समय देखा जाता है।

इस बार धारा 144 के साथ-साथ इंटरनेट पाबंदी के आदेश भी खूब दिए गए हैं। औपनिवेशिक युग के भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम के तहत इंटरनेट को निलंबित करने की प्रक्रिया अपनी प्रकृति में पूरी तरह नौकरशाही है और वह भी बिना किसी ठोस दृष्टिकोण के। यह आश्चर्यजनक है कि भारत इंटरनेट सेवा के निलंबन में चीन, पाकिस्तान, ईरान, चाड और मिस्र जैसे देशों से आगे है।

अनुसंधानों में यह स्पष्ट हो चुका है कि इंटरनेट सेवा के निलंबन और हिंसा के बीच वास्तव में संबंध नहीं है, असली स्थिति इसके विपरीत है। लिहाजा हाल के दिनों में धारा 144 और इंटरनेट बंद होने से लोकतंत्र संकुचित हुआ है। कश्मीर में भी लंबे समय से इंटरनेट बंद है, इस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला जनवरी में अपेक्षित है। शायद अदालत ही हमारे मूल्यवान मौलिक अधिकारों को बहाल करने की दिशा में कारगर हो।