25-10-2022 (Important News Clippings)

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25 Oct 2022
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Date:24-10-22

Unlocking Jobs

Manufacturing and not government holds the key to India’s employment challenge

TOI Editorals

GoI kicked off a drive to recruit 1 million people on Saturday, with 75,000 being inducted in the first batch. This initiative is a reminder of India’s employment challenge – government jobs are inadequate to fulfil demand. CMIE’s jobs data for May-August period underlines the scale of the challenge. People in the 20-29 age group make up 84% of the unemployed actively seeking jobs. Even the 25-29 age bracket, relatively old in the Indian jobs context, has an unemployment rate of 12. 3%.

The main reason for the jobs crisis is that manufacturing growth has been led by capital-intensive firms. Consequently, the ratio of employment growth to output growth for the economy has steadily declined since 1991. It was 0. 38 in the 1991-2000 period and by 2010-18, it had fallen to 0. 11. India’s experience is at odds with what Bangladesh and Vietnam managed over the same period. In the 2010-18 phase, Bangladesh and Vietnam had an employment elasticity of 0. 32 and 0. 38 respectively. Unless manufacturing is able to absorb a far larger number of youth trying to get out of barely productive farm work, India will not escape the jobs crisis.

Manufacturing’s share in employment has fluctuated around 12% in the last three decades, even though it’s the best phase of economic growth India experienced. Policy attention needs to focus on removing barriers to sectors such as textiles that have the potential to absorb a lot more young, especially women, coming off farms. When encouraging manufacturing, GoI must take employment intensity of the sector into account. In a fast-changing world, multiple reforms must operate simultaneously. Both GoI and states need to enhance the quality of their association with industries to enable quick skilling of young job seekers. Today’s jobs crisis is tomorrow’s social crisis.


Date:24-10-22

Vital intervention

The Supreme Court of India must do everything possible to curb the propagation of hate

Editoral

There is good reason for the Supreme Court of India to ask the police to be proactive in dealing with hate speech by taking immediate legal action without waiting for a formal complaint. The Court has also warned of contempt action if the police showed any hesitation in compliance. Directed at the police in Delhi, Uttar Pradesh and Uttarakhand, the order is in response to the “unending flow of hate speeches” highlighted in a writ petition before it. The Court has referred to the growing “climate of hate”, and taken note of the inaction in most instances, despite the law containing provisions to deal with the phenomenon. It is quite apparent that the governments at the Centre and in some like-minded States do not share the Court’s concern for communal harmony, fraternity and tranquillity; in fact, some of them may be contributing to the vitiated atmosphere either by studied inaction or complicity in allowing provocative speeches in purported religious gatherings by majoritarian elements. Intervention by the highest court has become necessary in the light of some controversial religious leaders getting away lightly after making unacceptable comments, some of them tinged with a genocidal tenor. It is in such a backdrop that the Court has underscored the constitutional values of secularism and fraternity among all religions and social groups.

It was a religious conclave held in Haridwar late last year that set the tone for the ‘hate speech’ case that is being heard now. Even then, the Court had called for corrective measures, leading to another conclave being prevented by local authorities in Roorkee in Uttarakhand. While the intervention may have halted a few meetings at that time, it cannot be said that such transgressions have ended. There has been a disconcerting pattern of Hindu festivals becoming an occasion for the conduct of religious processions that end in clashes caused by provocative behaviour. In the name of dealing with the resulting clashes or disturbances, officials have resorted to demolishing the houses of those allegedly involved in the incidents, without following any process of law. Such developments have given rise to new curbs on minorities, such as unwarranted police probes into the holding of group prayers, and new allegations of purported plots to infiltrate Hindu events. Some television channels have been adding to the bigotry by their manner of functioning. Administrative bias on the one hand and the spread of social prejudice on the other cannot be allowed to vitiate the national mood. Towards that end, the Court must do everything possible to nudge authorities to enforce the law against the propagation of hate.


Date:24-10-22

शहरीकरण: कैसे करें शहरों का​ नियोजन?

अमित कपूर और विवेक देवरॉय, ( कपूर स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी के व्याख्याता और देवरॉय भारत के प्रधानमंत्री की आ​र्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन हैं )

सभी के विकास के लिए शहरीकरण के लाभ की बात हो तो इसकी प्रक्रिया को समझने के लिए कई चश्मों का इस्तेमाल किया जा सकता है। लोग शहरीकरण की गति को राष्ट्रीय, उपक्षेत्रीय अथवा क्षेत्रीय स्तर पर देख सकते हैं और उसे वै​श्विक स्तर के समक्ष रखकर यह समझने का प्रयास कर सकते हैं कि भारत इस सफर में अपने समकक्ष देशों की तुलना में कितना आगे या पीछे है।

इस संदर्भ में हम इस बात से अवगत हैं कि भारत में शहरीकरण की रफ्तार तकरीबन 35 फीसदी है जबकि वै​श्विक औसत 56 फीसदी के आसपास है। इसे देखने का एक और तरीका यह समझना है कि कैसे दुनिया भर में शहरीकरण के साथ अलग-अलग कारक जुड़े रहे हैं। किस देश में किस बात ने शहरीकरण को गति ​दी और ऐसा किस समय हुआ? उदाहरण के लिए यूरोप में शहरीकरण का करीबी संबंध 18वीं सदी में हुई औद्योगिक क्रांति से है। इसकी शुरुआत यूनाइटेड किंगडम से हुई थी और बाद में समूचे यूरोप और विश्व भर में इसका अनुकरण किया गया। हमारे पास एक और तरीका यह समझने का भी है कि एक बार शहरीकरण शुरू होने के बाद क्या होता है। विशेषतौर पर हम अपने लोगों के लिए शहरों का नियोजन और संचालन किस प्रकार करते हैं।

शहरीकरण एक जीवंत श​क्ति है जिसे कई कारकों से गति मिलती है और जो किसी क्षेत्र के विकास पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। रोजगार के अवसर, संसाधनों की बेहतर उपलब्धता, बढ़ती हुई आकांक्षाएं और सहज सुगम जीवन की आकांक्षा। ये सभी कारक काफी हद तक उस क्षेत्र में शासन की क्षमताओं पर निर्भर करते हैं। इन शासन प्रणालियों को दो नजरियों से देखने की जरूरत है- एक तो यह कि शहर में किस प्रकार का प्रशा​सनिक ढांचा विकसित हो रहा है और इस प्रशासन द्वारा किस प्रकार की सेवाएं प्रदान की जा रही हैं। ये नजरिये उस समय और महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं जब हम विस्तारित शहरीकरण यानी उपशहरीकरण तथा अर्द्धग्रामीण-अर्द्धशहरी विकास आदि। इसमें परिवहन के प्रबंधन (प्रति 10,000 लोगों पर कितनी बसें होनी चाहिए) से लेकर स्थानीय निकायों को मजबूत करना, समावेशी वित्तीय सेवाओं तक समुचित पहुंच (सहकारी बैंकों द्वारा) सुनि​श्चित करना और शहरी स्वास्थ्य केंद्रों की मदद से स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराना शामिल है। हाल के समय में शासन प्रशासन की क्षमताओं ने भी संक्रामक बीमारियों का प्रसार रोकने में अहम भूमिका निभाई है।

इसके अलावा शहरीकरण के विचार की सीमाओं का भी विस्तार हो रहा है। अब जरूरत इस बात की है कि शहरी प्रशासन को मजबूत बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। अलग-अलग तरह के शहरीकरण केंद्र उभर रहे हैं जिनमें उपनगरीय इलाके, शहर और कस्बे शामिल हैं। इस विस्तार में शहरीकरण की गति के लिए सकारात्मकता देखी जा सकती है लेकिन अगर इसका नियमन नहीं किया गया तो विकास के लाभों का वितरण असमान हो जाएगा। इस असमान प्रसार का प्रबंधन और इसकी निगरानी करने के लिए इस क्षेत्र में मजबूत संचालन व्यवस्था की आवश्यकता थी।

भारत में हमें शहरी और ग्रामीण इलाकों के बीच घनी बसाहट वाले ऐसे कई केंद्र नजर आते हैं। ​इन्हें ऐसे इलाकों के रूप में चिह्नित किया जाता है जो ग्रामीण से शहरी बनने की ओर अग्रसर हैं और जहां इसके लिए जरूरी बदलाव हो रहे हैं। पेरी अर्बन एरिया कहे जाने वाले ये इलाके ऐसे होते हैं जहां प्रवासन की गति तेज होती है लेकिन वह फिर भी बड़े शहरी केंद्रों से अलग-थलग रहता है। ये इलाके अक्सर अवैध झुग्गी ब​स्तियों, टोले, झोपड़पट्टी या ऐसी बस्ती के रूप में उभरते हैं जिन्हें शहर का दर्जा तो नहीं होता लेकिन उनके गुण शहरों के होते हैं। ईस्ट-वेस्ट सेंटर ने पटना, गुवाहाटी, चंडीगढ़, अहमदाबाद और चेन्नई में ऐसे पीयूए पर अध्ययन किया। कहा गया कि इन शहरों का विस्तार उनकी क्षमता से अ​धिक हो चुका है और जहां पीयूए ने उन्हें पानी तथा जमीन जैसे संसाधनों का इस्तेमाल उद्योग धंधे लगाने में करने का अवसर दिया है वहीं बदले में इन क्षेत्रों की ​स्थित और खराब ही हुई है। हमारा लक्ष्य शहरों और पीयूए के बीच के संबंधों की पड़ताल करना नहीं है ब​ल्कि हम यह स्थापित करना चाहते हैं कि शासन संबंधी अस्पष्टता के कारण इन क्षेत्रों के बीच की खाई बढ़ती है। इसकी वजह से बहुत बिखरा हुआ और असंगठित शहरीकरण नजर आता है। भारत में अभी भी इस बात को लेकर स्पष्टता नहीं है कि आ​खिर शहरीकरण को किस प्रकार परिभा​षित किया जाए। यहां हमें एकदम निचले स्तर के शासन प्रशासन से जुड़े कानूनों पर निर्भर होना पड़ता है।

राज्य दर राज्य जनांकीय और अन्य कारकों के आधार पर निर्धारित नगर निकायों के प्रकार भी महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए 74वें संशोधन अ​धिनियम (1992) के अनुसार तीन तरह की नगरपालिकाएं हैं। पहली ग्रामीण से शहरी इलाकों में बदल रहे क्षेत्रों के लिए नगर पंचायत, छोटे शहरी इलाकों के लिए नगर परिषद और बड़े शहरों के लिए नगर निगम। नगर पंचायतों के संविधान के मुताबिक ही पीयूए को मान्यता मिलती है। बहरहाल, इन इलाकों में अक्षमता, खराब फंडिंग और कल्याणकारी शासन के विचार से दूरी नजर आती है।

दुनिया भर में शहरीकरण का समान विस्तार नहीं हो रहा है और इसकी वजह से शहरों को वृद्धि और साझा समृद्धि हासिल करने में मु​श्किल हो रही है। भारत में शहरों के विस्तार की गति की प्रमुख वजह बढ़ती आबादी रही है। बड़े शहरों में जमीन की कमी के चलते पीयूए पर यह दबाव बढ़ा है कि वे आबादी को समायोजित करें तथा रोजगार और सामान्य जीवन की उनकी आकांक्षाओं को भी पूरा करें। इन क्षेत्रों की अपेक्षाकृत कमजोर संचालन व्यवस्था को देखते हुए शहरी नीतियों को नए ढंग से तैयार करने की आवश्यकता है।

अभी ये नीतियां पूरी तरह पीयूए पर केंद्रित हैं अब आवश्यक है कि इनकी मदद से शहरों का स्थायी विस्तार किया जाए और इन क्षेत्रों का पूरा विकास हो सके। ऐसा तभी हो सकेगा जब हम यह स्वीकार करेंगे जब शासन के रवैये को शहरीकरण की बहस में शामिल करना होगा ताकि शहरीकरण की गति और उसकी दिशा निर्धारित की जा सके।


Date:24-10-22

भुखमरी की बढ़ती त्रासदी

उद्भव शांडिल्य

कोरोना महामारी के पहले ही शुरू हो गई भुखमरी की समस्या ने अब और चिंताजनक रूप ले लिया है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक 2019 तक पूरे विश्व में भुखमरी से जूझ रहे लोगों की तादाद लगभग 85.4 करोड़ थी। कोविड के कारण इस संख्या में और दस करोड़ की वृद्धि होने का अनुमान है। इसका कारण कोरोना के दिनों में वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी, लोगों का अपनी नौकरी और रोजगार से हाथ धो बैठना आदि है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक वैश्विक स्तर पर भुखमरी और इससे संबंधित होने वाली बीमारियों के कारण प्रतिदिन पच्चीस हजार लोगों की मृत्यु होती है, जिसमें बच्चों की संख्या दस हजार से ज्यादा है।

यह समस्या भारत में और ज्यादा गहरी जड़ें जमाई हुई है। खाद्य एवं कृषि संगठन का मूल्यांकन बताता है कि पूरे विश्व में भुखमरी और इससे संबंधित बीमारियों से पीड़ित देशों की सूची में भारत शीर्ष स्थान पर है। यहां 18.92 करोड़ लोग यानी कुल जनसंख्या का चौदह फीसद भाग भुखमरी से जूझ रहा है। आंकड़े इसलिए और भयावह हैं कि इसमें 51.4 फीसद प्रजनन योग्य महिलाएं (15-49 साल) खून की कमी से पीड़ित हैं, पांच साल से कम उम्र के 34.6 फीसद बच्चे कुपोषण का शिकार हैं तथा चौदह फीसद ऐसे हैं, जिनका वजन अपनी उम्र के अनुकूल नहीं है। ‘चाइल्ड स्टंटिंग’, बाल मृत्यु-दर, अल्पपोषण तथा ‘चाइल्ड वेस्टिंग’ को आधार बनाकर आयरलैंड की एजेंसी कंसर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी का संगठन वेल्ट हंगर हिल्फ द्वारा जारी किए जाने वाले ‘वैश्विक भुखमरी सूचकांक’ के 2021 के आंकड़े में एक सौ सोलह देशों की सूची में भारत 27.2 अंकों के साथ एक सौ एकवें स्थान पर है, जो कि गंभीर श्रेणी है। 2020 में भारत एक सौ सात देशों की सूची में चौरानबेवें स्थान पर था। इस सूचकांक में हमसे बेहतर हमारे पड़ोसी देश- नेपाल, बंग्लादेश और पाकिस्तान हैं। यह आंकड़ा भुखमरी से निजात पाने संबंधी हमारी सुस्त नीतियों का परिचायक है।

भारत में भुखमरी की समस्या का एक मुख्य कारण यह भी है कि यहां विकसित देशों की तुलना में प्रति हेक्टेयर फसल उत्पादन कम है। एक तरफ जहां अमेरिका, जापान और ब्राजील जैसे देशों में प्रति हेक्टेयर धान, गेहूं का उत्पादन 3,500 किलो से ज्यादा है, वहीं भारत में बमुश्किल प्रति हेक्टेयर उत्पादन 2000 किलो तक हो पाता है। हरित क्रांति के पश्चात चकबंदी और भूमि संबंधी सुधारों के बाद भारत में अनाज उत्पादन में अप्रत्याशित वृद्धि हुई, तो वहीं दूसरी तरफ जनसंख्या में भी अनपेक्षित वृद्धि हुई है, जो आज से कुछ ही सालों के बाद भविष्य में भोजनापूर्ति के संदर्भ में साधारण जनमानस तथा सरकारी तंत्र के लिए चुनौती बनता दिखाई पड़ रहा है। भारत में हरित क्रांति का प्रभाव सीमित क्षेत्रों- मसलन, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों में रहा। समकालीन परिदृश्य में भले इस क्रांति ने हमें अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बना दिया हो, पर लंबी अवधि के संदर्भ में यह क्रांति हर मायने में घातक ही रही है। भले हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई, लेकिन कीटनाशकों और रसायनिक खाद के अंधाधुंध प्रयोग ने यहां सबसे ज्यादा कैंसर के मरीजों को भी जन्म दिया है।

वर्तमान परिदृश्य में भारत अपनी पूरी जनसंख्या को अनाज उपलब्ध कराने में सक्षम है, पर समस्या की जड़ है अक्षम आपूर्ति चक्र, अवैज्ञानिक अनाज भंडारण, किसानों को बिचौलियों से बचा कर उनकी फसल का समुचित मूल्य प्रदान न करा पाना और अनाज की बर्बादी को न रोक पाना। आंकड़े बताते हैं कि भारत में पैदा होने वाले अनाज का पांचवां हिस्सा बर्बाद हो जाता है। प्रति वर्ष 6.7-7 करोड़ टन फसल की बर्बादी होती है, जिसका राजस्व लगभग पंचानबे हजार करोड़ है। 2019-20 में सरकार ने 7.517 करोड़ टन अनाज की खरीदारी की, जिसमें से 1930 टन अनाज बर्बाद हो गया। उपभोक्ता मामले विभाग के आंकड़ों के अनुसार भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में सिर्फ बंदी के कारण डेढ़ हजार टन से अधिक फसलों की बर्बादी हुई।

हमें अनाज उत्पादन से ज्यादा अनाज क्रय-विक्रय अनाज भंडारण तथा अनाज वितरण पर ध्यान देने की जरूरत है। कई कार्यक्रमों, जैसे प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, मिड डे मील, जन-वितरण प्रणाली, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना तथा आंगनबाड़ी केंद्र भुखमरी से पार पाने में अपना भरपूर सहयोग कर रहे हैं, बस आवश्यकता है इन योजनाओं को और पारदर्शी बनाने की। भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्त्व में कहा गया है कि नागरिकों के पोषाहार स्तर, जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोक-स्वास्थ्य को सुधारने का कर्तव्य राज्य का होगा। हमारा भी यह नैतिक कर्तव्य है कि अपनी जीवनशैली को सुधारें, जो हमें भुखमरी जैसी वीभत्स समस्याओं से निजात दिला सकें।

वैश्विक भुखमरी सूचकांक- 2021 के आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि 2030 तक हमारा ‘शून्य भुखमरी’ के लक्ष्य को प्राप्त करना तो दूर, इस लक्ष्य के आसपास भी नहीं पहुंच सकते। अगर वैश्विक परिदृश्य में देखें तो सामान्यत: पूरा विश्व और खासकर सैंतालीस देश 2030 तक ‘शून्य भुखमरी’ के लक्ष्य तक पहुंचने में असमर्थ दिखाई पड़ रहे हैं। भुखमरी के प्रमुख कारक के रूप में देशों के बीच संघर्ष, कोविड और जलवायु परिवर्तन को माना जा रहा है। वैश्विक तापमान की बढ़ती तीव्रता, समुद्रों का बढ़ता जलस्तर बाध्य कर रहा है कि हम अपनी कृषि उत्पादन की नीतियों को परिष्कृत करें। कृषि में तकनीक का उपयोग कर बीजों को बदलती जलवायु के अनुरूप बनाना होगा।

आवश्यकता है सतत विकास के सत्रह लक्ष्यों में से दूसरे सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य ‘शून्य भुखमरी’ पर सबसे प्रभावशाली योजनाओं को अंतिम रूप देकर उन्हें समाज के सबसे शुरुआती स्तर से क्रियान्वित करने की। फसलों, फलों और सब्जियों की बर्बादी रोकने के लिए केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘किसान ट्रेन योजना’ अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इसके माध्यम से खाद्य आपूर्ति के लक्ष्य को निर्धारित समय में पूरा किया जा सकता है। ‘किसान ट्रेन योजना’ के पूर्व किसानों को बिचौलियों से बचाने के लिए और फसलों की खरीदारी के लिए आनलाइन प्लेटफार्म की घोषणा अभूतपूर्व है। बस आवश्यकता है इसके प्रचार-प्रसार को तेज करने की, ताकि साधारण से साधारण किसान भी इसका फायदा उठा सकें और खाद्योत्पादन में समर्पित भाव से लगें, जिससे भुखमरी को उखाड़ फेंकने में सहायता मिल सकती है।

भारत में भुखमरी की समस्या को सुलझाने के लिए कुछ गैर-सरकारी संगठन अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। ये संगठन किसी शादी समारोह या कारपोरेट आफिस में किसी आयोजन के दिन बचे खाने को लेकर जरूरतमंदों तक पहुंचाते हैं। तमिलनाडु में ‘अम्मा किचन’ की तर्ज पर पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा पांच रुपए में ‘मां की रसोई’ योजना के अंतर्गत भरपेट भोजन उपलब्ध करवाना, एक स्वागत योग्य कदम है। इस क्षेत्र में राजस्थान सरकार द्वारा ‘इंदिरा रसोई योजना’ जिसमें आठ रुपए में भरपेट भोजन तथा केंद्र सरकार द्वारा ‘प्रधानमंत्री अन्नपूर्णा अक्षयपात्र योजना’ के तहत दस रुपए में भोजन भी प्रशंसनीय प्रयास हैं।

भारतीय संसद द्वारा 2013 में पारित ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ का उद्देश्य लोगों को वहनीय मूल्यों पर गुणवत्ता वाले खाद्यान्न की उपलब्धता तथा पौषणिक सुरक्षा सुनिश्चित करना है। भुखमरी से बचाव और खाद्य सुरक्षा की निष्पत्ति के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण गैर-सरकारी संस्थाएं अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही हैं। देश के स्तर पर भुखमरी को दूर भगाने के लिए हम सभी को मिलकर एकीकृत योजनाओं को जमीनी स्तर पर उतार कर लड़ाई लड़नी होगी, तभी हम सफल हो सकते हैं।


Date:24-10-22

प्रदूषण से मुक्ति बड़ी चुनौती

डॉ विनोद यादव

हमारे देश में मनाए जाने वाले तमाम त्योहारों में दीपावली का धामक‚आध्यात्मिक और सामाजिक– तीनों नजरिए से अत्यधिक महkव है। पौराणिक महत्व की बात करें तो चौदह वर्ष के वनवास और लंका विजय से लौटने पर अयोध्यावासियों ने अपनी खुशी का इजहार घी के दिए जलाकर किया था। अयोध्या के लोगों द्वारा आयोजित सामूहिक दीपोत्सव असभ्यता व बर्बरता के तिरस्कार और सभ्यता एवं शिष्टता के समर्थन का प्रतीक था। वस्तुतः ये तहजीब के दीयों से प्रकाशमान कतारें थीं‚जो अमावस्या के अज्ञानी और अहंकारी अंधकार को नेस्तनाबूद कर हमारी आस्थागत परंपरा में दीपावली का स्थायी भाव बन गइ

ज्ञान की रोशनी के बगैर सदाचार की दीपावली की कल्पना करना असंभव है। रोशनी सभ्यता‚संस्कृति और संस्कार का पर्याय बनकर हमारे व्यक्तित्व में समा गई है। इसलिए वृहदारण्यक उपनिषद में ऋषियों ने आवाह्न किया–तमसो मा ज्योतिर्गमय। आओ अपने सतत पुरु षार्थ से अज्ञान के तमस को काटते हुए ज्ञान के प्रकाश की ओर चलें। सनातन संस्कृति का यह पौराणिक उद्घोष हमें आज भी आकृष्ट करता है‚उपनिषदों का यह संदेश हमारी स्मृति में आज भी रचा–बसा है‚और पूरे परिवेश में व्याप्त कदाचार और बेअदबी के अंधेरे के बावजूद सुसभ्य और सुसंस्कृत जनमानस को दीपावली मनाने की प्रेरणा देता है। इस विश्वास के साथ कि ईष्र्या‚द्वेष‚डाह और नासमझी का अंधकार कितना भी गहरा हो‚उसे काटने के लिए बुद्धिमता‚विवेक और प्रज्ञा का एकदीप ही पर्याप्त है। इसलिए कहा भी गया है–‘अंधकार से लड़ने का जब संकल्प कोई कर लेता है‚तो एक अकेला जुगनू भी सब अंधकार हर लेता है।’ दीपावली की पौराणिक पृष्ठभूमि में एक कथा यह भी प्रचलित है कि प्राग्ज्योतिषपुर (असम) के असुर सम्राट नरकासुर ने देवराज इंद्र को पराजित करने के बाद देवताओं और ऋषियों की सोलह हजार कन्याओं का अपहरण कर उन्हें अपने रनिवास में रख लिया। नरकासुर को किसी देवता या पुरु ष से अजेय होने का वरदान प्राप्त था। उसके आतंक से त्रस्त देवताओं और ऋषियों ने श्रीकृष्ण से याचना की–‘हे योगेश्वर! आप पापियों के संहारक और धर्म के शाश्वत संस्थापक हैं‚दुराचारी नरकासुर से हमें मुक्ति प्रदान करो।’ देवताओं की दयनीय दशा देखकर श्रीकृष्ण नरकासुर के अंत का उपाय सोचने लगे। देवताओं की दुर्दशा और श्रीकृष्ण के माथे पर चिंता की लकीर देखकर उनकी वीरांगना रानी सत्यभामा सामने आई । सत्यभामा को अनेक युद्धों में भाग लेने का अनुभव प्राप्त था। सत्यभामा स्वयं कृष्ण की सारथी बनकर रणक्षेत्र में उतरीं और दोनों ने अद्भुत रण कौशल का परिचय देते हुए नरकासुर का वध कर दिया। नरकासुर के बंदीगृह में बंदी सोलह हजार स्त्रियो को मुक्त करा लिया गया। सत्यभामा और श्रीकृष्ण के द्वारका लौटने पर पूरी नगरी को तोरणद्वारों से सजाया गया। घर–घर दीए जलाकर स्त्रियो की मुक्ति का विराट दीपोत्सव मनाया गया। यह कथा संदेश देती है कि–‘जब नाश मनुज पर छाता है‚तब विवेक मर जाता है।’ यह पौराणिक वृत्तांत परिचायक है इस बात का कि दीपावली का दिन स्वयं से यह प्रश्न पूछने का अवसर भी है कि अबोध बालिकाएं और बेटियां पुरुष–वासना और कुष्टि से मुक्ति पाने के लिए कब तक द्वारकाधीश को पुकारती रहेंगी।

दीप जलाने मात्र से समाज में फैला बुराइयों का अंधेरा नहीं हट सकता। इस संदर्भ में गौतम बुद्ध ने जनमानस का मार्गदर्शन करते हुए कहा–‘अप्पो दीपो भव’ अंतर्मन के किसी भी कोने में अवगुणों का तनिक भी अंधकार न रह पाए‚इसलिए अपने दीपक अपने आप बनो। आज हमारे सामने दीपावली के नये अर्थ खोजने और नये आयाम स्थापित करने की चुनौती है। आज बेहद जरूरी है उपयोगी ऊष्मा और उजाले को अप्रासंगिक और अनुपयोगी प्रकाश से दूर रखा जाए। आज बड़ी चुनौती है अंधियारे को प्रकाश के नजदीक लाना।

दीपावली ऐसा त्योहार है‚जब गरीब से लेकर अमीर तक अपने घर–परिवार में कुछ न कुछ नया जोड़ने की कोशिश करता है‚और इस तरह से पूंजी का प्रवाह बाजार और देश की अर्थव्यवस्था को नई उम्मीदें सौंपता है। चूंकि इससे साफ–सफाई‚स्वच्छता की सुखद पारंपरिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं‚इसलिए यह त्योहार गरीबों की जेब में कुछ न कुछ धनराशि पहुंचा ही देता है‚ताकि वे अपने हिस्से की कुछ खुशियां जी सकें। हमें अपने त्योहारों के मूल संदेश को याद करने की जरूरत है। प्रदूषित माहौल में खुशहाल जिंदगी भला कैसे संभव हो सकती है। हमारा ध्येय होना चाहिए– प्रदूषण मुक्त दीपावली


Date:25-10-22

खतरे में भारतीय सांस्कृतिक एकता

कैप्टन आर विक्रम सिंह

पापुलर फ्रंट आफ इंडिया (पीएफआइ) और उसके सहयोगियों का एजेंडा देश के समक्ष सार्वजनिक हो गया है। वहीं एक ईसाई पादरी जार्ज पोन्नया ने पिछले दिनों कन्याकुमारी में राहुल गांधी से कहा कि जीसस असली ईश्वर हैं, वे ‘शक्ति’ की तरह नहीं हैं। वह पहले भी कह चुके हैं कि मैं जूते पहनता हूं, जिससे भारत माता की अशुद्धि उन्हें दूषित न कर सके। इसके साथ जिस अबाध गति से मतांतरण के अभियान अपने देश में चल रहे हैं, उससे सबसे बड़ा खतरा धर्म पर ही नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक एकता पर पड़ना अवश्यंभावी है। जाहिर है राष्ट्र-विरोध मुखर हो रहा है। विभाजनकारी शक्तियां अपने तर्क, अपने रास्ते खोज रही हैं। अब हम त्रिपुरा, मणिपुर एवं असम घाटी के क्षेत्रों को छोड़ दें तो शेष पूर्वोत्तर ईसाई हो चुका है। अब मतपरिवर्तित समाज में भारतभूमि या भारतमाता जैसा कोई वैचारिक या सांस्कृतिक संकल्प संभव ही नहीं है। अतः जो बात समझने की है वह यह है कि भले ही हमारा संविधान अब्राहमिक पादरियों, इमामों को अपने मजहब के प्रचार की अनुमति देता है, लेकिन यह विस्तार भारत के विखंडन के रास्ते बना रहा है। तिरंगा, संविधान एवं बाबा साहब का आवरण लेकर बड़े शातिराना अंदाज में इसे अंजाम दिया जा रहा है । जिहादी संगठन का लक्ष्य 2047 तक भारत का मजहबीकरण है। उनके मजहब में भारत राष्ट्र अनुपस्थित है। वे यहां तक चाह रहे हैं कि जिन जनपदों में वे बहुमत में आ चुके हैं, उनका एक अलग राज्य बनाकर शरिया लागू कर दिया जाए। झारखंड की कुछ पाठशालाओं में तो शुक्रवार का अवकाश प्रारंभ भी हो गया है।

अतः जब धर्मप्रचार की यह संवैधानिक सुविधा देश की एकता की भावना पर स्थायी चोट कर रही है तो ऐसे प्रविधानों का संविधान में रहना खंडित भारत के रास्ते बना रहा है। इन्हीं प्रविधानों के माध्यम से ही तो भारत को राष्ट्र के स्थान पर देशों का समूह घोषित करने का अभियान चलाया जाएगा। पिछले दिनों तमिलनाडु में राज्यपाल के अभिभाषण से ‘जय हिंद’ के उद्घोष को हटा देने को राज्य की अलगाववादी मानसिकता की सफलता के रूप में देखा गया। भारत से अलगाव उनका साध्य है। अतः ये स्थानीय दल स्वाभाविक दृष्टि से आयातित मजहबों से निकटता बढ़ने के संकेत दे रहे हैं।

अब राजनीतिक हितों की ओर आएं। मिजोरम के पिछले चुनावों में चर्च के पदाधिकारियों ने एक प्रकार का निर्देश जारी किया था कि उनकी राजनीतिक पक्षधरता किसके लिए है। जिनके लिए भारतवर्ष-भारतमाता की अवधारणा ही अर्थहीन है वे राष्ट्रीयता के हिमायती दल के साथ कैसे खड़े हो सकते हैं? ये मजहबी नेतृत्व क्षेत्रीय प्रकृति के दलों को बढ़ावा देते हैं। इनका उद्देश्य हिंदुत्व की धार्मिक क्षमता को अशक्त करना है इसलिए ये मजहब क्षेत्रीय अलगाववाद को बढ़ावा देते हैं। इन मजहबों का प्रसार तो तभी होगा जब वे सनातन धर्म और भारतीय राष्ट्रीयता को खलनायक के रूप में प्रदर्शित कर सकेंगे। अतः भारत का विखंडन एवं राजनीतिक सत्ता के माध्यम से धर्म का विस्तार इनका लक्ष्य है। पूर्वोत्तर के राज्यों के बाद आंध्र प्रदेश में इनका काम तेजी से आगे बढ़ रहा है। केरल के आदिवासी क्षेत्र मत परिवर्तित हो रहे हैं। पंजाब के दलित सिखों में ईसाइयत तेजी से पैर पसार रही है। उत्तर प्रदेश और बिहार में भी अभियान की सूचनाएं हैं। जो हो रहा है वह कल तक अकल्पनीय था। आज सामने होता हुआ दिख रहा है। नेताओं का क्या है, वे तो पंजाब में ईसा मसीह का नाम लेकर नव ईसाइयों से वोट मांगने जाने भी लगे हैं। अपनी सत्ता के लिए इन जाति-क्षेत्रवादियों ने अलगाववादी कट्टर सांप्रदायिकता को प्रश्रय दिया। उनसे मिलकर सत्ता में आ गए। क्षेत्रीय सांप्रदायिक अलगाव बढ़ाना उनकी सत्ता की बाध्यता है।

देश का एक बड़ा दुर्भाग्य तो यह भी है कि हमारे धर्माधिकारियों के विस्तृत समुदाय को इस संकट की कोई समझ ही नहीं है। वे न तो इस्लामिक जिहाद के विरुद्ध खड़े हो पाए और न ईसाइयत के अभियान का मुकाबला करते दिख रहे हैं। जातीय श्रेष्ठता का भाव इतना भारी है कि वह इन्हें समाज के पिछड़े शोषित वर्ग के मध्य में जाने ही नहीं देता। वही वर्ग इन मजहबों का लक्ष्य है, जिनसे हम आशा लगाए बैठे हैं। धार्मिक-सामाजिक मार्गदर्शन के अभाव के कारण ऊंच-नीच में बंटे हमारे समाज में धर्म-समाज की समरसता एवं एकता जैसी भावना ही विकसित नहीं हो सकी। जो स्वयं मजारों के चक्कर काटता है, वह भला कैसे और किस प्रकार जिहाद से मुकाबला कर पाएगा? अब जो दायित्व समाज का है, वहां भी हम हर उम्मीद सरकार से कर बैठते हैं।

हमारा संविधान अब तक 104 बार संशोधित हो चुका है। पीएफआइ और जार्ज पोन्नया जैसे सोच को हवा देने वाले प्रविधानों की गहन समीक्षा कर संशोधित करने, आयातित मजहबों के राष्ट्रविरोधी कार्यकलापों को नियंत्रण के दायरे में ले आना हमारे संविधान के लिए कोई असंभव सा कार्य तो नहीं है। इसके लिए ऐसी जनप्रतिबद्धता की आवश्यकता है, जो राष्ट्रीय नेतृत्व को निर्णय लेने की शक्ति दे सके। राष्ट्रविरोधी शक्तियों का एकजुट होना हम देख रहे हैं। वे पूजास्थल, वक्फ संपत्तियों जैसा अधिनायकवादी कानून बनवा ले जाती हैं, कोई पूछता तक नहीं। प्रश्न यह है कि भारतीय राष्ट्रीयता के पक्षधरों में कब जागरण आएगा? इसकी प्रतीक्षा का तो जैसे अंत ही नहीं दिख रहा है।


Date:25-10-22

तीसरी बार जिनपिंग

संपादकीय

चीन में शी जिनपिंग तीसरी बारकम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव चुन लिए गए हैं, इसका असर केवल चीन ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ेगा। चीन में इस बार शी जिनपिंग का जीतना कठिन था, लेकिन उन्होंने विगत वर्षों में अपने आपको बहुत मजबूत कर लिया है। उच्च स्तरकी राजनीति और पूरी ताकत से सत्ता प्रतिष्ठान पर पकड़ की वजह से ही शी जिनपिंग अपना पदबनाए रखने में कामयाब रहे हैं। चीन की राजनीति पर दुनिया में बहुत चर्चा नहीं हो पाती है, लेकिन यह सच है कि कम्युनिस्ट पार्टी में भी काफी उठापटक होती रहती है। इस बार शनिवार को चीन में कांग्रेस की बैठक से पूर्वराष्ट्रपति हू जिन्ताओ को बाहर कर दिया। जिन्ताओ पहले शी जिनपिंग के बगल में बैठे थे, पहले दो लोगों ने उन्हें समझाया और फिर बांह पकड़कर उठा दिया, जिन्ताओजाते-जाते शी जिनपिंग को कुछ बोलते हुए गए। यह एक संकेत तो है ही, लेकिन अंततः जीतता वही है, जो हर तरह से कुशल और सचेत होता है। कोई दोराय नहीं कि जिनपिंग इस दौर के कुशल और सचेत राजनेता हैं, इसमें कोई चालाक शब्द भी जोड़ सकता है। कहने वाले कहेंगे कि शी जिनपिंग ने पूरी निर्ममता से अपने लिए रास्ता तैयार किया है, लेकिन तब भी चीन में जो भी व्यवस्था है, वह कोई जिनपिंग की बनाई हुई नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टी ने ऐसे प्रावधान रखे हैं, तभी जिनपिंग जैसे सशक्त नेता सबसे मजबूती से डटे नजरआते हैं। उन्हें चीन के इतिहास का लालसंघर्षको सबसे मजबूत नेता कहा जा रहा है। माओ के समय चीन इतना मजबूत उत्कर्षपरजिनपिंग नहीं था।माओ ने चीन के विकास ने पहुंचाया है।चीन की राह तैयार की, लेकिन उनके महाशक्ति के रूप में आजचीन अगर उमरतादिख रहा है, महाशक्ति के रूप में तेजी से उभरता तोउसमें जिनपिंग दिख रहा है, तो उसमें जिनपिंग की दृढ़ता का योगदान स्पष्ट है। तकनीक की दृढ़ताका से सामरिक शक्ति तक और योगदानस्पष्ट है। औद्योगिक देशसे खेलों के देश तक चीन की जो पहचान बनी है, उससे कोई भी नजरें नहीं फेर सकता। एएफपी ने चीनी मीडिया के हवाले से बताया है कि शी जिनपिंग तीसरी बार सफलतापूर्वक सबसे शक्तिशाली नेता बन गए हैं। इस अवसर पर शी जिनपिंग ने कहा है, ‘आपने मुझ परजो भरोसा किया है, उसके लिए मैं पूरी पार्टी को ईमानदारी से धन्यवाद देना चाहता हूं।’ शिकायत करने वाले शिकायत करेंगे, लेकिन शी अपनी राह पर आगे बढ़चले हैं।

अब 69 वर्षीय जिनपिंग के हाथ में कम से कम पांच साल तक सत्ता सुरक्षित रहेगी। उनकी ताकत को देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि अगले चयन में भी वही मैदान में रहेंगे। केमिकल इंजीनियरिंग करने वाले इस नेता की ओर दुनिया गौर से देख रही है। उनके समय में चीन आक्रामक हुआ है और अपने साम्राज्यवादी मनसूबे को पूरा करने की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहा है। इसमनसूबे के चलते चीन के प्रति चिंता बढ़ी है। क्या वह युद्ध लड़ना चाहता है? क्या वह अपने आसपास के देशों को केवल आंखें दिखाकर अपने मनसूबे पूरे करना चाहता है? क्या उसने पूरी दुनिया को महज अपना बाजार समझ रखा है? क्या उसकी धारणा आतंकवाद को लेकर स्पष्ट नहीं है? क्या वह मुस्लिमों या किसी भी धर्म के लोगों के प्रति निर्मम है? क्या वह भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों को सहन नहीं कर पा रहा है? ‘दुनिया कोरोना वायरस कहां से आया’ के सवाल से आगे बढ़ रही है, शी जिनपिंग अगर अपने आगामी कार्यकाल में दुनिया को शांति और न्याय से राहत दे पाए, तो यह उनकी बड़ी उपलब्धि होगी।


Date:25-10-22

फिर हमारे काम आएंगे प्रवासी भारतीय

जयंतीलाल भंडारी, ( अर्थशास्त्री )

एक ऐसे समय में, जब वैश्विक भू-राजनीतिक वजहों  से डॉलरतेजीसे लगातारमजबूत हो रहा है और भारत का विदेशी मुद्रा कोष तेजी से कम हुआ है, तब दुनिया के कोने-कोने में रहने वाले भारतवैशियों और भारतीय प्रवासियों (एनआरआई) से भारत के लिए विदेशी मुद्रा सहयोग बढ़ाने का सुकूनदेह परिदृश्य दिखाई दे रहा है। विगत 2 अक्तूबर को गांधी जयंती के अवसर पर वाशिंगटन में अमेरिका के भारतीय मूल के लोगों और प्रवासी भारतीयों से संबद्ध अन्य सभी देशों के प्रवासियों से गैर-लाभकारी संस्थाओं के एक संयुक्त संगठन इंडिया फिलांथ्रोपी अलायन्स (आईपीए) के तत्वावधान में भारत के विकास और मानव विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अधिक आर्थिक मदद दिए जाने का निर्णय विभिन्न देशों के प्रवासी भारतीयों के लिए भी प्रेरणादायी बन गया है।

गौरतलब है कि आईपीए ने 2 मार्च, 2023 को ‘इंडिया गिविंग डे मनाने का निश्चय किया है। अभी तक आईपीए जिस तरह भारत को सहयोग के लिए सालाना करीब एक अरब डॉलरजुटता है, उसे अगले साल बढ़ाकर तीन अरब डॉलर जुयने का लक्ष्य तय किया गया है। आईपीए ने कह कि भारत ने अपनी आजादी के 75 सालकासंतोषजनक सफर तय किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भारत के बढ़ाए गए गौरव और प्रवासी भारतीयों के लिए किए गए विशेष प्रयासों सेप्रवासियों का भारत के लिए सहयोगलगातारबढ़ा है। ऐसे में, अब भारत के तेज विकास और अपने भारतीय समुदाय के करोड़ों जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए आईपीएखुले हाथों से मदद के लिए आगे बढ़ा है। अब जनवरी 2023 में इंदौर में आयोजित होने वाले 17वें प्रवासी भारतीय दिवस पर प्रवासी भारतीयों द्वारा भारत केविकासमें योगदानदेने हेतु विशेष पहलकीसंभावनाएं दिखाई दे रही हैं।

इसमें कोई दोमत नहीं है कि भारतीय प्रवासी भारत कोधन भेजने के मामले में अन्य सभी देशों के प्रवासियों से बहुत आगे हैं । विश्व बैंक द्वारा जारी ‘माइग्रेशन ऐंड ‘डेवलपेंट ब्रीफ’ रिपोर्ट 2021 के मुताबिक, विदेश में कमाई करके अपने देश में धन (रेमिटेंस) भेजने के मामले में पिछले वर्ष 2021 में भारतीय प्रवासी दुनिया में सबसे आगे रहे। रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2021 में प्रवासी भारतीयों ने 87 अरब डॉलर की धनराशि स्वदेश भेजी है। जहां वर्ष 2020 में कोविड-19 के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था 7.3 फीसदी की ऋणात्मक विकास दर की स्थिति में पहुंच गई थी, वहीं दुनिया के विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं में धीमापन आने के कारण भारतीय प्रवासियों की आमदनी में बड़ी कमी आई थी, फिर भी आर्थिक मुश्किलों के बीच भारतीय प्रवासियों द्वारा वर्ष 2020 में भेजी गई 83 अरब डॉलर की बड़ी धनराशि से भारतीय अर्थव्यवस्था को बड़ा सहारा मिला था।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अतीत में जब भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में तेज गिरावट आई, तब प्रवासियों ने मुक्तहस्त से विदेशी मुद्रा कोष को बढ़ाने में सहयोग दिया है। अगस्त 1998 में रीसर्जेंट इंडिया बॉन्ड्स की मदद से 4.8 अरब डॉलरकी राशि जुटाई गई थी। इसी तरह 2001 में इंडिया मिलेनियम डिपॉजिटस्कीम की मदद से करीब पांच अरब डॉलरसे अधिक की राशि जुबई गई।ऐसे प्रयासों से विदेशी मुद्रा भंडार की चिंताएं कम हुई थीं।

ऐसे में, इस समय आर्थिक एवं वित्तीय चुनौतियों के बीच डॉलर संकट का सामना कर रहे भारत को प्रवासी भारतीयों से सहयोग की जरूरत तीन आधारों पर दिखाई दे रही है। एक, तेजी से घटता विदेशी मुद्रा भंडार, दो, विकसित देश बनने के लक्ष्य की डगर पर तेजी से आगे बढ़ना और तीन, मानव विकास माप दंखें की ऊंचाई बढ़ाना। स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि इस समय रूस यूक्रेन युद्ध, कच्चे तेल की कीमत बढ़ने औरडलरकी मजबूती से भारत का विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घटते हुए7 अक्तूबर, 2022 को 532.87 अरब डॉलरके निचले स्तर पर पहुंच गया। ऐसे में, डॉलर की तुलना में लुढ़कते रुपये को बचाने व विकास कार्यों के लिए अधिक विदेशी मुद्रा जरूरी है। निस्संदेह, विगत 75 वर्षों में असाधारणचुनौतियों से सफलतापूर्वक निपटने के बाद दुनिया में सामर्थ्यवान भारत की जो तस्वीर उभरी है, उसके आधार पर देश में साल 2047 तक विकसित देश बनने के बड़े लक्ष्य को हासिल करने में प्रवासी भारतीयों की अहम भूमिका हो सकती है।

उल्लेखनीय है कि दुनिया के विभिन्न देशों में रहरहे प्रवासी भारतीय भारत के प्रति स्नेह औरमैत्री रखते हुए भारत के विकास में अपनी सहभागिता लगातार बढ़ा रहे हैं। इसमें कोई दो मत नहीं कि भारतीय प्रवासियों और भारतीयमूलकीकई हस्तियों नेदनियाके विभिन्न देशों में लोक सेवा के नेतृत्वकर्ता के रूप में चमकीली पहचान बनाई है। उल्लेखनीय है कि इससमय भारतीय मूल के 130 से अधिक लोगबाइडन प्रशासन में उच्च पदों परकाबिज हैं। न केवल अमेरिका में, वरनगुनिया के विभिन्न देशों में भारतवंशी और प्रवासी भारत के लिए विदेशी मुद्रा के प्रवाह को बढ़ाने का अभियान तेज करने की क्षमता रखते हैं।

यह भी महत्वपूर्ण है कि विदेश में रह रहे भारतीय कारोबारियों, वैज्ञानिकों, तकनीकी विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं और उद्योगपतियों की प्रभावी भूमिका दुनिया के विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं में सराही जा रही है। आईटी, कंप्यूटर, मैनेजमेंट, बैंकिंग, वित्त आदि के क्षेत्र में दुनिया में प्रवासी भारतीय सबसे आगे हैं। कई भारतवंशी और प्रवासी भारतीय भारत के लिए अपनत्व की भावना रखते हैं और अपने वतन को आगे बढ़ते देखना चाहते हैं। ऐसे में, प्रवासी भारतीय भारत के लिए विदेशी मुद्रा के प्रवाह को तेज करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

हम उम्मीद करें कि अमेरिका के आईपीए संगठन के माध्यम से प्रवासी भारतीयों और भारतवंशियों द्वारा भारत के विकास और भारत के करोड़ों जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए जिस तरह हाथ आगेबढ़ाए गए हैं, वैसे ही सहयोग के हाथ अन्य देशों में रहने वाले प्रवासी भारतीयों द्वारा भी बढ़ाए जाएंगे।

हम उम्मीद करें कि तीन-चार दशक पहले चीन के प्रवासियों द्वारा चीन की चमकीली आर्थिक तस्वीर बनाने में जिस तरह अहम भूमिका निभाई गई, वैसी ही भूमिका अब भारत की चमकीली तस्वीर बनाने में प्रवासी भारतीयों द्वारा भी निभाई जाएगी। हम यह भी उम्मीद करें कि प्रवासी भारतीय अपने ज्ञान व कौशल की शक्ति से भी भारतीय अर्थव्यवस्था और भारतीय समाज को आगे बढ़ाने में अपना अमूल्ययोगदानदेंगे।


Date:25-10-22

हिंदी में चिकित्सा शिक्षा से भारत को होगा फायदा

प्रमोद भार्गव, ( वरिष्ठ पत्रकार )

चिकित्सा, यानी एमबीबीएस की हिंदी माध्यम से पढ़ाई सामाजिक न्याय के साथ समाजको भाषायी घरातल पर उन्नत और विकसित करने की बड़ी पहल है। विश्व के ज्यादातर देश अपनी-अपनी भाषा में चिकित्सा, अभियांत्रिकी और अन्यविज्ञान विषयों की शिक्षा मुहैया कराते हैं। रूस, चीन, यूक्रेन जैसे देशों में जाकर मेडिकल की पढ़ाई करने वाले बच्चे पहले इन देशों की मातृभाषा सीखते हैं। जापान और जर्मनी में भी यही पद्धति लागू है। चीन और जापान की भाषाएं चित्रात्मक लिपि में लिखी जाने के कारण अत्यंत कठिन मानी जाती हैं। फिर भी, मेघावी भारतीय छात्र इन भाषाओं में पारंगत हो जाते हैं। ऐसे में हिंदी भाषा में पढ़ाई से छात्रों में स्वत्व की भावना पैदा होगी। जिस तरह से दूसरे देशों में ज्ञान, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्रों में शोध आदि स्थानीय भाषाओं में होते हैं, भारत में भी कालांतर में यह स्थिति बनजाएगी । अभी तोझलात ये हैं कि एमबीबीएस और इंजीनियरिंग में जो छात्र मातृ भाषा में पढ़कर आते हैं, उन्हें अंग्रेजी नहीं आने के कारण मानसिक प्रताड़ना की ऐसी स्थिति से गुजरना पड़ता हैकि कभी-कभी वे आत्महत्या अनकाचाव जैसा कदम वक उठा लेते हैं।

हिंदी माध्यम से मेडिकल का पढ़ाई मे टिकलछा की ग्रह मध्य प्रदेश से तैयार हुई है। मा देश में इंजीनियरिंग की पढ़ाई को आठ में पढ़करस भारतीय भाषाओं में कराने की मंजूरी पहले ही दी जा चुकी है। भारत में हर तरह की उच्च और तकनीकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। नतीजतन, भारतीय समाज में ऐसी धारणा बन गई है कि हिंदी माध्यम से पढ़ाई की, तो उत्तम दर्जे का रोजगार हासिल करना असंभव है, इसलिए जैसे ही परिवार का मुखिया आर्थिक रूप से सक्षम होता है, अपने नौनिहालों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाने का प्रबंध कर देता है। इस कारण बच्चे न केवल मातृभाषा से दूर होने लगते हैं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक विरासत से भी उनकी स्वाभाविक दूरी बनने लगती है। इसीलिए आजादी के बाद से ही भारतीय भाषाओं को विज्ञान व तकनीकी विषयों के माध्यम बनाए जाने की कोशिशें की जाती रही थीं। मगर ऐसे प्रयास नौकरशाही की दहलीज पर जाकर दम तोड़ देते थे। यह पहला मौका था, जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हिंदी माध्यम से डॉक्टरी कराने का संकल्प लिया और तैयार विषयों की पुस्तकों का विमोचन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से कराकर एक लंबी प्रतीक्षा पूरी कर दी। इस शुरुआत के बाद राष्ट्र-बोध से प्रेरित अनेक चिकित्सक हिंदी में पर्चे लिख रहे हैं औरछात्र किडनी व लीवर की संरचना हिंदी में जानकर संतोष का अनुभव कर रहे हैं।

केंद्र में जब से भाजपा सरकार आई है. तभी से हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के उत्थान और प्रयोग हेतु अनुकूल वातावरण बनाने की कोशिशें लगातार हो रही हैं। इसी कड़ी में नूतन राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गत स्कूली शिक्षा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में देने के प्रावधान किए गए हैं। बावजूद यह विडं बना है परित कि आजादी के इन 75 वर्षों में अंग्रेजी का प्रभुत्व कुछ इस तरह से खड़ा किया गया कि समस्त भारतीय भाषाएं शिक्षा और रोजगार से बेदखल होती चली जा रही हैं। इसी का परिणाम रहा कि मातृभाषा लोगों की यह मानसिकता बेवजह षका बनती चली गई कि अंग्रेजी के बिना आजीविका के साधन जुटाने मुश्किल हैं। यह अच्छी बात है कि आजादी के इस अमृतकाल में हिंदी भाषा विज्ञान की शिक्षा में समर सताएवं सामाजिक न्याय का आधारबन रही है।

अक्सर कहा जाता है कि हिंदी के पास शब्द सामर्थ्य कम हैं, जबकि हकीकत यह है कि हिंदी के शब्दकोश में करीब सात लाख शब्द हैं, और संस्कृत में 20 लाख शब्दों का वृहद संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोश तैयार हो चुका है। फिर भी, अंग्रेजी केवल ढाई लाख शब्दों के कोशके मार्फत भारतीय भाषाओं कासिरमौर बनी बैठी है।संविधान के अनुच्छेद-19 में देश के सभी नागरिकों को अभिव्यक्तिको स्वतंत्रता के तहत अपनी भाषा में विचार व्यक्त करने का मूलाधिकार दिया गया है। यह अभिव्यक्ति संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किसी भी भारतीय भाषा में हो सकती है। मगर दुर्भाग्य से यह अधिकार कई जगहों पर जाकर ठिठक जाता है। अच्छी बात है कि ऐसी ही एक जगह पर अब हिंदी का प्रवेश हो गया है।