25-07-2022 (Important News Clippings)

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25 Jul 2022
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Date:25-07-22

The Need to Take Care of Old India

ET Editorials

Who will bear the cost of healthcare for India’s elderlies, including the most vulnerable? The first study on Publicly Funded Health Insurance (PFHI) — which is to be differentiated from direct provision of healthcare services through public healthcare hospitals — of the elderly, based on 2017-18 data (before the launch of PM-Jan Arogya Yojana (JAY) raises red flags. In the context of ‘catastrophic health expenditure’ — health spending is considered catastrophic when it accounts for 25% or more of the total yearly consumption spend of a household — it reveals that PFHI was not effective in protecting the elderly financially. With limited income, out-of-pocket expenses can exacerbate financial insecurity, leading to non-adherence to medication and deterioration of healthcare access. The study blames poor regulation of private healthcare for the sorry state of affairs.

Financing and managing healthcare better, proper regulation of private healthcare services, and fixing the creaky public healthcare system should be the goals. In a traditional insurance scheme, where hospitals are paid for treating people, the incentives for care-providers and insurance companies are misaligned. Care-providers seek to exploit their take, pushing up expenditure on investigations and needless procedures while insurance seeks to lower its payout.

A better way to structure incentives would be to pay a careprovider a per capita fee to provide care to a defined population. Actuarial expertise can be used to estimate the cost it takes to keep a person healthy and treat her if she falls ill. This will minimise costs. Promoting homecare for the elderly, as is prevalent in Japan, is also a good idea and calls for augmenting healthcare manpower.


Date:25-07-22

निराश करने वाला आकलन

संपादकीय

राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का यह आकलन निराश करने वाला है कि सीवेज शोधन संयंत्रों के पूरी तरह काम न करने के कारण सीवरों का करीब पचास प्रतिशत दूषित पानी गंगा नदी में जा रहा है। इस संस्था ने यह भी पाया कि औद्योगिक कचरा भी गंगा में पहुंच रहा है। यह समझना कठिन है कि गंगा को साफ-स्वच्छ करने के अभियान को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के बावजूद अभी तक संबंधित राज्यों में पर्याप्त संख्या में सीवेज शोधन संयंत्र स्थापित क्यों नहीं किए जा सके हैं? निश्चित रूप से इस प्रश्न का उत्तर भी मिलना चाहिए कि जो सीवेज शोधन संयंत्र लगे हुए हैं, वे पूरी क्षमता से काम क्यों नहीं कर रहे हैं? इस प्रश्न का उत्तर राज्य सरकारों और विशेष रूप से उनके स्थानीय निकायों को देना ही चाहिए, क्योंकि यह प्रश्न एक लंबे अर्से से अनुत्तरित है। स्थानीय निकायों को इसके लिए बाध्य किया जाना चाहिए कि वे अपने इस प्राथमिक दायित्व का निर्वहन सही तरह से करें। इतने वर्षों बाद भी गंगा को साफ करने का उद्देश्य पूरा होता हुआ न दिखना इसलिए एक बड़ी चिंता का कारण है, क्योंकि यदि देश की इस सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र समझी जाने वाली नदी को स्वच्छ नहीं किया जा सका तो फिर अन्य नदियों के साफ-सुथरा होने की आशा कैसे की जा सकती है?

यह समय की मांग है कि केंद्र सरकार ऐसी कोई व्यवस्था करे जिससे एक निश्चित समय में इस नदी को स्वच्छ करने का संकल्प लिया जाए और उसे पूरा करके दिखाया जाए। ऐसा करके ही देश की अन्य नदियों को साफ करने के लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि देश की अधिकतर नदियां प्रदूषण की चपेट में हैं। इनमें यमुना नदी भी है, जो सर्वाधिक प्रदूषित देश की राजधानी में दिखाई देती है। चूंकि नदियों की साफ-सफाई पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा है इसलिए उनमें से अनेक गंदे नाले में परिवर्तित होती जा रही हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि राज्य सरकारें नदियों को साफ करने को अपने एजेंडे का हिस्सा नहीं बना रही हैं। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि छोटी-बड़ी नदियों को साफ करने के साथ ही इस पर भी ध्यान दिया जाए कि जल के अन्य परंपरागत स्रोतों को प्रदूषित होने से कैसे बचाया जाए। ध्यान रहे कि समस्या केवल यही नहीं है कि छोटी-बड़ी नदियां और नहरें प्रदूषण से ग्रस्त हैं, बल्कि यह भी है कि देश के तमाम हिस्सों में भूगर्भ जल भी प्रदूषित होता जा रहा है। निश्चित रूप से सरकारों के साथ समाज को भी इसके लिए चेतना होगा कि नदियों के साथ-साथ जल के जो भी परंपरागत स्रोत हैं, उन्हें साफ-स्वच्छ रखने की आवश्यकता कहीं अधिक बढ़ गई है।


Date:25-07-22

मोदी के संकल्प की मिसाल हैं मुर्मू

अमित शाह, ( केंद्रीय गृह मंत्री )

द्रौपदी मुर्मू जी का राष्ट्रपति निर्वाचित होना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक ऐतिहासिक अवसर है। अत्यंत गरीब पृष्ठभूमि की जनजातियों में भी सबसे पिछड़े संथाली परिवार से निकलकर संघर्षों एवं कर्मठता के बलबूते उनका सर्वोच्च पद तक पहुंचना देशवासियों के साथ-साथ जनजातीय समाज के लिए भी गौरव का क्षण है। ऐसे समाज को शीर्ष पर प्रतिनिधित्व देने में देश को सात दशकों की लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ी। आज हमारा लोकतंत्र इस प्रश्नचिह्न से मुक्त हो गया है। देश की कुल जनसंख्या में आदिवासी समाज की संख्या नौ प्रतिशत है। स्वतंत्रता आंदोलन में भी आदिवासी समाज का योगदान-बलिदान अविस्मरणीय है, किंतु स्वतंत्र भारत में सरकारों ने लंबे समय तक उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ने एवं उनके सामाजिक-आर्थिक उत्थान और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए।

अटल जी के नेतृत्व में जब पहली बार भाजपानीत राजग की सरकार बनी तो इस समाज की आशाओं-आकांक्षाओं को समझने का गंभीर प्रयास हुआ। अटल जी द्वारा जनजातीय समाज के उत्थान एवं समृद्धि के लिए 1999 में एक अलग मंत्रालय बनाने के साथ ही 89वें संविधान संशोधन के जरिये राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना कर इनके हितों को सुनिश्चित करने की पहल की। अटल जी ने जनजातीय समाज के उत्थान एवं सम्मान की जो शुरुआत की, पिछले आठ वर्षों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने उसे और सशक्त ढंग से आगे बढ़ाया है।

‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ के संकल्प को लेकर आगे बढ़ रही मोदी सरकार ने अपने निर्णयों एवं नीतियों में जनजातीय समुदाय के सभी वर्गों की आशाओं एवं आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए तमाम दूरदर्शी कदम उठाए हैं। मोदी जी के आठ वर्ष के कार्यकाल में जनजाति विकास की लगभग सभी योजनाओं में पहले की तुलना में भारी वृद्धि हुई है। केंद्र सरकार द्वारा संचालित जनजातीय उप-योजना बजट को वित्त वर्ष 2021-22 में 21 हजार करोड़ रुपये से चार गुना बढ़ाकर 86 हजार करोड़ रुपये किया गया है। इसके अंतर्गत जनजातीय वर्गों के लिए जल जीवन मिशन के जरिये 1.28 करोड़ घरों में नल से जल पहुंचाने, 1.45 करोड़ शौचालय बनवाने, 82 लाख आयुष्मान कार्ड बनवाने एवं प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 38 लाख घर बनवाने जैसे अनेक कार्य किए गए हैं। एकलव्य माडल विद्यालयों का बजट 278 करोड़ से बढ़ाकर 1,418 करोड़ और जनजातीय छात्रों के लिए निर्धारित छात्रवृत्तियों का बजट 978 करोड़ से बढ़ाकर 2,546 करोड़ रुपये किया गया है। इसके अतिरिक्त उद्यमिता विकास के उद्देश्य से नई योजना में 327 करोड़ रुपये के बजट से 3,110 वन-धन विकास केंद्रों एवं 53 हजार वन-धन स्वयं सहायता समूहों की स्थापना की गई है।

जनजातियों का वास मुख्य रूप से खनन प्रभावित क्षेत्रों में है, किंतु उन्हें कभी खनन से होने वाली आय में हिस्सेदारी नहीं मिलती थी। मोदी जी ने डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड की स्थापना से इस विसंगति को दूर करते हुए सुनिश्चित किया कि खनन से हुई आय का 30 प्रतिशत स्थानीय विकास में खर्च हो। इसके जरिये अभी तक 57 हजार करोड़ से अधिक की राशि एकत्रित हुई है, जिसका उपयोग जनजातीय क्षेत्रों के विकास में हो रहा है। इसके अतिरिक्त जनजातीय उत्पादों के विपणन के लिए बने ट्राईफेड संचालित ट्राइब्स इंडिया आउटलेट्स की संख्या 29 से बढ़कर 116 की गई है।

जनजातीय समाज के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के साथ उनकी सांस्कृतिक विरासत को सम्मानपूर्वक देश के समक्ष लाने का कार्य भी मोदी सरकार कर रही है। जनजातीय कला, साहित्य, परंपरागत ज्ञान एवं कौशल जैसे जनजातीय विषयों को अध्ययन-अध्यापन में सम्मिलित किया गया है। आजादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में जनजातीय नायकों-नायिकाओं की वीरगाथाओं को सामने लाने के उद्देश्य से देश भर में कई कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है। भगवान बिरसा मुंडा की जन्मतिथि 15 नवंबर को अब जनजाति गौरव दिवस के रूप में मनाया जाता है। देश भर में 200 करोड़ के बजट से जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालयों की स्थापना की जा रही है। मोदी जी अक्सर अपने भाषणों में भी जनजातीय नायकों-नायिकाओं के योगदान की चर्चा करते हुए उनके प्रति आदर व्यक्त करते रहते हैं। यह सब बातें दर्शाती हैं कि मोदी सरकार जनजातीय समाज के विकास और सम्मान के लिए मन, वचन और कर्म के साथ हर प्रकार से जुटी हुई है।

भारत में कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक विशेषकर झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, राजस्थान और गुजरात में जनजाति वर्ग की बड़ी आबादी वास करती है। आजादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस ने उन्हें सिर्फ वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया। बड़ी जनजातीय आबादी वाले पूर्वोत्तर क्षेत्र की भी कांग्रेस ने निरंतर उपेक्षा की, लेकिन मोदी जी ने शासन में आते ही एक्ट ईस्ट नीति के तहत पूर्वोत्तर के विकास पर बल दिया। पिछले आठ वर्षों में पूर्वोत्तर राज्यों को मुख्यधारा से जोड़ते हुए उन्हें राष्ट्रीय प्रगति का साझेदार बनाया गया है। इस विकास से शांति भी स्थापित हुई है। गरीबी के साथ-साथ असुरक्षा जनजातीय समाज के लिए सबसे बड़ी चुनौती रही है, जिसका लाभ वामपंथी उग्रवादी तत्वों ने अपनी जड़ें जमाने में किया। इन तत्वों ने न सिर्फ हमारे आदिवासी युवाओं को पथभ्रष्ट किया, बल्कि इन क्षेत्रों के विकास की राह में बाधा भी डाली। मोदी सरकार में यह स्थिति बदली है। उग्रवाद और नक्सलवाद पर जीरो टालरेंस की नीति से इनके दायरे सीमित हुए हैं। नक्सलवाद का प्रभाव अब न के बराबर ही रह गया है। इससे प्रभावित रहे क्षेत्रों में सुरक्षा की भावना बढ़ी है। इससे स्थानीय लोग विकास की मुख्यधारा में सहजता से शामिल हो रहे हैं।

जनजातीय समाज का उत्थान, गरिमापूर्ण जीवन, सामाजिक एवं आर्थिक विकास और उनकी राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करना भाजपा की विचारधारा का अभिन्न अंग रहा है। भाजपा हमेशा जनजातीय समाज की प्रगति के लिए कृतसंकल्पित रही है और आज मोदी जी के नेतृत्व में जब राष्ट्रपति चुनने का अवसर आया तो देश को द्रौपदी मुर्मू जी के रूप में पहला जनजातीय राष्ट्रपति भी मिला है। सबसे निचले पायदान पर मौजूद समाज से आने वाली द्रौपदी मुर्मू जी आज जब देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंची हैं तो यह पूरे देश के लिए अत्यंत गौरव की बात है। यह निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी के जनजाति सशक्तीकरण के संकल्प की एक नायाब मिसाल है।


Date:25-07-22

कर्ज का बढ़ता मर्ज

सरोज कुमार

कर्ज की सामाजिक प्रतिष्ठा भले न हो, इसकी आर्थिक प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं है। अर्थव्यवस्था तो कर्ज बिना दो कदम नहीं चल पाती। लेकिन असंतुलित कर्ज अर्थव्यवस्था के लिए मर्ज के समान है। समय पर इलाज न हुआ तो यह मर्ज तकलीफदेह हो जाता है। इस वक्त भारतीय अर्थव्यवस्था कुछ इसी तकलीफ से गुजर रही है। कर्ज का संतुलन बिगड़ रहा है। समाधान कोई सूझ नहीं रहा। यह चिंताजनक स्थिति है।

किसी देश की आर्थिक सेहत का अंदाजा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और उसके अनुपात में कर्ज के आकार से लगता है। जीडीपी जितनी बड़ी हो और कर्ज उसके अनुपात में जितना छोटा, अर्थव्यवस्था उतनी ही मजबूत मानी जाती है। जीडीपी के मुकाबले कर्ज का न्यूनतम अनुपात अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रबंधन का प्रमाण है। कर्ज का अनुपात जीडीपी के मुकाबले बढ़ रहा हो तो समझिए अर्थव्यवस्था कुप्रबंधन की शिकार है। भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ कुछ ऐसा ही जान पड़ता है।

पंद्रहवें वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह के नेतृत्व वाली विशेषज्ञ समिति ने 2017 में सार्वजनिक कर्ज (केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की) की सीमा वित्त वर्ष 2022-23 तक के लिए जीडीपी का साठ फीसद तक रखने की सिफारिश की थी। फिजिकल रिस्पांसिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट (एफआरबीएम) कमेटी की सिफारिश पर केंद्र ने अपनी कर्ज सीमा जीडीपी का चालीस फीसद और राज्यों ने जीएसडीपी का बीस फीसद रखने को मंजूरी दे दी थी। लेकिन सार्वजनिक कर्ज इस सीमा के अंदर कभी नहीं आ पाया। जीडीपी के मुकाबले कर्ज का अनुपात इस सीमा से लगातार बढ़ रहा है। वित्त वर्ष 2017-18 में सार्वजनिक कर्ज जीडीपी का 69.8 फीसद था। वित्त वर्ष 2018-19 में बढ़ कर यह 70.78 फीसद हो गया। अगले वित्त वर्ष 2019-20 में 75.7 फीसद और 2020-21 में सार्वजनिक कर्ज जीडीपी का 89.4 फीसद हो गया। वित्त वर्ष 2021-22 में थोड़ी नरमी जरूर आई और सार्वजनिक कर्ज जीडीपी का 85.2 फीसद रहा। लेकिन जिस तरह केंद्र और राज्य सरकारों का राजस्व घाटा बढ़ रहा है, व्यापार घाटा बढ़ रहा है, देश का विदेशी पूंजी भंडार घट रहा है, विकास दर के अनुमान घटाए जा रहे हैं, उसमें सार्वजनिक कर्ज मौजूदा वित्त वर्ष में जीडीपी के नब्बे फीसद से ऊपर भी चला जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।

जीडीपी के मुकाबले कर्ज का अनुपात बढ़ने का सीधा अर्थ राजस्व घाटा बढ़ने से जुड़ता है। यानी खर्च के अनुपात में राजस्व संग्रह नहीं हो पा रहा। सरकारों का बजट आम तौर पर घाटे का ही होता है। घाटे की भरपाई वे कर्ज लेकर करती हैं। बुरी स्थिति तब होती है जब राजस्व संग्रह का बजटीय लक्ष्य हासिल नहीं हो पाता। ऐसे में विकास परियोजनाएं और कल्याणकारी योजनाएं या तो रोकनी पड़ती हैं या फिर उन्हें पूरा करने के लिए कर्ज लेना पड़ता है। कर्ज की दो श्रेणियां हैं- आंतरिक और बाहरी। आंतरिक कर्ज देश के भीतर सरकारी प्रतिभूतियों, रिजर्व बैंक, व्यावसायिक बैंकों और गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों से जुटाया जाता है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) सरकार के लिए कर्ज प्रबंधक का काम करता है। सरकारी कर्ज का ज्यादा हिस्सा आंतरिक ही होता है। लेकिन कई परियोजनाओं के लिए विदेशों से भी कर्ज लेने पड़ते हैं। अवधि के आधार पर कर्ज की तीन श्रेणियां हैं- अल्पकालिक, मध्यकालिक और दीर्घकालिक। अल्पकालिक कर्ज साल भर तक के लिए, मध्यकालिक दस साल तक और दीर्घकालिक कर्ज पच्चीस से पचास वर्ष तक के लिए होता है। अवधि के हिसाब से कर्ज पर ब्याज दर बढ़ती जाती है। 31 मार्च, 2022 तक भारत पर कुल कर्ज बढ़ कर एक सौ उनतालीस लाख करोड़ रुपए हो गया, जो साल भर पहले 31 मार्च, 2021 को एक सौ इक्कीस लाख तेईस हजार करोड़ रुपए था। मार्च 2023 तक देश का कुल सार्वजनिक कर्ज बढ़ कर एक सौ पचपन लाख करोड़ रुपए के पार निकल जाने की आशंका है। इस हिसाब से देश के हरेक नागरिक के सिर एक लाख रुपए से अधिक का कर्ज बैठता है। जबकि उसकी सालाना औसत आय घट कर 91,481 रह गई है।

सार्वजनिक कर्ज में विदेशी कर्ज चिंता का कारण होता है। क्योंकि पुनर्भुगतान में किसी भी तरह की लेटलतीफी से देश की साख पर धब्बा लगता है। विदेशी कर्ज 31 मार्च, 2022 तक साल भर पहले की तुलना में 8.2 फीसद बढ़ कर 620.7 अरब डालर हो गया। वित्त वर्ष 2017-18 में देश पर विदेशी कर्ज 529.7 अरब डालर था, जो 2018-19 में बढ़ कर 543 अरब डालर हो गया। वित्त वर्ष 2019-20 में 558.5 अरब डालर था, जो 2020-21 में बढ़ कर 570 अरब डालर हो गया। चिंता की बात यह है कि जहां एक तरफ विदेशी कर्ज बढ़ता जा रहा है, वहीं देश का विदेशी मुद्रा भंडार घट रहा है। आठ जुलाई, 2022 को समाप्त सप्ताह में विदेशी पूंजी भंडार घट कर पंद्रह महीने के न्यूनतम स्तर 580.252 अरब डालर पर आ गया। जबकि साल भर के भीतर ही 267.7 अरब डालर विदेशी कर्ज का पुनर्भुगतान करना है।

जीडीपी के अनुपात में सार्वजनिक कर्ज बढ़ने से राजस्व का बड़ा हिस्सा ब्याज चुकाने में निकल जाता है। इससे सार्वजनिक परियोजनाएं प्रभावित होती हैं, विकास दर पर असर पड़ता है, बेरोजगारी, महंगाई बढ़ जाती है और आम आदमी का जीवनस्तर नीचे आता है। वित्त वर्ष 2021-22 में केंद्र सरकार के राजस्व का तैंतालीस फीसद हिस्सा यानी लगभग आठ लाख करोड़ रुपए सिर्फ कर्ज का ब्याज चुकाने में खर्च हो गए। मौजूदा वित्त वर्ष में ब्याज राशि में लगभग पंद्रह फीसद वृद्धि का अनुमान है और इस तरह ब्याज पर खर्च होने वाली राशि लगभग नौ लाख करोड़ रुपए हो सकती है। यही नहीं, वित्त वर्ष 2023-24 में राजस्व का पचास फीसद हिस्सा ब्याज की भेंट चढ़ने का अनुमान है।

सवाल उठता है कि आखिर कर्ज अर्थव्यवस्था पर इस तरह बोझ क्यों बन जाता है? कर्ज के अनुपात में जीडीपी क्यों नहीं बढ़ती? दरअसल, बाजार आधारित अर्थव्यवस्था मांग और आपूर्ति के आधार पर चलती है। बाजार में मांग बढ़ रही है, उसी अनुपात में आपूर्ति भी बढ़ रही है तो समझिए राजस्व या लिए गए कर्ज का वितरण प्रबंधन सही रास्ते पर है। फिर विकास दर बढ़ेगी, रोजगार पैदा होगा और अंत में अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ेगा। लेकिन मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन बिगड़ने के साथ ही कर्ज बोझ बन जाता है। यानी कर्ज संजीवनी तो है, लेकिन गलत समय पर गलत जगह गलत खुराक देने से यह अर्थव्यवस्था के लिए विष का काम कर जाता है।

आज भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ कुछ ऐसा ही हुआ जान पड़ता है। उपलब्ध संसाधनों का वहां इस्तेमाल नहीं हो पाया, जहां जरूरत थी। जब मांग बढ़ाने की जरूरत थी, तब आपूर्ति बढ़ाने पर जोर दिया गया। अब इसके कारण जो भी रहे हों। महामारी भी एक कारण रही है। लेकिन असंतुलन की यह बीमारी अर्थव्यवस्था में महामारी से पहले की है। असंतुलित अनुचित व्यय के कारण उपलब्ध संसाधन निष्फल होते गए। कर्ज बोझ बनता गया। आज यह बोझ इतना भारी हो चला है कि उसके तले दबी अर्थव्यवस्था की सांसें अटक रही हैं। मांग और आपूर्ति के संतुलन का कौशल कर्ज प्रबंधन की अनिवार्य शर्त है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में असंतुलन की बीमारी इस कदर बिगड़ गई है कि मांग न होने के बाद भी महंगाई चरम पर है। आर्थिक प्रबंधक समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर किया क्या जाए। महंगाई पर नियंत्रण के कदम उठाए जाते हैं तो राजस्व घाटा बढ़ता है, महंगाई बढ़ती है तो रुपया टूटता है, रुपए को संभालने की कोशिश होती है तो विदेशी पूंजी भंडार घटता है। अर्थव्यवस्था के इस उतार-चढ़ाव का अंत आम जनता की आह से होता है।


Date:25-07-22

जवाबदेह मीडिया जरूरी

संपादकीय

मीडिया द्वारा चलाई जा रही कंगारू अदालतें और एजेंड़ा आधारित बहसें लोकतंत्र के लिए हानिकारक हैं। रांची में न्यायमूर्ति सत्यव्रत सिन्हा की याद में स्थापित व्याखानमाला के उद्घाटन सत्र में भारत के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण ने यह बात कही। जस्टिस रमण ने कहा कि मीडिया ट्रायल से न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्ष कामकाज प्रभावित होता है। अलबत्ता‚ उन्होंने प्रिंट मीडिया के लिए इतना जरूर कहा कि वहां कुछ हद तक जवाबदेही बची है‚ लेकिन उन्हें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को लेकर उनमें तल्खी दिखी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को लेकर दोटूक कहा कि वहां कोई जवाबदेही नहीं है। वह जो दिखाता है‚ वह हवा में गायब हो जाता है। कहा कि मीडि़या ट्रायल होने से न्याय प्रदान करने से जुड़े मुद्दों पर गलत सूचना का प्रसार और एजेंड़ा आधारित बहस लोकतंत्र के लिए हानिकारक है। एजेंड़ा सेट किए रहने से मीडिया के पक्षपातपूर्ण विचार लोगों को प्रभावित कर रहे हैं‚ लोकतंत्र इससे कमजोर हो रहा है। सोशल मीडि़या पर न्यायाधीशों के खिलाफ अभियान चलाए जाने का भी जस्टिस रमण ने जिक्र किया। कंगारू कोर्ट ऐसे लोगों का समूह होता है‚ जो स्वयं को श्रेष्ठ मानता है और जिसका कानून में विश्वास नहीं होता और यह समूह गैर–कानूनी तरीके (कंगारू कोर्ट) बनाकर अपने स्तर पर किसी को सजा तक सुना देने से गुरेज नहीं करता। ऐसी सजा सबूतों से ज्यादा भावनाओं पर आधारित होती है‚ इसलिए कंगारू कोर्ट गैर–कानूनी है‚ और अपराध की श्रेणी में आती है। यह पहली दफा नहीं  है‚ जब मीडिया के तौर–तरीकों पर तल्ख टिप्पणी आई है। पहले भी इस प्रकार की टिप्पणियां मीडिया पर की जा चुकी हैं‚ जिनमें मीडिया को आत्मनिरीक्षण करने और स्व–नियमन जैसी सलाहें दी जा चुकी हैं। लेकिन मीडिया है कि अपने तौर–तरीके बदलने को तैयार नहीं दिखता। कहा तो यह जाता है कि वह कमजोरों की आवाज बनकर उनके लिएन्याय सुनिश्चित कर सकता है। वॉचड़ॉग बनकर किसी भी निर्वाचित सरकार को निरंकुश नहीं होने देता। लेकिन देखने में आ रहा है कि स्वयं मीडि़या ही निरंकुशता की हद तक जा पहुंचा है। उसने अपना एजेंड़ा सेट कर लिया है‚ और उसी के मुताबिक काम कर रहा है। उसे इस बात का भान तक नहीं है कि इससे उसकी विश्वसनीयता खतरे में पड़ जाएगी। आज मीडिया दंभ से घिरा नजर आ रहा है‚ जरूरी हो गया है कि इसके लिए सख्त नियम–कायदे तैयार करके उन्हें सख्ती से लागू किया जाए।


Date:25-07-22

ईयू से बढ़ेगा व्यापार

संपादकीय

दलती भू–राजनीतिक परिस्थितियों और दुनिया भर में अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ते युद्ध के प्रभावों के बीच सब कुछ बुरा हो रहा है‚ यह मान लेना भी ठीक नहीं है। अर्थव्यवस्थाएं दबावों से निकलने का रास्ता ढूढ़ रही हैं‚ और इसमें सफल भी हो रही हैं। हमारे देश के बारे में तो यह बात बिल्कुल ठीक लगती है। हमें रूस के रूप में सस्ते तेल का बाजार मिल गया है‚ जिससे भारत की अरब देशों पर निर्भरता कम हुई है। भारत और यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत फिर से शुरू हो गई है। समझौते का पहला दौर हाल ही में समाप्त हो गया था। ब्रिटेन के साथ भी ऐसे ही एक समझौते पर काम चल रहा है। ऑस्ट्रेलिया के साथ भी एक व्यापार समझौता हुआ है। ये सब बड़े सकारात्मक संकेत हैं। यूरोपीय संघ के लिए भी यह एक बड़ी बात है। दोनों पक्ष चाहते हैं कि इन वार्ताओं का जल्दी से सबके लिए लाभप्रद समापन हो। पिछले कुछ वर्षों में इंडो–पैसिफिक क्षेत्र में व्यापार समझौतों के मुद्दों पर अनेक बदलाव आए हैं। इसका कारण विश्व व्यापार संगठन के कमजोर होने को माना जा सकता है। तमाम देश क्षेत्रीय व्यापार समझौतों को अहमियत दे रहे हैं। चीन‚ जापान‚ दक्षिण कोरिया‚ ऑस्ट्रेलिया‚ न्यूजीलैंड़ और आसियान के दसों देश मिलकर रीजनल कंप्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) मुक्त व्यापार समझौता कर चुके हैं। पहले भारत भी इस समझौते का हिस्सा था लेकिन कुछ कारणों के चलते उसने इस समझौते से अपने हाथ खींच लिए। इससे वह अब ठगा–सा महसूस कर रहा है। यह समझौता अब दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र बनने की ओर अग्रसर है। अमेरिका और पश्चिम का कोई भी देश इस समझौते में घुस ही नहीं पाया। आज भारत और यूरोपीय संघ‚ दोनों ही इंडो–पैसिफिक क्षेत्र के क्षेत्रीय व्यापार ढांचे और मुक्त व्यापार के इकोसिस्टम के हाशिये पर खड़े हैं। दोनों के लिए चिंता की बात यह भी है कि एशिया–पैसिफिक इकोनोमिक कोऑपरेशन यानी एपीईसी में दोनों शामिल नहीं हैं‚ जबकि रूस है। कंप्रीहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी) से भी ये दोनों ही नदारद हैं। इसी कारण यूरोपीय संघ चाहता है कि जैसे भी हो दक्षिण एशिया के देशों के साथ व्यापार समझौते कर सके। भारत के लिए यह सुनहरा मौका है।


Date:25-07-22

भूख से लड़ाई

संपादकीय

दुनिया में अकाल और खाद्यान्न संकट को लेकर चिंतित लोगों के लिए यह किसी खुशखबरी से कम नहीं कि यूक्रेन से अनाज आपूर्ति की सूरत बन गई है। पिछले तीन महीने से विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र इसके लिए प्रयासरत था। रूस को राजी करने में तुर्की का भी बड़ा योगदान बताया जा रहा है। दरअसल, तुर्की भी इन दिनों अनाज के बड़े संकट से गुजर रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद उभरा संकट पूरी दुनिया को बड़ी मुसीबत में डालने जा रहा था। रूस और यूक्रेन ने शुक्रवार को बंदरगाहों पर फंसे यूक्रेन के दो करोड़ टन से अधिक अनाज को मुक्त करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इससे न केवल जरूरतमंद देशों तक अनाज पहुंच सकेगा, बल्कि दुनिया भर में खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों में कमी भी आएगी। इस सौदे की खबर के तत्काल बाद वैश्विक अनाज बाजारों से प्रतिक्रिया आई है। शुक्रवार को ही गेहूं का वायदा भाव पांच फीसदी से ज्यादा कम हो गया। अनाज का भाव गिरने से दुनिया में महंगाई पर एक हद तक लगाम लगेगी।

गौर करने की बात है कि यूक्रेन दुनिया के लिए रोटी की एक टोकरी है। वह गेहूं, जौ, मक्का और सूरजमुखी का एक प्रमुख निर्यातक है। युद्ध शुरू होने के बाद निर्यात लगभग ठप था। अनाज का एक और बड़ा निर्यातक रूस भी है, उसे भी अनाज के निर्यात में मुश्किलें आने लगीं। खास बात यह है कि रूस और यूक्रेन मिलकर दुनिया को 29 प्रतिशत अनाज की आपूर्ति करते हैं। एकबारगी वैश्विक अनाज बाजार में 29 प्रतिशत की कमी बहुत मायने रखती है। नतीजा यह हुआ था कि विश्व बाजार में खाद्य पदार्थों की कीमतें तेजी से बढ़ीं, मिसाल के लिए, मई में गेहूं की कीमत फरवरी की तुलना में लगभग 50 प्रतिशत अधिक हो गई। किसी तरह से कीमतें इधर कुछ संभली हैं, लेकिन अनाज भंडार का अभाव होने लगा है। अत: आपूर्ति सामान्य करने के लिए खासकर रूस को राजी करना जरूरी था। पश्चिमी देश यह आरोप लगा रहे थे कि रूस अनाज-आपूर्ति रोककर दुनिया का भयादोहन कर रहा है। रूस को भी यह अवश्य ध्यान होगा कि अनाज का यदि ज्यादा अभाव हुआ, तो इससे उसकी लोकप्रियता में तेजी से कमी आएगी। आम लोगों का गुस्सा रूस पर फूटेगा, अत: रूस ने राजी होकर एक चतुराई का ही परिचय दिया है। दुनिया के तमाम देशों को यह ध्यान रखना चाहिए कि भूख दूर करना सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। अगर कहीं कोई भूख से मर रहा है, तो विकसित देशों के लिए भी यह शर्म की बात है।

ध्यान रहे, संयुक्त राष्ट्र ने संभावित अकाल और राजनीतिक अशांति की चेतावनी दी थी। इंटरनेशनल रेस्क्यू कमेटी के पूर्वी अफ्रीका के आपातकालीन निदेशक शाश्वत सराफ ने कहा है कि इन अवरोधों के हटने से पूर्वी अफ्रीका में 1.80 करोड़ से अधिक लोगों को भूख से लड़ने में तत्काल मदद मिलेगी। इस क्षेत्र में 30 लाख लोग पहले से ही भयावह भूख की स्थिति का सामना कर रहे थे। आईपीसी के अनुसार, दुनिया के 34 से ज्यादा देशों में लाखों लोग अकाल के कगार पर हैं। साल 2022 पहले ही अकाल वर्ष जैसा घोषित है और अगला साल भी बिगड़ने की आशंका है। यह समूचे सभ्य मानव समाज के लिए चिंता की बात है कि 21वीं सदी में भी लोग दो-वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं। विज्ञान से जो सहूलियत हमें हासिल हुईं, उन्हें युद्ध छीन रहा है। जो देश युद्ध को परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से भड़काने में लगे हैं, उन्हें फिर सोचना चाहिए कि आज दुनिया के लिए ज्यादा जरूरी क्या है।


 

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