25-04-2024 (Important News Clippings)

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25 Apr 2024
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Date:25-04-24

Just Bad Ideas

Inheritance & wealth taxes are wrong responses to the social fallout of economic transformation

TOI Editorials

Inheritance tax was the hot button topic yesterday in India’s dynamic election campaign landscape. Sam Pitroda, chairman of Indian Overseas Congress, suggested it though the idea doesn’t feature in the Congress manifesto. But it attracted attention because a tax to address the political fallout of inequality has gained global currency. A prominent advocate is Joe Biden, who proposed a wealth tax that received strong pushback.

None of these ideas are new. They haven’t caught on because they are impractical. For example, US doesn’t have a federal inheritance tax. Only six states, and not the ones that house tech giants, have some sort of inheritance tax. If they haven’t spread, it’s because they can lead to a flight of capital.

Uneven flow of benefits | The world’s in the middle of a new industrial revolution (IR), led by communications technology. It’s following the pattern of the previous IRs. The benefits of technological transformation flow unevenly. Typically, labour is at the tail end of the transformation as upgrading human skills to meet new requirements takes time. Govts are trying to manage the immediate fallout of this transformation by sometimes coming up with bad ideas.

Wealth, a mirage? | Financial markets reward creators and innovators in this transformation through hyperinflation of share prices. This notional wealth is the source of attention, particularly through ideas such as Biden’s wealth tax, which proposed taxing unrealised capital gains. That is, the notional appreciation would be taxed. Elon Musk’s fluctuating fortune shows how unworkable this idea is. Two years ago, his notional gains were huge. Now, his net worth is eroding in the wake of a sharp fall in share value.

Inequality is real | The uneven pace of the flow of benefits, however, does have real world consequences. In India, this comes through a weakening link between four decades of robust GDP growth and the structure of employment. Job creation at the mass level hasn’t kept pace with economic growth, catalysing damage control by political parties. Expanding the welfare state has been the go-to approach for all of India’s political parties.

People matter | Subsidies however are a short-term fix. And redistribution through measures such as inheritance and wealth tax is wholly counterproductive. The only ways out are a recalibration of policies that inhibit labour-intensive manufacturing, and a massive investment in upgrading human capital. Skilling is the only long-term solution.


Date:25-04-24

बढ़ती आर्थिक खाई का मुद्दा चुनावों से नदारद है

संपादकीय

प्रजातंत्र के मूल सिद्धांतों में से एक है- ऐसी अर्थनीति, जिससे आर्थिक विकास का लाभ सबको समान रूप से मिले। अगर एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 40.1% संपत्ति और 22.6% आय हो और यह खाई लगातार बढ़ रही हो तो क्या सरकार पर उसकी आर्थिक नीतियों को बदलने का जन- दबाव नहीं होना चाहिए? आर्थिक असमानता खत्म करना जनमत हासिल करने की पूर्व शर्त होनी चाहिए और अपरिहार्य भी । सरकार की नीति ऐसी होनी चाहिए कि शिक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास के लिए टेक्नोलॉजी जल्द से जल्द नीचे के वर्ग तक पहुंचे ताकि पूंजी की भूमिका न्यूनतम रहे। पूंजीगत निवेश के नाम पर सरकार का जोर अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर के एयरपोर्ट, हाईवे या ऐसे उद्योगों को बढ़ाने पर हो, जिनमें पूंजी का प्रभुत्व तो हो लेकिन उनके अनुपात में नौकरियां कम सृजित हों तो इसे ‘जॉबलेस ग्रोथ’ कहते हैं। यही कारण है भारत की जीडीपी तो बढ़ रही है, लेकिन मानव विकास सूचकांक में 34 साल से देश वहीं का वहीं है और पहली बार विनिर्माण से ज्यादा मजदूर, निर्माण कार्यों में या ढाबों जैसे असंगठित क्षेत्रों में बेहद कम दिहाड़ी पर काम कर रहे हैं। इसमें दो राय नहीं है कि अपने दम पर 8-9 करोड़ रोजगार देने वाला एमएसएमई सेक्टर बुरी हालत में है। विपक्ष पर संपत्ति हड़पने का आरोप लगाकर कहीं एक गंभीर मुद्दे को जन-विमर्श से हटाया तो नहीं जा रहा ?


Date:25-04-24

चुनावी राजनीति का हिस्सा बनी विदेश नीति

हर्ष वी. पंत, ( लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं )

भारतीय राजनीति पारंपरिक रूप से घरेलू मुद्दों पर केंद्रित रही है और विदेशी मामलों के स्तर पर बात अमूमन चीन एवं पाकिस्तान तक सीमित रहती आई है। हालांकि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह रवैया बदला है। मोदी ने विदेश नीति जैसे विषय को राजनीति की मुख्यधारा में शामिल किया है। अब उनकी इस नीति की छाप भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र पर भी दिखाई दे रही है, जिसे सत्तारूढ़ दल ने ‘संकल्प पत्र’ का नाम दिया है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता से लेकर देश को विकसित राष्ट्र बनाने और शीघ्र ही भारत को विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिकी बनाने के संकल्प की पूर्ति में विदेश नीति की प्रभावी भूमिका रहने वाली है। इसकी महत्ता को समझते हुए भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में विदेश एवं सामरिक नीति को महत्व देते हुए वैश्विक पटल पर भारत के विस्तार को साकार रूप देने संबंधी कई पहलुओं को शामिल किया है। मोदी की नीति में ‘विश्वबंधु भारत’ और वसुधैव कुटुंबकम् जैसी संकल्पनाएं भारत को विश्वपटल पर एक जिम्मेदार शक्ति के रूप में स्थापित करने पर बल देती हैं। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत अपनी आर्थिक, सामरिक एवं सांस्कृतिक शक्ति के दम पर वैश्विक विस्तार के प्रयास में लगा है।

मोदी के नेतृत्व में भाजपा का दृष्टिकोण यही दर्शाता है कि भारत को वैश्विक समस्याओं का प्रभावी समाधान प्रस्तुत करने वाले देश के रूप में देखा जाए। इस समय पूरी दुनिया अस्थिरता एवं कोलाहल के दौर से गुजर रही है। वैश्विक ढांचा छिन्न-भिन्न है और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की आभा कमजोर हो रही है। ऐसे अस्थिर हालात में भारत की स्थिति अपेक्षाकृत स्थिर रही है। इसके पीछे मोदी की सक्रिय विदेश नीति और विभिन्न राष्ट्राध्यक्षों के साथ उनके सहज एवं आत्मीय संबंधों की अहम भूमिका रही है।

अपने इसी प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए भारत कोविड संकट से लेकर रूस-यूक्रेन युद्ध और इन दिनों पश्चिम एशिया में चल रहे हिंसक टकराव से स्वयं को अलग रखने एवं अपने हितों की पूर्ति में सफल रहा है। ऐसी स्थिति में विपरीत ध्रुवों वाले देश भी भारत की ओर उम्मीद लगाकर देख रहे हैं। इस परिदृश्य में भारत ने एक जिम्मेदार देश की भूमिका निभाते हुए अपने स्तर पर समाधान का प्रयास किया है। इससे भारत की अंतरराष्ट्रीय साख एवं कद बढ़ा है।

कोविड महामारी के समय से विश्व अंतरराष्ट्रीय संगठनों की अक्षमता की समस्या से जूझ रहा है। हाल के विभिन्न हिंसक टकरावों के दौरान भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की निष्प्रभावी भूमिका देखी गई है। यही कारण है कि मोदी ने विभिन्न मंचों से बार-बार संयुक्त राष्ट्र सुधारों की बात दोहराई है। भाजपा के संकल्प पत्र में भी इसे दोहराया गया है कि सुरक्षा परिषद में सदस्यता प्राप्त कर भारत वैश्विक मामलों में व्यापक भूमिका निभाएगा।

भारी उथल-पुथल के दौर से जूझ रही दुनिया में वैश्विक ढांचा बहुत तेजी से बदल रहा है। नेतृत्व के स्तर पर उत्पन्न हो रहे निर्वात को प्रभावी रूप से भरने के लिए मोदी के नेतृत्व में भारत सक्रिय भूमिका निभा रहा है। गत वर्ष नई दिल्ली में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन में अफ्रीकी संघ को समूह का सदस्य बनाने में मिली सफलता से लेकर ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों के मुद्दों को मुखरता से उठाने तक भारत ने सक्षम नेतृत्वकर्ता का परिचय दिया है।

आइएमएफ एवं विश्व बैंक जैसी संस्थाओं में अपेक्षित सुधारों और उसमें विकासशील देशों को उचित प्रतिनिधित्व देने की आवाज उठाने में भारत खासा मुखर रहा है। कोविड महामारी में टीके पहुंचाने से लेकर तुर्किये से लेकर नेपाल और सीरिया तक प्राकृतिक आपदा में भारत ने अपने संबंधों की परवाह किए बिना वहां राहत पहुंचाने में तत्परता दिखाई है। भाजपा के संकल्प पत्र में इसी दृष्टिकोण को दोहराया गया है कि भारत प्राकृतिक या किसी अन्य प्रकार की आपदाओं में मानवीय सहयोग एवं सहायता प्रदान करने में आगे रहेगा। इससे भारत के प्रति वैश्विक धारणा सकारात्मक होगी और वह एक स्वाभाविक नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरेगा।

चूंकि भारत एक संवेदनशील भौगोलिक क्षेत्र में अवस्थित है तो पड़ोसियों के साथ संबंध भी खासे अहम हो जाते हैं। भाजपा ने ‘पड़ोसी प्रथम’ की अपनी नीति में निरंतरता का वादा किया है। भाजपा के संकल्प पत्र में उल्लेख है कि पार्टी के शासन में देश भारतीय उपमहाद्वीप में जिम्मेदार एवं भरोसेमंद साझेदार के रूप में समूचे क्षेत्र को प्रोत्साहन की नीति पर चलेगा। इसके साथ ही परेशानी का सबब बनने वाले सीमा पार आतंकवाद और चीन के साथ संतुलन की दृष्टि से प्रभावी कदम उठाने की बात भी की है।

भाजपा ने चीन सीमा पर उन्नत बुनियादी ढांचा विकसित करते रहने पर जोर दिया है। साथ ही हिंद महासागर में मुक्त आवाजाही एवं सामुद्रिक सुरक्षा का भी आश्वासन दिया है। पार्टी ने पाकिस्तान सीमा पर भी बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाते रहने का संकल्प लिया है। इसके अलावा, आतंक पर अंकुश के लिए भाजपा ने कांप्रिहेंसिव कन्वेंशन अगेंस्ट इंटरनेशनल टेररिज्म पर संयुक्त राष्ट्र में सर्वानुमति बनाने के लिए प्रयासरत रहने का उल्लेख किया है।

दुनिया भर में फैले भारतवंशियों के प्रभाव को देश के हित में उपयोग करना भी भाजपा के एजेंडे में है। भाजपा के संकल्प पत्र में उल्लेख है कि वह भारत की प्रगति में भारतवंशियों को सक्रिय रूप से शामिल कर उनकी आवश्यकता के समय उन्हें अपेक्षित समर्थन भी उपलब्ध कराएगी। मोदी सरकार के दौरान भारतवंशियों को साधने के विशेष प्रयास भी किए गए हैं।

पार्टी का वादा है कि भारत के अंतरराष्ट्रीय प्रभाव को बढ़ाने के लिए राजनयिकों और भारत के मिशनों की संख्या में भारी बढ़ोतरी की जाएगी, क्योंकि जिस प्रकार से देश के हितों का विस्तार हो रहा है, उनकी पूर्ति के लिए मानवीय संसाधनों का अभाव दिखता है। इसी कड़ी में कुछ दिन पहले ही कई देशों में डिफेंस अटैचियों की नियुक्ति भी की गई है। ऐसे में पार्टी का संकल्प पत्र सरकार की नीति में निरंतरता और क्षमता विस्तार की आकांक्षाओं को ही दर्शाता है।


Date:25-04-24

चुनावी राजनीति का हिस्सा बनी विदेश नीति

डॉ रमेश ठाकुर

कांकेर (छत्तीसगढ़) में पिछले दिनों केंद्रीय सुरक्षा बलों ने एक ऑपरेशन के तहत बड़ी संख्या में नक्सली मार गिराए। उनके पास से बड़ी मात्रा में हथियार और गोलाबारूद बरामद हुए। बहरहाल, कांकेर मुठभेड़ को लेकर कांग्रेस और सत्तारूढ़ पार्टी के बीच जम कर वाकयुद्ध जारी है। देश विगत 70 वर्षों से नक्सल आतंक झेलता आया है इसलिए समस्या को राजनीतिक चश्मे से देखने का कतई कोई औचित्य नहीं है?

समस्या को जड़ से मिटाने की राष्ट्रीय नीति के प्रति सभी को एक समान विचार रखने चाहिए। केंद्र सरकार ने बीते दस वर्षों से नक्सल उन्मूलन की नीति पर एक निरंतरता बनाई हुई है जिसके अच्छे परिणाम भी मिल रहे हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो 2004-14 के यूपीए के दस सालों में नक्सली हमलों या मुठभेड़ों में सुरक्षा बलों के 1,750 जवानों की शहादत हुई थी, लेकिन 2014-23 में इसमें करीब 72 फीसद तक कमी आई। इस दौरान सुरक्षा बलों के 485 जवानों की जान गई। इसी अवधि में नागरिकों की मौत की संख्या 68 फीसद घटकर 4,285 से 1,383 हुई। 2009 में यूपीए सरकार ने ऑपरेशन ‘ग्रीन हंट’ शुरू किया था। सीआरपीएफ को इसके लिए खास तरह के टास्क दिए गए। यहां तक कि सेना को भी लगाया गया। लेकिन, ऑपरेशन ‘ग्रीन हंट’ सुरक्षा बलों के लिए ही काल बन गया। अप्रैल- 2010 में नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में एक ही दिन सीआरपीएफ के 76 जवानों की हत्या कर दी। घरेलू मोर्चे पर ऑपरेशन ‘ब्ल्यूस्टार’ के बाद सुरक्षा बलों की सबसे ज्यादा मौतों की यह घटना बन गई। यूपीए में अलग-अलग समय पर तीन गृह मंत्री बने- शिवराज पाटिल, चिदंबरम और सुशील शिंदे। नक्सलवाद पर तीनों की अलग-अलग राय थी। यूपीए सरकार में ही हिंसक नक्सलियों को गुमराह और नेक इरादे वाले लोगों के रूप में वर्णन किया गया। यूपीए सरकार ने ही मलकानगिरि के कलक्टर विनीत कृष्णा के बदले में आठ माओवादियों को रिहा किया। उसी दौरान माओवादी समर्थकों का एक पढ़ा-लिखा वर्ग भी तैयार हुआ जिन्हें आज अर्बन नक्सली कहा जाता है।

फिलहाल, केंद्र सरकार अब दावा करती है कि उसने हिंसक वाम आंदोलन और उग्रवाद के खिलाफ जोरदार अभियान छेड़ा है। 2015 में मोदी सरकार ने आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ ‘राष्ट्रीय नीति और कार्य योजना’ शुरू की थी जिसमें हिंसा के प्रति ‘जीरो टॉलरेंस’ की बात कही गई। किसी भी तरह की हिंसा से निपटने के लिए पुलिस और सुरक्षा बलों का आधुनिकीकरण शुरू कर दिया। प्रशिक्षण के लिए विशेष तौर पर फंड जारी किए। सरकार ने हिंसा प्रभावित राज्यों की सहायता के लिए विशेष बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की योजना पर भी काम शुरू किया। सुरक्षा जरूरतों में आने वाले खर्चों के लिए अलग से धनराशि जारी की। इस पूरे काम की निगरानी के लिए भी मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में अमित शाह के नेतृत्व में गृह मंत्रालय में अलग डिवीजन बना दिया है। इसे वामपंथी उग्रवाद प्रभाग नाम दिया गया। वामपंथी उग्रवादियों का मुकाबला करने और राज्य पुलिस बलों की क्षमता को बढ़ाने के लिए राज्यों में इंडिया रिजर्व बटालियन का भी गठन किया गया है।

लगातार ऑपरेशन से माओवादियों और नक्सलियों के पांव उखड़ गए हैं। 2014-23 के बीच वामपंथी उग्रवाद से संबंधित हिंसा में 52 फीसद से अधिक की कमी आई है। कुल मौतों में भी 69 फीसद की कमी आई है। सुरक्षा बलों के हताहतों की संख्या इस समय काफी कम है। यह बड़ी उपलब्धि है। विगत वर्षों में उग्रवादी गुटों के कई सदस्य आत्मसमर्पण करने को भी मजबूर हुए। केंद्र सरकार ने कई मर्तबा वामपंथी उग्रवादियों को हिंसा छोड़ने और बातचीत करने का प्रस्ताव दिया। उनके लिए केंद्र ने कई विकास परियोजनाएं भी करने की बात कही जिनमें वामपंथी उग्रवादग्रस्त क्षेत्र में 17,600 किमी. सड़कों को मंजूरी दी। ढाई सौ किलेबंद पुलिस स्टेशन स्थापित करने का काम भी शुरू हुआ। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिए सड़क आवश्यकता योजना को केंद्र सरकार ने आठ राज्यों आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और उत्तर प्रदेश के 34 जिलों में लागू किया है। इस योजना में 5,362 किमी. सड़कों का निर्माण हो चुका है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में मोबाइल कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए अगस्त, 2014 में मोबाइल टावरों की स्थापना को भी मंजूरी दी गई। अब तक 4885 मोबाइल टावर लगाए गए हैं। दूसरे चरण में 2,542 मोबाइल टावर और लगाए जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार ने वामपंथी उग्रवाद के पीड़ित परिवारों के लिए मुआवजे को 2017 में 5 लाख से बढ़ाकर 20 लाख कर दिया था, और अब इसमें बढ़ोतरी करके 40 लाख कर दिया गया है, लेकिन नक्सली फिर भी नहीं मान रहे । अब उनके खिलाफ पुलिस टेक्नोलॉजी ‘मिशन’ शुरू हुआ है ताकि उन पर अंतिम प्रहार किया जाए। कांकेर मुठभेड़ उसी का हिस्सा है।


Date:25-04-24

समान आय वितरण

संपादकीय

भारत में असमानता शुरू से ही अकादमिक विषय रही है, पर इस विषय का सियासत में अचानक गूंज उठना बहुत हद तक सुखद भी है और विचारणीय भी। कोई दोराय नहीं कि किसी सरकार की नीतियों की वजह से ही किसी देश में आर्थिक असमानता बढ़ती है और भारत में आजादी के पहले से ही घोर असमानता रही है। मगर इधर आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के बाद आर्थिक असमानता बढ़ी है। अत: ऐसे में आय के पुनर्वितरण की चर्चा शायद गलत नहीं कही जाएगी। इस पर हरेक पार्टी का अपना-अपना नजरिया हो सकता है। फिलहाल, सत्ता पक्ष और विपक्ष का इस मोर्चे पर परस्पर भिन्न विचार अचरज में नहीं डालता है। खासकर, कांग्रेस के घोषणापत्र के बाद यह विषय उसके विरोधियों के लिए एक हथियार बन गया है। वैसे, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस पर सफाई दी है कि देश के जिन चुनिंदा 22 अमीरों या कंपनियों को सरकार की ओर से 16 लाख करोड़ रुपये की राहत मिली, उसमें से थोड़ी सी राशि उनसे वापस लेकर देश के 90 प्रतिशत लोगों या गरीबों में वितरित कर दी जाएगी।

मतलब, कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि आय-पुनर्वितरण का विषय चंद उद्यमियों तक सीमित है, जिनसे धन वापस लेकर गरीबों में बांटा जाना है। काश! यह विषय वाकई गंभीर विमर्श का विषय बन पाता। दरअसल, हमारे देश में तमाम राजनीतिक पार्टियां बड़े उद्यमियों या बड़ी कंपनियों से चंदा लेती हैं, तो स्वाभाविक है, उनसे बहुत कड़ाई की उम्मीद नहीं की जा सकती। कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) का उदाहरण तो हमारे सामने है। सरकार सीएसआर के तहत कंपनियों के मुनाफे का एक छोटा हिस्सा वसूलना चाहती थी, पर कंपनियां इसके लिए तैयार नहीं हुईं। तब कंपनियों को ही कहा गया कि वे मुनाफे का करीब दो प्रतिशत हिस्सा समाज-कल्याण पर स्वयं खर्च करें और सरकार को केवल सूचना दे दें। हमारे देश में भले ही लोक-कल्याण की राजनीति होती है, पर देश मूलत: पूंजीवादी स्वभाव रखता है। ऐसे में, साल 2000 के बाद भारत में असमानता तेजी से बढ़ रही है। एक प्रतिशत सबसे अमीर लोगों के पास देश की 22 प्रतिशत से ज्यादा आय और 40 प्रतिशत से ज्यादा संपत्ति है। एक विकासशील देश में ऐसी असमानता निश्चित रूप से राजनेताओं का प्रिय विषय बने, तो इससे देश को लाभ होगा। आगामी सरकारों को देर-सबेर यह मुद्दा वाकई गंभीरता से उठाना पड़ेगा, इस पर कोरी राजनीति देश के किसी काम नहीं आएगी।

ठीक इसी तरह विरासत कर का मुद्दा भी अचानक उभर आया है। विरासत कर अमेरिकी अर्थव्यवस्था का एक पहलू है, जहां किसी अमीर व्यक्ति के निधन के बाद उसकी संपत्ति का पूरा हिस्सा उत्तराधिकारी तक नहीं जाता है, करीब 55 प्रतिशत हिस्सा सरकार ले लेती है। सच्चे पूंजीवादी देशों में शेयर की भावना प्रबल होती है, जबकि कथित क्रोनी कैपिटलिज्म में कमाई को लोग शुद्ध रूप से निजी पुरुषार्थ मानते हैं। यह संजीदा विषय है, भारत में इसकी चर्चा लोगों को नाराज कर सकती है, लेकिन यह विषय इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने कभी उठाया था और आज उनकी निंदा हो रही है। कांग्रेस ने उनकी टिप्पणी से पल्ला झाड़ लिया है, पर उसे सियासी नुकसान हो सकता है। भाजपा ने इसे मुद्दा बना लिया है। हालांकि, सियासत अक्सर समस्याओं के बखान में ज्यादा खर्च होती है, क्योंकि समाधान के रास्ते लंबे होते हैं, पर ये रास्ते देर-सबेर तय करने पड़ेंगे।


Date:25-04-24

हिमालय पर पल-पल सिमटते विशाल हिमनदों को बचाइए

कालचांद साईं

गंगोत्री, मोटर मार्ग से पहुंचने का आखिरी पड़ाव है। इससे आगे गोमुख की तरफ जाने की तमन्ना रखने वालों को पैदल सफर करना होता है। गंगोत्री नेशनल पार्क के बीचोबीच भागीरथी का बायां किनारा चौदह किलोमीटर का रास्ता नापकर आपको भोजबासा पहुंचा देता है। सफर के बीच के मनोहारी दृश्य पदयात्रा की थकान को कम कर देते हैं, लेकिन अत्यधिक ऊंचाई के कारण भोजबासा पहुंचते-पहुंचते दम फूलने लगता है। भारी थकावट के बावजूद ऑक्सीजन की कमी से वहां नींद नहीं आती। इस कठिन यात्रा में पांच किलोमीटर और चलकर आप गंगोत्री ग्लेशियर देख पाते हैं। पर्यावरण प्रेमियों की नींद इस कारण उड़ी हुई है कि गंगोत्री ग्लेशियर निरंतर पिघलते हुए पीछे खिसकता चला जा रहा है। इस ग्लेशियर को बचा न सके, तो गंगा का क्या होगा?

वर्षों से इस खतरे की बात होती रही है। समूचे हिमालय के ग्लेशियरों पर संकट साफ नजर आ चुका है, परंतु उनके सिकुड़ने की चिंता के बीच नया संकट हमारे सामने है। प्रदूषण और तापमान में धीरे-धीरे हो रही बढ़ोतरी के कारण बर्फ पिघलने से हिमनदों के बीच हजारों नई झीलें आकार ले चुकी हैं या फिर उनका आकार बड़ा हो गया है। देहरादून के वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान का अध्ययन यह निष्कर्ष निकाल चुका है और इसरो की ताजा चर्चित रिपोर्ट ने भी इसकी पुष्टि की है। ऐसी झीलों का मुहाना अचानक खुलने से खतरनाक बाढ़ आ सकती है।

हिमालयन रिवर बेसिन में कुल करीब 28,043 ग्लेशियर झीलें हैं, इनमें से 23,167 झीलें पांच हेक्टेयर से छोटी हैं। लंबे समय से हिमालय पर रिसर्च के दौरान पाया गया कि प्रतिवर्ष दो से 51 मीटर की रफ्तार से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। ऐसे में, इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि अगले 100 साल में कई छोटे ग्लेशियरों का अस्तित्व मिट जाएगा और बहुत से पिघलकर आधे रह जाएंगे। पिघलते हिमनदों के कारण ग्लेशियर झीलों का दायरा बढ़ रहा है। ग्लेशियर के पतले होने की औसत दर साल 2000 से 2020 के बीच करीब तीन गुना बढ़ी है। ग्लेशियर ही पूरे साल नदियों को पानी देने में मददगार हैं। इनके जरिये बाकी जलस्रोत भी रीचार्ज होते हैं। ग्लेशियरों की क्षति या उनके आकार-प्रकार में बदलाव से सदानीरा नदियों को पानी के संकट का सामना करना पड़ जाएगा। नदियों का अस्तित्व ग्लेशियरों से जुड़ा है।

ग्लेशियरों के पिघलने के पीछे दो कारण हैं। पहला, ग्लोबल और दूसरा स्थानीय। पहला कारण ग्लोबल है। सारी दुनिया में तापमान बढ़ रहा है, उसका असर हिमालय पर स्वाभाविक रूप से दिख रहा है। संसार के एक देश के प्रदूषण का प्रभाव हजारों किलोमीटर दूर दूसरे देश को भी झेलना पड़ता है। वाडिया इंस्टीट्यूट के पूर्व वैज्ञानिक डॉक्टर पीएस नेगी का एक रिसर्च बताता है कि यूरोप से तेज हवाओं के साथ उड़कर आया उद्योगों का कार्बन हिमालयी बर्फ की सतह पर चिपका पाया गया। इस तरह के प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के कारणों को रोकना स्थानीय नागरिकों या सरकार के लिए संभव नहीं है। दूसरा कारण स्थानीय है। हिमालयी राज्यों में पर्यटन तेजी से बढ़ रहा है। नैनीताल एरीज की रिसर्च का परिणाम बड़ी चेतावनी के रूप में सामने आया है। यह शोध बताता है कि पहाड़ों पर कुल प्रदूषण में से 80 फीसदी हिस्सा मोटर वाहनों से निकलने वाले धुएं का है। दस साल में वाहनों की तादाद दो सौ गुना बढ़ गई है। इसका दुष्प्रभाव सीधा हिमालय की सेहत पर पड़ रहा है। पहाड़ पर भारी मशीनरी का बेधड़क इस्तेमाल, जंगलों में तेजी से बढ़ती मानव गतिविधियां, जंगलों की आग के अलावा बड़े पैमाने पर नदियों में पड़ रहा मलबा हिमालय के समूचे प्राकृतिक तंत्र को रौंद रहा है।

अब सवाल उठता है कि क्या इन दुष्प्रभावों को रोकने के लिए कदम उठाए जा सकते हैं? जवाब है- तबाही से बचने के लिए हमें दीर्घकालिक योजनाओं पर आज से ही सोचना होगा, कल देर हो जाएगी। पर्यावरण आधारित विकास को प्रोत्साहित करना होगा। सही और समेकित विकास का रास्ता पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाकर भी तैयार किया जा सकता है। दौड़ती-भागती दुनिया अगर ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार नहीं रोक पाई, तो इसके भयावह नतीजे निकलेंगे।


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