24-12-2019 (Important News Clippings)
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Jharkhand’s Message To Political Parties
ET Editorial
Jharkhand marks the latest in the string of setbacks BJP has received in state polls after its grand victory in the national elections in May. Obversely, the victory of the Jharkhand Mukti Morcha-Congress-Rashtriya Janata Dal alliance in Jharkhand puts fresh wind in Opposition sails. There are clear lessons in this trend for the ruling BJP and for the Opposition parties.
For BJP, the message is clear: bread-and-butter issues and governance matter to the voters more than anything else. BJP’s strategy in the assembly elections has been to beat the war drums of its core ideology — on building a soaring Ram temple at Ayodhya, on cleansing India of infiltrators, on ending the special status of Kashmir. Voters prefer, however, to march to a different beat. Who should change their tune is not a difficult question.
It was Prime Minister Narendra Modi’s defence of the Citizenship (Amendment) Act and downgrading of the proposal to create a National Register of Citizens as an action point for the government, at his Delhi rally on Sunday, that grabbed the headlines, but to anyone who heard the speech in full, it was striking that the prime minister dwelt at length on matters of specific, local concern to the voters of Delhi. Clearly, the BJP has already started recalibrating its pitch to voters in assembly elections. Which makes it imperative for opposition parties also to reimagine their own political positioning.
Congress victories in Madhya Pradesh, Chhattisgarh and Rajasthan did not prevent a Modi wave crushing everything in its path in these very states in the national elections. Therefore, if the Opposition wants to defeat BJP at the national level, it must forge a positive programme that people find credible and attractive, instead of merely relying on a negative campaign against the central government.
Such reinvention of their respective political platforms by the ruling and opposition sides would benefit the polity and the economy. If voter concerns are to receive priority, the economy would be at the top of everyone’s agenda. And it ought to be.
झारखंड में हार : क्या भाजपा को गलती का अहसास नहीं ?
संपादकीय
भाजपा की फिर एक हार। अभी कुछ माह पहले तक लोकसभा चुनाव में जिस झारखंड की जनता ने भाजपा को दिल खोलकर वोट दिए और 14 में से 12 सीटें जिताईं, उसी ने विधानसभा चुनाव में सत्ता किसी और गठबंधन को सौंप दी। पहले तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान फिर महाराष्ट्र और हरियाणा (भले ही जोड़-तोड़कर सरकार बना ली हो) में भाजपा और उसके नेताओं के प्रति नाराजगी का भाव साफ दिखा।जो पार्टी देश के 71 प्रतिशत भू-भाग पर अपनी राज्य सरकारों के जरिये शासन करती थी, आज सिर्फ 42 प्रतिशत पर ही सिमट गई है। क्या पार्टी के एकमात्र जननेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इकबाल कम होने लगा है? मोदी ने ही तो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी को बुलंदियों पर पहुंचाया था, लिहाज़ा यह कहना कि केवल राज्य की भाजपा सरकारों से जनता खुश नहीं है, स्थिति का गलत विवेचन होगा।सर्जिकल स्ट्राइक अगर आम चुनाव के पहले हुई थी तो तीन तलाक, कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाना और राम मंदिर का फैसला तो बाद की घटनाएं हैं और ये सभी मूल रूप से हिंदुओं के दिल के नजदीक और मुसलमानों को नाराज करने वाली हैं। फिर झारखंड चुनाव के दौरान ही तो मुसलमानों को छोड़कर हिंदुओं और पांच अन्य धर्मों के शरणार्थियों के लिए कानून बना, जिससे देश आज अशांत है।मोदी सरकार के इन फैसलों में तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सारे तत्व विद्यमान हैं, फिर क्यों राज्यों में भाजपा लगातार मुंह की खा रही है। भारतीय जनता में भावना का अतिरेक है, लेकिन भोगा हुआ यथार्थ कुछ समय बाद उसकी भावना पर भारी पड़ने लगता है। महाराष्ट्र में हुई बेईज्जती या पार्टी के विधायक का दुष्कर्म में जेल जाना जाने-अनजाने मोदी की लोकप्रियता पर प्रश्न चिह्न लगाता है।किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने के वादे, कम होते रोजगार और बढ़ती महंगाई पर लगाम लगाने के दावों का क्या हुआ? जरूरी क्या था? ये सब या देशभर में एनआरसी? मोदी के कार्यक्रमों में वह क्षमता है कि अगर वे ईमानदारी से अमल में आएं तो तस्वीर बदलेगी, लेकिन इसके लिए मोदी को सख्ती से अपनी राज्य सरकारों को हिदायत देनी होगी। अब जरूरत है वादों को पूरा करने की न कि एनसीआर पर अमल की। जनता भावना और भोगे हुआ यथार्थ में फर्क करने लगी है।
दुनिया में कहीं नहीं इस मुद्दे का असर
शशांक
भारत में नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ चल रहे देशव्यापी विरोध-प्रदर्शनों की गूंज अब विदेश में भी सुनी जाने लगी है। वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्जियन, वॉल स्ट्रीट जर्नल जैसे चर्चित अंतरराष्ट्रीय अखबार जहां इन विरोध-प्रदर्शनों को अपनी सुर्खियां बनाने लगे हैं, वहीं ऑस्ट्रेलिया, रूस जैसे देशों ने अपने-अपने नागरिकों को भारत यात्रा पर एहतियात बरतने को कहा है। ब्रिटेन में भी आलोचनात्मक स्वर सुनाई दिए हैं। इन सबसे हमारे यहां का एक तबका कहने लगा है कि इस नए कानून के कारण वैश्विक समुदाय में भारत की उदार छवि को धक्का लगा है। पर क्या वाकई ऐसा है?
तमाम वैश्विक मंचों पर भारत एक धर्मनिरपेक्ष और उदार लोकतंत्र माना जाता रहा है। यहां बेशक सामाजिक विषमताएं रही हैं और वक्त-बेवक्त जातिगत व सामाजिक तनाव सतह पर आए हैं। लेकिन 1991 के बाद, खासतौर से जिस तरह अमेरिका, जापान या अन्य देशों के साथ हमारे रिश्ते सुधरे, उसका व्यापक असर पड़ा। पिछले कुछ वर्षों से आर्थिक प्रगति के मामले में भारत की साख दुनिया भर में बढ़ी है। हालांकि इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि एक वैश्विक गांव में उपभोक्ता वर्ग काफी मायने रखता है, और इस मामले में भारत काफी संपन्न देश है। फिर, बौद्धिक व तकनीकी कुशलता के लिहाज से भी भारतीय दुनिया भर में सम्मान पा रहे हैं।
यही कारण है कि दूसरे देशों को यह फर्क नहीं पड़ता कि हम अपने नागरिकों की पहचान के लिए कौन-सा रास्ता अपनाते हैं या कैसे दस्तावेज उन्हें सौंपते हैं। असम में जब राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) बना, तब भी उसे भारत का आंतरिक मसला माना गया। जब कश्मीर की सांविधानिक स्थिति बदली गई, तब भी विश्व की यही सोच थी। और अब, जब नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर देश में बवाल मचा है, तब भी कूटनीतिक नजरिए से वैश्विक ताकतें इसे कोई खास तवज्जो नहीं दे रही हैं।
भारत ही नहीं, इस तरह की प्रक्रिया तमाम राष्ट्रों में अपनाई जाती है। यूरोप के अनेक देशों में नागरिकता को लेकर अपने नियम हैं। सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को लेकर भी अलग-अलग देशों में अलग-अलग प्रावधान हैं। किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में राजनीतिक दल अपनी बातें चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल करते हैं, और फिर यदि उन्हें बहुमत मिलता है और वे सत्ता में आते हैं, तो घोषणा-पत्र के वादों को अमल में लाते हैं। इसके बाद भी यदि किसी समूह या व्यक्ति को स्पष्टीकरण की जरूरत महसूस होती है, तो वह सर्वोच्च अदालत में जाता है। तमाम देशों में यही चलन है। अपने यहां भी इससे अलग प्रक्रिया नहीं अपनाई गई। नागरिकता का नया प्रावधान भारतीय जनता पार्टी के चुनावी घोषणा-पत्र का हिस्सा था। इसमें जिनको भी आपत्ति रही, वे सुप्रीम कोर्ट में गए हैं। एक लिहाज से यह सब कुछ सांविधानिक मर्यादाओं के तहत हुआ।
ये बातें दूसरे देशों की सरकारें समझती हैं। वहां के शैक्षणिक संस्थान भी परिस्थितियों को समझ रहे हैं। मगर गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के कुछ खास समूह हैं, जो अपनी वैश्विक भूमिका के लिए आलोचनात्मक सुर अपनाते हैं। ऐसे संगठन खुद को अपने देश की भौगोलिक सीमाओं से परे समझते हैं। पूरी दुनिया की जिम्मेदारी खुद ओढ़कर चलना पसंद करते हैं। कई देशों की राजनीतिक संस्थाएं इन्हें महत्व नहीं देतीं, फिर भी वैश्विक मसलों में उनकी दखलंदाजी जारी रहती है। विकासशील देश खासतौर से इनके निशाने पर होते हैं। यही वजह है कि भारत में चल रहे विरोध-प्रदर्शनों को लेकर ये संगठन ज्यादा मुखर हैं। हमें कथित तौर पर और मानवीय बनाने की इस मुहिम में मीडिया उनका हथियार बनता है। चूंकि लोकतांत्रिक देशों में मीडिया स्वतंत्र होता है और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में वह अपनी जिम्मेदारियां निभाता है, इसलिए उसके माध्यम से ऐसे गैर-सरकारी संगठन अपनी बातें आसानी से लोगों के सामने रखने में सफल होते हैं।
रही बात पड़ोसी मुल्कों की, तो हमें घेरने के लिए पाकिस्तान सबसे ज्यादा सक्रिय रहता है। कश्मीर से जब अनुच्छेद 370 और 35-ए निरस्त किया गया था, तब भी उसने तमाम वैश्विक मंचों पर हमारे खिलाफ आवाज उठाई थी। कुछ इस्लामी देश उसके प्रभाव में जरूर आए थे, मगर व्यापक तौर पर उसे मुंह की खानी पड़ी। इस बार भी चीन के साथ मिलकर वह हमारे खिलाफ माहौल बनाने में जुटा है। मगर सुखद बात यह है कि इस बार भी अमेरिका जैसे देशों ने उसे टका-सा जवाब दे दिया है। इन देशों का स्पष्ट मानना है कि अपनी भौगोलिक सीमा में नागरिकता को परिभाषित करने का अधिकार भारत के पास ही है। कोई दूसरा देश इसमें दखल नहीं दे सकता। इसी तरह, बांग्लादेश से हमारे मजबूत होते रिश्ते का यह असर है कि पहले ढाका की तरफ से बेशक यह दावा किया गया कि बांग्लादेशी भारत में फर्जी तरीके से मौजूद नहीं हैं, लेकिन अब ऐसे बयान भी सामने आ रहे हैं कि अगर भारत में फर्जी नागरिक मिलते हैं, तो उन्हें बांग्लादेश वापस ले सकता है।
साफ है, इन विरोध-प्रदर्शनों से भारत की छवि पर कोई असर नहीं पड़ा है। यही वजह है कि विदेश मंत्री एस जयशंकर बीते बुधवार को उन अमेरिकी सांसदों से भी नहीं मिले, जिन्होंने कश्मीर मसले पर भारत की आलोचना की थी। साफ है, जिन सरकारों से हमारी कूटनीतिक व सामरिक साझेदारी है, वे हमें पूरी तवज्जो दे रही हैं। वे नहीं चाहतीं कि भारत से उनके रिश्ते खराब हों। इन देशों को हमारे धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने, मानवाधिकार संस्थाओं और सांविधानिक प्रावधानों पर पूरा विश्वास है।
हां, कुछ गैर-सरकारी, मानवाधिकार या सामाजिक संगठन तीखी नजरों से हमें जरूर देख रहे हैं, पर इसका हमारी छवि पर बहुत ज्यादा असर नहीं पडे़गा। फिर भी, हमारी यही कोशिश होनी चाहिए कि वैश्विक गैर-सरकारी संगठनों के सामने हम अपने मूल्य स्पष्ट करें, और उन्हें भरोसे में लें। घरेलू राजनीति में जिस तरह सत्तारूढ़ दल ने तमाम विपक्ष को अपने खिलाफ कर लिया है, वैश्विक राजनीति के साझेदारों के साथ ऐसी रणनीति नुकसानदेह हो सकती है। भूमंडलीकृत दुनिया में ‘एकला चलो रे’ की नीति कतई नहीं अपनाई जा सकती।