24-04-2019 (Important News Clippings)
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Date:24-04-19
US Policy on Iran: Counterproductive
ET Editorials
The Donald Trump administration’s decision to end the sanctions waiver for eight countries — India, China, Turkey, Greece, Italy, Japan, South Korea and Taiwan — importing oil from Iran has implications beyond oil price and supply. The US decision to attempt to back Iran into a corner will only serve to further empower Riyadh and Tel Aviv, adding to regional instability. The US thinks starving Iran of oil revenues will force it to the negotiating table. In fact, the move will strengthen Iran’s hardliners opposed to curbing their nuclear programme, and weaken moderates, including President Hassan Rouhani. Relative strengthening of Saudi Arabia, with its unabated export of Wahhabism, will not exactly make for a calmer world.
All this makes this moment one of immense opportunity for Europe. As signatories of the Iran nuclear deal, Europe can leverage its diplomatic relations to provide a counter that can effectively deal with the US sanctions. France, Germany and the UK have launched an EU-backed system, Instrument in Support of Trade Exchanges, to facilitate trade with Iran and help European businesses circumvent unilateral US sanctions. The EU should consider permitting non-EU countries to be part of this mechanism. Besides engaging the EU, India must make common cause with China, Japan, South Korea and Taiwan, to develop a mechanism that will allow for continued trade with Iran, particularly in oil, and, more broadly, to develop a non-dollar payments settlement mechanism for international trade in which the US is not a direct counter-party.
A strong, stable Iran that is integrated into the global community is vital for ensuring balance of power in the region, peace in the Middle East and beyond. And such stability is the route to normalisation of Iran’s domestic politics, as well.
Date:24-04-19
Fret Not Overmuch Over Oil From Iran
Oil price spurt would likely be short-lived
ET Editorials
It is possible that global oil prices would rise, in the wake of the US decision to end sanctions waivers for eight nations, including India, to import oil from Iran. But the price spurt is likely to be a self-correcting signal, as it is likely to trigger higher oil output both in oil cartel Opec (Organisation of the Petroleum Exporting Countries) and well beyond, including in US shale oil. There is artificially repressed output among Opec members and Russia, and oil production has of late risen by leaps and bounds in the US.
The ministry of petroleum and natural gas has meanwhile said that plans are in place to source additional supplies from other major oil-producing nations, so as to make up for the drop in Iranian crude. And, further, that oil refineries in India are fully prepared to meet the demand for petroleum products. But it cannot be gainsaid that sour crude from Iran (or Venezuela) can heavily boost refining margins here. However, it is also a fact that the US sanctions on Iran or Venezuela have made sour crude dearer and reduced the price differential with pricier sweet crude. Additional swaps of sour crude would be needed to replace the 15-million-tonne Iranian crude shortfall. Iran is India’s third largest supplier and meets a tenth of our demand. The way ahead is to fast forward opening up of the retail oil market, so to accelerate its integration with the larger retail industry. There is no reason why we should, in effect, continue to ring-fence oil retailing only for oil companies. The reform would lead to efficiency improvements and productivity gains, as is par for the course in the mature markets abroad for decades now.
The Kirit Parikh committee is reportedly working on a roadmap to liberalise oil retailing. But, in a way, oil demand may be peaking, as there’s change in the techno-economic paradigm underway, moving away from the internal combustion engine and towards electric mobility. Hence the pressing need for stepped-up resource allocation for electric bus fleets and public transport generally. Also, modern tax design for oil products, bringing them under goods and services tax, brooks no delay.
Date:24-04-19
अमेरिका की मनमानी
संपादकीय
अमेरिका ने भारत समेत कई अन्य देशों को ईरान से तेल खरीदने के लिए जो रियायत दी थी उसे खत्म करने का फैसला करके अपनी मनमानी का ही परिचय दिया है। इस पर हैरत नहीं कि अमेरिकी की ओर से इस रियायत को खत्म करने की घोषणा होते ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्य बढ़ने शुरू हो गए। यदि कच्चे तेल के दाम बढ़ने का सिलसिला कायम रहा हो तो देश में पेट्रोलियम पदार्थ महंगे हो सकते हैैं। कहना कठिन है कि ऐसी नौबत आएगी या नहीं, लेकिन यह अजीब है कि कांग्रेस ने आनन-फानन इस नतीजे पर पहुंचना जरूरी समझा कि 23 मई की शाम यानी चुनाव परिणाम आते ही पेट्रोल-डीजल की कीमतें पांच से दस रुपये तक बढ़ाने की तैयारी कर ली गई है।
पता नहीं कांग्रेस ने यह निष्कर्ष कैसे निकाल लिया? जो भी हो, अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम एक सीमा से अधिक बढ़ते हैैं तो उसका बोझ आम जनता पर भी आएगा, लेकिन आखिर इसका क्या मतलब कि चुनावी लाभ के लिए जनता के समक्ष एक डरावनी तस्वीर पेश की जाए? सवाल यह भी है कि क्या अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम स्थिर रखना मोदी सरकार की जिम्मेदारी है? क्या मनमोहन सरकार के समय भारत की सहमति से ही कच्चे तेल के दाम घटते-बढ़ते थे? नाजुक अंतरराष्ट्रीय मसलों पर वैसी सस्ती राजनीति करने का कोई मतलब नहीं जैसी कांग्रेस करती दिख रही है। बेहतर होता कि कांग्रेस के नेता केवल यहीं तक सीमित रहते कि भारत को अमेरिकी फैसले के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए।
फिलहाल यह कहना कठिन है कि ईरान से तेल खरीदने पर अमेरिकी रोक के क्या परिणाम सामने आते हैैं, लेकिन इतना तो है ही कि इससे भारत को कुछ न कुछ परेशानी उठानी पड़ सकती है। हालांकि पेट्रोलियम मंत्री का कहना है कि भारत अन्य स्रोतों से अपनी जरूरत का तेल हासिल करने में समर्थ रहेगा, लेकिन अगर अमेरिकी प्रतिबंध के चलते भारत को महंगा तेल खरीदना पड़ता है तो इससे देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ सकता है। ऐसा ही असर उन अन्य देशों की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ सकता है जो ईरान से तेल खरीद रहे थे।
बेहतर हो कि ये सभी देश जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों के साथ मिलकर अमेरिकी मनमानी का मुखर होकर विरोध करें। आखिर अमेरिका को यह इजाजत कैसे दी जा सकती है कि वह ईरान को दंडित करने के फेर में विश्व अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने का काम करे? यह सही है कि ईरान विश्व शांति के अनुरूप कदम नहीं उठा रहा है, लेकिन आखिर इसकी क्या गारंटी उसके तेल निर्यात पर रोक लगाने से वह सही रास्ते पर आ जाएगा? अगर ऐसी कोई रोक लगानी ही है तो फिर वह विश्व समुदाय यानी संयुक्त राष्ट्र की ओर से लगाई जानी चाहिए और साथ ही यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इससे विश्व अर्थव्यवस्था के समक्ष अनावश्यक संकट न पैदा हो। ऐसा लगता है कि अमेरिका यह समझने को तैयार नहीं कि वह पश्चिम एशिया में नए सिरे से अस्थिरता को बढ़ावा देने के साथ अपने मित्र देशों को मुश्किल में डाल रहा है।
Date:23-04-19
कार्य-संस्कृति पर बहस जरूरी
अभिषेक कुमार
दुनिया में आए हो तो काम करो प्यारे, झुक-झुक कर सबको सलाम करो प्यारे’-एक पुरानी हिंदी फिल्म के इस गीत का तकाजा यही है कि यह जीवन बिना कोई काम किए नहीं चलता। काम अगर नौकरी हो तो झुकना पड़ता है। इधर, काम के दबावों का एक जिक्र चीन की ई-कॉमर्स कंपनी अलीबाबा के मालिक जैक मा के नये आह्वान के संदर्भ में उठा है। दुनिया के सबसे बड़े बिजनेसमैन की लिस्ट में शामिल जैक मा ने हाल में कहा है कि आठ घंटे की परंपरागत शिफ्ट काम करने वालों की उनकी कंपनी में कोई जगह नहीं है, बल्कि इसकी बजाय उन्होंने ‘996 फॉर्मूला’ दिया है। यानी उनके वर्कर सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक, हफ्ते में 6 दिन काम करें। भारत की तरह चीन एक आबादी बहुल मुल्क है। वहां बेरोजगारी के मारों की तादाद भी कम नहीं होगी। इसलिए वहां लोग 996 वर्क कल्चर बर्दाश्त करने को मजबूर हो सकते हैं। हालांकि इसे लेकर वहां भी सवाल उठ रहे हैं। लेकिन जापान जैसे देश में तो खुद जनता पर ही काम का जुनून सवार रहा है। इस हद तक है कि ज्यादा काम करने से वहां मौतें होती हैं। वहां इसके लिए एक शब्द ‘कारोशी’ ईजाद किया गया। इसका मतलब है ‘काम के बोझ से मौत’।
वहां ‘कारोशी’ से मरने वाले व्यक्ति के परिवार को सालाना 20 हजार डॉलर घर खर्च के लिए मिलते हैं। जिस कंपनी का वह कर्मचारी था, वह कंपनी भी उसके परिवार को 16 लाख डॉलर का मुआवजा देती है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2015 में जापान में काम के बोझ से मरने वालों की तादाद 2310 जा पहुंची थी। यह आंकड़ा स्वास्य मंत्रालय का था। वहां की नेशनल डिफेंस काउंसिल फॉर विक्टिम्स ऑफ करोशी के मुताबिक अब जापान में हर साल 10 हजार लोग कारोशी से मारे जाते हैं। बेशक, कारोबारियों के लिए यह फायदे की बात है कि बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई के डर से लोग औसत घंटों से ज्यादा काम करने को तैयार हो जाएं। मंदी की आशंका ने कारोबारियों को इसके लिए प्रेरित किया है कि अपने कर्मचारियों पर काम का ज्यादा बोझ लादें। पर इसकी कितनी बड़ी कीमत लोग चुकाते हैं, इसका अंदाजा शायद उन्हें नहीं है। असल में, मौजूदा वक्त में कामकाजी दुनिया की सबसे बड़ी समस्या कर्मचारियों में काम के दौरान बढ़ते तनाव और नींद की कमी के रूप में पैदा हो गई है।
इससे युवा कर्मचारियों तक की सेहत पर असर पड़ रहा है और वे हार्ट की बीमारियों, डायबिटीज और हाई ब्लड प्रेशर की चपेट में आ रहे हैं। नींद की कमी से तनाव, चिड़िचड़ापन होना और रोगों से लड़ने की शक्ति में कमी होना आम हो गया है। बदलती कार्य संस्कृति के चलते बेशक तमाम निजी संस्थान सरकारी संस्थानों के मुकाबले में आ खड़े हुए हैं, या उनसे मीलों आगे निकल गए हैं। पर जो लोग दिन में सात-आठ घंटे से ज्यादा काम करते हैं, डॉक्टरों के मुताबिक उनके शरीर के साथ-साथ दिमाग पर भी बुरा असर पड़ता है। ऐसे लोगों के स्ट्रेस यानी तनाव का लेवल बहुत ज्यादा होता है, थकान और चिड़िचड़ेपन के कारण परिवार को समय नहीं दे पाते हैं। उनकी लाइफ स्पैन यानी लंबे समय तक जीवित रहने की संभावना कम हो जाती है। सवाल है कि आखिर, किसी नौकरी में काम के घंटे का आदर्श पैमाना क्या है।
दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग मानक हैं। कुछ ही समय पहले न्यूजीलैंड की एक कंपनी ने अपने करीब 250 कर्मचारियों को हफ्ते में सिर्फ 4 दिन 8 घंटे की शिफ्ट में काम करने को कहा। बताया गया कि इससे कर्मचारियों के तनाव में 16 फीसद कमी आई, वर्क-लाइफ बैलेंस में 44 फीसद सुधार हुआ और कर्मचारियों की क्रिएटिविटी, काम के प्रति लगन आदि में इजाफा हुआ। उल्लेखनीय यह कि इससे कंपनी की उत्पादकता में कोई गिरावट नहीं आई। दुनिया के अन्य देशों के उदाहरण यही बताते हैं कि वहां कर्मचारियों से औसतन आठ घंटे काम करने की अपेक्षा की जाती है, हालांकि इसके बदले में भी उन्हें कई सहूलियतें देने की कोशिशें होती रहती हैं। जैसे दो साल पहले यूरोपियन कोर्ट ऑफ जस्टिस ने एक फैसले के तहत ऑफिस आने-जाने में लगने वाले समय को भी वर्किंग टाइम में शामिल कर लिया था ताकि कर्मचारियों की सेहत और सुरक्षा का ख्याल रखा जा सके। संदेह नहीं कि जैक मा ने ‘996 फॉर्मूला’ देकर खराब परंपरा का संकेत दिया है। यह खुद जैक मा और उन जैसे लोगों को सोचना होगा कि कोई कंपनी तभी चल और दौड़ सकती है, जब उसके कर्मचारियों में जोश हो। वे तनावमुक्त और सेहतमंद होकर अपनी सेवाएं कंपनी को दे सकें।