24-04-2017 (Important News Clippings)
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Stop crop burning
Instead of just fining Punjab and Haryana farmers, give them profitable alternatives too
In a week or so wheat harvesting will end in Punjab and Haryana and it will be time to get the fields ready for paddy planting in the monsoon. This is a very worrying time for the larger neighbourhood including Delhi, because if farmers ready their fields by burning stubble, the dark smoke clouds that rise as a result travel far and wide, carrying in their wake severe air pollution. Once again the Environment Pollution Control Authority has directed both state governments to ensure that there is no wheat stubble burning. Chief ministers Amarinder Singh and Manohar Lal Khattar must ensure that this time their state machinery fulfils the EPCA directive.
On the upside there is evidence that both governments are now doing more stringent monitoring but on the downside this seems to be just driving many farmers to burn the stubble covertly – or claim that their field fires are accidental. This reflects poorly on measures to provide farmers convenient and profitable alternatives to burning stubble. For example, subsidies for agri equipment, such as happy seeder or rotavor that can sow seeds without the need to remove the remains of stubble, haven’t reached most farmers – not to mention that these subsidies are accompanied by cumbersome formalities.
The track record is even worse when it comes to commericalising the stubble for animal feed, packaging and paper industries, power generation, etc. Both Punjab and Haryana governments have been unconscionably laggard on this front. This must change. Remember that burning stubble doesn’t just cause respiratory diseases and worsen greenhouse gas emissions, it causes severe heat stress on the farmland itself, with one rough estimate being that it destroys soil nutrients worth up to Rs 2,000 crore every year.
But speaking of laggardness, when stubble is burnt and a soupy smog rises, when city chemists run short of protective masks and a public health crisis grows, India’s National Air Quality Index cannot even provide a reliable measurement as it doesn’t have enough monitoring stations and even the existing ones don’t monitor for all important pollutants. It has one air quality monitor for the entire metropolis of Mumbai as compared to London’s 100. From Centre to states, solutions to curb crop burning and clean the air are well known. What’s needed is the political resolve to deliver these solutions.
सोशल मीडिया का तेजी से बढ़ रहा है कारोबारी जगत पर प्रभाव
सोशल मीडिया ने राजनीतिक संवाद की दशा ही बदल दी है। नरेंद्र मोदी और डॉनल्ड ट्रंप इसकी बानगी हैं। परंतु कारोबारी जगत पर इसका प्रभाव उतना मुखर नहीं रहा है। अमेरिका के तीन बड़े कॉर्पोरेशन से जुड़ी हालिया घटनाएं बताती हैं कि वैश्विक स्तर पर उपभोक्ताओं द्वारा नए मीडिया को अपनाए जाने के बीच कंपनियों के सामने नीतिगत और जन संपर्क जैसी अहम चुनौतियां पैदा हो गई हैं।
Date:24-04-17
जीएसटी के तहत कारोबार कैसे होगा अलग
पंचायतीराज संस्थाओं की बढ़ती भूमिका
हमारी संस्कृति और सभ्यता की तरह आरंभ से ही पंचायती राज की गौरवशाली परम्परा रही है और इसे भारतीय शासन प्रणाली की आधारशिला के रूप में देखा जाता रहा है। वैदिक काल से ही ग्राम को प्रशासन की मौलिक इकाई माना गया है। जातक ग्रंथ में भी ग्राम सभाओं का वर्णन मिलता है।स्वतंत्र भारत में पंचायती राज प्रणाली अक्तूबर, 1952 में शुरू हुई, लेकिन जमीनी स्तर पर वंचित वर्ग और उपेक्षित समुदायों की सहभागिता न होने के कारण सफल नहीं हो पाई। इस प्रणाली की पुन: शुरूआत 1959 में बलवन्तराय मेहता समिति की रिपोर्ट के आधार पर हुई। त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली में जिला स्तर पर जिला परिषद, विकास खण्ड स्तर पर पंचायत समिति तथा ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायतों की स्थापना का प्रावधान किया गया। इस प्रणाली का शुभारंभ सबसे पहले राजस्थान और आंध्रप्रदेश में हुआ और बाद में इसे पूरे देश में लागू किया गया। इस प्रणाली में आए अनेक अवरोधों को दूर करने के लिये 1977 में अशोक मेहता समिति, 1985 में जी.टी.के. राव समिति और 1986 में लक्ष्मी मल्ल सिंघवी समिति का गठन किया गया। इन सभी समितियों की एक ही राय थी कि देश में पंचायती राज प्रणाली को सुदृढ़ बनाना बहुत जरूरी है। देश की आजादी के बाद केन्द्र में आई सभी सरकारों ने माना कि निर्धनता दूर करने और देश के चहुंमुखी विकास के लिये पंचायती राज प्रणाली राष्ट्र की अपरिहार्य आवश्यकता है। इसके परिणामस्वरूप, 24 अप्रैल, 1993 को 73वां संविधान संशोधन विधेयक लागू हुआ, जो पंचायती राज के आधुनिक इतिहास में अविस्मरणीय है।
वर्तमान समय में पंचायती राज प्रणाली के माध्यम से ग्राम स्तर पर मौन क्रांति का सूत्रपात हो चुका है और विकास की नित नई कहानियां लिखी जा रही हैं। पंचायतों के माध्यम से दलितों, उपेक्षितों, महिलाओं और आदिवासियों को उनका वांछित स्थान मिल रहा है और देश के कोने-कोने से इस प्रणाली की सफलता और उपलब्धियों की कहानी सुनाई पड़ रही है। आज स्थानीय निकायों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिलाओं और दलितों को निर्वाचित प्रतिनिधि के रूप में काम करने का मौका मिल रहा है। इस प्रणाली ने हमारे गांवों की तस्वीर बदल दी है और वे विकास की राष्ट्रीय मुख्य धारा से सीधे जुड़ गये हैं। यह हमारे समुदाय, समाज और राजनीतिक तंत्र के लिये सुखद संदेश है।
भारतीय संविधान में पंचायतों के विकास और सशक्तिकरण के बारे में समुचित प्रावधान किये गये हैं। इनके अनुसार राज्य में त्रिस्तरीय पंचायतों का गठन अनिवार्य बनाया गया है। हालांकि 20 लाख से कम आबादी वाले राज्यों में द्विस्तरीय पंचायतें गठित की जा सकती हैं। प्रत्येक पांच वर्ष पर पंचायतों के चुनाव आयोजित करने और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। कम से कम एक तिहाई अर्थात 33 प्रतिशत सीटों का आरक्षण महिलाओं के लिए किया गया है, जिनमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की आरक्षित सीटें तथा अध्यक्षों के पद शामिल हैं। हालांकि लगभग 19 राज्यों ने इससे भी आगे बढक़र महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित की हैं। पंचायत चुनाव स्वतंत्र एवं निष्पक्ष ढंग से कराने की जिम्मेदारी राज्य निर्वाचन आयोगों को दी गई है। पंचायतों के लिये करों और निधियों के निर्धारण की सिफारिश के लिए प्रत्येक पांच वर्ष पर राज्य वित्त आयोग के गठन, पंचायतों और नगरपालिकाओं की योजनाओं के समेकन और जिला योजना तैयार करने हेतु प्रत्येक जिले में जिला योजना समितियों के गठन की व्यवस्था की गई है। पंचायतें राज्य का विषय है और संविधान के अनुसार पंचायतों को शक्तियों और अधिकारों का अंतरण राज्य के विवेकाधीन है। संविधान की 11वीं अनुसूचीमें 29 विषयों की स्पष्ट सूची का प्रावधान किया गया है, जिन्हें राज्यों द्वारा पंचायतों को अंतरित किया जा सकता है। भारत सरकार का पंचायती राज मंत्रालय, पंचायतों को सुदृढ़ और सशक्त बनाने तथा संविधान में वर्णित प्रावधानों के अनुसार अधिकार सम्पन्न बनाने के लिए गहन प्रयास कर रहा है। इस संबंध में राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान की नई पुनर्गठित योजना के तहत पंचायतों की शक्तियों का अंतरण करने और उनमें पारदर्षिता एवं जवाबदेही को बढ़ावा देने के ठोस उपाय करने हेतु राज्यों को प्रोत्साहित किया जा रहा है और उन्हें आवश्यक सहायता और समर्थन उपलब्ध कराया जा रहा है। पुनर्गठित योजना के अंतर्गत वर्ष 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु पंचायतों को सक्षम बनाने, हिसाब-किताब का पारदर्शी तरीके से रख-रखाव और सेवा-सुपुर्दगी के लिए पंचायतों के बीच ई-गवर्नेंस के व्यापक प्रसार का लक्ष्य रखा गया है।
वर्तमान समय में पंचायतों के क्षमता निर्माण की चुनौती बढ़ गई है। इसे देखते हुए राज्यों को पंचायती राज संस्थाओं के क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण गतिविधियों के लिए समुचित वित्तीय सहायता दी जा रही है। पंचायती राज मंत्रालय द्वारा इस उद्देश्य से स्थानीय शासन के सभी हितधारकों के प्रषिक्षण के लिए सहायता दी जा रही है। ई-गवर्नेंस से संबंधित अवसंरचना और उपकरण उपलब्ध कराने, प्रशिक्षण सामग्री विकसित करने और एक्सपोजर दौरों के लिए भी राज्यों को वित्तीय सहायता दी जा रही है। पंचायत प्रतिनिधियों और पंचायत कर्मियों को उनकी जिम्मेदारियों के बारे में प्रषिक्षित करने के वास्ते श्रव्य, दृष्य तथा एनिमेषन प्रषिक्षण फिल्में तैयार की गई हैं। पंचायतों का प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्र विस्तार) अधिनियम, 1996 यानी पेसा को दस राज्यों- आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान एवं तेलंगाना में लागू किया गया है। ये राज्य पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों को अधिसूचित कर चुके हैं। इन राज्यों में 108 पेसा जिले हैं, जिनमें से संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत 45 पूरी तरह और 63 आंशिक रूप से अधिसूचित हैं। पेसा अधिनियम ने ग्राम सभाओं को विस्तृत अधिकार दिये हैं। इसके अंतर्गत ग्राम सभाओं को अपने लोगों की रीतियों, सामुदायिक संसाधनों, विवादों के समाधान की परम्परागत प्रणाली और स्थानीय संस्कृति की सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु सक्षम बनाया गया है। पेसा के लिए मॉडल नियमों का मसौदा परिचालित किया गया है।
नागरिकों के लिये बेहतर सेवाओं की सुपुर्दगी सुनिश्चित करने, आंतरिक प्रबंधन एवं कुषलता बढ़ाने और पारदर्षिता के साथ पंचायतों की गतिविधियों के संचालन, कार्यान्वयन, निगरानी और सामजिक अंकेक्षण के लिए ई-पंचायत परियोजना शुरू की गई है। इस परियोजना में पंचायतों के उपयोग के लिए दस सामान्य कम्प्यूटर अनुप्रयोगों को विकसित किया गया है। ग्राम पंचायत स्तर पर सर्विसप्लस के माध्यम से सेवाओं की सुपुर्दगी के लिए राज्यों को समर्थ बनाया जा रहा है। महाराष्ट्र अब नागरिकों को जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र और निवास प्रमाण पत्र सहित 21 सेवाएं सर्विसप्लस के माध्यम से उपलब्ध करा रहा है, जबकि झारखण्ड इसका उपयोग कर 7 सेवाएं और छत्तीसगढ़ 5 सेवाएं उपलब्ध करा रहा है। माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 24 अप्रैल, 2016 को जमषेदपुर में राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के अवसर पर चार राज्यों को ई-पंचायत पुरस्कार और 8 राज्यों को अंतरण पुरस्कार प्रदान कर प्रोत्साहित किया था। इस अवसर पर 21 जिला पंचायतों, 38 मध्यवर्ती पंचायतों और 123 ग्राम पंचायतों को पंचायत सषक्तिकरण पुरस्कार प्रदान किये गये।
पिछले वर्ष राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस 2016 ग्रामोदय से भारत उदय अभियान के एक अंग के रूप में मनाया गया। 14 अप्रैल से 24 अप्रैल, 2016 तक भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों और पंचायती राज संस्थाओं के सहयोग से देश के कई भागों में अनेक कार्यक्रम आयोजित किये गये। समारोह में पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाने, गांवों में सामाजिक सौहार्द बढ़ाने, ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने, किसानों के कल्याण और गरीबों की आजीविका से संबंधित गतिविधियों और कार्यक्रमों पर जोर दिया गया। इस अभियान का प्रमुख उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं के सहयोग से सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों और विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों के विकास से जुड़े कार्यक्रमों को गति देना और ग्राम पंचायत के विकास की प्रक्रिया में लोगों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना था। इस अवसर पर कुछ चुनावी राज्यों और केन्द्र षासित क्षेत्रों को छोडक़र देश की सभी ग्राम पंचायतों में सामजिक सौहार्द कार्यक्रम आयोजित किये गये। 17 से 20 अप्रैल, 2016 तक ग्राम पंचायतों में ग्राम किसान सभाओं का आयोजन किया गया। झारखण्ड के जमशेदपुर में 24 अप्रैल, 2016 को पंचायती राज प्रतिनिधियों के राष्ट्रीय सम्मेलन में देशभर से करीब 3000 पंचायत प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। इस सम्मेलन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था।
पंचायती राज प्रणाली का मुख्य परिणाम सामाजिक परिवर्तन के रूप में सामने आया है और इसने बाल-विवाह, जुए की प्रवृत्ति और नशे की लत जैसी सामाजिक बुराइयों में कमी लाने में मदद की है। पंचायती राज के माध्यम से ग्राम समाज का सशक्तिकरण हुआ है। इससे महिला साक्षरता स्तर में वृद्धि हुई है और घरेलू हिंसा की घटनाओं में कमी आई है। अधिकांश पंचायतों की प्राथमिकता रही है कि ज्यादा से ज्यादा संख्या में बच्चे और विशेष रूप से बालिकाएं स्कूल जाएं। पंचायत के निर्वाचित प्रतिनिधियों ने जिन प्रमुख विकासात्मक मुद्दों को आगे बढ़ाया है उनमें शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, स्थानीय सडक़ निर्माण और स्वच्छता जैसे विषय शामिल हैं। हालांकि, स्थानीय शासन प्रणाली में महिलाओं को अभी कई चुनौतियों से निपटना पड़ रहा है, लेकिन ग्रामीणमहिलाओं में संवैधानिक प्रावधानों, सरकारी नीतियों, सामाजिक गतिविधियों और अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ी है और अब वे राजनीतिक सत्ता और निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी कर रही हैं। पंचायती राज संस्थाओं में उनका योगदान बड़े पैमाने पर बढ़ा है। अब वे पंचायती राज संस्थाओं में अपनी भागीदारी के माध्यम से श्गांव बढ़ेगा तो देश बढ़ेगा का नारा का बुलन्द करते हुए ग्रामीण विकास के क्षेत्र में परचम लहरा रही हैं। गांवों को खुले में शौच मुक्त बनाने में पंचायती राज संस्थाओं और विशेष रूप से महिला सरपंचों की भूमिका अग्रणी रही है। वास्तव में पंचायती राज संस्थाओं ने देश की शासन प्रणाली में उस बुनियाद का रूप ले लिया है जिसके कमजोर होने पर लोकतंत्र रूपी आलीषान इमारत की कल्पना नही की जा सकती।
उच्च शिक्षा में मानविकी
लगता है अब हम सब पूरी तरह ऐसा विश्वास कर बैठे हैं कि मनुष्य प्रगति और विकास कर रहा है, और इस प्रगति के मुख्य किरदार हैं विज्ञान एवं तकनीक.ऐसे में स्वाभाविक ही है कि इन विषयों को शिक्षा के क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर महत्व मिलता. इनके पाठय़क्रमों में प्रवेश के लिए मारामारी लगी रहती है. इनके लिए कोचिंग और टय़ूशन की अनेक संस्थाएं चल निकली हैं, जो कहने को तो औपचारिक स्कूली शिक्षा की पूरक हैं पर उनसे कहीं अधिक महत्व रख रही हैं.
दूसरी ओर इनसे परे मानविकी और कला अध्ययन के क्षेत्र पूरी तरह उपेक्षित होते जा रहे हैं. ये विषय अक्सर प्रतिभाशाली छात्रों की मजबूरी की आखिरी पसंद हुआ करते हैं पर इनकी ओर आकषर्ण का आधार आर्थिक होता है. पर ऐसा सोचते हुए हम सामाजिक और सांस्कृतिक समृद्धि और संपन्नता को भूल जाते हैं. हमें अच्छे राजनेता भी चाहिए और साथ ही कल्पनाशील लेखक, कवि, समाज वैज्ञानिक, समाजसेवी और कलाकार भी. जीवन में उत्कृष्टता पाने के व्यापक अवसर हैं, जिनकी ओर ध्यान देना जरूरी है. विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्रों में अंधी दौड़ से बहुत बड़ी संख्या में युवाओं को कुंठा और नकारात्मक मनोदशा का सामना करना पड़ रहा है.
गौरतलब है कि आज कॉरपोरेट के वर्चस्व के फलस्वरूप कॉरपोरेट दुनिया विश्वविद्यालयों को अपने नियंत्रण में ले रही है. लगभग सभी बड़े घराने विश्वविद्यालय और उच्च संस्थान खोले जा रहे हैं. दूसरी ओर सरकारी विश्वविद्यालयों की स्थिति बिगड़ती जा रही है. इस माहौल में अकादमिक नीतियां इस तरह बदल रही हैं, जिसके चलते मानविकी दोयम दर्जे का अध्ययन विषय होता जा रहा है. नैतिक और पूर्ण मनुष्य की अवधारणा को छोड़ अनजाने में ही हम बाजार के हिसाबी आदमी को ही मानक मान बैठे जिसका बड़ा सीमित दायरा है. आज जिस तेजी से मनुष्य का नैतिक संतुलन बिगड़ रहा है, और मानवीय पक्ष तिरोहित होता जा रहा है.जब शिक्षा अभिजात वर्ग के हाथ में पहुंचती है, बाजार-प्रेरित हो जाती है, तो सभ्यता की त्रासदी स्वाभाविक है. ऐसे में जब माता-पिता और छात्र पाठय़क्रमों को आजीविका हेतु उपयुक्तता के लिए जांचते हैं, तो मानविकी और कला जैसे विषय बुरे और फीके नजर आते हैं. सवाल उठता है कि क्या आर्थिक प्रगति ही जीवन के अच्छे ढंग का मापक है? मानविकी और समाज विज्ञानों का क्षरण जनतंत्र के लिए भी खतरनाक है. इतिहास, राजनीति और दूसरे विषय आर्थिक सिद्धांतों की सोच के परे भी जाते हैं. वैश्विक नागरिकता और सांस्कृतिक संवेदना कला और मानविकी पर ही टिके होते हैं. इन सब के बिना समाज में विनाश की प्रवृत्तियां बढ़ेंगी. एकाधिकारवाद और कुछ के वर्चस्व, चाहे वह ज्ञान के क्षेत्र में ही क्यों न हो, श्रेयस्कर नहीं हैं. मुक्ति और न्याय के साथ नवाचार पर भी बल देना जरूरी है. जब तक हम ज्ञान की विविधता खासकर मानविकी, कला और सामाजिक विज्ञानों को सबल नहीं करेंगे तब तक टिकाऊ उच्च शिक्षा, जो आज की चुनौतियों को समझ सके, असंभव होगी. स्वतंत्रता और सांस्कृतिक जागरण के लिए शिक्षा के महत्व को सभी जानते-मानते हैं. जरूरी है कि लोक की आकांक्षा और आवश्यकता को अभिव्यक्ति दी जाए. ऐसी शिक्षा जिसमें गतिशीलता और नवाचार के लिए खुलापन हो, सांस्कृतिक संवेदना के साथ आत्मबोध का विकास हो व्यापक संलग्नता और सामाजिक दायित्व की दृष्टि से फलप्रद होगी. इस दृष्टि से शिक्षा नीति पर विचार आवश्यक है.