23-10-2019 (Important News Clippings)

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23 Oct 2019
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Date:23-10-19

सबकी अच्छी सेहत का लोक वित्त से वास्ता

यदि ‘कॉमन गुड्स फॉर हेल्थ’ की अवधारणा पर गंभीरतापूर्वक आगे बढ़ा जाए तो इसका राजकोषीय मोर्चे पर यकीनन सकारात्मक असर देखने को मिलेगा।

अजय शाह

स्वास्थ्य नीति को लेकर पुरातन विचार बचाव और उपचार के बीच का तनाव है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि ‘कॉमन गुड्स फॉर हेल्थ’ की दिशा में और अधिक कदम उठाए जाएं। यानी जनसंख्या के आकार के मुताबिक हस्तक्षेप किए जाएं जिससे बीमारियों का बोझ कम हो। यह सर्वव्यापी बीमारियों तथा हवा की गुणवत्ता के नए खतरों के रूप में हमारे सामने है। देश में पारंपरिक जन स्वास्थ्य के अधूरे एजेंडे में भी इसे महसूस किया जा सकता है। स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले व्यय के कारण सरकार के बढ़ते राजकोषीय खर्च को देखते हुए अब यह आवश्यकता आन पड़ी है कि इन व्यापक जन समुदाय से जुड़े हस्तक्षेपों को देखते हुए व्यापक राजकोषीय प्रोत्साहन दिया जाए।

स्वास्थ्य नीति के मूल में बचाव बनाम स्वास्थ्य की बहस है। एक ओर जहां स्वास्थ्य सेवा से जुड़ा समुदाय लोगों के उपचार पर केंद्रित रहता है, वहीं ऐसी तमाम वजह हैं जो उपचार के बजाय बचाव को केंद्र में रखती हैं। आम व्यक्ति की दृष्टि से देखा जाए तो बेहतर यही माना जाता है कि बीमार पड़ा ही न जाए। हाल के वर्षों में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘कॉमन गुड्स फॉर हेल्थ’ नामक परियोजना शुरू की जिसका लक्ष्य है आबादी आधारित जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में बुनियादी तौर पर नई ऊर्जा का संचार करना। सार्वजनिक आर्थिकी की तकनीकी भाषा में यह सार्वजनिक बेहतरी के क्षेत्र में बाजार की तथा अन्य बाह्य विफलताओं को कवर करता है। ‘कॉमन गुड्स फॉर हेल्थ’ एक अच्छा कथन है जिसे आसानी से समझा जा सकता है और यह जन स्वास्थ्य से जुड़े लगभग सार्वभौमिकता के भ्रम को समाप्त करता है।

इबोला जैसी वैश्विक महामारियों, देश में हवा की खराब गुणवत्ता अथवा जलवायु परिवर्तन के कारण पर्यावरण में आ रही गिरावट के दुष्परिणामों पर विचार कीजिए। ये सभी अपने आप में बेहद बड़ी समस्याओं में शामिल हैं। ये लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाली हैं। अगर हम केवल स्वास्थ्य सेवाओं पर केंद्रित रहे तो यह प्रतिक्रिया अपर्याप्त मानी जाएगी। हम इबोला जैसी महामारी या उत्तर भारत में हवा की खराब गुणवत्ता के शिकार लोगों को केवल इलाज करके ठीक नहीं कर सकते बल्कि हमें आगे बढ़कर इन समस्याओं की जड़ पर प्रहार करना होगा।

इसके लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य की बुनियाद मजबूत करनी होगी। उदाहरण के लिए वैश्विक महामारियों से सबसे अच्छा बचाव यह है कि संचारी रोगों से निपटने के लिए जन स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा मजबूत हो। इसमें बीमारियों की निगरानी की व्यवस्था, आपातकालीन प्रतिक्रिया, टीकाकरण आदि शामिल हैं। दुनिया भर में राजनीतिक और शासन तंत्र आपात परिस्थितियों को प्राथमिकता देते हैं। ऐसे में इन बुनियादों की अनदेखी की जाती है। चिकित्सक, राजनेता और पीडि़तों को स्वास्थ्य सेवाओं का मोल नजर आता है जबकि नजर न आने वाले जन स्वास्थ्य के काम सामने नहीं दिखते जिनमें लोगों के बीमार न पडऩे पर जोर दिया जाता है।

भारत में अभी जन स्वास्थ्य के पुराने एजेंडे पर काफी कुछ किया जाना शेष है। इसमें जल और स्वच्छता, संचारी रोगों की निगरानी और महामारियों अथवा प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की संस्थागत क्षमता विकसित करना जरूरी है। आज जो परिस्थितियां मौजूद हैं उन पर नए सिरे से दृष्टि डालें तो वायु गुणवत्ता, सड़क सुरक्षा, औषधि सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, जल प्रदूषण और जीवाणु प्रतिरोध के रूप में इसमें नए तत्त्व शामिल हो रहे हैं।

कॉमन गुड्स फॉर हेल्थ और सार्वजनिक वित्त के बीच रोचक संबंध है। सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार से लोगों के बीमार होने में कमी आएगी। इससे स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला व्यय कम होगा और साथ ही सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर पडऩे वाला राजकोषीय दबाव भी सीमित होगा। इससे दुनिया भर की सरकारों द्वारा इसे दी जा रही तवज्जो का औचित्य समझ में आता है। ये सरकारें स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत अधिक धन व्यय कर रही हैं। सरकार किसी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता को धन दे या बीमा कंपनी को दे लेकिन आखिरकार इस भुगतान का संबंध स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ा रहता है। ऐसे में कॉमन गुड्स फॉर हेल्थ के लिए काम करना इन सेवाओं के लिए वित्तीय सुविधा को मजबूत करने और सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा की व्यवहार्यता के लिए बुनियाद के पत्थर का काम करेगा।

भारत की बात करें तो देश में सरकार समर्थित कई बीमा योजनाओं के आगमन के बाद सरकार के स्वास्थ्य सेवा खर्च में काफी बढ़ोतरी हुई है। ऐसे में इस तरह का रुख अपनाकर इस व्यय तथा राजकोषीय जोखिम को कम किया जा सकता है। उक्त एजेंडा कई मंत्रालयों के और एजेंसियों के बीच विस्तारित है। उदाहरण के लिए हवा की गुणवत्ता या सड़क सुरक्षा जैसी समस्याओं का स्वास्थ्य सेवा व्यय पर काफी अधिक असर पड़ता है। जबकि ये समस्याएं स्वास्थ्य मंत्रालय के दायरे में नहीं आतीं। ऐसे में एक समन्वय प्रणाली की आवश्यकता है ताकि इनसे जुड़ी तमाम जवाबदेहियों का मिलजुलकर निर्वहन किया जा सके। यह काफी हद वैसा ही है जैसे बड़ी आपदाओं से निपटा जाता है।

मान लेते हैं कि हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां स्वास्थ्य सेवाएं एकदम दुरुस्त तरीके से काम करती हैं। वहां भी उक्त रुख की आवश्यकता है क्योंकि लोग अगर बीमार ही न पड़ें तो यह उनके लिए अधिक बेहतर है। हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में तमाम चुनौतियां हैं। इसके चलते यहां कॉमन गुड्स फॉर हेल्थ की जरूरत भी अधिक है। कोई व्यक्ति खराब चिकित्सा प्रणाली में जाए, उससे बेहतर है कि वह बीमार ही नहीं पड़े। अगर लोग बीमार नहीं पड़ेंगे तो सरकार पर पडऩे वाला वित्तीय बोझ भी पहले की तुलना में काफी कम होगा।

वैश्विक स्वास्थ्य नीति की बात की जाए तो अल्पावधि में इसमें कोई बदलाव आता नहीं दिखता। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ‘कॉमन गुड्स फॉर हेल्थ’ परियोजना की बात करें तो यह यह सही दिशा में उठाया गया कदम है। माना जा सकता है कि यह विश्व व्यापी स्तर पर स्वास्थ्य नीतियों में बदलाव लाने वाला साबित होगा। भारत जैसे देश में जहां पारंपरिक जन स्वास्थ्य एजेंडे पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है और जहां बीमारियों का बोझ बहुत अधिक है, वहां यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।


Date:23-10-19

समाज को संयत होकर सच का सामना करना होगा

संपादकीय

कुछ अन्तर्जात सत्य को छोड़कर, जैसे शांति व प्रेम का संचरण और क्रोध व घृणा का परित्याग, सभी अन्य सत्य दिक्-काल सापेक्ष होते हैं। सत्य को देखने के अनेक दृष्टिकोण होते हैं और हर कोण से और हर काल में यह सत्य बदला नज़र आता है इसीलिए जरूरत होती है निष्पक्ष अदालतों की और उनके माध्यम से निरपेक्ष सत्य को जानने की। लेकिन चूंकि अदालतें भी मानव-संचालित हैं लिहाजा अक्सर उनका सत्य भी नीचे से ऊपर अदालत-दर-अदालत और बेंच-दर-बेंच बदलता रहता है। फिर भी समाज से अपेक्षित होता है कि अंतिम तौर पर अदालत के फैसले को ही सत्य माने भले ही वह आपके सत्य से इतर हो। अयोध्या विवाद पर आज 135 साल बाद भी अंतिम फैसला नहीं आ सका है। 1886 में फैजाबाद के जिला जज एफईए शैमियर ने फैसले में लिखा था, ‘हिन्दु जिसे अपना पवित्र स्थल मानते हैं उस पर मस्जिद की इमारत बेहद अफसोस की बात है लेकिन, चूंकि इस घटना को 358 साल हो चुके हैं, इसे अब बदला नहीं जा सकता। उस फैसले के बाद आज तक दोनों पक्ष, हिन्दू और मुसलमान अंतिम फैसले के अभाव में लड़ते रहे और अंत में इमारत भी ढहा दी गई। अब जब फैसला कुछ ही दिनों में सामने होगा यह दायित्व होगा सभी पक्षों का और लोगों का कि इसे ईश्वरीय वचन जैसा सम्मान देते हुए शिरोधार्य करें। अगर कोई एक पक्ष जरूरत से ज्यादा खुशी का इजहार करता है तो वह दूसरे पक्ष की ‘हार में घी’ डालने का काम करेगा जो समाज में शांति के अंतर्जात सत्य के खिलाफ होगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि प्रजातंत्र में सत्य जानने का अन्य कोई भी माध्यम नहीं है, संसद भी नहीं, क्योंकि केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने संसद की भी सीमा तय की है इस आधारभूत संरचना के सिद्धांत के तहत। कोई भी संसद मात्र बहुमत के सहारे कोई भी कानून बना दे यह धर्मनिरपेक्षता के आधारभूत सिद्धांत के खिलाफ होगा। लिहाजा आज के दौर में एक सभ्य समाज से अपेक्षा होती है कि फैसला आने के बाद दोनों में से भले ही किसी एक पक्ष की जीत हो और दूसरे की हार, लेकिन खुशी और गम के अतिरेक में वह कानूनेतर कदम न उठाए। अगर भारत की संस्कृति और हिन्दू धर्म संयम और वसुधैवकुटुम्बकम के लिए जाने जाते हैं और इस्लाम के मायने ही शांति है तो उनके अनुयायियों की प्रतिबद्धता की परीक्षा भी इसी फैसले के बाद होनी है।


Date:23-10-19

आर्थिक महाशक्ति बनने की बातें बंद करें

जब तक करदाताओं की तुलना में गरीब मतदाता ज्यादा होंगे, तब तक वे ही आर्थिक नीतियों के केंद्र में होने चाहिए

शशि थरूर , पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार ने नीतियों में पलटकर उलटी दिशा में जाने के कई मामलों में उल्लेखनीय है आर्थिक नीति में बदलाव। भाजपा ने 2014 के चुनाव प्रचार में दक्षिण पंथी नीतियों का राग अलापा था, जिसमें ‘लोककल्याणवाद’ की आलोचना की गई। कुछ टिप्पणीकारों ने इसे तो इसे कांग्रेस का ‘गरीबीवाद’ कहा था। तब की नीतियों को गरीबी बढ़ाने वाला बताकर उसकी आलोचना की गई। फिर मोदी खुद महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम (मनरेगा) का तिरस्कार करते थे। वहां से शुरू होकर अब हम ऐसे बिंदु पर पहुंचे हैं जहां मोदी सरकार की आर्थिक ‘उपलब्धियां’ सिर्फ गरीबों के लिए टॉयलेट बनाना, ग्रामीण महिलाओं के लिए गैस सिलेंडर उपलब्ध कराना और उसी मनरेगा के लिए आवंटित राशि बढ़ाना है। जाहिर है आ र्थिक नीति दिशा बदलकर फिर वहीं पहुंच गई है। मुझे इस पर आश्चर्य क्यों नहीं है? कारण सरल-सा है और यह मोदी से भी आगे जाता है फिर चाहे कभी-कभी उन्हें सुनकर ऐसा लगता है जैसे वे मानते हों कि भारतीय आर्थिक विकास का इतिहास उनसे ही शुरू होता है। यह कारण हमारी अर्थव्यवस्था के चरित्र में है, जो इतिहास से उपजा है।

भारत का आर्थिक विकास अनूठा है, क्योंकि हम महत्वपूर्ण आकार की एकमात्र ऐसी अर्थव्यवस्था हैं, जो लोकतंत्र के रूप में एकदम धरातल से विकसित हुई है। लगभग न कुछ से हमने शुरुआत की। हम 1700 में दुनिया में सबसे धनी देश थे, जब वैश्विक जीडीपी में भारत का योगदान 27 फीसदी था। लेकिन जब अंग्रेज 1947 में भारत से गए तो उन्होंने वैश्विक जीडीपी में सिर्फ 3 फीसदी योगदान के साथ हमें तीसरी दुनिया की गरीबी का ‘पोस्टर चाइल्ड’ बनाकर रख दिया था। तब साक्षरता दर मात्र 16 फीसदी (महिलाओं के लिए 8.8 फीसदी), औसत अपेक्षित आयु दयनीय रूप से 27 वर्ष थी और 90 फीसदी आबादी ऐसी दारुण स्थितियों में रहती थी, जिसे हम आज गरीबी रेखा कहेंगे। ऐसी भीषण स्थिति से हमारी अर्थव्यवस्था को विकसित करना ही कोई साधारण काम नहीं था लेकिन, लोकतंत्र के रूप में इसे कर दिखाना तो अद्वितीय यानी असाधारण काम था। जब दारुण गरीबी को देखते हुए तेजी से फैसले लेने की जररूत थी, तब हमने अपेक्षाकृत धीमी निर्णय प्रक्रिया वाली लोकतांत्रिक पद्धति अपनाकर आर्थिक बदलाव लाकर दिखाया। यह अनूठी बात थी।

जब किसी लोकतंत्र में आर्थिक नीति के विकल्प चुने जाते हैं, तो यह याद रखा जाना चाहिए कि उसमें मतदाताओं के हितों का प्रभुत्व होना चाहिए और भारत में हम यह ऐसे लोकतंत्र में करते हैं, जिसमें बहुसंख्यक मतदाता गरीब हैं। आज भी हर लोकसभा सांसद ऐसे मतदाता वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें अधिकांश मतदाता विश्व बैंक की 2 डॉलर (140 रुपए) प्रतिदिन की गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। जाहिर है हमारी आर्थिक नीतियां उनके अनुकूल और गरीबों का दर्जा बढ़ाने की दिशा में होनी चाहिए।

ज्यादातर अन्य लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं ने पहले विकास किया और फिर लोकतंत्र अपनाया। औद्योगिक क्रांति के दौरान जब ज्यादातर पश्चिमी लोकतंत्रों ने फूलना-फलना शुरू किया तो मतदान का सार्वभौमिक अधिकार नहीं था। पहले विश्वयुद्ध के बाद तक पश्चिमी देशों ने महिलाओं को मतदान का अधिकार नहीं दिया। अमेरिका में अश्वेतों और ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के काफी बाद में जब वे विकसित देश के दर्जे पर पहुंच गए तब गरीबों को मतदान का अधिकार दिया गया। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 20वीं सदी के पूर्वार्ध के अन्य औद्योगिक दिग्गज जैसे जर्मनी और जापान जब विकसित हो रहे थे तो वहां लोकतंत्र नहीं था। साफ है कि तीव्र आर्थिक प्रगति और समृद्धि हासिल करने के लिए उन्हें लोकतांत्रिक पद्धति ठीक नहीं लगी और उन्होंने पहले समृद्धि हासिल की, उसके बाद लोकतंत्र को पूरी तरह अपनाया।

ज्यादातर लोकतंत्रों में आर्थिक नीतियां करदाताओं की इच्छाओं से संचालित होती हैं और उनका पैसा कैसे खर्च किया जाए इसमें वे अपनी बात मनवाना चाहते हैं। वैसे भी उन देशों में ज्यादातर मतदाता करदाता होते हैं। हालांकि, भारत में आर्थिक नीतियां मोटेतौर पर करदाता की बजाय गरीबों के हितों के हिसाब से तय होता हैं, क्योंकि करदाता तुलनात्मक रूप से थोड़े (कुल मतदाताओं के 5 फीसदी से कम) ही होते हैं और कर न देने वाले लोगों के पास अधिक वोट होते हैं। लोकतंत्र में राजनेता की जवाबदेही अपरिहार्य रूप से अल्पसंख्यक करदाताओं की बजाय बहुसंख्यक मतदाताओं के प्रति होती है। इस तरह यह फिर भारतीय आर्थिक नीति निर्धारण का विशिष्ट चरित्र है। इसीलिए मोदी को अपनी आर्थिक नीतियां बदलनी पड़ी। उनके नारे और वाक्पटुता देश को कहीं नहीं ले जा रहे हैं। यदि आपको चुनाव जीतना है तो आपकी प्राथमिकता में गरीब होना ही चाहिए।

बेशक, जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था बढ़ेगी और करदाताओं का आधार विस्तार पाएगा, यह स्थिति बदलेगी। भारत के समृद्ध हिस्सों में करदाता आर्थिक नीति निर्धारण पर अधिक प्रभाव डालने में सक्षम होंगे, क्योंकि चुनाव की दृष्टि से उनकी संख्या का महत्व बढ़ जाएगा। लेकिन, वह बहुत लंबे समय की बात है। आज तो आर्थिक महाशक्ति बनने की सारी बातें बंद कर देनी चाहिए। हम अब भी महा-गरीब हैं और यदि हमारी सरकारों को बने रहना है और फिर निर्वाचित होना है तो बेहतर होगा कि वे इस बात को समझें।


Date:23-10-19

सही तथ्यों के साथ लिखा जाए इतिहास

भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन होना ही चाहिए। हमें ऐसा इतिहास लिखने की जरूरत है, जो तथ्यों से न्याय करे।

ए. सूर्यप्रकाश , (लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

आजादी के बाद छह दशक तक देश में ‘लुटियन समूह का बोलबाला रहा। इसमें नेहरूवादी-मार्क्सवादी और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों का जमावड़ा रहा जो कुछ असहमतियों के बावजूद वैचारिक सहोदर हैं। उन्होंने स्कूली पाठ्यक्रम से लेकर लोक नीतियों और इतिहास लेखन तक को प्रभावित किया। अपने इस प्रभाव से वे ऐसा झूठा विमर्श खड़ा करने में सफल रहे, जिसने भारतीय सभ्यता पर प्रहार करते हुए उसे लगातार कमजोर किया, ताकि वह समय के साथ विस्मृत होती जाए। इससे वे स्वतंत्रता के बाद जन्मीं भारत की तीन पीढ़ियों को उनकी स्वर्णिम विरासत से दूर रखने में सफल रहे। इस मोर्चे पर सबसे ज्यादा नुकसान वामपंथी नेताओं, नौकरशाहों व अकादमिक तबके ने किया। उन्होंने स्कूली किताबों से लेकर इतिहास के उच्च अध्ययन पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु को विकृत किया। साथ ही ऐसे विधायी कदम उठाए और सरकारी नीतियां बनाईं, जिससे आम जनमानस अपनी खुद की संस्कृति व परंपराओं से परहेज करने लगा।

चूंकि देश की बहुसंख्यक आबादी हिंदू थी और सदियों से भारत की सभ्यतागत पहचान भी हिंदुत्व से जुड़ी थी तो इस छद्म धर्मनिरपेक्ष तबके की व्यापक योजना हिंदू विरोध ही बन गई। उसने हिंदुत्व से जुड़ी चीजों के प्रति नकारात्मकता और हिंदू विरोधी बातों को प्रोत्साहन देने का काम किया। नफरत और विरोध की इस आग का दायरा कई क्षेत्रों तक फैलता गया जिसमें वेदों, रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों का उपहास उड़ाना, योग और आयुर्वेद को खारिज करना और सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत की लानत-मलामत करना शामिल था। यह तबका 67 वर्षों तक अपनी इस मुहिम में सफल रहा। इसमें 1998-2004 के बीच राजग सरकार के छह साल का कार्यकाल भी शामिल है। सत्ता की कमान नरेंद्र मोदी के हाथों में आने के बाद ही वे अपनी नियति को प्राप्त हुए, जब 2014 में भारतीय जनता उनसे त्रस्त आ गई और उसने नेहरूवादी-मार्क्सवादी ब्रिगेड को उनके अड्डों से बेदखल करने का फैसला किया। वर्ष 2019 के आम चुनाव में जनता ने अपने उसी जनादेश को दोहराया। इसके साथ ही विमर्श बदलने की प्रक्रिया में निरंतरता का भाव आया और विश्व में प्राचीन भारतीय सभ्यता के अद्भुत योगदान को स्वीकारने और सराहने का सिलसिला शुरू हुआ।

जब भारतीय जनता ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि नेहरूवादी-मार्क्सवादी छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी तबके अब हाशिये पर होंगे, तब राष्ट्रीय गौरव की पुनर्स्थापना प्रक्रिया भी जरूर आरंभ की जानी चाहिए। गृहमंत्री अमित शाह द्वारा इतिहास के पुनर्लेखन के आह्वान को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। शाह ने तमाम उदाहरण गिनाए, मगर उन्होंने वीर सावरकर का विशेष उल्लेख किया, जिन्होंने 1857 को स्वतंत्रता के पहले संग्र्राम की संज्ञा दी थी, जबकि इतिहासकारों ने उसे अंग्र्रेजों के खिलाफ महज एक बगावत माना था।

शाह ने एकदम सही कहा कि हमें ऐसा इतिहास लिखना चाहिए, जो तथ्यों से न्याय करे। उदाहरण के लिए औरंगजेब की मिसाल लें। वर्ष 1669 में उसने अपने सेनापतियों को हिंदू मंदिरों के विध्वंस का आदेश दिया। इनमें काशी विश्वनाथ मंदिर, सोमनाथ मंदिर और मथुरा के बेहद पवित्र मंदिर शामिल थे। उसने मथुरा में मंदिर को ध्वस्त कर एक विशाल मस्जिद बनवाई और भगवान कृष्ण की मूर्ति को मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे दफ्न करा दिया, ताकि मुस्लिम श्रेष्ठता कायम हो सके।

औरंगजेब ऐसा शासक था जो हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम अपनाने वालों को सरकारी नौकरियां दिया करता था। सजा में छूट भी एक और लुभावनी पेशकश हुआ करती थी। हिंदुओं द्वारा मंगाई जानी वस्तुओं पर उसने कर सीमा बढ़ा दी और हिंदुओं पर जजिया कर भी थोप दिया। उसने सिख गुरुद्वारों को भी नहीं बख्शा। गुरु तेगबहादुर को गिरफ्तार कर प्रताड़ित किया और इस्लाम अपनाने से इनकार करने पर उनका सिर कलम करवा दिया। गुरु गोविंद सिंह के दौर में भी सिखों पर उसके जुल्म जारी रहे और उसने उनके बेटों की हत्या करा दी। ये औरंगजेब की कुछ करतूतें हैं। फिर भी तमाम इतिहासकारों ने इन तथ्यों की अनदेखी की और उसे एक ‘सेक्युलर छवि वाला व्यक्ति बताया। अगर विकृत इतिहास लेखन के लिए कोई पुरस्कार होता तो ऐसा इतिहास लिखने पर वह शर्तिया मिल जाता। क्या छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी दिल्ली के दिल में एक प्रमुख सड़क का नामकरण ऐसे आततायी के नाम पर करने के पीछे का तर्क बता पाएंगे?

भारत के कई छोटे-बड़े शहरों में तमाम सड़कों का नामकरण इस अपराधी शासक के नाम पर किया गया। ऐसा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि हिंदुत्व से नफरत करने वाले ही विमर्श गढ़ने की दिशा को नियंत्रित कर रहे थे। इसी तर्ज पर बाबर, हुमायूं और जहांगीर जैसे बर्बर जुल्म ढाने वालों को भी राष्ट्रीय राजधानी सहित देश के अन्य इलाकों में बहुत सम्मान दिया गया।

ऐसे अपराधियों से जुड़े प्रतीकों को कायम रखकर भारत कब तक सेक्युलर एवं लोकतांत्रिक राष्ट्र बना रह सकता है? यदि हमें संविधान की रक्षा करनी है और हम अपनी धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक परंपराओं को सहेजना चाहते हैं तो इतिहास की पुस्तकों में इस सच को शामिल करना होगा। हमारी लोक नीतियां भी संविधान के बुनियादी मूल्यों के आधार पर बननी चाहिए। इसका अर्थ है कि ऐसी भयावह स्मृतियों के अवशेषों को हमेशा के लिए दफ्न करना होगा। सौभाग्य से नई दिल्ली में औरंगजेब रोड का नाम बदलकर अब उसे बेहद सम्मानित पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर कर दिया गया है। औरंगजेब की श्रेणी में आने वाले दूसरे नामों के साथ भी यही सुलूक किया जाए। उनके साम्राज्य से जुड़े कड़वे सच और उनकी कट्टरता के किस्से स्कूली पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनने चाहिए। ऐसा करके ही सुनिश्चित किया जा सकता है कि भारत का भविष्य ऐसी कट्टरता में नहीं, बल्कि वास्तविक लोकतंत्र में निहित है जहां समता एवं समानता का सिद्धांत ही मूलमंत्र है।

भारत को बसेरा बनाने वाले फ्रांसीसी पत्रकार फ्रांसुआ गौशिए और बेल्यिजन विद्वान कोनार्ड एल्स्ट ने भारत की जनता को उस भारी धोखेबाजी को लेकर चेताया है जो वामपंथी सोच वाले नेता, अकादमिक और नौकरशाह आजादी के बाद से ही करते आ रहे हैं। गौशिए अरसे से भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की दुहाई दे रहे हैं। वहीं कोनार्ड एल्स्ट ने खासकर उन मार्क्सवादी इतिहासकारों को निशाना बनाया है, जिन्होंने हिंदू प्रतीकों को मिटाने की मुहिम चलाई और जिन्हें वामपंथी सोच वाले कथित सेक्युलर नेताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का साथ मिला। भारतीय राज्य ने भी इस मुहिम में सहयोग दिया। एल्स्ट का कहना है कि भारतीय अंग्र्रेजीदां अभिजात्य वर्ग के लिए भारतीय सभ्यता को तिलांजलि देना ही फैशन बन गया। गृहमंत्री की बातों का सार भी कुछ यही है।


Date:23-10-19

सोशल मीडिया पर लगाम

फेसबुक सरीखी नामी कंपनी ने डाटा चोरी के मामले में कितनी बार मिथ्या जानकारी देकर लोगों को भरमाने की कोशिश की है।

संपादकीय

यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए विभिन्न उच्च न्यायालयों में दायर याचिकाओं को अपने पास स्थानांतरित कर लिया। अब इन सभी याचिकाओं की सुनवाई वह स्वयं करेगा। इन याचिकाओं के संदर्भ में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया है कि उसकी ओर से अगले तीन माह में सोशल मीडिया संबंधी नियम तैयार कर लिए जाएंगे। इन नियमों के बारे में अभी कुछ कहना कठिन है, लेकिन ऐसे सवाल उठ खड़े होना स्वाभाविक है कि आखिर सरकार को ऐसे कोई नियम क्यों तैयार करने चाहिए? यह अंदेशा भी प्रकट किया जा रहा है कि कहीं नियम बनाकर सरकार सोशल मीडिया की निगरानी तो नहीं करने लगेगी? ऐसे सवाल और संदेह के बीच इस सच की अनदेखी नहीं की जा सकती कि पूरी दुनिया के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग एक गंभीर समस्या बना गया है। यह समस्या इसलिए और विकट हो गई है, क्योंकि सोशल मीडिया कंपनियां अपने प्लेटफॉर्म का दुरुपयोग रोकने के लिए कोई कारगर व्यवस्था नहीं कर रही हैैं। जब उनसे इसकी अपेक्षा की जाती है तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित करने का शोर मचने लगता है। यह शोर सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंच सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सोशल मीडिया के नियमन की कोई जरूरत नहीं। सच तो यह है कि इसकी जरूरत कहीं अधिक बढ़ गई है। इसका कारण यही है कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग सभ्य समाज के समक्ष गंभीर संकट पैदा कर रहा है।

सरकारों के साथ उसकी एजेंसियों के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकना कठिन हो रहा है। सरकारी एजेंसियों की ओर से सोशल मीडिया के बेजा इस्तेमाल को रोकने के जो थोड़े-बहुत उपाय किए गए हैैं वे इसलिए बेअसर साबित हो रहे हैैं, क्योंकि फर्जी एवं अधकचरी खबरों के जरिये दुष्प्रचार अभियान चलाने और सामाजिक ताने-बाने को क्षति पहुंचाने अथवा किसी को बदनाम करने वाला एक संगठित उद्योग खड़ा हो चुका है। यह एक ऐसा उद्योग है जो लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा बन रहा है। आखिर कौन भूल सकता है कैंब्रिज एनालिटिका नामक कंपनी की उस कारस्तानी को जिसने फेसबुक का डाटा चोरी कर कई देशों के चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश की थी? ऐसे व्यापक छल-कपट को देखते हुए यह आशा करना व्यर्थ है कि सरकारें सोशल मीडिया का नियमन करने के कोई उपाय न करें। नियमन की जरूरत इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि सोशल मीडिया कंपनियां अपनी जिम्मेदारी समझने के लिए तैयार नहीं। इसकी गिनती करना कठिन है कि फेसबुक सरीखी नामी कंपनी ने डाटा चोरी के मामले में कितनी बार मिथ्या जानकारी देकर लोगों को भरमाने की कोशिश की है।


Date:22-10-19

इतिहास की फिक्र का वक्त

कृष्ण प्रताप सिंह

गत सोलह अक्टूबर को देश के सबसे बड़े न्यायालय ने देश के सबसे संवेदनशील रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की सुनवाई पूरी की तो वह उसके इतिहास की दूसरी सबसे लंबी चलने वाली सुनवाई बन चुकी थी। वह चल रही थी तो न्यायालय ने खुद के मध्यस्थता पैनल के नाकाम रहने के बावजूद पक्षकारों को आपसी सुलह-समझौते के प्रयास जारी रखने की छूट दे रखी थी। अलबत्ता, उनके प्रयासों के लिए सुनवाई रोकना गवारा नहीं किया था।

अब, सुनवाई खत्म हो जाने के बाद भी पक्षों के बीच दावेदारी छोड़ने और सुलह-समझौते के प्रस्तावों को लेकर आ रही खबरें यह जताने के लिए पर्याप्त हैं कि विवाद के ऊंट को इस या उस करवट बैठाने के लिए परदे के आगे-पीछे अभी भी बहुत कुछ चल रहा है। ऐसे में न्यायालय द्वारा सुरक्षित फैसले के, कई लोग जिसके 17 नवम्बर से पूर्व ही सुना दिए जाने की उम्मीद कर रहे हैं, इंतजार में बहुत संयम और समझदारी बरतने की जरूरत है। इसके कारण और भी हैं कि हम, भारत के आम लोग, लंबे अरसे से ऐसी सरकारों के दौर में हैं, जो ऐसे संयमों और समझदारियों पर अपने राजनीतिक फायदों वाली कार्रवाइयों को तरजीह देती हैं। ऐसा नहीं होता तो न अयोध्या का सर्वथा स्थानीय स्तर का यह विवाद समय के साथ विकराल होकर देश और उसकी व्यवस्था के लिए नासूर में बदलता और न उसकी हैसियत इतनी बढ़ती कि वह आधुनिक भारत के इतिहास का एक ऐसा पृष्ठ बन जाए, जो देश के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिंक माहौल के साथ उसकी बुनियादी लिखावट तक को बदल डाले।

अयोध्या का अतीत गवाह है कि वोटों के लिए धार्मिंक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों में कोई सीमा न मानने वाली राजनीति 1986 में इस विवाद के खात्मे के लिए उसके नागरिकों में हुई सर्वसम्मति के आड़े नहीं आती तो हम इसकी आड़ में ‘‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’ और ‘‘ईर-अल्ला तेरो नाम’ जैसी सदियों के अनुभवों से बनी सामाजिक मान्यताओं को लगातार संकटग्रस्त देखने को अभिशप्त नहीं होते। प्रसंगवश, 1986 में जिला न्यायालय के आदेश पर विवादित ढांचे में लगे ताले खोले जाने के बाद दोनों समुदायों के अयोध्यावासियों ने मिलकर इस विवाद को नासूर बनने से रोकने के लिए उसका ‘‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ वाला समाधान निकाल लिया था, लेकिन तब जिन्हें हिन्दुओं में आई चेतना का अपने राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल करना और उसके बूते देश की सत्ता में आना था, उन्होंने इस समाधान को विफल करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी। फिर तो आज की तारीख में किसे नहीं मालूम कि धर्मो और सम्प्रदायों का इस्तेमाल करने वाली उनकी राजनीति ने धर्मप्रधान कहे जाने वाले इस देश में कट्टरता के ऐसे बीज बोए कि ‘‘धर्म’ शब्द ही संदिग्ध लगने लगा। इतना ही नहीं, इस बहुधर्मी देश में एक धर्म को दूसरे के खिलाफ खड़ा करने और बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक जैसे विभाजनों को बढ़ाने वालों के मंसूबे भी फूलने-फलने लगे। धर्म को सबको साथ लेकर चलने का नाम बताने वालों को किनारे लगा दिया गया, सो अलग।

इन हालात में विवाद के न्यायिक फैसले को लेकर उत्सुकता बेहद स्वाभाविक है, लेकिन हमें नागरिकों के तौर पर उसके राजनीतिक और सामाजिक असर को लेकर भी सचेत रहने की जरूरत है। अच्छी बात यह है कि अयोध्या ने इसे लेकर हमेशा ही असीम धैर्य का परिचय दिया है। छह दिसम्बर, 1992 के ध्वंस को ही धर्म बना देने वाली कोशिशों को लेकर भी उसने आपा नहीं ही खोया। इस बार एक अच्छी बात यह भी हुई है कि अयोध्या की पुलिस फैसले के बाद अमन-चैन बनाए रखने को लेकर समय रहते सचेत हो गई है। उसके आला अधिकारी जिले के कस्बों और गांवों में चौपालों और गोष्ठियों में लोगों को समझा रहे हैं कि देश में कोई अदालत सर्वोच्च न्यायालय से बड़ी नहीं है। इसलिए उसका फैसला कुछ भी और किसी के भी पक्ष या विपक्ष में हो, सभी को उसका सम्मान करना है। लगे हाथ वे ये हिदायतें भी दे रहे हैं कि इस सिलसिले में किसी भी शरारत को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

और इस सिलसिले में पुलिस के पास एक बड़ी सुविधा यह है कि जो जमातें कभी यह कहती थीं कि यह कानूनी नहीं, आस्था का विवाद है, और इस कारण अदालतें इसका फैसला ही नहीं कर सकतीं, वे भी आज सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मानने की बात कह रही हैं। विवाद के पक्षकार तो खैर उसे न्यायालय ले ही इसीलिए गए हैं कि सर्वोच्च अदालत लंबे समय से चले आ रहे इस विवाद का एक बार में ही निपटारा कर दे। कह सकते हैं कि इस विवाद में सिर्फ अयोध्या ही कसौटी पर नहीं है। शेष देश से भी, जो पहले ही ऐसे मामलों के दूध से जला हुआ है, छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीने की अपेक्षा है। इस तय के मद्देनजर और भी कि छह दिसम्बर, 1992 को विवादित स्थल पर खड़े सैकड़ों साल पुराने ऐतिहासिक ढांचे को योजनाबद्ध अभियान चलाकर तोड़ डालने वालों को अभी तक दंड नहीं मिल पाया है। इस ढांचे के ध्वंस के कारण हमारा देश, दुनिया में कितना बदनाम हुआ, पिछड़ा और हमारे समाज के भीतर की दरारें कितनी गहरी हो गई, इसे इस फैसले की घड़ी में भी याद रखा जाना आवश्यक है।

इस कारण और भी कि अयोध्या विवाद पर आने वाले फैसले पर अपने देश की ही नहीं, बल्कि दुनिया भर की नजर भी रहेगी। वह न सिर्फ चुपचाप देखेगी, बल्कि अपने इतिहास में दर्ज करेगी कि भारत के बहुभाषी, बहुधर्मी समाज ने इस फैसले को किस तरह ग्रहण किया। किस तरह अपनी सर्वोच्च अदालत द्वारा दिए गए फैसले को शिरोधार्य किया। सोचिए जरा, कि इसके बावजूद हमने संयम नहीं बरता तो इतिहास में हमें कहां, कितनी और कैसी जगह मिल पाएगी? यकीनन, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की इस घड़ी में हमारे सामने अपने भावी इतिहास की फिक्र करने का वक्त आ खड़ा हुआ है। यह जताने का भी कि तमाम असहमतियों के बावजूद हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं और उनके फैसलों का कितना सम्मान करते हैं।


Date:22-10-19

GDP is a means, not an end

It is a way to create jobs, but the ultimate aim should be to raise the quality of life of the poorest person

Abhijit V. Banerjee & Esther Duflo

MIT economists Abhijit Banerjee and Esther Duflo, who, along with Michael Kremer, won the 2019 Nobel Prize for Economics for their “experimental approach to alleviating global poverty”, have published a new book, Good Economics for Hard Times. The book explains where the economy has failed, where ideology has blinded us, and where and why good economics is useful, especially in today’s world, write the authors in the preface. An excerpt:

Growth in India, like that in China, will slow. And there is no guarantee it will slow when India has reached the same level of per capita income as China. When China was at the same level of per capita GDP as India is today, it was growing at 12% per year, whereas India thinks of 8% as something to aspire to. If we were to extrapolate from that, India will plateau at a much lower level of per capita GDP than China. The growth tide does raise all boats, but it doesn’t lift all boats to the same level — many economists worry that there may be such a thing as the middle income trap, an intermediate-level GDP where countries get stuck or nearly stuck. According to the World Bank, of 101 middle-income economies in 1960, only 13 had become high income by 2008. Malaysia, Thailand, Egypt, Mexico and Peru all seem to have trouble moving up.

Of course, there are many pitfalls in any such extrapolation, and India should treat it as what it is: no more than a warning. It is quite possible that India’s growth, in spite of all its problems, has very little to do with some special Indian genius. Instead, it has a lot to do with the flip side of misallocation: the opportunities of being an economy with a large pool of potential entrepreneurs to draw upon and lots of unexploited opportunities.

Anti-poor, pro-rich policies

If this is the right story, India should start to worry about what happens when those opportunities begin to run out. Unfortunately, just as we don’t know much about how to make growth happen, we know very little about why some countries get stuck but others don’t — why South Korea kept growing but Mexico did not — or how one gets out. One very real danger is that in trying to hold on to fast growth, India (and other countries facing sharply slowing growth) will veer towards policies that hurt the poor now in the name of future growth. The need to be “business friendly” to preserve growth may be interpreted, as it was in the U.S. and U.K. in the Reagan-Thatcher era, as open season for all kinds of anti-poor, pro-rich policies (such as bailouts for over indebted corporations and wealthy individuals) that enrich the top earners at the cost of everyone else, and do nothing for growth.

If the U.S. and U.K. experience is any guide, asking the poor to tighten their belts, in the hope that giveaways to the rich will eventually trickle down, does nothing for growth and even less for the poor. If anything, the explosion of inequality in an economy no longer growing has the risk of being very bad news for growth, because the political backlash leads to the election of populist leaders touting miracle solutions that rarely work and often lead to Venezuela-style disasters.

Interestingly, even the IMF, so long the bastion of growth-first orthodoxy, now recognises that sacrificing the poor to promote growth was bad policy. It now requires its country teams to include inequality in factors to take into consideration when providing policy guidance to countries and outlining conditions under which they can receive IMF assistance.

The ultimate goal

The key, ultimately, is to not lose sight of the fact that GDP is a means and not an end. A useful means, no doubt, especially when it creates jobs or raises wages or plumps the government budget so it can redistribute more. But the ultimate goal remains one of raising the quality of life of the average person and especially the worst-off person. And quality of life means more than just consumption. While better lives are indeed partly about being able to consume more, even very poor people also care about the health of their parents, about educating their children, about having their voices heard, and about being able to pursue their dreams. A higher GDP may be one way in which this can be given to the poor, but it is only one of the ways, and there is no presumption that it is always the best one.

Elusive growth

The bottom line is that despite the best efforts of generations of economists, the deep mechanisms of persistent economic growth remain elusive. No one knows if growth will pick up again in rich countries, or what to do to make it more likely. The good news is that we do have things to do in the meantime: there is a lot that both poor and rich countries could do to get rid of the most egregious sources of waste in their economy. While these things may not propel countries to permanently faster growth, they could dramatically improve the welfare of their citizens. Moreover, while we do not know when the growth locomotive will start, if and when it does, the poor will be more likely to hop onto that train if they are in decent health, can read and write, and can think beyond their immediate circumstances. It may not be an accident that many of the winners of globalisation were ex-communist countries that had invested heavily in the human capital of their populations in the communist years (China, Vietnam) or countries threatened with communism that had pursued similar policies for that reason (Taiwan, South Korea). The best bet, therefore, for a country like India is to attempt to do things that can make the quality of life better for its citizens with the resources it already has: improving education, health and the functioning of the courts and the banks, and building better infrastructure (better roads and more liveable cities, for example).

For the world of policymakers, this perspective suggests that a clear focus on the well-being of the poorest offers the possibility of transforming millions of lives much more profoundly than we could by finding the recipe to increase growth from 2% to 2.3% in the rich countries.


 

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