23-06-2018 (Important News Clippings)
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Date:23-06-18
गठबंधन की गांठें
टी. एन. नाइनन
जो विविध शक्तियां नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता से बाहर करने के लिए प्रयासरत हैं, उन्हें विपक्षी एकता का महत्त्व समझ में आ चुका है। परंतु जम्मू कश्मीर में भाजपा और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) का अलगाव यह दिखाता है कि अक्सर गठबंधन बनाना आसान होता है लेकिन उसे बरकरार रखना मुश्किल। पहला राष्ट्रीय गठबंधन सन 1971 में हुआ था जब पांच दलों ने मिलकर विभाजित कांग्रेस के इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले धड़े का मुकाबला किया। इंदिरा का कहना था कि यह ‘महागठबंधन’ उन्हें हटाने पर केंद्रित था जबकि उनका ध्यान गरीबी हटाने पर था। मतदाताओं ने उनकी बात मान ली। उन्हें कुल मतों में 44 फीसदी की हिस्सेदारी मिली जबकि गठबंधन में शामिल दलों को केवल 24 फीसदी मत मिले। लोकसभा में भी इंदिरा को दो तिहाई सीटों पर जीत मिली।
परंतु दूसरी बार मामला इसके उलट रहा। आपातकाल के अनुभव के बाद उत्तर भारत के अधिकांश मतदाता कांग्रेस के खिलाफ खड़े किसी भी उम्मीदवार को वोट देने के लिए तैयार थे। उन आम चुनावों में कांग्रेस की मत हिस्सेदारी घटकर 35 फीसदी पर आ गई जबकि सन 1971 के गठबंधन के समान दलों से बनी नई नवेली जनता पार्टी को 43 फीसदी मत मिले। उसे कांग्रेस की 153 के मुकाबले तकरीबन दोगुनी लोकसभा सीट मिलीं। पार्टी ने 298 सीटों पर जीत हासिल की। इसके बावजूद यह सरकार आधा कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाई। हाल के वर्षों में कांग्रेस के नेतृत्व वाली दो गठबंधन सरकारों ने कार्यकाल पूरा किया। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व वाली ये सरकारें नीतिगत पंगुता और भ्रष्टïाचार का पर्याय बन गई थीं क्योंकि गठबंधन के कुछ साझेदार दलों ने मनमाने ढंग से काम किया।
अल्पमत सरकारों ने गठबंधन की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। इंदिरा गांधी की सन 1969 के बाद की सरकार, नरसिंह राव की सरकार और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार, सभी अल्पमत में थीं लेकिन बची रहीं और उन्होंने बहुत अच्छा काम किया। ये उदाहरण बताते हैं कि सन 2019 के आम चुनाव में और उसके बाद विपक्षी गठबंधन की संभावनाएं बहुत उज्ज्वल नहीं हैं। सरकार की लोकप्रियता में कमी आई है लेकिन प्रधानमंत्री का कद अभी भी काफी ऊंचा है। ठीक 1971 की तरह। हां, अगले वर्ष अगर कोई विपक्षी गठबंधन बनता है तो वह सन 1971 से बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद कर सकता है लेकिन वह सन 1977 का प्रदर्शन दोहरा नहीं पाएगा। इसलिए कि सन 1977 में मतदाताओं को कांग्रेस को हटाने के लिए किसी अन्य वजह की जरूरत नहीं थी। विपक्षी दलों को केवल अपने प्रत्याशी खड़े करने थे। आज भी कुछ मतदाताओं के लिए ऐसी स्थिति हो सकती है लेकिन सन 1977 को दोहराया नहीं जा सकता है क्योंकि उस वक्त कांग्रेस को पूरे उत्तर भारत में एक सीट छोड़कर प्रत्येक पर पराजय का सामना करना पड़ा था। यानी 2019 में 1977 का दोहराव नहीं होगा। अगर जीत मिलती भी है तो वह आसान नहीं होगी। बचाव की भावना ही इन अलग-अलग दलों को एक साथ लाई है और कुछ नहीं। इनके व्यक्तित्व आपस में मेल नहीं खाते। मतदाता आधार के मामले में भी इनमें काफी घालमेल है।
हर नेता अपने आपको प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानकर चल रहा है। भाजपा को इन सब बातों का फायदा मिल सकता है। ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस को सन 1979 में जनता पार्टी और 1990 में वीपी सिंह के जनता दल में फूट से मिला था। राज्यों की हकीकत भी दिलचस्प है। कांग्रेस दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ रिश्ता नहीं रखना चाहती। महाराष्ट्र में वह शिवसेना के साथ नहीं आ सकती। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस वाम दलों के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोडऩा चाहती। आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम कांग्रेस को जरा सी जगह नहीं देगी। संभावना यही है कि महागठबंधन राज्यों के नेताओं का जबरदस्त मोलभाव वाला संघ होगा जहां हमेशा तनाव रहेगा। अहम बात यह है कि सरकार में शामिल दल साथ बने रहते हैं, अगर उनको पता हो कि वे अपने दम पर गठबंधन से निकलकर सरकार नहीं बना सकते। इसमें प्रमुख दल की मजबूती की अहम भूमिका होती है। वह स्वाभाविक तौर पर समूह का नेता और उसे जोड़े रखने वाला होता है। इनके अलावा एक ऐसे नेता की आवश्यकता होती है जो जटिल हालात में भी परिस्थितियों पर काबू रख सके। चूंकि ऐसा नेता भी नहीं है इसलिए इस बात पर दांव होगा कि मोदी विरोधी सरकार बनी भी तो भाजपा-पीडीपी सरकार से ज्यादा नहीं चलेगी। उसके बाद क्या सन 1980 में इंदिरा गांधी की तरह मोदी की भी वापसी होगी?
Date:22-06-18
अमेरिका का मानवाधिकार
संपादकीय
दुनिया में मानवाधिकारों का सबसे बड़ा पैरोकार होने का दावा करने वाले अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद से नाता तोड़ लिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का इस तरह का अचानक लिया गया फैसला पूरे विश्व समुदाय को हैरान करने वाला है। इजराइल को मुद्दा बना कर अमेरिका इस हद तक भी जा सकता है, किसी ने सोचा न होगा। अमेरिका का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र की यह संस्था अब भरोसे के काबिल नहीं रह गई है, बल्कि इसका चाल-चरित्र दोहरे मानदंडों वाला है; यह संस्था एक पाखंड से ज्यादा कुछ नहीं है। परिषद पर जिस तरह के गंभीर आरोप लगाए गए हैं उनसे इसकी छवि को धक्का तो लगा है, लेकिन पूरी दुनिया जान रही है कि ऐसा करने के पीछे अमेरिका की मंशा क्या है। इसलिए अमेरिका के इस कदम से मानवाधिकार परिषद की साख पर कोई आंच नहीं आने वाली, यह तय है। अमेरिका का यह कहना कि मानवाधिकारों का हनन-उल्लंघन करने वालों को परिषद में जगह दी जा रही है, उसकी परेशानी को बताता है।
दरअसल, अमेरिका चाहता है कि जिस तरह हर वैश्विक निकाय में वह अपनी दादागीरी चलाता है, वही यहां भी हो। मानवाधिकार परिषद से अमेरिका का ताजा टकराव तब हुआ जब परिषद ने मानवाधिकारों के मसले पर उसे ही कठघरे में खड़ कर दिया। दो दिन पहले ही परिषद ने अमेरिका-मैक्सिको सीमा पर बच्चों को अपने माता-पिता से अलग किए जाने के मामलों को लेकर ट्रंप की नीति की कड़ी आलोचना की। इससे अमेरिका बुरी तरह खिसिया गया और उलटे परिषद पर ही भेदभाव करने और पाखंड जैसे आरोप जड़ दिए। अमेरिका ने इसकी काट में मानवाधिकार परिषद को घेरते हुए इजराइल का मुद््दा उठा दिया। अमेरिका का कहना है कि परिषद राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है और ऐसे देशों की अनदेखी कर रही है जो मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं, जबकि इजराइल को जान-बूझ कर निशाने पर लिया जा रहा है। लेकिन अमेरिका का यह तर्क बेदम है। पूरी दुनिया देख रही है कि लंबे समय से इजराइल किस तरह से फिलस्तीन और गाजा में तांडव मचाए हुए है और उस पर अमेरिका का वरदहस्त है।
यह कोई पहला मौका नहीं है जब ट्रंप ने दुनिया को चौंकाया हो। इससे पहले ट्रंप ने पेरिस समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया था। ईरान समझौते को उन्होंने धता बता दी। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का मकसद दुनिया में मानवाधिकारों का हनन रोकना है। परिषद की पिछले साल की रिपोर्ट बताती है कि उनतीस देशों ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ कठोर कार्रवाई की थी और इनमें से नौ देश परिषद के सदस्य थे। तभी से संस्था पर सवाल उठने शुरू हुए। ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ की रिपोर्ट में वेनेजुएला, रवांडा, चीन जैसे मुल्कों पर मानवाधिकार हनन के आरोप लगाए गए। ये सभी देश भी मानवाधिकार परिषद के सदस्य हैं। अमेरिका ने ग्वांतानामो खाड़ी की जेल में बंदियों पर जो जुल्म ढाए, वे मानवता के नाम पर कलंक हैं। इराक की जेलों में बंदियों के साथ जो हुआ, क्या वह मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं था? सच्चाई यह है कि मानवाधिकारों के मसले पर अमेरिका खुद कठघरे में खड़ा है। लेकिन ट्रंप का ताजा फैसला तो संयुक्त राष्ट्र को ही कमजोर करने की कवायद माना जाएगा।
Date:22-06-18
Making children happy
We must redefine the purpose of school education
Eric Falt , [The writer is Director and UNESCO Representative of the UNESCO Cluster Office for India, Bangladesh, Bhutan, Nepal, the Maldives, and Sri Lanka]
In 2016, yoga was inscribed on UNESCO’s Representative List of the Intangible Cultural Heritage of Humanity. Thanks to a unanimous resolution of the UN General Assembly, the International Day of Yoga is also celebrated annually on June 21. Many schools in India have introduced yoga at early ages. One such school is the Rajkiya Pratibha Vikas Vidyalaya in Dwarka, Delhi. The principal says yoga improves students’ mental, emotional, physical and behavioural health: “Yoga is all about balance of mind, body and soul. It improves not only the health of the students but also their concentration.”
Growing scientific evidence suggests that yoga and mindfulness training allow young people to improve “self-regulation” — a psychological construct encompassing competencies such as the ability to control attention and emotions, avoid aggression, and engage in self-directed learning.
Over recent decades, access to education has expanded significantly throughout the world. Countries are increasingly achieving universal basic education, extending their coverage to secondary education. However, at the same time, there is a concern that education systems are becoming too competitive, stress-fuelled and exam-oriented. We are also witnessing rising trends of intolerance and violent extremism as well as increasing levels of anxiety and depression among the youth. Causes of these are many and complex, but there is an increasing consensus that something must be done to redefine the purpose of school education.
UNESCO promotes the notion that schools must provide an environment conducive to learning where children feel physically and mentally safe, encouraged to make and learn from mistakes, and be recognised and respected for their multiple talents apart from academic excellence. But these factors can be easily forgotten in a highly competitive environment. To tackle this issue, the UNESCO Asia-Pacific Regional Bureau for Education, based in Bangkok, has launched the Happy Schools Project, with the aim of promoting happiness in schools through enhanced learner well-being and holistic development. We are in the process of operationalising the Happy Schools framework, with the involvement of the UNESCO Mahatma Gandhi Institute of Education for Peace and Sustainable Development (MGIEP).
MGIEP is the first UNESCO institute of its kind in the Asia-Pacific region and is generously supported by the Indian government. It has developed a social and emotional learning (SEL) curriculum called Libre, which is designed to build four competencies – critical inquiry, mindfulness, empathy and compassion. School pilots of this curriculum start this year in India and Malaysia. We hope that this will pave a way for integrating SEL in school curricula as a vital component of making schools happier places.