24-06-2017 (Important News Clippings)

Afeias
24 Jun 2017
A+ A-

To Download Click Here.


Date:24-06-17

Young and the Restless

India’s demographic dividend can become a burden if left unattended

Rohan Chinchwadkar The writer is assistant professor, IIM Trichy
 
 Modinomics has been under the microscope ever since Prime Minister Narendra Modi demo netised 86% of India’s currency in circulation on November 8, 2016. Modinomics focuses on three Ds: democracy , demand and demographic dividend. While most of the world has been focused on the first two, it is the third D, demographic dividend, which holds the key to India’s future.

India is currently in a sweet spot, with its working-age population expected to grow by a third over the next three decades, at a time when China and Russia will see a fall of over 20% in the same period. India is also experiencing a youth bulge, with 41% of its population below 20 years old, according to the 2011census. India is expected to be the youngest country in the world by 2020. However, the window of opportunity for India’s demographic dividend is closing quickly .

The Economic Survey of India 2016-17 estimates that India’s demographic dividend will peak in the early 2020s. The average annual demographic dividend -the additional growth due to demographic factors alone -of the current decade is 2.6%, higher than an average of 1.7% over the next three decades. That being said, a large and young working-age population can translate into a demographic dividend only if it is productively employed. So, how successful has India been in reaping this dividend? Not very , according to the latest Employment and Unemployment Survey released by GoI’s Labour Bureau. India needs to create 10-12 million jobs every year to satisfy the needs of its young workingage population. According to the survey , job growth between 2012 and early 2016 was a measly five million.

The combination of a youth bulge and unemployment is dangerous and has serious implications for India and the world. In a speech at the Chicago Council on Global Affairs, journalist Fareed Zakaria said, “If you want to look at any society and see if it is in danger of trouble and instability , just look at how many young men there are.“ He also pointed out that both the French and Iranian revolutions were preceded by a youth bulge.

Gunning for Youth

Apart from domestic unrest, this situation also increases another risk: terrorist organisations getting a foothold in India. Till today, despite persistent efforts by terrorist organisations like al-Qaeda and the Islamic State, India has not seen large-scale radicalisation of any of its communities.In a report for the International Centre for Counter-Terrorism, ` AlQaeda in the Indian Subcontinent: A New Frontline in the Global Jihadist Movement?’ (goo.gls4Zqbi), Alastair Reed analyses the failure of al-Qaeda in India and says that its chances of success in the future “seem distant“.But large-scale youth unemployment, which is known to precede social turbulence leading up to `revolutions’, can be a significant threat to India’s economic, social and political stability .

Destabilisation of India, the world’s largest and fastest-growing democracy, will have adverse economic and political consequences for Asia and the West. The race for leadership in Asia is heating up. China is looking to shut out American influence in Asia and establish its supremacy using the Belt and Road Initiative. India is the only country that seems to be able en ough to counter the growing domina nce of the China-Pakistan axis and keep the US relevant in Asian affairs.Unfortunately , the surge of protec tionism across the western world is making India’s underemployment unemployment problem worse. A ca se in point is the tightening of H-1B vi sas under US President Donald Tru mp’s `Buy American, Hire American’ policy . This is expected to put pressu re on the viability of India’s IT indus try and lead to the largest retrench ment drive ever.

This issue will get high priority when Modi and Trump meet this com ing Monday in Washington. Modi’s initial vision, as he revealed in his 2014 Madison Square Garden speech in New York, was to transform India into a supplier of skilled workforce to the world. However, as rising protec tionism shrinks global employment opportunities, Modi will have to rely on domestic reforms to handle the approaching crisis.

A Job Well Done

Of course, unemployment has been a persistent and unsolved issue throughout India’s history . The Modi government deserves credit for pre-empting this trend and launching visionary schemes like Make in India and Startup India.But India’s rise in the global order relies heavily on the ability of Modinomics to realign itself and focus on fundamental reforms to actually create jobs on the ground.

At the same time, Trump has an important decision to make: maintain influence over Asia through a stable and prosperous India. Or create a few thousand technology jobs at home. He has made it abundantly clear that he doesn’t care about the Paris Agreement on climate change. China must be hoping that he feels the same way about New Delhi.


Date:24-06-17

राजनीतिक दलों में तरक्की के पैमाने तय हों

ऋत्विका भट्‌टाचार्य,सीईओ, स्वनीति इनिशिएटिव, फोर्ब्स की युवा आंत्रप्रेन्योर सूची में रही हैं (ये लेखिका के अपने विचार हैं।)

करीब सात माह पहले राम राजनीति में आने का सपना छोड़कर भोपाल से न्यूयॉर्क लौट गए। वे न्यूयॉर्क में एक निजी इक्विटी फर्म में पार्टनर हैं। वे ऐसे शख्स हैं, जो किसी भी एम्प्लायर का सपना हो सकता है। बहुत मेहनती, फोकस्ड और योजनाओं को अमल में लाने में माहिर। लेकिन, दस वर्ष निजी क्षेत्र में बिताने के बाद अब वे सार्वजनिक क्षेत्र में उतरने की भीतर की आवाज की और उपेक्षा नहीं कर सकते थे। अत: वे छह अंकों वाली तनख्वाह वाला जॉब छोड़कर अपने गृह-राज्य मध्यप्रदेश लौट आए ताकि चुनावी राजनीति में उतरकर लोकसेवा के सपने को जमीनी हकीकत बनाया जा सके।

राम एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल में शामिल हो गए। उन्होंने पार्टी की सोशल मीडिया टीम के विकास का नेतृत्व किया और पार्टी को अपनी ऑनलाइन कम्युनिकेशन की रणनीति पर पुनर्विचार करने पर मजबूर किया। लेकिन, यह सब उन्होंने तीन साल तक जमीनी राजनीति के माध्यम से किया और उसके बाद उन्हें अहसास हुअा कि समुदायों व लोगों को फायदा पहुंचाने से राजनीति का ज्यादा संबंध नहीं है। इसका संबंध तो व्यक्तिगत स्तर पर नेताओं की भावनाओं से है। उन्होंने तो चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिलने की भी उम्मीद छोड़ दी। इसके बाद उन्होंने न्यूयॉर्क की अपनी पुरानी ज़िंदगी में लौटने का फैसला कर लिया। इस तरह देश ने ऐसा असाधारण नेता खो दिया,जो जमीन पर वास्तविक फर्क ला सकता था। दुर्भाग्य से हमारी राजनीतिक व्यवस्था ऐसे मुद्‌दों से ग्रस्त है, जो राम जैसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों को राजनीति से पलायन करने पर मजबूर कर देती है। हममें से ज्यादातर लोग नेताओं में प्रतिभा और प्रतिबद्धता की कमी पर सवाल उठाते हैं लेकिन, उस व्यवस्था का विश्लेषण नहीं करते, जो वांछित से कम प्रतिभा व क्षमता का नेतृत्व पनपने देती है। पार्टी सिस्टम के भीतर ही अच्छी प्रतिभाओं को ऊपर न उठने देने वाले बंद राजनीतिक सिस्टम से लेकर प्रतिभाशाली उम्मीदवारों के लिए वित्तीय सहारे के अभाव तक राजनीति ऐसी प्रक्रियाओं से घिरी हुई है, जो प्रतिभाशाली और होनहार प्रत्याशियों के उदय में बाधा पहुंचाती हैं और उन्हें कुंठित कर देती है।
राजनीतिक दल भी, शायद इरादतन, ऐसे कोई ठोस निर्देश नहीं देतें कि कोई व्यक्ति पार्टी के भीतर कैसे ऊपर उठ सकता है। यह ज्ञान संगठन के चरित्र में ही रचा-बसा है और थोड़े लोगों को मालूम है। मसलन, कोई दल यह नहीं बताता कि कैसे दल में प्रवेश लेने वाला कार्यकर्ता स्तर का व्यक्ति काम करके पार्टी में पद हासिल कर सकता है। पार्टी नेतृत्व में महत्वपूर्ण निर्णय लेने वालों के कुछ लोगों के अलावा पार्टी सिस्टम में बहुत कम लोग होते हैं, जिन्हें पता होता है कि विभिन्न पदों के लिए मानक क्या है। उदाहरण के लिए जब पार्टी प्रवक्ता चुना जाता है, तो उसके संवाद कौशल का मूल्यांकन कैसे होता है? क्या पार्टी के कोषाध्यक्ष की पृष्ठभूमि फाइनेंस अथवा फंड रेज़र की होती है? जब तक इनके लिए कोई मानक तय नहीं होंगे, इन पदों की अपेक्षा रखना भी कठिन होगा। यह निजी क्षेत्र के विपरीत है, जहां विभिन्न प्रक्रियाएं और आगे बढ़ने के अवसर स्पष्ट रहते हैं। जब कोई युवा पार्टी में ऊपर उठने के लिए पार्टी नेताओं से सलाह मांगता है, तो स्टैंडर्ड जवाब यही होता है कि पार्टी के लिए काम करते रहो। हालांकि, बहुत कम नेता ऐसे होते हैं, जो इसके लिए जरूरी गतिविधियों और कामों को परिभाषित कर सकते हैं। प्राय: पार्टी कार्यकर्ता निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि वरिष्ठ नेताओं का ध्यान आकर्षित करने के लिए उन्हें अधिक रैलियां आयोजित करनी होंगी या पार्टी कार्यकर्ताओं को गतिशील करना होगा या पार्टी के आदर्शों का प्रसार करना होगा। हालांकि, पार्टी गतिविधियों में भागीदारी के मुख्य क्षेत्र परिभाषित किए बिना यह जोखिम हमेशा रहता है कि कार्यकर्ता के प्रयास निष्फल ही रह जाएं। पार्टी सिस्टम को लेकर अपारदर्शिता के चलते अचरज नहीं कि राजनीति अब वह क्षेत्र नहीं रहा कि कोई व्यक्ति किसी कार्यक्रम पर क्षमता दिखाकर आगे बढ़े। इसीलिए इसका पतन नेतृत्व की चापलूसी करने की संस्कृति में हो गया है।
यह समस्या तब और गंभीर हो जाती है जब हम राजनीति में धन की विवादास्पद भूमिका पर विचार करते हैं। ज्यादातर महत्वाकांक्षी राजनेताओं के लिए राजनीतिक दल में काम करना पूर्णकालिक काम ही है। इसका अर्थ है कि ज्यादातर ऐसे नेता अन्य किसी क्षेेत्र में ज्यादा कुछ नहीं कर सकते, जिसमें पैसा कमाने पर ध्यान केंद्रित करना भी शामिल है। राष्ट्रीय नेताओं में कराए सर्वे में लेखिका ने पाया कि किसी नए नेता को टिकट पाने और फिर विधायक के रूप में वेतन हासिल करने के पहले पार्टी में एक से नौ साल तक काम करना पड़ता है। बिना किसी आमदनी के बने रहने के हिसाब से यह अच्छी-खासी अवधि है। भाजपा और माकपा कुछ हजार रुपए का न्यूनतम स्टाइपेंड पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को देते हैं पर यह राशि पर्याप्त से बहुत कम है। राजनीतिक पार्टी के साथ काम करते समय आमदनी का कोई स्रोत न होना ऐसा तथ्य है, जो सर्वाधिक प्रतिभाशाली पेशेवरों को भी इस क्षेत्र से दूर ही रखता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो राजनीति में आते हैं उन्हें संपन्न परिवार से होना चाहिए ताकि राजनीति में काम करते हुए वे खुद के लिए अपने मौजूदा आर्थिक संसाधनों का उपयोग कर सकें। वैकल्पिक रूप से वे पैसा कमाने के लिए भ्रष्ट साधन अपनाने के लिए तैयार रहते हैं ताकि उन्हें रोजगार के अन्य साधनों की तलाश करने की जरूरत नहीं रहे। इस पर न के बराबर विचार-विमर्श हुआ है कि उदयीमान राजनेता राजनीति में अपनी महत्वाकांक्षा की ओर बढ़ते हुए इतने बरसों तक खुद के लिए आर्थिक व्यवस्था कैसे करे। पैसा ही प्रतिभाअों के आने में बाधक बना हुआ है।
इतने बरसों में हमने नेतृत्व के प्रति मतदाताओं की अपेक्षाओं में बदलाव होते देखा है। जैसे राजनेता से अपेक्षा होती है कि वे बोलने में अच्छे और पढ़े-लिखे हों। मतदाताओं की अपेक्षाएं जिस प्रकार बदल रही है, राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि वे उसी अनुसार खुद को तैयार करें। उन्हें अपने संगठन में प्रतिभाओं को लाना चाहिए। लेकिन, यदि राजनीतिक दल चाहते हैं कि क्षमतावान लोग उनकी ओर आकर्षित हों तो उन्होंने पार्टी सिस्टम में पारदर्शिता बढ़ाने से शुरुआत करनी चाहिए और होनहार युवा नेताओं को आर्थिक मदद उपलब्ध करानी चाहिए। इन आधारभूत व्यवस्थाओं के बिना भारत के राम राजनीति छोड़कर इसी तरह जाते रहेंगे

Date:24-06-17

सरहदों पर सुरक्षा को पुख्ता करेगी इसरो की छठी इंद्री

संपादकीय

फरवरी में एक साथ 104 उपग्रह छोड़ने का रिकॉर्ड बनाने के बाद शुक्रवार को इसरो ने अपने पीएसएलवी प्रक्षेपण यान से 31 उपग्रह लॉन्च किए, जिसमें 29 नैनो उपग्रह ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली व ऑस्ट्रेलिया जैसे अन्य देशों के हैं। इसमें भारत का जो उपग्रह है वह सरहद व पड़ोसी देशों पर निगाह रखेगा। पहले ही पांच उपग्रह सरहदों की निगरानी कर रहे हैं और यह छठा उपग्रह 500 किलोमीटर की ऊंचाई से पड़ोसी देश के टैंकों की गिनती तक कर सकता है। सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कार्रवाइयों में ऐसे उपग्रहों द्वारा भेजे चित्र बहुत उपयोगी साबित हुए हैं। प्रक्षेपण की इन सफलताओं के साथ एक चुनौती भी इसरो के सामने हैं और वह है अपने उपग्रहों की सुरक्षा। उपग्रहों का काम पूरा होने के बाद भी वे अपनी कक्षा में 30 हजार किलोमीटर प्रति सेकंड की भीषण रफ्तार से घूमते रहते हैं और इतनी रफ्तार के कारण वे न सिर्फ उपग्रह बल्कि स्पेस स्टेशन तक को नष्ट कर सकते हैं। ऐसे में अब इसरो का ध्यान बेकार उपग्रहों से अपने उपग्रहों को बचाने पर भी है। इसने ऐसे राडार बनाए हैं, जो 30 से 50 सेंटीमीटर के आकार की चीजों का 800 से 1000 किलोमीटर दूरी पर ही पता लगा लेते हैं, जिससे उपग्रहों को बचाने की कार्रवाई का वक्त मिल जाता है। जाहिर है उपग्रह का प्रक्षेपण, फिर उसे वांछित ऊंचाई की कक्षा में स्थापित करना, स्थापित होने के बाद उसे नियंत्रित करना, उससे प्राप्त महत्वपूर्ण डैटा का सही इस्तेमाल करना और फिर इन उपग्रहों की सुरक्षा भी करना यह सब इतना आसान नहीं है। यह बड़ी जटिल टेक्नोलॉजी का नतीजा है। ऐसी टेक्नोलॉजी कोई देश किसी दूसरे देश को नहीं देता। यह संबंधित देश को खुद ही विकसित करनी पड़ती है। फिर इस टेक्नोलॉजी का फायदा हमें विकास के अन्य मोर्चों पर भी मिलता है। जैसे देश की सुरक्षा की दृष्टि से निगरानी के लिए भेजे उपग्रहों की टेक्नोलॉजी को विकसित कर अब बड़े पैमाने पर आपदा प्रबंधन में किया जा रहा है। मौसम संबंधी अनुमान लगाने में किया जा रहा है और दूरसंवेदी उपग्रहों की मदद से धरती के भीतर के खनिज भंडारों का भी पता लगाने में मदद ली जा रही है। अब जरूरत सिर्फ वैज्ञानिक अनुसंधान और टेक्नोलॉजी विकास का जो मॉडल इसरो ने सफलतापूर्वक अपनाया है, उसे विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में लागू करके उसी प्रकार की कामयाबी का रास्ता अन्य क्षेत्रों में खोलने की है।


Date:24-06-17

Terror, Virtually

Internet has become a recruitment ground for terror. Global action is needed

Madhavi Goradia Divan The writers is an advocate, Supreme Court of India and author of ‘Facets of Media Law’

 In the aftermath of the London Bridge attack, British Prime Minster Theresa May called for a clamp down on internet companies which she held responsible for providing a safe space for extremist propaganda. The call for control of the internet, the most accessible and democratic medium for exchange of ideas, raises free speech concerns. More so if it means that private players like Google and Yahoo are to be entrusted with the task of weeding out dangerous content. Having said that, amidst the spate of attacks, it is hard to deny how fabulously advantageous technology has been for the propagators of hate and terror.

Attackers like those in London recently can no longer be dismissed as lone wolves. Indeed, the attacks are scattered, the methods crude and amateur. But the impact is deadly and the pattern unmistakable. This is a diabolical but brilliantly executed global war remote-controlled by the Islamic State (IS) and other extremist groups. Brilliant, because it requires no investment other than ideological brainwashing carried out at virtually no cost on the internet. The sites of attack are scattered across the world and the enemy is unidentifiable till he strikes — he does not show up in army fatigues, nor does he necessarily carry a gun. What appear to be random attacks are strung together by a deadly cocktail of indoctrination of vulnerable young men on the internet coupled with their own baggage of cultural, social or economic alienation in the societies they inhabit.

How does the world respond to this unconventional war? No amount of bombing can flatten out the nurseries of terror in the virtual world. The foot soldiers are not chaps you can “smoke out of their holes” as George W. Bush swore he would do when he declared the war on terror after 9/11. Technology has done away with the need for terror training camps. That is a great triumph for terror because it requires no centralised army, no physical or military training, no distribution of arms or explosives. The internet provides the means to expand the catchment for radicalisation and recruitment. It gives the cause a cohesiveness that transcends nationality, race and territory.

Recently, Zakir Musa, an al Qaeda operative from Kashmir, made a rousing rant on YouTube taunting Indian Muslims for being a spineless lot that had failed their brethren. Musa used social media to exhort Kashmiri youth to pelt stones, not for Kashmir, but in the name of religion. The role of the internet in providing easy avenues for radicalisation is undeniable. Yet, can the internet be regulated without chilling free speech?

While internet companies must cooperate in the fight against international terror, we need to recognise that internet service providers are not publishers but only platforms. They cannot vet the mountains of content that are posted every day. Section 79 of the Information Technology Act, 2000 acknowledges the limited role that internet intermediaries can play in filtering the flow of information by conferring on them immunity from liability with respect to third party information. In the landmark case on internet freedom, Shreya Singhal v Union of India, the Supreme Court held that an intermediary (like Google) becomes liable only if it violates a court order directing it to take down offensive material.

It would be unwise to entrust corporations like Google or Yahoo with the task of censoring potentially dangerous content as that amounts to the privatisation of censorship. Private players are not equipped to draw the fine and often fuzzy line between lawful speech and inciteful speech. They are likely to remove more material than they ought to, rather than risk liability. The result could be excessive censorship. Terrorism is a pressing global concern and it is time for the democratic world to come together to draw up a global norm, to bring about a meta-constitution to contain “terror” speech that derives sustenance from the internet. We need global cooperation through international treaties that provide for an international monitoring agency that will uphold free speech on the internet while weeding out terror propaganda.


Date:24-06-17

Missing a strategic culture

External threats to India’s security persist but more worrisome are vulnerabilities on new fronts. When memory and experience are missing, knee-jerk reactions and ad-hoc decision-making follow

 V P Malik The writer is former Chief of Army Staff

Geo-politics, strategic and technological developments keep adding uncertainties and new dimensions to national security. A year ago, who could have imagined that the United States would become so unpredictable. Or that China would emerge as the new economic hegemon. Or that lone wolf attacks would become the new normal of security threats.The nature of conflicts and the objectives of war are also changing. We have new combat theatres, such as cyber and space. While nuclear and high-level conventional wars cannot be entirely ruled out, recent trends show greater likelihood of sub-conventional, hybrid and limited wars. The number of such conflicts has increased substantially in the last few years.

India has a difficult neighbourhood and a full spectrum of security challenges. We have over 4,900 km (4056+740+110) long unresolved borders with two major neighbours. Both are nuclear armed. Over the years, they have established a strong strategic nexus/alliance against India.

On May 14, China’s leader Xi Jinping, in the presence of 29 foreign leaders in Beijing, unveiled the One Belt One Road (OBOR) project. Audaciously ambitious, OBOR envisages the economic as well as military supremacy of China. It will reshape the world order, and place China firmly at its summit.

In the last few years, China has extended its claim to the whole of Arunachal Pradesh. Already occupying Aksai Chin and Shaksgam part of Gilgit-Baltistan, it has shown no desire to resolve the boundary dispute, or even to delineate the line of actual control. Its geo-strategic pincer around India has come closer and stronger. The China Pakistan Economic Corridor (CPEC), if and when it succeeds, will be a regional game-changer. It would affect our relationship not only with Pakistan, but also with Central Asia, and even Afghanistan, which has remained neutral on this specific issue so far.

As for Pakistan, the legacy of Partition continues to fuel its unremitting animosity towards India. Kashmir and terrorism are only an expression. An increasingly dysfunctional state like Pakistan, run by generals and increasingly wracked by religious extremism, will not make peace with India. No amount of dialogue is going to change this reality in the foreseeable future.In dealing with Pakistan, we now have to consider China, the US, and even Russia. China has been equipping Pakistan with strategic and conventional military capabilities. With CPEC, it is only a matter of time before we see more Chinese boots in Pakistan to protect their assets and personnel. The US will continue to provide support to Pakistan, so long as it remains entangled in Afghanistan. The developing Russia-Pakistan military bonhomie indicates that India can no longer take Russia for granted.

It is not Pakistan alone. There will be challenges from neighbouring countries where China offers a counterweight. Virtually all our neighbours support China’s OBOR project, and its entry into SAARC. We can expect a greater presence of Chinese Navy in the Indian Ocean.

In terms of insurgent and terrorist violence and casualties, let there be no doubt that Pakistan’s long-term intent on promoting terrorism in India remains unchanged. With greater alienation of the Kashmiri awam, one can expect more sophisticated support to Kashmiri terrorists from Pakistan.On the internal security front, much more worrisome today are the new, emerging vulnerabilities. Growing unemployment, the increasing ethnic, caste, communal divides, the worsening Centre-state relations, and the constant nit-picking and politicisation of every socio-economic issue have ignited more fires lately and caused serious and more frequent law and order situations.

Partisan politics over national security issues — with media exploiting it for TRPs with the multiplier effect of social media — is getting the armed forces into political cross-fire. There is no hesitation about insulting apolitical institutions and their leadership. This is not only harming the long-cherished values of the armed forces but also increasing the distance between our civil society and security forces. These situations persist primarily due to polarising and violent identity politics, contempt for law and order and constitutional norms. They make the country ripe for new or resurgent violent movements. Unless checked, such fissiparous challenges will threaten India’s national security seriously.

In recent years, cyber and space domains have added yet another complexity. The entire command and control mechanism of the government is dependent on space satellites and IT facilities. Therefore, any military cyber war infrastructure will have to work in close coordination with the National Information Board.For me, the three most important non-traditional security challenges facing India are: One, the lack of strategic and security awareness of our ruling elite; two, partisan politics over national security issues which includes drawing the armed forces into political cross-fire; and three, India’s defence management.

Twenty years ago, George Tanham stirred a hornet’s nest among India’s ruling elite when he wrote that India lacks a strategic culture. Till date, none of us has been able to prove him wrong. In fact, our ruling elite — the politicians, bureaucrats, industrialists, even our military — continue to perpetuate that conclusion.

Our governments do not show any strategic interest, vision, or security policies. Our political leaders take little interest in long-term strategic and security issues other than rhetorical and emotional sound-bites. The focus of most of our political leaders is on the next election, the next budget, and vote-banks. At the strategic level, one requires a long memory and longer foresight and vision. When memory and experience are missing, floundering knee-jerk reactions and ad-hoc decision-making will follow.Yet another challenge is our defence management. The requirement to re-organise the Ministry of Defence, its business rules and appointment of a CDS has been talked of ever since the Kargil war. This has been recommended by the Kargil Review Committee in 1999, the Group of Ministers in 2002, and the Naresh Chandra Committee in 2012.

It is essential to develop, prioritise and optimally employ inter-services capabilities and promote jointness in the armed forces. But vested interests and government unwillingness have successfully dodged this important national security challenge.

No country can stake claim to the status of a major power unless it can design and produce a major proportion of the hardware required by its armed forces. We now have an elaborate Defence Procurement Procedure (DPP-2016), with the newly approved strategic partnership model which will enable private players to make big tickets defence systems. However, our defence industrial base, I believe, will take 15-20 years to make up the armed forces’ deficiencies with a reasonable level of modernisation. Looking at the deteriorating regional security environment, this delay would be unacceptable.

For the foreseeable future, I do not expect all-out conventional wars against China and/or Pakistan. But the chances of asymmetric, hybrid and limited border wars with both nations have definitely increased. Conflicts and wars, when they do occur, can no longer be taken to the logical conclusion of military victories, or change of national boundaries. Armed conflicts would be conducted with the objective of achieving political successes rather than “military victories”. And thanks to information technology, security and battle space continues to enlarge. Therefore, we require frequent updating of weapons, equipment, revision of security concepts and doctrines, greater level of jointmanship and synergy, and much faster decision-making.

In conclusion, India’s security challenges are less traditional war threats, more diffused and ambiguous. What is worrisome currently is not just the external threats, but India’s weakening from inside: Weakening institutions, poor governance, sharpening political, social and ethnic divides, internal security, and our lack of strategic vision and thinking. You need more aware and saner political leadership to handle both the external and internal factors, with soft as well as hard power, and with as much consensus as possible.Countering national security challenges and decision-making can no longer be dealt with in silos. These challenges require multi-disciplinary vertical and lateral consultations, and much faster decision-making.