23-01-2024 (Important News Clippings)

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23 Jan 2024
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Date:23-01-24

Mfg Exports Are The Way Ahead

ASAP: Infra upgrade to boost manufacturing

ET Editorials

India is attempting to put manufacturing on steroids just about the time the over-dependence of China’s growth on investment is coming into question. Foreign investment is establishing beachheads in India to manufacture for the world. The notable accomplishment has been Apple’s decision to diversify its supply chain across Asia, including in India. New Delhi is eager that more manufacturing companies choose India as a production hub, and has offered investment sweeteners. The wait is on for the trickle of FDI to turn into a flood. Marquee names, such as Tesla, are being courted. Infrastructure is being created furiously to make the country hospitable to global manufacturing.

This would appear to be a perilous course with the Chinese model showing up its limitations. But it is the only available course for India to become an upper-middle-income country over the next quarter-century. Manufacturing’s share of economic output has been stagnating. Energy purchase creates persistent trade deficits. And services do not have the capacity to absorb excess labour from agriculture. Strong manufacturing exports solve all of these. Production capabilities on a global scale also get around constrained domestic consumption. Besides, India has fallen off its peak investment rate as credit locked up in dodgy lending was freed.

GoI is funnelling an increasing part of household savings into infra to revive private investment. RBI has imposed pre-emptive curbs on runaway consumer borrowing. India can afford to rebalance some demand away from consumption into investment. But it needs to exercise caution in overdoing it. The lesson from China is, social investment is as vital as physical investment for balanced growth. The immediate need is for an infrastructure upgrade to boost manufacturing. Down the line, the emphasis should switch to building an adequate social safety net that props up consumption lower down the ladder. It’s early days, though, for India and it can concentrate on building its manufacturing superstructure.


Date:22-01-24

A backsliding

Curbs on financing of civil society bodies denote eroding civil liberties.

Editorial

Less than a year after suspending the Foreign Contribution (Regulation) Act (FCRA) licence of the Centre for Policy Research (CPR), the Government of India has cancelled its FCRA licence. The justification for this move — CPR’s publications have been equated with current affairs programming, prohibited for an entity using FCRA funds — is nothing if not farcical. As a premier think tank, the CPR has been around for more than half a century, during which it has been an exemplar of public-spirited scholarship feeding into an ecosystem of governance and policy-making where multiple stakeholders and their often divergent interests need consensus-building through informed debates — the hallmark of a democracy. A decision to effectively shut down such an institution by crippling its finances is bound to send the message that India is no longer open to the free flow of knowledge and ideas. The move also fits into a broader, and sadly, by now all-too-familiar, pattern of the state wielding the FCRA as a weapon to silence entities whose work is not to its liking — typically those working on environmental issues, civil liberties and human rights. The use of the FCRA to target civil society for political or ideological reasons is perhaps written into its DNA. The legislation is the child of the Emergency, enacted by a regime paranoid about foreign governments interfering in India’s internal affairs by channelling funds through NGOs. Since then, it has been amended by successive governments, with the provisions becoming more stringent.

When the latest round of amendments was passed in 2020, the International Commission of Jurists denounced it as “incompatible with international law” and warned that it would “impose … extraordinary obstacles on the capacity of … civil society actors to carry out their important work”. It appears as though the government has been working hard to prove the ICJ right. Even before dust could settle on the FCRA cancellation of CPR, World Vision India, which works with children, has had its FCRA cancelled. On the one hand, India seeks recognition as a ‘Vishwaguru’. Its calling card as the G-20 host was ‘Mother of Democracy’. The government is hypersensitive to rankings on international indices, yet unwilling to acknowledge the link between perception and reality. When the U.S.-based non-profit, Freedom House, in its Democracy Index, downgraded India to an “electoral autocracy”, a reason it cited was erosion of civil liberties. Shutting off the finances of civil society organisations on flimsy grounds is a textbook example of civil liberties erosion, guaranteed to amplify the narrative of democratic backsliding. It would then be pointless to complain about bias or invoke “conspiracies” to tarnish India’s image when these actions get reflected in India’s downgrading in global indices of freedom and democracy.


Date:22-01-24

अर्थतंत्र को भी बल देते हैं मंदिर

विकास सारस्वत, ( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य हैं )

रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन ने पूरे देश का वातावरण राममय कर दिया है। गांव, गली, चौबारों से लेकर मीडिया तक राम नाम की धूम है। भजन, गीत, हवन और रामचरितमानस के पाठ से सब ओर वातावरण भक्तिमय है। हालांकि इस बीच हिंदू विरोध से ग्रस्त कुछ कर्कश स्वर भी सुनाई दे रहे हैं। वर्षों तक मंदिर के ऐतिहासिक प्रमाण और न्यायिक औचित्य को नकारने वाले लोग कोई उचित तर्क न मिलने पर धर्मपरायण हिंदू समाज को शिक्षा, रोजगार और आर्थिक संपन्नता के बजाय मंदिर को महत्व देने का उलाहना दे रहे हैं। ‘क्या मंदिर रोजगार सृजन कर सकता है?’ या ‘क्या मंदिर से आर्थिक स्थिति सुधर जाएगी?’ जैसे सवाल बार-बार उठाए जा रहे हैं।

अव्वल तो विपन्नता को अस्मिता या आत्मसम्मान से जोड़ना ही नासमझी है, क्योंकि विपन्नता का अर्थ यह नहीं कि आत्मसम्मान से समझौता किया जाए। कुतर्क भरे ऐसे सवाल इसकी अनदेखी करते हैं कि मंदिर और तीर्थ अध्यात्म और संस्कृति के केंद्र होने अलावा एक सघन अर्थतंत्र का गढ़ बनकर समाज को समग्रता में लाभान्वित भी करते हैं। किसी समय में मंदिरों के विशाल प्रांगण वस्तु विक्रय का महत्वपूर्ण केंद्र होते थे। एम. कविता और बर्टन स्टीन जैसे शोधार्थियों का शोध बताता है कि कैसे राजाओं एवं बड़े व्यापारियों से दान रूप में प्राप्त धन से मंदिर छोटे व्यापारियों को ऋण भी उपलब्ध करा पाते थे। कृषि क्षेत्र में नहर परियोजनाओं और तालाबों की खोदाई के द्वारा मंदिरों के योगदान का उल्लेख आज भी शिलालेखों के रूप में मिलता है। मंदिर स्थानीय स्तर पर आर्थिक आत्मनिर्भरता को भी सुनिश्चित करते थे। आज बदली हुई परिस्थितियों में अपनी भूमिका सिमट जाने के बावजूद मंदिर अर्थतंत्र का बड़ा महत्व है। फल, फूल, प्रसाद, मूर्ति, चित्र, शृंगार, पोशाक, खिलौने, कंठी-माला, पूजा सामग्री इत्यादि ऐसी बहुत सी वस्तुएं न सिर्फ मंदिर और तीर्थ क्षेत्र में फुटकर व्यापारियों को जीविका प्रदान करती हैं, बल्कि घंटे, दीपक, मूर्ति आदि वस्तुएं दूरदराज के उद्योगों को भी पोषित करती हैं।

मंदिर अर्थव्यवस्था का रोचक पहलू यह भी है कि इसका लाभार्थी अधिकतर निम्न या मध्य वर्ग है और इसे चलाने वाले श्रमिक मुख्यतः असंगठित क्षेत्र से आते हैं। सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो इन व्यवसायों में लिप्त जातियां भी मुख्यतः वे हैं, जिनकी गणना अनुसूचित या पिछड़ी जातियों में होती है। मंदिरों के दर्शन करने आए तीर्थयात्री रुकने, घूमने, खानपान और स्थानीय उत्पादों के क्रय से बहुत बड़े तंत्र को पोषित करते हैं। तीर्थों के महत्व द्वारा उत्पन्न हुए बाजार ने प्राचीन भारत में तीर्थ क्षेत्रों को बड़े व्यापारिक और उत्पाद क्षेत्रों के रूप में विकसित किया। मथुरा में चांदी के आभूषण, तंजावुर में कांसे की मूर्तियां एवं बर्तन, उडुपी एवं कर्तला में धातु की मूर्तियां, कोल्हापुर की स्वर्णकारी ऐसे उद्योग हैं जो मंदिरों के कारण ही पनपे। पूजा-अनुष्ठान में रेशम के महत्व ने मंदिरों के आसपास बुनकरों की बस्तियां निर्मित कीं। आज तीर्थ क्षेत्रों में वस्त्रों की भिन्न-भिन्न शैलियां विकसित हो चुकी हैं। पुरी की कोटकी और बोमकाई, महेश्वर की महेश्वरी, नासिक की पैठणी, पाटन का पटोला, बनारस का बनारसी सिल्क, कांचीपुरम की कांजीवरम, गुवाहाटी की सियालकुची शैली की साड़ियां देश-विदेश में बिकती हैं।

तीर्थयात्रियों का आवागमन सदा से ही अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। कई छोटे-बड़े शहरों और कस्बों की अर्थव्यवस्था तो पूरी तरह मंदिरों में आने वाले दर्शनार्थियों पर ही निर्भर करती है। जहां आक्रांताओं द्वारा मंदिरों के विध्वंस ने उत्तर भारत में मंदिर अर्थतंत्र को बुरी तरह प्रभावित किया, वहीं दक्षिण भारत में सरकारी हस्तक्षेप ने इस व्यवस्था को कमजोर किया है, परंतु पिछले कुछ वर्षों में इस अर्थतंत्र ने धीरे-धीरे फिर बड़ा रूप लेना शुरू किया है। 2022 में राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के सर्वेक्षण के अनुसार आज राष्ट्रीय स्तर पर मंदिर अर्थतंत्र भारत की अर्थव्यवस्था में 3.02 लाख करोड़ रुपये का योगदान दे रहा है। यह योगदान भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 2.32 प्रतिशत है। इसी सर्वेक्षण के अनुसार भारतीय तीर्थ यात्राओं पर लगभग 1316 करोड़ रुपये प्रतिदिन खर्च कर रहे हैं। यह व्यय सालाना 4.74 लाख करोड़ पर जाकर पहुंचता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदिरों के अर्थतंत्र का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि वित्त वर्ष 2022-23 में केवल छह बड़े हिंदू मंदिरों में 24,000 करोड़ रुपये का चढ़ावा आया था। कुंभ तो आय सृजन का बहुत बड़ा अवसर बनते हैं। 2019 प्रयागराज में कुंभ मेले ने लगभग 1.2 लाख करोड़ की आय उत्पन्न की थी।

मोदी सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों से मंदिर अर्थतंत्र को नई मजबूती मिली है। मंदिरों का पुनरुद्धार, चार धाम जैसी परियोजनाएं और जैन एवं बौद्ध तीर्थ सर्किट के विकास के परिणामस्वरूप तीर्थयात्राओं में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। पिछले दो वर्षों में 12.92 करोड़ लोगों ने काशी विश्वनाथ धाम के दर्शन किए हैं। मथुरा, हरिद्वार, काशी, उज्जैन, अयोध्या आज उन शहरों में शामिल हैं, जहां शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है। व्यापार संगठन सीएआइटी के अनुसार अयोध्या में राम मंदिर उद्घाटन एक लाख करोड़ का व्यवसाय उत्पन्न करने वाला है। मंदिर उद्घाटन के बाद अयोध्या में प्रति वर्ष 6.8 करोड़ दर्शनार्थियों के आने का अनुमान है। काशी, उज्जैन और चार धाम के बाद अयोध्या में मंदिर निर्माण न सिर्फ सांस्कृतिक पुनरुत्थान, बल्कि आर्थिक समृद्धि का अवसर बनने जा रहा है। इसी कारण आम जन के अलावा शेयर बाजार भी राम मंदिर पर उत्साह से भरा हुआ है।


Date:23-01-24

सांस्कृतिक और आर्थिक उत्थान

विवेक देवराय और आदित्य सिन्हा, ( देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं )

अयोध्या के राम जन्मभूमि मंदिर में रामलला की विधिसम्मत प्राण प्रतिष्ठा संपन्न हुई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति में यह एक सफल सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक आयोजन रहा। इसने भारत के धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है, जिसके सामाजिक-आर्थिक तानेबाने पर भी दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे। इस आयोजन के धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व से परे हमें यह भी देखना चाहिए कि अयोध्या और उसके आसपास रहने वाले लोगों के लिए इसके क्या निहितार्थ हैं। रामलला के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के बाद बड़ी संख्या में यहां लोगों के आगमन की संभावना है। इसका स्थानीय आर्थिकी और अवसंरचना पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। आगंतुकों की तेज आवक से कारोबार को विस्तार मिलेगा और रोजगार के अवसर सृजित होंगे, जिससे इस क्षेत्र का और विकास होगा। यह निश्चित है कि अयोध्या और उसके निकटवर्ती शहरों को इसका व्यापक लाभ मिलने जा रहा है।

कई देशों के लिए धार्मिक पर्यटन विदेशी मुद्रा से उनकी झोली भरने वाला सिद्ध हुआ है। वेटिकन सिटी का ही उदाहरण लें, जहां हर वर्ष करोड़ों की संख्या में ईसाई श्रद्धालु जाते हैं। वेटिकन सिटी की आर्थिकी मुख्य रूप से पर्यटन, म्यूजियम, प्रतीक चिह्नों की बिक्री और अन्य संबंधित खर्चों के आधार पर चलती है। विश्व के सबसे प्राचीन शहरों में से एक और हिंदुओं की आस्था के एक प्रमुख केंद्र वाराणसी में भी धार्मिक पर्यटन आर्थिक गतिविधियों की अहम कुंजी है। यहां आने वाले पर्यटक धर्मस्थलों के अतिरिक्त स्थानीय उद्यमों, हस्तशिल्प उद्योग और सांस्कृतिक क्षेत्र को भी लाभान्वित करते हैं। ये उदाहरण यही दर्शाते हैं कि तीर्थाटन न केवल सांस्कृतिक एवं धार्मिक भावनाओं को सशक्त करता है, बल्कि स्थानीय आर्थिकी को भी निरंतर रूप से गति प्रदान करता है।

दुनिया में कई ऐसे प्रमुख पर्यटन केंद्र हैं, जिनके चहुंमुखी विकास में तीर्थाटन ने महती भूमिका निभाई है। भारत में तो यह और भी प्रत्यक्ष रूप में दिखता है। केंद्रीय पर्यटन मंत्री जी. किशन रेड्डी ने कुछ समय पहले संसद में बताया था कि बीते पांच वर्षों में भारत में धार्मिक स्थलों में आवाजाही बढ़ी है। कोविड काल में यह सिलसिला कुछ थमा, लेकिन 2022 में घरेलू पर्यटकों का आंकड़ा करीब 15 करोड़ के स्तर पर पहुंच गया। उस साल घरेलू पर्यटन में 111.61 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई। विदेशी पर्यटकों की स्थिति भी इसी रुझान के अनुरूप है।

वर्ष 2017 में 2.69 करोड़ विदेशी पर्यटक भारत आए, जिनकी संख्या 2019 में बढ़कर 3.14 करोड़ हो गई। हालांकि उसके बाद कोविड काल के दौरान तमाम तरह के प्रतिबंधों से यह सिलसिला कुछ थम गया, जिसमें 2022 में जोरदार पलटवार दिखा। उस साल विदेशी पर्यटकों की संख्या 509.52 प्रतिशत बढ़ी। आर्थिकी में भी इसका व्यापक योगदान रहा। वर्ष 2020 में विदेशी विनिमय से होने वाली आय में आई कमी की इससे भरपाई हुई। वर्ष 2022 में पर्यटकों के माध्यम से 1,34,543 करोड़ रुपये प्राप्त हुए। यह वृद्धि 106.8 प्रतिशत वृद्धि रही। केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय की पीआरएएसएचएडी-यानी प्रशाद (तीर्थयात्रा कायाकल्प एवं आध्यात्मिक, विरासत संवर्धन अभियान) जैसी पहल तीर्थाटन की आर्थिक संभावनाओं को भुनाने के सरकारी प्रयासों को समर्पित है। इस योजना के अंतर्गत 1586 करोड़ रुपये के निवेश से 45 परियोजनाओं को मंजूरी मिल चुकी है। इन योजनाओं का उद्देश्य धार्मिक स्थलों के बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाना है, ताकि पर्यटन बढ़े।

अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के साथ ही यहां और आसपास विकसित हो रहा व्यापक बुनियादी ढांचा स्थानीय अर्थव्यवस्था को पंख लगाने के लिए तत्पर दिखाई पड़ रहा है। यहां तीर्थाटन का चक्रीय प्रभाव तमाम आर्थिक संकेतकों और विकास गतिविधियों में प्रत्यक्ष दिखेगा। प्रत्यक्ष आर्थिक प्रभावों को देखें तो 2017 में करीब दो लाख पर्यटक अयोध्या आए, जिनकी संख्या 2022 में दो करोड़ से अधिक हो गई।

इतनी बड़ी संख्या में लोगों के आगमन से आवास, खानपान और परिवहन जैसी सेवाओं के लिए संभावनाएं बनीं, जिनका लाभ स्थानीय लोगों को मिला। माना जा रहा है कि केवल आतिथ्य सत्कार उद्योग में ही अयोध्या और आसपास एक लाख रोजगार सृजन हुए हैं। वहीं परिवहन उद्योग ने भी 20,000 से अधिक लोगों को काम दिया है। पर्यटकों की संख्या में बढ़ोतरी से हस्तशिल्प, धार्मिक प्रतीकों और खानपान के कारोबार ने भी गति पकड़ी है।

इतनी बड़ी संख्या में आ रहे श्रद्धालुओं को देखते बुनियादी ढांचा भी उसके अनुरूप विकसित किया जा रहा है। महर्षि वाल्मीकि अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का त्वरित गति से निर्माण और रेल एवं बस सेवाओं के विस्तार से कनेक्टिविटी बेहतर हुई है। अयोध्या को फोरलेन हाईवे से भी जोड़ दिया गया है। बेहतर होते बुनियादी ढांचे से पर्यटकों को सहूलियत मिलने के साथ ही स्थानीय लोगों के लिए दूरगामी लाभ निश्चित है। धार्मिक पर्यटन सांस्कृतिक संरक्षण एवं संवर्धन को भी प्रोत्साहन देता है। इससे जहां धार्मिक स्थलों का बेहतर रखरखाव होता है तो सांस्कृतिक परंपराएं भी अक्षुण्ण बनी रहती हैं। इसके शैक्षणिक एवं सामाजिक लाभ मिलते हैं।

चूंकि भारत में सीजन, पर्व और त्योहार के दौरान भी पर्यटकों का जमावड़ा लगता है तो उस दौरान भी धार्मिक स्थलों को उसका भारी लाभ मिलता है। वैश्विक निवेशक सम्मेलन में केवल अयोध्या को ही 49,000 करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव मिले। शहर से होने वाले निर्यात में भी भारी तेजी आई है। जहां 2021-22 में यहां से 110 करोड़ रुपये का निर्यात हुआ था, वह अगले साल बढ़कर 254 करोड़ रुपये हो गया। भारी संभावनाओं के बावजूद पर्यटकों के सिलसिले को बढ़ाए रखने की राह में कुछ चुनौतियां भी हैं। इसमें पर्यावरणीय प्रभावों से निपटना भी शामिल है। सुनिश्चित करना होगा कि स्थानीय समुदाय हाशिये पर पहुंचने या उपेक्षित होने के बजाय लाभान्वित होता रहे।

वस्तुत:, अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण सांस्कृतिक पुनर्जागरण के साथ ही तीर्थाटन के नए युग का संकेत कर रहा है। अपने आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व के साथ ही यह महत्वपूर्ण घटनाक्रम न केवल भारत के धार्मिक परिदृश्य की दृष्टि से एक मील का पत्थर है, अपितु आर्थिक कायाकल्प का उत्प्रेरक भी है।


Date:23-01-24

उच्च शिक्षा में संघर्ष या नई उम्मीदों का दौर?

नौशाद फोर्ब्स, ( लेखक फोर्ब्स मार्शल के सह अध्यक्ष, सीआईआई के पूर्व अध्यक्ष और सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी इनोवेशन ऐंड इकनॉमिक रिसर्च और अनंत ऐस्पन सेंटर के अध्यक्ष हैं )

भारत में उच्च शिक्षा का एक व्यापक तंत्र मौजूद है। करीब 4.2 करोड़ से अधिक नामांकन के साथ हमारे देश में उच्च शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों की संख्या, दुनिया के तीन-चौथाई देशों की आबादी से भी अधिक है। देश में हाल के वर्षों में भी हजारों इंजीनियरिंग कॉलेज और प्रबंधन संस्थान स्थापित हुए हैं जो कला और वाणिज्य के पुराने कॉलेजों के साथ मिलकर शिक्षा देते हैं।

भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली न केवल बड़ी है बल्कि विश्व में इसमें सबसे अधिक विविधता भी है। सार्वजनिक क्षेत्र में, पूरे देश में फैले केंद्रीय विश्वविद्यालय भी राज्य विश्वविद्यालयों के साथ मौजूद हैं। आईआईएससी, आईआईटी, आईआईएसईआर और आईआईएम जैसे स्वायत्त संस्थान अलग-अलग संसदीय अधिनियमों के तहत संचालित होते हैं। वहीं मेडिकल कॉलेज, एनआईडी और एनआईएफटी शिक्षा मंत्रालय के दायरे से बाहर हैं। इसके अलावा, शिक्षा क्षेत्र में एक विशाल निजी व्यवस्था का तंत्र भी मौजूद है।

हजारों निजी (मुख्य रूप से व्यावसायिक) कॉलेज, सरकारी विश्वविद्यालयों से संबद्ध हैं। कुछ निजी संस्थान डीम्ड विश्वविद्यालयों में बदल गए हैं। हाल ही में, परोपकारिता के मकसद से की जाने वाली फंडिंग के तहत नए निजी विश्वविद्यालय केंद्र या राज्य विश्वविद्यालय अधिनियमों के तहत स्थापित किए गए हैं। इनमें से प्रत्येक का लक्ष्य एक बड़ा राष्ट्रीय विश्वविद्यालय बनना है।

नीति बनाते समय बड़ी और विविध उच्च शिक्षा प्रणाली की जरूरतों का ध्यान रखना चाहिए। इसमें गुणवत्ता एक प्रमुख चुनौती है जो पिछले 40 वर्षों में निजी व्यावसायिक शिक्षा में बड़ी वृद्धि का प्रत्यक्ष परिणाम है।

कई दशकों से हमने इस तंत्र में गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए नियमन के प्रयास किए हैं जो सफल नहीं रहे हैं। ऐसे में अच्छा होगा कि हम संस्थानों को खुद तय करने दें कि वे कौन का विषय पढ़ाएंगे, कितने छात्रों को दाखिला देंगे, क्या शुल्क लेंगे और कैसा पाठ्यक्रम अपनाएंगे? राज्य को अपनी भूमिका, संस्थानों की गुणवत्ता के आकलन तक सीमित रखनी चाहिए और सरकारी तथा निजी दोनों क्षेत्रों में शोध की फंडिंग में वृद्धि करनी चाहिए। इसके साथ ही मानविकी तथा सामाजिक विज्ञान में निवेश बढ़ाना चाहिए। इतनी बड़ी और विविध प्रणाली के लिए यह जरूरी है कि राज्य की भूमिका कुछ विशिष्ट क्षेत्रों तक सीमित हो।

विश्वविद्यालयों से संबद्ध निजी एवं सरकारी व्यावसायिक कॉलेज

करीब 6,000 इंजीनियरिंग कॉलेज और 3,000 प्रबंधन संस्थान मुख्य रूप से राज्य सरकार के विश्वविद्यालयों के अंतर्गत संचालित होते हैं। उनकी गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए मूल्यांकन और प्रमाणन कार्यक्रम, अनिवार्य तौर पर लागू करने की आवश्यकता है जो सार्वजनिक हो। इसके बाद, ये संस्थान बाजार पर निर्भर हो सकते हैं और छात्र तथा अभिभावक अपनी पसंद के आधार पर इन संस्थानों को चुन सकते हैं, जिससे यह तय होगा कि कौन से संस्थान बने रहेंगे या नहीं रहेंगे। यहां महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने का एक ही विकल्प है कि वास्तव में कोई निर्णय न लिया जाए और विस्तार को सीमित कर गुणवत्ता सुधारने के प्रयास न किए जाएं। कॉलेजों को अपनी पसंद के क्षेत्रों, विषयों और छात्रों के साथ विस्तार का मौका दिया जाए ताकि वे एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करें।

राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान

आईआईटी, आईआईएससी, आईआईएम और एनआईडी को राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थानों के रूप में वर्गीकृत किया गया है और यह गर्व की बात है। लेकिन हमें उन्हें उसी रूप में देखना चाहिए जिस तरह हमने उन्हें राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थानों के रूप में वर्गीकृत किया है। इसका मतलब यह है कि उन्हें अपना भविष्य बनाने के लिए जरूरी स्वायत्तता दी जाए। (यदि वे स्वायत्तता नहीं चाहते हैं तब भी इसे उन पर लागू कर दिया जाना चाहिए ताकि वे छात्रों, शिक्षकों और फंडिंग के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें)

इस सरकार ने 2017 में एक स्वागत योग्य कदम उठाया जब इसने आईआईएम को बोर्ड, अध्यक्ष और निदेशक के लिए अपनी नियुक्तियां खुद करने की स्वतंत्रता दी और इस तरह उन्हें स्वतंत्र रूप से अपने मामले का प्रबंधन करने की अनुमति मिली।

लेकिन पिछले महीने उस सुधार को पूरी तरह बदल दिया गया और नियुक्ति संबंधी सभी शक्तियां शिक्षा मंत्रालय के अधिकारियों के हाथों में वापस आ गईं। इस पर पुनर्विचार किए जाने की जरूरत है। संभावित अनियमितताओं के कुछ अलग उदाहरणों को अपवाद के रूप में देखा जाना चाहिए और पूरे तंत्र को प्रतिक्रियास्वरूप नियमन की जटिलता में नहीं फंसाना चाहिए। सरकार सार्वजनिक संस्थानों में वित्तीय अनुपालन की जांच के लिए एक लोकपाल की नियुक्ति कर सकती है। धीरे-धीरे इन व्यावसायिक संस्थानों के परिचालन व्यय के लिए सरकारी वित्तीय राशि कम की जाए और केवल पूंजीगत व्यय में ही समर्थन दिया जाए। इससे भी बेहतर स्वायत्तता आएगी।

पूर्ण विश्वविद्यालय और मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान व्यावसायिक क्षेत्रों पर अधिक ध्यान देने के कारण मानविकी और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों की उपेक्षा हुई है। आज के दौर की कई जटिल समस्याओं के समाधान के लिए, जैसे नेट जीरो और सभी 1.4 अरब नागरिकों के वास्ते उचित स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए तकनीकी और गैर-तकनीकी विषयों, दोनों का ज्ञान आवश्यक है। ऐसे में उत्कृष्टता हासिल करने के लिए पूर्ण विश्वविद्यालयों को बढ़ावा देना महत्त्वपूर्ण है। इन विश्वविद्यालयों को स्थापित करने के लिए हमारे पास दो रास्ते हैं।

विश्व-स्तरीय संस्थान की सबसे बड़ी विशेषता होती है उनकी विभिन्न पैमाने पर उत्कृष्टता। लेकिन इस उत्कृष्टता को परिभाषित करना मुश्किल है। उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों के अध्यक्ष कहते हैं कि यह इन संस्थानों के वातावरण में ही मौजूद होता है। जैसा कि मैंने पहले बताया, राष्ट्रीय महत्त्व के उन संस्थानों में ही यह उत्कृष्टता पाई जाती है। ऐसे संस्थान में जहां ऐसा वातावरण मौजूद नहीं है, वहां उत्कृष्टता की संस्कृति विकसित करना वास्तव में किसी उत्कृष्ट संस्थान में नए क्षेत्रों को बढ़ावा देने से कहीं अधिक कठिन कार्य है।

ऐसे में विश्व-स्तरीय विश्वविद्यालय बनाने का एक सीधा रास्ता यह होगा कि आईआईटी और आईआईएससी को इस दिशा में विकसित किया जाए जहां स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा, विज्ञान, इंजीनियरिंग, सामाजिक विज्ञान और मानविकी, सभी को समान महत्त्व मिले। कुछ बेहतरीन आईआईटी इस दिशा में पहले से ही कार्य कर रहे हैं, लेकिन मानविकी और सामाजिक विज्ञान की प्रासंगिकता को प्रमुखता से बढ़ाया जाना चाहिए। यह अगले 20 वर्षों की एक सामूहिक परियोजना होनी चाहिए।

हाल ही में परोपकारिता से जुड़े निजी प्रयास के तहत भारत के उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव किए जा रहे हैं। अहमदाबाद विश्वविद्यालय, अशोक, क्रेया, शिव नादर, पलाक्ष और एक शैक्षणिक परियोजना जिससे मैं जुड़ा हूं, नयन्ता, ये सभी बेहतर परियोजनाएं हैं जिन्हें आगे बढ़ाया जाना चाहिए। राज्यों को इन विश्वविद्यालयों को प्रवेश, भर्ती और दी जाने वाली डिग्री से जुड़ी सभी पाबंदियों से मुक्त करके उन्हें प्रतिस्पर्धा करने का मौका देना चाहिए।

इन निजी पूंजी से किए जाने वाले परोपकारी प्रयासों को प्रयोग के लिए एक प्रयोगशाला बनने का मौका देना चाहिए जो भले ही बिना किसी नियमन के सफल हों या फिर विफल हो जाएं। वे सामूहिक रूप से हर साल हजारों शिक्षित स्नातकों की खेप तैयार करेंगे जिनकी हर साल हमें अपने बौद्धिक नेतृत्वकर्ता के रूप में आवश्यकता होगी।

शोध विश्वविद्यालय

हाल की एक महत्त्वपूर्ण पहल राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एनआरएफ) की स्थापना है। अगर इसे सही तरीके से लागू किया जाए तब एनआरएफ बड़े बदलाव वाला कदम साबित हो सकता है।

इसके लिए 50,000 करोड़ रुपये की राशि की आवश्यकता है। एनआरएफ का संचालन शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों द्वारा किया जाना चाहिए, न कि नेताओं और अफसरशाहों के द्वारा। इस शर्त को भी कमजोर नहीं बनाया जाना चाहिए कि फंडिंग वाले प्रत्येक प्रस्ताव में किसी सार्वजनिक या निजी संस्थान के एक शिक्षाविद को शामिल जरूर किया जाना चाहिए। हमारा लक्ष्य केवल अधिक वैज्ञानिक शोध करना नहीं है। गुणवत्ता के लिहाज से बेहतर स्नातक शिक्षा भी उतनी ही या उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है।


Date:22-01-24

म्यांमार सीमा पर बाड़बंदी

संपादकीय

केंद्र सरकार म्यांमार सीमा पर लोगों की मुक्त आवाजाही को बंद करेगी और इसकी पूरी तरह से बाड़बंदी करेगी ताकि बांग्लादेश से लगी सीमा की तरह ही इसकी भी सुरक्षा की जा सके। असम पुलिस की पांच नवगठित कमांडो बटालियन के प्रथम बैच की नई दिल्ली में ‘पासिंग आउट परेड’ को शनिवार को संबोधित करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह बात कही। गृह मंत्री ने कहा कि सरकार म्यांमार के साथ मुक्त आवाजाही समझौता पर पुनर्विचार कर रही है ताकि मुक्त आवाजाही को रोका जा सके। अभी जो व्यवस्था है, उसके तहत अंतरराष्ट्रीय सीमा के दोनों ओर रहने वाले लोगों को बिना बीजा के एक-दूसरे के क्षेत्र में 16 किलोमीटर अंदर तक आने-जाने की अनुमति प्राप्त है। भारत के चार राज्य अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मणिपुर और मिजोरम म्यांमार के साथ सीमा साझा करते हैं, और इन राज्यों की म्यांमार के साथ 1,643 किलोमीटर लंबी सीमा साझा है। दरअसल, पूर्वोत्तर के राज्य ही नहीं, बल्कि भारत की सीमा नेपाल जैसे देशों के साथ भी सीमा पर आवाजाही निर्बाध रहती है। दोनों देशों के लोग एक दूसरे की सीमा में जाकर हाट-बाजार कर आते हैं, और पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश के साथ सीमा का तो आलम यहां तक है कि मकानों की दीवार तक सीमा तय करती हैं। ऐसे में अवैध अप्रवासन की समस्या बराबर बनी रहती है, और असम और पश्चिम बंगाल में तो कई विधानसभा क्षेत्रों में तो डमोग्राफिक चरित्र ही बदल चुका है। पूर्वोत्तर में जिस तरह से मणिपुर में खुसपैठियों की समस्या लंबे समय तक अनदेखी रही, उससे आज पूर्वोत्तर के इस राज्य में अराजक हालात हैं। इसलिए जरूरी है कि भारत को अपने तमाम पड़ोसी देशों के साथ लगती सीमाओं पर आम जन की निर्बाध आवाजाही की अनुमति तो सिरे से देनी ही नहीं चाहिए। जम्मू-कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय सीमा और राजस्थान में पाकिस्तान से लगती सीमा पर तारबंदी किए जाने के अच्छे परिणाम मिले हैं और तारबंदी से सुरक्षा बलों को सीमाओं की निगहबानी करने में खासी मदद मिली है। दरअसल, आज का दौर भू-राजनीतिक दुारियों को बढ़ाने वाला समय है, और सीमाओं पर शिथिलता जैसी लापरवाही न केवल सीमाओं, बल्कि आंतरिक हालात को बिगाड़ देने का सबब बन सकती है। वैसे भाजपा-नीत सरकार में जम्मू-कश्मीर, नक्सली प्रभावित इलाकों और पूर्वोत्तर में हिंसा की घटनाओं में 73 फीसद कमी आई है, और इस सुखद प्रगति के लिए बेशक, मोदी सरकार श्रेय की पात्र है।


Date:23-01-24

बदलते भारत का प्रतीक

अवधेश कुमार

मैं पिछले कई दिनों से अयोध्या में हूं। हमारे देश के उन बुद्धिजीवियों और नेताओं को, जो समय की धारा को नहीं पहचानते, अयोध्या के वातावरण का अनुमान भी नहीं होगा। आप कल्पना करिए कि कैसा माहौल है? पूरे अयोध्या जिला को पुलिस ने सील कर दिया हुआ है। जिन्हें निमंतण्रहै, जिनको पास मिला है वही गाड़ियां 21-22- 23 जनवरी को अयोध्या आ सकी है। बावजूद हजारों की संख्या में सभी उम्र के लोग अयोध्या पहुंचे हुए हैं। मुख्य सड़कें लोगों से भरी हुई है। लोग पैदल चल कर भी अयोध्या पहुंचे हैं।

लोगों को असुविधाएं हैं। बावजूद मैंने जितने भी लोगों से बात की किसी ने भी इस पर प्रश्न नहीं उठाया। ज्यादातर के चेहरे पर प्रसन्नता है। ऐसा वातावरण इसके पहले शायद ही किसी ने देखा होगा। आम तौर पर जब सुरक्षा सख्त होती है तो लोगों की आवाज उसके विरुद्ध निकलती है, लेकिन अब किसी से पूछिए तो कहेंगे कि हमें कोई परेशानी नहीं है। दशर्न आज नहीं तो कल हो जाएगा। इसका अर्थ क्या है? भारत के सामूहिक मानस का यही बदलाव आज समझने की आवश्यकता है। अगर आप थोड़ी सूक्ष्मता से विचार करेंगे तो ऐसा लगेगा कि संपूर्ण अयोध्या भारतमय है राममय है और संपूर्ण भारत इस समय अयोध्यामय और राममय हो गया है। अयोध्या के भारतमय, राममय और भारत के राममय में होने के गहरे निहिताथरे को भी समझना आवश्यक है।

किसी भी देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की धाराएं इसी तरह प्रभावी होतीं हैं। राम मंदिर का आंदोलन किसी सामान्य मंदिर निर्माण का आंदोलन नहीं था। यह ध्वस्त की गई मंदिर के पुनर्निर्माण के द्वारा भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आंदोलन था। राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के साथ-साथ दिखाई पड़ रहा है कि स्वत: स्फूर्त भाव से उत्साह और उमंग लिए हुए हजारों लोगों का अयोध्या आगमन सांस्कृतिक पुनर्जागरण के धीरे-धीरे सशक्त होने का प्रमाण है। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि जिन लोगों ने अयोध्या में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने के विरुद्ध तथा राम मंदिर के पुनर्निर्माण के आंदोलन की कल्पना की वे वाकई दूरदर्शी थे। अयोध्या का चित्र बता रहा है कि भारत के आम लोगों ने अपनी भावनाओं और व्यवहार से उन सबको सच्ची श्रद्धांजलि देने की शुरु आत कर दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के पूर्व दक्षिण भारत खासकर तमिलनाडु के उन मंदिरों-धर्म स्थानों का दौरा किया जहां वन यात्रा में रामचंद्र जी गए थे या उनसे जुड़े या उनकी भक्ति से जुड़े हुए हैं। तमिलनाडु से सनातन और हिंदुत्व के विरुद्ध तथा उत्तर दक्षिण को बांटने के स्वर के मध्य तथा प्राण प्रतिष्ठा के पूर्व इस यात्रा के प्रभावों का आकलन करने में थोड़ा समय लगेगा। प्रधानमंत्री की तमिलनाडु यात्रा से उत्तर और दक्षिण का भेद खड़ा करने की चेष्टा का सकारात्मक सांस्कृतिक आध्यात्मिक प्रत्युत्तर मिला है। आम लोगों के लिए इसके कोई मायने नहीं है कि किसे निमंतण्रमिला, किसे नहीं मिला, कौन आए कौन नहीं आए। अयोध्या पहुंचकर आपको लगेगा ही नहीं कि जिन लोगों ने इस पर प्रश्न उठाए या विरोध किया उनका कोई संज्ञान भी लेने को तैयार है। अयोध्या लंबे समय से आने वाले लोग बता रहे हैं कि हमने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि इस तरह का बदला हुआ चित्र हमें दिखाई देगा। आज यह इतनी अंतर्शक्ति पा गया है कि संपूर्ण भारत की मानसिक चेतना को बदलने का आधार साबित हो सकता है।

जब आपके लक्ष्य छोटे हों तो फिर छोटे स्तर से विचार करते हैं किंतु लक्ष्य बड़े हों तो आपके विचार का की परिधि भी व्यापक हो जाती है। अगर भारत के भविष्य की दृष्टि से काम करना हो तो ऐसे अवसरों पर कोई विरोधी और दुश्मन नहीं हो सकता। इसीलिए प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में विरोधियों को भी आमंत्रित किया गया। यहां तक कि मुकदमे के विरोधी पक्षकारों को भी आमंत्रित किया गया। उनमें कुछ शामिल भी हुए हैं। जैसा पूरे देश को पता है विपक्षी दलों को भी आमंत्रित किया गया था। लेकिन समस्या यह थी कि संपूर्ण अयोध्या आंदोलन के दौरान जिन दलों और नेताओं ने इसका विरोध किया उनको प्राण प्रतिष्ठा समारोह में आने के लिए कोई न कोई तार्किक आधार चाहिए था। वह मिलना संभव नहीं था। अयोध्या में आम आदमी की भाषा यही है कि विरोधी किस मुंह से प्राण प्रतिष्ठा में आते। अपने दुर्भाग्य से भाजपा और मोदी विरोधी राजनीतिक पार्टयिां, बुद्धिजीवी और मीडिया के भी कुछ पुरोधा? श्रीराम मंदिर से पैदा हुए भारत के सकारात्मक बदलावों को अभी भी समझने की कोशिश नहीं कर रहे।

भारत का मूल धर्म अध्यात्म रहा है। हमारे प्राचीन मनीषियों ने इसे पहचाना था। गांधी जी ने कहा है कि धर्म ऐसा क्षेत्र है, जिसमें भारत दुनिया में बड़ा हो सकता है। वास्तव में धर्म भारत के डीएनए में है। जो आपका मूल संस्कार होता है उसे जागृत कर दिया जाए तो फिर वह उच्चता को प्राप्त करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार तथा दूसरे धार्मिंक सांस्कृतिक आध्यात्मिक संगठनों-समूहों ने लंबे समय तक काम करके भारत की सोई हुई धार्मिंक आध्यात्मिक चेतना की जागृति में भूमिका निभाई है। चाहे वह सोमनाथ का पुनर्निर्माण हो, अयोध्या आंदोलन या लंबे समय से चल रहे दूसरे मंदिरों के पुनरु द्धार का आंदोलन या फिर हिंदुत्व और हिंदू धर्म की नए सिरे से प्राचीन विरासत के आधार पर व्याख्या करने, इतिहास का पुनल्रेखन, राष्ट्र की परिभाषा अपनी सही सोच से निर्धारित करने..सब इसी दिशा के कदम हैं। किसी भी राष्ट्र के जीवन में इस तरह उसकी संस्कारगत चेतना और जागृति सुखद और अच्छे भविष्य का ही द्योतक हो सकता है।

इसका एक परिणाम हमें राजनीति में परिलक्षित हुआ जो आगे और सशक्त व घनीभूत होने का संकेत दे रहा है। निश्चित रूप से अगर देश की जनता इतनी बड़ी संख्या में प्रधानमंत्री मोदी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तथा अन्य नेताओं पर विश्वास कर बाहर निकली है तो इन नेताओं के साथ पार्टी नेताओं और इस समय उनके पीछे खड़े संगठनों का भी दायित्व बढ़ जाता है। इस तरह का आंदोलन या क्रांतियां बगैर परिश्रम और बलिदान के पूर्णता की ओर नहीं पहुंचती। लोगों का भी दायित्व है कि वो इसे समझते हुए सतत परिश्रम करें जहां हमारी पहचान अयोध्या जैसे स्थानों से तथा श्रीराम जैसे व्यक्तित्व से हो ताकि संपूर्ण विश्व इससे प्रेरणा ले सके। भारत और यहां के लोगों का गौरवबोध और हर दृष्टि से सशक्त व संपन्न होने का रास्ता यहीं से निकालता है।