22-12-2017 (Important News Clippings)

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22 Dec 2017
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Date:22-12-17

Welcome initiative on electric transport

ET Editorials 

Transport and highways minister Nitin Gadkari says he will seek budgetary allocation of Rs 5,000 crore to fast-forward electric vehicles nationwide. The plan is to set up special purpose vehicles with state governments and road transport corporations, to procure electric buses, build world-class bus ports and modernise public transportation fleets. The move makes eminent sense

It is desirable to transit from public transport based on the rather inefficient internal combustion engine to e-buses. It is notable that the ministry plans to procure more than 5,000 e-buses for inter-city travel from next fiscal. Estimates suggest that by phasing out diesel buses, state transport corporations would be able to bring down their cost of operations by almost 50%. The government needs to leverage resources from the Clean Energy Fund, and also tap multilateral funding for the express purpose of making the planned transition smooth and cost effective. The change to e-buses would doubtless have substantial macroeconomic and environmental benefits as well. The move can drastically reduce our crude oil imports in the medium term and beyond, and pollution abatement from vehicular exhausts is likely to be much more immediate, especially if we strive to purposefully reduce the carbon footprint in transportation by opting to recharge e-buses with renewable energy like solar power. The new bus ports proposed clearly need to have facilities for charging e-buses via solar panels, and we need such charging along highways.

In tandem, we also need a package of incentives for making ebuses. It would make sense to reduce GST on e-vehicles and batteries, and set a firm timeline to move to all-electric bus fleets in the foreseeable future.


Date:22-12-17

संवैधानिक संस्थाओं के तथ्य व अनुमान में किसका महत्व?

संपादकीय

सीबीआई की विशेष अदालत ने टू जी घोटाले के सभी आरोपियों को बरी करके तमिलनाडु से दिल्ली तक, सुनवाई अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक, कांग्रेस से भाजपा और मीडिया से अकादमिक जगत तक भ्रष्टाचार की तमाम बहसों को फिर खुला छोड़ दिया है। यही कारण है कि फैसला आने के साथ ही कांग्रेस पार्टी संसद से सड़क तक आक्रामक हो गई और भाजपा सुप्रीम कोर्ट व सीएजी के हवाले से बचाव के अस्त्र-शस्त्र गढ़ने में लग गई है। कांग्रेस को यह कहने का पूरा हक है कि जो घोटाला हुआ ही नहीं उसके कारण उसे हारना पड़ा, जबकि भाजपा की यह दलील भी बेकार नहीं है कि इस घोटाले की रिपोर्ट तो संवैधानिक संस्था नियंत्रक और लेखा महापरीक्षक(सीएजी) ने दी थी और उस पर प्राथमिक संज्ञान सुप्रीम कोर्ट ने लेते हुए यूपीए सरकार को जांच का आदेश दिया था। तीसरा पक्ष तमिलनाडु की क्षेत्रीय पार्टी द्रमुक का है, जिसके नेता एमके स्टाालिन ने पूरे मामले को अपनी पार्टी को खत्म करने की साजिश बताते हुए भाजपा और मीडिया से ज्यादा कांग्रेस की ओर उंगली उठाई है। सवाल उठता है कि संवैधानिक संस्थाओं के अनुमान और तथ्य में किसे महत्व दिया जाए। अगर 2008 में दूसरी पीढ़ी के टेलीस्पेक्ट्रम का आवंटन 2001 की दरों पर किया गया और कई अयोग्य कंपनियों को कम दरों पर सुविधा प्रदान की गई तो यह एक तथ्य है और इसे कानून की कसौटी पर कसा जाना चाहिए। इन्हीं पहलुओं का ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 122 कंपनियों के लाइसेंस रद्‌द कर वृहत्तर जांच के आदेश दिए। सीएजी की दूसरी बात जो राजनीतिक विमर्श और जनमत के निर्माण और कांग्रेस के पराभव का बड़ा आधार बनी वो थी घोटाले के आकार की। सीएजी ने अपनी गणना के आधार पर कह दिया कि अगर नई दरों के आधार पर स्पेक्ट्रम की खुली नीलामी हुई होती तो सरकार को 1.76 लाख करोड़ की कमाई होती। हालांकि बाद में थ्री जी के स्पेक्ट्रम की नीलामी बहुत फीकी रही। फिर भी सीएजी की कमान से निकले हुए इस तीर ने यूपीए सरकार को ध्वस्त करते हुए कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को ही दागदार नहीं किया, साफ-सुथरी छवि के अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी संदेह के घेरे में ले लिया। अभी भ्रष्टाचार की बहस खत्म नहीं हुई है लेकिन, इस फैसले ने कांग्रेस को कटघरे से बाहर निकालकर लड़ने के लिए खुले मैदान में खड़ा कर दिया है।


Date:22-12-17

दलबदल के खिलाफ नया नजरिया

ए. सूर्यप्रकाश,[ लेखक प्रसार भारती के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]

उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू द्वारा राज्यसभा के दो सदस्यों, शरद यादव और अली अनवर की सदस्यता रद करने का फैसला और इस संबंध में दिए गए उनके तर्क ने दलबदल रोधी कानून में नए आयाम जोड़े हैं। इससे न सिर्फ इसके प्रावधानों को मजबूती मिली है, बल्कि कानून निर्माताओं के मूल इरादे भी सुदृढ़ हुए हैं। इसके अलावा उम्मीद है कि पीठासीन अधिकारियों पर भी दबाव पड़ेगा कि वे ऐसे मामलों की जांच-पड़ताल और निपटारा तीन महीने के अंदर करें। इन दोनों सदस्यों के खिलाफ दलबदल का मुद्दा कुछ इस तरह सामने आया।दरअसल कुछ महीने पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चुनाव पूर्व लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल के साथ बने गठबंधन यानी महागठबंधन से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करने का फैसला किया किया। शरद यादव और अली अनवर, दोनों ने नीतीश कुमार के इस निर्णय का खुलेआम विरोध किया। इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने लालू यादव के साथ मंच तक साझा किया। उधर नीतीश कुमार को अपने फैसले के पक्ष में अपनी पार्टी के विधायकों और अन्य पदाधिकारियों का बहुतायत में समर्थन मिला। परिणामस्वरूप जनता दल (यू) ने बिना समय गंवाए शरद यादव को उच्च सदन यानी राज्यसभा में पार्टी नेता के पद से विमुक्त कर दिया और उनके और अली अनवर के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई आरंभ कर दी।
दलबदल रोधी कानून, जो कि संविधान की 10वीं अनुसूची का हिस्सा है, के पैरा 2 (1) में कहा गया है कि यदि कोई सदस्य ‘स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता त्याग दे’ या अपनी पार्टी लाइन से इतर जाकर सदन में वोट करे या वोटिंग के समय सदन से अनुपस्थित रहे तो वह अयोग्य ठहराया जा सकता है। यहां महत्वपूर्ण सवाल यह खड़ा होता है कि इन दोनों राज्यसभा सदस्यों का आचरण क्या अपनी पार्टी जनता दल (यू) की सदस्यता को ‘स्वेच्छा से त्यागने’ के अंतर्गत आता है? अपने खिलाफ कार्रवाई के विरोध में इन दोनों सांसदों ने तर्क दिया कि उन्होंने पार्टी का ‘स्वेच्छा से त्याग’ नहीं किया था। वास्तव में यह नीतीश कुमार थे, जिन्होंने पार्टी संविधान के ध्येय और उद्देश्यों का उल्लंघन करते हुए और पार्टी के सिद्धांतों की बलि चढ़ाते हुए ऐसा किया। उन्होंने यह भी कहा कि दरअसल नीतीश कुमार का महागठबंधन से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी के साथ जाने का फैसला ही जनता दल (यू) में टूट का कारण बना था और पार्टी में हुए विभाजन के बाद उनके गुट के पास पार्टी सदस्यों का पर्याप्त बहुमत था। सांसदों ने ऐसे तमाम तर्क देने की कोशिश की कि चुनाव पूर्व बने गठबंधन की शुचिता का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, लेकिन महागठबंधन को एक राजनीतिक दल के बराबर खड़ा करने का उनका प्रयास सफल नहीं हो सका।

वास्तव में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने सिफारिश की है कि चुनाव पूर्व बने गठबंधन की पवित्रता बरकरार रखने के लिए दलबदल रोधी कानून में संशोधन किया जाना चाहिए। वह कहता है कि गठबंधन आज हकीकत बन गए हैं और ऐसे में चुनाव पूर्व बने गठबंधन को अपने सहयोगियों के साथ कानूनी रूप से बांधे रखने के लिए कुछ जरूरी प्रावधान किए जाने की आवश्यकता है। हालांकि संसद ने इस पर अभी तक सहमति नहीं दी है और उसने दलबदल रोधी कानून का विस्तार चुनाव पूर्व बने गठबंधन तक नहीं किया है और मौजूदा कानून सिर्फ केवल राजनीतिक दलों की बात करता है और उन्हीं पर लागू होता है। संविधान की समीक्षा करने के लिए बने राष्ट्रीय आयोग ने भी जनप्रतिनिधियों द्वारा चुनाव लड़ने के लिए ऐन वक्त पार्टी बदलने पर रोक लगाने के लिए इस बात पर जोर दिया था।सभापति ने इस आपत्ति को भी नजरअंदाज कर दिया कि जद-यू राज्यसभा में नए नेता का चुनाव कर रही है। दरअसल शरद यादव को हटाने के बाद जदयू से जुड़े बहुतायत सांसदों ने सदन में नए नेता का चुनाव किया था। इस संदर्भ में सभापति ने कहा कि मैं इस विषय को लोकतांत्रिक व्यवस्था के आईने में देख रहा हूं। लोकतंत्र में बहुमत का शासन होता है और उसी की आवाज सुनी जाती है और सुनी जानी भी चाहिए। इस मामले में उन्होंने यह भी कहा कि दोनों सांसद यह प्रमाण देने में असफल रहे कि पार्टी के विधायकों-सांसदों और पदाधिकारियों का बहुमत उनके साथ है। इसके अलावा नीतीश कुमार द्वारा महगठबंधन से अलग होने के फैसले की दोनों सांसदों द्वारा निंदा और जद-यू विरोधियों के साथ सार्वजनिक मंच साझा करना इस बात के पक्के सुबूत थे कि दोनों ने पार्टी विरोधी गतिविधियों में बड़ी भूमिका निभाई थी।इस मामले में मुख्य जोर यह स्पष्ट किया जाना था कि क्या दोनों सांसदों ने ‘स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता त्यागी’ थी? सभापति ने इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों का सहारा लिया। राम नाईक बनाम संघ सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि ‘स्वेच्छा से अपनी सदस्यता त्याग देना’ का अर्थ इस्तीफा देना नहीं है, बल्कि इसका व्यापक अर्थ होता है। प्रत्यक्ष रूप से इस्तीफे के अभाव में एक सदस्य के आचरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह जिस पार्टी से जुड़ा है उसकी सदस्यता उसने ‘स्वेच्छा से त्याग’ दी है या नहीं? एक-दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राजनीतिक पार्टी की सदस्यता ‘स्वेच्छा से त्यागने’ का कार्य व्यक्त या अव्यक्त, दोनों रूपों में हो सकता है। हालांकि राम नाईक मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्व आठवीं लोकसभा की विशेषाधिकार समिति ने भी ‘स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ने’ के सवाल का गहन परीक्षण किया था। तब समिति ने माना था कि इस संवैधानिक प्रावधान को संकीर्ण दायरे में नहीं देखा जाना चाहिए। उसने कहा था कि इसे संसद को ध्यान में रखते हुए परिभाषित किया जाना चाहिए। इसकी व्याख्या भी उसी संदर्भ में होनी चाहिए, जिसके परिप्रेक्ष्य में इसका प्रयोग होता है। उसने अपनी रिपोर्ट में कहा था, ‘कानून निर्माताओं के इरादे बिल्कुल स्पष्ट हैं। इसमें न सिर्फ प्रत्यक्ष रूप से इस्तीफा देना शामिल है, बल्कि एक सदस्य द्वारा अपनी पार्टी की सदस्यता ‘स्वेच्छा से त्यागना’ भी समाहित है।

समिति के विचार हैं कि यदि एक सदस्य अपने व्यवहार से यह स्पष्ट कर देता है कि वह पार्टी अनुशासन से बंधा हुआ नहीं है यानी उससे मुक्त है और अपने आचरण से उसे नुकसान पहुंचाने को तैयार है तो उसे इसकी कीमत भी चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए।’ वेंकैया नायडू ने दलबदल रोधी मामलों के समय पर निपटाने की जरूरत का मुद्दा भी सामने ला दिया है। उन्होंने ऐसे मामलों को निपटाने में होने वाली अनावश्यक देरी के लिए कुछ पीठासीन अधिकारियों की हो रही भारी आलोचनाओं का भी हवाला दिया कि किस तरह वे दलबदलुओं को सांसद-विधायक बनाए रखने में मददगार साबित हो रहे हैं। हरियाणा विधानसभा बनाम कुलदीप बिश्नोई एवं अन्य के मामले में अध्यक्ष ने अयोग्य ठहराने की मांग करने वाली अर्जी का निपटारा करने में चार साल का समय लिया था। सभापति ने कहा कि ऐसे सभी मामले तीन महीने में निपटाए जाने चाहिए तभी दलबदल के दोष से छुटकारा पाया जा सकता है।


Date:22-12-17

कृषि संकट के बीच उम्मीद की नई कोपलें

देविंदर शर्मा

नए वर्ष की तरफ बढ़ते हुए कुछ ऐसे कदमों से शुरुआत करते हैं, जो कृषि के क्षेत्र में छोटी ही सही, लेकिन उम्मीद बांधते हैं। हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने कहा है कि वह किसानों को मुफ्त में कृषि आदान जैसे बीज और फर्टिलाइजर वगैरह देगी ताकि लागत कम हो सके। मध्य प्रदेश में भावांतर योजना आरंभ हुई ताकि किसानों को समर्थन मूल्य व उनके विक्रय मूल्य के अंतर की राशि सीधे दी जा सके। भावांतर का मकसद किसानों को नुकसान से बचाना है। तेलंगाना ने भी कहा है कि हम किसानों को हर वर्ष 8 हजार रुपए की सहायता राशि देंगे। ऐसे कई कदम अन्य प्रदेशों में भी उठाए गए हैं। ये सभी ऐसे कदम हैं जिनका लक्ष्य किसानों की मदद है। मगर इन छोटी-छोटी उम्मीदों के बावजूद कृषि में जो असल सुधार होने चाहिए, उनकी तरफ हम नहीं जा रहे। इन सभी कदमों में ऐसा भी दिखाई और सुनाई देता है कि राज्य सरकारें किसानों पर मेहरबानी कर रही हैं। इन योजनाओं में हम पाते हैं कि इनका फायदा किसानों के बजाय और किसी को ही हो रहा है। महाराष्ट्र में जो कृषि आदान देने की योजना है, उसका असल फायदा तो बीज और खाद बेचने वाली कंपनियों को हो रहा है कि उनकी बिक्री बढ़ रही है। किसान कल जिस संकट में खड़ा था, आज भी वहीं खड़ा है।कुछ समय पहले तेलंगाना में एक योजना शुरू हुई थी कि वहां किसानों को 10-10 बकरियां दी गई थीं। कुछ ही समय में इसमें से आधी से ज्यादा बकरियां मर गईं। सरकार ने योजना बनाकर ढिंढोरा पीटा, बकरियां बेचने वालों को फायदा हुआ लेकिन किसान आज भी वहीं का वहीं खड़ा है। महत्वाकांक्षी योजनाओं वाले तेलंगाना में 3 हजार किसानों ने आत्महत्या की है, जो कि बेचैन करने वाला आंकड़ा है। इसका मतलब है कि समस्या अधिक गहरी है और हम तात्कालिक राहत पाने के उपाय कर रहे हैं। इनसे कृषि के मर्ज का उपचार नहीं होगा। अभी पैसा भी खर्च हो रहा है और कृषि का संकट बरकरार है।

किसानों की कर्जमाफी भी 2017 में चर्चा में रही। देखिए कि पिछले कई दशकों से हम किसानों को जानबूझकर उनकी फसल का पूरा मूल्य नहीं दे रहे हैं। इसे ‘फार्मथेफ्ट” कहना चाहिए। जब किसान की आय नहीं होगी तो वह कर्ज लेगा ही। समर्थन मूल्य केवल लागत की ही भरपाई करता है। किसान के बाकी खर्चों की पूर्ति कैसे होगी? क्या समर्थन मूल्य पर किसान अपने बच्चों को पाल सकता है? उसके बच्चे पढ़ेंगे कैसे, उनकी शादी कैसे होगी? इन प्रश्नों के बारे में भी हमें सोचने की जरूरत है। किसान कर्ज के नीचे दबा हुआ है। एक कर्ज से उबरने के लिए वह दूसरा कर्ज लेता है, दूसरा कर्ज मिटाने के लिए तीसरा। इस तरह कर्ज का दुष्चक्र चलता ही रहता है।अब समय आ गया है कि हम पूरा कर्जा साफ करके किसानों की मदद करें। क्यों न हम एक बार किसान का पूरा कर्जा माफ कर दें? फिर हम ऐसी नीतियां लाएं, जिनसे कर्ज न चढ़े। अभी तो हम आंशिक रूप से ही कर्ज का इलाज ढूंढ रहे हैं। किसानों की आय बढ़ाने के बारे में हम गंभीरता से नहीं सोच रहे हैं। अगर किसान की आय बढ़ती है तो आर्थिक सुधार फेल हो जाएंगे। यही वजह है कि नीति-निर्धारक किसानों की समस्या के ठोस हल की तरफ नहीं देखते हैं। पंजाब में 98 प्रतिशत ग्रामीण किसान परिवार कर्जे में है। इनमें 94 प्रतिशत परिवारों का खर्च आमदनी से ज्यादा है। यही कृषकों और कृषि का संकट है। आमदनी नहीं है तो खर्च चलाने के लिए कर्ज तो लेना ही होगा। इस कर्ज के चक्र को तोड़ना ही होगा। तो क्यों न बार-बार के बजाय एक ही बार में इस दुष्चक्र से निकलने का प्रयास किया जाए?

फसलों के दाम का गिरना भी 2017 में चर्चा में रहा। किसानों ने आलू-प्याज सड़क पर फेंके। आर्थिक विशेषज्ञ कहते हैं कि इसके लिए किसानों को बाजार से जोड़ा जाना जरूरी है। इससे किसानों की फसलों के दाम गिरने की समस्या का हल निकल आएगा। मगर इस पर गौर कीजिए कि अभी देशभर के सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही समर्थन मूल्य मिलता है। 94 प्रतिशत किसान तो पहले से ही बाजार के भरोसे हैं। आजादी के 70 साल बाद भी किसान आत्महत्या कर रहा है तो वजह यही है कि बाजार से उसे कोई लाभ नहीं मिला है। बाजार में किसान लगातार नुकसान में है। कृषि समस्या के मूल में राजनीतिज्ञों की सोच नहीं बल्कि आर्थिक सलाहकारों की समझाइश है। जब बाजार असफल हो चुके हैं तो कोशिश यह हो कि किसानों को बाजार से कैसे निकाला जाए। सारे सलाहकार किसान को बाजार में धकेलने की बात करते हैं। ऐसे में कैसे किसान का हित होगा?हालांकि देश के कई क्षेत्रों में किसान अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन समग्रता में असर पैदा नहीं हो रहा है। हमारे देश में एक-दो उद्योगों को छोड़कर हर उद्योग सब्सिडी पर है, मगर उनकी सब्सिडी पर बात नहीं होती है, बात हमेशा कृषि सब्सिडी की होती है। कॉरपोरेट का एनपीए खत्म करना आर्थिक तरक्की कहा जाता है और किसानों का कर्ज खत्म करना वित्तीय अनुशासन भंग करना। अगर हमने हमारा ढांचा इस तरह बनाया है तो यह हमारे आर्थिक ढांचे का दोष है।अब तक हम विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की शर्तों को मानते गए और कृषि की अनदेखी करते गए। विश्व व्यापार संगठन कहता है कि हम अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए जो अनाज खरीदते हैं, वह विश्व व्यापार संगठन से खरीदें। इसका सीधा मतलब है कि समर्थन मूल्य पर मार पड़ेगी। इसका सामना भी हमें आने वाले वर्षों में करना है और हमारी कोई तैयारी नहीं है।

हम कृषि में उम्मीद की ही तलाश कर रहे हैं तो जैविक कृषि के प्रयोगों को देखना होगा। हमारे प्रधानमंत्री उत्तर-पूर्व, हिमाचल या अन्य पहाड़ी क्षेत्रों पर उर्वरकों के इस्तेमाल की मनाही और जैविक कृषि पर जोर देने की बात कहते हैं। वे बिलकुल ठीक कहते हैं, लेकिन वे बहुत ही छोटे क्षेत्रों के लिए जैविक कृषि अपनाने की बात करते हैं। संभव है कि आर्थिक सुधारक उन्हें डराते हों कि उर्वरकों का इस्तेमाल रोक देने से उत्पादन गिर जाएगा। मगर हर क्षेत्र में हम अपनी ताकत को कम करके देखते आए हैं। हमारे देश में 30 करोड़ गौ वंश है। हमारे पास गाय की 39 नस्लें हैं। मैं हमेशा सोचता था कि भारतीय गायें कम दूध क्यों देती हैं। मैंने विशेषज्ञों से पूछा तो उन्होंने कहा कि भारतीय गाय के बारे में बात भी मत करो क्योंकि हमें विदेशों से उन्न्त नस्ल मंगवाकर उसका भारतीय गाय के साथ क्रॉस करवाकर बेहतर किस्म की गाय पैदा करना पड़ी। मगर मेरी आंखें तब खुलीं जब मैंने देखा कि ब्राजील भारतीय गायें बुलवाता रहा। वहां हमारी गिर नस्ल की गाय 73 लीटर दूध देती है। आज हम ब्राजील से ही उन्न्त किस्म के लिए सीमन आयात कर रहे हैं। हमने अपनी ही ताकत की उपेक्षा की। यही हम खेती में कर रहे हैं।आंध्रप्रदेश में एक अच्छा कार्यक्रम कम्युनिटी मैनेज्ड सस्टेनेबल एग्रीकल्चर (सीएमएसए) शुरू हुआ। इसके तहत यहां 36 लाख एकड़ में ऐसी खेती होती है जहां किसी रसायन का उपयोग नहीं होता। आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु चाहते हैं कि सीएमएसए में प्रशिक्षित किसान राज्य के 56 लाख किसानों को 3 साल में रसायनों के उपयोग से दूर कर दें। इस कार्यक्रम के तहत कीटनाशकों का उपयोग खत्म हो गया तो पैदावार भी बढ़ी है। कीटों के हमले भी बहुत कम हो गए, जमीन की उर्वरता भी लौट आई। जैविक कृषि से स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च भी कम हो गया। जब आंध्रप्रदेश ऐसा कर सकता है, तो देश के दूसरे प्रदेश भी कर ही सकते हैं। हमें ऐसी कई और मिसालों की जरूरत है।

-लेखक कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं।


Date:21-12-17

Cleaning up: on reviewing laws in India

A permanent mechanism is needed to review laws and weed out the obsolete ones

EDITORIAL

If law-making is a long and tedious process, it appears that unmaking existing laws is an equally arduous task. How else does one explain the fact that until three years ago, a huge number of obsolete Acts remained in the law books despite losing their relevance and utility? It has been only in the last three years that nearly 1,800 obsolete laws have been repealed. In the latest round, 235 outdated Acts and nine pre-Independence Ordinances have been repealed. These pieces of legislation may have been relevant and necessary at the time they were introduced, but in the absence of a periodic review they continue to burden the statutory corpus. These laws are archaic mainly because the social, economic and legal conditions that required their enactment does not obtain today; they are also not in tune with the progress of democracy since Independence. Among the Acts repealed are the Prevention of Seditious Meetings Act, 1911, the Bengal Suppression of Terrorist Outrages (Supplementary) Act, 1932, and the Preventive Detention Act, 1950. The country still has a body of ‘anti-terror’ legislation as well as preventive detention laws. Although such laws remain in the statute books, these particular enactments are redundant. Other questionable legal provisions, for example, those on ‘sedition’ or exciting disaffection against the state, remain; so do ‘adultery’ and ‘sex against the order of nature’. Such obsolete concepts and notions that underlie law-making also require an overhaul.

In a 2014 interim report, the first of four such reports on obsolete laws, the Law Commission noted that the panel had been identifying Acts for repeal in many of its reports in the past. Its 96th and 148th Reports recommended a good number of such laws. In 1998, the P.C. Jain Commission recommended the withdrawal of a large body of legislation, and also noted that as many as 253 Acts identified earlier for withdrawal still remained on the statute book. Nine ordinances issued by the Governor-General between 1941 and 1946, covering subjects such as war injuries, war gratuities and collective fines, are being removed from the statute book only now. It is odd, even amusing, that the Howrah Offences Act, 1857, the Hackney-Carriage Act, 1879, and the Dramatic Performances Act, 1876, have been in force well into the current century. The problem with not removing archaic laws is that they could be invoked suddenly against unsuspecting and otherwise law-abiding citizens. It is a welcome sign for good governance that the present government is updating and trimming the statute book. Given that legislation is quite a prolific activity, especially in the State Assemblies, it would be advisable to have a permanent commission to review the existing body of law and identify those that require repeal as often as possible.


Date:21-12-17

 Being neighbourly

To fulfil ambitions in Indo-Pacific and beyond, India must work for a cohesive South Asia

Sharat Sabharwal

The 32-year-old SAARC scarcely registers in our foreign policy debate, which is preoccupied with the exciting prospect of India’s role in the Indo-Pacific and beyond. The South Asian agenda has been reduced, at least in public perception, to countering Pakistan and its terror proxies. The Partition curtailed our territory and resources, severed trade and travel routes and was followed by horrendous violence. With the centuries-old tradition of rulers of India dominating the geo-strategic space in South Asia, independent India sought to exclude external powers from the region. There was also a nostalgic reaction from a section that raised the slogan of Akhand Bharat — a concept ranging from the undoing of Partition to a loosely-defined cultural unity covering South Asia and beyond. Both these ideals were belied in subsequent years. Former Prime Minister Atal Bihari Vajpayee buried the idea of undoing Partition during his visit to Lahore in February 1999 by visiting Minar-e-Pakistan, which symbolises the creation of Pakistan. He also propounded the forward-looking approach of developing trust, confidence and creating “a solid structure of cooperation”. Manmohan Singh carried this thinking forward in presenting a vision of South Asia where, with the cooperation of all our neighbours, we move from poverty to prosperity, ignorance to knowledge and insecurity to lasting peace. Instead of pursuing the unrealistic goal of undoing Partition, this approach sought to leverage the large Indian economy in building mutually beneficial trade, economic and other linkages within South Asia. Pakistan, though the largest obstacle to the emergence of a cohesive South Asia, is not the only one. An example is our inability so far to push through a sub-regional Motor Vehicle Agreement with Nepal, Bhutan and Bangladesh after Pakistan blocked a similar arrangement at the SAARC. Such hurdles are inherent in any process involving sovereign nations. A moribund SAARC is not in our interest. Sub-regional and other arrangements such as BIMSTEC, though valuable, are no substitute as these leave out our troublesome western periphery. If SAARC is a broken-down vehicle, we need another instrument, but cannot ignore or abandon the task of building a largely cohesive and stable periphery, which is essential to prevent meddling by external powers and realise our legitimate aspirations in the Indo-Pacific and beyond. We cannot dictate the actions of our neighbours. But we do need to pay more attention to certain aspects within our control. First, our ability to manage our region and stature in the world depend to a considerable degree upon economic success. The continent-sized Indian economy, growing at around 6 per cent, holds a tremendous attraction for our neighbours. Imagine its lure, even for business and industry in an otherwise hostile Pakistan, when it was growing at 8 to 10 per cent, Second, External Affairs Minister Sushma Swaraj’s assurance in an address in December 2014 that realising its special responsibility in driving the locomotive of South Asian growth, India would “continue to institutionalise positive asymmetry in favour of our neighbours and allow all to benefit from our economy and market”, should be the leitmotif of our South Asia policies. Third, all our neighbours have certain vested interests opposed to India and it becomes necessary once in a while to send a coercive message to them. This should, however, not alienate the constituencies that are well-disposed towards us. A jingoistic response, as opposed to discreet punitive action, to the provocations of the Pakistan security establishment and its proxies ends up consolidating opinion there in favour of the provocateurs. The wisdom of restricting transit for Nepal to punish the short-sighted actions of its governments is also questionable. The resulting hardship can turn the entire population against us. Fourth, relations with our South Asian neighbours are intertwined with the interests of our states and certain political constituencies. For example, the politics in Tamil Nadu over the Sri Lankan Tamils issue and our relationship with Pakistan has become a subject of electoral politics in recent years. In a democracy, such politics is unavoidable to an extent but carried out cynically, it could have unintended consequences. Fifth, the cost and time overruns that mar most of our projects at home due to cumbersome administrative and financial procedures also afflicts our projects in neighbouring countries. Instead of complaining against interlopers from outside the region, we need to focus on improving our project delivery. Lastly, the pull of our soft power is the strongest in South Asia because India remains the repository of nearly all linguistic, religious and cultural traditions of this region. India is the epitome of the South Asian diversity, which we have managed well in our vibrant democracy. Any faltering on this count would impair not only our South Asia project, but also our global ambitions.


Date:21-12-17

अमेरिकी सुरक्षा रणनीति के निशाने

हर्ष वी पंत, प्रोफेसर, किंग्स कॉलेज, लंदन

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा जारी नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बताती है कि दुनिया एक स्थाई आर्थिक प्रतिस्पद्र्धा में घिरी हुई है, जिसमें वाशिंगटन की भूमिका विदेशों में लोकतंत्र को बढ़ावा देने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अमेरिका अब बड़ी ताकतों की होड़, आर्थिक प्रतिस्पद्र्धा और घरेलू सुरक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान देगा। ट्रंप के मुताबिक, उदारवादी नीतियों के रूप में पूर्व में जो गलत कदम उठाए गए थे, उसका इतिहास अब औपचारिक रूप से खत्म हो गया है। ये नीतियां शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से अमेरिकी विदेश नीति को दिशा दे रही थीं। ट्रंप प्रशासन ने इस नई सुरक्षा रणनीति को एक ऐसा दस्तावेज बताया है, जो ‘कड़ी-प्रतिस्पद्र्धी दुनिया’ में ‘सैद्धांतिक यथार्थवाद’ पर आधारित है। यह रणनीति दुनिया की बड़ी ताकतों की राजनीति पर केंद्रित है और रूस व चीन को ऐसी ‘संशोधनवादी शक्तियां’ मानती है, जो वैश्विक यथास्थिति को बदलने की इच्छुक हैं और प्रतिस्पद्र्धा में पक्ष में किसी तरह के सहयोग को नकारते हुए एक अप्रिय दुनिया की छवि गढ़ती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ने इसे और स्पष्ट करते हुए बताया कि ‘चीन व रूस अमेरिकी ताकत, प्रभाव व हितों को चुनौती देते हैं, और अमेरिकी सुरक्षा व समृद्धि को नष्ट करने की कोशिश करते हैं’। इसीलिए अमेरिका ने ‘पिछले दो दशक की अपनी नीतियों की समीक्षा की है। वे नीतियां असल में इस धारणा पर आधारित थीं कि विरोधियों को साथ लेकर चलने और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं व वैश्विक अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी सुनिश्चित किए जाने से वे भरोसेमंद दोस्त बन जाएंगे।’ नया दस्तावेज बताता है कि ‘कई मामलों में यह धारणा गलत साबित हुई है’। जाहिर है, यह दो बड़ी शक्तियों पर असाधारण हमला है। ट्रंप बताते हैं कि रूस और चीन ‘अर्थव्यवस्था को अपेक्षाकृत कम मुक्त करने व कम निष्पक्ष बनाने के हिमायती हैं। वे अपनी सेना के विस्तार, अपने समाजों के दमन के लिए सूचना व डाटा पर नियंत्रण रखने और अपना प्रभाव बढ़ाने के भी पक्षधर हैं’। अमेरिकी राष्ट्रपति का दावा है कि चीन और रूस ‘उन्नत हथियार व सैन्य क्षमता’ विकसित कर रहे हैं, जो अमेरिका के ‘महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे और नियंत्रण रखने वाली संरचनाओं’ के लिए खतरा बन सकती है। दस्तावेज की मानें, तो अमेरिका अब खुलकर यह मान रहा है कि ‘दुनिया भर में सशक्त सैन्य, आर्थिक व राजनीतिक प्रतिस्पद्र्धा चल रही है’ और ट्रंप प्रशासन ‘इस चुनौती से पार पाने, अमेरिकी हितों की रक्षा करने और अमेरिकी मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिए अपने प्रतिस्पद्र्धात्मक कदमों को तेज करने’ का इरादा रखता है। राष्ट्रपति टं्रप के ही शब्दों में कहें, तो ‘हम इतनी मजबूती से खडे़ होंगे, जैसे पहले कभी नहीं खडे़ हुए हैं’।साफ है, दुनिया में लोकतंत्र को बढ़ावा देने संबंधी नीति को, जो पारंपरिक रूप से अमेरिकी विदेश नीति की आधारशिला रही है, अब नजरअंदाज किया जा रहा है और ट्रंप की ‘अमेरिका फस्र्ट’ संबंधी सोच यही संभावना जगाती है कि अमेरिका ‘दुनिया भर में उचित व पारस्परिक आर्थिक संबंधों की वकालत करेगा’। जाहिर है, आने वाले हफ्तों में चीन के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जा सकती है। उसके खिलाफ बौद्धिक संपदा चोरी करने संबंधी मामलों और जबरिया प्रौद्योगिकी हस्तांतरण संबंधी नीतियों की जांच पूरी होने वाली है। ऐसे में, ट्रंप प्रशासन चीन से आने वाले उत्पादों पर नया दंडात्मक सीमा-शुल्क लगा सकता है। इस सुरक्षा दस्तावेज में अमेरिका की बौद्धिक संपदा के महत्व पर पहली बार जोर दिया गया है। इसमें ‘नेशनल सिक्योरिटी इनोवेशन बेस’ की बात कही गई है, जिसमें शिक्षा या शिक्षा संबंधी शोध से लेकर तकनीकी कंपनियों तक, सभी को शामिल किया गया है। ट्रंप की नई सुरक्षा रणनीति स्पष्ट करती है कि ‘रचनात्मक अमेरिकियों की बौद्धिकता और उन्हें सक्षम बनाने वाली स्वतंत्र प्रणाली अमेरिकी सुरक्षा व समृद्धि के लिए काफी मायने रखती है’। जलवायु परिवर्तन को राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के लिए भार मानते हुए उसे झटक दिया गया है। इसकी अपेक्षा जून में पेरिस समझौता से अमेरिका के बाहर निकालने संबंधी ट्रंप की घोषणा के बाद से ही की जा रही थी। ऐसा इस सच के बावजूद किया गया है कि ट्रंप ने 2018 में रक्षा पर होने वाले खर्च को लेकर जिस बिल पर हस्ताक्षर किए, उसमें कहा गया है कि ‘अमेरिका की सुरक्षा के लिए जलवायु परिवर्तन एक बड़ा व सीधा खतरा है’। हालांकि विश्व की बहुपक्षीय व्यवस्था को इस दस्तावेज में पूरी तरह खारिज नहीं किया गया है। यह बताता है कि ‘मौजूदा आर्थिक व्यवस्था अब भी हमारे हित का पोषण करती है। मगर हां, अमेरिकी कामगारों की समृद्धि, हमारे इनोवेशन की सुरक्षा और इस व्यवस्था के बुनियादी मूल्यों की रक्षा के लिए इसमें सुधार जरूर किया जाना चाहिए’। इसमें यह उम्मीद जताई गई है कि ‘व्यापारिक सहयोगी और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं कारोबारी असंतुलन को साधने और कायदे-कानूनों का पालन सुनिश्चित करने के लिए काफी कुछ कर सकती हैं’।अच्छी बात यह है कि जिस दस्तावेज में ऐसे सख्त शब्दों का इस्तेमाल हुआ हो, उसमें भारत के साथ बिल्कुल अलग रवैया अपनाया गया है। रणनीतिक सहयोग की इच्छा जताते हुए इसमें कहा गया है कि चूंकि ‘भारत एक प्रमुख वैश्विक ताकत के रूप में उभरा है, इसलिए यह रणनीति जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के साथ चतुष्कोणीय सहयोग बढ़ाने की वकालत करती है’। वहीं पाकिस्तान की लानत-मलामत करते हुए उसे चेताया गया है कि वह अफगानिस्तान में ‘अस्थिरता’ फैलाने से बाज आए, और साथ ही ‘दहशतगर्दों को समर्थन देना’ बंद करे, जो उप-महाद्वीप में अमेरिकी हितों को निशाना बनाते हैं। बहरहाल, नई सुरक्षा रणनीति को जारी करते हुए ट्रंप ने यह जरूर कहा कि ‘अमेरिका प्रतिस्पद्र्धा की अपनी जंग जीतने वाला है’, पर इस रणनीति के निहितार्थ आने वाले समय में ही साफ हो सकेंगे। दस्तावेज में महत्वाकांक्षा साफ झलकती है, मगर इसमें प्रयोजन, माध्यम और साधन के लिहाज से काफी असमानताएं हैं। और जल्द ही, जब इसे यथार्थ रूप देने की कोशिश होगी, इसमें मौजूद विषमताओं को लेकर तरह-तरह के विचार हमारे सामने आ सकते हैं। इसीलिए विश्व समुदाय की नजर इस रणनीति के शब्दों को पढ़ने की बजाय ट्रंप प्रशासन के अगले कदमों पर होगी।