
21-11-2016 (Important News Clippings)
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After Marrakech
World must convince Trump that climate change isn’t a hoax
Nonetheless there were some bright spots such as a group of 48 countries, including some of the poorest nations, committing to become zero carbon societies by 2050. Plus, the Framework Agreement of the International Solar Alliance launched by India to promote solar energy was opened for signing at Marrakech. But these are baby steps. Given that 2016 is slated to become the hottest year on record with parts of the Arctic now 20°C above normal – that’s akin to 50°C mid-November daytime temperature in Delhi – no one can afford to take climate change lightly. Trump must recognise that failure to acknowledge this will be an abnegation of American leadership, which in turn will be a body blow to US prestige and soft power.
Demonetisation: Mobilise mobile money infrastructure
To get rural folk to use mobile banking will call for some extensive education. Necessity is a great teacher. That said, it would be useful if political parties and their associated youth and other organisations act as volunteers who guide people on the use of mobile banking. This will not remove all the strain arising from the disappearance of cash. But it would ease the pain for many.
आईटी की मुश्किलें
सरकार के खर्च पर चुनाव कराना बेहतर, किफायती
देश में 8 नवंबर से 500 और 1000 रुपए के पुराने नोटों का चलन बंद हो चुका है। अब अहम सवाल यह है कि अर्थव्यवस्था से कालेधन को जड़ से खत्म करने के लिए सरकार और क्या कदम उठा सकती है। कहा जा रहा है कि अब रियल एस्टेट को निशाना बनाया जाएगा। लेकिन वास्तव में सबसे पहले राजनीतिक दलों के चंदे को कालेधन से मुक्त कराने की दिशा में सुधार की जरूरत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद सत्र से पहले हुई सर्वदलीय बैठक में इसकी चर्चा की है। राजनीति और चुनाव कालेधन की मांग बढ़ाने के मुख्य कारक हैं इसलिए इससे सबसे पहले निपटने की जरूरत है।
कुछ अखबारों के संपादकीय में इस विचार का स्वागत किया गया है। लेकिन सरकारी खर्च पर चुनाव का बोझ देश वहन कर सकता है या नहीं, इस पर संदेह जताया गया है। यह सोच पूरी तरह गलत है। चुनाव पांच साल में एक बार होते हैं। यदि सरकार प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने का खर्च देती है तो यह उनकी कालेधन और भ्रष्टाचार पर निर्भरता कम करने का एक बेहतर तरीका हो सकता है।
राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की प्रक्रिया में सुधार के लिए दो क्षेत्रों में विशेष ध्यान देने की जरूरत है। पहला, प्रत्याशियों को चुनाव प्रचार के लिए राशि उपलब्ध कराना। और दूसरा, पार्टियों को राजनीतिक गतिविधियों के लिए राशि उपलब्ध कराना। चूंकि राजनीतिक पार्टियां लोकतंत्र का केंद्र हैं इसलिए इन्हें मिलने वाले पैसे को वैध बनाने की सख्त जरूरत है।
जहां तक प्रत्याशियों की बात है उन्हें चुनाव लड़ने के लिए सरकार की ओर से पैसा इस तरह उपलब्ध कराया जा सकता है। मान लें, हर चुनाव क्षेत्र में प्रत्याशियों के बीच राशि बांटने के लिए 5 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया। यह रकम चुनाव के अंतिम परिणाम में प्राप्त वोट के आधार पर प्रत्याशियों के बीच बांटी जानी चाहिए। ज्यादा वोट पाने वाले तीन प्रत्याशियों को उनके द्वारा पेश किए गए बिलों के आधार पर इसका बड़ा हिस्सा दिया जा सकता है। वहीं, कम मत वोट पाने वाले प्रत्याशी जिनकी जमानत जब्त नहीं हुई है उन्हें कम राशि दी जा सकती है। बेहद कम वोट पाने वाले प्रत्याशियों को कुछ नहीं मिलना चाहिए।
इस तरह देखें तो लोकसभा की कुल 543 सीटों के लिए हर पांच साल में 2,715 करोड़ रुपए की जरूरत होगी, यह मानते हुए कि इस दौरान कोई मध्यावधि चुनाव नहीं होगा। सरकार सांसदों के चुनाव क्षेत्र के विकास के लिए, सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (एमपीलैड्स) के तहत हर साल 4,000 करोड़ रुपए खर्च करती है। यदि इस योजना की राशि एक साल रोककर लोकसभा चुनाव के लिए उपलब्ध कराई जाती है तो इससे बजट पर किसी तरह का असर नहीं होगा। यदि यह योजना पूरी तरह बंद की जाती है तो सरकार के पास इतना पैसा उपलब्ध होगा जिससे केंद्र और राज्यों के सभी चुनाव कराए जा सकते हैं। इसके बाद भी पैसे बच जाएंगे, जिसे शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च किया जा सकता है।
यदि इस योजना को बंद नहीं किया जाता है तो गुड्स एंड सर्विसेस टैक्स (जीएसटी) पर 0.1 फीसदी सेस लगाना पर्याप्त होगा। इन दोनों में से चाहे जो तरीका अपनाया जाए, इससे हर प्रत्याशी के लिए (बड़े राज्यों में चुनाव खर्च की मौजूदा सीमा 70 लाख रुपए से) अधिक राशि उपलब्ध होगी।
इस तरह यहां मुद्दा पैसे का नहीं है। लेकिन यह हमें जिस बड़े मुद्दे की ओर ले जाता है वह है पॉलिटिकल फंडिंग यानी राजनीतिक दलों का चंदा। यह ऐसा क्षेत्र है जहां भ्रष्टाचार की जड़ें काफी गहराई तक हैं। इसकी वजह यह है कि राजनीतिक दलों को सत्ता में आने के बाद उद्योग जगत के अनुकूल आर्थिक नीतियां बनाने और फैसलों में पक्ष लेने के लिए बड़े अमीरों, कारोबारियों और उद्योगपतियों से अक्सर कालेधन के रूप में बड़ी मात्रा में चंदा मिलता है। फिलहाल राजनीतिक पार्टियों के लिए 20,000 रुपए से कम राशि के चंदे का खुलासा करना अनिवार्य नहीं है। वर्ष 2015-16 में सभी राजनीतिक दलों ने इस सीमा से ऊपर चंदे के रूप में कुल 622 करोड़ रुपए का खुलासा किया है। इस तरह, 20,000 रुपए की सीमा से ज्यादा मिली राशि में कुछ कालाधन मानी जा सकती है।
राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे की प्रक्रिया में सुधार का यही एक तरीका है कि 1,000 रुपए से अधिक राशि के चंदे का भुगतान चेक से किया जाए या पैनका उल्लेख किया जाए। इससे अधिक राशि का चंदा तभी टैक्स-फ्री होना चाहिए। चंदा देने वाले सभी पक्ष की जानकारी आयकर अधिकारियों को उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इसके अलावा सभी राजनीतिक दलों को चंदे के बारे में आरटीआई का जवाब देने और बड़ा चंदा देने वालों के नाम का खुलासा करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए।
पार्टियों को चंदा देने वाले ज्यादातर बड़े अमीर, कारोबारी या उद्योगपति होते हैं, इसलिए संभव है उन्हें यह आइडिया पसंद न आए। लेकिन एक परिपक्व लोकतंत्र में राजनीतिक झुकाव की पारदर्शिता का होना आवश्यक है। हालांकि राजनीतिक चंदे के रिफॉर्म की दिशा में सभी दलों को एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर राजी करना आसान नहीं होगा। लेकिन पार्टियों के चंदे को पारदर्शी बनाया जाए, इससे पहले प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिए सरकार की ओर से राशि उपलब्ध कराई जा सकती है। इसका सत्यापन ऑडिटर और जनता बाद में कर सकती है। इस तरह, यहां पैसा समस्या नहीं है। असल मुद्दा राजनीतिक चंदे में सुधार को लेकर पार्टियों में इच्छाशक्ति का अभाव है।
– लेखक आर्थिक मामलों के वरिष्ठ पत्रकार,’डीएनए’ के एडिटर रह चुके हैं।
वीकली इकोनॉमी | आर. जगन्नाथन
Date: 21-11-16
सोशल नेटवर्किंग : ट्रम्प का चुनाव तो उदाहरण मात्र है
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के परिणामों को लेकर सिलिकॉन वैली की टेक्नोलॉजी कंपनियां निशाने पर हैं। आरोप हैं कि उनके कारण परिणामों पर असर पड़ा। सिलिकॉन वैली में ही कई लोगों का मानना है कि ऑनलाइन दुनिया में बड़े पैमाने पर ‘फेक न्यूज़’ का प्रसार हुआ और उसके कारण यह परिणाम आया। परिणामस्वरूप गूगल और फेसबुक ने अपनी ऑनलाइन विज्ञापन नीतियों में बदलाव शुरू कर दिया है। उसके तहत ऐसी साइटों को हटा दिया जाएगा, जो फेक न्यूज़ के साथ झूठे प्रचार से कमाई करती हैं। यह बहुत सार्थक कदम है, भले ही देर से उठाया गया। यह जरूरी भी है, क्योंकि इंटरनेट के कारण सच्चाई को लेकर हमारी सामूहिक समझ कमजोर पड़ गई है।
फेक न्यूज़ के खिलाफ जांच अगर बंद कर दी गई, तो बहुत बड़ी गलती होगी। सच तो यह है कि फेक न्यूज़ के खतरे उतने कम नहीं हैं, जो दिखाई दे रहे हैं। यह अंश मात्र है। फेक न्यूज़ का बुरा प्रभाव दुनियाभर में दिखाई देने लगा है। अरबों लोग फेसबुक, वॉट्सएप, ट्विटर, वीचैट, इन्स्टाग्राम और वीबो जैसी सेवाओं से चिपके हुए हैं। हाल के दौर में सोशल मीडिया तेजी से बढ़ता सबसे शक्तिशाली सांस्कृतिक और राजनीतिक ताकत बनकर उभरा है। इसके प्रभाव से दुनियाभर में घटनाओं का स्वरूप बदलने लगा है। डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव का उदाहरण सबसे ताज़ा और सख्त उदाहरण है।
सोशल नेटवर्किंग के कारण समाज में मौलिक बदलाव दिख रहा है, उसने समाज में मुख्य स्थान हासिल कर लिया है। उसके कारण परंपरागत संस्थान या तो पंगु हो रहे हैं या फिर वे तौर-तरीका बदलने पर मजबूर हैं। इनमें राजनीतिक दल और अंतरराष्ट्रीय संगठन भी शामिल हैं। सबसे महत्वपूर्ण है कि यह सेवा लोगों को एक-दूसरे से बहुत आसानी से बात करने की छूट देती है। इसके कारण हाशिये पर पड़े सूमह या व्यक्ति भी प्रभावशाली नजर आते हैं।
यह सामाजिक बदलाव बड़े क्षेत्र में फैल चुका है। अमेरिका से ब्रिटेन, ब्रिटेन से आईएस और आईएस से रूस और पूर्वी यूरोप के हैकरों तक। सभी जगहों पर अपने-अपने तरीके से इसका इस्तेमाल हो रहा है और उसके परिणाम बिल्कुल अप्रत्याशित हैं।
वैश्विक जोखिमों पर रिसर्च करने वाली फर्म ‘यूरेशिया ग्रुप’ के प्रेसीडेंट इयान ब्रेमर कहते हैं- इंटरनेट पर सक्रिय करोड़ों-अरबों लोगों में से ज्यादातर यथास्थिति से खुश नहीं हैं। वे सोचते हैं कि उनकी सरकार तानाशाह हो गई है और वे गलत पक्ष की तरफ खड़े हैं। जहां तक ट्रम्प के जीतने की बात है, तो उसके कई कारण हैं – उद्योगों की वर्तमान हालात और अर्थव्यवस्था को लेकर मध्यम वर्ग की चिंता, राष्ट्र भावना में बदलाव, नस्लवाद, अप्रवासियों के खिलाफ नफरत का वातावरण और लैंगिक भेदभाव। ट्रम्प ने खुद स्वीकारा था कि इस दौड़ में सोशल मीडिया भूमिका निर्धारित कर रहा है। आखिरकार ट्रम्प ने दुनियाभर के राजनीतिक पंडितों को झूठा साबित कर दिया। इससे पता चलता है कि उनकी ऑनलाइन टीम को छोड़कर उन्हें हर तरह की राजनीतिक व्यवस्था से अलग-थलग कर दिया गया था। नई टेक्नोलॉजी में लोग इतने सशक्त हैं कि उन्हें शिकायतें व्यक्त करने का अधिकार है। ब्रेमर अब कहते हैं- यदि सोशल मीडिया ऐसा नहीं होता, तो ट्रम्प नहीं जीत सकते थे। फेसबुक की सबसे डरावनी बात यह है कि लोग उम्मीद के मुताबिक दुनिया देखना पसंद करते हैं। यह समय है न सोशल नेटवर्कों की पहचान करने का, जो दुनिया बिखेरने वाली ताकत बनकर उभर रहे हैं। इसमें आश्चर्य नहीं कि हम कल्पनाओं से भरी दुनिया में जी रहे हैं और उस कल्पना को सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाया जा रहा है। सोशल नेटवर्किंग पर अध्ययन करने वाले न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर क्ले शिर्की कहते हैं- सोशल नेटवर्क लोगों के बीच हर तरह के संवाद सामने रखता है। इस तरह वे अधिक क्षमतावान बनते हैं। ‘जब टेक्नोलॉजी उबाऊ हो जाती है, तब सामाजिक प्रभाव रोचक हो जाते हैं।’ आने वाले दौर में संभव है कि हमें और अधिक नापसंद उम्मीदवार और नीति निर्धारक देखने को मिलें, जो पहले कभी नहीं हुए। देखना होगा कि होने वाली अप्रत्याशित घटनाएं और उनके नतीजे कैसे होंगे। निश्चित रूप से हमें ऐसे उम्मीदवार और मिलने वाले हैं और उनके रोचक सामाजिक प्रभाव भी। डोनाल्ड ट्रम्प तो आइसबर्ग का एक सिरा मात्र हैं, आगे के रोचक समय के लिए हमें तैयार रहना होगा।
सोशल नेटवर्किंग से समाज में मौलिक बदलाव हो रहा है। यह लोगों को एक-दूसरे से बहुत आसानी से बात करने की छूट देती है। इसके कारण हाशिये पर पड़े सूमह या व्यक्ति भी प्रभावशाली नजर आते हैं।
- पिछले दशक में हम अरब देशों में सोशल मीडिया से उत्पन्न आंदोलनों को देख चुके हैं। इसके बाद अमेरिका में भी उसी के माध्यम से उत्पन्न ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट मूवमेंट और अश्वेतों के खिलाफ एवं समर्थन में प्रदर्शन हो चुके हैं।
- सोशल नेटवर्किंग चुनावी राजनीति में भी अपनी गहरी पैठ जमा चुका है। वर्ष 2003 में हॉवर्ड डीन की असफल उम्मीदवारी और फिर 2008 में अमेरिका के पहले अफ्रीकी-अमेरिकी राष्ट्रपति की विजय।
- इसी वर्ष ब्रिटेन में फेसबुक पर चले सुनियोजित अभियान ने बड़ी भूमिका निभाई। किसी ने नहीं सोचा था कि ब्रिटेन कभी यूरोपीय संघ से अलग होगा।
- फिलिपींस में रोड्रिगो दुतेर्ते को तेजतर्रार मेयर ही माना जाता था, वे विरोधियों के हमेशा निशाने पर होते हैं। वे ऑनलाइन समर्थकों की बड़ी भीड़ इकट्ठा करने में कामयाब रहे और इससे उन्हें राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचने में मदद मिली।
- अमेरिका में कुछ ही माह पहले एक वक्त वह था, जब पार्टी के नेताओं ने ही डोनाल्ड ट्रम्प को दरकिनार करना शुरू कर दिया था। उनके विकल्प की तलाश होने लगी थी। आज वे उसी पार्टी को लीड कर रहे हैं। उन्होंने समर्थकों द्वारा चलाए गए ऑनलाइन अभियान पर भरोसा जताया और अमेरिकी राजनीति की यथास्थिति को चकनाचूर कर दिया।
अफसरशाही पर नकेल की जरूरत
नरेंद्र मोदी के इरादे बेशक नेक थे, लेकिन जिन लोगों का काम था इस योजना को सफल बनाने का, उन्होंने दिखा दिया कि उनकी न तैयारी थी और न ही उनके पास जनता की परेशानियों का हल।
यह सोच कर कि जनता की आवाज बुलंद कर रहे हैं, दोनों मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री पर ऐसे इल्जाम लगाए जैसे किसी महाअपराधी के बारे में बोल रहे हों। ममता बनर्जी ने नोटबंदी के बारे में कहा कि इससे देश में आतंक का माहौल ऐसा बन गया है, जो इमरजंसी में भी नहीं था। अरविंद केजरीवाल ने इल्जाम लगाया कि नोटबंदी के पीछे बहुत बड़ा षड्यंत्र रचा है नरेंद्र मोदी ने, जनता से दस लाख करोड़ रुपए बैंकों में जमा करवाने का, ताकि यह पैसा वे अपने उद्योगपति दोस्तों में बांट सकें। कुछ ऐसी ही बात भिवंडी में राहुल गांधी ने कही, ‘पंद्रह-बीस उद्योगपतियों को ही लाभ पहुंचाने का काम कर रहे हैं मोदी।’
भारत के इन बड़े राजनेताओं में इतनी तकलीफ देख कर मुझे एक अजीब खुशी हुई, इसलिए कि मैंने बहुत बार अपने लेखों में दावा किया है कि असली काला धन सिर्फ राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों के पास होता है, क्योंकि इनकी कमाई का पैसा नहीं है यह। बड़े उद्योगपतियों से अवैध तरीकों से हासिल किया गया पैसा है यह। उनके दफ्तरों-कारखानों में जब छापे पड़ते हैं और छिपा हुआ धन मिलता है, वह अक्सर राजनेताओं को चुनाव के वक्त देने के लिए रखा गया होता है। इस पैसे को काला धन कहना गलत होगा, क्योंकि इसको कमाया है उन लोगों ने अपने खून-पसीने से। काला धन जब पाया जाता है छोटे व्यापारियों के पास, तो वह भी ज्यादातर सिर्फ सरकारी अफसरों को रिश्वत देने के लिए रखा जाता है। अगर इस देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो टैक्स नहीं देते, इसलिए कि टैक्स देना मुश्किल होता है आम आदमी के लिए और पैसे छिपा कर रखना आसान।
फिर भी राजनेताओं को जितनी तकलीफ हुई है नोटबंदी से उतनी तकलीफ आम लोगों में नहीं दिखी। मैंने लंबी-लंबी कतारें देखीं मुंबई में भी और महाराष्ट्र के देहाती बैंकों के सामने भी, लेकिन जब मैंने लोगों से पूछा कि प्रधानमंत्री ने अच्छा काम किया है या गलत, तो अक्सर लोगों ने कहा कि उनको प्रधानमंत्री की यह पहल अच्छी लगी, क्योंकि वे खुद चाहते हैं कि जिनके पास बोरियों में नोट भरे पड़े रखे हैं, उनका पर्दाफाश हो। इसके बावजूद मेरी राय है कि काले धन की यह खोज प्रधानमंत्री जितनी जल्दी बंद कर दें, उतना अच्छा होगा और उन आर्थिक सुधारों पर ध्यान देने का काम करें, जिनके बिना न संपन्नता मुमकिन है न समृद्धि।
आर्थिक सुधारों से भी ज्यादा जरूरत है प्रशासनिक सुधारों की, यह साबित हुआ है नोटबंदी के बाद। नरेंद्र मोदी के इरादे बेशक नेक थे, लेकिन जिन लोगों का काम था इस योजना को सफल बनाने का, उन्होंने दिखा दिया कि उनकी न तैयारी थी और न ही उनके पास जनता की परेशानियों का हल। प्रशासनिक सुधार किए होते प्रधानमंत्री ने शुरू से, तो उनकी यह योजना कहीं ज्यादा सफल होती और लोगों की परेशानियां कम। आखिर बैंकों में नए नोट पहले से क्यों नहीं रखे गए थे? क्यों नहीं बैंकों ने अपने एटीएम नए नोटों के लिए तैयार किए? क्या उन अफसरों को दंडित किया जाएगा, जिनकी वजह से जनता को इतनी परेशानियां झेलनी पड़ी हैं?
उनकी नालायकी से प्रधानमंत्री सीख सकते हैं कि राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों पर नियंत्रण रखने का काम कितना जरूरी हो गया है। समाजवादी आर्थिक नीतियों का आधार है कि अर्थव्यवस्था की पूरी जिम्मेवारी सरकारों की होनी चाहिए, सो ऐसा होता रहा है पिछले सत्तर वर्षों से और इसका परिणाम यह है कि सरकारी अफसर और राजनेता देश के सबसे बड़े कारोबारी बन गए हैं। इनकी ठाठ, शान और दौलत उद्योगपतियों से ज्यादा है और आम नागरिकों को तंग करने की इनकी ताकत बेहिसाब। कहने को भारत में लोकतंत्र है, लेकिन सच यह है कि आर्थिक मामलों में लोकतंत्र नहीं, सरकारी तानाशाही रही है। प्रधानमंत्री बातें बहुत करते हैं देश में बिजनेस का माहौल सुहाना बनाने की, लेकिन अभी तक उन्होंने शायद ध्यान नहीं दिया है कि बिजनेस करना कितना मुश्किल है भारत में। हर कदम पर बाधाएं खड़ी करते हैं अधिकारी, हर कदम पर सताता है कोई इंस्पेक्टर। इतना उलझा कर रखते हैं ये लोग लालफीताशाही में कि इनको कुछ खिलाए बगैर बिजनेस करना तकरीबन असंभव है।
इन चीजों को बदलने का काम किए होते मोदी, तो आज देश की शक्ल शायद बदल चुकी होती। उलटा उन्होंने काले धन की खोज युद्ध स्तर पर करके उन्हीं अधिकारियों और राजनेताओं के हाथ मजबूत किए हैं, जो देश में परिवर्तन नहीं चाहते हैं। सो, अब क्या होगा? अब क्या होना चाहिए? अफवाहें फैल रही हैं कि अब प्रधानमंत्री उन बेनामी जमीन-जायदादों को जब्त करने का काम करेंगे, जो काले धन से बनी हैं। ऐसा अगर करते हैं तो फिर से उन अधिकारियों और इंस्पेक्टरों की ताकत बढ़ेगी, जिनको काबू में रखना चाहिए। वास्तव में मोदी अगर देश में समृद्धि लाना चाहते हैं, तो उनको ऐसे आर्थिक सुधार लाने चाहिए, जिनसे सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं की बिजनेस करने की आदतें छूट जाएं। चुनाव प्रचार जब कर रहे थे 2014 में तो मोदी ने अपने कई भाषणों में कहा था कि उनकी राय में सरकार को बिजनेस करना ही नहीं चाहिए, लेकिन अब शायद वे भूल गए हैं अपनी इस बात को, क्योंकि आज भी उनकी सरकार बिजनेस करने में लगी हुई है। न लगी होती तो कम से कम एयर इंडिया और अशोक होटल जैसी कंपनियां बंद हो गई होतीं, जिनमें जनता के लाखों करोड़ रुपए निवेश होने के बावजूद कभी हमने मुनाफा नहीं देखा है। सो, मेरा विनम्र सुझाव है कि आगे के कदम उस दिशा में हों जिसमें सरकारी अफसरों और राजनेताओं की भूमिका कम होती जाए।
तवलीन सिंह
Date: 20-11-16
नोटों का विमुद्रीकरण या नगदी का?
मैं नोटों की अदलाबदली के विषय पर लौटने को विवश हूं, क्योंकि लोगों की मुश्किलें और तकलीफें जारी हैं।
भयावह नतीजे
अव्यवस्था पर नजर डालें:
1. चलन में रही करीब छियासी फीसद मुद्रा को एक झटके में अवैध घोषित कर दिया गया। इससे करोड़ों लोग बिना पैसे के हो गए। दूध या दवाई खरीदने के लिए, अनाज या सब्जी खरीदने के लिए, आॅटो या टैक्सी करने के लिए लोगों के पास पैसे नहीं थे। मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो दिन भर भूखे रहे, क्योंकि कोई ढाबा पांच सौ का नोट नहीं ले रहा था।
2. देश में बैंकों की कुल 1 लाख 34 हजार शाखाएं हैं। इनमें 2 लाख 15 हजार एटीएम को जोड़ लें, जिनमें से चालीस फीसद काम नहीं कर रहे थे। मान लें कि औसतन पांच सौ लोगों को बैंक शाखा या एटीएम के बाहर कतार में खड़ा होना पड़ा, तो इसका मतलब है कि रोजाना 11 करोड़ लोग नोट बदलने के लिए घंटों कतार में खड़े रहे। उनमें से अधिकतर कामकाजी लोग थे। इससे उत्पादन और उत्पादकता पर पड़े असर का अंदाजा लगाएं।
3. न जाने किन वजहों से कोआॅपरेटिव बैंकों को नोट बदलने की इजाजत नहीं दी गई। करोड़ों किसान न तो जमा कर सकते थे न निकासी, और बुआई के सीजन में उनके पास बीज या खाद खरीदने या मजदूर लगाने के लिए पैसा नहीं था।
4. थोक बाजार बंद हो गए। साप्ताहिक हाट थम गए। खुदरा दुकानों की बिक्री में त्रासद गिरावट दर्ज की गई।
5. तिरुप्पुर, सूरत, इचलकरंजी जैसे औद्योगिक केंद्रों में काम एकदम ठप पड़ गया, क्योंकि न तो मजदूरों को देने के लिए पैसा था न माल ढुलाई जैसी सेवाएं मुहैया कराने वालों को।
6. सभी रोजगारशुदा लोगों में से करीब तैंतीस फीसद लोग ठेके पर काम करने वाले मजदूर हैं (अनुमान है कि पंद्रह करोड़)। अचानक उन्होंने पाया कि वे बेरोजगार हो गए हैं, क्योंकि जिन्होंने उन्हें काम पर रखा था उनके पास मजदूरी का भुगतान करने को पैसे नहीं थे।
7. कीमत लेकर, विमुद्रीकृत नोटों की अदलाबदली कराने वाले दलाल निकल आए। जिनके पास नियमित काम नहीं होता, ऐसे पुरुषों और महिलाओं को कुछ पैसे देकर नोट बदलवाने के लिए लाइन में लगाया गया। थोड़े-से पैसों की खातिर ईमानदार लोग बेईमान बन गए या बना दिए गए। इसकी काट सरकार ने यह निकाली कि उंगली पर अमिट स्याही का निशान लगा दिया जाए। साथ में वोटिंग मशीन भी रखी जा सकती थी और हरेक बैंक शाखा या एटीएम को पोलिंग बूथ में बदला जा सकता था!
अनजान शेखियां
मुश्किलें और तकलीफें अभी बनी रहेंगी, इसलिए कि पुरानों नोटों की जगह लेने वाले 2200 करोड़ नए नोट छापने में महीनों लगेंगे। फिर बैंककर्मियों की तादाद की भी एक सीमा है और अभी सारे एटीएम को नए नोटों के अनुरूप बनाया जाना है।
क्या विमुद्रीकरण से रिश्वतखोरी समाप्त हो जाएगी? बेशक, नहीं। घूस लेने वाले नए नोटों में घूस लेंगे। रिश्वतखोरी की पहली घटना गुजरात से दर्ज हुई है, जहां कांडला पोर्ट ट्रस्ट के दो अफसर दो हजार के एक सौ चौबीस नोट लेते पकड़े गए!
क्या जाली मुद्रा रुकेगी? बेशक, नहीं। अगर एक आदमी नई सुरक्षात्मक खूबियों के साथ नए नोट छाप सकता है, तो दूसरा आदमी इन खूबियों की नकल करने की तरकीब निकाल सकता है। दुनिया में जाली मुद्रा की सबसे ज्यादा शिकायत अमेरिकी डॉलर को लेकर है। जाली मुद्रा से निपटने का एक तरीका यह है कि हम समय-समय पर, पुरानी सिरीज के नोटों को चरणबद्ध तरीके से हटाएं तथा नई सिरीज के नोट जारी करें, और एक कदम जमीन पर रखने के बाद दूसरा कदम आगे बढ़ाएं। पिछली बार हमने इसे जनवरी 2014 में किया था।
क्या इससे काला धन पैदा होना बंद हो जाएगा? बेशक नहीं। अर्थव्यवस्था के ऐसे क्षेत्र, जहां बेहिसाबी धन का लेन-देन आम है (थोक व्यापार, निर्माण उद्योग, सराफा, उच्च शिक्षा, चुनावी चंदा आदि), बेहिसाबी धन की ‘मांग’ बनी रहेगी, और इसलिए, बेहिसाबी धन की ‘आपूर्ति’ के तरीके निकाल लिये जाएंगे।
कोई भी प्रमुख अर्थव्यवस्था काले धन या समानांतर अर्थव्यवस्था की बीमारी से बची नहीं है। विश्व बैंक के एक अध्ययन के मुताबिक, समानांतर या ‘छाया अर्थव्यवस्था’ अमेरिका में जीडीपी का 8.6 फीसद है (या लगभग 1600 अरब डॉलर); चीन में 12.7 फीसद (लगभग 1400 अरब डॉलर); और जापान में 11 फीसद (लगभग 480 अरब डॉलर)। अनुमान है कि भारत की छाया अर्थव्यवस्था 500 अरब डॉलर की है (2250 अरब डॉलर के इसके जीडीपी का 22.2 फीसद)। यह विशाल है, पर अपूर्व नहीं, और यह अच्छी खबर है कि इसका आकार सिकुड़ रहा है। ब्राजील, रूस और दक्षिण अफ्रीका में छाया अर्थव्यवस्थाएं इससे बड़ी हैं; इजराइल और बेल्जियम तुलना करने योग्य हैं।
नगदी का विमुद्रीकरण
लगता है कि प्रधानमंत्री नगदी-रहित अर्थव्यवस्था के विचार पर लट्टू हैं और उन्होंने तय किया कि नगदी के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया जाए। उनके समर्थकों ने इसे ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कहा, इस पर सोचने की तनिक जहमत नहीं उठाई कि भारत में लोगों का अधिकांश लेन-देन नगदी में होता है और वह वैध है- और कई वजहों से यह लंबे समय तक नगदी में ही रहेगा। यहां एक महत्त्वपूर्ण आंकड़ा पेश करना चाहूंगा: 133 करोड़ लोगों के लिए खुदरा बिक्री की केवल 14 लाख 60 हजार ऐसी दुकानें (प्वाइंट्स आॅफ सेल) हैं जहां कंप्यूटरीकृत लेन-देन होता है। नगदी से डिजिटल की तरफ एक लंबा रास्ता करना पड़ेगा।
उड़ी के बाद ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का मकसद घुसपैठ का खात्मा करना था, पर हकीकत यह है कि घुसपैठ में तीन गुना की भारी बढ़ोतरी हुई है (जैसा कि सरकार ने खुद स्वीकार किया है)। करेंसी नोटों पर हुई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का नतीजा करोड़ों लोगों के लिए आर्थिक विपत्ति तथा अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों का काम ठप पड़ जाने के रूप में आया है। यह सोचते हुए मुझे डर लगता है कि अगला ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ क्या होगा और उसके किस तरह के भयानक नतीजे आएंगे।
पी. चिदंबरम