21-10-2024 (Important News Clippings)
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Date: 21-10-24
Major Mess For Minors
Child marriage is an oxymoron, a great tragedy, and very widely tolerated in India
TOI Editorials
Yes, time has seen child marriages decline in India. But if eight decades of Independence later, around one in four females are being married before the age of consent, that’s nothing to be complacent about. Last week, the Supreme Court delivered an extensive judgment on a petition demanding stringent enforcement of the Prohibition of Child Marriage Act, 2006.
What it does is a) elaborately outline both how child marriages violate constitutional rights and the varying mechanisms available to prohibit/prevent/penalise child marriages, plus b) lay out guidelines for ending such marriages. But some of these are dependent on the very agents whose shortcomings the judgment has first fleshed out convincingly. Consider that child marriage prohibition officers are shown as over-tasked, under-qualified, and under-delivering. Then guidelines outline how to fix these personnel, to fix the child marriage problem. This doesn’t seem to be a very hard-headed schema.
What the judgment does not do is pronounce that PCMA overrides personal laws, in response to a GOI submission. Its reasoning for this is that “PCMA states nothing on the validity of the marriage.” Child marriage is an oxymoron, a great tragedy, all child marriages are forced marriages – as much as govts and courts may agree on all this, declaring child marriage void ab initio or invalid from the outset remains for them a step too far. All that the law makes available is a court-based procedure for getting a marriage voided, which can be initiated either by “the contracting party who was a child at the time of the marriage” or guardian or “next friend along with the CMPO”. SC has basically batted the GOI plea to the Parliament.
If SC had found in favour of the GOI submission, would child marriages have ended in India? As a column on this page, ‘In Assam, the answer is schools, not jails’, has underlined, data is crystal clear that it is a household’s education and socio-economic status that are the most significant correlates of child marriage. Red herrings are not real solutions.
Date: 21-10-24
Governor vs Govt.
Mr. Ravi must be withdrawn for needlessly wading into controversies
Editorial
After a fleeting moment of camaraderie, political hostilities between Tamil Nadu Governor R.N. Ravi and Chief Minister M.K. Stalin are on the rise again, this time triggered by a distorted rendition of the State anthem at a Prasar Bharati event. The Tamil Thai Vazhthu, rendered as an invocation song at official functions since 1970, was declared the State anthem in December 2021. This followed a judge holding that there was no statutory or executive order requiring attendees to stand when the song is played, after a seer remained seated during its rendition. At the event that was attended by the Governor, a verse in this 55-second anthem hailing the ‘Dravidian land’ was conspicuously omitted. Though it was described as inadvertent, no attempt was made to rectify it on stage. Most political parties were disapproving of the omission. Mr. Stalin asked whether if Mr. Ravi was being a “Governor” or an “Aryan” and sought to know whether the Governor, “who suffers from Dravidian allergy”, would propose the deletion of the term “Dravida” from the national anthem.
The Governor took umbrage at this and described the “Aryan” reference as “racist”. Such interpretation actually goes against the Governor’s theory that the concept of Aryans and Dravidians was mainly a geographical, “rather than racial”, division; he had expressed his belief that the British had made it “racial” to suit their needs. Mr. Ravi argued that the imputations against him lowered the dignity of the high constitutional office of the Chief Minister. True, it was far-fetched to link him directly to the singers’ omission of a verse. However, Mr. Ravi has consistently linked the ‘Dravidian’ concept to an “expired ideology” that has created an ecosystem that fosters “separatist sentiment”, and does not “relish the idea of ‘One India’”. He has also maintained that the State’s two-language policy resulted in linguistic apartheid. At the Prasar Bharati event, he had alleged that a lot of toxicity has been infused in the minds of the people of Tamil Nadu in the last 50 years. Such views engender the impression that he was against references to anything Dravidian. Even so, it was improper for Mr. Stalin to have waded into the controversy by directly blaming Mr. Ravi. But the larger issue is that governance becomes the casualty in tussles between the Governor and the Government. Given his penchant for political activism and his antagonism to the government’s policies, it is time Mr. Ravi is replaced. Equations between him and the Chief Minister are beyond redemption. The situation is unhealthy for the State and imperils democratic institutions.
Date: 21-10-24
प्रभावी सिद्ध हों न्याय की देवी
हृदयनारायण दीक्षित, ( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं )
न्याय आदिम अभिलाषा है। दुनिया की सभी प्राचीन सभ्यताओं में न्याय व्यवस्था के उल्लेख मिलते हैं। उनमें न्याय की प्रतीक देवी की आंखों पर पट्टी है। एक हाथ में तलवार है। देवी का प्रतीक यूनानी सभ्यता से लंबी यात्रा करते हुए यूरोपीय देशों और अमेरिका में भी पहुंचा।
औपनिवेशिक काल (17वीं सदी) में ब्रिटेन के एक न्यायिक अधिकारी न्याय की देवी की मूर्ति भारत लाए थे। भारत में कलकत्ता और बंबई हाई कोर्ट में न्याय की देवी की मूर्ति स्थापित की गई। इसका सार्वजनिक प्रयोग होने लगा। बांग्लादेश में भी न्याय देवी की प्रतिमा सुप्रीम कोर्ट में थी। कटटरपंथी मुस्लिम जमातों ने इसे बुतपरस्ती बताया और तख्तापलट के आंदोलन में यह ध्वस्त कर दी गई।
स्वाधीन भारत ने न्याय की देवी के प्रतीक को अपना लिया। हाल में प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने न्याय की देवी की एक नई प्रतिमा का अनावरण किया है। इस प्रतिमा में आंख की पट्टी हटा ली गई है। आंखों पर पट्टी कानून के अंधा होने का संकेत देती था। कानून को अंधा नहीं होना चाहिए।
भारतीय सिनेमा ने अंधा कानून विषयक कई फिल्में बनाईं। देवी के एक हाथ में तलवार सजा प्रतिबिंबित करती थी। अब न्याय की देवी की प्रतिमा में तलवार की जगह संविधान है। देवी का यह प्रतीक संवैधानिक मूल्यों और विधि के समक्ष समता का संदेश देता है। देवी की यह प्रतिमा आकर्षक है। उन्हें साड़ी पहनाई गई है। सिर पर मुकुट और गले के हार से मूर्ति को सुंदर बनाया गया है।
सुप्रीम कोर्ट के पुस्तकालय में यह मूर्ति स्थापित की गई है। साफ है कि देश औपनिवेशिक सत्ता के समय के कानूनों और प्रतीकों से धीरे-धीरे छुटकारा पा रहा है। भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता ब्रिटिश काल में अधिनियमित हुए थे। भारतीय संसद ने भारतीय न्याय संहिता, नागरिक सुरक्षा संहिता और साक्ष्य अधिनियम 2023 पारित किए। पुराने बूढ़े कानून कालवाह्य हो चुके हैं।
न्याय की देवी की प्रतिमा प्रेरक है। संशोधित प्रतिमा के हाथ में संविधान है तो इसीलिए कि भारत में संविधान का शासन है। न्याय देवी का ताजा प्रतीक स्वागतयोग्य है। न्याय देवी का इतिहास प्राचीन है। इसकी सबसे प्राचीन मूर्ति प्राचीन मिस्र में मिली थी। बाद में यूनानी और रोमन सभ्यताओं ने न्याय देवी की मूर्तियां बनाईं। रोमन साम्राज्य में भी न्याय की देवी थी।
यूनानी सभ्यता में गंभीर सृष्टि चिंतन हुआ था। होमर को कुछ विद्वानों ने यूनान का गुरु बताया है। उनके लिखे इलियड और ओडाइसी महाकाव्यों की विश्व प्रतिष्ठा है। जैसे भारत में वेदों और महाभारत के लिए वेद व्यास के प्रति श्रद्धा है, वैसे ही इलियड और ओडाइसी के लिए होमर की ख्याति है।
यूनानी अपनी न्याय व्यवस्था को लेकर गर्व करते रहे हैं, लेकिन प्रख्यात दार्शनिक सुकरात को यूनानी अदालत ने ही मृत्यु दंड दिया था। न्यायपालिका ने उनका पूरा पक्ष नहीं सुना। सुकरात के विरुद्ध देवताओं को न मानने और युवकों को पथभ्रष्ट करने का आरोप था।
सुकरात 70 वर्ष के वृद्ध थे। उन्होंने कहा था, ”शासक जल्दी न करते तो भी वह थोड़े दिन बाद स्वाभाविक मृत्यु से मरते।” 501 सदस्यीय न्यायपीठ ने सुकरात को सुना। वोट हुआ। 281 सदस्यों ने मृत्युदंड के पक्ष में मत दिया और 220 ने उन्हें निर्दोष माना। न्यायालय की पूरी कार्यवाही केवल एक दिन चली। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
भारत में दुनिया की प्राचीन न्यायपालिका है। यहां प्राचीन काल में भी व्यवस्थित न्यायतंत्र था। राजा हरिश्चंद्र, रघु और शिवि आदि न्यायप्रियता के लिए देश में आज भी चर्चित हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एसएस धवन ने प्राचीन भारत की न्यायायिक प्रणाली का खूबसूरत अध्ययन किया है।
उन्होंने ब्रिटिश लेखकों पर प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था के बारे में गलत और मनमाने विचार व्यक्त करने के आरोप लगाए। उन्होंने हेनरी मेने पर भारत की न्याय व्यवस्था को बदनाम करने का आरोप भी लगाया। यही स्थिति अनेक यूरोपवादी विद्वानों की है। धवन ने भारत की प्राचीन न्याय व्यवस्था को निष्पक्ष बताया। इसके ज्ञान के लिए प्राचीन साहित्य का अध्ययन जरूरी कहा।
अर्थशास्त्र के अनुसार राज्य प्रशासनिक इकाइयों में विभाजित था। प्रत्येक स्तर पर अधिकारी कर्मचारी थे। न्याय व्यवस्था थी। मनु, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, बृहस्पति आदि ने प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था को सुंदर बताया है। न्यायाधीश के लिए निर्धारित आचार संहिता थी। निष्पक्ष काम करने वाला न्यायप्रिय राजा प्रशंसा का पात्र था।
तब राजा आसन पर बैठते ही विवस्वान के पुत्र यम की शपथ लेकर काम करते थे। उत्तर वैदिक काल में नचिकेता और राजा यम के बीच संवाद पठनीय हैं। यम ने नचिकेता को बताया, ”धरती पर जो लोग अन्याय और उत्पीड़न करते हैं, हे नचिकेता! मैं उन्हें बार-बार दंडित करता हूं।” यम न्याय व्यवस्था के उच्चतर देवता हैं। वह दोषियों को दंड देते हैं।
ऋग्वेद के अनुसार न्यायकर्ता के लिए उच्च प्रतिभा आवश्यक थी। कात्यायन ने लिखा है, ”न्यायाधीश को संयमी, निष्पक्ष और दृढ़ निश्चयी होना चाहिए।” बृहस्पति ने कहा है , ”व्यक्तिगत लाभ के लिए पक्षपात नहीं करना चाहिए।” वैदिक साहित्य में राजव्यवस्था और न्यायतंत्र के विशेष उल्लेख हैं। पराशर ने कह है, ”कृतयुग के कानून कृतयुग के समय उपयोगी हैं। द्वापर के कानून अलग हैं। कलयुग के कानून पिछले युगों से अलग हैं।” प्रत्येक युग के कानून प्रत्येक युग की विशेषता के अनुसार होते थे। प्राचीन काल से लेकर मध्य युग के अंत तक न्याय प्रणाली का लगातार विस्तार हुआ है।
संप्रति भारतीय न्यायपालिका की प्रतिष्ठा है, लेकिन तमाम मामलों में न्यायपालिका से आशा के साथ निराशा हाथ लगती है। न्याय में देरी अन्याय है। यह सिद्धांत पुराना है। इस समय देश के न्यायालयों में विचारणीय मुकदमों की संख्या लगभग 5 करोड़ है। यह एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में यह अपेक्षा है कि न्याय की देवी समय पर सुगम तरीक से सभी को न्याय देने में प्रभावी सिद्ध हों, क्योंकि न्याय में विलंब की समस्या राष्ट्रीय चिंता का विषय है। न्यायपालिका का सम्मान है, लेकिन कई शिकायतें भी हैं। न्याय व्यवस्था को और विश्वसनीय बनना होगा।
Date: 21-10-24
गंगा की निर्मल धारा को चाहिए देसी मछलियों का सहारा
पंकज चतुर्वेदी
देश की सबसे बड़ी और दुनिया की पांचवीं सबसे लंबी नदी गंगा भारत के अस्तित्व, आस्था और जैव-विविधता की पहचान है। कोई नदीं केवल जल की धारा नहीं होती, उसका अपना तंत्र होता है, जिसमें उसके जलचर सबसे महत्वपूर्ण होवे हैं। गंगा जल की पवित्रता को बरकरार रखने में अहम मछलियों-कछुओं की संख्या में यदि गिरावट आने लगी है, तो निश्चित ही यह नदी की सेहत के लिए गंभीर खत्तय है। एक तरफ, केंद्र सरकार गंगा की जल-धारा को स्वच्छ बनाए रखने के लिए हजारों करोड़ रुपये की परियोजनाओं का क्रियान्वयन कर रही है, तो वहीं यह चिंतनीय है कि गंगा में मछलियों की विविधता को खतरा पैदा हो रहा है और इनकी 29 से अधिक प्रजातियों को खतरे की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है। गंगा में 143 किस्म की मछलियां पाई जाती हैं। मगर बनारस के आसपास देसी मछलियों की संख्या व उनकी प्रजनन दर में गिरावट आना नदी और उसके किनारे बसे समाजों के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राणी विभाग के एक ताजा शोध में बताया गया है कि घातक रसायनों के कारण गंगा, वरुणा और असि नदियों में सिंधी और मांगुर समेत कई देसी प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं। अधिक गंभीर बात यह है कि मछलियों की प्रजनन क्षमता 80 प्रतिशत तक घट गई है। शोध बताता है कि वैसे तो जो मछली जितनी वजनदार होती है, उसके अंडे उतने ही अधिक होते हैं। एक मछली औसतन तीन से पांच लाख तक अंडे देती है, लेकिन गंगा में अब बह घटकर 50 से 70 हजार हो गई है।
अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण पत्रिका स्प्रिंगर और पुणे से प्रकाशित होने वाली भारतीय शोध पत्रिका डायमेंशन ऑफ लाइफ साइंस ऐंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट के ताजा अंक में प्रकाशित शोधपत्र बताता है कि रासायनिक दवाओं, डिटर्जेंट, कॉस्मेटिक उत्पादों, पेंट, प्लास्टिक कचरा और रासायनिक खादों में प्रयुक्त एल्काइल फिनोल बर्ट-ब्यूटाइल फिनोल आदि का गंगा एवं उसकी सहायक नदियों में मछलियों के अंडे देने पर बुरा असर पड़ा है। बीएचयू के प्राणी विज्ञान विभाग में प्रोफेसर राधा चौबे और सहायक प्रोफेसर डॉ गीता गौतम का शोध बताता है कि विषाक्त रसायनों के कारण मछलियों की भ्रूणावस्था में मौत हो जा रही है। उनमें विभिन्न तरह के रोग भी पनप रहे हैं। इससे मछलियों की आबादी तेजी से घट रही है। बनारस का शोध तो एक उदाहरण है, दरअसल समूची गंगा में ही देसी प्रजाति की मछलियों पर संकट मंडरा रहा है। आज से छह साल पहले राष्ट्रीय मत्स्य विकास बोर्ड द्वारा करवाए गए सर्वे में पता चला था कि गंगा की पारंपरिक रीठा, बागड़, हौल समेत छोटी मछलियों की 50 देसी प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। मतलब साफ है, जैव-विविधता के इस संकट का कारण हिमालयी नदियों पर बने बांध तो हैं ही, मैदानी इलाकों में तेजी से घुसपैठ कर रही विदेशी मछलियों की प्रजातियां भी हैं।
गंगा और इसकी सहायक नदियों में पिछले अनेक वर्षों के दौरान थाईलैंड, चीन व म्यांमार से लाए गए बीजों से महाली की पैदावार बढ़ाई जा रही है। ये मछलियां कम समय में बड़े आकार की हो जाती हैं, इसलिए मत्स्य-पालक अधिक मुनाफे के चक्कर में इन्हें अधिक पालते हैं। हकीकत में ये मछलियां स्थानीय मछलियों का चारा हड़प जाने के साथ ही छोटी मछलियों को भी अपना शिकार बना लेती हैं। किसी भी नदी के मूल जलचरों के समाप्त होने का असर उसके समूचे पारिस्थितिकी तंत्र पर इतना भयानक होता है कि जल की गुणवत्ता, प्रवाह आदि तक प्रभावित हो सकते हैं। भारत के राष्ट्रीय जैव-विविधता प्राधिकरण (एनबीए) पहले से ही नील तिलापिया, अफ्रीकी कैटफिश और कॉमन कार्प को मीठे पानी की जैव-विविधता के लिए बड़ा खतरा बता चुका है।
गंगा में मछलियों के लिए बड़ा खतरा गंगा घाटी क्षेत्र में सालों-साल बढ़ता तापमान भी है। गंगा नदी घाटी के 25 किलोमीटर के दायरे में क्षेत्रीय जलबायु मॉडल के तहत किए गए शोध से पता चला कि 2010 से 2050 के बीच पानी के तापमान में एक से चार डिग्री सेल्सियस की औसत बढ़ोतरी होने वाली है। ऐसे में, आक्रामक विदेशी मछलियों की संख्या बढ़ रही है, जो नए पर्यावास व कठोर परिस्थितियों में भी विस्तार की क्षमता रखती हैं। इसलिए इस मामले में एक सुचिंतित पहल बहुत जरूरी हो गई है।