21-08-2018 (Important News Clippings)

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21 Aug 2018
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Date:21-08-18

ईश्वर के अपने राज्य केरल में इंसान ने बुलाई तबाही

संपादकीय

केरल में बारिश और बाढ़ ने सदी की सबसे भीषण आपदा उपस्थित की है लेकिन, इस तबाही में सिर्फ प्रकृति का प्रकोप ही नहीं इंसान द्वारा उसके संकेतों की उपेक्षा करने का बड़ा योगदान है। सही है कि अपेक्षाकृत ज्यादा बरसात वाले इस प्रांत में इस मौसम में अब तक सामान्य से 42 प्रतिशत अधिक बारिश हुई है और महज अगस्त के महीने में बारिश की मात्रा 164 प्रतिशत अधिक है। इसके बावजूद पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल के अध्यक्ष और वैज्ञानिक माधव गाडगिल की उस व्याख्या से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर उनकी चेतावनी पर ध्यान दिया गया होता तो केरल में उत्तराखंड जैसी तबाही न होती। भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय की ओर से 2010 में गठित गाडगिल पैनल का कहना था कि पश्चिमी घाट के छह राज्य पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील हैं और इस बारे में ग्राम पंचायत स्तर तक पर्यावरण के नियमों का चौकसी के साथ पालन होना चाहिए। लेकिन उस रिपोर्ट से परेशान छह राज्य सरकारों ने इसरो के वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में एक और पैनल बनाकर उसे पलट दिया।

कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट भी सरकारों को हजम नहीं हुई और केरल सरकार ने अपने 13000 वर्ग किलोमीटर के संवेदनशील इलाके को घटाकर 9993 किलोमीटर तक ला दिया। अगर सरकार इस सुझाव को भी ठीक से मानती तब भी तबाही कम हो सकती थी लेकिन, इन सारी रिपोर्टों को दरकिनार करते हुए पूरे राज्य में पत्थरों की अवैध खुदाई जारी रही। उसके कारण कई पहाड़ियां और वन क्षेत्र कमजोर हो गए और पानी के बहाव को नहीं सह सके। तमाम बांधों के गेट खोले जाने से भी कई इलाके डूबे हैं और आज नौ लाख लोग हजारों राहत शिविरों में शरण लिए हुए हैं। राज्य सरकार कुल नुकसान का आंकड़ा 19,512 करोड़ रुपए तक प्रस्तुत कर रही है, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सर्वेक्षण के बाद केंद्र की ओर से घोषित राहत राशि छह सौ करोड़ तक ही पहुंची है। उधर अंधविश्वास को बढ़ावा देते हुए हिंदू मक्कल काछी ने दावा किया है कि सबरीमला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की इजाजत दिए जाने के कारण ईश्वर का यह प्रकोप हुआ है। इसलिए संकट के इस समय में धैर्य रखते हुए राहत कार्य को तेज करने के साथ अपनी संकीर्णता को काबू में करना होगा ताकि पता चल सके ईश्वर के इस अपने देश में तबाही लाने में इनसान का कितना योगदान है।


Date:21-08-18

शहरीकरण सिर्फ चुनौती नहीं, अवसर भी

संपादकीय

ग्रामीण इलाका होने की वजह से इन जगहों पर आर्थिक और भवन निर्माण गतिविधियों के नियमन के लिए कानूनी प्रावधान और प्रशासकीय व्यवस्थाएं अपर्याप्त और अनुपयुत हें जिससे कि शहरीकरण की वजह से जो पैदा हो रही चुनौतियों से तालमेल बिठाया जा सके। जरूरी तंत्र के अभाव के कारण अराजक स्थिति पैदा हो रही है और दयनीय जीवन स्तर के हालात बन रहे हैं। ऐसी कई जगहों पर पेयजल, मल व्यवहन (सैनिटेशन), बिजली आदि मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने की जिम्मेदारी ग्रामीण प्रशासन (पंचायत) की है और इन पर काफी दबाव है क्योंकि एक बड़ी आबादी को इन जरूरी आवश्यकताओं की जरूरत है। यहां बड़ी मात्रा में ठोस कचरा पैदा होता है और इनका संग्रहण और इनके निपटारे की व्यवस्था काफी पिछड़ी हुई है। रियल एस्टेट के व्यवसायी और बिल्डर इलाकों में बेखौफ होकर अपना काम करते हैं और भवनों में दुकानों और अतिरित मंजिलों का निर्माण के अवसर का दुरूपयोग करते हैं ताकि बढ़ती आबादी की जरूरतों को समायोजित किया जा सके। विकास संबंधी नियंत्रण और भवन उपनियम नहीं होने के कारण बेतरतीब ढंग से भवनों के ढांचों में बदलाव किया जाता है। रियल एस्टेट के एजेंटों और आप्रवासियों के निहित स्वार्थ की वजह से सार्वजनिक स्थानों को लेकर विवाद होता है जिससे वहां के निवासियों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

अनधिकृत निर्माण वृष्टिजल (रेनवाटर) के प्राकृतिक प्रवाह को प्रभावित करता है और मानसून के दौरान स्थानीय स्तर पर बाढ़ की स्थितियां पैदा करता है। दूसरी समस्या आवागमन से संबंधित है। संकरी गलियों का इस्तेमाल गाडिय़ां पार्क करने और गाडिय़ां चलाने के लिए होता है। वाहन उत्सर्जन और अवैध निर्माण की वजह से होने वाला प्रदूषण आम है जिसका गंभीर प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर होता है।ऐसी समस्याएं घनी आबादी वाले शहरों के इर्द गिर्द के अनेक ग्रामीण इलाकों में देखी जाती हैं जहां के निवासियों का जीवन स्तर काफी दयनीय होता है। इन इलाकों में आबादी बढ़ रही है, ग्रामीण प्रवृतियां बदल रही है, माल और सेवाओं के लिए मांग बढ़ रही है लेकिन प्रशासकीय तंत्र पारंपरिक बना हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि इलाके की बदलती प्रवृत्तियों के आकलन के गंभीर प्रयास नहीं हो रहे हैं और न ही बदलती स्थितियों को ध्यान में रखते हुए स्थानीय स्तर की शासन प्रणाली की गुणवत्ता में सुधार को महत्व दिया जा रहा है।

ऐसे कई इलाकों को पहले राज्यसरकारों के कानून के अंतर्गत जो ग्रामीण प्रशासन प्रदान किया गया वो बरकरार हैं हांलाकि स्थानीय ग्रामीण शासनप्रणाली स्थानिक और आर्थिक बदलाव को संभालने के लिए पर्याप्त रूप से अधिकारप्रदत्ता और साधनसक्षम नहीं हैं।शासन व्यवस्था का दृष्टिकोण यह है कि ग्रामीण इलाकों को ग्रामीण सुधार पद्धति की जरूरत होती है जबकि शहरी इलाकों को शहरी सुधार पद्धति की। इस वजह से अधिकतर देश स्थानीय प्रवर्तियों के आकलन के लिए कई प्रकार के मानकों या मानदंडों का उपयोग करते हैं जिनके आधार पर स्थान विशेष का ग्रामीण या शहरी प्रशासन का स्वरूप तय होता है। अलग अलग देशों में ये मानदंड अलग होते हैं और उस देश विशेष की आबादी और विकास संबंधी लक्षणों पर आधारित होते हैं। इससे स्थान विशेष के लिए सही प्रकार की शासन प्रणाली जैसे पंचायत या नगरपालिका तय करने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में प्रति एक वर्ग मील में एक हजार व्यति से ज्यादा की आबादी वाले उन इलाकों को शहरी का दर्जा दिया जाता है जहां 2500 से ज्यादा निवासी रहते हैं।

अमेरिका शहरी आबादी के मामले में चीन और भारत के बाद तीसरा स्थान रखता है जहां की आबादी 27 करोड़ से ज्यादा है। इसी तरह गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत भारत का जनगणना कार्यालय किसी इलाके को तीन मानकों के आधार पर शहरी घोषित करता है। ये मानक हैं वैसे रिहाइशी इलाके जहां न्यूनतम 5000 लोग रहते हों, कम से कम 75 फीसदी पुरूष आबादी गैर कृषि धंधों में लगी हो और आबादी का घनत्व प्रति वर्ग मील कम से कम एक हजार व्यति हो। जनगणना कार्यालय इन मानकों को पूरा नहीं करने वाले रिहायशी इलाकों को ग्रामीण घोषित कर देता है। जनगणना कार्यालय भारतीय शहरी आबादी की गणना के दौरान राज्य सरकार द्वारा घोषित शहरी ( वैधानिक शहरों ) की हायशी इलाकों की आबादी के साथ साथ तीन मानकों को पूरा करने वालों ( जनगणना शहरों) को भी शामिल करता है। विडंबना ये है कि ग्रामीण और शहरी विकास राज्य के विषय हैं और राज्य सरकारें जनगणना के मानकों या गणनायोग्य उपयुक्त मानदंडों पर भरोसा नहीं करतीं। इसके बदले अस्पष्ट मानकों का उपयोग होता है जिनके बारे में पर्याप्त नकारी उपल ध नहीं होती। अस्पष्ट तौर तरीकों की वजह का परिणाम ये होता है कि इलाकों को शहरी और ग्रामीण का दर्जा देने के क्रम में स्थानीय लक्षणों पर ध्यान दिये बगैर राज्य अधिकारियों द्वारा मनमाने फैसले लिये जाते हैं।

बदलती परिस्थितियों के अनुरूप काम करने में स्थानीय सरकार की नाकामी की यह एक प्रमुख वजह है। इस समय भारत के राज्यों में ग्रामीण शासन प्रणाली के तहत आने वाले कई रिहायशी इलाकों में शहरी प्रवृत्तियाँ परिलक्षित हो रही हैं। 2011 के जनगणना आंकड़ों के मुताबिक 5.4 करोड़ भारतीयों से ज्यादा या देश की कुल आबादी का करीब पांच प्रतिशत हिस्सा उन ग्रामीण इलाकों में रहता है जो जनगणना मानकों के मुताबिक शहरी इलाके की पात्रता रखते हैं और इनमें से कई ग्रामीण रिहायशी इलाकों की आबादी एक लाख से भी ऊपर है। इसके अलावा, विश्व बैंक और यूरोपीय संघ के ज्वाइंट रिसर्च सेंटर के अध्ययनों से खुलासा होता है कि भारत ज्यादा शहरीकृत है।

शहरी नीति विश्लेषकों का मानना है कि राज्य सरकारें विभिन्न केन्द्र सरकार की ग्रामीण और शहरी वित्तीय योजनाओं का लाभ लेने के लिए मनमाने तरीके अपनाती हैं। संबंधित इलाकों का दर्जा ‘ग्रामीण’ से ‘शहरी’ करने को भी टाला जाता है जिससे कि भवन निर्माण उपनियम, विकास संबंधी नियंत्रण और कराधान संबंधित शहरी कानूनों को लागू ना करना पड़े। राज्य स्तर पर अव्यवहारिक कार्यप्रणाली का असर दयनीय जीवन स्तर में दिखता है। तब भारत के आदर्श तौर पर, राज्यों को शहरीकरण के वास्तविक विस्तार के आकलन के लिए यथार्थपूर्ण मानकों, मूल्यों और सुदूर संवेदी तकनीक( रिमोट सेंसिंग टेनोलॉजी) का उपयोग करना चाहिए। मानकों में जीवन स्तर के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए, जबकि अभी ऐसा नहीं हो रहा।


Date:21-08-18

शहरीकरण की तीव्र गति

संपादकीय

आज 55 फीसदी वैश्विक आबादी (4.2 अरब )शहरी इलाकों में रहती है, लेकिन ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर लोगों के रुख और आबादी बढऩे से यह आंकड़ा साल 2050 तक 68 फीसदी तक पहुंच जायेगा। यह तेज रुझान मुय रूप से एशिया और अफ्रीका के देशों में दिख रहा है। साल 2018 से 2050 के बीच शहरी आबादी में भारत 41.6 करोड़, चीन 25.5 करोड़ और नाइजीरिया 18.9 करोड़ के साथ सर्वाधिक योगदान कर सकते हैं। इस अवधि में टोयो को पीछे छोड़ते हुए दिल्ली सबसे बड़ी आबादी का नगर बन जायेगा। शहरीकरण की प्रक्रिया आर्थिक उपलब्धियों का सूचक है, लेकिन इसकी चुनौतियां भी बड़ी हैं. चीन के बाद भारत में सबसे ज्यादा आबादी (89.3 करोड़) गांवों में वास करती है। चूंकि 2050 तक भारत की जनसंख्या विश्व में सबसे अधिक होगी,इसलिए शहरीकरण को लेकर कई स्तरों पर संतुलित और समुचित नीतिगत पहलों कीआवश्यकता है। हमारे शहरों में बुनियादी ढांचे, प्रशासनऔर स्थायित्व के स्तर पर व्यापक खामियां हैं। शहरीकरण के दबाव में ये दिकतें बढ़ती ही जा रही हैं।

बीते सालों में सरकार ने शहरी क्षेत्रों को विकास का अगुवा बनाने के इरादे से अमृत, स्मार्ट सिटी, हृदय, प्रधानमंत्री आवास योजना और स्वच्छ भारत जैसे कार्यक्रम शुरूकिये हैं। मौजूदा वित्त वर्ष के बजट में आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय के बजट में 2.8 फीसदी की बढ़ोतरी की गयी है।साफ-सफाई, यातायात, स्वच्छ ऊर्जा जैसे जरूरी पहलुओं के लिए भी नीतियां बनायी गयी हैं। ऐसी पहलें अहम हैं, पर एक संपूर्ण राष्ट्रीय शहरी नीति की जरूरत है, जो राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों के साथ मिलकर केंद्र द्वारा तैयार की जानी चाहिए। दुनिया के करीब एक-तिहाई देशों में ऐसी नीति लागू है। अक्टूबर , 2016 में 193 से ज्यादा देशों ने सतत विकास पर आधारित भविष्य के शहरीकरण के लिए प्रस्ताव पर सहमति बनायी थी, लेकिन डेढ़ साल के बाद भी भारत इस एजेंडे की दिशा में ठोस कदम नहीं उठा सका है।

विश्व स्तर पर सकल घरेलू उत्पादन में शहरों का योगदान 80 फीसदी है, पर पर्यावरण के लिए खतरनाक 70 फीसदी ग्रीनहाउस गैस भी यहीं पैदा होते हैं। दुनिया के 14 सबसे प्रदूषित शहर भारत में हैं। शहरी आबादी का बड़ा हिस्सा बुनियादी सुविधाओं से वंचित झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने के लिए अभिशप्त है। योजना बनाने वाले विशेषज्ञों की औसत संख्या एक लाख की आबादी पर महज 0.23 है। स्थानीय निकाय धन और कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे हैं। शहरी प्रशासन के अधिकार एवं कार्यों से जुड़े 74वें संविधान संशोधन को ठीक से लागू नहीं किया जा सका है। नि:संदेह हमारे भविष्य का आधार शहर हैं, पर बेहतर शहरों के बिना आनेवाले कल की बेहतरी का सपना कैसे पूरा हो सकेगा? उम्मीद है कि केंद्र और राज्य सरकारें बिना किसी देरी के शहरीकरण की चुनौतियों का सामना करने के लिए माकूल उपायों पर ध्यान देंगी।


Date:21-08-18

शहरीकरण की स्मार्ट नीति की जरूरत

संपादकीय

भारतीय शहरों की आबादी 3 4 प्रतिशत बढ़ रही है। जिन शहरों की आबादी 50 लाख से ऊपर थी, वह 2005 के बाद से लगभग उतनी ही है। एक अनुमान के अनुसार 2050 तक भारतीय शहरों की जनसंया 81.4 करोड़ हो जाएगी। भारतीय शहरों की हालत काफी खराब है। नगर योजना के दिखावे के नाम पर गरीबी और बेकार बुनियादी ढांचे की संरचना कर दी जाती है। बढ़ती जनसंख्या के साथ स्वच्छ जल, सार्वजनिक परिवहन, सीवेज ट्रीटमेंट और सस्ते घर की मांग बढ़ती जाएगी। शहरी बुनियादी ढांचे पर भारत में 17 डॉलर प्रति व्यति खर्च किया जाता है, वहीं चीन में 116 डॉलर प्रति व्यति खर्च किया जाता है। चयनित 90 स्मार्ट सिटी की 2,864 योजनाओं में से केवल 140 ही पूरी हुई हैं। 70 प्रतिशत योजनाएं अभी भी अधूरी पड़ी हुई हैं। शहरों से जुड़ी प्राथमिक समस्या यह है कि उनकी परिभाषा ही स्पष्ट नहीं है।  शहरी विकास का क्षेत्र राज्यों के अधीन आता है। किसी क्षेत्र की जनसंख्या , घनत्व, राजस्व एवं जनसंख्या का गैर-कृषि कर्म में संलग्न होने के अनुसार उसे राज्यपाल शहरी क्षेत्र घोषित करते हैं।

सूचना के आधार पर नगरीय प्रशासन या म्यूनिसिपलिटी का निर्माण किया जाता है। केन्द्र सरकार उस क्षेत्र को शहर मानती है, जहां स्थानीय प्रशासन हो, जनसंख्या 5,000 हो, वहां के 75 प्रतिशत से अधिक पुरूष गैर कृषि-कर्म में संलग्न हों, और जहां जनसंख्या का घनत्व कम से कम 400 वर्ग प्रति वर्ग कि.मी. हो। इसे ‘सेन्सन टाउन’ कहा जाता है। पश्चिम बंगाल में जलपाईगुड़ी जिले में उबग्राम की जनसंया एक लाख 20 हजार है, परन्तु उसे ‘सेन्सस टाउन’ की ही श्रेणी में रखा गया है। शहरों को श्रेणीबद्ध करने की अस्पष्ट प्रक्रिया के अलावा शहरों की प्रवास नीति भी बहुत ही अव्यवस्थित है। कुल-मिलाकर यही लगता है कि हमें शहरीकरण के लिए एक अलग ही मॉडल चाहिए। नई शहरी नीति की घोषणा हो चुकी है। उम्मीद की जा सकती है कि इस नीति के द्वारा नगरों और उनमें बसने वाले मानव समुदायों का उद्धार होगा। साथ ही, भूमि सुधार नीति पर फोकस करने की आवश्यकता है। तब जाकर शहरों का रुपांतरण हो सकेगा।


Date:21-08-18

शहरीकरण के बढ़ते खतरे

देवेंद्र जोशी

अनियोजित शहरीकरण आज किसी एक प्रदेश की नहीं, बल्कि पूरे देश की समस्या है। आजादी के सत्तर सालों में जहां कस्बे शहर, शहर नगर और नगर महानगर बनते चले गए, वहीं गांवों की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया। गांव आज भी गांव ही है। वही आबोहवा, आंचलिक संस्कृति, एक-दूसरे के सुख-दुख में हिस्सा बंटाने का आत्मीय भाव, अभाव में भी संतुष्टि और इस सबसे बढ़ कर छोटी-सी घटना के घटित होने पर सारे गांव के एकजुट हो जाने का संवेदनशील रवैया। गांव के मूल चरित्र में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है। मूल्य, परंपरा और संस्कृति के संरक्षण की दृष्टि से यह शुभ संकेत है। जबकि इस दौरान शहरों और नगरों की संस्कृति और सभ्यता में अनियोजित शहरीकरण के कारण आए बदलाव ने पूरी दुनिया ही बदलकर रख दी है। तेजी से हो रहे शहरीकरण और नगरीकरण का ही नतीजा है कि चार लेन वाली सड़कों पर सरपट दौड़ती गाडिय़ों, चौराहों पर चमचमाती तेज लाइटें और सड़कों पर रेंगती की भीड़ के बीच जीवन का असली मकसद जैसे कहीं खो गया है। मनुष्य मशीनों और शहर समस्याओं के केंद्र बन कर रह गए हैं।

नगरों, शहरों और महानगरों के आकर्षण में हर कोई गांव छोड़ कर शहर में आ बसना चाहता है, बगैर इस बात की पड़ताल किए कि शहर इसके लिए तैयार हैं भी या नहीं। यह प्रवत्ति स्वाभाविक और युगीन है। शहर विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अच्छी शिक्षा, अच्छा जीवन, अच्छे कामकाज, रोजगार और अच्छी चिकित्सा की तलाश में लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार एक करोड़ लोग हर हफ्ते रोजी-रोटी और तरक्की के सपने संजोए गांवों से शहरों की ओर चले आते हैं। चाहे शहरी चकाचौंध का आकर्षण हो या रोजी-रोटी कमाने की मजबूरी, सच्चाई यह है कि दुनिया की करीब आधी आबादी शहरों में बसने लगी है। वातावरण में हर साल घुलने वाली अस्सी फीसद कार्बन डाई आसाइड इन्हीं शहरों से आती है। वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के मुताबिक विकासशील देशों में शहरी आबादी साढ़े तीन फीसद सालाना की दर से बढ़ रही है, जबकि विकसित देशों में यह वृद्धि दर मात्र एक फीसद है। संयुत राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक अगले बीस सालों में शहरी आबादी जितनी बढ़ेगी, उसका 95 फीसद बोझ विकासशील देशों पर पड़ेगा। यानी सन 2030 तक विकासशील देशों में दो अरब लोग शहरों में रहने लगेंगे। संयुत राष्ट्र का यह भी आकलन है कि अगर शहरों पर बढ़ रहे आबादी के बोझ और बढ़ते प्रदूषण को नियंत्रित नहीं किया गया तो एक करोड़ से च्यादा आबादी वाले बड़े शहरों पर भविष्य में बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ जाएगा।

शहरों पर ज्यों -ज्यों आबादी का बोझ बढ़ रहा है, लोगों को मिलने वाली सुविधाओं में कमी आ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक विकासशील देशों में सत्तर फीसद से च्यादा आबादी यानी करीब नब्बे करोड़ लोग झुग्गी-झोपड़ी में रहते हैं। ऐसे में जहां उनके लिए स्वास्थ्य संबंधी परेशानी बढ़ी है, वहीं पर्यावरण को भी गंभीर नुकसान पहुंचा है। शहरीकरण के कारण रोजमर्रा की समस्याएं भी बढ़ी हैं। इनमें जनसंख्या वृद्धि, गरीबी, बेकारी, अपराध, बाल अपराध, महिला उत्पीडऩ, भीड़भाड़, गंदी बस्तियां, आवास की कमी, बिजली एवं जल आपूर्ति की कमी, प्रदूषण, मदिरा पान और अन्य मादक पदार्थों का सेवन, संचार एवं यातायात संबंधी समस्याएं प्रमुख हैं। शहरीकरण के कारण नगरों और महानगरों में आवास की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। यह कहावत प्रचलित है कि कामकाज की तलाश में आने वालों को नगरों-महानगरों में रहने के लिए घर के अलावा सब कुछ मिल जाएगा। नए-नए नगर-महानगर बनें, इससे भला किसे एतराज हो सकता है! लेकिन उसके अनुरूप सड़क, बिजली, पानी, आवास, यातायात, साफ-सफाई की व्यवस्था भी तो जुटाई जाए।


Date:20-08-18

आसमान में कूड़ाघर

संपादकीय

इसे अक्सर विकास का पदचिह्न भी कहा जाता है। जहां-जहां इंसान के चरण पड़े हैं वहां-वहां कूड़ा पहुंचा है। पूरे मानव विकास के क्रम में कूड़ा लगातार बढ़ा है और उसका रूप भी बदला है। शहरों और खासकर महानगरों के लिए कूड़ा और उसका निपटान भीषण समस्या बन चुका है। फिर प्लास्टिक की समस्या है, ऐसा कूड़ा जो कभी नष्ट नहीं होता। इसे लेकर नदी-नालों तक में समस्याएं पैदा हो ही रही हैं, समुद्र भी इससे अछूता नहीं रहा। डर है कि कहीं प्लास्टिक का समुद्र किसी महासागर से भी बड़ा न हो जाए। यह समस्या सिर्फ समुद्र की गहराई तक ही नहीं पहुंची, पहाड़ों की ऊंचाई तक भी पहुंच चुकी है। ट्रैकिंग के लिए जो पर्वतारोही पहाड़ों पर चढ़ते हैं, वहां पर कई तरह का कूड़ा छोड़ आते हैं। इसीलिए एवरेस्ट को अब सबसे ऊंचा पर्वत ही नहीं, सबसे ऊंचा कूड़ाघर भी कहा जाने लगा है। इसे नियंत्रित करने के लिए कई तरीके अपनाए जा रहे हैं। नेपाल सरकार ऊपर जाने वाले सभी पर्वतारोहियों के सामान की सूची बनाती है।

फिर वापसी में यह देखा जाता है कि प्लास्टिक की थैलियां, एल्यूमिनियम के कैन, सिगरेट की डिब्बियां वगैरह सब वापस आया कि नहीं? सब नहीं आया, तो जुर्माना लगता है। हालांकि समस्या इससे भी हल नहीं हो रही। लेकिन इन दिनों जिस कूड़े को लेकर वैज्ञानिक सबसे ज्यादा परेशान हैं, वह है अंतरिक्ष में लगातार बढ़ रहा कूड़ा, जिसे स्पेस जंक कहा जाता है। स्पेस जंक दो तरह का होता है। एक तो तरह-तरह की उल्काएं जो प्राकृतिक कूड़ा हैं। दूसरे वह कूड़ा, जो हमने अंतरिक्ष को दिया है, यानी छोटे बड़े तरह-तरह के रॉकेट, समय-समय पर भेजे गए अंतरिक्ष यान, वे उपग्रह जिनकी मियाद खत्म हो गई है, टूटे हुए उपग्रहों से निकले टुकड़े और कलपुर्जे। कुछ समय पहले चीन ने अंतरिक्ष में दो उपग्रहों की टक्कर का एक प्रयोग किया था। दोनों चकनाचूर हो गए। धातु के न जाने ऐसे कितने टुकड़े पृथ्वी की कक्षाओं में घूम रहे हैं। प्राकृतिक और मानव जनित कूड़े में एक आधारभूत फर्क है। उल्काएं आमतौर पर सूर्य की कक्षाओं में चक्कर लगाती हैं, लेकिन मानव जनित कूड़ा पृथ्वी की कक्षाओं में चक्कर लगाता है इसलिए इसका पथ से भटक जाना, किसी उपग्रह या अंतरिक्ष यात्री से टकरा जाना ज्यादा घातक हो सकता है। इस कूड़े की गति होती है 17,500 मील प्रति घंटा, यानी बंदूक से निकलने वाली गोली से 22 गुना ज्यादा। प्राकृतिक उल्काएं जब धरती के वायुमंडल से टकराती हैं, तो घर्षण से चकनाचूर हो जाती हैं।

जबकि मानव जनित उल्काएं ऐसी मिश्रित धातुओं से बनती हैं, जो ऐसे घर्षण को लंबे समय तक बर्दाश्त कर सकें। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का अनुमान है कि ऐसे कूड़े के पांच लाख से ज्यादा टुकड़े पृथ्वी की कक्षाओं में घूम रहे हैं और कोई नहीं जानता कि उनसे कैसे मुक्ति पाई जाए? इसलिए अब जरूरी हो गया है कि हर अंतरिक्ष अभियान के दौरान इस पहलू पर जरूरी विचार किया जाए। जैसे दवाओं वगैरह के परीक्षण के लिए ऐथिक्स कमेटी बनाने का प्रावधान है, वैसा ही प्रोटोकॉल इस मामले में भी बने। या जैसा हमारे यहां ग्रीन ट्रिब्यूनल है, वैसा ही कुछ अंतरिक्ष के लिए विश्व स्तर पर बने। अभी तक हम यह मानते थे कि अगर धरती सुरक्षित नहीं रही तो हम भी सुरिक्षत नहीं रहेंगे, पर अब हमें अंतरिक्ष की सुरक्षा पर भी सोचना होगा।


Date:20-08-18

अतिवृष्टि और कुछ नहीं प्रकृति से मिला दंड है

संपादकीय

इस बार मानसून ने कई तरह के रिकॉर्ड तोड़े, और ये सब बारिश और बाढ़ से जुड़े हैं। बारिश और बाढ़ के तांडव ने कई राज्यों के कई जिलों को बड़े रूप में प्रभावित किया है। केरल व हिमाचल प्रदेश दो ऐसे राज्य रहे, जहां बारिश और बाढ़ ने अभी तक के सभी रिकॉर्ड तोड़ डाले। केरल के मुख्यमंत्री के अनुसार, राज्य में ऐसा तांडव पहले कभी नहीं देखा। राज्य के सभी जिलों में रेड अलर्ट जारी है। जल, थल और वायु सेना तक लोगों को राहत देने और फंसे हुए लोगों को निकालने में जुटी हुई हैं। तबाही इतनी है कि अभी सही अनुमान भी मुश्किल है।

उधर हिमाचल प्रदेश में 117 वर्षों में इतनी ज्यादा बारिश कभी नहीं हुई। वहां से आई भूस्खलन की तस्वीरें बड़ी भयावह हैं। उत्तराखंड में भी मानसून का नया तेवर दिखाई दिया है। लगातार बारिश से राज्य की तमाम छोटी-बड़ी नदियां सीमा से ऊपर खतरे के निशान तक पहुंच गई हैं। यहां नेशनल हाई-वे से लेकर तमाम लिंक रोड बंद पड़े हैं। बारिश का यह नया तरीका कुछ हद तक समझ से बाहर है। पिछले एक से डेढ़ महीने से हर दो-चार दिन बाद हफ्ते भर तक बारिश का दौर रहा है। मतलब गत माह लगभग 20 से 24 दिन लगातार बारिश हुई है। इससे पहले भी वर्षा का यह रुख दिखता रहा है। अब इसकी तीव्रता व समानता बदली है। वर्षा का यह दौर अब कहीं ज्यादा कहर ढा रहा है, तो कहीं इसका अभाव है। कई राज्यों में सूखे के हालात भी बने हैं। इनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, असम व पूर्वोत्तर भारत के कुछ इलाके शामिल हैं। बारिश के इस तरह के व्यवहार से कुछ सीखने और समझने की आवश्यकता है।

इस बदलाव के पीछे बदलते पर्यावरण को नकारा नहीं जा सकता। पिछले तीन चार दशकों में जो भी बड़े विकासीय आयाम तय किए गए, उनमें कहीं भी इस पहलू पर कभी गंभीरता नहीं दिखाई गई कि इस तरह के अनियोजित विकास से आने वाले समय में कुछ दुष्परिणाम भी संभव होंगे। इसका एक बड़ा उदाहरण उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश हैं, जहां टुकड़ों में आई त्रासदी के पीछे एक बड़ा कारण अंधाधुंध सड़कों का निर्माण और काफी हद तक जल-विद्युत योजनाओं का निर्माण है। साथ ही, अन्य कई तरह के अनियोजित निर्माण यहां की पारिस्थितिकी के साथ सामंजस्य नहीं बना पाते, जिस कारण अब जरा सी बारिश में क्षति की खबरें ज्यादा आती हैं। इन राज्यों की संवेदनशीलता के अनुसार विकास के मानकों पर चर्चा का हमेशा अभाव रहा है। दूसरा बड़ा उदाहरण दिल्ली है, जहां एक ही बारिश दिल्लीवालों को परेशान कर देती है, क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी को चमत्कारिक बनाने के चक्कर में पानी की निकासी के सारे रास्ते बंद हो गए। ये कहानी दिल्ली की ही नहीं अपितु सारे देश के शहर एवं गांव की भी है। हमने लगातार सड़कों को बेहतर बनाने के लिए पानी के रास्ते रोक दिए। वर्षा का पानी जो मिट्टी में अटक जाया करता था, आज नए तरह के बाढ़ का रूप ले लेता है। अब साल का कोई भी महीना या मौसम ऐसा नहीं होता, जो सामान्य हो। इस बार की गर्मी के बवंडर हों या पिछली सर्दी का धुंध हो, कहीं न कहीं इसी ओर इशारा करते हैं।

एक तरफ तो बारिश का यह हाल है, दूसरी तरफ नीतिकार दो बातों को आज तक जोड़ नहीं पाए। पहला कि चार अरब घन मीटर पानी जो वर्षा के रूप में हर साल मिलता है, उसका मात्र 15 फीसदी ही हम नदी, नालों और वर्षा के रूप में प्राकृतिक माध्यम से जुटा पाते हैं, पर बाकी का 85 फीसदी नीतिकारों की पहुंच से बाहर रहता है। वहीं नीतिकार गर्मियों में पानी की किल्लत को आज की अतिवृष्टि से नहीं जोड़ पाते।

हम वर्षा के पानी को जमा करने और इसके इस्तेमाल के रास्ते तैयार कर पाते, तो दोनों ही संकट से कुछ हद तक निजात जरूर मिल जाती। अगर सिलसिला ऐसा ही चलता रहा, तो हम एक बहुत बड़े चक्रव्यूह में फंस जाएंगे, जहां या तो बाढ़-अतिवृष्टि या फिर सूखा-अकाल जैसी आपदाएं साल भर हमें डुबोने या सुखा डालने के रास्ते तैयार करती रहेंगी। प्रकृति की फितरत को समय से समझ लेने में ही हमारी भलाई है, क्योंकि इसके समझाने के तरीके अभी तक क्रूर दंड के रूप में ही हमारे सामने आए हैं।


Date:20-08-18

कुपोषण की समस्या

संपादकीय

आजादी के सात दशक बाद भी अगर भारत में कुपोषण से बच्चे मर रहे हों, तो यह शर्म की बात है। कुपोषण की वजह से देश में करीब तीन हजार बच्चे रोजाना मर रहे हैं, यानी हर साल दस लाख से ज्यादा बच्चे। यह आंकड़ा पांच साल से कम उम्र के बच्चों का है। ऐसा नहीं कि पांच साल से ज्यादा उम्र वाले गरीब बच्चे या किशोर कोई बहुत अच्छी हालत में हैं। भारत में गरीब आबादी का बड़ा हिस्सा कुपोषण से जूझ रहा है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि कुपोषण की वजह से चालीस फीसद बच्चों का तो विकास ही नहीं हो पाता, जबकि साठ फीसद बच्चे औसत वजन से भी कम के होते हैं। भारत में कुपोषण पर संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों सहित तमाम देशी-विदेशी संगठन काम कर रहे हैं। इनके नतीजों का निचोड़ यही है कि गरीबी और कुपोषण से निपटने में भारत कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर पाया है। दक्षिण एशिया के देशों में भारत की हालत सबसे ज्यादा खराब है। इसीलिए कुपोषण गंभीर चिंता का विषय है।

कुपोषण की समस्या का एक नहीं, कई पहलू हैं। इसका सीधा संबंध खानपान, चिकित्सा और जागरूकता से है। भारत में कुपोषित आबादी का आंकड़ा करीब बीस करोड़ का है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि पंद्रह से पचास साल के बीच की पचास फीसद से ज्यादा महिलाएं खून की कमी की शिकार हैं। ऐसे में यह कैसे सोचा जा सकता है कि महिलाएं स्वस्थ्य बच्चों को जन्म दे पाएंगी? ग्रामीण इलाकों में यह स्थिति ज्यादा खराब है। इसलिए बच्चे जन्मजात कुपोषित होते हैं। भारत में शिशु मृत्युदर और मातृ मृत्युदर ज्यादा होने का यह एक बड़ा कारण है। इसके लिए सबसे ज्यादा जोर जागरूकता और पोषण युक्त भोजन मुहैया कराने पर देना होगा। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री ने खुद इस बात पर चिंता जताई कि कुपोषण से हम अभी तक मुक्ति नहीं पा पाए हैं, जबकि कई देश इस समस्या से निजात पा चुके हैं। लेकिन हकीकत यह है कि भारत को यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लंबा रास्ता तय करना है।

जब तक हर नागरिक को चिकित्सा सुविधा नहीं मिलेगी तब तक हम बीमारियों से निजात नहीं पा सकेंगे। देश भी तरक्की के रास्ते पर तभी बढ़ सकेगा जब हमारी आने वाली पीढ़ियां स्वस्थ्य होंगी। कुपोषण की समस्या की जड़ मूल रूप से गरीबी में है। गरीबी की मार झेल रहे करोड़ों परिवार किन हालात में हैं, इसकी तस्वीर चौंकाने वाली है। करोड़ों बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। बेघर बच्चों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। छोटी उम्र से ही काम में लग जाने वाले बच्चों की स्थिति शोचनीय है। उन्हें इतनी मजदूरी भी नहीं मिल पाती कि पेट भर सकें, और फिर हर तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है। ऐसे में समस्या का समाधान ज्यादा जटिल नजर आता है। ऐसी समस्याओं से निजात पाने के लिए सिर्फ योजनाएं बनाना पर्याप्त नहीं होता, बल्कि इन योजनाओं को लागू करने में गंभीर प्रयासों की भी जरूरत होती है। हम अभी तक गरीबी, कुपोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे क्षेत्रों में अगर कुछ हासिल नहीं कर पाए हैं तो जाहिर है, यह हमारे तंत्र की विफलता का सूचक है। इसलिए पहले उस तंत्र को भी दुरुस्त बनाना होगा जिस पर ऐसे वृहद लक्ष्यों को हासिल करने का जिम्मेदारी है।


Date:20-08-18

For better slum policies

Studies show that socio-economic distress is brewing in slums

Editorial

India’s rapid urbanisation has been proceeding apace for decades, but policy solutions have been shots in the dark. For the thousands who come to the cities every day, cheap housing in slums is often the springboard to better lives. However, studies show that these migrants often get stuck in a vicious cycle of debt and socio-economic stagnation.

First, India must get its numbers right as there are no concrete figures on these temporary and semi-permanent settlements. Slums have a fluid definition and legal pedanticism leads to exclusion of people. The 2011 Census estimated 65 million people in slums, a marked shortfall from the UN-HABITAT’s 2014 estimation of 104 million.

Current slum policies primarily focus on housing, relocation or in-situ development of multi-storey complexes, which free up swathes of prime real estate. But in doing so, they miss out on the brewing socio-economic distress in slums. This was revealed in two projects conducted in Bengaluru and which could apply to other Indian cities too.

A long-term, multi-institutional survey by researchers from the Netherlands, the U.S. and a local NGO, Fields of View, reveals that over 70% of families in slums live in debt. The difference between their monthly earnings and expenses is less than ₹1,000 leaving them vulnerable in case of educational, vocational, social or health emergencies. Moreover, with no access to formal financial systems, any borrowing comes from private money lenders at high interest rates. For many, even water and electricity are disproportionately more expensive as they are forced to rely on the grey market rather than on formal, subsidised channels.

The cumulative effect is that residents end up staying in the same slums for an average of 21 years, according to a seven-year exploratory study helmed by Duke University, U.S. Seven out of 10 households have stayed in slums for at least four generations. These families earned only marginally more than “newer” migrants. When families did move out of their slums, it was towards “cheaper,” worse-off slums. This is in contrast to the rapid upward mobility among other urban sections. Disturbingly, both studies show that there is little upliftment despite better education levels. This is perhaps due to the rapidly changing profile of entry level jobs. Undergraduate or technical certificates can only provide low-paying jobs. Much like their parents, the youth earn less than their more-educated peers who don’t live in slums.

A case can be made for a nuanced slum policy, rather than a one-size-fits-all approach. In many established slums, political patronage has produced concrete houses, title deeds, piped water and regularised electricity. Here, economic opportunities and employment are key. On the other end, slums resembling tented refugee camps need housing and basic amenities. Until these nuances are considered, ambitious but slow-to-implement housing schemes will do little for the welfare of slum dwellers.


 

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