14-07-2018 (Important News Clippings)

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14 Jul 2018
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Date:14-07-18

म्युनिसिपल बॉन्ड बाजार के लिए जरूरी व्यापक सुधार

धन जुटाने के लिए म्युनिसिपल बॉन्ड एक बढिय़ा जरिया हो सकते हैं लेकिन इस दिशा में दिक्कतें कम नहीं हैं।

श्यामल मजूमदार

बाजार में म्युनिसिपल बॉन्ड की वापसी एक स्वागतयोग्य कदम है। मध्य प्रदेश पिछले दिनों नैशनल स्टॉक एक्सचेंज पर अपने म्युनिसिपल बॉन्ड को सूचीबद्ध कराने वाला पहला राज्य बना। इंदौर नगर निगम की तरफ से जारी किए गए इन बॉन्ड के प्रति बाजार की प्रतिक्रिया अच्छी रही। बॉन्ड खरीद के लिए 1.26 गुना अधिक आवेदन मिले जिससे इंदौर नगर निगम को 140 करोड़ रुपये मिल गए। इससे उत्साहित मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने यह ऐलान किया कि ग्वालियर, भोपाल और जबलपुर शहरों के निगम भी इसी राह पर चलते हुए 200-200 करोड़ रुपये के बॉन्ड जारी करेंगे।

मध्य प्रदेश की वाणिज्यिक राजधानी कहे जाने वाले इंदौर की तरफ से जारी 10 साल की परिपक्वता अवधि के इस बॉन्ड में 9.25 फीसदी ब्याज की पेशकश की गई थी। ऐसे संकेत हैं कि देश के अन्य हिस्सों में भी कुछ नगर निगम जल्द ही दस्तक देंगे ताकि अपनी ढांचागत विकास गतिविधियों के लिए फंड जुटाया जा सके। बैंकों से धन जुटाने की सुस्त रफ्तार को देखते हुए म्युनिसिपल बॉन्ड एक बढिय़ा जरिया होगा। मूडीज का भी कहना है कि बहुल-बॉन्ड बाजार सशक्त होने से स्थानीय निकायों की पूंजी का विश्वसनीय प्रवाह हासिल करने की क्षमता में सुधार होगा और उधारी में उनकी जवाबदेही भी बढ़ेगी। शहरी स्थानीय निकायों में उधारी जुटाने का प्रत्यक्ष एवं अधिक पारदर्शी मॉडल अपनाने से केंद्र सरकार स्थानीय निकायों को दिए जाने वाले कर्ज की बेहतर निगरानी भी कर सकेगा।

सवाल यह है कि क्या ऐसा हो पाएगा? भारत के म्युनिसिपल बॉन्ड बाजार के बारे में व्याप्त निराशावाद की एक वजह यह है कि ऐसे बॉन्ड जून 2017 के बाद से करीब बंद ही हो गए हैं। पिछले साल जून में पुणे ने म्युनिसिपल बॉन्ड के जरिये धन जुटाया था। उसके बाद हैदराबाद ही इकलौता ऐसा नगर निगम रहा है जिसने फरवरी 2018 में अपने बॉन्ड के जरिये 200 करोड़ रुपये जुटाए थे। असल में भारत में अभी तक 14 शहरी निकायों की तरफ से केवल 30 म्युनिसिपल बॉन्ड ही जारी किए गए हैं और इस दौरान केवल 1,500 करोड़ रुपये ही जुटाए जा सके हैं।

इसकी कई वजहें रही हैं। बुनियादी वजह नगर निकाय सुधारों के अमल की धीमी गति रही है। इसके चलते भारत में शहरों के नवीनीकरण की महत्त्वाकांक्षी योजनाएं कमजोर वित्त व्यवस्था की रेतीली जमीन पर ही बनाई जाती रही हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में सभी नगर निगमों की कुल राजस्व प्राप्तियां 1.5 लाख करोड़ रुपये से भी कम रहने का अनुमान है। ऐसी स्थिति में नगर निकाय राज्य और केंद्र से मिलने वाले अनुदानों पर अधिक आश्रित होते जा रहे हैं। मसलन, बेंगलूरु नगर निगम कुल निर्मित क्षेत्र के केवल एक चौथाई पर ही करारोपण करता है जबकि सूरत केवल 11 फीसदी इमारतों से ही संपत्ति कर की वसूली कर पाता है।

अध्ययनों से पता चला है कि नगर निकायों की वित्तीय संरचना में ‘अपने राजस्व’ की अहमियत कम हुई है, ऐसा नहीं है कि निकायों के केवल अपने राजस्व का हिस्सा घटा है बल्कि अन्य राजस्व घटकों की तुलना में उनकी वृद्धिï दर में भी गिरावट आई है। इसका नतीजा यह हुआ है कि विभिन्न राज्यों में निकायों को अलग राजकोषीय पहचान बनाए रखने में भी काफी जोखिम का सामना करना पड़ रहा है। निकायों के अपने साधनों से जुटाए राजस्व का मजबूत होना कर्ज जुटाने की अर्हता की एक पूर्व-शर्त है। ऐसे में निकायों के पास स्थानीय करों के संग्रह, उपभोग शुल्क और स्टांप शुल्क जैसे मुश्किल नीतिगत मुद्दों से जूझने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रह जाता है। बॉन्ड निवेशक उस समय तक शहरों में अपने पैसे लगाने से बचना चाहेंगे जब तक उनकी राजस्व स्थिति को लेकर वे आश्वस्त नहीं हो जाते हैं।

म्युनिसिपल बॉन्ड के लिए आगे की राह निश्चित रूप से कठिन रहेगी। मसलन, क्रिसिल ने बॉन्ड जारी कर पाने की शहरों की तैयारी परखने के सिलसिले में 14 राज्यों में 94 शहरों की क्रेडिट रेटिंग की। उनमें से केवल 55 शहरों को ही निवेश के अनुकूल रेटिंग मिली जबकि बाकी शहर निवेश स्तर से नीचे पाए गए। यह रेटिंग शहरों का सामाजिक एवं आर्थिक विवरण, परिचालन सक्षमता, नीतिगत ढांचा और तात्कालिक वित्तीय आंकड़ों जैसे कई मानदंडों के आधार पर दी गई। मूडीज का कहना है कि यह राजस्व मोर्चे पर निगमों के प्रदर्शन, कर्ज और आकस्मिक देनदारियों के बारे में सीमित जानकारी मुहैया होने का परिणाम है। इस सूची में कमजोर शासन को भी जोड़ लीजिए। आखिरकार, निवेशकों को आश्वस्त होने की जरूरत है कि म्युनिसिपल बॉन्ड का भुगतान करने के लिए निकायों के पास समुचित राजस्व प्रवाह होगा।

भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने वर्ष 2015 में इस तरह के बॉन्ड जारी करने से जुड़े नियमों को शिथिल किया था लेकिन वित्तीय आंकड़ों की समयबद्ध जानकारी को अनिवार्य भी कर दिया था। यह प्रावधान इसलिए अहम है कि अधिकांश नगर निगम अपने खाते को सार्वजनिक नहीं करते हैं। लेकिन इन नियमों का धीमा अनुपालन न्यूनतम खुलासा मापदंडों का पालन करने में पेश आने वाली अहम चुनौतियों को परिलक्षित करता है। इस प्रावधान को अनिवार्य किए जाने से निवेशक जानकारी संबंधी अवरोधों से निजात पा सकते हैं। अगर शहरी निकाय बॉन्ड नहीं जारी करते हैं तो भी वे कम-से-कम राजकोषीय अनुशासन ला सकेंगे।

खराब रेटिंग वाले नगर निगमों को संयोजित वित्त के माध्यम से बॉन्ड बाजार से जोड़ा जा सकता है। संयोजित वित्त का मतलब है कि खराब रेटिंग वाले कई निकाय एक साथ मिलकर एक बॉन्ड जारी करें और सामूहिक रूप से जुटाए राजस्व से उनका भुगतान करें। निवेशकों को इस बात से राहत महसूस हो सकती है कि राजस्व के कई स्रोत हैं। इन सभी बातों को अंजाम देने के लिए शहरी निकायों को नेताओं के चंगुल से आजाद कराने की जरूरत है। सीधे जनता ही अपने शहर का मेयर चुने और उसका कार्यकाल पांच साल के लिए तय कर दिया जाए तो ऐसा हो सकता है। ऐसा मेयर शहरी प्रशासन का निर्विवाद नेता होगा, निगम पार्षदों के समर्थन का मोहताज नहीं।


Date:13-07-18

कब निखरेगा पुलिस का चेहरा?

रिजवान अंसारी

हाल  ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुलिस सुधार के मसले पर नये दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं। कोर्ट ने राज्य सरकारों द्वारा की जाने वाली कार्यवाहक पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति पर प्रतिबंध लगा दिया है, और राज्य पुलिस प्रमुख की नियुक्ति संघ लोक सेवा आयोग द्वारा गठित पैनल के माध्यम से किए जाने के निर्देश दिए हैं। दूसरी तरफ, मद्रास हाई कोर्ट ने पुलिस को साप्ताहिक अवकाश न दिए जाने पर चिंता जाहिर की है। जाहिर है कि मद्रास हाई कोर्ट द्वारा सरकार से इस बाबत सवाल पूछना और सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश पुलिस सुधार के अहम पहलू हैं। लेकिन गौर करें तो, सर्वोच्च न्यायालय के हालिया दिशा-निर्देश में कुछ भी नया नहीं है। ज्यादातर बातें प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ, 2006 मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देशों की पुनरावृत्ति ही हैं।

लेकिन विडंबना है कि आज लगभग 11 वर्ष बीत चुके हैं, और अधिकतर राज्य सरकारें अब तक इन निर्देशों का सही से पालन नहीं कर पाई हैं। कम-से-कम दो सालों का सेवाकाल शेष होने पर भी अधिकारी को पुलिस महानिदेशक बनाने पर सुप्रीम कोर्ट का जोर पुलिस सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम था, लेकिन सेवानिवृत्ति से ठीक पहले अधिकारी को डीजीपी बना देना सियासी मंसूबे को हासिल करने के अलावा कुछ भी नहीं था। लेकिन अहम सवाल है कि सरकार की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? राजनीतिक हित साधना जरूरी है, या सामाजिक हित? क्योंकि, पुलिस तो समाज सेवा के लिए होती है, न कि सरकार की सेवा के लिए। मौजूदा वक्त में काम के दौरान पुलिस के सामने अनेक समस्याएं आती हैं, लेकिन इनमें से कुछ ऐसी हैं, जो सभी राज्यों में कमोबेश एक जैसी हैं।

ज्यादातर राज्यों में पुलिस की छवि मनमानी करने, पिपल फ्रेंडली होने और अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने वाली रही है। हमेशा ऐसे किस्से सुनने-पढ़ने और देखने को मिलते हैं, जिनमें पुलिस द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया जाता है। पुलिस का नाम लेते ही प्रताड़ना, क्रूरता, अमानवीय व्यवहार, उगाही, रिश्वत आदि जैसे शब्द दिमाग में चलने लगते हैं। इसके पीछे पुलिस में संख्या बल की भारी कमी की वजह से काम का अतिरिक्त दबाव और उनका मानसिक रूप से थका होना बड़े कारण रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक हर 450 लोगों पर एक पुलिसकर्मी होना जरूरी है जबकि भारत में औसतन 732 लोगों पर एक पुलिसकर्मी उपलब्ध होता है। दरअसल, पुलिस सुधार में हो रहीं कोताहियों की सबसे बड़ी वजह राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और पुलिस विभाग का राजनीतिकरण रही है।

सिर्फ डीजीपी के स्तर पर नहीं बल्कि, निचले स्तर पर भी अधिकारियों की नियुक्तियों में राजनीतिक दखलंदाजी बड़ी समस्या है। साथ ही, दशकों से पुलिस सुधार के विभिन्न पहलुओं पर सरकारों की खामोशी भी समस्या को और जटिल बनाती रही है। सच तो यह है कि राज्य सरकारों पर कई बार पुलिस प्रशासन के दुरु पयोग के आरोप भी लगते रहे हैं। मुमकिन है कि इन्हीं सब वजहों से राज्य सरकारें पुलिस सुधार के लिए तैयार नहीं होतीं। हमें यह समझना होगा कि पुलिस सुधार को लेकर राज्य सरकारों की बेरुखी की वजह से पुलिस के प्रति आमजन का अविास और बढ़ जाता है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में पुलिस बल की शक्ति का आधार जनता का उसमें विास है, और अगर यह नहीं है तो समाज के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। पुलिस में संस्थागत सुधार ही वह कुंजी है, जिससे कानून व्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है।

लेकिन, चिंता का विषय है कि सत्ता में आने वाली हर सरकार पुलिस के पुराने ढांचे को बनाए रखना चाहती है, ताकि वह इसे मनमाने तरीके से इस्तेमाल कर सके। अक्सर ही प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, आयकर विभाग वगैरह की कार्यक्षमता और निष्ठा का सवालों के घेरे में आना इसी का दूसरा पहलू है। राजनीतिक बदले की भावना से इन संस्थाओं का इस्तेमाल किए जाने के आरोप-प्रत्यारोप सियासी दलों पर लगते रहे हैं। एक ओर जहां हम पुलिस व्यवस्था को लोगों के लिए हितकारी बनाने में नाकाम रहे हैं, वहीं सीबीआई जैसी अहम संस्था को भी राजनीतिक दखल से हम महफूज नहीं रख सके हैं लिहाजा, वक्त की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का सख्ती से पालन किया जाए ताकि पुलिस-प्रशासन को राजनीति के चंगुल से निकाल कर आजादी से काम करने का मौका मिल सके। अगर ऐसा हो पाता है, तो हम समाज को कई अन्य तरह की चुनौतियों से आजाद कराने में यकीनन कामयाब हो पाएंगे।


Date:13-07-18

अमीरी का पायदान

संपादकीय

अर्थव्यवस्था के मामले में भारत ने फ्रांस को पछाड़ दिया है और दुनिया की छठी बड़ी आर्थिक ताकत बन गया है। यह खबर वाकई खुशफहमी पैदा करती है। इससे जो माहौल बनेगा, वह गदगद करने वाला होगा। विश्व बैंक ने बताया है कि अर्थव्यवस्था के वैश्विक पैमाने पर फ्रांस अब सातवें पायदान पर खिसक गया है और उसकी जगह भारत ने ले ली है। चौंकाने वाली बात यह है कि अगले साल भारत, ब्रिटेन को भी पीछे छोड़ सकता है और पांचवें स्थान पर आ सकता है। विश्व बैंक ने भारत की तारीफ इसलिए भी की है कि नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े फैसलों से विनिर्माण क्षेत्र में तेजी आई है और लोगों की खरीद क्षमता बढ़ी है। इससे अर्थव्यवस्था को ताकत मिली है। आंकड़ों का हवाला देते हुए विश्व बैंक ने बताया कि फ्रांस की अर्थव्यवस्था एक सौ सतहत्तर लाख करोड़ की रह गई है और भारत की एक सौ अठहत्तर लाख करोड़ हो गई है। विश्व बैंक के इस पैमाने से देखें तो अब भारत से ऊपर अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी और ब्रिटेन ही हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से भारत को अपनी इस उपलब्धि पर खुश होना चाहिए कि उसने एक विकसित देश को पीछे छोड़ दिया है!

लेकिन अर्थव्यवस्था के आंकड़ों का मकड़जाल बेहद जटिल होता है। यह आम लोगों की समझ से परे होता है। दुनिया के मुकाबले हम कहां खड़े हैं, तरक्की के किस पायदान पर पहुंचे, खुशहाली के पैमाने पर कहां टिकते हैं, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, कुपोषण, भुखमरी जैसे मामलों में हमारी हकीकत क्या है, यह सब वैश्विक रेटिंग एजेंसियों, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों से ही पता चलता है। रेटिंग एजेंसियां बताती हैं कि आर्थिक विकास के मामले में हमारी क्या हैसियत है। विकास दर का अनुमान तो सभी अपने-अपने हिसाब से लगाते हैं। किसी में राहत के संकेत होते हैं तो किसी में चेतावनी की ओर इशारा होता है। कभी भारत की आर्थिक सेहत को लेकर चिंता जताई जाती है, तो कभी सब कुछ अच्छा होता है। इसलिए कई बार रेटिंग एजेंसियां आलोचना के घेरे में भी आई हैं। लेकिन अब विश्व बैंक जैसी सबसे बड़ी संस्था ने अर्थव्यवस्था के छठे पायदान पर होने की बात कही है तो माना जाना चाहिए कि भारत आर्थिक मोर्चे पर विकसित देशों को पछाड़ने की स्थिति में पहुंच गया है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट का लब्बोलुआब यह है कि भारत अब अमीर देशों की कतार में शामिल होने की दिशा में अग्रसर है। पर इस तथ्य पर भी गौर होना चाहिए कि फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी की कुल आबादी भारत की कुल आबादी का पांचवां हिस्सा भी नहीं है। इन तीनों देशों में प्रति व्यक्ति आय सालाना साढ़े बयालीस हजार डॉलर से साढ़े छियालीस हजार डॉलर के बीच बैठती है। इनकी तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति आय दो हजार डॉलर से भी कम है, यानी एक हजार नौ सौ चौंसठ डॉलर। प्रति व्यक्ति आय का यह भारी अंतर बताता है कि खुशहाली और जीवन स्तर के हिसाब से हम इन तीनों देशों से दशकों पीछे हैं। हकीकत यह है कि भारत तो अमीर बनता जा रहा है, लेकिन भारत के लोग वहीं के वहीं हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे मोर्चों पर तमाम देशों से पीछे हैं। भ्रष्टाचार गहरे तक पैठा हुआ है। मलेरिया जैसी बीमारी से निपटने में हम श्रीलंका से भी पिछड़ गए। पिछले साल के वैश्विक भूख सूचकांक में एक सौ उन्नीस देशों में हमारा स्थान सौवां था। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसी अमीरी का क्या मतलब है जो गरीबी को मात न दे पाए!


Date:13-07-18

Man to Man

Law on adultery, as it exists, is a bundle of patriarchal logic. It needs to be urgently changed.

Editorial

At long last, as its stance on decriminalisation of homosexuality suggests, the Indian government has decided to walk out of the bedroom of its citizens — where it had no business being in the first place. But while it has decided not to stand against the long-overdue striking down of Section 377 of the Indian Penal Code, it has lent its weight to another law that does not need defending. Adultery should remain a crime, the Centre has told the Supreme Court, arguing that the “sanctity of marriage and the fabric of society at large” might be hampered otherwise. A constitution bench of the SC had invited the government’s view as it heard a petition that challenges the constitutionality of Section 497.

The law on adultery, as it exists, is a patronising bundle of patriarchal logic. Only a married man is allowed to invoke Section 497 against another man if the latter has had a sexual relationship with his wife. If a woman has a similar grievance against her husband, she cannot approach the courts. Further, only a married man’s sexual relations with a married woman is deemed adultery — and not if he chooses to have an affair with a widow or a sex worker. Underpinning these laws is the idea that adultery is a disputed transaction between two men: One who has ownership rights over a woman via marriage, and the other who violates it. In December last year, a petition filed with the SC disputed Section 497 on the grounds that it discriminated against men and violated Articles 14, 15 and 21 of the Constitution. The petitioners argued that the punishment for adultery should not solely be borne by men, as is the case now, but shared by women.

Demanding equitable punishment, however, is as wrong-headed as the government’s insistence that the fear of law can “support, safeguard and protect the institution of marriage”. It is an argument that is spectacularly at odds with how societies, including India’s, have evolved to understand the nature of marriage and sexual relations. Human beings live and love on a broad spectrum of relationships and desires, some of which transgress social norms. But if such a relationship is consensual and non-violent, it is not the business of the state to police it. Nor should the state invoke the paranoia of the collapse of social order to criminalise a breakdown in marital relations. By its recommendation, the government has lost an opportunity to take a progressive stand.


Date:13-07-18

Towards a Culture of Moral Responsibility

Mob action is the most violent expression of fears about the safety of our children; it shows a lack of trust in the state

Kailash Satyarthi, [Nobel Peace Laureate Kailash Satyarthi is the founder of Global March against Child Labour and Kailash Satyarthi Children’s Foundation]

Twenty people have been killed by raging mobs, on the suspicion of being child-lifters, across the country in the last few weeks. The trigger for the fears in these violent incidents was undoubtedly WhatsApp rumours that were unfounded. I am appalled by these brutal killings. The violence apart, there are also many people who suspect that their children could be abducted for prostitution, organ trade, forced beggary or any other form of slavery.

Eight children go missing every hour in India to remain untraced and four are sexually abuse. Aren’t these figures enough to cause fear among the masses? Can we say with confidence that our children are safe in homes, schools, neighbourhoods, workplaces, shelter homes, or even inside the places of worship and faith institutions? Can we guarantee that our children will not be abused by a family member or friend? Can we totally trust our state institutions to bring the perpetrators to justice? Fears triggered by such insecurities quickly take the form of collective frustration. Mob action, condemnable no doubt, is the most violent expression of such frustration.

Rising anger

Last year, I led an 11,000-km Bharat Yatra to take the message of ‘safe childhood’ across the country. A total of 12 lakh people, including child victims of rape, their parents, survivors of child trafficking and prostitution, former child labourers, and young people, marched with me to demand their right to childhood. Though their rising anger was discernible, I repeatedly appealed to them not to take the law into their hands and to follow the legal, judicial system for justice. But it is necessary to point to the apathy among our institutions toward child safety.

Reports on incidents like the sale of a baby by the Missionaries of Charity home; the rape of minor girls by a self-styled godman in Delhi; and the rape of a nine-year-old girl by a Maulana in a madrassa raise a basic question: Why are many of these residential religious institutions allowed to run without stringent regulations and checks?

The government has information on 1.4 lakh missing children on one hand and on the other, has a database of three lakh children staying in state and NGO-run children’s homes. Why can’t it effectively use simple technological solutions like facial recognition software and try to reunite missing children with their families? Further, what stops the largest democracy in the world from passing more stringent laws against child trafficking and child pornography?

Normally, public outrage in the case of many unfortunate incidents like those in Kathua, Unnao and Mandsaur has been selective and convenient. Nobody has questioned why an eight-year-old was grazing horses and not attending school as per constitutional right to education. Or how a school in Mandsaur could have been so unsafe for a little girl. Or why a political party not just tolerates but protects alleged rapists for so long.

Demanding capital punishment for the perpetrators of child rape is the easiest way to show social media heroism. The government’s response, which includes setting up an enquiry or bringing an ordinance, is equally convenient. However, I have never come across an incident where an individual or institution ever took moral responsibility for such a pathetic situation on child safety. Therefore, I argue for a culture of moral responsibility and accountability among our institutions, as opposed to the prevalent culture of superficial, convenient responses.

Moral responsibility is an individual decision and moral accountability is a culture. Mahatma Gandhi called off the Non-Cooperation Movement against the British because some of his supporters turned violent in Chauri Chaura. Martin Luther King Jr. repeatedly called for compassion and hope despite facing vicious racist insults. More recently, Nelson Mandela adopted the approach of reconciliation to bring about justice, despite being a brutalised victim of apartheid. A culture of accountability can be created if the society and the state are guided by a moral compass.


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