10-10-2018 (Important News Clippings)

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10 Oct 2018
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Date:10-10-18

Nobel Signals

2018 economics prize highlights critical roles of technology and pollution in growth

TOI Editorials 

The Nobel prize for economics in 2018 was awarded to Paul Romer and William Nordhaus for their work in two separate areas: economic growth and environmental economics respectively. But there is a common thread in their work. Productive activity often has spillovers, meaning that it can impact an unrelated party. In economic jargon it’s termed an externality. Romer and Nordhaus both studied the impact of externalities and came up with profound insights and economic models. Among recent economics Nobels, it’s hard to think of one more topical and relevant to India.

Economic growth has often been associated with large environmental damage in the form of pollution and environmental degradation. This is unsustainable for a variety of reasons, including social friction triggered by people protesting the costs they are forced to incur on account of externalities. Romer’s work highlighted the power of ideas in achieving growth while limiting environmental cost. These ideas are given life by improved technology. To illustrate, India’s high growth phase has been accompanied by lower energy use per unit GDP because of access to better technology. The key policy question here is, what is the best way to unlock a society’s wellspring of creativity?

The issue was highlighted in the latest report of the UN’s Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC), released this Monday. Its contents are alarming for India as agriculture may be significantly impacted even by a 1.5°C increase in average global temperature. Tackling it requires meeting two challenges. One, to get global coordination as this externality is not limited to national boundaries. Two, gauging the extent of trade-off between economic activity and environmental goals. Nordhaus is an advocate of carbon taxes, which means the emitter should incur the social cost.

If there is a lesson for India’s policy making in their work, it is that sustainable prosperity is possible only when we massively enhance the quality of human capital and policy making. It’s schools and universities which determine a country’s long-run economic trajectory. They are incubators of ideas which can be the most important positive externality. Moreover, policy making must evaluate tradeoffs more holistically. For example, ethanol blended petrol may save a bit of foreign exchange. But what will it do to food production or our fast depleting water tables? Assessing externalities is therefore at the heart of successful policy.


Date:10-10-18

End The Culture of Sexual Harassment

 ET Editorials 

The #MeToo movement has finally made it to India, if we discount the naming of academics of Indian origin in a list inspired from the US last year. It began with Bollywood actor Tanushree Dutta denouncing sexual harassment on film sets and her victimisation for raising the issue. In the past couple of days, there has been a steady outpouring from women, mostly in media. This is an important moment that will hopefully change the culture at the workplace and force organisations to take complaints of sexual harassment seriously, and take steps to create work environments that are safe for women.

This coming out by a small number of women is an act of immense personal courage. It must embolden other women similarly mistreated to speak out, besides compelling organisations across the board to take all necessary steps to remove a major hindrance to women’s participation in the workforce. For these acts of courage on the part of multiple women to have a lasting impact beyond public catharsis, organisations must look inward. The normalisation of harassment as a regrettable price that women must pay for having a professional career must cease. India has a robust law dealing with sexual harassment at the workplace. It requires organisations to set up Internal Complaints Committees where women can register their complaints. However, far too often, these committees have been dysfunctional or ineffective. The cost of complaining has been too high. It is time to implement the law more effectively, both in letter and spirit.

But the #MeToo moment must be not just about organisations but also about addressing the societal and cultural moorings that accommodate, and sometimes even promote, misogyny. It should push us to look more closely at the behaviour of men in positions of power and those of their enablers, who sadly often include women, including by making false accusations. Sexual harassment is unacceptable, there are no mitigating factors. We must act now and decisively, for the sake of those who have spoken out, and of those who are yet too young to speak.


Date:10-10-18

पुराने दोस्त से याराने का नया दौर

कमलेंद्र कंवर

हाल ही में भारत ने रूस से जमीन से हवा में मार करने वाली एस-400 ‘ट्रंफ मिसाइल रक्षा प्रणाली खरीदने का समझौता किया। इससे अमेरिका दुविधा की स्थिति में है, जो भारत पर लगातार इस सौदे के खिलाफ दबाव डाल रहा था। इस वायु रक्षा प्रणाली का करार करते हुए भारत ने चीन के किसी भी संभावित दुस्साहस के खिलाफ अपनी सुरक्षा को और सुदृढ़ करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। अमेरिका की खीझ इसलिए भी है कि उसके द्वारा रूस से ऐसे सौदे करने वाले राष्ट्रों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने की चेतावनी के बावजूद भारत-रूस के मध्य यह सौदा हुआ।

मोदी सरकार को उम्मीद है कि अमेरिका ने रूस के साथ सौदों पर जो दंडात्मक प्रतिबंध लगाए हैं, उनसे भारत को छूट मिल जाएगी क्योंकि ट्रंप प्रशासन यह समझेगा कि भारत ऐसा करते हुए चीन जैसे विकट पड़ोसी को नियंत्रित करने की चाहत रखता है। लेकिन ट्रंप प्रशासन भारत-रूस के मध्य हुए इस सौदे की अनदेखी करने के बदले में नई दिल्ली से जरूर कुछ रियायतों की उम्मीद करेगा। लगता यही है कि अमेरिका इसे अपना प्रभाव बढ़ाने के एक अवसर के रूप में देखता है। इस सौदे पर नई दिल्ली में स्थित अपने दूतावास से अमेरिका ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा कि रूस के खिलाफ प्रतिबंध लगाए जाने का मकसद इसके ‘खराब बर्ताव पर लगाम लगाना है, न कि ‘अपने सहयोगियों और साझेदारों की सैन्य क्षमताओं को नुकसान पहुंचाना। अमेरिका की ओर से यह साफ नहीं किया गया कि भारत को छूट मिलेगी या नहीं, लेकिन उसने यह जरूर कहा कि कोई भी छूट सौदा-दर-सौदा आधार पर होगी।

बहरहाल, इस मामले में अमेरिका द्वारा इस तथ्य की अनदेखी करना नादानी भरा होगा कि चीन पहले ही रूस से एस-400 वायु रक्षा प्रणाली खरीद चुका है और बीजिंग महाशक्ति का दर्जा पाने की उत्कंठा में बेलगाम होता जा रहा है। एस-400 वायु रक्षा प्रणाली सौदा भारत और रूस के मध्य बनी सामरिक साझेदारी का एक हिस्सा है। चूंकि अमेरिका भी चीन पर लगाम कसने की खातिर भारत को अपने एक प्रमुख सामरिक सहयोगी के रूप में देख रहा है, लिहाजा वह भारत-रूस की सामरिक सहभागिता से चिढ़ गया है। बल्कि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि उसे भारत-रूस के मध्य अतीत में हुए सामरिक सौदों से भी आपत्ति है। फिर भी, क्या यह उसके लिए अच्छा विकल्प होगा कि वह भारत से अपने संबंध खतरे में डाले और इस तरह भारत-रूस-चीन की एक धुरी बनने की गुंजाइश प्रदान करे, जिससे खुद इसकी पहुंच कमजोर हो जाएगी? भारत जैसे विशाल कद और आकार वाला देश यह गवारा नहीं कर सकता कि कोई उसे यह बताए कि वह किससे हथियार प्रणाली खरीदे। देश में आम चुनाव बस कुछ माह दूर हैं। ऐसे में कोई सरकार इतनी कमजोर दिखना नहीं चाहेगी कि किसी विदेशी ताकत के मुताबिक चलती दिखे। हालांकि मोदी सरकार अमेरिका को ज्यादा खफा करने से भी बचना चाहती थी। नतीजतन, पिछले महीने अमेरिकी विदेश मंत्री व रक्षा मंत्री के साथ हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन का संवाद भारत का पक्ष प्रभावी ढंग से रखने के लिहाज से उपयोगी रहा।

गौरतलब है कि एस-400 ‘ट्रंफ दुनिया की सबसे उन्न्त मिसाइल रक्षा प्रणालियों में से एक है, जो 60 किमी दूर तक मार करते हुए दुश्मन की मिसाइलों को हवा में ही ध्वस्त कर सकती है। इसमें कई लांचर्स, कमांड और लॉजिस्टिक व्हीकल्स लगे होते हैं और यह 300 हवाई लक्ष्यों को एक साथ भेद सकती है। भारत को इस वायु रक्षा प्रणाली की पहली खेप चौबीस महीनों के भीतर मिल जाएगी। हमें इस तथ्य को स्वीकारना होगा कि यदि किसी कारणवश भारत यह सौदा करने में नाकाम रह जाता तो भारत-रूस के संबंध भी गड़बड़ा जाते। ऐसे में रूस पाकिस्तान को फुसलाने की कोशिशें कर सकता था और चीन-पाकिस्तान-रूस की धुरी को मजबूती दे सकता था। यह भारत के लिए भी झटका होता। भारत इस बात से वाकिफ है कि रूस की पाकिस्तान से नई नजदीकियों के क्या मायने हो सकते हैं। अतीत में भारत रूस के अनुग्रह से लाभान्वित होता रहा है। खासकर संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मसले पर पूर्ववर्ती सोवियत संघ और अब रूस ने हमेशा भारत का साथ दिया है।

बहरहाल, यह सौदा एक तरह से मोदी सरकार के मिजाज की परख भी था खासकर यह देखते हुए कि अमेरिका सख्त रवैया भी अख्तियार कर सकता था। लेकिन उभरती एशियाई ताकत के रूप में पहचान बना रहा भारत यह भी गवारा नहीं कर सकता था कि वह अमेरिकी दबाव के आगे झुक जाए। इस सौदे का फलीभूत होना इस बात का सूचक है कि मोदी जोखिम लेने के लिए तैयार थे। वास्तव में मोदी यह भलीभांति जानते थे कि यदि वह अमेरिकी प्रतिबंधों के भय से ईरानी तेल के मामले में झुक जाएंगे या अमेरिकी दबाव में रूस से एस-400 वायु रक्षा सौदे पर आगे नहीं बढ़ेंगे तो अमेरिका और खासकर ट्रंप से आंख से आंख मिलाकर बात करने वाले नेता की उनकी छवि मिट्टी में मिल जाएगी। हालांकि एस-400 सौदे को लेकर अमेरिकी प्रतिक्रिया की पूरी परतें अभी भी नहीं खुली हैं। अब सबकी निगाहें वाशिंगटन की ओर लगी हैं कि चीजें कैसे आकार लेती हैं। भारत-रूस के मध्य हुआ यह करार इस बात का संकेत है कि मोदी सरकार ‘चीन को रोकने की दिशा में कदम उठाने से हिचक नहीं रही है। यह कहना है रिचर्ड रॉसो का, जो सेंटर फॉर स्ट्रेटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज में वरिष्ठ सलाहकार हैं और भारत-अमेरिकी संबंधों के विशेषज्ञ हैं। उनका मानना है कि भारत हिंद महासागर क्षेत्र (जहां पर चीन लगातार अपने पांव फैलाने में लगा है) में पावर प्रोजेक्शन के लिए उन्न्त रक्षा उपकरण चाहता है।

तंजानिया से श्रीलंका तक ये दोनों एशियाई ताकतें व्यापक जलमार्ग के इर्द-गिर्द अपनी मजबूत सैन्य व आर्थिक मौजूदगी दर्ज कराने की होड़ में लगी हैं। चीन पिछले साल जिबूती में अपना पहला ओवरसीज सैन्य अड्डा स्थापित कर चुका है, वहीं मोदी सरकार इंडोनेशिया, ईरान, ओमान और सेशेल्स तक नौसैनिक पहुंच स्थापित करने में सफल रही है। सिंगापुर स्थित नानयांग टेक्नोलॉजिक यूनिवर्सिटी में एसोसिएट रिसर्च फेलो और रक्षा विशेषज्ञ जॉए स्टेनले लॉकमैन कहते हैं- ‘एस-400 वायु रक्षा प्रणाली भारत को अपनी सरहदों से परे हवाई लक्ष्यों को भेदने में सक्षम बनाएगी। अब जहां चीनी सेना व वायुसेना अपनी प्रशिक्षण व विकास संबंधी गतिविधियों को भारतीय अधिकार-क्षेत्र के और नजदीक तक ले जा रही हैं, ऐसे में यह वायु रक्षा प्रणाली भारत के लिए एक बहुमूल्य संपदा साबित होगी। लब्बोलुआब यह कि चीन के मुकाबले सामरिक बढ़त हासिल करने का खेल पूरे शबाब पर है और अमेरिका भी मानता है कि यदि वह किसी देश पर भरोसा कर सकता है तो यह भारत ही है।


Date:10-10-18

नफरत का नतीजा

संपादकीय

आखिर इससे शर्मनाक और क्या हो सकता है की गांधीजी की जन्मस्थली गुजरात से हजारों उत्तर भारतीय अनिष्ट की आशंका में पलायन कर रहे है ? अनिष्ट की आशंका से इसलिए घिर गए हैं , क्योंकि उन्हें अवांछित करार देने के साथ ही धमकाया भी जा रहा है । हलाकि उत्तर भारतीयों और विशेषकर उत्तर प्रदेश तथा बिहार के लोगों को धमकाने वाले तत्व की गिरफ़्तारी की गई है , लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती की उनके पलायन का सिलसिला कायम है । इससे तो यही लगता है की गुजरात सरकार डरे सहमे उत्तर भारतीयों को यह भरोसा नहीं दिला पा रही है की उनके साथ कुछ अनपेक्षित नहीं घटने दिया जायेगा।

यह अच्छा नहीं हुआ की राज्य सरकार उन अराजक तत्वों पर समय रहते लगाम नहीं लगा सकी, जो एक बच्ची से दुष्कर्म की घटना के बाद उत्तर भारतीयों को धमकाने में जुट गए। इसे पागलपन के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता कि किसी एक के आपराधिक कृत्य के जवाब में देश के एक बड़े हिस्से के लोगों को एक खतरे के तौर पर चित्रित किया जाने लगे । दुर्भाग्य से गुजरात में ऐसा ही किया गया । यह मानने के अच्छे भले कारण है की उत्तर भारतीयों को डराने धमकाने का काम सुनियोजित साजिश के तहत किया गया और इसलिए एक के बाद एक शहर से उत्तर भारतीय जान बचाने के किये भागने को मजबूर हो गए । क्या बिना राजनितिक शह के दहशत का ऐसा माहौल बनाया जाना संभव ? उत्तर भारतीयों में खौफ पैदा करने की इस साजिश के पीछे कांग्रेस के विधायक अल्पेश ठाकोर का हाथ माना जा रहा है , जो बेतुके और भड़काऊ बयानों के लिए जाने जाते हैं । केवल इतना ही पर्याप्त नहीं की उन्हें कठघरे में खड़ा किया जा रहा है । यह समय और न्याय की मांग है की उत्तर भारतीयों को पलायन के लिए मजबूर करने वालों के खिलाफ कठोर कार्यवाई हो , क्योंकि उनके पलायन ने गुजरात के साथ -साथ देश को भी शर्मसार करने का काम किया है।

यह पहली बार नहीं , जब देश के एक हिस्से के लोगों को किसी अन्य हिस्से से अवांछित बताते हुए उन्हें इतना खौफजदा किया गया की वे वहां से पलायन करने के लिए विवश हुए हों ।देश की एकता अखंडता को क्षति पहुंचाने वाले ऐसे कृत्य होते रहते हैं। दुर्भाग्य से उत्तर भारतीय ही ऐसे कृत्य का शिकार बनते है । उनके साथ अभी जैसा गुजरात में घटित हुआ वैसा ही, महराष्ट्र में रह रहकर घटित होता रहा है। वे पूर्वोत्तर में भी कई बार वहां के अराजक तत्वों की नफरत के शिकार हो चुके है । उत्तर प्रदेश , बिहार , ओड़िशा आदि राज्यों के लोग एक बड़ी संख्या में दूसरे राज्यों में रोजी -रोटी के लिए काम करने जाते हैं ,तो इसका मतलब यह नहीं की वो दीन – हीन हैं । ये तो वो मेहनत लोग हैं , जो संबंधित राज्यों की औद्योगिक – व्यापारिक गतिविधियों लो गति देते हैं । यह खेद की बात है कि जब ऐसे लोगों के हितों की चिंता की जानी चाहिए ,तब उनकी रोजी रॉट और उनके मान सम्मान से खिलवाड़ का एक और अफ़सोसनाक प्रसंग सामने आया । ऐसे प्रसंग भारतीयता को क्षति पहुंचाने के साथ भारतीय समाज को अपयश का ही पात्र बनाते हैं ।


Date:09-10-18

समाधान का संकट

संपादकीय

जलवायु संकट पूरी धरती के लिए बड़ा खतरा बन गया है। लंबे समय से इसे लेकर चिंता जताई जा रही है और धरती को बचाने के लिए विश्व पर्यावरण सम्मेलनों में बड़ी-बड़ी घोषणाएं होती रही हैं। लेकिन ठोस समाधान की शुरुआत कहीं से दिखाई नहीं दे रही। इसलिए समस्या बढ़ती जा रही है। पर्यावरण की चिंता में घुल रहे देश आज तक इस बात पर सहमत नहीं हो पाए हैं कि बचाव की शुरुआत कैसे और कहां से हो। कार्बन उर्त्सजन घटाने के लिए क्या किया जाए। हालात विस्फोटक इसलिए हो गए हैं कि उद्योगों से लेकर घरों में इस्तेमाल होने वाले र्इंधन तक से निकलने वाला धुआं हवा को जहरीला बना रहा है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र ने सोमवार को जारी अपनी एक ताजा रिपोर्ट में दुनिया के सारे देशों को चेताया है कि वक्त तेजी से गुजर रहा है और अब भी हम नहीं चेते तो धरती पर प्राणी जगत का अस्तित्व गंभीर खतरे में पड़ जाएगा। दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में दुनिया के वैज्ञानिकों के साथ लंबे विचार-विमर्श के बाद यह रिपोर्ट जारी हुई। इसमें साफ तौर पर आगाह किया गया है कि धरती को आज जिन गंभीर संकटों का सामना करना पड़ रहा है, उनके कारण वैश्विक समाज और अर्थव्यवस्था भी गंभीर खतरे में हैं।

संयुक्त राष्ट्र की यह रिपोर्ट ऐतिहासिक इस मायने में है कि इसमें सबसे ज्यादा चिंता धरती के बढ़ते तापमान को लेकर जताई गई है। कहा गया है कि धरती का तापमान एक डिग्री सेल्शियस बढ़ गया है और आने वाले दशकों में यह तीन से चार डिग्री और बढ़ सकता है। ऐसे में यह गंभीर सवाल खड़ा हो गया है कि क्या हम इतनी गरमी झेल पाएंगे? तवे जैसी तपती धरती पर से जीवों का खात्मा होने का यह बड़ा कारण बन सकता है। धरती की सतह का तापमान बढ़ने से ही महासागरों में भयंकर उथल-पुथल मच रही है और कई देशों को सुनामी और बड़े तूफानों का सामना करना पड़ रहा है। बेमौसम की बारिश, बाढ़ और सूखे जैसी आपदाएं इस बढ़ते तापमान का ही नतीजा हैं। अगर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं हुआ तो अगले एक दशक में ही धरती का तापमान डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। वैज्ञानिकों की इस चेतावनी की अनदेखी इंसान के लिए भारी पड़ सकती है।जलवायु संकट को लेकर भारत की स्थिति चौंकाने वाली है। जो संकट सामने हैं, उन्हें हम नजरअंदाज करते जा रहे हैं।

पिछले डेढ़ सौ साल में दिल्ली का तापमान एक डिग्री सेल्शियस और कोलकाता का 1.2 डिग्री बढ़ गया है। इसी तरह मुंबई और चेन्नई की गरमी भी बढ़ी। तटीय शहर खतरे में इसलिए हैं कि गरमी बढ़ने से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और तटीय शहरों के समुद्र में समा जाने का खतरा बढ़ता जा रहा है। अगर डेढ़ से दो डिग्री तक तापमान बढ़ गया तो वह करोड़ों लोगों के लिए जानलेवा साबित होगा। गरमी बढ़ने से लू कहर बरपाएगी, फसलें झुलसने लगेंगी, जल स्रोत सूख जाएंगे। जहां भारी बारिश होगी, वहां बाढ़ से निपटना होगा, जैसा कि हाल में केरल में देखा है। दिक्कत यह है कि भारत में प्रदूषण से निपटने के लिए कहीं कोई ठोस पहल नहीं हुई है। वाहन प्रदूषण, घरों में जलने वाले र्इंधन, कचरा प्रबंधन जैसी समस्याओं से निपटने में सरकारें नाकाम साबित हुई हैं। हर साल पांच लाख से ज्यादा मौतें वायु प्रदूषण के कारण होती हैं। उत्तर भारत के बड़े हिस्से को हर साल कई महीनों तक खेतों में जलाई जाने वाली पराली के धुएं में घुटना पड़ता है। ऐसे में सवाल उठता है कि हम तापमान को बढ़ने से कैसे रोक पाएंगे!


Date:09-10-18

पुलिस सुधार का असली मकसद

विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी

लखनऊ में बीते दिनों विवेक तिवारी की हत्या क्या एक बड़े प्रदेश में अपवाद स्वरूप कभी-कभार होने वाली असाधारण, किंतु जिसकी वजह से बहुत अधिक परेशान न हुआ जाए, ऐसी घटना थी? ऐसा तो नहीं कि यह शरीर में बहुत दिनों से पक रहा कोई ऐसा फोड़ा था, जो बीच-बीच में फूटता था, लेकिन हम उसे थोड़ा-बहुत पोंछ-पांछकर खुद को साफ-सुथरा महसूस करने लगते थे। पर इस बार तो यह ऐन हमारे चेहरे को पंक में लिथाड़ता निकला है और समझ में नहीं आ रहा कि सफाई कैसे की जाए?मेरे विचार से लखनऊ में जो कुछ हुुआ, वह खुद कोई रोग न होकर शरीर के अंदर पल रही एक बड़ी व्याधि का लक्षण मात्र है

और बाद के दिनों में दोषी पुलिसकर्मियों को दंडित करने के प्रयास पर पुलिस के एक तबके की अनुशासनहीन प्रतिक्रिया से बखूबी अंदाज लगाया जा सकता है कि बीमारी किस गंभीर हद तक फैल चुकी है। एक संस्था के रूप में रोजमर्रा की जिंदगी में नागरिकों का सबसे अधिक वास्ता पुलिस से पड़ता है। एक अंग्रेजी कहावत के अनुसार, यह एक ‘नेसेसरी इविल’ यानी अनिवार्य बुराई है। यह भी कह सकते हैं कि बुराई से अधिक यह हमारे सामाजिक जीवन की अनिवार्यता है, पुलिस के बिना हम चौबीस घंटे से भी कम समय में एक अराजक भीड़ तंत्र में तब्दील हो जाएंगे। इस अनिवार्य संस्था को अधिक सभ्य और उत्तरदायी बनाने को लेकर भारतीय समाज की उदासीनता कई बार चकित करती है।

भारतीय पुलिस आज हमें जिस स्वरूप में दिखती है, उसकी नींव 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की समाप्ति के बाद पड़ी थी और इसके पीछे तत्कालीन शासकों की एकमात्र मंशा औपनिवेशिक शासन को दीर्घजीवी बनाना था और उसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। 1860 के दशक में बने पुलिस ऐक्ट, आईपीसी, सीआरपीसी या एविडेंस ऐक्ट जैसे कानूनों के खंभों पर टिका यह तंत्र न तो कभी जनता का मित्र बन सका और न ही उसकी ऐसी कोई मंशा थी। दरअसल उसकी सफलता के लिए जरूरी था कि वह कानून-कायदों की धज्जियां उड़ाने वाला, भ्रष्ट और जनता के शत्रु संगठन के रूप में काम करे और स्वाभाविक ही था कि पुलिस एक ऐसी संस्था के रूप में विकसित हुई।

आश्चर्य यह है कि आजादी के बाद भी पुलिस के बुनियादी चरित्र में सुधार का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ। यह इसलिए और आश्चर्यजनक लगता है कि स्वतंत्रता संग्राम के ज्यादातर योद्धाओं का उसके जन-विरोधी स्वरूप से पाला पड़ चुका था। फिर भी 1947 के बाद आई सरकारों ने उसमें परिवर्तन के लिए जरूरी कदम क्यों नहीं उठाए? खासतौर से जनता के साथ उसके रिश्ते लोकतंत्र के अनुकूल बनें और उत्तरदायित्व के प्राविधान पुलिस रेगुलेशन में अंतर्निहित हों- इन क्षेत्रों में आजाद भारत में किसी भी सरकार ने खास काम नहीं किया। पुलिस सुधारों की बात होती है, तो उनका मतलब पुलिस को अधिक घातक हथियार, बेहतर संचार उपकरण या तेज परिवहन मुहैया कराने जैसे ऊपरी सुधार होते हैं। सरकारों की दिलचस्पी पुलिस में ऐसे परिवर्तनों में कम ही दिखती है कि जनता पुलिस को अपना मित्र समझने लगे। इसीलिए आज भी आम नागरिक बड़े से बड़े संकट में पुलिस के पास जाने से झिझकता है।

पुलिस तंत्र में बुनियादी परिवर्तन न हो सकने के पीछे कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे प्रभु वर्गों को भी अंग्रेजों की बनाई पुलिस ही पसंद आती है? ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने पचास के लगभग मुल्कों में आधुनिक अर्थों में पुलिस बनाई थी। मेरे लिए यह हमेशा कौतूहल का विषय रहा है कि उन्होंने हर जगह अलग चरित्रों वाली पुलिस क्यों बनाई? मसलन, श्रीलंका में जैसी पुलिस खड़ी की, वैसी नाइजीरिया में क्यों नहीं या भारतीय पुलिस का चरित्र ऑस्ट्रेलियाई पुलिस से इतना भिन्न क्यों है? यह भी पूछा जा सकता है कि नागरिक विनम्रता की प्रतिमूर्ति लंदन बाबी की तर्ज पर भारतीय कांस्टेबल की मूरत क्यों नहीं गढ़ी गई? एक उत्तर यह हो सकता है कि हर समाज को उसके स्वभाव, चरित्र और शासकों की जरूरत के मुताबिक पुलिस मिलती है। गौरांग महाप्रभुओं को वर्ण-व्यवस्था जैसी अमानवीय व्यवस्था से संचालित भारतीय समाज को नियंत्रित करने के लिए कानून-कायदों को ठेंगे पर रखने वाली, भ्रष्ट और थर्ड डिग्री को तफ्तीश का सबसे औचक जरिया मानने वाली पुलिस ही उपयुक्त लगी होगी और उन्होंने वही हमें दी। आजाद होने के बाद जब हम एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाने चले, तब हमने अपनी सबसे महत्वपूर्ण संस्था पुलिस में आमूल-चूल परिवर्तन की बात क्यों नहीं सोची? कहीं इसलिए तो नहीं कि हमारे शासकों को आज भी ऐसी पुलिस भाती है, जो उनके इशारों पर विरोधियों के हाथ-पैर तोड़ दे या उनके समर्थकों के कानून तोड़ने पर अपनी आंखें मूंद ले? आज भी चुनाव जिताने के लिए पुलिस उनके पास सबसे कारगर औजार है।

ये कुछ प्रश्न हैं, जो विवेक तिवारी की हत्या और राज्य द्वारा आधे मन से ही सही हत्यारों के खिलाफ कार्रवाई करने पर पुलिस के एक तबके द्वारा ढीठ रवैया अपनाने पर उठाए जाने चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश में जिस तरह पुलिस भर्ती हुई, जैसे उनके प्रशिक्षण की उपेक्षा हुई या जिन कारणों से वे एक पेशेवर समूह के स्थान पर जाति आधारित गिरोहों में बदल गए, इन सब पर चर्चा होनी चाहिए। अपराधियों को कानून की स्थापित परंपराओं के अनुरूप अदालत में न पेश कर खुद मुठभेड़ों में मार डालने के लिए प्रोत्साहित कर पुलिस को हत्यारों के गिरोह में परिवर्तित करने के क्या नतीजे हो सकते हैं, लखनऊ का यह हत्याकांड इसका उदाहरण है। सोशल मीडिया पर बढ़-चढ़कर फर्जी मुठभेड़ों का समर्थन करने वाला मध्यवर्ग इस समय स्तब्ध दिख रहा है, क्योंकि आग उसके दरवाजे तक पहुंच गई है। डर है कि यह प्रतिक्रिया भी क्षणिक साबित न हो। जरूरत इस गुस्से को एक गंभीर विमर्श में बदलकर धर्मवीर कमीशन जैसी तमाम बुनियादी परिवर्तन में समर्थ सिफारिशों को मानने के लिए सरकारों को मजबूर करने की है। जिस संस्था से रोजमर्रा की जिंदगी में सबसे अधिक साबका पड़ता है, ऐसी पुलिस को मित्र पुलिस बनाने के लिए जनता को खुद आवाज उठानी होगी।


Date:09-10-18

आतंक के खिलाफ हथियार है नादिया की कहानी

संचिता शर्मा, हेल्थ एडीटर, हिन्दुस्तान टाइम्स

बीते शुक्रवार को इराक की नादिया मुराद और कांगो गणराज्य के डेनिस मुकवेगे को इस साल के नोबेल शांति सम्मान से सम्मानित करने का एलान किया गया। इन दोनों को यह पुरस्कार ‘युद्धों और सैन्य संघर्षों में एक हथियार के तौर पर यौन हिंसा के इस्तेमाल को खत्म कराने के उनके प्रयासों के लिए दिया गया है। डेनिस मुकवेगे को जहां कांगो में युद्ध-काल की बलात्कार पीड़िताओं की मदद के लिए यह सम्मान दिया गया है, वहीं नादिया मुराद को उस ‘असाधारण साहस के लिए यह मिला, जिसके तहत उन्होंने न सिर्फ अपनी आपबीती दुनिया को सुनाई, बल्कि खुद जैसी अन्य पीड़िताओं की तरफ से उनकी आवाज भी बुलंद की है।’

इसी साल 25 सितंबर को नादिया मुराद से मैं न्यूयॉर्क के एक जलसे में मिली थी, जहां उन्हें ‘चेंजमेकर अवॉर्ड’ से नवाजा गया था। अपनी दर्दनाक कहानी के जरिए उन्होंने दुनिया का ध्यान इराक और तमाम संघर्षरत इलाकों के युद्ध-अपराधों की ओर खींचा था। उन्होंने इंटरव्यू देने से सबको मना कर दिया, लेकिन हमने उनका अभिवादन किया। नादिया अंग्रेजी नहीं बोल पातीं, मगर कुछ-कुछ समझ लेती हैं, इसलिए उनसे बातचीत बहुत छोटी और औपचारिक ही रही। बहरहाल, नादिया की पहचान से वाकिफ होने से पहले उस भीड़ भरे हॉल में मैंने उन्हें काफी गौर से देखा था। उनकी आंखें उस अकल्पनीय खौफ को बयां कर रही थीं, जो उन्होंने इस्लामिक स्टेट (आईएस) के आतंकियों की सबाया (यौन-गुलाम) के तौर पर महीनों झेला था।

24 साल की नादिया यजीदी समुदाय की हैं। इस पूरी नस्ल के सफाए के लिए अगस्त 2014 में आईएस ने उत्तरी इराक के शिंजा इलाके में धावा बोला था। उस हमले में आईएस आतंकियों ने यजीदी समुदाय के हजारों लोगों को या तो मार डाला या फिर अपनी पुश्तैनी जगह छोड़कर भागने को बाध्य कर दिया था। उस नरसंहार में नादिया के परिवार के 18 लोग मार डाले गए, जिनमें उनके छह भाइयों और मां का कत्ल तो शुरू में ही कर दिया गया था। उन सबको एक सामूहिक कब्र में दफ्न कर दिया गया था। नादिया को जिंदा इसलिए छोड़ दिया गया, क्योंकि वह जवान थीं और सबाया के रूप में इस्तेमाल की जा सकती थीं, यानी जिसका बार-बार बलात्कार किया जा सके, पीटा जाए और कई लोगों को बेचा जा सके। अपनी आत्मकथा द लास्ट गर्ल : माई स्टोरी ऑफ कैप्टिविटी ऐंड माई फाइट अगेंस्ट द इस्लामिक स्टेट में नादिया लिखती हैं, ‘मैंने पहली बार सबाया अल्फाज तब सुना, जब यह मेरे लिए इस्तेमाल किया गया। उसी एक पल से ही मैं लम्हा-लम्हा मरने लगी। आईएस के साथ गुजरा मेरा हर सेकंड बेहद तकलीफदेह धीमी मौत जैसा था।’

अगवा की गई दूसरी बच्चियों और औरतों की तरह नादिया को भी पीटा गया, उन पर कोडे़ बरसाए गए, जिस्म को सिगरेट से दागा गया, लगातार रेप हुआ और उनको बार-बार बेचा गया। जनवरी 2015 में नादिया मोसुल के एक मुस्लिम परिवार की मदद से कैद से भागने में कामयाब हुईं, और तभी से वह यजीदी लोगों की आवाज बन गई हैं। इनमें वे 1,300 यजीदी औरतें भी शामिल हैं, जो अब भी आईएस की गुलाम हैं। नादिया लिखती हैं, ‘ईमानदारी से अपनी बात कहने का फैसला बेहद मुश्किल था और अहम भी… अपनी आपबीती बताना कभी आसान नहीं होता। आप जब-जब इसे दोहराते हैं, आपको उसी दंश को भोगना पड़ता है। लेकिन अपनी कहानी ईमानदारी से बताना और तथ्यों को सामने लाना ही वह हथियार है, जो मैं दहशतगर्दी के खिलाफ जारी जंग को दे सकती हूं। मैं इस हथियार का इस्तेमाल तब तक करती रहूंगी, जब तक वे दहशतगर्द इंसाफ की अदालत में पेश नहीं किए जाते।’ यह कतई आसान नहीं है कि अपने साथ हुई यौन हिंसा के खिलाफ आवाज बुलंद की जाए। क्रिस्टीन ब्लासी फोर्ड का मामला इसका एक बड़़ा उदाहरण है। फोर्ड ने जज ब्रेट केवेनाग पर अपने यौन उत्पीड़न का गंभीर आरोप लगाया है, फिर भी केवेनाग का अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का जज बनना लगभग तय है। लेकिन नादिया की तरह फोर्ड भी उन तमाम लोगों के लिए एक महानायिका हैं, जो मानव-मूल्यों में यकीन करते हैं।


Date:09-10-18

The 1.5°C Challenge

IPCC report warns that global warming threat is more dire than anticipated. Rule book of Paris Accord must factor this in

Editorials

If there is one message from the latest report of the Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC), it’s this: Checking global warming will require major changes in the Paris Climate Pact’s targets. The 2015 agreement, which has become the cornerstone of climate change mitigation efforts worldwide, proposed to keep the increase in global average temperature to below 2°C above pre-industrial levels. But the report that was released on Sunday has found this threshold to be inadequate. A more than 1.5°C warming will be precarious, and a 2°C rise would be catastrophic, the report warns. The world, already 1°C hotter than what it was 150 years ago, could witness greater frequency of droughts and floods, more intense tropical cyclones and increased ocean acidification and salinity if the planet heats by a further 0.5°C. That could happen anytime between 2030 and 2050, the report cautions. This means that current mitigation efforts — calibrated to stave off calamitous events by 2075 — will require drastic up-scaling.

What is worrying is that the world is not even on course to meet the comparatively conservative demands of a 2°C-rise-in-temperature scenario. In fact, one of the criticisms of the Paris Accord-mandated Nationally Determined Contributions (NDCs) is that they are insufficient to meet these demands. The IPCC, however, reckons that complete decarbonisation is not an impossible goal. In a break from its tradition of not recommending policy prescriptions, the global body has called for up-scaling low-carbon technologies and increased energy efficiency. But such interventions will not be enough and investments will have to move towards afforestation and technology-centred approaches, including ones that involve sucking the greenhouse gas before it reaches the atmosphere. The report also emphasises adaptation methods.

The imperative of making communities resilient in the face of global warming and the focus on novel technologies require that urgency is accorded to shoring up climate finances. Unfortunately, however, funding has been the Achilles’ heel of global climate change negotiations. As of December 2017, the Green Climate Fund (GCF) — the main instrument of fulfilling the developed countries’ collective promise of putting $100 billion annually into the hat by 2020 — had disbursed less than 10 per cent of its commitment. And in July, a meeting of the fund’s board ended without a decision on how to bolster the agency’s pool. The rulebook of the Paris Climate Accord, that is slated to be finalised by the end of the year, is mandated to take care of these concerns. It will now also need to factor in the challenges laid out by the IPCC report.


 

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