21-06-2023 (Important News Clippings)

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21 Jun 2023
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Date:21-06-23

Catch the Rain, Better Monsoon Than Later

ET Editorials

As the monsoon progresses slowly across India, there’s tension in the farm sector. Sowing of key crops like paddy, oilseeds and pulses has been delayed, which may lead to lower output, and that has pushed prices up 5-15% of rice and rice products, besides jowar, bajra and chicken. Analysts expect food prices to stay firm, or increase further till rainfall turns favourable for sowing. The next 7-10 days will be crucial, with all eyes on El Niño’s possible impact on monsoon’s progress since, in the past, it has led to below-normal monsoons. On Tuesday, India Meteorological Department (IMD) said that the stalled monsoon is likely to gain momentum in the next 3-4 days and could cover key rice, soybean, cotton and sugarcane-growing regions. India has, in June, received 33% lower rainfall than normal. In some states, the deficit is as high as 95%.

There are good reasons for such interest in the monsoon’s progress. 47% of Indians depend on farm income, nearly half of the agricultural lands depend on rain for irrigation, and rains are crucial for recharging reservoirs and aquifers, key for drinking and power generation, and ensure moisture for rabi crops. Robust harvests can also rein in food inflation.

According to the Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC), climate change has led to a noticeable decline in rainfall, with monsoon deficits occurring with greater frequency in South Asia. So, GoI and state governments must focus on building water storage capacity at the village level to catch the rain where it falls, when it falls. The recommendation of a GoI panel — 70% of MGNREGA funds be used in poor and water-deficient blocks, and employment generation must be linked to creating assets to replenish water bodies — must be considered seriously, since water, along with climate-resilient seeds and timely information to farmers, is vital to building a thriving farm sector, and a robust economy.


Date:21-06-23

प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा के दूरगामी लाभ हैं

संपादकीय

प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा में आयुध, आधुनिकतम युद्धक विमान इंजन से लेकर 11 प्रमुख तकनीकी और उसके प्रयोग का तरीका भारत को मिलने जा रहा है। कहा जा रहा है कि दुनिया के किसी भी बड़े देश ने इससे पहले ये टेक्नोलॉजी दूसरे देश को नहीं दी है। आगामी चुनाव में वहां रह रहे 50 लाख भारतीयों पर राष्ट्रपति बाइडेन की नजर है। ये भारतीय, अमेरिकियों से प्रतिशत में ज्यादा वोट करते हैं। पीएम ने वर्ष 2020 में ट्रम्प के चुनाव के दौरान ह्यूस्टन में ‘अब की बार ट्रम्प सरकार’ कहा था। इस बार भी अगर देश को लाभ मिल रहा है तो यह करना अनुचित नहीं होगा। अगर अमेरिका उस टेक्नोलॉजी को सहजता से दे सकता है, जिसे हासिल करने में हमें दशकों लगते तो इसमें गलत क्या है? एक विकासशील देश रिसर्च पर वह राशि नहीं खर्च कर सकता जो संपन्न देश कर सकते हैं। ग्लोबलाइजेशन के दौर ज्ञान ही शक्ति है और हर ज्ञान हर देश के पास नहीं हो सकता । लिहाजा व्यावहारिक दृष्टिकोण जरूरी है। बहरहाल भारत ने एक ओर लाभकारी कदम लेते हुए अफ्रीकी यूनियन को भी जी-20 के 21वें पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल करने के लिए पत्र लिखा है। जी-20 शिखर बैठक 9-10 सितम्बर को दिल्ली में होनी है। नई सदस्यता सदस्यों की सहमति से मिलेगी । अमेरिका और रूस सहित तमाम बड़ी ताकतें भारत से पहले सदस्यता के हक में बोल चुकी हैं। लेकिन अगर भारत की अध्यक्षता काल में इसे पारित किया जाता है तो अफ्रीकी यूनियन के 54 सदस्य देश यूएनएससी में भारत को स्थाई सीट के पक्ष में खड़े हो सकते हैं। फिर अगर यूरोपियन यूनियन जी-20 का सदस्य हो सकता है तो अफ्रीकी यूनियन क्यों नहीं ?


Date:21-06-23

एक समग्र जीवन दर्शन है योग

गिरीश्वर मिश्र, ( लेखक पूर्व कुलपति एवं शिक्षाविद् हैं )

चिकित्सा विज्ञान के ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि अवसाद, चिंता, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, कैंसर और मधुमेह जैसे जानलेवा रोगों के शिकार लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। इसके पीछे जीवनशैली में आ रहे परिवर्तनों को मुख्य रूप से जिम्मेदार बताया जा रहा है। सुख-सुविधा के अधिकाधिक साधन अब आम लोगों की पहुंच के भीतर आते जा रहे हैं। वैश्वीकरण के साथ ही सामाजिक और भौगोलिक गतिशीलता भी तेजी से बढ़ रही है। कामकाज का स्वरूप भी डिजिटल और आरामतलब बनता जा रहा है। इस कारण लोग आवश्यक शारीरिक व्यायाम नहीं कर पा रहे हैं। लंबे समय तक बैठकर काम करने का चलन बढ़ रहा है। इंस्टेंट-फास्ट फूड की पैठ बढ़ रही है। जिम में तेजी से पसीना बहाने के चलते हृदय रोग के खतरे से भी लोग जूझ रहे हैं। कुल मिलाकर जीवन एक यंत्र-बद्ध मनुष्यता की दिशा में आगे बढ़ रहा है। जबकि एक समय संस्कार, सद्व्यवहार और सत्कर्म यानी अच्छाई की ओर उन्मुख रहना भारतीय जीवनशैली का मुख्य सरोकार होता था। इसमें योग की विशेष भूमिका थी। आज फिर योग का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। विशेषकर आसन, प्राणायाम और योग-निद्रा अब फैशन में आ रहे हैं। इनके लिए सस्ते-महंगे एकल या सामूहिक शिक्षण-प्रशिक्षण के आनलाइन तथा कई तरह के पाठ्यक्रम भी लोकप्रिय हो रहे हैं। बड़ी संख्या में योग गुरु भी तैयार बैठे हैं। निश्चय ही इन सब फौरी कार्यकलापों का योग से तो संबंध है, लेकिन सिर्फ यही योग है ऐसा कहना उचित न होगा। सिद्धांत और व्यवहार को जांचें-परखें तो योग एक समग्र जीवन दर्शन है। महर्षि अरविंद के शब्दों में कहें तो ‘सारा जीवन ही योग’ है।

योग-विद्या को कई लोग परमात्मा और आत्मा के मिलन से जोड़कर देखते हैं। हालांकि कहीं ऐसा उल्लेख नहीं है। महर्षि पतंजलि तो ईश्वर को ‘पुरुषविशेष’ घोषित करते हैं। वस्तुतः बुद्धि, भावना और व्यवहार मानवीय प्रतिभा के ऐसे उपकरण है, जिनके समुचित विकास से जीवन के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पक्षों की उन्नति हो सकती है, किंतु हो उलटा रहा है। विभिन्न क्षमताओं का विकास, स्वास्थ्य, शांति और सजगता दुर्लभ होते जा रहे हैं। ये मानवीय गुण यौगिक जीवनशैली के अंग और परिणाम दोनों कहे जा सकते हैं। योग-शास्त्र को मानें तो योग मुख्यतः चित्तवृत्तियों को शांत करने और उच्च चैतन्य की अवस्था के अनुभव के लिए अग्रसर करता है। योग के आसन प्राणिक ऊर्जाओं को व्यवस्थित और संतुलित करने में सहायक होते हैं। योग के साथ जीवन यात्रा शुरू करते हुए अभ्यास, साधना और फिर उसे जीवन में उतारने का क्रम आता है। यौगिक सोच को जीवनशैली के रूप में अपनाना एक गंभीर मामला है। आज प्रदूषण तथा शारीरिक बीमारियों आदि को ध्यान में रखकर स्वास्थ्य की रक्षा, प्रतिरक्षा तंत्र की सुदृढ़ता और मानसिक शांति की तलाश महत्वपूर्ण होती जा रही है। योग इस अंधियारे दौर में प्रकाश की किरण जैसा है।

हमारे स्वभाव की चंचलता हमारे अपरिमित सुख और संतुष्टि की कामना से जुड़ी हुई है। असंयमित राह पर चलते हुए जो आदतें बनती हैं, उनसे हमारे चित्त की चंचलता बढ़ती है और हम दिग्भ्रमित होने लगते हैं। यौगिक जीवनशैली में हमारी प्रकृति या स्वभाव और आत्मसंयम मुख्य आधार स्तंभ होते हैं। जैविक प्राणी के रूप में हमारी दिनचर्या (यानी आहार, निद्रा, भय और मैथुन) भी हमारे स्वभाव पर निर्भर करती है। याद रहे कि आहार में हमारे शरीर और मन दोनों से जुड़ा वह सब आता है, जिसे पाकर हम तृप्त होना चाहते हैं। यानी भोग करना चाहते हैं। निद्रा विश्राम है यानी हम वर्तमान में चल रही क्रिया से विरत होते हैं। आजकल विभिन्न इलेक्ट्रानिक उपकरणों के बढ़ते चलन के साथ हमारे ऊपर कई तरह के विक्षेप हावी हो रहे हैं। यौन जीवन में मर्यादाओं को तोड़ते हुए लैंगिक संबंधों में अति-उदार दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है, जिसके चलते स्वेच्छा और आपसी सहमति को अधिकाधिक निर्णायक महत्व मिल रहा है। मातृत्व का विकल्प सरोगेसी या किराए की कोख के साथ आ रहा है। संयम को परे ढकेल सामाजिक मर्यादाएं तोड़ती जीवनशैली तनाव, मादक द्रव्य सेवन, हिंसा, विश्वासघात और अस्थिरता से अस्त-व्यस्त हो रही है। संतुलन और शांति की जगह प्रयोगधर्मिता, आश्वस्ति की जगह संशय और आत्मविस्तार की जगह आत्मसंकोच की दिशा में आगे बढ़ती यह जीवनशैली व्यापक मानव कल्याण की उपेक्षा करती दिख रही है।

योग की जीवनशैली दुख के साथ होने वाले संयोग से वियोग करने वाली या बचाने वाली है। यौगिक जीवनशैली का प्रमुख अंग शारीरिक स्वास्थ्य है जिसके लिए सतत प्रयास करना पड़ता है। संतुलित और व्यवस्थित जीवन जीते हुए शरीर पर समुचित ध्यान एवं परिश्रम बहुत आवश्यक है। आसन और प्राणायाम इसके लिए लाभकारी होते हैं। चूंकि मन सभी क्रियाओं को परिचालित करता है, इसीलिए इसे शरीर की बैटरी भी कह सकते हैं। जब वह चार्ज रहती है तो थकान की जगह स्फूर्ति रहती है, परंतु तनाव, चिंता और झुंझलाहट बनी रहे तो इसकी शक्ति घट जाती है। इन सबके समाधान के लिए यौगिक जीवनशैली अर्थात आहार और निद्रा पर विशेष ध्यान दिया गया है। सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पूर्व सात्विक भोजन कर लेना ठीक होता है, क्योंकि देर से भोजन करने पर पाचन क्रिया मंद पड़ती है और नींद भी नहीं आती है। इसके लिए उत्तेजना और तनाव दो प्रमुख कारण पाए गए हैं। ऐसे में जीवन को द्रष्टा के भाव से देखना और समझना जरूरी है।

मनुष्य स्वयं अपना मित्र और शत्रु दोनों होता है। जिसने खुद को जीत लिया वह अपना बंधु होता है। अन्यथा व्यक्ति अपने ही शत्रु की तरह बर्ताव करता है। स्वयं पर विजय की इस यात्रा में चित्त की चंचलता सबसे बड़ी बाधा है। चित्त को योग अभ्यास और वैराग्य से साधा जा सकता है। हमारे तमाम कष्ट इसीलिए उपजते हैं कि हम स्वयं को शरीर के स्तर तक सीमित मान लेते हैं। हालांकि तनिक विचार से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर तो हमारा है, परंतु हम शरीर मात्र नहीं हैं। इस तरह शरीर की सीमा को समझने से गंभीरता भी आती है और स्वयं को चैतन्य से जोड़कर पूर्णता एवं व्यापकता की सांभावना भी बनती है। योग इसका मार्ग प्रशस्त करता है।


Date:21-06-23

विकसित भारत की कैसी होगी राह?

अजय छिब्बर, ( लेखक इक्रियर और जॉर्ज वॉ​शिंगटन यूनिव​र्सिटी के अति​थि प्राध्यापक हैं )

भारत सरकार ने 2022 में खुद को ‘विकसित भारत’ (उन्नत भारत) बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया। प्रधानमंत्री ने हाल ही में नई संसद के उद्घाटन के दौरान और नीति आयोग की ताजा बैठक में इसका उल्लेख फिर से किया। मैं इस लक्ष्य को लेकर खासा उत्साहित हूं क्योंकि मेरे सह-लेखक और मैंने अपनी पुस्तक ‘अनशैकलिंग इंडिया: क्लियर चॉइसेज ऐंड हार्ड ट्रुथ्स फॉर इकनॉमिक रिवाइवल’ में ‘समृद्ध और समावेशी भारत’ के समान दृष्टिकोण का सुझाव दिया है।

लेकिन ‘विकसित भारत’ बनने का क्या मतलब है? अर्थव्यवस्था का आकार कई कारणों से महत्त्वपूर्ण है लेकिन यह मानदंड अकेले ही विकसित देश का दर्जा पाने की पात्रता नहीं रखता है। उदाहरण के तौर पर चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और इसे एक महाशक्ति माना जाता है जो अंततः अमेरिका से आगे निकल जाएगा, लेकिन इसे विकसित नहीं माना जाता है क्योंकि इस देश के औसत नागरिक औसत अंग्रेजों की तुलना में चार गुना गरीब है और औसत अमेरिकी नागरिकों की तुलना में छह गुना गरीब हैं।

इसी तरह, भारत अब ब्रिटेन से आगे निकलकर दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है लेकिन औसत भारतीय औसत अंग्रेजों की तुलना में 20 गुना गरीब हैं। ऐसे में हमें विकसित और प्रगतिशील देश वाले वाले मानदंड पर एक लंबी राह तय करनी है।

वर्ष 2022 में, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने 41 देशों को विकसित अर्थव्यवस्थाओं के तौर पर वर्गीकृत किया लेकिन इसकी परिभाषा स्पष्ट या समय के साथ सुसंगत नहीं दिखती है। विश्व बैंक 2022 की कीमतों के आधार पर प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय (GNI) के लिए 13,205 डॉलर की सीमा का उपयोग करते हुए लगभग 80 देशों को ‘उच्च आय’ वाली श्रेणी में वर्गीकृत करता है। UNDP में मानव विकास सूचकांक (HDI) प्रति व्यक्ति GNI में मानव जीवन के अहम आयामों (जीवन प्रत्याशा, शिक्षा आदि) को जोड़ता है और यह 66 देशों को ‘उच्च मानव विकास’ श्रेणी में वर्गीकृत करता है जो एक विकसित अर्थव्यवस्था की मोटी परिभाषा के अनुरूप है। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि 2047 में एक विकसित अर्थव्यवस्था की विशेषताएं क्या होंगी, लेकिन विश्व बैंक और UNDP के पास विकसित अर्थव्यवस्था की परिभाषा के लिए स्पष्ट मानदंड हैं और आइए उनका उपयोग करके देखते हैं। मौजूदा स्तर पर विकसित देश के 13,205 डॉलर के प्रति व्यक्ति GNI स्तर तक पहुंचने में प्रति व्यक्ति GNI में सालाना 7 प्रतिशत की वृद्धि दर के साथ भी 25 साल लगेंगे। इसका मतलब है कि जनसंख्या वृद्धि को ध्यान में रखते हुए अगले 25 वर्षों तक GNI में प्रति वर्ष लगभग 8 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी होनी चाहिए। हाल के वर्षों में चीन को छोड़कर कुछ देशों ने यह वृद्धि निरंतर हासिल की है।

वर्ष 2021 में भारत का HDI स्कोर 0.633 था और 0.8 के उच्च मानव विकास की सीमा तक पहुंचने के लिए प्रति वर्ष लगभग 0.9 प्रतिशत की HDI वार्षिक वृद्धि की आवश्यकता होगी। वर्ष 1990 और 2021 के बीच HDI में भारत की वृद्धि लगभग 1.25 प्रतिशत सालाना थी। लेकिन यह याद रखे कि जैसे-जैसे आप HDI के पैमाने पर ऊपर जाते हैं, यह और अधिक कठिन हो जाता है क्योंकि जीवन प्रत्याशा और स्कूली शिक्षा ऊपरी सीमा के स्तर पर पहुंच जाती है और बेहतर HDI अंक हासिल करने के लिए आमदनी वृद्धि में भी अच्छी वृद्धि लाजिमी होगी।

भारत का मानव विकास सूचकांक वर्ष 2010-21 से केवल 0.88 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ा। इसलिए, बहुत उच्च मानव विकास श्रेणी की सीमा तक पहुंचने के लिए हमें अगले 25 वर्षों के लिए इस दर को बनाए रखने की आवश्यकता होगी हालांकि ऐसा करना इतना आसान नहीं है।

भारत का HDI स्कोर 2018 में 0.647 से गिरकर 2021 में 0.633 हो गया। महामारी के कारण आमदनी को नुकसान पहुंचा लेकिन स्कूली शिक्षा और जीवन प्रत्याशा भी प्रभावित हुई क्योंकि हजारों (कुछ का अनुमान है कि लाखों) की मौत हो गई। तुलनात्मक रूप से, महामारी के बावजूद बांग्लादेश और थाईलैंड के HDI स्कोर में वृद्धि हुई। भारत को इसलिए भी अधिक नुकसान हुआ कि विकास के अपने स्तर पर, इसके हिस्से में 77 प्रतिशत अस्थायी रोजगार (कोई निश्चित अनुबंध नहीं) का असंतुलित अनुपात में एक बड़ा हिस्सा है।

बांग्लादेश में यह 55 प्रतिशत है जहां मोटे तौर पर भारत की हिस्सेदारी होनी चाहिए। ऐसे में यह वित्तीय संकट या महामारी के झटकों के लिए अत्यधिक संवेदनशील हो जाता है। वर्ष 2022 में 23.2 प्रतिशत पर युवा बेरोजगारी भी बहुत अधिक है। महिला श्रम बल की भागीदारी बहुत कम है और यह लगातार घट रही है। भारत को अपनी कामकाजी आबादी का उपयोग अब तक की तुलना में बेहतर तरीके से करना चाहिए। बढ़ती असमानता ने भी नुकसान पहुंचाया है। UNDP का अनुमान है कि असमानता के कारण भारत के HDI स्कोर में 24 प्रतिशत की गिरावट है। असमानता को आधा करने से भारत का HDI स्कोर 0.7 से ऊपर बढ़ जाएगा और भारत को उच्च HDI श्रेणी में वर्गीकृत किया जाएगा। ‘विकसित बनने के लिए हमें न केवल अधिक ‘समृद्ध भारत’ आवश्यकता है, बल्कि एक और ‘समावेशी भारत’ बनाने की भी आवश्यकता है।

विश्व बैंक के वर्गीकरण में 80 देशों को विकसित देश का दर्जा प्राप्त है, 104 और देश, विकसित देश बनने की इच्छा रखते हैं। इन्हें 51 निम्न-मध्यम आय और 53 उच्च-मध्यम आय वाले देशों में विभाजित किया गया है। अर्जेंटीना और ब्राजील जैसे कई उच्च मध्यम आय वाले देश की स्थिति भी खस्ता है और वे तथाकथित रूप से मध्यम आय के जाल में फंस गए हैं। उन्होंने एक विकसित अर्थव्यवस्था बनने के लिए सफल प्रयास करने के मकसद से आवश्यक संस्थागत साधनों का निर्माण नहीं किया। भारत, अब एक निम्न मध्यम आय वाला देश है जिसे सबसे पहले उच्च मध्यम आमदनी वाली स्थिति तक पहुंचने के प्रयास करने चाहिए जिसके लिए वर्ष 2022 की कीमतों के लिहाज से प्रति व्यक्ति 4,255 डॉलर GNI की आवश्यकता होती है। यदि भारत, प्रति व्यक्ति GNI में 7 प्रतिशत सालाना दर से वृद्धि करता है तब यह 2032 तक उच्च आमदनी वाली स्थिति में पहुंच जाएगा। यह 2022 की कीमतों के आधार पर 6-7 लाख करोड़ रुपये वाली अर्थव्यवस्था होगी जो आसानी से तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकती है लेकिन अब भी यह एक विकसित अर्थव्यवस्था की स्थिति से बहुत दूर है।

इसी तरह, UNDP में 0.7 और 0.8 के बीच के स्कोर के साथ ‘उच्च’ मानव विकास की श्रेणी है। इंडोनेशिया और वियतनाम में HDI 0.7 से ऊपर है। वहीं 0.633 के HDI स्कोर के साथ भारत लगभग 2032 तक उस श्रेणी में पहुंच सकता है। अगर हमने महामारी के दौरान अपने HDI में गिरावट नहीं देखी होती तब हम पहले ही उच्च मानव विकास श्रेणी में पहुंच सकते थे और ऐसा संभवतः 2030 तक हो सकता था।

अगर हम इस मध्यवर्ती चरण तक पहुंचने पर विचार करें तब मजबूत संस्थानों, बुनियादी ढांचे और मानव पूंजी के साथ शीर्ष की तरफ बढ़ना एवरेस्ट के बेस कैंप तक पहुंचने की बेहतर तैयारी के माफिक है। अगर हम बेस कैंप तक पहुंचते हैं लेकिन हमारे पास आखिरी कोशिश के लिए संसाधन नहीं होंगे तब हम फिर से मध्यम आय के जाल में फंस सकते हैं। एक बार मजबूत मानव पूंजी और संस्थानों के साथ भारत 100 वें स्थान पर ‘विकसित भारत’ की योजना बना सकता है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि उचित योजनाओं की रूपरेखा और सावधानीपूर्वक चयनित मध्यवर्ती लक्ष्यों के बिना बड़े लक्ष्य तय करना महज एक इच्छा साबित होगी।


Date:21-06-23

भुखमरी के सामने

संपादकीय

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों में सबसे बड़ा संकट खाद्य उपलब्धता का रेखांकित किया जाता रहा है। पिछले साल के आंकड़ों को देखते हुए यह चिंता अब और गहरी होने लगी है। पिछले साल पूरी दुनिया में बीस करोड़ पचास लाख लोगों ने गंभीर खाद्य संकट का सामना किया। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान की ओर से जारी की गई वैश्विक खाद्य नीति रिपोर्ट में चिंता जाहिर की गई है कि 2050 तक खाद्य संकट की वजह से करीब 7.20 करोड़ लोगों के कुपोषित होने की आशंका है। इसके लिए संस्थान ने दुनिया के तमाम देशों को सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों को विकसित करने के लिए तुरंत सक्रिय होने की जरूरत बताई है। इसके लिए अनुकूल, समावेशी और लचीला दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है, ताकि संकट की स्थिति में इसे तुरंत प्रभावी रूप से क्रियान्वित किया जा सके। जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा प्रभाव खेती-किसानी पर पड़ा है। कृषि उत्पादन में कमी दर्ज की जाने लगी है। कहीं अतिवृष्टि तो कहीं सूखे की वजह से बड़े पैमाने पर फसलें बर्बाद चली जाती हैं। इसलिए भी खासकर विकासशील और गरीब देशों में खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंता गहरी होती जा रही है।

भारत के सामने यह संकट कई वजहों से बड़ा है। एक तो आबादी की दृष्टि से यह दुनिया का सबसे बड़ा देश बन गया है। दूसरी तरफ कृषि उत्पादन के मामले में कमी दर्ज हो रही है। हालांकि खाद्यान्न के मामले में भारत आत्मनिर्भर है, मगर जिस तरह उत्पादन में कमी दर्ज हो रही है और जो उत्पादन होता है, उसका पूरी तरह सुरक्षित भंडारण नहीं हो पाता, उसमें खाद्य सुरक्षा कानून का लंबे समय तक पालन कर पाना चुनौती बनता जा रहा है। पहले ही अस्सी करोड़ से अधिक आबादी को मुफ्त के राशन पर निर्भर रहना पड़ रहा है, उनके पास रोजगार के ऐसे साधन नहीं हैं कि वे अपना भोजन वे खुद जुटा सकें। इस तरह इस आबादी में कुपोषण की गंभीर समस्या है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक भारत में दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले कहीं अधिक कुपोषित बच्चे हैं। केवल एक या दो वक्त पेट भरने के लिए अनाज का प्रबंध हो जाने से पोषण की गारंटी नहीं दी जा सकती। समुचित पोषण के लिए फल, दूध, सब्जियों आदि की पर्याप्त उपलब्धता भी जरूरी है। इसके लिए कोई सरकारी प्रबंध नहीं है। ऐसे में कुपोषण की समस्या यहां बढ़ने की आशंका अधिक है।

मगर भारतीय कृषि नीति और कृषि क्षेत्र के लिए बजट के निर्धारण को देखते हुए यही लगता है कि सरकार अभी इस संकट को लेकर गंभीर नहीं है। पिछले साल समय से पहले गर्मी का मौसम शुरू हो गया, तो गेहूं के दाने सिकुड़ गए। दलहन और तिलहन के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव दिखाई देने लगा। सबसे कमजोर पहलू भंडारण का है। अव्वल तो सरकारी खरीद अपेक्षित लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाती, फिर अनाज को खुले में प्लास्टिक आदि से ढंक कर रख दिया जाता है और असमय या अत्यधिक बारिश की वजह से हर साल बहुत सारा अनाज बर्बाद चला जाता है। नए गोदाम बनाने की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता और पुराने गोदामों की मरम्मत में दिलचस्पी नहीं दिखाई जाती। ऐसे में खाद्यान्न की सार्वजनिक वितरण प्रणाली अक्सर चरमराती नजर आती है। लाभार्थियों को अनाज उपलब्ध कराया जाता है, उसकी गुणवत्ता स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छी नहीं मानी जाती। इसलिए दुनिया में आसन्न खाद्यान्न संकट के मद्देनजर भारत को कुछ अतिरिक्त रूप से सतर्क रहने की जरूरत है।


Date:21-06-23

आपदा से जूझने का जज्बा

प्रमोद भार्गव

मौसम विभाग की सटीक भविष्यवाणी और आपदा प्रबंधन के समन्वित प्रयासों से बिपरजाय चक्रवात ने बड़े क्षेत्र और बड़ी मात्रा में संपत्ति का तो विनाश किया, लेकिन जनहानि का कारण नहीं बन पाया। पशुओं की भी बहुत कम मौतें हुईं। इस परिप्रेक्ष्य में तमाम एजेंसियों ने भरोसे की मिसाल पेश की है। गुजरात के सौराष्ट्र तथा कच्छ जिलों को तूफान ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया। तूफान आने की खबरों से लोग भयभीत थे, क्योंकि तबाही की आशंका बड़े पैमाने पर जताई जा रही थी। मगर तूफान के पूर्व बरती गई सावधानियों के चलते एक लाख से ज्यादा लोग सुरक्षित स्थलों पर पहुंचा दिए गए थे।

कुदरत के कोप से मुकाबला करने की जो तैयारी और जीवटता इस बार देखी गई, इससे पहले कम ही देखने में आई है। अन्यथा इसी गुजरात ने सातवें दशक में अत्यंत विनाशकारी तूफान का सामना किया था। उस समुद्री तूफान से भरूच तथा सूरत जैसे बड़े शहर लाशों से पट गए थे। हजारों मवेशी भी मारे गए थे। उसी कालखंड में अविभाजित आंध्र प्रदेश ने इतने बड़े चक्रवात से सामना किया कि दो लाख से ज्यादा लोगों को प्राण गंवाने पड़े थे। इसी तरह 4 जून, 1998 को गुजरात में आए समुद्री तूफान में सैकड़ों लोग मारे गए थे। मगर इसके बाद भारत तूफान की सटीक भविष्यवाणी और उत्तम आपदा प्रबंधन में सक्षम हो गया। नतीजतन 2019 में गुजरात में ‘क्यार’ चक्रवात आया, तो केवल संपत्ति की हानि हुई, जन और पशु हानि नहीं हुई। इसी तरह 2020 में महाराष्ट्र में निसर्ग और 2021 में गुजरात में आए तौकते तूफान ज्यादा असर नहीं दिखा पाए, क्योंकि दो लाख लोगों को आपदा प्रबंधन दक्षता के चलते सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया गया था। इसी तरह 2019 में फानी तूफान ओडीशा में बेअसर रहा।

भारतीय मौसम विभाग के अनुमान अक्सर सही साबित नहीं होते, लेकिन कुछ समय से चक्रवाती तूफानों के सिलसिले में उसकी भविष्यवाणियां सटीक बैठ रही हैं। इस बार हमारे मौसम विज्ञानी सुपर कंप्यूटर और डापलर रडार जैसे श्रेष्ठतम तकनीकी माध्यमों से चक्रवात के अनुमानित और वास्तविक रास्ते का मानचित्र और उसके भिन्न क्षेत्रों में प्रभाव के चित्र बनाने में सफल रहे। तूफान की तीव्रता, तेज हवाओं और आंधी की गति और बारिश के अनुमान भी कमोबेश सही साबित हुए। इन अनुमानों को और कारगर बनाने की जरूरत है, जिससे बाढ़, सूखे, भूकंप और बवंडरों की पूर्व सूचनाएं मिल सकें और उनका सामना किया जा सके। साथ ही मौसम विभाग को ऐसी निगरानी प्रणालियां भी विकसित करने की जरूरत है, जिनके मार्फत हर माह और हफ्ते में बरसात होने की राज्य और जिलेवार भविष्यवाणियां की जा सकें।

अगर ऐसा मुमकिन हो पाता है तो कृषि का बेहतर नियोजन संभव हो सकेगा। साथ ही अतिवृष्टि या अनावृष्टि के संभावित परिणामों से कारगर ढंग से निपटा जा सकेगा। किसान भी बारिश के अनुपात में फसलें बोने लग जाएंगे। लिहाजा, कम या ज्यादा बारिश का नुकसान उठाने से किसान मुक्त हो जाएंगे। मौसम संबंधी उपकरणों के गुणवत्ता और दूरंदेशी होने की इसलिए भी जरूरत है, क्योंकि जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से समुद्र तटीय इलाकों में आबादी भी ज्यादा है और वे आजीविका के लिए समुद्र पर निर्भर हैं। लिहाजा, समुद्री तूफानों का सबसे ज्यादा संकट इसी आबादी को झेलना होता है।

कुदरत के रहस्यों की जानकारी अभी अधूरी है। जाहिर है, चक्रवात जैसी आपदाओं को हम रोक नहीं सकते, लेकिन उनका सामना या उनके असर को कम करने की दिशा में बहुत कुछ कर सकते हैं। भारत के बहुत सारे इलाके वैसे भी बाढ़, सूखा, भूकंप और तूफानों के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण ये खतरे बढ़ रहे हैं। कहा भी जा रहा है कि क्यार, निसर्ग, तौकते, सुनामी, फेलिन, ठाणे, आइला, आइरिन, नीलम और सैंडी जैसी आपदाएं प्रकृति के बजाय आधुनिक मनुष्य की प्रकृति विरोधी विकास नीति का पर्याय हैं। इस बाबत गौरतलब है कि 2005 में कैटरीना तूफान के समय अमेरिकी मौसम विभाग ने इस प्रकार के प्रलयंकारी समुद्री तूफान 2080 तक आने की आशंका जताई थी, लेकिन वह सैंडी और नीलम तूफानों के रूप में 2012 में ही आ धमके। इसके दस साल पहले आए सुनामी ने ओडीशा के तटवर्ती इलाकों में जो कहर बरपा था, उसके विनाश के चिह्न अब भी दिखाई दे जाते हैं। इसकी चपेट में आकर करीब दस हजार लोग मारे गए थे।

सुनामी के बाद पर्यावरणविदों ने रेखांकित किया था कि अगर मैंग्रोव वन बचे रहते तो तबाही कम होती। ओडीशा के तटवर्ती शहर जगतसिंहपुर में एक औद्योगिक परियोजना खड़ी करने के लिए एक लाख सत्तर हजार से भी ज्यादा मैंग्रोव वृक्ष काट डाले गए थे। उत्तराखंड में भी पर्यटन विकास के लिए लाखों पेड़ काट दिए और पहाड़ियों की छाती छलनी कर दी गई, जिसके दुष्परिणाम हम उत्तराखंड में निरंतर आ रही त्रासदियों में देख रहे हैं। दरअसल, जंगल प्राणि जगत के लिए सुरक्षा कवच हैं, इनके विनाश को अगर नीतियों में बदलाव लाकर नहीं रोका गया तो यह तय है कि आपदाओं को भी रोक पाना मुश्किल होगा।

दरअसल, कार्बन फैलाने वाली विकास नीतियों को बढ़ावा देने के कारण धरती के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। यही कारण है कि बीते 133 सालों में रिकार्ड किए गए तापमान के जो तेरह सबसे गर्म वर्ष रहे हैं, वे 2000 के बाद के ही हैं और आपदाओं की आवृत्ति भी इसी कालखंड में सबसे ज्यादा बढ़ी है। पिछले तीन दशक में गर्म हवाओं का मिजाज उग्र हुआ है। इसने धरती के दस फीसद हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया है। यही वजह है कि अमेरिका में जहां कैटरिना, आइरिन और सैंडी तूफानों ने तबाही मचाई वहीं नीलम, आइला, सुनामी और फेलिन ने भारत और श्रीलंका में हालात बदतर किए। वैश्विक ताप वृद्धि के चलते समुद्री तल खौल रहा है। फ्लोरिडा से कनाडा तक फैली अटलांटिक की 800 किमी चौड़ी पट्टी में समुद्री तल का तापमान औसत से तीन डिग्री सेल्सियस ज्यादा है। यही उर्जा जब सतह से उठ रही भाप के साथ मिलती है तो समुद्र तल में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव शुरू हो जाता है, जो चक्रवाती बवंडर को विकसित करता है। इस बवंडर के वायुमंडल में विलय होने के साथ ही, वायुमंडल की नमी 7 फीसद बढ़ जाती है, जो तूफानी हवाओं को जन्म देती है। प्राकृतिक तत्त्वों की यही बेमेल रासायनिक क्रिया भारी बारिश का आधार बनती है, जो आंधी का रूप ले लेती है। नतीजतन, तबाही से धरती कांप उठती है और बस्तियां जलमग्न हो जाती हैं।

तापमान वृद्धि का अनुमान लगाने के आधार पर अंतर-सरकारी पैनल ने भी भारतीय समुद्री इलाकों में चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ने की आशंका जताई है। इस लिहाज से हमारी संस्थाओं की जो समवेत जवाबदेही, इस चक्रवात से सामना करने में दिखाई दी है, उसकी निरंतरता बनी रहनी चाहिए। मौसम विभाग की भविष्यवाणी के बाद बचाव और राहत की तैयारी के लिए महज चार दिन मिले थे। इन्हीं चार दिनों में केंद्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण सक्रिय हो गया। इसकी हिदायतों के मुताबिक थल, जल और वायु सेनाएं जरूरी संसाधनों के साथ प्रभावित क्षेत्रों में तैनात हो गईं। गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान की सरकारों ने भी वक्त के तकाजे के हिसाब से बचाव के सभी संसाधन तटवर्ती क्षेत्र में झोंक दिए। इस संकट की घड़ी में जो साझा दायित्व बोध देखने में आया, वह अगर भविष्य में भी बना रहता है, तो भारत ऐसी अचानक आने वाली आपदाओं से मानव आबादी को सुरक्षित रखने में सफल होगा।


Date:21-06-23

सम्मान पर तकरार

संपादकीय

प्रख्यात गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार- 2021 दिए जाने की सरकार की घोषणा पर विपक्ष हमलावर है। सरकार का कहना है कि ‘यह पुरस्कार अहिंसक एवं अन्य गांधीवादी तरीकों से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की दिशा में उसके उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाएगा।’ फिर भी कांग्रेस को लगता है कि यह ऐलान गांधी के हत्यारे गोड्से और ‘घोर साम्प्रदायिक’ सावरकर को सम्मान दिलाना है। निस्संदेह इसका प्रकाशन हिंदू धर्म की कालजयी कृतियों को शुद्ध वर्तनी के साथ सहेजने और उनको व्यापक हिंदू समाज के समक्ष पेश करने की जरूरत से शुरू किया गया था। पर ऐसा करते हुए उसका मकसद मानव धर्म के सभी सरोकारों; जिनमें समाज एवं राष्ट्र हित शामिल हैं, उनके प्रति व्यक्तिगत एवं सामूहिक चेतना का उन्नयन करना था। यहां से प्रकाशित वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, रामायण एवं महाभारत आदि ने उस समय के तमाम स्वतंत्रता सेनानियों को आजादी के प्रति उनकी पहली प्राथमिकता से विमुख नहीं किया। गांधी समेत उस समय के तमाम राष्ट्रीय नेताओं ने इन किताबों को अपने कर्मपथ के विस्तार के लिए ही इस्तेमाल किया। खुद गांधी ने वहां की विख्यात पत्रिका कल्याण में लेख लिखा था। इसके विज्ञापनविहिन प्रकाशन के जो जंतर दिए थे, उसे वह आज भी सम्हाले चल रही है । फिर अपनी विरासती ज्ञान को सम्हालना सहेजना किसी भी जिंदा समाज का सहज दायित्व है। किसी भी विचारधारा या दर्शन ने इसको गुनाह नहीं माना है। फिर गीता प्रेस की पाठ सामग्री का गोड्से या सावरकर की निर्मिति में सीधा अंतर्संबंध होता तो हिंदी पट्टी में स्वाधीनता का जारी घमासानी संग्राम धार्मिक आधार पर विभाजित होकर भटक गया होता। वास्तव में, कांग्रेस के बौखलाने की वजह दूसरी है। उसे लगता है कि मोदी सरकार ने गीता प्रेस को सम्मानित करने के बहाने व्यापक हिंदू समाज के वोट बैंक का ध्रुवीकरण कर लिया है, जिनके घर-घर में वह पुस्तकों के जरिए अपनी नियमित पहुंच बनाए हुए है। लेकिन गीता प्रेस इतना ही वोट दिलाऊ होता तो आजादी के तुरंत बाद देश में कांग्रेस की नहीं तब की जनसंघ की सरकार होती। अब गलत लांछना लगा कर कांग्रेस ने एक बार फिर अपने पाले में गोल कर लिया है, जो भाजपा की मंशा है और जिसका खमियाजा वह 2014 चुनाव से भुगतती चली आ रही है। सरकार के निर्णय की आलोचना विपक्ष का अधिकार है पर औचित्य उसकी कसौटी है ।


Date:21-06-23

बीजिंग की बौखलाहट

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की पहली राजकीय यात्रा कितनी अहम है, इसका अंदाज इसी बात से लग जाता है कि चीन के पूर्व विदेश मंत्री वांग यी ने सरकारी मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स में बाकायदा आलेख लिखकर आरोप लगाया है कि चीन की आर्थिक प्रगति को बाधित करने के लिए अमेरिका भारत का इस्तेमाल कर रहा है। साथ ही, उन्होंने यह दंभ भी जताया कि वैश्विक आपूर्ति शृंखला में चीन की जगह लेना भारत के लिए संभव नहीं है। जाहिर है, इस ओढ़े हुए आत्मविश्वास से जो बौखलाहट भभककर बाहर आ रही है, वही यह बताने के लिए काफी है कि अमेरिका और भारत की बढ़ती नजदीकियों ने बीजिंग को किस कदर बेचैन किया है। अव्वल तो अपनी विस्तारवादी नीतियों से तमाम पड़ोसी मुल्कों के लिए चीन मुसीबतें खड़ी करता रहा है और भारत तो उसकी हठधर्मिता को दशकों से भुगत रहा है। गलवान का गतिरोध इसका सबसे ताजा उदाहरण है। बेहतर होता कि बीजिंग के नीति-नियंता अपनी गलतियों को दुरुस्त करने पर ज्यादा ध्यान देते।

वांग यी शायद कूटनीति का ककहरा भूल रहे हैं, उन्हें याद करने की जरूरत है कि द्विपक्षीय रिश्तों की बुनियाद दोनों पक्षों के हित-साधन पर पड़ती है। नई दिल्ली ने आजादी के बाद से ही अपनी स्वतंत्र विदेश नीति से कोई समझौता नहीं किया। रूस-यूक्रेन युद्ध इसका ज्वलंत उदाहरण है। भारत ने अमेरिका से अपने संबंधों को अवश्य प्र्रगाढ़ किया है, पर साथ ही रूस से अपनी मित्रता का मान रखा है! विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कल भी साफ कहा कि रूस के साथ भारत का संबंध साठ वर्षों के इतिहास का प्रतिफल है और ऐसा नहीं कि साठ साल के बाद हमने अपने विचार बदल लिए हैं। अमेरिका इस हकीकत को समझता है और वह भारत के साथ रिश्तों को विस्तार दे रहा है, तो स्वाभाविक ही इसके मूल में दक्षिण एशिया में एक विशाल बाजार, मजबूत लोकतंत्र और तेजी से आगे बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था है। खासकर बीते दो दशकों में दोनों देशों में नजदीकियां बढ़ी हैं और परमाणु समझौते ने इसे एक दीर्घकालिक दिशा दी। आज दोनों देशों का कारोबारी रिश्ता रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच चुका है, बल्कि अमेरिका भारत का सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी बन चुका है।

प्रधानमंत्री मोदी के इस राजकीय दौरे से देश को काफी उम्मीदें हैं। रक्षा क्षेत्र के समझौतों व प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण के अलावा अमेरिकी उद्योगपतियों से उनकी मुलाकात पर सबकी नजर है। भारत में अमेरिकी निवेशकों की दिलचस्पी यदि पूंजी बाजार से आगे प्रत्यक्ष संस्थागत निवेश में बढ़ती है, तो इससे देश में रोजगार सृजन को गति मिल सकेगी। इस समय भारत की जरूरत अपनी विशाल युवा आबादी के लिए ज्यादा से ज्यादा अवसरों का सृजन है। प्रधानमंत्री ने वॉल स्ट्रीट जर्नल को साक्षात्कार देते हुए उचित ही कहा है कि भारत एक बड़ी भूमिका का हकदार है और वह किसी अन्य देश का स्थान नहीं ले रहा है, बल्कि अपनी सही जगह की ओर अग्रसर है। भारत हमेशा से विश्व-शांति का कामी रहा है और वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ जंग हो या पर्यावरण संरक्षण, उसकी प्रतिबद्धता असंदिग्ध है। वक्त आ गया है कि बदलते वक्त के हिसाब से तमाम वैश्विक संगठनों में तार्किक सुधार किए जाएं। अमेरिका यदि वाकई हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बीजिंग को बेलगाम होने से रोकना चाहता है, तो उसे भारत की आर्थिक उन्नति में उदार सहयोग करना ही होगा!


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