21-06-2017 (Important News Clippings)
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विलय की समस्या
संपादकीय
नीति निर्माताओं में इस बात पर सहमति बन रही है कि सरकारी बैंकों में विलय के जरिये मजबूती लाई जा सकती है। यह कोई नया विचार नहीं है क्योंकि समय-समय पर ऐसी चर्चाएं सर उठाती रहती हैं। परंतु हाल के दिनों में इस चर्चा में तेजी आई है क्योंकि बाजार हिस्सेदारी का 70 फीसदी अपने पास रखने वाले सरकारी बैंक इन दिनों फंसे हुए कर्ज की समस्या से जूझ रहे हैं। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सरकार विलय के लिए आगे और इंतजार नहीं करेगी। उसने नीति आयोग से इस मसले पर अनुशंसाएं आमंत्रित की हैं। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) भी इस चर्चा में शामिल है। परंतु अहम प्रश्न यह है कि क्या सरकारी बैंकों का विलय भारतीय बैंकिंग क्षेत्र की समस्याओं का निराकरण करने में सफल होगा?
Ideas and ivory towers
The knowledge economy demands seamless interaction between government, academia, industry
We simply need to delve into the realm of robotics and artificial intelligence to gauge the situation. A former professor of robotics at the Georgia Institute of Technology has helped create a robotic tailor that can stitch a perfect circle: If you can stitch a perfect circle, then you can perform almost any complicated sewing task that, in the past, could only have been undertaken by skilled and experienced hands. The only seemingly viable option for the garments industry in the Asian region is to seek to import such machines. There goes a part of our plan to keep unemployment figures down.
There are many lessons that need to be imbibed by us in India from this troubling future of the garments industry. These lessons transcend the garments industry and need to be brought to the attention of educationists, policymakers and several arms of the government. The success of this robotic stitching device provides us with a near-perfect example of the power of a knowledge-based economy. A seamless chain linking a knowledge centre, a private company and an arm of the US government helped bring about this transformation that does not bode well for India and China. This transformational idea emanated from a knowledge institution and was put to practical use by a for-profit company. The catalyst that transformed the idea from a patent into the actual robotic device was the Department of Defense of the United States. It supported the research through a contractual grant.
As another illustration, we need to wake up to the fact that Nike has been experimenting with the use of 3D printers to manufacture shoes. These areas of high-end technology have a rapid rate of convergence. It is well nigh possible that our shoe manufacturing industry could be hard-hit in no time. My final example also relies on the IT world; a few years ago, I compared the quarterly earnings of the IT company Google and a major Indian IT company. The Indian IT company, at that point in time, was much older than Google and had almost 10 times the number of employees working at Google. Yet, Google had earned more than three times what the Indian IT company had earned in that single quarter.
A year ago, I looked at the two entities again. Google is still very much smaller than the Indian IT company in terms of employees, but it earns much more in one quarter than what the Indian IT company earns in a whole year. This is simply because Google is based on a knowledge idea that has connections to Stanford. The Indian IT company, alas, is dependent on brawn as opposed to brains.
A little reflection on our own great and ancient heritage shall also convince us that Nalanda, Takhshila, Vallabhi, Vikramshila and many other great institutions were not the outcomes of some grand central strategy laid down in great detail that could have spawned micromanagement of these institutions. The lessons can be easily inferred and are not too many, nor too tedious. Policy — if at all — must simply be more in the realm of enlightened inducement that encourages and engenders good practices. It must nurture and encourage initiative and out-of-the-box thinking and should be, to an extent, ready to accommodate risk taking and have room for failure.
Institutions have to move out of traditional modes of thinking and must recognise that knowledge can exist in all realms, not just in formal systems around academia.
Witness the dabbawalas of Mumbai or the achievements of Craig Venter or the great insights of G.J. Mendel or even the fact that Albert Einstein was really working as a patent clerk when he made his tremendous discoveries. C.V. Raman was in the office of the accountant general while making his discovery. In ancient India, much before Christ and the Greeks, some outstanding mathematics was discovered and driven by societal needs. Knowledge systems in India invented cataract surgery and plastic surgery much before Christ; the invention of the so-called Wootz steel allowed us to export the knowledge and the steel implements of surgery. The invention and use of the rapalgai — a rope-based device also called kamal — enabled our merchant ships to calculate positions at sea at a time when Europe was clueless — the great Issac Newton had admitted defeat in this respect. Enormous economic benefits thus accrued to India for centuries.
So the learning that stares us in the face is the need to develop and nurture educational institutions in a manner that ensures their linkages to the needs and challenges of the nation — including its economic needs. This requires inducing young minds to grapple with the challenges of the nation and society. The other learning that also mocks us is the fact that no red alerts seem to have been issued in this context by any economic agency, think tank or any institution of knowledge. Knowledge without action is meaningless, as stated by the Mimansa school of philosophy long ago.
देश की अर्थव्यवस्था में बढ़ता प्रवासियों का योगदान
जयंतीलाल भंडारी, अर्थशास्त्री
संयुक्त राष्ट्र के कृषि विकास कोष द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में काम कर रहे प्रवासियों द्वारा अपनी कमाई अपने-अपने देशों मे भेजने के मामले में प्रवासी भारतीय पहले नंबर पर हैं। प्रवासी भारतीयों ने वर्ष 2016 में 62.7 अरब डॉलर यानी 4,057 अरब रुपये की धनराशि अपने देश भेजी। ऐसी 40 फीसदी धनराशि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में भेजी गई है। प्रवासियों से प्राप्त धनराशि के मामले में चीन दूसरे नंबर पर है। पिछले वर्ष विदेश में काम कर रहे प्रवासियों ने करीब तीन लाख करोड़ डॉलर की धनराशि स्वदेश भेजी, जिसका आधा हिस्सा दस बड़े देशों में कमाया गया है। इनमें अमेरिका, सऊदी अरब, रूस, संयुक्त अरब अमीरात, जर्मनी, कुवैत, फ्रांस, कतर, ब्रिटेन व इटली शामिल हैं। दुनिया के 200 देशों में रह रहे करीब 3.12 करोड़ प्रवासी भारतीयों ने विभिन्न देशों में नई ऊंचाइयों को पाने के लिए भारी संघर्ष किया और अवसरों को खंगाला है। इन भारतीय कारोबारियों, वैज्ञानिकों, तकनीकी विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं और उद्योगपतियों की प्रभावी भूमिका दुनिया के विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं में सराही जा रही है। प्रवासी भारतीय विकसित व विकासशील देशों के सबसे महत्वपूर्ण विकास-सहभागी बन गए हैं। इससे पूरी दुनिया में भारत की नई पीढ़ी की श्रेष्ठता को स्वीकार्यता मिली है। दुनिया के कई राष्ट्र प्रमुखों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं में प्रवासी भारतीयों के योगदान का कई बार उल्लेख किया है। आईटी, कंप्यूटर, मैनेजमेंट, बैंकिंग, वित्त, कारोबार जैसे क्षेत्रों में दुनिया में भारतीय प्रवासी सबसे आगे हैं।
विदेशी धरती पर प्रभावी भूमिका निभाने के साथ-साथ प्रवासी भारतीय अब अपने देश के काम भी आने लगे हैं। कई बार यह पाया गया है कि देश की मुद्रा जब भी कमजोर हुई, तब प्रवासी भारतीयों द्वारा स्वदेश भेजे गए धन से रुपया स्वत: ही स्थिर होने की ओर बढ़ा। देश के सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के कई बैंकों ने अप्रवासी भारतीय जमा खातों (एफसीएनआर) की ओर प्रवासियों को आकर्षित करके आवश्यकता के अनुरूप विदेशी मुद्रा हासिल की।
हालांकि दुनिया के सभी प्रवासी भारतीय बहुत धनी नहीं हैं। अधिकांश देशों में इनकी आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं है। खासतौर से विभिन्न खाड़ी देशों में लाखों कुशल-अकुशल भारतीय श्रमिक इस बात से त्रस्त हैं कि वहां पर उन्हें न्यूनतम वेतन और जीवन के लिए जरूरी सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं। केंद्र सरकार ने इस गंभीर पक्ष पर भी ध्यान दिया है। खासतौर से पश्चिम एशिया की हर छोटी-बड़ी उथल-पुथल के बाद जब भारतीय प्रवासियों की मुश्किलें बढ़ीं, तो भारत मदद करने के लिए तेजी से आगे बढ़ा। जब इराक ने कुवैत पर कब्जा जमा लिया था, तब रातोंरात वहां काम करने वाले भारतीयों को निकालने का काम भी भारत ने सफलता के साथ किया। इसी तरह, पश्चिम एशिया से थोड़ी सी दूरी पर बसे लीबिया में गृहयुद्ध के दौरान भी भारत ने प्रवासियों को बाहर निकाला और कुछ समय पहले प्रवासियों की ऐसी ही मदद इराक के उन हिस्सों में भी करनी पड़ी, जहां आईएस के उग्रवादियों ने कब्जा जमा लिया था। फिलहाल कतर में जिस तरह का संकट खड़ा हुआ है, उसमें भी आवश्यकता होने पर वहां रह रहे साढ़े छह लाख से अधिक भारतीयों को तत्काल निकालने के लिए भारत तैयार दिखाई दे रहा है।
निश्चित रूप से यदि हम चाहते हैं कि प्रवासी भारतीय भारत की ओर विदेशी मुद्रा के प्रवाह में वृद्धि करें और भारत के विकास के पूर्ण सहभागी बनें, तो हमें प्रवासियों के प्रति सांस्कृतिक सहयोग व स्नेह को और अधिक बढ़ाना होगा। हमें आशा करनी चाहिए कि आने वाले समय में भारत को विकसित देश बनाने में प्रवासियों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। तीन दशक पहले प्रवासी चीनियों ने सारी दुनिया से कमाई हुई अपनी दौलत चीन में लगाकर उसकी तकदीर हमेशा के लिए बदल डाली थी, उसी प्रकार भारत की तकदीर बदलने में भी प्रवासी भारतीयों से अधिक कारगर सहयोग की उम्मीद है। हालांकि एक दिलचस्प बात यह है कि इस काम को प्रवासी चीनी लोगों ने तब किया था, जब प्रवासियों या उनके धन को आकर्षित करने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं किए गए थे। जबकि भारत इसके लिए लगातार प्रयास करता रहा है। भारत का पहले नंबर पर आना इन्हीं प्रयासों की कहानी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
रोजगार बचाने-बढ़ाने की चुनौती
आज यही प्रक्रिया कंप्यूटर द्वारा आगे बढ़ाई जा रही है। मैकडोनाल्ड अमेरिका की बर्गर बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी है। इस कंपनी ने बर्गर बेचने की दुकानें बनाई हैं जहां काउंटर के पीछे सेल्समैन नहीं हैं। केवल एक ऑटोमेटिक मशीन लगी हुई है जिसमें ग्राहक अपनी पसंद के बर्गर का विवरण दे सकता है। मशीन द्वारा वैसा बर्गर बनाकर दिया जा रहा है। एक नया क्षेत्र आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का है। आज सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं जो कानूनी रिसर्च कर सकता है। मसलन आपकी जमीन का म्यूटेशन नहीं हो पा रहा है। आप सॉफ्टवेयर को अपनी समस्या बताएंगे। सॉफ्टवेयर इस विषय पर अब तक के कोर्ट के निर्णयों को पढ़ेगा और आपको वे चुनिंदा फैसले उपलब्ध करा देगा जो आपकी समस्या से मेल खाते हैं। अथवा स्वास्थ्य संबंधी किसी पत्रिका के पास किसी शोधार्थी ने प्रकाशन के लिए पर्चा भेजा। पत्रिका द्वारा उस पर्चे को सॉफ्टवेयर में लोड किया जाएगा। सॉफ्टवेयर द्वारा दुनिया की तमाम स्वास्थ संबंधी पत्रिकाओं को पढ़कर बता दिया जाएगा कि उस विषय से संबंधित पूर्व में कोई पर्चा कहीं छपा है अथवा नहीं? इसी प्रकार पीएचडी थीसिस की जांच सॉफ्टवेयर द्वारा की जा सकती है कि उसमें दिए गए तथ्य कहीं से कट-एंड-पेस्ट यानी नकल तो नहीं किए गए है अथवा यह वास्तव में नया शोध है। अब तक रोजगार को खतरा ऑटोमेटिक लूम जैसी भौतिक मशीनों से था, लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से यह खतरा अब बौद्धिक रोजगारों पर भी मंडराने लगा है। जैसे लूम के मशीनीकरण से कपड़े का मूल्य कम हुआ, खपत बढ़ी और रोजगार बढ़े, वैसे ही बौद्धिक कार्य का दाम गिरने से खपत बढ़ने की पूरी संभावना है।
मसलन आपको वकील ने बता दिया कि आपकी जमीन का म्यूटेशन नहीं हो सकता है, लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने बताया कि अमुक मामले के आधार पर म्यूटेशन हो सकता है। तब आपने वाद दायर किया। शोध में वकील के रोजगार कम हुए, परंतु वाद दायर करने में उनका रोजगार बढ़ा। अत: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण कुल बौद्धिक कार्य का विस्तार होने की संभावना है। भारत के सामने चुनौती और बड़ी है। हमें पुराने रोजगारों के नष्ट होने के संकट के साथ-साथ बड़ी संख्या में रोजगार की इच्छुक नई पीढ़ी को भी रोजगार उपलब्ध कराना है। जो बच्चे बीती सदी के अंत में पैदा हुए वे आज वयस्क हो गए हैं और रोजगार मांग कर रहे हैं। इस चुनौती का सामना हमें दो स्तरों पर करना होगा। वर्तमान चुनौती है कि अस्ताचल की ओर बढ़े क्षेत्रों को छोड़ उदीयमान क्षेत्रों के लिए अपनी नई पीढ़ी को तैयार करें।
भविष्य में कंप्यूटर का बोलबाला रहेगा। आज दो तरह के टैक्सी ड्राइवर हैं। कुछ अपनी जानकारी से यात्री को गंतव्य तक ले जाते हैं। दूसरे जीपीएस से। जीपीएस से उन्हें जानकारी मिल जाती है कि किस सड़क पर जाम लगा है। वेदूसरी सड़क से यात्री को ले जाते हैं। उनका अपना और यात्री दोनों का समय बचता है। आज वह टैक्सी ड्राइवर सफल होगा जो जीपीएस का उपयोग करता है। इसी प्रकार ख्ूान आदि की जांच करने को कुछ लैबोरेट्री कर्मियों का सहारा लेती हैं जबकि दूसरी कंपनियां ऑटोमेटिक मशीनों से जांच करती हैं। वह पैथोलॉजिस्ट सफल होगा जो ऑटोमेटिक मशीन का संचालन कर सकता है। कंप्यूटर से जुड़े हुए नए क्षेत्र भी खुल रहे हैं जैसे मोबाइल एप्स को लें। वे ऐसे एप को बेचकर जीविका चलाना चाहते हैं। हमारे युवाओं द्वारा नए गेम्स बनाए जा सकते हैं। इन उभरते क्षेत्रों में रोजगार हासिल करने के लिए अपने युवाओं को अंग्रेजी और कंप्यूटर की पूरी जानकारी होनी चाहिए। अत: सरकार को चाहिए कि पूरे देश मे हाईस्कूल में ही अंग्रेजी और कंप्यूटर शिक्षा को अनिवार्य बना दे।
भविष्य में आने वाली दूसरी चुनौती आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की है। कंप्यूटर द्वारा मनुष्य के कुछ बौद्विक कार्यों को संपादित किया जाने लगा है जैसा कि ऊपर बताया गया है, लेकिन कंप्यूटर अंतत: एक निर्जीव मशीन है। वह भावनाहीन है। इसलिए भावनात्मक कार्यों को कंप्यूटर भविष्य में भी संपादित नहीं कर सकेगा। वाशिंगटन पोस्ट अखबार ने इस विषय पर कुछ विशेषज्ञों से बातचीत की जिन्होंने सुझाया कि उन स्किल की भविष्य में ज्यादा जरूरत पड़ेगी जो ‘सृजनात्मक, सहभागिता आधारित हैं, जो विभिन्न तरह के माहौल में कार्य कर सकते हैं, जो विभिन्न संस्कृतियों को समझ सकते हैं और जिनमें सामाजिक एवं भावनात्मक क्षमता है।’ ये क्षमताएं आट्र्स से संबंधित हैं जैसे भाषा, संस्कृति, पेंटिग, कला, साहित्य आदि से। इनमें कंप्यूटर द्वारा प्रवेश कठिन है जैसे तुलसी की रामायण अथवा बाइबिल को कंप्यूटर शायद ही लिख सके। अत: हमें अपनी युवा पीढ़ी को आट्र्स के विषयों के महत्व को समझाना चाहिए। अंग्रेजी, कंप्यूटर तथा आटर््स के मेल की काट कंप्यूटर द्वारा नहीं हो सकेगी। शिक्षा मंत्रालय को शिक्षा की दिशा में तत्काल उपरोक्त परिवर्तन करना चाहिए, अन्यथा हमारी युवा पीढ़ी उपलब्ध अवसरों को गंवा देगी।