20-11-2023 (Important News Clippings)
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Date:20-11-23
Partisan mischief
Governors rejecting Bills without cause undermines parliamentary democracy
Editorial
Tamil Nadu Governor R.N. Ravi’s act of withholding assent to Bills concerning universities in the State is nothing but constitutional tyranny. It is gross abuse of the power granted by the Constitution to give or refuse assent to Bills passed by the legislature. The grant of assent is a routine function of the titular head of state, and the exceptional power to with hold it is not meant to be exercised unreasonably. Rather, incumbents in Raj Bhavan ought to use this veto rarely, and only in flagrant instances when basic constitutional values are at stake. The Bills for which Mr. Ravi has refused approval, seek mainly to take away the Governor’s power to appoint Vice Chancellors of universities and vest it in the State government. There is nothing in these Bills for the Governor to disapprove of, save a vested interest to retain the powers conferred on him in his capacity as Chancellor. The rejection of the Bills appears to be a cantankerous response after the Supreme Court made well justified remarks on Governors delaying assent to Bills pending with them. On its part, the DMK government quickly convened a special session of the Assembly and adopted the same Bills again. The question arises whether it was under the belief that the Governor is bound to grant assent, if the same Bills were reconsidered and passed again by the House.
The statute position is that these Bills have failed to become law. There is no remedy in the Constitution for a House aggrieved by the rejection of its Bills. The proviso to Article 200, which makes the Governor’s assent mandatory for Bills passed a second time, does not apply to Bills for which assent has been ‘withheld’, a term that essentially means ‘rejected’. If the government was aware of this position and still ventured to adopt them again, it is possibly meant as a political message that it will not yield in the matter of pursuing its legislative measures. The effect of their fresh passage is that the Governor may treat them as fresh Bills. This means he is free to withhold as sent yet again. In a sense, the Governor’s action has helped highlight an undemocratic and antifederal feature in the Constitution that creates an unguided power to reject pieces of legislation passed by elected representatives. In its observations in ongoing proceedings concerning the Governor’s powers, the Court has drawn attention to the fact that Governors are not elected. The Court must examine whether vesting that office with a veto over legislation violates parliamentary democracy, a basic feature of the Constitution. An authoritative pronouncement is needed to end the scope for partisan mischief.
बैंकों की साइबर सुरक्षा
संपादकीय
वित्त मंत्रालय ने देश के सभी सरकारी बैंकों को अपनी साइबर सुरक्षा की समीक्षा करने और उसे मजबूत बनाने की जो सलाह दी, उस पर अमल भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि बैंकों की साइबर सुरक्षा में सेंध लगती ही रहती है। पिछले हफ्ते ही सार्वजनिक क्षेत्र के यूको बैंक में तत्काल भुगतान सेवा के माध्यम से कुछ लोगों के खाते में गलत तरीके से 820 करोड़ रुपये चले गए थे। यह ठीक है कि इनमें से 649 करोड़ रुपये की वसूली हो गई, लेकिन बैंक अभी तक यह स्पष्ट नहीं कर सका कि यह तकनीकी गड़बड़ी मानवीय त्रुटि के कारण हुई या हैकिंग के चलते। यह कोई पहला ऐसा मामला नहीं है जब किसी बैंक की साइबर सुरक्षा में सेंध लगी हो। कुछ वर्ष पहले यूनियन बैंक आफ इंडिया की साइबर सुरक्षा में सेंध लगी थी। यह सेंध इसलिए लगी थी, क्योंकि बैंक के अधिकारी एक फिशिंग ईमेल के झांसे में आ गए थे। वास्तव में केवल सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को ही अपनी साइबर सुऱक्षा मजबूत करने की आवश्यकता नहीं है। इस आवश्यकता की पूर्ति निजी क्षेत्र के बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को भी करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य जो भी महत्वपूर्ण सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थान हैं, उन्हें भी साइबर सुरक्षा के प्रति सतर्कता बरतनी होगी।
इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले साल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स की साइबर सुरक्षा में सेंध लगी थी। इसके चलते कई दिनों तक देश के इस सबसे बड़े और प्रतिष्ठित अस्पताल का कामकाज बुरी तरह प्रभावित रहा था। कुछ समय पहले इसरो प्रमुख ने यह सूचना दी थी कि उनके संस्थान को प्रतिदिन कम से कम सौ साइबर हमलों का सामना करना पड़ता है। साइबर हमलों पर निगाह रखने वाली राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की ओर से जारी रपटें यह बता रही हैं कि दुनिया भर में साइबर हमले तेजी के साथ बढ़ रहे हैं और इन हमलों के दायरे में भारत के भी विभिन्न संस्थान हैं। बढ़ते साइबर हमलों से बचने के लिए देश के सभी संस्थान आवश्यक उपाय करें, इसके लिए सरकार को केवल सुझाव देने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। उसे सरकारी और निजी क्षेत्र के संस्थानों को उन तौर-तरीकों से परिचित कराना चाहिए जिससे साइबर हमले रोके जा सकें। साइबर हमले केवल धन की हेराफेरी के लिए ही नहीं होते, बल्कि महत्वपूर्ण सूचना और लोगों की निजी जानकारियां हासिल करने के लिए भी होते हैं। हाल के वर्षों में साइबर धोखाधड़ी जितनी बड़ी चुनौती बनकर सामने आई है, उसे देखते हुए यह भी जरूरी है कि आम जनता भी अपने स्तर पर इसके खतरों के प्रति जागरूक हो और यह समझे कि उसकी अपरिपक्वता भी इसके अपराधियों का दुस्साहस बढ़ा रही है।
Date:20-11-23
अलग हैं धर्म और पंथ-मजहब
हृदयनारायण दीक्षित, ( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं )
पतंजलि ने महाभाष्य में लिखा है कि शब्द का सम्यक ज्ञान एवं प्रयोग अभीष्ट की पूर्ति करता है। शब्द प्रयोग सम्यक न होने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। दिल्ली उच्च न्यायालय में रिलीजन यानी पंथ के पर्याय के रूप में धर्म शब्द के प्रयोग पर जनहित याचिका विचरण में है। याचिका में रिलीजन शब्द के वास्तविक अर्थ का प्रयोग करने और आधिकारिक अभिलेखों में इस शब्द को धर्म के पर्याय के रूप में न करने के निर्देश की प्रार्थना है। जन्म प्रमाणपत्र, आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस आदि अभिलेखों में भी इसके सही उल्लेख की मांग की गई है। धर्म का अर्थ व्यापक है। सर्वोच्च न्यायपीठ ने हिंदू धर्म को भारत के लोगों की जीवनशैली बताया था। रिलीजन विश्वास और उपासना पद्धति है और धर्म सर्वव्यापी जीवन शैली, लेकिन रिलीजन, मत और मजहब को भी धर्म का पर्याय बताया जाता है। सभी पंथ धर्म कहे जाते हैं। इस्लाम और ईसाइयत पंथ या रिलीजन है। इन्हें भी धर्म कहा जाता है। पंथनिरपेक्षता को धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है। सभी पंथों को सभी धर्मों को एकसमान बताया जाता है। रिलीजन, मजहब एवं पंथ जबकि धर्म नहीं हैं। उक्त याचिका में स्कूली पाठ्यक्रम में ‘धर्म और रिलीजन’ का विषय जोड़ने का अनुरोध भी है। रिलीजन धर्म नहीं है। प्रत्येक रिलीजन एक आस्था और विश्वास है। एक ईश्वर, एक देवदूत और एक पवित्र पुस्तक रिलीजन या मजहब की अपरिहार्यता है। रिलीजन मजहब को धर्म बताना अनुचित है। रिलीजन का वास्तविक अर्थ पंथ या संप्रदाय है।
धर्म के निर्वचन में बहुधा कठिनाई आती है। किसी रिलीजन या मजहब के विश्वासी को अपना परिचय देने में सुविधा है। ईसाई से पूछा जाए कि आप ईसाई क्यों हैं तो संभवत: उत्तर मिलेगा कि वह प्रोफेट ईसा, एक ईश्वर और एक पवित्र पुस्तक बाइबल का अनुयायी है। ऐसे ही प्रश्न के उत्तर में इस्लाम अनुयायी कहेगा कि वह एक ईश्वर, एक पैगंबर, एक पवित्र पुस्तक कुरान पर विश्वास करता है। धर्म के अनुयायी के पास इस प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं है। सनातनधर्मी सीधा उत्तर नहीं दे सकता। उसकी कोई एक पवित्र पुस्तक नहीं। एक ईश्वर के साथ अनेक देवता हैं। सैकड़ों धार्मिक ग्रंथ हैं। धर्म को मानने वाला पृथ्वी, आकाश, नदी, वनस्पति सहित प्रकृति की सभी शक्तियों को देवता मानता है। विज्ञान की भाषा में कहें तो धर्म बहुकोषीय सामाजिक संरचना है और रिलीजन मजहब एककोषीय।
धर्म में बहुदेव उपासना है, लेकिन परमसत्ता को एक जाना गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि इंद्र, अग्नि, वरुण देवता हैं, लेकिन सत्य एक है। विद्वान उसे अनेक नामों से पुकारते हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी डिस्कवरी आफ इंडिया में लिखा है, ‘धर्म का अर्थ मजहब या रिलीजन से ज्यादा व्यापक है। यह किसी वस्तु की भीतरी आकृति, आंतरिक जीवन के विधान के अर्थ में आता है। इसके अंदर नैतिक विधान, सदाचार और मनुष्य की सारी जिम्मेदारियां और कर्तव्य आ जाते हैं।’ धर्म की स्थापनाओं पर प्राचीन काल से ही प्रश्न परंपरा है, लेकिन रिलीजन और मजहब की मान्यताओं पर बहस नहीं है। पंडित नेहरू ने लिखा है, ‘हम भिन्न-भिन्न रिलीजन से जुड़ी मजहबी किताबों को किस नजर से देखें? पंथिक विश्वासी लोगों का ख्याल है कि इनका ज्यादातर हिस्सा दैवी प्रेरणा से प्राप्त हुआ है या नाजिल हुआ है। अगर हम इनकी जांच-पड़ताल या नुक्ताचीनी करते हैं और उन्हें मनुष्यों की रची हुई बताते हैं तो कट्टर मजहबी इसका बुरा मानते हैं।’
दरअसल इस्लाम और अंग्रेजों के भारत आने और सत्ताधीश हो जाने तक उनका धर्म जैसी व्यापक धारणा से परिचय नहीं था। भारत के विद्वानों ने भी इस्लाम और ईसाइयत जैसी सांप्रदायिक संरचनाएं नहीं देखी थीं। अंग्रेजी सत्ता के दौरान ही रिलीजन और मजहब को भी धर्म कहा जाने लगा। जबकि धर्म एक अलग सर्वव्यापी अवधारणा है और पंथिक संप्रदाय धर्म से भिन्न विचार। धर्म की धारणा में कोई एक देवदूत या पैगंबर नहीं होता। धर्म में सबके लिए जगह है। गांधीजी ने कहा था कि हिंदू धर्म में जीसस के लिए पर्याप्त जगह है और मोहम्मद, जरथुस्त्र तथा मूसा के लिए भी पर्याप्त स्थान है। अनीश्वरवादी चार्वाक दर्शन भी धर्म का भाग है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश गजेंद्र गड़कर ने कहा था कि ‘विश्व के सभी पंथों के विपरीत धर्म किसी एक पैगंबर का दावा नहीं करता और न ही किसी एक देवता की उपासना करता है। यह किसी एक दार्शनिक अवधारणा को भी नहीं मानता। उपासना की विशिष्ट पद्धतियों-क्रियाओं को भी नहीं स्वीकार करता। इसे एक जीवन पद्धति के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है।’
धर्म एक है। पंथिक संप्रदाय अनेक हैं। पृथ्वी आकाश और प्रकृति की सारी शक्तियां धर्म आच्छादित हैं। रिलीजन या पंथ मजहब धर्म नहीं हैं। ये विश्वास हैं। धर्म सत्य है। सत्य धर्म है। धर्म पालन में असीम विवेक स्वतंत्रता है। वैदिक पूर्वजों ने धर्म को समूची सृष्टि का रस बताया है। बृहदारण्यक उपनिषद में धर्म को सभी भूतों का मधु (सार) बताया गया है। धर्म में संसार है। संसार में धर्म है। धर्म संपूर्ण जगत का नियामक तत्व है। धर्म जगत की व्यवस्था है। प्रकृति सुसंगत नियमों में गतिशील है। सूर्यास्त और सूर्योदय भी नियमानुसार धर्मानुसार उगते-अस्त होते हैं। नदियां धर्मानुसार प्रवाहमान हैं। ग्रह नक्षत्र भी सुसंगत धार्मिक नियमों में गतिशील हैं। यह उनका धर्म है। जल का धर्म रस है। ताप अग्नि का धर्म है। धर्म में सभी तत्व समाहित हैं। मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार। मनुष्य का प्रकृति के प्रति व्यवहार। मनुष्य का सभी जीवों के प्रति व्यवहार। मनुष्य का समष्टि के प्रति व्यवहार धार्मिक संहिता का ही भाग है। लोकमंगल धर्म का भी धर्म है।
रिलीजन, पंथ और मजहब अनेक हैं। धर्म एक है, इसलिए सर्वधर्म समभाव उचित शब्द नहीं है। सर्व पंथ समभाव उचित है। धर्मांतरण अनुचित है और मतांतरण उचित है। सभी धर्मों में सांप्रदायिक सद्भाव की बात अनुचित है। सांप्रदायिकता सद्भाव नहीं होती। धर्म एक है। शाश्वत है। सनातन है। सभी धर्मों की एकता का शब्द प्रयोग गलत है। रिलीजन, पंथ, मजहब धर्म के पर्यायवाची नहीं हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र एवं राज्य को इस संदर्भ में अपनी राय देने के निर्देश दिए हैं। विश्वास है कि इस प्रश्न का सम्यक निस्तारण होगा।
Date:20-11-23
आभासी दुनिया में गुम होते रिश्ते
डा. ब्रजेश कुमार तिवारी, ( लेखक जेएनयू के अटल स्कूल आफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर हैं )
पिछले दिनों आई ग्लोबल स्टेट आफ सोशल कनेक्शंस की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में लगभग चार में से दो बालिग अकेलापन महसूस कर रहे हैं। इस सर्वे में 140 से अधिक देशों के लोगों को शामिल किया गया था। कृष्ण और सुदामा की दोस्ती जगजाहिर है, पर पिछले कुछ वर्षों से भारत सहित समूची दुनिया ‘दोस्ती की मंदी’ यानी सच्चे दोस्तों की कमी की समस्या से जूझ रही है। काफी संख्या में लोग अब यह स्वीकार कर रहे हैं कि उनके पास ऐसे दोस्तों की कमी है, जिनके साथ वे अपनी समस्याएं खुलकर साझा कर सकें। सर्वे में पाया गया कि ‘दोस्ती की मंदी’ (फ्रेंडशिप रिसेशन) भविष्य में एक गंभीर संकट बन सकता है, क्योंकि अकेलापन स्वास्थ्य के लिए उतना ही बुरा है, जितना कि एक दिन में 15 सिगरेट पीना। शोध से यह भी पता चला है कि अपने दोस्तों के साथ बिताए जाने वाले समय में हर साल तेजी से कमी आ रही है। इस रुझान के अनुसार भविष्य में भी इस मोर्चे पर सुधार के कोई आसार नहीं दिखते।
मित्रता का कोई नियम नहीं होता, मित्र बिना जीवन नहीं होता। यदि हमारे पास एक भी सच्चा मित्र है तो वह हमें अन्य रिश्तों की कमी का आभास नहीं होने देता। वह आवश्यकता पड़ने पर माता है, पिता है, भाई है, बहन है, दोस्त तो है ही। सच्चा मित्र गुरु के समान सच्चा मार्गदर्शक भी होता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, सच्ची मित्रता में बहुत तेजी से गिरावट आई है। सर्वे के मुताबिक, लगभग 40 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनका एक भी घनिष्ठ मित्र नहीं है। साल 1990 के समय यह आंकड़ा तीन प्रतिशत था। इसमें कोई संदेह नहीं कि मित्रता एक ऐसा नायाब संबंध है, जो किसी भी व्यक्ति की खुशियों को बढ़ाने और दुख को कम करने में मददगार साबित होता है। जीवन में सच्चा दोस्त अच्छी सेहत के समान होता है। रहीम के अनुसार सच्चा मित्र वही है, जो विपत्ति आने पर बिना देर किए मदद का हाथ बढ़ाता है। दुख के समय ही दोस्ती का असली सार सामने आता है। सच्चा मित्र वही है, जिसे पता हो कि कब समझना है और कब समझाना है। अगर पुस्तक ज्ञान की कुंजी है तो मित्र पूरा पुस्तकालय है।
इस पृथ्वी पर आते ही कुछ रिश्ते जन्म से मिलते हैं। जैसे मां, पिता, भाई और बहन आदि। दोस्ती उन कुछ रिश्तों में से एक है, जिसे हम चुनते हैं। मित्र तो कई बनते हैं, पर सच्ची मित्रता विरले को ही प्राप्त होती है। दोस्ती में हमारे संस्कारों की अहम भूमिका होती है। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का दर्पण उसके द्वारा बनाए गए मित्र होते हैं। एक सच्चा दोस्त खोजने का तरीका यह भी है कि हम खुद किसी के सच्चे दोस्त बन जाएं।
आज लोग भीड़ में अकेले घूम रहे हैं और उनके पास चार सच्चे दोस्त भी नहीं हैं। इसका मुख्य कारण लोग स्वयं हैं। वास्तविक जिंदगी में जो अपनत्व और विश्वास की नींव बनती है, वह अटूट होती है, लेकिन आज इंटरनेट मीडिया एवं आभासी (वर्चुअल) दुनिया के रिश्तों में, हम सभी चैटिंग, फोटो शेयरिंग और कमेंट्स में सुकून खोज रहे। अब रिश्ते लाइक्स और कमेंट्स पर ज्यादा निर्भर नजर आते हैं। मजबूत रिश्ते और दोस्ती तब बनते हैं जब हम सुख-दुख का साथी बनते हैं, लेकिन हम तो अधिक से अधिक फालोअर्स और लाइक्स की होड़ में लगे हुए हैं। हम इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि अपने बच्चों को भी दोस्ती में कोई फायदा ढूंढ़ने के संस्कार देने लगते हैं। वास्तव में मजबूत रिश्ता निःस्वार्थ त्याग और समय मांगता है। जब हम रिश्तों को मान देते हैं तो बदले में हमें वहां से भी मान मिलता है। कई अवसरों पर यह देखा गया है कि जब किसी के सामने कोई महत्वपूर्ण कार्य आता है तो लोग अक्सर उसकी सहायता करने से बचने के लिए बहाने बनाने का सहारा लेते हैं और सोचते हैं इससे दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ेगा, पर वही बहाने आगे हमसे रूबरू होते हैं।
हमने वेडिंग प्लानर या इवेंट प्लानर तो सुने थे, लेकिन अब डिजाइन थिंकिंग एवं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआइ के इस दौर में (फ्यूनरल प्लानिंग) अंतिम संस्कार कंपनियां आ गई हैं। लाकडाउन के समय सेवा भाव से आए ये विचार अब बाजारवाद के युग में पक्के बिजनेस स्टार्टअप बनते जा रहे हैं। यह फ्यूनरल प्लानिंग स्टार्टअप कंपनियां श्मशान की बुकिंग, पंडित की व्यवस्था और शव को श्मशान तक ले जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था भी मुहैया कराती हैं। ये कंपनियां अतिरिक्त चार्ज पर अंतिम यात्रा का लाइव प्रसारण भी उपलब्ध करवा देती हैं। ये स्टार्टअप कंपनियां भी जानती हैं कि एकल एवं आत्मकेंद्रित हो चुके समाज में रिश्ते निभाने का समय किसी के पास नहीं। कई बार तो न बेटे के पास और न भाई के पास। वास्तव में यह मामला संवेदना और व्यक्तित्व का है। जीवन का अंतिम सत्य यही है कि जो आया है, वह जाएगा जरूर। अहमद फराज ने लिखा है, ‘जिंदगी से यही गिला है मुझे, तू बहुत देर से मिला है मुझे। हमसफर चाहिए हुजूम नहीं, इक मुसाफिर भी काफिला है मुझे।’
कुल मिलाकर दोस्ती और रिश्तों को मजबूत बनाकर रखें, जिससे जिंदगी का आखिरी रास्ता भी अपनों के साथ हो, न कि किराए के लोगों के साथ। यह समय की मांग है कि आभासी दुनिया से बाहर निकलकर रिश्तों को समय दिया जाए, क्योंकि बहुत खामोश रिश्ते ज्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रहते। यह समझा जाना चाहिए कि इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर किसी के कितने भी फालोअर्स हों, वे कठिन समय पर मुश्किल से ही काम आते हैं। वे इंटरनेट मीडिया पर संवेदना के दो शब्द लिखकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।
Date:20-11-23
डीपफेक के खतरे
संपादकीय
डीपफेक को लेकर दुनिया भर में गंभीर चर्चाएं चल रही हैं। अपने यहां अभिनेत्री रश्मिका मंदाना का डीपफेक वीडियो वायरल होने के बाद स्थिति की गंभीरता को समझा गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बयान ने इसकी गंभीरता को और भी बढ़ा दिया है। मोदी ने कहा कि उनका गरबा खेलते हुए वीडियो वायरल हुआ है जबकि उन्होंने कभी गरबा किया ही नहीं। एआई द्वारा तैयार किए जाने वाले डीपफेक को लेकर सरकार सोशल मीडिया कंपनियों के साथ बैठक की योजना बना रही है। इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि प्लेटफॉर्म पर्याप्त कदम नहीं उठाते हैं, तो सेफ हॉर्बर इम्युनिटी क्लॉज लागू नहीं होगा। इसमें मेटा और गूगल को भी आमंत्रित किया गया है। आईटी अधिनियम के तहत इन सभी प्लेटफार्मों को सेफ हॉबर इम्युनिटी क्लॉज की सुविधा प्राप्त है। मंदाना के मामले के बाद एडवायजरी जारी की जा चुकी है। इस कृत्य के लिए तीन साल की सजा और एक लाख रुपए का जुर्माना लगाया जा सकता है। डीपफेक सिंथेटिक मीडियम है, जिसका प्रयोग फोटो, वीडियो, ऑडियो को आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से क्रिएट किया जाता है, जो देखने में एकदम असली नजर आता है। पोर्नोग्राफी में इसका खतरनाक स्तर तक प्रयोग बढ़ रहा है जिसमें से 99 फीसद चेहरे नामी महिला सितारों के पाए गए हैं। इसमें आवाज को क्लोन किया जाना भी चालू हो गया है। इन्हें बनाने वालों में शरारती तत्व ही नहीं, बल्कि इन्हें बनाना बेहद जटिल और तकनीकी कार्य होने से बनाने वालों में रिसर्च करने वाले विशेषज्ञों समेत अपरिपक्व उत्साही भी शामिल हैं। इन्हें मामूली कंप्यूटर सिस्टम द्वारा बनाया जा सकते हैं। यह सारी दुनिया के लिए नई और कड़ी चुनौती बनती जा रही है क्योंकि बड़े राजनीतिज्ञों या सुपर स्टारों के डीपफेक वीडियो के मार्फत कोई भी संवेदनशील बात मिनटों में वायरल होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता जो विश्व शांति के खिलाफ जा सकती है। प्रसिद्ध हस्तियों के साथ किए जाने वाला यह खिलवाड़ उन्हें भावनात्मक तौर पर हिला देता है और बेवजह उनकी प्रतिष्ठा तो धूमिल होती ही है। अमेरिकी चुनाव के दरम्यान इसको लेकर खासी बहस भी छिड़ी थी और फेसबुक को दबाव में आनन-फानन में ढेरों वीडियो डिलीट करने पड़े थे। फेक न्यूज और सिंथेटिक मीडिया ने विश्वसनीयता और आंखों देखे सत्य को संग्दिध बना दिया है। एआई के प्रसार के साथ ही समूची दुनिया को इसके खतरों के प्रति समय रहते सामूहिक तौर पर सतर्क होना होगा।