20-05-2019 (Important News Clippings)
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Date:19-05-19
मायूस हुईं महिलाएं अपने आयोग से
फैजान मुस्तफा
हाल में भारत के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ यौन उत्पीड़न संबंधी आरोपों की खासी र्चचा रही। शिकायतकर्ता महिला कर्मचारी और उसके पुरुष रिश्तेदार की बर्खास्तगी को लेकर सुप्रीम कोर्ट की आलोचना हुई। शिकायत को खारिज करने वाली जस्टिस बोबड़े की अगुवाईवाले तीन सदस्यीय पैनल की रिपोर्ट शिकायतकर्ता को नहीं दिए जाने की भी आलोचना हो रही है। लेकिन बहुतों को जानकारी नहीं है कि 2016 में राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) ने दो महिलाओं की शिकायत को खारिज कर दिया था। दोनों महिलाओं ने ‘‘एनसीडब्ल्यू में कार्यस्थल पर लगातार यौन उत्पीड़न’ की शिकायत की थी। यह मामला 2017 से दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित पड़ा है। केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश के बावजूद एनसीडब्ल्यू ने सूचना का अधिकार के तहत मामले से संबंधित कुछ दस्तावेज भी मुहैया नहीं कराए।
एनसीडब्ल्यू की संवेदनहीनता आयोग की मौजूदा अध्यक्ष एवं भाजपा नेता रेखा शर्मा की थॉमसन रॉयटर के सव्रे पर उनकी प्रतिक्रिया से पता चलती है। सव्रे का निष्कर्ष था कि अफगानिस्तान और सीरिया के बाद भारत विश्व में महिलाओं के लिए सर्वाधिक खतरनाक देश है। इस निष्कर्ष पर प्रतिक्रिया जताते हुए आयोग की अध्यक्ष ने कहा कि एनसीडब्ल्यू ने बलात्कार के जिन मामलों की जांच की उनमें से लगभग 30 प्रतिशत झूठे पाए गए। सरकार के अपने नेशनल फैमिली हेल्थ सव्रे (2015-16) से पता चला है कि यौन उत्पीड़न के 99.1 प्रतिशत मामलों की तो रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हो पाती।
एनसीडब्ल्यू की स्थापना 1990 में स्वायत्त संवैधानिक संगठन के रूप की गई थी। एनसीडब्ल्यू एक्ट, 1990 के तहत इसका अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए जो महिला संबंधी मुद्दों के प्रति प्रतिबद्ध हो। इसके पांच अन्य सदस्य होने चाहिए। महिलाओं के हितों की सुरक्षा से जुड़े मामलों की जांच के लिए आयोग के पास व्यापक अधिकार हैं। इस पर महिला संबंधी नीतियों और नियमों की समीक्षा और इनमें सुधार संबंधी सुझाव देने का दायित्व है। महिलाओं के अधिकारों के हनन पर स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करने या प्राप्त शिकायतों की जांच का अधिकार है। नीतिगत फैसलों या कानूनों की अनुपालना नहीं होने पर कार्रवाईकरने का अधिकार है। महिलाओं की समस्याओं के समाधान संबंधी दिशा-निर्देशों का अनुपालन नहीं होने और महिलाओं के कल्याण और उन्हें राहत पहुंचाने संबंधी कार्रवाईकरने का अधिकार है। जेलों, रिमांड होम्स और महिला संस्थानों आदि का निरीक्षण करने और समय-समय पर सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजने का दायित्व है। बीते तीन दशकों में एनसीडब्ल्यू का प्रदर्शन शिथिल रहा है। सभी सरकारों ने इसके अध्यक्ष पद पर अपनी पार्टियों के ही किसी नेता-कार्यकर्ता को नियुक्त किया है। बीते तीन दशकों के दौरान नियुक्त अधिकांश अध्यक्ष ऐसे रहे जिन्हें महिला विषयक मुद्दों का अनुभव नहीं था। इसी के चलते अनेक ऐतिहासिक अवसरों पर एनसीडब्ल्यू अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन करने में नाकाम रहा।
2002 में जब गुजरात में पूरे दो महीने तक बड़े पैमाने पर मुस्लिमों के खिलाफ यौन हिंसा हुई तब एनसीडब्ल्यू ने वहां अपनी टीम नहीं भेजी। बाद में इसकी टीम ने अजीब सा निष्कर्ष निकाला कि किसी समुदाय विशेष को निशाना नहीं बनाया गया और यौन हिंसा नहीं हुई। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के साथ ही अन्य रिपोटरे ने एनसीडब्ल्यू के निष्कर्षो के विपरीत बातें कहीं। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने बिलकीस बानो को पचास लाख रुपये की क्षति पूर्ति देने का फैसला दिया। इसी प्रकार, गुवाहाटी में 10 जुलाई, 2012 को एक युवती के साथ सरेराह छेड़छाड़ की गई तो एनसीडब्ल्यू की अध्यक्ष एवं कांग्रेस नेता ने तो युवती पर ही सारा दोष मढ़ दिया। कहा कि ‘‘अपने लिबास पर ध्यान दें..पश्चिमी जगत के अंधे अनुसरण से हमारी संस्कृति का क्षरण होता है, और ऐसी घटनाएं होती हैं।’ ऐसी मानसिकता वाले बयान ने पीड़िता को गहरा सदमा पहुंचाया। 2012 का ही मामला है, जब एनसीडब्ल्यू की मुखिया ने जयपुर में कहा, ‘‘यदि लड़कों का एक समूह आपको सेक्सी कहकर छेड़ता है, तो आप बिफरे नहीं, बल्कि इस टिप्पणी को सकारात्मकता से स्वीकारें।’ 16 दिसम्बर, 2012 की दिल्ली गैंगरेप घटना पर एनसीडब्ल्यू ने कोई ज्यादा सक्रियता दिखाई और न ही संबंधित कानून में संशोधन के लिए कोईआंदोलन चलाया। यह तो सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर आम जनता सड़कों पर उतर आई जिसने सरकार को विवश कर दिया कि यौन उत्पीड़न के संबंध में विशेष कानून बनाए। और 2013 में यह कानून बनाया गया।
सुरक्षा बलों द्वारा यौन उत्पीड़न के तय को एनसीडब्ल्यू ने नकार दिया। आयोग ने उन मेजर लितुल गोगोई के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया जिन्हें हाल में सेना ने स्थानीय कश्मीरी लड़की से निकटता रखने के आरोप में कोट मार्शल किया है। दिल्ली डोमेस्टिक वर्किग वीमैन फोरम मामले (1994), जो मुरी एक्सप्रेस में सेना के अधिकारियों द्वारा कुछ लड़कियों के साथ रेप का मामला था, में सुप्रीम कोर्ट ने एनसीडब्ल्यू के इस बयान को शर्मनाक करार दिया था कि ‘‘ऐसे मामलों में हर्जाने के लिए कोईनीति तैयार करना उसके अधिकार क्षेत्रसे बाहर है।’ एनसीडब्ल्यू की एक टीम ने बीते माह राजीव गांधी नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (आरजीएनएलयू), पटियाला का दौरा किया था। विचित्र बात है आयोग की टीम ने एक रिपोर्ट यूनिवर्सिटी के पास भेजी तो एक दूसरी रिपोर्ट सरकार को प्रेषित की। यूनिवर्सिटी को भेजी गई रिपोर्ट के साथ जो पत्र था, उससे पता चलता है कि एनसीडब्ल्यू की कार्यपण्राली किस कदर अकुशल है। ग्यारह अप्रैल, 2019 को यह पत्र भेजा गया। इसके दूसरे पैरा में कहा गया है कि कथित भेदभाव की जांच के लिए आयोग ने 19 मार्च, 2019 को एक जांच समिति का गठन किया और इस समिति ने 20 मार्च, 2018 को आरजीएनएलयू का दौरा किया लेकिन हस्ताक्षर करते हुए आयोग की अंडर सेक्रेटरी ने इस तारीख को 12 अप्रैल, 2012 लिखा। इस प्रकार इस पत्र में तीन विभिन्न वर्षो का जिक्र है।
प्रत्येक संस्थान में आईसीसी का व्यापक प्रचार होना जरूरी है, लेकिन आरजीएनएलयू की आईसीसी के गठन का जिक्र यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर है, और अक्टूबर, 2017 में इसे अपलोड किया गया। तय है कि ग्रिवांस कमेटी का लिंक भी वहां है, जिसका गठन मार्च, 2019 में किया गया था। जांच समिति का निष्कर्ष था कि कुछकर्मचारियों का व्यवहार ‘‘रूखा’ था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ‘‘देखा गया कि (कुछ प्रोफेसरों ने) छात्रों के प्रति रूखा व्यवहार किया और छात्रों के खिलाफ अवांछित टिप्पणियां कीं।’ समिति ने इन कर्मचारियों को उनकी बात सुनने का अवसर दिए बिना ही अपना निष्कर्ष निकाल लिया। इस प्रकार एनसीडब्ल्यू ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत की उल्लंघना की है, जो कहता है कि ‘‘किसी को भी सुने बिना दोषी नहीं ठहराया जा सकता।’ एनसीडब्ल्यू ने अपने अधिकार क्षेत्रका भी अतिक्रमण किया जब उसने सुझाया कि शिक्षकों को वार्डन नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। यह भी एक अलग समस्या है क्योंकि अधिकांश विविद्यालयों में वार्डन के रूप में शिक्षक शानदार कार्य कर रहे हैं। आयोग ने यह सुझाव भी दिया कि छात्रों की पसंद के लोगों को ही ग्रिवांस कमेटी का सदस्य बनाया जाना चाहिए। लगता है कि महिलाओं विषयक मुद्दों के लिए लड़ने की न तो एनसीडब्ल्यू की इच्छा है, और न ही क्षमता। अत : यह बेहद जरूरी हो गया है कि किसी स्वतंत्र संस्था से आयोग के प्रदर्शन की जांच कराई जाए।
Date:19-05-19
पहली फाइल ईरान
डॉ. दिलीप चौबे
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुबारा सत्ता की कमान संभालते हैं, तो उनकी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती विदेश मोर्चे पर ईरान से कच्चे तेल की आपूर्ति सुनिश्चित रखने की होगी। भारत अपनी तेल आवश्यकता का करीब 10 फीसद हिस्सा ईरान से आयात करता है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा ईरान पर लगाए गए कड़े प्रतिबंधों के कारण अब भारत के सामने यह दुविधा है कि वह ईरान से कच्चे तेल का आयात कम करे, बंद करे या जारी रखे। ईरान के खिलाफ अमेरिका के प्रतिबंध काफी समय से जारी थे। लेकिन अब तक भारत समेत कुछअन्य देशों को अमेरिकी प्रशासन ने प्रतिबंधों में छूट दे रखी थी। यह छूट गत दो मईको समाप्त कर दी गई।
अमेरिका ने यह चेतावनी भी दी है कि जो भी देश इन प्रतिबंधों की अवहेलना करेगा उसके विरुद्ध कार्रवाई की जाएगी। अमेरिकी फैसले से सबसे ज्यादा दुष्प्रभावित होने वाले देश हैं-भारत, तुर्की और चीन। तुर्की ने अमेरिकी धमकी का मजाक उड़ाया है, जबकि चीन ने इसी हफ्ते प्रतिबंधों के बावजूद ईरान से कच्चा तेल खरीदा है। प्रतिबंधों के इस उल्लंघन के संबंध में अमेरिकी प्रतिक्रिया सामने नहीं आईहै। जहां तक भारत का सवाल है, तेल कंपनियों की ओर से संकेत दिए जा रहे हैं कि वे अमेरिकी प्रतिबंधों का पालन करेंगे। सरकार के स्तर पर अभी किसी स्पष्ट नीति का खुलासा नहीं किया गया है। वजह है कि देश में आम चुनाव चल रहे हैं, और सरकार बनने के बाद ही बड़े फैसले लिएजा सकते हैं।
अमेरिका और ईरान में बढ़े तनाव के बीच सऊदी अरब के तेल टैंकरों पर हमला हुआ है, इसके कारण पश्चिम एशिया में युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं, और कच्चे तेल के दाम बढ़ने की आशंका भी पैदा हो गईहै। सऊदी अरब ने इस हमले में ईरान का हाथहोने की आशंका जताई है। अमेरिका ईरान से संभावित खतरों के कारण फारस की खाड़ी में बी-52 बमवर्षक विमानों की तैनाती कर रहा है। पश्चिम एशिया में अमेरिका और ईरान के बीच बढ़ते तनाव और प्रतिबंधों के कारण ईरान की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहे प्रतिकूल असर की छाया में ईरान के विदेश मंत्री जवाद जरीफ ने इस हफ्ते के शुरू में भारत की यात्रा की। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से अमेरिकी प्रतिबंधों से उत्पन्न परिस्थिति पर विचार विमर्श किया। हालांकि आधिकारिक रूप से बातचीत का ब्योरा नहीं दिया गया, लेकिन कूटनीतिक सूत्रों के अनुसार सुषमा ने जरीफसे कहा कि नई सरकार बनने के बाद इस संबंध में फैसला लिया जाएगा। मोदी सरकार की यह नीति रही है कि वह केवल संयुक्त राष्ट्र की ओर से लागू किए गए प्रतिबंधों पर अमल करने के लिए बाध्य है। किसी एक देश द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को वह नहीं मानता। अमेरिकी राष्ट्रपति के ईरान के प्रति सख्त रवैये के कारण भारत अपनी इस सिद्धांतवादी नीति पर कायम रहता है, या अमेरिकी दबाव के आगे झुक जाता है, यह अगले महीने ही स्पष्ट हो सकेगा। प्रतिबंधों के बारे में चीन का भी यही रवैया है कि वह एकतरफा प्रतिबंधों को नहीं मानता
अमेरिकी और ईरान के बीच बढ़ते तनाव के कारण भारत के सामने चाबहार बंदरगाह को लेकर बड़ी दुविधा है। इस बंदरगाह का एक हिस्सा भारत ने पट्टे पर ले रखा है, तथा वहां भारी निवेश किया है। भारत समुद्री मार्ग, सड़क मार्ग और रेल मार्ग वाली एक समन्वित परिवहन पण्राली का विकास कर रहा है। इस पण्राली से अफगानिस्तान के साथही मध्य एशिया और रूस तक भारत की व्यापारिक गतिविधियां सुगम हो सकेंगी। भारत चाबहार की ‘‘रणनीतिक संपदा’ को अपने हाथसे निकलने नहीं देगा। यही कारण है कि भारत किसी सूरत में ईरान की नाराजगी मोल नहीं ले सकता।
भारत के लिए यह अवसर सक्रिय कूटनीति दिखाने का है। उसे अमेरिकी प्रतिबंधों के मद्देनजर दुष्प्रभावित होने वाले देशों के साथ एकजुटता कायम करनी चाहिए। भारत और चीन मिलकर कोईसंयुक्त रणनीति अपनाते हैं, तो अमेरिका के लिए संभव नहीं होगा कि ज्यादा धौंसपट्टी दिखाए। भारत पर दबाव डालने के लिए अमेरिका के पास आर्थिक दृष्टि से बहुत से हथियार हैं, लेकिन मिस की भू-रणनीतिक स्थिति के कारण भारत की भूमिका को वह नजरअंदाज नहीं कर सकता। एशिया के बारे में अमेरिका की जो दूरगामी नीति है, उसमें भारत की केंद्रीय भूमिका है। ऐसे में भारत ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों से निजात पाने के लिए कोई न कोई रास्ता खोज सकता है।
Date:18-05-19
It’s about social justice, not welfare
To fulfill constitutional requirement, reservation must be based on a rigorous identification of economic backwardness
Abusaleh Shariff & Mohsin Alam Bhat , [ Shariff was member secretary, Sachar committee and is with the US-India Policy Institute, Washington DC ; Bhat is an assistant professor of law and executive director, Centre for Public Interest Law, Jindal Global Law School.]
The introduction of the 124th constitutional amendment that provides the possibility of quotas for the “economically weaker sections” (EWS) has rekindled the debate on reservations. These quotas diverge from reservation policies for the Scheduled Castes, Scheduled Tribes and other socially and educationally backward classes, by jettisoning caste or community identity as the basis of identifying beneficiary groups.
Parliament’s power to amend the Constitution is limited by the basic structure doctrine, according to which no law can violate the Constitution’s essential features. In order to meet the established constitutional parameters, the conceptualisation and implementation of EWS reservations must satisfy the principle of equality and the constitutional mandate of social justice that are basic features of the Constitution.
Before the Supreme Court approved caste as the basis of defining “socially and educationally backward classes” or OBCs in 1992, caste reservations beyond SCs and STs had attracted controversy. In the Indra Sawhney case, the Court held that reservations were designed, among other things, to provide a share in power and representation to the classes, which were historically excluded from such avenues.
The key to the acceptance of a caste-based interpretation of the OBC category was the Court’s endorsement of the Mandal Commission’s argument that a low caste status represented a form of marginalisation that was so entrenched and trans-generational that it could not be dismantled by either being blind to it, or only through welfare measures. The Court’s observation that reservations are not poverty alleviation programmes should be interpreted in this light. Reservations are particularly ineffective for distributing economic benefits but more meaningful in distributing opportunities, as a matter of representation, among the marginalised classes which do not have an adequate share in governance.
These conclusions led the Court to also hold that reservation policies must be based on empirically-sound and rigorously-applied criteria of backwardness. The implementation of the EWS category must thus involve a rigorous empirical process of identifying the criteria of economic backwardness. It cannot be just about relative poverty or poverty plain and simple but must indicate compelling forms of trans-generational poverty that demand measures beyond welfare policies. Only this conceptualisation and procedure will be able to justify the requirements of equality and social justice.
The present models adopted by the Centre and state governments violate these standards. The government has not constituted any commission to conduct a rigorous empirical analysis and instead has chosen income and asset criteria by fiat. They also run into practical and conceptual problems.
Let us take the income criteria. Practically, the income criteria is unworkable owing to the difficulty in assessing personal incomes in India and the fact that only a fraction of the population pays income tax. In 2018, only 8.3 per cent of the total labour force paid income tax, which in all likelihood were employed in the organised sector. The threshold of Rs 8 lakh per annum that is being touted as the income qualification may end up including everyone but the top few percentage of the Indian population. If 95 per cent of India’s population technically fits into the category, the category has definitely not been defined in a meaningful fashion that can serve an affirmative action scheme.
The problem is not so much in the threshold of income but in determining EWS on a single axis like income or asset holding. This will be severely inadequate in identifying the sections that suffer from trans-generational economic disadvantages that place severe barriers in equal participation and opportunity. It is only for this latter class of citizens that the government can make a persuasive case of reservations above and beyond welfare measures as a matter of equality and social justice.
So, is it possible to create an index of economic indicators that adequately define EWS on these lines? The Mandal Commission’s recommendations were unprecedented in boiling down the complexity of social stratification in India into measurable indicators of social, educational and economic backwardness. Defining EWS will also be a challenging exercise, but far from being impossible provided a commission is allowed to evolve appropriate criteria and methodologies.
Some possibilities are relatively easy to start with. Rakesh Basant, an economist who was also a member of Sachar Committee, has argued that parental education has a strong impact on higher education participation, much higher than even caste or community affiliation. Other economic criteria can supplement parental education status to prepare a composite index of EWS. These could include households headed by females, applicants who belong to rural areas, individuals or households located in notified slums, whose primary income source is manual labour, and who are migrants from poorer states like UP, Bihar or West Bengal. The index can also contain disqualifications for the creamy layer — ones that exclude households which own a specified portion of land or own living quarters of specified size in cities and towns, an automobile, or have at least one family member with a group A or B job with the Central or state government.
The EWS reservations could add a desirable dimension to India’s reservation scheme. But this would depend on whether the policy is implemented scrupulously in line with the fundamental constitutional precepts.