20-04-2019 (Important News Clippings)

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20 Apr 2019
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Date:20-04-19

चुनावों में महिला मतदाताओं को अचानक तवज्जो क्यों ?

संपादकीय

1.37 अरब आबादी वाले हमारे देश में सिर्फ 66 महिला सांसद हैं, यानी 12 फीसदी के करीब। इस बार चुनावों में पुरुष उम्मीदवार 92.7% और महिला 8% से भी कम हैं। बतौर प्रोफेशन भारत में राजनीति के दंगल में सिर्फ 25% महिलाएं शामिल हैं। लेकिन क्या वजह है कि इस बार चुनाव प्रचार में महिला वोटर्स को लुभाने की खास जुगत लगाई जा रही है? मर्दों का खेल मानी जानेवाली राजनीति में महिलाओं की ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी है कि मोदी से लेकर प्रियंका तक वुमन पावर को तवज्जो दे रहे हैं। ये जताना चाह रहे हैं कि महिला शक्ति उनके लिए कितनी अहमियत रखती है। प्रियंका गांधी ने हाल ही में बड़े गर्व के साथ महिला पायलट के साथ एक तस्वीर ट्वीट की है। क्या वजह होगी कि देश की इस सशक्त महिला को यूं वुमन पावर का सहारा लेना पड़ा और 3.75 लाख फॉलोअर्स वाले अपने ट्विटर अकाउंट पर उस पायलट को जगह देनी पड़ी? पीएम भी अपने भाषणों में ‘नारी शक्ति को मेरा प्रणाम’ कहकर महिला वोटर को एक पल के लिए प्रभावित तो जरूर करते हैं।

आशय साफ है, राजनेता जानते हैं कि मुसलमान, पिछड़े या किसानों की तरह ही महिलाएं भी उनका बड़ा वोट बैंक हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में महिलाओं ने जमकर वोट भी डाले थे। देश के आधे से ज्यादा राज्यों में पुरुष से ज्यादा महिला वोटर थीं। तो पार्टियों को इतनी समझ तो हो चली है कि पुरुष भले चौराहों की गप्पों से उठकर मतदान केंद्र तक न पहुंचे, या कम पहुंचे, महिलाएं टोलियों में वोट डालने जरूर पहुंच जाएंगी। शायद यही वजह है कि अपने घोषणा-पत्र में कांग्रेस से लेकर भाजपा तक ने महिलाओं के लिए काफी वादे किए है। फिर चाहे वह राहुल के न्याय में 5 करोड़ महिलाओं को मिलने वाले 72 हजार का हिसाब हो। या फिर भाजपा के 48 पेजों के संकल्प-पत्र में 37 बार महिला शब्द का जिक्र।महिला वोटरों को टारगेट करने के पीछे क्या गुणा-भाग हो सकता है ये इस चुनावी सीजन का सबसे कठिन सवाल है। क्या राजनेता महिलाओं को आसान जरिया मानते हैं, जिन्हें थोड़े से जतन और इमोशनल अत्याचार के ओवरडोज से लुभाया जा सकता है? भावनाओं के जरिए न सिर्फ महिलाओं को मनाया जा सकता है बल्कि उसे जरिया बनाकर पुरुष वोटरों तक भी अपना चुनावी रास्ता तय किया जा सकता है। शायद यही वजह है कि महिला वोटर अचानक अहम हो चलीं हैं।


Date:20-04-19

डब्ल्यूटीओ की चिंताजनक रिपोर्ट

देविंदर शर्मा, (लेखक कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं)

आम चुनाव के इस दौर में जब खेती-किसानी के सवाल भी सामने आ रहे हैं तब इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि विश्व व्यापार संगठन यानी डब्लूटीओ यह चाह रहा है कि गेहूं, चावल, दलहन, कपास और गन्ने के खरीद मूल्यों में कटौती की जाए। अगर ऐसा हुआ तो किसानों की आफत और बढ़ सकती हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी और गन्ने जैसी फसलों के मामले में उचित एवं लाभकारी मूल्य यानी एफआरपी को घटाने को लेकर डब्लूटीओ तब दबाव डाल रहा है कि जब नीति आयोग ने यह स्वीकार किया है कि बीते दो वर्षों में किसानों की वास्तविक आय में लगभग शून्य बढ़ोतरी हुई है। चीनी पर भारत की बढ़ती सब्सिडी को देखते हुए ऑस्ट्रेलिया और ब्राजील इस मसले को डब्लूटीओ के विवाद निपटान पैनल में उठा रहे हैं जहां व्यापार संबंधी विवादों का समाधान होता है। उनके अलावा ग्वाटेमाला, यूरोपीय संघ, रूस, कोस्टारिका और थाईलैंड भी इस मामले में पक्ष बनना चाहते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो इन देशों ने भी भारत में चीनी पर दी जा रही सब्सिडी के खिलाफ मोर्चा खोलने की तैयारी कर ली है। एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि जहां डब्लूटीओ भारत में चीनी पर दी जा रही भारी सब्सिडी पर सवाल उठा रहा है वहीं गन्ना किसानों की बकाया रकम लगातार बढ़ती जा रही है। चीनी सब्सिडी पर सात देशों के साथ चर्चा का पहला दौर अप्रैल के पहले सप्ताह में शुरू भी हो गया है। इससे पहले यूरोपीय संघ, रूस, चीन, जापान, ब्राजील, कनाडा, मिस्न, कजाकिस्तान, कोरिया, थाईलैंड, ताइवान और श्रीलंका जैसे 12 देश भारतीय निर्यात पर दी जाने वाली सब्सिडी को मिली अमेरिकी चुनौती के साथ लामबंद हो गए।

भारत की निर्यात सब्सिडी में वस्तु निर्यात पर दिए जाने वाले इंसेटिव्स यानी प्रोत्साहन भी शामिल हैं। डब्लूटीओ के एग्रीमेंट ऑन सब्सिडी एंड काउंटरवेलिंग मेजर्स (एसीएसएम) का हवाला देते हुए अमेरिका ने अनुमान लगाया कि भारत निर्यात के एवज में सात अरब डॉलर की सब्सिडी दे रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार वार्ताओं में भारत निशाने पर रहा है, लेकिन भारत की सब्सिडी पर सवाल उठाने वाले देशों की बढ़ती संख्या निश्चित रूप से चिंताजनक है। इसलिए और भी, क्योंकि डब्लूटीओ के कुछ कदम भारत की दुखती रग को और ज्यादा छेड़ते हैं। डब्लूटीओ में विभिन्न देशों के रवैये के अतिरिक्त कनाडा अमेरिका के साथ मिलकर भारत से बीते कुछ वर्षों में दलहन के एमएसपी में बढ़ोतरी को लेकर सवाल उठा रहा है। इस साल 12 फरवरी को अमेरिका ने कनाडा के साथ मिलकर डब्लूटीओ की कृषि समिति में एक समन देकर भारत से पांच किस्म की दालों की कीमतों के रुख को लेकर जवाब तलब किया। पांच तरह की दालों चना, अरहर, मूंग, उड़द और मसूर को लेकर यह आरोप लगाया जा रहा है कि उनके समर्थन मूल्य को लेकर भारत ने डब्लूटीओ की परिभाषित सीमा को पार कर लिया है। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि और कृषि मंत्री ने अपने दावे में भारत पर यह आरोप लगाते हुऐ कहा कि भारत जानबूझकर सब्सिडी पर पर्दा डालकर ऐसे आंकड़े पेश कर रहा है जिनसे तस्वीर साफ नहीं होती। उनका दावा है कि दालों के लिए भारत 32 से 85 प्रतिशत तक मूल्य समर्थन दे रहा है। इस पर भारत का कहना है कि सभी किस्म की दालों के लिए उसका कुल सब्सिडी समर्थन 1.8 प्रतिशत के आसपास है और यह डब्लूटीओ की दस प्रतिशत की स्वीकार्य सीमा से काफी कम है। डब्लूटीओ प्रावधानों के अनुसार किसी भी उत्पाद के लिए समर्थन मूल्य उसके समग्र उत्पादन मूल्य के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं दिया जा सकता। समर्थन मूल्य को भी इसमें सब्सिडी माना जाता है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि मान लीजिए कि चने का कुल 500 करोड़ रुपये का उत्पादन हुआ हो तो उसके लिए किसानों को 50 करोड़ रुपये से अधिक समर्थन मूल्य नहीं दिया जा सकता। जहां अमेरिका, यूरोपीय संघ, कनाडा और अन्य देश शिकायत कर रहे हैं कि सब्सिडी का आकलन करने के लिए भारत डब्लूटीओ की पद्धति से इतर प्रक्रिया का उपयोग कर रहा है वहीं भारत की दलील है कि वास्तव में शिकायतकर्ता देश ही गलत पद्धति का इस्तेमाल कर रहे हैं। ये देश एमएसपी के आंकड़े लेकर उससे बाह्य संदर्भ मूल्य (ईएसपी) को घटा रहे हैं जिसे डब्लूटीओ ने 1986-89 के आंकड़ों पर स्थिर किया हुआ है। फिर इस घटी हुई राशि को वे किसी विशेष फसल के उत्पादन की मात्रा से गुणा कर देते हैं। इससे बहुत ही बढ़े-चढ़े आंकड़े हासिल होते हैं।

हकीकत यह है कि भारत फसल का समूचा उत्पादन ही एमएसपी पर नहीं खरीदता, बल्कि उसका एक हिस्सा ही खाद्य एवं पोषण सुरक्षा के लिए खरीदता है ताकि समाज के वंचित वर्गों की बुनियादी जरूरतें पूरी हो सकें। इसका सही तरीका यही होना चाहिए कि कुल उत्पादन से गुणा करने के बजाय उतनी ही फसल की मात्रा को गुणा किया जाए जिसे एमएसपी पर खरीदा गया हो। गेहूं और चावल के मामले में भी अमेरिका ने कई अवसरों पर भारत के आकलन को चुनौती दी है। वर्ष 2013-14 के आंकड़ों का हवाला देते हुए उसने कहा कि भारत ने वास्तव में गेहूं की 65 प्रतिशत फसल और धान की 77 प्रतिशत फसल को समर्थन मूल्य दिया, लेकिन उससे कम के आंकड़े दिए। वहीं भारत ने दावा किया कि इन दोनों फसलों के लिए एमएसपी का आंकड़ा 10 प्रतिशत की स्वीकार्य सीमा से कम ही था। डब्लूटीओ में इस आक्रामक रुख का मकसद यह है कि कृषि एवं डेयरी उत्पादों के लिए और बड़ा बाजार तलाशा जाए। यह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उसी दिन स्पष्ट कर दिया था जब उन्होंने भारतीय इस्पात और एल्युमीनियम उत्पादों को सामान्य वरीयता तंत्र यानी जीएसपी के तहत मिले फायदों पर विराम लगा दिया था। इसके जवाब में भारत ने अमेरिका के 29 उत्पादों पर आयात शुल्क बढ़ाने का एलान तो किया, लेकिन उसमें भी शिथिलता सरकार की व्यापार नीति में कमजोरी को ही जाहिर करती है। आयात शुल्क बढ़ाने की मियाद अब दो मई तक इस उम्मीद के साथ बढ़ा दी गई कि शायद अमेरिका का रवैया कुछ नरम पड़ जाए। बहरहाल डब्लूटीओ के मौजूदा विवाद में भारत की सफलता इसी पर निर्भर करेगी कि वह अमेरिका को इसी मंच पर कैसे घेर पाता है जो अपने किसानों को भारी-भरकम सब्सिडी देता है। अगर भारत ने घरेलू कृषि के हितों की रक्षा नहीं की तो देश की खाद्य सुरक्षा का दारोमदार उन्हीं किसानों के कंधों पर और बढ़ जाएगा जो पहले से ही मुश्किलों के कारण संकट में फंसे हुए हैं।