19-12-2016 (Important News Clippings)

Afeias
19 Dec 2016
A+ A-

To Download Click Here


times-of-indiaDate: 19-12-16

Tread Lightly

Tax and other enforcement authorities must not abuse big data to bring back inspector raj

Last week, the year’s second voluntary income disclosure scheme was approved by Lok Sabha and operationalised. Along with it were reports of bankers being sacked or suspended for complicity in attempts to launder unaccounted money, and an invitation to citizens to lodge anonymous complaints if they notice suspicious activity. The weeks following demonetisation have been accompanied by growing intrusiveness of the state. Big government seems to be back with a vengeance. But India’s earlier experiment in this area led to an inspector raj and created opportunities for corruption to flourish. It must not be repeated.

A legitimate expectation of demonetisation was that it would leave trails which could be used to bring tax evaders to book. This was in line with a series of steps taken over the last decade to create an audit trail in myriad areas to allow tax authorities to mine data. This is a sound way of widening the tax net. In addition to tax authorities, agencies such as the Financial Intelligence Unit processed information related to suspicious financial transactions. India was switching to a more sophisticated way of enforcing tax rules.

It is important that government now build upon a decade’s work. Threats of tax raids and allowing bureaucrats to exercise excessive power will be counterproductive. The return of an inspector raj will have a chilling effect on economic activity. It will only prolong the ongoing economic disruption. Government must send the right message to all economic agents. Legitimate economic activity ought to be encouraged and needless impediments removed. Exhorting people to use digital modes of payment is not enough. Different arms of the government should make better use of technology to do their work.


TheEconomicTimeslogoDate: 19-12-16

Passage of the Disabilities Act was only redeeming feature of this parliament session

18bgnnvboni1_660388fThe passage of the Rights of Persons with Disabilities Act, 2016 is a bright spot in an otherwise dismal parliamentary session. Nearly a decade after India signed and ratified the United Nations Convention on Rights of Persons with Disabilities, it has finally made its domestic laws compliant with the charter. Apart from meeting global commitments, the law is needed to realise the vast human potential the nation wastes at present.

Although, as per Census 2011, only 2.2% of the population has disabilities, there is general agreement that a more realistic number is 4-5% of the population, with elimination of underreporting and a broader definition now adopted in the law to embrace 21categories including autism, thalassemia and victims of acid attacks. Of those with disabilities, 64% are unemployed. In a nod to this double disability, the quota for persons with disability has been hiked to 4% both in educational institutions and government jobs. The new law, which amends an earlier law of 1995, seeks to address the discrimination that people with disabilities face in in employment, at the workplace, and in access to public spaces. It provides timelines for the building blocks that will deliver the promise of the prime minister’s Accessible India Campaign.The legislation most clearly puts the onus on the appropriate authorities to take measures that will allow persons with disabilities to exercise their constitutional rights. It makes the connection between efforts to improve the lives of those with disability and actual results on the ground. The World Bank finding identified implementation as the Achilles heel of India’s policy on persons with disability. With a new law in place that is in sync with global standards, the focus must now shift on delivering on the ground.


business-standard-hindiDate: 19-12-16

एक सत्र की बरबादी

संसद का शीतकालीन सत्र शुक्रवार को समाप्त हो गया। यह पिछले 15 साल में सबसे कम कामकाज वाला सत्र था। संसद के कामकाज में होने वाला व्यवधान अब सामान्य हो माना जाने लगा है। गत सत्र में संसद के सदस्यों ने जिस तरह का आचरण किया वह तो किसी को भी परेशान कर सकता है। सोलहवीं लोकसभा की औसत उत्पादकता जहां 92 फीसदी और राज्यसभा की 71 फीसदी रही, वहीं शीतकालीन सत्र के दौरान लोकसभा 15 फीसदी और राज्यसभा 18 फीसदी ही चली। वर्ष 2010 में भी ऐसी ही अव्यवस्था देखने को मिली थी जब तत्कालीन विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2जी घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग की थी। जाहिर है इसके लिए किसी एक दल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। राष्टï्रपति प्रणव मुखर्जी ने हाल ही में इस पर सार्वजनिक निराशा जताते हुए सांसदों से कहा था, ‘भगवान के लिए, आप लोग अपना काम कीजिए।’

इस सत्र की बात करें तो यह स्वाभाविक था कि विपक्ष विमुद्रीकरण पर एक व्यापक बहस चाहता था और सरकार को इसकी इजाजत देनी चाहिए थी। अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यकीन है कि इस कदम से देश का भला होगा (वह सदन के बाहर लगातार ऐसा कहते रहे हैं) तो उनको भाजपा के प्रबंधकों को विपक्ष से बातचीत कर एक हल निकालने देना था। ऐसा करने से सदन भी सुचारु रूप से चलता और जन प्रतिनिधियों को यह बताया भी जा सकता कि सरकार ने आखिर यह कदम क्यों उठाया। लेकिन इसके बजाय सड़कों पर और मंचों पर राजनीतिक नाटक चलते रहे। मोदी ने अपनी बेबसी जाहिर की और अनगिनत सार्वजनिक बैठकों में कहा कि विपक्ष उनको लोकसभा में बोलने नहीं दे रहा। निश्चित तौर पर विपक्ष भी समान रूप से दोषी है। पूरे सत्र को राजनीतिक उठापटक और धमकियों (राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री के निजी भ्रष्टïाचार के बारे में जानकारी होने की बात कही थी) में बेकार करने के बाद गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस नेता संसद भवन में स्थित प्रधानमंत्री के कार्यालय में उनसे मिलने गए और वहां किसानों की दिक्कतों पर बातचीत की। यहां प्रश्न यह है कि अगर दो प्रमुख विपक्षी दलों के नेता मुलाकात कर सकते हैं तो वे सदन में बहस क्यों नहीं कर सकते?
यह बात दो वजहों से देश को रास नहीं आई। पहली बात, इस नाकामी की अपनी कीमत होती है जो चुकानी पड़ती है। न केवल संसद के परिचालन में धन व्यय होता है बल्कि विधायी कामकाज में भी देरी होती है। दूसरी बात, आरोप-प्रत्यारोप का यह दौर एकतरफा संचार माध्यमों मसलन सोशल मीडिया और राजनीतिक रैलियों आदि ने लोकतांत्रिक जवाबदेही को बहुत हद तक प्रभावित किया है। जबकि यह संसद की जिम्मेदारी है। ट्वीट करने या पे्रस विज्ञप्ति जारी करने से संसदीय बहस की कमी पूरी नहीं की जा सकती है क्योंकि वहां मतदाता दोनों पक्षों की दलीलों को सुनकर अपनी राय कायम करने को आजाद होते हैं। सक्रिय लोकतंत्र को रोजमर्रा की संसदीय जवाबदेही, चुनाव की तुलना में कहीं अधिक प्रदर्शित करती है। इस तरह संसद के मौजूदा सत्र का यूं बिना किसी काम के समाप्त हो जाने के बाद सांसदों को आत्मावलोकन करना चाहिए कि वे संसद के प्रतिनिधित्व में किस कदर नाकाम रहे। अब लग रहा है कि नोटबंदी के कारण उपजी दिक्कतें आगे भी जारी रहेंगी, ऐसे में अगर सांसद अपने रुख पर दोबारा विचार नहीं करते हैं तो भविष्य में संसद ऐसे ही बाधित होती रह सकती है। देश की अर्थव्यवस्था फिलहाल ऐसी स्थिति में नहीं है कि ऐसा बोझ उठा सके। वह भी अभी जबकि चारों ओर अनिश्चितता के बादल हैं।

450x100-paperDate: 19-12-16

 नए नियमों से चलेगी संसद

संसद गतिरोध से बाहर नहीं निकल सकी और इसकी वही चिर परिचित वजह रही कि विमुद्रीकरण पर बहस वोटिंग वाले नियम के तहत हो या वोटिंग के बिना। बहुत से राजनीतिक दल बहस शुरू होने के पहले ही यह बात सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि इस दौरान वोटिंग जरूर हो, क्योंकि ऐसा होने से उन्हें सरकार को शर्मिदा करने का अवसर मिल सकता है। इसी तरह सरकार ने भी दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वह वोटिंग के प्रस्ताव पर चर्चा के लिए तैयार नहीं होगी। दोनों ही पक्ष अपनी अपनी जिद पर अड़े रहे और शीत सत्र समाप्त हो गया। क्यों दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरियत इस छोटे से मुद्दे पर फंसी

रही कि संसदीय चर्चा का एजेंडा कैसे निर्धारित किया जाए और उस चर्चा का तौर-तरीका कैसा हो? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। हकीकत यह है कि भारतीय संसद ब्रिटिश काल के ढांचे की तर्ज पर काम कर रही है। उसके कायदे-कानून 19वीं शताब्दी के यूनाइटेड किंगडम से लिए गए हैं। इनमें से बहुत को तो खुद यूके ने भी नकार दिया है।

दूसरे लोकतंत्रों, जिसमें ब्रिटेन और अमेरिका शामिल हैं, ने महत्वपूर्ण रूप से अपनी विधायी संरचना में सुधार किए हैं। ये सुधार हमारे लिए शिक्षाप्रद हो सकते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है उच्च सदन में किए गए सुधार। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय संसद का एजेंडा निर्धारित करने का सर्वमान्य नियम नहीं है, बल्कि यह सहमति और विवेक के आधार पर तय होता है। हालांकि अविश्वास प्रस्ताव के मामले में नियम थोड़े स्पष्ट हैं, जिसके मुताबिक अगर कम से कम 50 सांसद यह प्रस्ताव लाना चाहते हैं तो उन्हें यह लिखित रूप में देना होता है। बाकी तमाम तरह के एजेंडे के लिए स्पीकर के विवेक का ही सहारा लिया जाता है, जिसका सीधा मतलब होता है कि इस पर बिजनेस एडवाइजरी कमेटी (बीएसी), जो सभी दलों के वरिष्ठ नेताओं की एक समिति होती है, की आम सहमति ली जाती है। इसी परंपरा को निभाते-निभाते कई दशक बीत गए और हमारी निर्भरता आम सहमति पर बढ़ती ही चली गई और वैसे भी यदि बीएसी के सदस्यों में आपसी सहमति नहीं बनती है और इन परिस्थितियों में स्पीकर अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल कर कोई फैसला थोपता है तो उससे विवाद बढ़ता ही है।

लोकसभा में नियम 184 के तहत वोट के साथ चर्चा और नियम 193 के तहत बिना वोट के चर्चा का प्रावधान है, जबकि इन दोनों ही नियमों का इस्तेमाल किस स्थिति में किया जाए, इस बात के लिए कोई स्पष्ट नियम नहीं हैं और हमें घूम-फिर कर यह फैसला बीएसी की आम सहमति पर ही छोड़ना पड़ता है। संसद में सरकार और विपक्ष के बीच आम सहमति बनने का यह नियम शायद 19वीं या 20वीं शताब्दी में कारगर था, लेकिन आज के दौर में यह एकदम अव्यावहारिक है। हमने वेस्टमिंस्टर पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी को जिस वक्त अपनाया था उस वक्त कुछ और ही आलम था। तब देश की जनसंख्या काफी कम और संसद में गिनी-चुनी पार्टियां थीं। यहां तक कि आज भी यूके के हाउस ऑफ कॉमंस में हमारी लोकसभा (जहां 36 पार्टियां हैं) के मुकाबले काफी कम पार्टियां हैं, लेकिन उनके यहां और हमारे यहां संसद में पार्टियों की तादाद कितनी है, इससे बड़ा तथ्य यह है कि आधुनिक लोकतंत्र में नियम काफी सख्त और सिस्टम पर आधारित हैं जिसमें सहमति या विवेक पर आधारित निर्णय की गुंजाइश बहुत कम बचती है। ये नियम हर तरह की चर्चा को, चाहे वह वोटिंग के आधार पर हो या नॉन वोटिंग के आधार पर, एक धरातल पर लाने में कामयाब होते हैं। आज के दौर में हमारी संसद को भी इसी तरह के नियम बनाने चाहिए। सबसे पहले वोटिंग और नॉन वोटिंग चर्चा के लिए दो गैरविवेकाधीन नियम पेश किए जाने चाहिए। अगर 50 सांसदों के हस्ताक्षर हों तो नॉन वोटिंग चर्चा हो और अगर 100 के हस्ताक्षर हों तो वोटिंग वाले नियम के तहत चर्चा होनी चाहिए। इस तरह का नियम बनाने से हम आम सहमति जैसे अव्यावहारिक फामरूले पर भरोसा करने के बजाय स्पष्ट तौर पर एजेंडा निर्धारित कर सकते हैं।

तीसरी बात यह कि अविश्वास प्रस्ताव पारित करने के लिए हस्ताक्षर करने वाले सांसदों की संख्या 50 से बढ़ाकर 150 कर देनी चाहिए, क्योंकि यह कोई साधारण प्रस्ताव नहीं होता और इसे पारित करने के लिए लोकसभा के 543 सदस्यों में से 272 की सहमति प्राप्त होनी चाहिए। ये तीन नियम बहुत से जरूरी मुद्दों पर चर्चा को एक अन्य स्तर की ऊंचाई पर ले जाने की क्षमता रखते हैं। दो और गैरविवेकाधीन नियम संसद का काम सुचारु रूप से चलाने और इसे विश्वस्तरीय बनाने की दिशा में कारगर साबित हो सकते हैं। इसके लिए जिस चौथे सुधार की जरूरत है उसके तहत संसद के हर सत्र में कुछ दिन विपक्ष की पसंद के मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए। यह नियम हाल में ब्रिटेन ने भी अपनाया है। सभी विपक्षी सांसदों के एक समूह को ऐसे दिनों के चुनाव के लिए एजेंडा निर्धारित करना चाहिए। अंतत: संसद में हंगामा करने वाले सांसदों को अनुशासित करने या उन पर कार्रवाई के लिए नियम स्पीकर के विवेक के बजाय लिखित में होने चाहिए, क्योकि स्पीकर के पास हंगामा करने वाले सांसदों को संसद से बाहर निकालने का विशेषाधिकार प्राप्त होने और अच्छे व्यवहार को लेकर बहुत से सर्वदलीय प्रस्ताव होने के बाद भी जब स्पीकर सचमुच इसका इस्तेमाल करते हैं तब उन्हें सांसदों की आलोचना का शिकार होना पड़ता है।

फुटबॉल खेल की तरह साधारण और स्पष्ट नियम बनाने से बात बन सकती है, जिसके मुताबिक यदि सांसद एक बार हंगामा करे तो एक दिन के लिए तथा दूसरी बार हंगामा करने पर पूरे सत्र से स्वत: ही बाहर कर दिया जाए। इससे संसद की गरिमा लंबे समय तक बनी रहेगी। यह नियम तो पहले से ही कई राज्य विधानसभाओं में अवरोधों को हल करने के तरीके के रूप में रखा जा चुका है और कुछ पीठासीन अधिकारियों ने इसका पक्ष भी लिया है। इस नियम को लागू करने से अध्यक्ष शर्मिदगी से भी बच जाएंगे और अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल दूसरे मुद्दों को हल करने में कर पाएंगे। बिना इन परिवर्तनों को लाए हुए विपक्षी दलों से केवल उम्मीद ही की जा सकती है कि वे आने वाले समय में अगर कानूनन अपना पक्ष रखने में कामयाब न हुए तो हंगामा नहीं करेंगे और ऐसे में स्वाभाविक है कि जिस पार्टी की सरकार है वह नियमित तौर पर बीएसी में किसी भी चुनौतीपूर्ण मुद्दे पर आम सहमति की प्रक्रिया से इंकार करेगी और कम विवादस्पद मुद्दों को ही उठाएगी। जब तक हम इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर लेते कि पुराने पड़ चुके आम सहमति पर आधारित नियमों को बदलने की जरूरत है तब तक हम इसी हंगामे के चक्र में गोल-गोल घूमते रहेंगे और बार-बार संसद बाधित होती रहेगी।

[लेखक जय पांडा लोकसभा में बीजद के सांसद हैं और यह उनके निजी विचार हैं]


ie-logoDate: 17-12-16

Assam’s identity brew

While all regions welcomed the move, opposition grew in Assam — on the premise that Hindus from Bangladesh who came thus would obliterate the culture of local indigenous communities.

opA Rohingya boy looks on as another boy makes a kite in Leda unregistered Rohingya Refugee Camp in Cox’s BazarHome Minister Rajnath Singh introduced the Citizenship (Amendment) Bill 2016 in Parliament in July this year; it seeks to give citizenship by naturalisation to immigrants from Pakistan, Bangladesh and Afghanistan belonging to the Hindu, Sikh, Buddhist, Jain, Parsi and Cimmihristian communities, facing religious persecution and coming to India before December 31, 2014. Such people would be living illegally in the current context of the provisions of the Passport (Entry into India) Act 1920 and the Foreigners Act 1946.

However, while all regions welcomed the move, opposition grew in Assam — on the premise that Hindus from Bangladesh who came thus would obliterate the culture of local indigenous communities. Many of these protests smack of vested interests which have always derailed peace in the state. Several political entities, activists and perennial “student leaders” have been blowing the issue out of context, trying to mislead the public on the applicability of the bill and its actual impact.

Former CMs Tarun Gogoi and Prafulla Mahanta, who are opposing the bill, miserably failed in their long tenures to implement the Assam accord signed in 1985 — but they are trying to take refuge in this now. Their failure was a calculated design to ignore the issue while in power. It also reflected both poor capacity to send back illegal immigrants and votebank considerations. Thus, ration cards were rampantly garnered by many and over three decades, such arrivals mingled in the state. From six such districts in 2001’s census, there are now nine Muslim-majority districts in Assam as per 2011’s census. The number of Hindus has come down in those districts. Also, as informed by MoS, home affairs, Kiren Rijiju in Parliament, there are about two crore illegal Bangladeshis in India.

The Modi government took the call in August to set up a Joint Parliamentary Committee (JPC) on the bill; this is chaired by Lok Sabha MP Satyapal Singh, a reputed police officer earlier. This committee’s term has been extended till the end of the budget session next year. The committee is doing a meticulous job of examining all the issues closely, with many interest groups. It will offer suggestions that make certain provisions more relevant and implementable, and also hopefully touch on other provisions to fine-tune the bill’s details.

The bill proposes to reduce the number of years, from 11 to six of the last 14, required to live in India to obtain citizenship by naturalisation. This could be further relaxed as persecuted people from the six religions and three countries would have nowhere to go. Also, the amendment of section 6A of the current act would be of paramount importance, so these communities are exempted from its provisions, the term “Bangladesh” being in Section 6A. Further, as the current National Registrar of Citizens (NRC) update is underway in Assam and requires documents to be provided as proof for oneself and one’s ancestors’ citizenship prior to March 25, 1971, in the context of the proposed bill, the same provisions become irrelevant for migrants from these six religions. They should be exempted. Much harassment has already happened with many Bengali Hindus, categorised as “doubtful” for no fault of theirs.

A few arguments are being offered regarding the validity of the bill in the context of reasonable classification under Article 14 of the Constitution, which grants the right to equality by attempting to cover the six minorities from the three countries. But, as the whole issue goes back to the days and basis of Partition, persecuted minorities have to be taken care of on humanitarian grounds. Till date, religious violence continues in the three countries — the recent burning of temples and killings of Hindus in Bangladesh are clear indications of the prevailing situation.

A few quarters have also suggested a separate state for the Barak valley in Assam: That will aggravate problems as many demands will ignite again and create serious law and order issues. The greater Assamese society must prevail now to cover the current ethnic spread across the two valleys — Brahmaputra and Barak — and the hills, so that Assam remains united.

While the bill should be passed at the soonest, the Satyapal Singh-led committee and the government must reach out to various groups, understand the rationale behind their opposition and explain how the legislation benefits Assam and sets right the situation created by the almost non-implementation of the Assam accord. That the cut-off date is already notified and henceforth, no more foreigners will be allowed, should motivate every group to work together to ensure foolproof measures are taken to prevent illegal migrants from entering Assam.

Border-fencing and technology to detect suspect movements should be implemented in a time-bound manner. Equally important is proper documentation for citizens and persecuted minorities who will wait for their turn to apply for citizenship as soon as the time period is satisfied as per the amended act’s provisions. Assam can move forward, instead of remaining a burning state with misplaced political issues.

Subimal Bhattacharjee


rastriyasaharalogoDate: 17-12-16

वैधानिक चुनौतियां

आठ नवम्बर, 2016 स्वतंत्र भारत के इतिहास का एक युगांतकारी दिन जब भारत ने अपनी करंसी के विमुद्रीकरण का साहसी फैसला करते हुए नकदीरहित डिजिटल अर्थव्यवस्था की ओर एक बड़ा डग भरा। यह सही दिशा में उठाया गया कदम है। देश को डिजिटल अर्थव्यवस्था में तब्दील करने की दिशा में आगे बढ़ते में चार प्रमुख चुनौतियां दरपेश हैं। सबसे बड़ी तो यह कि भारत में डिजिटल तथा मोबाइल भुगतान के लिए अलग से कोईकानून नहीं है। इसके चलते इस प्रकार के भुगतानों को लेकर तमाम संशय उभर आए हैं। ऐसे समय जब भारतीय दिनोंदिन मोबाइल का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं, जरूरी हो गया है कि मोबाइल फोन के जरिए होने वाले भुगतानों की वैधता को लेकर उठने वाले संदेहों को दूर किया जाए। यदि देश को डिजिटल युग में ले जाना है, तो हमें न केवल वैधानिक ढांचे पर ध्यान देना होगा बल्कि उन उपभोक्ताओं की आशा-अपेक्षाओं का भी समाधान करना होगा जो डिजिटल नकदीरहित अर्थव्यवस्था में बढ़ कर शिरकत कर रहे होंगे। भारतीय साइबर कानून में मोबाइल से होने वाले भुगतानोंके बारे में कुछनहीं कहा गया है।

बस इतना भर हुआ कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) अधिनियम, 1935 में संशोधन किया गया जिससे आरबीआईको कुछ अधिकार मिल गए ताकि वह इलेक्ट्रॉनिक तंत्र के कुछेक पहलुओं पर गौर कर सके। अलबत्ता, मोबाइल फोन के जरिए भुगतान का कोईवैधानिक ढांचा नदारद रहा। दूसरी चुनौती यह है कि एक राष्ट्र के रूप में भारत में साइबर सुरक्षा को लेकर कोईप्रभावी काम नहीं हुआ है। साइबर सुरक्षा की बाबत अलग से कोईकानून देश में नहीं है। सूचना तकनीक अधिनियम, 2000 साइबर सुरक्षा कानून नहीं है। सूचना तकनीक अधिनियम के उद्देश्यों पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि इस कानून में देश में इलेक्ट्रॉनिक ढांचे को वैधता प्रदान करने की मंशा है। सरकारी एजेंसियों में इलेक्ट्रॉनिक रूप में दस्तावेज भेजना सुनिश्चित करना इसका उद्देश्य है। साथ ही, देश के चार विभिन्न कानूनों-इंडियन पीनल कोड, इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872, बैंकर्स बुक्स एविडेंस एक्ट तथा भारतीय रिजर्व बैंक एक्ट-में संशोधन करना था। जब सूचना तकनीक अधिनियम, 2000 में 2008 में संशोधन किया गया तब इसमें साइबर सुरक्षा की परिभाषा जरूर शामिल की गई। नाम के लिए साइबर सुरक्षा संबंधी कुछप्रावधान इसमें जोड़े गए। अलबत्ता, 2016 की जमीनी वास्तविकताएं वर्ष 2008 की तुलना में नाटकीय रूप से भिन्न हैं।

सरकार की नीति में साइबर सुरक्षा को केंद्रीय महत्त्व मिलना जरूरी है। जरूरी है कि वैधानिक ढांचे में अलग से व्यवस्था हो जिससे कि साइबर सुरक्षा संबंधी विभिन्न उल्लंघन को उसी प्रकार से अपराधों में शुमार किया जा सके जैसा कि नागरिक उल्लंघन अपराधों में शुमार की जाते हैं। इसके अलावा, इस ढांचे में साइबर सुरक्षा को लेकर डिजिटल और मोबाइल तंत्र अधिकार, कर्त्तव्य और दायित्वों को परिभाषित किया जाना चाहिए। भारत सरकार ने 2013 में नेशनल साइबर सिक्यूरिटी पॉलिसी बनाई। लेकिन यह नीति तमाम ड़ी-बड़ी बातों के बावजूद मात्र कागजी दस्तावेज साबित हुई। हम इस नीति के कारगर क्रियान्वयन में सफल नहीं हो सके। इन नीति में वर्ष 2013 में कहा गया था कि भारत को हर साल पांच लाख साइबर सुरक्षा संबंधी पेशेवरों की जरूरत होगी। अब यह विचार उभरा है कि भारत को हर साल ऐसे दस लाख पेशेवरों की जरूरत होगी। बहरहाल, इतना स्पष्ट है कि आज के परिदृश्य में भारत को इससे कहीं अधिक पेशेवरों की दरकार होगी। अक्टूबर, 2016 में भारत को एटीएम काडरे के मामले साइबर सुरक्षा के लिहाज से एक बड़ी उल्लंघना देखने को मिली। डिजिटल तंत्र में सभी पक्षों को यह तय स्वीकारना होगा कि साइबर सुरक्षा को लेकर उल्लंघनाएं होती रहेंगी। अच्छा यही रहेगा कि इस तय को जितना जल्दी हो स्वीकार करके साइबर लचीलेपन की दिशा में तत्पर हुआ जाए ताकि कामकाजी सहजता की स्थिति की ओर लौटा जा सके।

तीसरी बड़ी बात यह है कि भारत में साइबर अपराध बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि विमुद्रीकरण के बाद बीते कुछसप्ताहों में साइबर अपराध की घटनाओं में खासी बढ़ोतरी हुईहै। साइबर अपराधी श्रृंखला की सबसे मजबूत कड़ी के बजाय सबसे कमजोर कड़ी को निशाना बनाते हैं। 2008 में किए संशोधनों से कुछेक को छोड़ कर करीब-करीब सभी साइबर अपराधों को जमानत योग्य बना दिया गया है। इससे अभियोजन की साइबर अपराधों के लिए दंड दिलाने की क्षमता पर सीधे असर पड़ा है। नतीजतन, 2008 के संशोधनों के बाद से सजा दिए जाने के मामलों में खासी कमी आईहै। सूचना तकनीक एक्ट, 2000 ने पहले ही दोष निवारण की सूरत नहीं छोड़ी थी, और 2008 के संशोधनों के बाद से तो सूचना तकनीक एक्ट, 2008 साइबर अपराधियों के मुफीद कानून बनकर रह गया है। जरूरी हो गया है कि साइबर अपराधों को मौजूदा कानून के तहत व्यापक आधार दिया जाए ताकि दंड सुनिश्चित हो सके। जरूरी है कि सूचना तकनीक अधिनियम, 2000 के तहत साइबर अपराधों संबंधी प्रावधानों में संशोधन किए जाएं। तकनीक के उन्नत होने के कारण हमें भारत के साइबर कानून में संशोधन करने की दरकार है ताकि यह प्रासंगिक हो सके। भारत के लिए जरूरी हो गया है कि शुतुरमुर्ग की भांति आचरण न करे।

साइबर सुरक्षा के समक्ष बड़ी चुनौतियों को समझे और इनसे पार पाने के लिए जरूरी और महत्त्वपूर्ण उपाय करे। हमारे लिए जरूरी हो गया है कि भारतीय समाज में साइबर सुरक्षा को जीवन के आवश्यक अंग के तौर पर माना जाए। साइबर सुरक्षा को केवल सरकार का दायित्व मान लेने से बात नहीं बनेगी। ऐसी सोच ही दोषपूर्ण होगी। साइबर सुरक्षा हर किसी की सामूहिक जिम्मेदारी है। और हर किसी को इसके लिए सहयोग करना चाहिए।

पवन दुग्गल(लेखक साइबर मामलों के विशेषज्ञ हैं)


Date: 17-12-16

सेंधमारी के खतरे

151228-online-fraud-hacking-415p_1f4a69829f4841f440828b3b86d4a071-nbcnews-ux-2880-1000दुनिया जैसे-जैसे अपने कामकाज के लिए कंप्यूटर-मोबाइल के जरिये साइबर स्पेस पर निर्भर हो रही है, वैसे-वैसे उसमें सेंधमारी का खतरा भी बढ़ रहा है। असल में मामला तू डाल-डाल, मैं पात-पात वाला बन गया है। यानी एक तरह कंप्यूटर-इंटरनेट से संबंधित तमाम तरह के उत्पाद बनाने वाली कंपनियां और उनके ग्राहक (आम लोगों से लेकर बड़ी-बड़ी कंपनियां और सरकारें) और ईमेल, वेबसाइटों और इंटरनेट से संचालित होने वाली सेवाएं हैं तो दूसरी तरफ उन उत्पादों व सेवाओं की सुरक्षा में सेंध लगाने वाले बेहद चतुर हैकर हैं, जो सुरक्षा के हर प्रबंध को धता बताने के लिए तैयार बैठे हैं। हाल में, कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी और खुद कांग्रेस पार्टी का ट्विटर हैंडल (अकाउंट) हैक कर लिया गया। इसके बाद कई जाने-माने पत्रकारों के अकाउंट भी हैक किए हैं।

इन घटनाओं के पीछे मौजूद हैकर छिपा नहीं रहा। पांच देशों में मौजूद हैकर समूह ‘‘लीजन’ ने इसकी जिम्मेदारी ली और दावा किया कि भारतीय संसद और भारतीय बैंकिंग सिस्टम उसके निशाने पर है। हैकिंग की इन घटनाओं को कंप्यूटर वायरस जैसी समस्या मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है और न ही उन प्रबंधों के भरोसे बैठा जा सकता है, जो फिलहाल देश के साइबर सुरक्षा के लिए तैनात है। यह सिस्टम अगर इतना ही मजबूत होता तो कुछ ही समय पहले एक बड़े सरकारी बैंक के करीब 6 लाख डेबिट कार्ड की हैकिंग न होती और नेताओं-पत्रकारों के ट्विटर हैंडल ठप कर दिए गए होते।

आंकड़ा है कि देश में इस साल अक्टूबर तक लगभग 15 हजार सरकारी वेबसाइटों को हैक किया जा चुका है। इधर, जब सरकार कोशिश कर रही है कि देश में डिजिटल लेन-देन का माहौल बने, तो सूचना यह भी आ चुकी है कि पिछले कुछ ही महीनों में साइबर अपराधी एटीएम-डेबिट कार्ड का डाटा हैक करके 19 बैकों के ग्राहकों को करोड़ों का चूना लगा चुके हैं।

हालांकि, नियंतण्र पैमानों पर यह घटना छोटी कही जाएगी, क्योंकि अमेरिका से प्रकाशित ‘‘द निल्सन रिपोर्ट’ के अक्टूबर 2016 के अंक के मुताबिक एटीएम-डेबिट, क्रेडिट एवं प्री-पेड भुगतान काडरे से जुड़ी धोखाधड़ी की वारदात में फंसी राशि 21.84 अरब डॉलर के स्तर तक पहुंच चुकी है। लेकिन यह देखते हुए कि इस समय सरकार का पूरा फोकस देश में डिजिटल लेन-देन की व्यवस्था बनाने पर है, छोटी घटनाएं भी उपभोक्ता का इस सिस्टम से भरोसा डिगा सकती हैं। खास तौर से यह तय बेचैन करने वाला है कि अब लोगों को मोबाइल के जरिए भुगतान के लिए प्रेरित किया जा रहा है, पर एंड्रॉयड आधारित मोबाइल हैकिंग के सबसे आसान शिकार हो सकते हैं। सिक्योरिटी कंपनी ‘‘चेकप्वाइंट सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी’ के शोधकर्ताओं ने दुनिया भर के 90 करोड़ एंड्रॉयड आधारित स्मार्ट फोनधारकों को चेताया है कि हो सकता है कि वे किसी हैकिंग के शिकार हो जाएं; क्योंकि हैकर किसी भी फोन को अपने कब्जे में ले सकते हैं और फोन के सारे डाटा को निकाल सकते हैं। ऐसी स्थिति में उनके निजी आंकड़ों, फोटो के अलावा वित्तीय, खास तौर से बैंकिंग कामकाज प्रभावित हो सकता है।

यहां तक कि उनके बैंक खातों में जमा पैसा भी अनजान खातों में ट्रांसफर हो सकता है। जिस तरह से इसी साल अंतरराष्ट्रीय हैकरों के एक गिरोह ने देश के तीन बैंकों और एक फार्मा कंपनी के कंप्यूटरों को अपने कब्जे में लेकर (हैक करके) उन्हें डीफ्रीज (वापस कामकाजी हालत में लौटाने) के बदले लाखों डॉलर वसूले हैं, वह अपने आप में एक बड़ी चेतावनी है। दावा है कि उन्होंने प्रति कंप्यूटर एक बिटकॉइन (लगभग 30 हजार रुपये) लिये थे। समस्या की विकटता का एक अंदाजा पिछले साल लगा था, जब देश के बैंकों के एटीएम को निशाने पर लेने वाले एक गिरोह का भंडाफोड़ हुआ था और उसके नौ हैकरों की गिरफ्तारी की गई थी। पता चला था कि यूक्रेन और रूसी हैकर्स से ऑनलाइन ट्रेनिंग पाकर हैकरों के गिरोह ने अलग-अलग बैंकों के एटीएम से दो महीने के भीतर करोड़ों रु पये निकाल लिये थे और इसकी किसी को कानोंकान खबर तक नहीं हुई। इस वर्ष बांग्लादेश के सेंट्रल बैंक से 81 मिलियन डॉलर यानी करीब 550 करोड़ रु पये के बराबर रकम पर साइबर हैकरों ने हाथ साफ कर दिए थे। इसका खुलासा होने में ही एक महीने से ज्यादा का वक्त लग गया। आज कोई देश यह दावा नहीं कर सकता कि उसकी जमीन से हैकिंग की कोई गतिविधि नहीं चल सकती है।

अभिषेक कुमार


Subscribe Our Newsletter