27-06-2016 (Important News Clippings)

Afeias
27 Jun 2016
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Date: 27-06-16

Cut systemic demand to curb black money

The government has done well to launch a publicity campaign to motivate Indians with hidden assets in the country to come clean. People should make use of the Income Declaration Scheme 2016, which allows them to pay tax, surcharge and penalty adding up to 45% on their past undisclosed income or face dire consequences. Informing and guiding taxpayers makes sense, but the tax administration must also ensure that the rights of the declarants are protected.

Its earlier scheme offering amnesty to those with undisclosed assets overseas failed mainly due to the lack of trust on penalties after coming clean on concealed incomes. Bridging the trust deficit holds the key to the success of the ongoing scheme.

The primary challenge is to end the systemic demand for black money in India. Most economic agents need a war chest of black money to pay off ‘the system’.

First make political funding transparent and legitimate. Most political parties show only a sliver of the money that they spend as their income, and mop up huge amounts of money by the sale of patronage and loot of the exchequer.

The practice of collecting poll funds largely through unaccounted contributions forces businesses to generate black money. Collusion of civil servants in selling patronage, looting the exchequer and extortion corrupts them as well.

All parties should compulsorily declare their monthly expenses, which must be open to challenge and vetted by the Election Commission, starting from the local to the national level.

They should then show their source of income — both disaggregated and combined, putting an end to off-the-book transactions. A concurrent reform is to adopt a comprehensive goods and services tax that creates multiple audit trails. This is the systemic route to combating black money.


Times of India

Date: 27-06-16

Great China wall:

Chinese obstructionism at NSG meet necessitates tough love diplomacy from India

By openly opposing India’s application to join the Nuclear Suppliers Group (NSG), China has shown its hand. As India sheds shibboleths of the past, Beijing is behind the curve and appears determined to block a rising India. Although several other countries like Austria, Brazil, Ireland, New Zealand, Switzerland and Turkey at the NSG’s annual plenary session in Seoul also raised questions about the process to be followed for admitting India, as an MEA spokesperson explained, “it is self-evident that process issues would not arise if these countries were actually opposed to our participation”. The great wall of resistance raised by China was qualitatively different. It spent the first half of the NSG meeting trying to prevent the India discussion from even taking place.

China’s hardball came close on the heels of President Xi Jinping calling China and Pakistan “iron brothers”. President Pranab Mukherjee’s request to Xi for his “personal intervention” on the NSG issue, foreign secretary S Jaishankar’s visit to Beijing and Prime Minister Narendra Modi’s personal appeal to the Chinese President at Tashkent all failed to cut much ice.

It’s possible that Beijing can still be persuaded and is merely resorting to delaying tactics. But if further persuasion fails, New Delhi must not hesitate to look the gathering evidence in the eye. China is not really interested in doing business with India, but would much rather place all its South Asian eggs in the Pakistan basket. That calls for a recalibration of New Delhi’s diplomacy and a rethink on its China strategy. If Beijing is playing power games, then India must respond with some of its own.

First, it must reconsider its cooperation with China in other international fora like climate change and WTO where they have both often acted in unison. Second, it could take a harder line on the South China Sea dispute. Third, India should strengthen its links with Taiwan (with which, after all, China itself does a lot of business). Fourth and most importantly, Delhi must reconsider its trade relationship with Beijing. China is India’s largest trade partner, with bilateral trade worth over $70 billion in 2015. With trade balances favouring China enormously, India doesn’t have much to lose from a possible trade war. It is important not to over-react, but equally India needs to creatively use all the options in its toolkit.


RastriyaSaharalogo

Date: 26-06-16

कुपढ़ से अनपढ़ भले

गिरीश्वर मिश्र

लोग बुद्धि और कुशलता में अलग-अलग तरह के होते हैं। किंतु स्कूल उन्हें एक मान लेता है और उसी खांचे में फिट करता है। शायद यही कारण है कि विश्व के अनेक प्रख्यात विद्वान, लेखक और वैज्ञानिक स्कूली जीवन में असफल रहे थे। स्कूल का लक्ष्य क्या हो और स्कूल किनके लिए हो यह एक कठिन प्रश्न हो गया है

स्कूल का मतलब होता है पढ़ाई और जो स्कूल न जाय वह अनपढ़ कहा जाता है। इसलिए स्कूल जाना जरूरी है। आज कई तरह के स्कूल खुल गए हैं और वे किस्म किस्म के वादे करते फिरते हैं। स्कूल अपने आगोश में ले कर बच्चे के दिमाग के साथ क्या करता है? और गैर स्कूली अर्थात अनपढ़ का दिमाग कैसा होता है? वह क्या कर सकता है? ये कुछ बेहद जरूरी और बुनियादी सवाल हो गए हैं क्योंकि हम स्कूल जाने को सार्वभौम बनाकर सामाजिक-आर्थिक क्रांति लाना चाहते हैं। भारत वाचिक परम्परा वाला देश रहा है और ज्ञान की धारा मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रही है। शायद इसीलिए लोग सूत्र शैली में ज्ञान को सुरक्षित करते थे और पढ़ कर भाष्य करते थे। इसके प्रमाण हैं कि अंग्रेजों के आगमन के समय पढ़ाई-लिखाई की अच्छी व्यवस्था थी, शायद ब्रिटेन से ज्यादा विद्यालय थे। जो लोग अनपढ़ वे भी शिक्षित थे पर आजकल स्कूल से निकलने वाले कैसे और कितने शिक्षित होते हैं, इसे लेकर लोगों के मन में दुविधाएं बढ़ रही हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था की जमीन पर जो अंग्रेजी शिक्षा का जो बिरवा रोपा गया और पौध लगी उसके परिणाम कई दृष्टियों से नुकसानदेह साबित हुए। स्कूल पर से और उसकी परीक्षा पण्राली से भरोसा उठ रहा है। हम इस विास के साथ यात्रा शुरू किए थे कि स्कूली शिक्षा अच्छे नागरिक पैदा करेगी जो उन आवश्यक गुणों से मंडित होंगे जो प्रजातंत्र की सफलता के लिए जरूरी हैं। इस मंसूबे के पीछे की पवित्र भावना को लेकर किसी के मन में कोई संदेह नहीं है। पर, जिस तरह के स्कूल आज हैं और जो कुछ और जिस ढंग से पढ़ा-लिखा रहे हैं उसे लेकर लोगों के मन में आशंकाएं घर करने लगी हैं।मनुष्य को मस्तिष्क के रूप में एक नायाब उपकरण का तोहफा प्रकृतिप्रदत्त है। उस जन्मजात उपकरण की विशेषता है कि वह अपने अनुभव से खुद भी रचा जाता रहता है। साथ ही वह रचने वाले को भी रचता रहता है। उदाहरण के लिए यदि सामान्य रूप से शारीरिक विकास हुआ हो, बीमारी या कुपोषण न हो तो चीनी, जापानी या हिन्दी बोलने वाले परिवारों में उस उस भाषा को सीखने के लिए बच्चे यथासमय तैयार रहते हैं और अपने परिवेश से भाषा को स्वत: ग्रहण कर आत्मसात भी कर लेते हैं। आगे चल कर उसी के हिसाब से वे और सब कुशलताएं सीखते हैं। बच्चे को जैसा बना दें बन जाएगा और जैसा बनेगा वैसा ही करने लगेगा। मजे की बात यह है बच्चा वहीं तक सीमित नहीं रहता वह उसका भी अतिक्रमण करता है। वह दूसरी नई भाषा और नए कौशल भी वह अर्जित करता चलता है। उसकी यह सुनम्यता अद्भुत होती है और उसकी कोई सीमा नहीं होती। स्कूल की संस्था समाज की आवश्यकता के अनुसार कुछ चुने हुए ज्ञान और कौशल को पाने का एजेंडा तय करती है। वह व्यक्ति को अनुशासन में रख कर एक सामान्य प्रौढ़ जीवन के लिए तैयार करती है। भारत में ‘‘तथागत’ नामक प्रतिभाशाली किशोर और हाल ही में अमेरिका में किसी भारतीय मूल के एक किशोर को 18 साल में मेडिकल की पढाई पूरी करने की बात हो रही है। कैलीफोर्निया विविद्यालय द्वारा यह छूट दी जा रही है। पढ़ाई कब शुरू हो और कब कौन परीक्षा किस आयु में दे सकता है यह सब तयशुदा है। लोग बुद्धि और कुशलता में अलग-अलग तरह के होते हैं। किंतु स्कूल उन्हें एक मान लेता है और उसी खांचे में फिट करता है। शायद यही कारण है कि विश्व के अनेक प्रख्यात विद्वान, लेखक और वैज्ञानिक स्कूली जीवन में असफल रहे थे। स्कूल का लक्ष्य क्या हो और स्कूल किनके लिए हो यह एक कठिन प्रश्न हो गया है। स्कूल क्या करे इस सवाल का उत्तर पाने के लिए यह जानना जरूरी है कि स्कूल की दहलीज पर पहुंच रहा मानस कैसा होता है। यह सवाल हार्वड के प्रख्यात शिक्षाविद होवार्ड गार्डनर ने ‘‘दि अनस्कूल्ड माइंड’ नामक पुस्तक में उठाया था। गार्डनर इस बात की वकालत करते रहे हैं कि बुद्धि के अनेक आयाम हैं। वह बुद्धि की बहुलता में विास करते हैं। कोई नृत्य में तो कोई बांसुरी बजाने में, तो कोई विज्ञान, तो कोई वास्तुविद्या की योग्यता रख सकता है। कोई सामाजिक बुद्धि की दृष्टि से भी श्रेष्ठ हो सकता है। योग्यता के अनेक रूप होते हैं। इस बात के प्रमाण हम जिंदगी में हमेशा पाते रहते हैं। स्कूल का दायित्व बनता है कि वह बुद्धि की एकांगी दृष्टि से बचें और इन भिन्न प्रकार की मानस शक्तियों को विकसित करने का अवसर प्रदान करे। एकांगी हो कर वे कुपढ़ ही होंगे और उनसे तो अपढ़ ही भले।


Date: 26-06-16

उन्नति की ओर या गुनाह बेलज्जत

रक्षा, बीमा, पेंशन, खाद्य प्रसंस्करण, मल्टी ब्रांड, विमानन, दवा, ई कॉमर्स इत्यादि अनेक क्षेत्रों में एफडीआई के लिए दरवाजा खोलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की दृष्टि से अब हम दुनिया में सब से ज्यादा खुले देश हैं। मैं नहीं समझता कि यह गर्व की बात है। सवाल सिर्फ खुले होने या अवरु द्ध होने का नहीं है, मामला यह है कि इसका हमारे कुल उत्पादन, रोजगार और सामाजिक संतुलन आदि पर क्या प्रभाव करेगा? जिसे हम उन्नति समझ रहे हैं, कहीं वह गुनाह बेलज्जत तो साबित होने नहीं जा रहा है।चीन हम से कम खुला है, फिर भी वह हमारी तुलना में बड़ी तेजी से आर्थिक विकास कर रहा है, तो इसका कारण यह है कि उसने अपने औद्योगिक विकास का एक चरण पूरा कर लिया है और अब वह इस स्थिति में है कि उसके ब्रांड दुनिया भर के बड़े ब्रांडों से मुकाबला कर सकें। इसके अलावा उसने दूसरी भूमिका चुनी है अपनी जमीन, अपने देश के श्रमिक और अपना इंफ्रास्ट्रक्चर किराए पर देने की। दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां चीन की जमीन पर अपने कारखाने खड़ी कर रही हैं, वहां की सरकार को राजस्व और वहां के लोगों को रोजगार दे रही हैं। ताइवान, कोरिया आदि का भी यही हाल है। वियतनाम इस मामले में पिछड़ गया है, क्योंकि वह अभी भी कृषि प्रधान देश है और औद्योगिक विकास के लिए उसमें कोई बेचैनी नहीं है। यह कहना ज्यादा उचित होगा कि वियतनाम, ताइवान, कोरिया आदि की राह पर चल कर अपने को किसी का पिछलग्गू देश नहीं बनाना चाहता। हम भी अपने बारे में ऐसा ही सोचते थे, लेकिन आर्थिक विकास की हमारी रणनीति विफल हो जाने के बाद हम ने विकास की कोई वैकल्पिक रणनीति नहीं बनाई। हम अपनी गलतियों से सीख सकते थे और से देश का पुनर्निर्माण कर सकते थे। वह समय राष्ट्रीय मंथन का समय हो सकता था। लेकिन विभिन्न सरकारों ने भारत की जनता को विास में नहीं ले कर अपने स्तर पर एक ऐसी अर्थनीति का फंदा बुनना स्वीकार कर लिया, जिसकी परिणति आज हम इस रूप में देख रहे हैं कि हमने लगभग पूरी अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल दिया है। खोलने की नई नीतियों की घोषणा करने के पहले हमें विचार करना चाहिए था कि जिन क्षेत्रों में हमने अपनी अर्थव्यवस्था पहले से ही खोल रखी है, उनमें विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की कितनी प्रगति हुई है। वहां प्रगति बहुत निराशाजनक है। एशिया में चीन और पाकिस्तान हम से आगे हैं। हमारे पास विदेशी निवेशक को देने के लिए कुछ भी नहीं है, सिवाय स्टॉक एक्सचेंज के, जहां विदेश से वित्त के आवक की कमी नहीं है, क्योंकि मुनाफा न होने का कोई जोखिम नहीं है। मूल प्रश्न यह है कि भारत का उद्धार विदेशी पूंजी से होगा या स्वदेशी उद्योग-धंधों से। चूंकि भारत के आंतरिक वातावरण को इस योग्य बनाया नहीं गया है कि यहां के लोग खुशहाल जीवन जिएं, और अब भी इस बारे में सोचा नहीं जा रहा है, इसलिए विदेशी निवेश से बहुत ज्यादा उम्मीद की जा रही है। वस्तुत: आधुनिक टेक्नोलॉजी में यह क्षमता नहीं है कि वह सभी लोगों को रोजगार दे सके। उन्नत टेक्नोलॉजी पर आधारित व्यवस्थाएं अब बाजार का विस्तार भी नहीं कर पा रही हैं, जिसकी अभिव्यक्ति वहां के आर्थिक संकट में दिखाई पड़ रही है। हमारा आर्थिक संकट उनसे ज्यादा गंभीर है, क्योंकि उनकी समस्या अपनी संपन्नता को बनाए रखने की है और हमारी समस्या यह है कि हम अपनी विशाल आबादी में न्यूनतम खुशहाली कैसे ला सकें। जहां तक भारत में एक बहुत बड़ा बाजार मौजूद होने की रोज दुहराई जाने वाली बात का सवाल है, इससे बड़ी कोई और गलतफहमी हो नहीं सकती। भारतीय मध्य वर्ग की आबादी कभी 30 करोड़ बताई जाती है कभी 20 करोड़। लेकिन इनके आय-वर्ग या क्रय क्षमता के बारे में कोई आंकड़े पेश नहीं किए जाते। हमारे देश में वह परिवार भी मध्य वर्ग में गिना जाएगा जो साल में एक बार बाहर खाता है और वह परिवार भी जिसके पास एक टूटी-फूटी साइकिल है। अगर भारतीय मध्य वर्ग की क्रय क्षमता पर्याप्त होती, तो हमारे उद्योग-धंधे पस्ती की हालत में नहीं होते। विनिर्माण क्षेत्र पिछड़ रहा है और बैंकिंग क्षेत्र आगे बढ़ रहा है। वित्तीय क्षेत्र और विनिर्माण क्षेत्र, दोनों के बीच सामंजस्य न होने के कारण ही हमारे देश में वह स्थिति आई है जिसमें बैंकों का खरबों रुपया ऐसे उद्योगपतियों के चंगुल में हैं जो इस ऋण को चुकाने की हालत में नहीं है। प्रधानमंत्री का नारा है, मेक इन इंडिया। लेकिन वे यह आह्वान नहीं करते कि भारत वालों, अपनी जरूरत की सभी चीजें खुद बनाओ, बल्कि विदेशी निवेशकों को गुहार लगाते हैं कि भारत में अपनी पूंजी लगाओ और इंडिया में ही मेक करो। वे इंडिया में क्यों मेक करेंगे? वे वहां जाएंगे जहां आर्थिक रूप से उन्हें फायदा होगा। हां, बीमा, पेंशन आदि क्षेत्रों में विदेशी निवेश आएगा, जहां पैसे से पैसा बनाया जाता है। वास्तव में, हमें ऐसी टेक्नोलॉजी चाहिए जिसमें पूंजी कम लगे और रोजगार ज्यादा पैदा हो। नहीं तो भारत आज की तरह ही गरीबी के महासागर में छोटे-छोटे ज्योतित द्वीपों का देश बना रहेगा।


jagran

Date: 27-06-16

चीन भारत के खिलाफ क्यों है

चिंतामणि महापात्र

अमेरिका लंबे समय से परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत की सदस्यता का समर्थन करता रहा है, खासकर तबसे, जब राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपनी पहली भारत यात्रा के दौरान भारतीय संसद में इसकी घोषणा की थी। और चीन तभी से इसको लेकर असहजता दिखा रहा है। चीन के इस रवैये का मतलब क्या है?

पहली बात तो यह है कि परमाणु क्षमता वाला एकमात्र एशियाई देश होने का रुतबा चीन ने वर्ष 1998 में खो दिया, जब भारत ने सिलसिलेवार परमाणु परीक्षण कर खुद को परमाणु हथियार संपन्न देश घोषित किया। तीस वर्षों से ज्यादा समय तक चीन यह रुतबा हासिल किए हुए था। पर पहले भारत, और बाद में पाकिस्तान ने परमाणु क्षमता हासिल कर तस्वीर बदल दी।

दूसरी बात, चीन को उम्मीद थी कि अमेरिका और परमाणु अप्रसार के हिमायती अन्य देश मौजूदा परमाणु अप्रसार व्यवस्था के उल्लंघन के लिए भारत को अलग-थलग कर देंगे। पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अमेरिका और अन्य देशों को भारत यह समझाने में सफल रहा कि अपने पड़ोस में परमाणु खतरे को देखते हुए भारत को परमाणु परीक्षण करना पड़ा। गौरतलब है कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार विकास कार्यक्रम को खुद चीन प्रत्यक्ष मदद करता था। अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर भारत की उल्लेखनीय कूटनीतिक उपलब्धि रहा। शीघ्र ही भारत के परमाणु हथियार विकास कार्यक्रम को परोक्ष रूप से अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं को दूर करने के लिए एक वैध कदम के रूप में मान्यता दे दी गई। इसके अलावा, भारत अन्य देशों के साथ परमाणु व्यापार करने में सक्षम हो गया। भारत के परमाणु हथियारों पर निश्चिंतता और इसके असैन्य परमाणु कार्यक्रम के संभावित विस्तार की मौन स्वीकृति को चीन ने अपने लिए उभरती चुनौती के रूप में माना।

तीसरी बात, चीन इस तथ्य को पचा नहीं पा रहा कि भारत एक वैश्विक खिलाड़ी के रूप में उभर चुका है, जबकि उसका सहयोगी पाकिस्तान पिछलग्गू बनकर ही रह गया। उसकी अर्थव्यवस्था खराब है, आंतरिक सुरक्षा को आतंकी संगठनों से चुनौती मिल रही है और अपने परमाणु हथियार भंडार को लगातार बढ़ाने की उसकी कोशिश वैश्विक स्थिरता के लिए खतरा है।

चौथी बात, छोटे पैमाने पर ही सही, चीन की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है, जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था सबसे तेज गति से आगे बढ़ रही है। ऐसे में, प्रमुख एशियाई शक्ति बनने की बीजिंग की महत्वाकांक्षा को आगे झटका लग सकता है। वैश्विक मंदी ने पहले ही चीन के आर्थिक विकास को नुकसान पहुंचाया है, पर चीन ने जैसे ही अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए खपत आधारित अर्थव्यवस्था में अपने निवेश और निर्यात के नेतृत्व वाली रणनीति में संशोधन की शुरुआत की, विश्व अर्थव्यवस्था पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा। जो देश चीन को अपना सामान बेचते थे, उन पर चीन की मांग घटने का प्रभाव पड़ा। यूरोपीय संघ और आर्थिक संकट से जूझते अन्य देश चीनी वस्तुएं खरीदने में विफल रहे।

इस पृष्ठभूमि में भारतीय अर्थव्यवस्था ने दुनिया का ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट किया। बढ़ते श्रम खर्च के कारण कंपनियों को चीन में निवेश करना मुनासिब न लगा और वे अगले बेहतर निवेश गंतव्य के रूप में भारत की तरफ देखने लगीं। जाहिर है, चीन वैश्विक मामलों में अधिक प्रभुत्व हासिल करने के भारत के अभियान को रोकने की कोशिश करेगा।

पांचवीं बात, भारत और अमेरिका के बीच बेहतर संबंधों से भी चीन का संकट बढ़ गया। यह चीन और अमेरिका के बीच बढ़ते तनाव की पृष्ठभूमि में हुआ, चाहे वह पूर्वी चीन सागर और दक्षिण चीन सागर के पानी का मसला हो या चीन की आर्थिक नीति और साइबर सुरक्षा कार्यक्रम को लेकर वाशिंगटन की बढ़ती चिंता। ऐसे में, आश्चर्य नहीं कि अमेरिका भारत के विशिष्ट असैन्य परमाणु क्लब में प्रवेश का आगे बढ़कर समर्थन कर रहा है और चीन एनएसजी में भारत की सदस्यता के खिलाफ खलनायक की भूमिका में है।

छठी बात, चीन यह भी मानता है कि एशियाई मंच पर उसके प्रभुत्व को चुनौती देने वाला भारत ही है। भारत ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के चीनी प्रस्ताव की आलोचना की है। भारत-प्रशांत क्षेत्र में एक नए सुरक्षा तंत्र बनाने के लिए अमेरिका के साथ भारत के गठजोड़ से भी चीन चिंतित है। भारत को चीन द्वारा 21वीं सदी के समुद्री सिल्क रोड के आह्वान की भी आशंका है। चीन भारत-जापान-अमेरिका के मालाबार शृंखला के नौसैनिक अभ्यास को लेकर चिंतित है, तो के चारों तरफ चीन द्वारा बंदरगाह बनाए जाने से भारत परेशान है।

ऐसे में, समाधान क्या है? भारत वास्तव में व्यवस्थित ढंग से चीन के साथ अपने संबंधों में सुधार करना चाहता है। भारत न तो चीन को नियंत्रित करना चाहता है, न ही चीन के प्रतिद्वंद्वी के रूप में खुद को खड़ा करना चाहता है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने चीनी नेतृत्व को समझाने के लिए बीजिंग की यात्रा की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी समय-समय पर चीनी राष्ट्रपति से बात करते रहे हैं। विदेश सचिव भी चीन के संपर्क में हैं। भारत ने बार-बार यह संकेत दिया है कि नई शक्ति के रूप में उभरने के लिए भारत और चीन, दोनों के पास पर्याप्त गुंजाइश है और वे वैश्विक मामलों में रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं। भारत की इन कोशिशों का कोई फायदा नहीं हुआ, फिर भी उम्मीद कायम है। चीन संभवतः एनएसजी में भारत और पाकिस्तान, दोनों के प्रवेश का समर्थन कर सकता है।

एनएसजी के बहुत से देश जहां भारत की सदस्यता का समर्थन करते हैं, वहीं बहुत से देश पाकिस्तान की सदस्यता का विरोध भी करते हैं। जनसंहारक हथियारों के प्रसार में पाकिस्तान का रिकॉर्ड जग जाहिर है, और परमाणु अप्रसार में भारत का रिकॉर्ड भी सबको मालूम है। यह देखने वाली बात होगी कि क्या चीन और पाकिस्तान (संदिग्ध अप्रसार साख वाले देश) भारत को एनएसजी की सदस्यता से रोकते हैं या पाकिस्तान को भी इस क्लब में प्रवेश मिलता है।

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार एवं रेक्टर (प्रो-वायस चांसलर), जेएनयू


Date: 27-06-16

व्यर्थ की अदालती लड़ाई

देश के कई हिस्सों में जंगली जानवरों के आतंक से इंसानी बस्तियां त्रस्त हैं तथा किसान पलायन कर रहे हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने नीलगाय, बंदर और जंगली सुअर को हिंसक जानवर घोषित करने वाली अधिसूचनाओं को स्थगित करने से इन्कार करते हुए पशु अधिकार संगठनों को केंद्र सरकार के समक्ष दो सप्ताह में प्रतिवेदन पेश करने को कहा है। देश के कई हिस्सों में जंगली जानवरों के आतंक से इंसानी बस्तियां त्रस्त हैं तथा किसान पलायन कर रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में तो बंदरों के आतंक से बच्चों ने स्कूल जाना ही छोड़ दिया। समस्या से निपटने के लिए कई राज्यों ने वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के तहत केंद्र सरकार से आवारा जानवरों के वध की अनुमति मांगी थी।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रलय ने एक साल में तीन अधिसूचनाएं जारी करके नीलगाय और जंगली सुअर को बिहार, उत्तराखंड के कुछ जिलों और बंदर को हिमाचल प्रदेश के कुछ जिलों में एक साल के लिए हिंसक जानवर घोषित करके उनके शिकार की अनुमति दे दी। केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने इन अनुमति के लिए पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर पर सामूहिक पशुसंहार का आरोप लगाकर मंत्रियों की सामूहिक जवाबदेही की परंपरा को ही तोड़ दिया।

विश्व के अधिसंख्य देशों में अनियंत्रित आबादी पर काबू पाने या मानव जीवन को नुकसान पहुंचाने वाले जानवरों के मारने के लिए कानून हैं, परंतु इस पर सबसे ज्यादा हंगामा भारत में होता है। संविधान के अनुच्छेद 48 एवं 51ए (जी) में पशु संरक्षण के लिए प्रावधान किए गए हैं जिसके बावजूद नुकसान पहुंचाने वाले जीव जंतु जैसे चूहे इत्यादि को मारने में कोई प्रतिबंध नहीं है। कानून के अनुसार गोवंश तथा कुछ अन्य नोटिफाइड पशुओं की हत्या या शिकार नहीं किया जा सकता, परंतु अन्य जानवरों को मारा जा सकता है।

मुंबई में 1994 से 2014 के दौरान आवारा कुत्ताें के काटने से 434 लोग मरे, जबकि इसी दौरान हुए आतंकी हमलों में 422 लोग मारे गए। मांसाहार के लिए मारे जा रहे जानवरों के लिए यदि कोई प्रतिबंध या कानूनी दंड नहीं है तो फिर आवारा जानवरों के मारने पर विवाद क्यों होता है?

मांसाहार के लिए इस्तेमाल जानवरों के पोषण पर 18 फीसद से अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। खानपान के लिए आवारा जानवरों के इस्तेमाल से प्राकृतिक संतुलन बनाया जा सकता है। इंसानों का जानवरों से कुदरती रिश्ता है। कुत्ता, घोड़ा और गाय जैसे प्राणी उसके हमेशा ही मददगार रहे और बहुत बड़ी आबादी जानवरों के माध्यम से रोजगार भी हासिल करती है। परंतु क्रूरता विरोधी कानून की आड़ में पशु-प्रेमियों के अभियानों से सर्कस, मदारियों और कबीलाई समाज पर रोजगार का संकट गहरा गया है।

हाल ही में इंदौर के निकट बड़वाह में एक संत और हिरण के साहचर्य को कानूनी सनक की वजह से खत्म कर दिया गया। आवारा जानवरों के आतंक से किसान खेती का पैटर्न बदलने पर मजबूर हैं। हिमाचल प्रदेश में बंदरों पर नियंत्रण के लिए मनरेगा के तहत सहायता के प्रस्ताव को ग्रामीण विकास मंत्रलय द्वारा खारिज करने पर भी एनजीओ वालों को आवाज क्यों नहीं उठानी चाहिए।

जानवरों को नियंत्रित करने में यदि सरकार विफल रहती है तो खेती में नुकसान होने पर किसानों को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में राहत तो मिलनी ही चाहिए। दिल्ली, मुंबई एवं चंडीगढ़ जैसे शहरी क्षेत्रों में गाय पालन पर प्रतिबंध है परंतु तीन करोड़ से अधिक आवारा कुत्ते हैं, जिनके काटने से 20,000 लोग सालाना मर जाते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में रेबीज से मरने वालों की संख्या विश्व का 35 प्रतिशत है। कुत्ताें की निगरानी, टीकाकरण और नपुंसकता के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं जो महंगे होने के साथ समाधान देने में नाकाफी हैं।

केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट को विदेशी सलाहकारों की मदद से जंगली पशुओं को नियंत्रित करने के लिए समाधान सुझाने को कहा है। जंगली जानवरों को बगैर मारे खेती बचाने के अधिकांश सुझाव अव्यावहारिक और महंगे हैं, जिसके लिए अधिकांश राज्यों के पास संसाधन भी नहीं है।

12014 में जल्लीकट्टू मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि मूक जानवरों की सुरक्षा मानव समाज की जवाबदेही है, परंतु जानवरों को मानवाधिकारों से ऊपर नहीं रखा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य निर्णय के अनुसार आत्मरक्षा के दौरान हमलावर को मारने का अधिकार है, फिर गांव में किसान अपने बच्चे जैसी फसल के लिए कानून के तहत हिंसक-आवारा जानवर को क्यों नहीं मार सकता?

2012 में हुए एक सर्वे के मुताबिक देश में लगभग 51 करोड़ से अधिक घरेलू जानवर हैं, जो किसानों के परिवार का हिस्सा तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार हैं। भारतीय परंपरा में प्रकृति के सभी अंगों के साथ पशुओं को भी देवता या उनके वाहन के तौर पर महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान मिला है।

राजस्थान में चिंकारा हिरण को एक समाज की महिलाएं अपना दूध पिलाकर बड़ा करती हैं। इसलिए पशु प्रेमियों द्वारा ग्रामवासियों और किसानों को जानवर विरोधी मानना पूर्णतया गलत है। शहरी अभियान सनसनी पैदा करने के बावजूद सिमटते जंगल और आहार के मूल मुद्दे से विमुख हैं, जिससे इंसान और जानवर का रिश्ता खत्म हो रहा है।

इस जिद्दोजहद का फायदा उठाकर स्वयंभू आंदोलनकर्ता क्या कानून की मनमानी व्याख्या कर सकते हैं, जिससे मनुष्यता ही संकट में पड़ जाए? कानून और अदालत के बजाय मानवीय समाज को ही इसका समाधान करना होगा, जहां इंसान और जंगल का द्विपक्षीय रिश्ता फिर पनप सके-वह रिश्ता बढ़ते शहरीकरण ने खत्म कर दिया है।

(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं)

मानव जीवन को नुकसान पहुंचाने वाले आवारा जानवरों को मारे जाने पर मचे हंगामे को गैरजरूरी मान रहे हैं विराग गुप्ता


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Date: 27-06-16

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