19-03-2025 (Important News Clippings)

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19 Mar 2025
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Date: 19-03-25

Don’t Gag Free Speech

SC bench says right things. But too many courts exercise their power arbitrarily

TOI Editorials

Three pillars of democracy legislature, executive and judiciary-have codified powers, and police to enforce them. The fourth-media- draws strength entirely from free speech. On Monday, a Supreme Court bench of justices Abhay SOka and Ujjal Bhuyan hammered home the importance of media freedom during a hearing. It reminded courts, especially, of the need to be tolerant of free speech, and not cry contempt on the slightest pretext. “Why should courts be touchy about some comments made against their orders…,” the bench asked.

In Jan this year, 1.45L contempt cases were pending in SC and high courts. Some of them would be against media organisations and independent journalists. And a subset of those could well be arbitrary, unfair or excessive. The 2019 Meghalaya HC order against two women journalists, holding them guilty of contempt for reporting on the perks provided to retired judges and their families, had drawn global attention. Later, SC had stayed the order.

Monday’s SC hearing was about a Delhi HC order against Wikipedia that deemed criticism to be “interference in court proceedings”. But as the SC bench pointed out, judges have to take criticism in their stride – “Sometimes, someone says that you are sitting here with a preconceived mind or that you are not giving a proper hearing. People say things, and we have to tolerate it…Someone says we are prejudiced. That’s their opinion, but we decide on law.”

During the hearing, the bench once again emphasised the dangers of sweeping gag orders. “Courts can’t pass gag orders…to tell someone to remove something just because there is some criticism of what the court has said or done is not okay,” it said. In 2022, SC refused to bar journalist Mohammed Zubair from posting on X while on bail, saying, “Gag orders have a chilling effect on the freedom of speech.” By now, this should be a well-settled point. Sadly for free speech in India, it isn’t.

SC has questioned the “legality and validity” of Delhi HC’s directions against Wikipedia. By pursuing this enquiry further, it could build safeguards against the arbitrary exercise of contempt powers. Perhaps, it’s time for a larger Constitution bench to look into this question and answer it once and for all. As the SC bench said on Monday, “The question here is about free speech rights of media.” By extension, it’s about strengthening the fourth pillar of Indian democracy.


Date: 19-03-25

तमिल भाषा की हिंदी और संस्कृत से कोई लड़ाई नहीं है

अभय कुमार दुबे, ( अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर )

तमिलनाडु के सीएम स्टालिन ने लोकसभा सीटों के परिसीमन और हिंदी-संस्कृत बनाम तमिल के मुद्दों को आपस में जोड़कर संघवाद का झंडा बुलंद करने की कोशिश की है। जबकि ये दोनों एकदम अलग-अलग प्रश्न हैं। भाषा के सवाल का परिसीमन से कोई ताल्लुक नहीं है। उनकी बातें तथ्यहीन होने के साथ-साथ तमिल जनता की भावनाओं को भड़काने वाली हैं।

इस मामले में उनकी इतनी बात सही है कि भारत के बहुभाषी यथार्थ को शिक्षा नीति के खांचे में फिट करने के लिए बनाया गया 55 साल से ज्यादा पुराना त्रिभाषा फॉर्मूला बेकार साबित हो चुका है। सरकार और उसके सलाहकारों को इसके लिए कोई नई युक्ति खोजनी पड़ेगी। अगर स्टालिन यहीं तक सीमित रहते, तो वे अपने पक्ष में राष्ट्रीय सहमति बना सकते थे। लेकिन उन्होंने जैसे ही हिंदी-संस्कृत के कथित साम्राज्यवाद की फिकरेबाजी का सहारा लिया, संघवाद के प्रति उनका आग्रह उतना मजबूत नहीं रह गया जितना उसे होना चाहिए था।

न तो हिंदी और न ही किसी अन्य भारतीय भाषा के साथ संस्कृत के संबंध साम्राज्यिक किस्म के रहे हैं। भारतीय भाषाओं का इतिहास इस मामले में स्पष्ट है और देशी-विदेशी विद्वानों के साहित्य में इसके पक्ष में अकाट्य प्रमाण आसानी से मिल सकते हैं। भारत में ज्ञान- रचना और कर्मकांडों की भाषा मुख्य तौर पर संस्कृत रही है। लेकिन हिंदू राजवंशों ने कभी भी अपने शासनकाल में संस्कृत को स्थानीय भाषाओं पर थोपने का प्रयास नहीं किया।

भाषाओं के प्रचार-प्रसार का इतिहास लिखने वाले निकोलस ओस्टलर ने दिखाया है कि पहली सहस्राब्दी में समूचे दक्षिण-पूर्वी एशिया में संस्कृत का प्रसार अभिजन विमर्श की भाषा के तौर पर हुआ। लेकिन इस विस्तार में किसी सम्राट, सेना, धर्म-मजहब या दाब-धौंस की भूमिका नहीं रही। शेल्डन पोलक ने बताया है कि न केवल भारत की सभी भाषाओं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया (जावा की लिपि, थाई – सिंहला लिपि, तमिलों की ग्रंथ लिपि, कश्मीर की शारदा लिपि) में संस्कृत की किसी भी इबारत को सफलता से लिखा जा सकता है।

संस्कृत और इन भाषाओं के बीच केंद्र और परिधि का संबंध होने के बजाय परस्पर आवाजाही का नाता रहा है। संस्कृत और दक्षिण एशिया की देशभाषाएं एक निरंतर अन्योन्यक्रिया से बनने वाले संसार की वासी रही हैं। स्थानीय भाषाओं और लिपियों का तिरस्कार करने या उन्हें प्रतिबंधित करने के बजाय संस्कृत उनकी लिपियों, व्याकरण और साहित्य के विकास में सहयोगी भूमिका निभाती हुई दिखती है।

यह मानना कि तमिल का संस्कृत से कोई संबंध नहीं है, एक राजनीतिक दुराग्रह के अलावा कुछ नहीं है। ‘तोलकप्पियम’ के रचयिता तोलकप्पियर को इस भाषा का आदि- वैयाकरण माना जाता है। यह कृति संस्कृत के पाणिनि-पूर्व व्याकरणशास्त्र के ऐंद्रिक विचार कुल से संबंधित है। ऐंद्रिक विचार – कुल के प्रधान आचार्य इंद्र नाम के विद्वान थे, इसलिए उन्हीं के नाम पर इस कुल का नाम ऐंद्रिक पड़ गया। केवल पाणिनि से असंबंधित होने के कारण-भर से तमिल को संस्कृत-व्याकरण से असंबद्ध मानना इतिहास को झुठलाना है।

तमिल में संस्कृत के शब्दों की संख्या काफी है। भाषाशास्त्री देवनेय पावनार के अनुसार तमिल में इस्तेमाल किए जाने वाले कई संस्कृत शब्दों के तमिल पर्याय भी मौजूद हैं। संस्कृत में 40% शब्द ऐसे हैं, जो तमिल भाषा की धातुओं पर आधारित माने जा सकते हैं।

इस तरह की दावेदारियां तमिल को अलग भाषा करार देने की तरफ ले जाती हैं, और संस्कृत पर भारतीय भाषाओं के प्रभावों पर भी उंगली रखती हैं। हिंदी को भी अपने ही क्षेत्र की जनपदीय भाषाओं की भक्षक कहना व्यर्थ है।

आज भोजपुरी, हरियाणवी, राजस्थानी, अवधी, ब्रज जैसी जनपदीय भाषाओं को अगर विस्तार मिला है तो हिंदी उसका माध्यम बनी है। इस समीकरण में हम उर्दू को भी शामिल कर सकते हैं। हिंदी के साहित्य-संसार में नागरी में लिखा गया उर्दू साहित्य प्रचुर मात्रा में पढ़ा जाता है। अगर कोई छात्र हिंदी साहित्य पढ़ता है तो उसे भक्तिकालीन कविता पर महारत हासिल करनी पड़ती है, और यह साहित्य इन्हीं जनपदीय भाषाओं में रचा गया है। भारतीय भाषाओं के आपसी संबंध हमेशा से मधुर रहे हैं। चूंकि हिंदी एक से अधिक प्रांतों की भाषा है, इसलिए उसे संविधान निर्माताओं ने राजभाषा बनाया। लेकिन उसकी यह पदवी यूरोपीय राष्ट्रभाषा जैसी नहीं है।


Date: 19-03-25

पड़ोस में हो रही घटनाओं से हम नजरें नहीं फेर सकते हैं

मनोज जोशी, ( विदेशी मामलों के जानकार )

हाल ही में बांग्लादेश के छात्र नेताओं ने एक नए बांग्लादेश के निर्माण के वादे के साथ जतोयो नागोरिक पार्टी (राष्ट्रीय नागरिक पार्टी) नामक एक दल का गठन किया है। एक ओर शेख मुजीबुर्रहमान द्वारा स्थापित राष्ट्र की जगह सेकंड – रिपब्लिक की स्थापना की बात जोरों पर है, वहीं दूसरी ओर हमने देखा है कि प्रतिबंधित इस्लामी संगठन हिज्ब-उत-तहरीर फिर से उभर आया है, जिसने 7 मार्च को ढाका में एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया। नई पार्टी के आधिकारिक शुभारंभ पर इसके नेताओं ने नए संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए संविधान सभा के चुनाव का भी आह्वान किया, लेकिन अभी तक मुख्यधारा की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और अवामी लीग ने इस प्रस्ताव में बहुत कम रुचि दिखाई है।

इस दौरान बांग्लादेश में अराजकता का दौर जारी है। अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस के हाथों में स्थिति को नियंत्रित करने की बहुत कम क्षमता है। मुल्क अभी भी भड़की हिंसा की उन घटनाओं से उबर रहा है, जो पिछले अगस्त में शेख हसीना को सत्ता से हटाने वाले आंदोलन के बाद शुरू हुई थी।

स्थिति यह है कि पिछले महीने के अंत में सेना प्रमुख जनरल वकार- उज-जमां को एक बयान जारी कर चेतावनी देनी पड़ी कि अंतरिम सरकार कानून और व्यवस्था को कमजोर करना बंद करे। वे समय से पहले चुनाव कराने का समर्थन कर रहे हैं, जो अंतरिम सरकार का समर्थन करने वालों के हितों के खिलाफ है। अवामी लीग तो धराशायी हो चुकी है, जबकि बीएनपी शीघ्र चुनाव चाहती है। दूसरी ओर, जमात-ए-इस्लामी और हिफाजत-ए-इस्लाम जैसे इस्लामी तत्व चाहते हैं कि स्थानीय स्तर के चुनावों के बाद मुख्य चुनाव हो ।

हसीना के नेतृत्व में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही थी और वह जीडीपी वृद्धि और अन्य आर्थिक संकेतकों में भारत के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहा था। लेकिन उनके पलायन के बाद से विकास में तेजी से गिरावट आई है और देश मंदी की ओर बढ़ रहा है। विश्व बैंक और आईएमएफ का कहना है कि हसीना के सत्ता से हटने के बाद से बांग्लादेश की विकास दर आधी हो गई है और उसका कपड़ा उद्योग जो उसके विकास का आधार था- बेरोजगारी से बुरी तरह प्रभावित हुआ है। लेकिन अंतरिम सरकार मौजूदा स्थिति के लिए हसीना सरकार को दोषी ठहराती है।

पाकिस्तान और बांग्लादेश की बढ़ती नजदीकियां भी भारत के लिए चिंता का विषय है। पहला, पाकिस्तान भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में अलगाववाद को बढ़ावा देने के लिए बांग्लादेश का उपयोग करता है। दूसरा, वह आतंकवादियों की घुसपैठ के लिए भी बांग्लादेश का उपयोग करता है। उच्च स्तरीय पाक-बांग्लादेश सैन्य आदान-प्रदान में बंगाल की खाड़ी में संयुक्त नौसैनिक अभ्यास तथा बांग्लादेश को बैलिस्टिक मिसाइलों की पाकिस्तान द्वारा आपूर्ति भी शामिल हो सकती है। ढाका नई दिल्ली पर अपनी निर्भरता कम करना चाहता है, जबकि इस्लामाबाद इस क्षेत्र में भारत को काउंटर-बैलेंस करना चाहता है। भारत के लिए आर्थिक चिंताएं भी हैं। बांग्लादेश के भारत से अच्छे व्यापारिक संबंध रहे हैं और दोनों देशों के बीच लगभग 15 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार है, जो पाकिस्तान के साथ व्यापार से कहीं अधिक है। लेकिन अब बांग्लादेश की भारत पर आर्थिक निर्भरता कम हो सकती है।

भारत और बांग्लादेश के खराब संबंधों का नई दिल्ली की क्षेत्रीय नीति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। वर्तमान में बांग्लादेश बिम्सटेक नामक एक क्षेत्रीय संगठन का प्रमुख सदस्य है, जिसे भारत ने पाकिस्तानी प्रभाव को दूर रखने के लिए सार्क के स्थान पर प्रोत्साहित किया है। नई दिल्ली ढाका संबंधों में गिरावट से वहां भारत की स्थिति कमजोर हो सकती है।

दूसरी तरफ, चीन का भी बांग्लादेश पर खासा प्रभाव है और वह उसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। उसने वहां महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को वित्त पोषित किया है और वह बांग्लादेशी सेना को हथियारों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता है। चीन ने ऐतिहासिक रूप से दक्षिण एशिया में भारतीय प्रभाव का मुकाबला करने के लिए पाकिस्तान को एक रणनीतिक साझेदार के रूप में इस्तेमाल किया है और वह इस्लामाबाद की मदद से बांग्लादेश में भी अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर नहीं छोड़ेगा।


Date: 19-03-25

आखिर आज हम सब इतनी जल्दी में क्यों रहने लगे हैं

नंदितेश निलय, ( वक्ता एथिक्स प्रशिक्षक एवं लेखक )

हम ऐसे समय से गुजर रहे हैं, जहां गति एक बहुत ही महत्वपूर्ण मूल्य बन चुकी है। कम समय में लंबी दूरी तय करना इस दौर की मांग है। इसने समाज की हर संस्थाओं को प्रभावित किया है। पैट्रिक डिक्सन अपनी किताब ‘फ्यूचरवाइज’ में लिखते भी हैं कि ‘इससे पहले भविष्य कभी इतनी तेजी से अतीत नहीं बना था।’

स्पीड का मूल्य बिजनेस की दुनिया में है। क्वार्टर रिजल्ट्स के टारगेट्स हमेशा बढ़ते जाते हैं और उसे पूरा करने के लिए समय-सीमा कम कर दी जाती है। तमाम संस्थाएं स्पीड को चेहरा बनाकर उपभोक्ताओं को लुभाने में लगी हुई हैं। डोमिनोज ने अपने ग्राहकों से वादा किया कि मात्र तीस मिनट में वो पिज्जा की डिलीवरी करा देंगे और वो भी गर्म पिज्जा की। यानी गति और गुणवत्ता, बिल्कुल साथ-साथ | हाल ही में जेप्टो ने सिर्फ दस मिनट में कोई भी ग्रॉसरी आइटम, सब्जी-दूध आदि को ग्राहकों तक पहुंचाने को अपना ‘यूएसपी’ बना दिया। ओला, उबर, रैपिडो ने पांच से दस मिनट में ग्राहकों के लिए टैक्सी की सेवा रखी है। क्रिकेट के खेल को भी हाल के वर्षों में देखें तो 20 ओवर में भी 200 से भी ज्यादा रन बनाए जा रहे हैं। मानो रन बनने नहीं, बरसने चाहिए।

तो क्या हम जाने-अनजाने हम एक ऐसे दौर में आ चुके हैं, जहां किसी भी क्षेत्र में व्यक्ति की कार्यकुशलता उसकी गति से तय होगी ? लेकिन जिस तरह से हमारे अंदर एक अधीरता बढ़ती जा रही है, कहीं वह उसी गति से उपजा व्यवहार तो नहीं ! अगर किसी कारणवश कोई हवाई जहाज लेट हो जाए, तो क्या हम बेचैन नहीं हो जाएंगे। विमान की लैंडिंग के होते ही यात्री लगेज निकालने के लिए एकदम अफरातफरी मचा देते हैं। सबको पहुंचना है जल्दी और सभी को सबकुछ भी जल्दी ही चाहिए। यह अधीरता शेयर मार्केट में बखूबी देखी जा सकती है। पैसा इन्वेस्ट करने और लाभ कमाने की बेचैनी और अभी जिस तरह से बाजार औंधे मुंह गिरा है तो लोग उसी गति से पैसे निकाल भी रहे हैं।

आखिर हम सबकुछ शीघ्र ही क्यों चाहते हैं? कार्यक्षेत्र में भी रिजल्ट और सिर्फ रिजल्ट और वो भी कम समय में पाने का भाव क्या हमारे अंदर अनावश्यक दवाब नहीं बढ़ा रहा ? नौकरशाही भी इस अधीरता का सामना कर रही है। जनता सोशल मीडिया का लेंस लिए हर विषय पर जवाब चाहती है और वह भी तुरंत। रील्स की दुनिया कम समय में सबकुछ देखने और सुनने के मनोविज्ञान से ही उपजी है। ऐसे में गति के भरोसे ही कार्य करने से कई बार गुणवत्ता भी प्रभावित हो सकती है और सामाजिक व्यवहार में एक अजीब तरह की बेचैनी महसूस की जा सकती है। घर हो या अन्य संस्थाएं, गति के साथ उद्विग्नता भी हम सब को घेर रही है।

बुलेट ट्रेन की विश्वनीयता सिर्फ गति से ही तय नहीं होगी बल्कि उस सेफ्टी से भी तय होगी जिससे पैसेंजर्स की सुरक्षा जुड़ी होगी। हवाई जहाज की सफलता के पीछे वो सेफ्टी के मानक ही हैं जो गति की गुणवत्ता को संभालते हैं। ई-कॉमर्स की दुनिया में जो डिलीवरी बॉय आता है, उसकी सुरक्षा कौन तय करेगा? अधीर होता ग्राहक उसे फोन पर फोन करता जाता है और उसके लेट होने के कुछेक मिनटों को संवेदना से स्वीकार नहीं कर पाता। नौकरी और कस्टमर सर्विस के दौरान स्पीड के ‘विशियस सर्किल’ में फंसा वह व्यक्ति सुरक्षा को दरकिनार कर अपनी स्पीड को और बढ़ाता जाता है।

हां, यह स्पीड ही है जिसने मानव सभ्यता को विकास की दूरी कम समय में तय करना सिखाया। लेकिन उसके चलते बढ़ती अधीरता को ओढ़े जो सामाजिक व्यवहार बनता जा रहा है, उसे भी समझना जरूरी है। कम समय में लंबी दूरी तय करने का कौशल आज का सत्य हो सकता है, लेकिन उस सामाजिक व्यवहार का क्या, जहां हर कोई दूसरे को धक्का देकर आगे निकलना चाहता है ? बहुत जल्दी धनी होना चाहता है, ट्रेड मील या हाइवे पर महत्वाकांक्षी गति से भागना चाहता है ? डिजिटल स्पीड से पैसे देता ग्राहक अपने सामान को भी उसी गति से चाहता है। आज नागरिक व्यवहार में गति से बढ़ती उद्विग्नता को भी कुछ धीमा करने की भी जरूरत है, तभी विकास की गति संतुलित हो सकेगी।


Date: 19-03-25

बहुपक्षीयता के लिए शोकगीत या उम्मीद?

नितिन देसाई

अस्सी वर्ष पहले दुनिया के सबसे बहुपक्षीय संस्थानों की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाई और दूसरे देशों के साथ शक्तियां साझा कीं। आज वही अमेरिका बहुपक्षीयता से दूरी बना रहा है। अमेरिका के वर्तमान अन्य देशों के ” साथ “राजनीति और आर्थिक रिश्तों में अपने अति राष्ट्रवादी हितों पर जोर दे रहे हैं। वे नैतिकता को ताक पर रखकर लेनदेन की कूटनीति के साथ इसे आगे गे बढ़ा रहे हैं।

1990 के दशक में जब बहुपक्षीयता के सितारे बुलंद थे, उस समय रूस और पूर्वी ट के देशों में राजनीतिक परिवर्तन आने गुट पश्चिमी देशों वैश्विक सह सहयोग मजबूत होने की प्रबल संभावनाएं दिख रही थीं। अब सब बदल गया है। रूस फिर आक्रामक हो गया है, ताकतवर र हो गया है और उदारवाद अमेरिका में खत्म तथा कई यूरोपीय देशों में कमजोर हो रहा है। आशावाद के उस दौर में मैंने संयुक्त राष्ट्र में काम किया था, इसलिए मैं 80 साल पहले शुरू की गई और अब खत्म हो रही बहुपक्षीयता के लिए एक शोकगीत पेश कर रहा हूँ।

मगर सबसे पहले समझ लें कि दुनिया कोई राजनीतिक इकाई नहीं है और संयुक्त राष्ट्र तथा उससे जुड़ी बहुपक्षीय संस्थाओं को अब भी प्रशासन संस्थाओं के भौगोलिक पदानुक्रम का हिस्सा नहीं माना जा सकता। हमारे पास न तो विश्व राज्य है, न विश्व समाज है और न ही वास्तव में एकीकृत विश्व अर्थव्यवस्था है। जो है वह विभिन्न देशों के कुछ राजनेताओं, अफसरशाहों, शिक्षाविदों और कारोबारी नेताओं का समूह है, जिनके भीतर कुछ मूल्य हैं और जो वैश्वीकरण के खतरों एवं मजबूरियों से निपटने के लिए मिलकर काम करना चाहते हैं।

अस्सी सालों से मौजूद बहुपक्षीय व्यवस्था में एकरूपता नहीं है। व्यापार, निवेश, वित्तीय प्रवाह अथवा वृहद नीति समन्वय पर खासा प्रभाव रखने वाली ज्यादातर बहुपक्षीय संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र के सीधे अधिकार से बाहर काम करती हैं। सुरक्षा परिषद की बात छोड़ दें तो संयुक्त राष्ट्र में सभी देश बराबर हैं। संधि संस्थाएं हस्ताक्षर करने वाले सभी देशों को बराबर भूमिका ही देती हैं। ऐसी ही संस्था विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) पर अब खतरा मंडरा रहा है क्योंकि इसकी विवाद निपटारा प्रणाली बेअसर हो रही है और कुछ अपवादों को छोड़कर सभी व्यापार साझेदारों के साथ बराबरी का बरताव अनिवार्य करने वाले सर्वाधिक तरजीही देश के नियम का उल्लंघन हो रहा है। संधि संस्थाएं आमतौर पर सभी अधोहस्ताक्षरकर्ताओं को समान भूमिका सौंपते हैं।

कुछ मामलों में डब्ल्यूटीओ भी अपवाद है। अधिकतर बहुपक्षीय संस्थानों के पास साझेदार देशों के लिए पैमाने तय करने का औपचारिक अधिकार नहीं है। उनका प्रभाव देशों के बीच संवाद से उपजता है । यह बात अलग है कि उस संवाद में अक्सर विकसित देशों का और विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संस्थानों के विशेषज्ञों का दबदबा होता है।

अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था भी अजीब सा समझौता थी, जिसमें रसूखदार ताकतें नियम बनाती थीं और बाकी राष्ट्र उन्हें मानते थे। बड़े और शक्तिशाली देश संयुक्त राष्ट्र की परवाह नहीं करते। यह बात बड़ी ताकतों के बीच समझौता कराने और सुरक्षा कदमों में कमजोरी की शक्ल में सामने आ भी जाती है। संयुक्त राष्ट्र का सबसे अहम योगदान यह है कि वह छोटे और कमजोर देशों को वैश्विक रिश्ते प्रभावित करने की गुंजाइश देता है। किंतु 1990 के दशक में सहकारी बहुपक्षीयता की अच्छी संभावना दिख रही थी। संयुक्त राष्ट्र ने कई वैश्विक सम्मेलन आयोजित किए और कई तो शासनाध्यक्ष स्तर के थे। नतीजा यह हुआ कि साझा मूल्यों, नियमों और राज्य के व्यवहार से जुड़े मानकों को संहिताबद्ध कर दिया गया। साथ ही बेहतर नीति पर आम समझ भी बनी। संयुक्त राष्ट्र की इस क्षमता का 90 के दशक के वैश्विक सम्मेलनों में अच्छा इस्तेमाल किया गया क्योंकि वैचारिक विभाजन में कमी और रूस तथा पूर्वी यूरोप एवं मध्य एशिया में साम्यवाद के पतन ने भी इसमें भूमिका निभाई। विकासशील देशों का आर्थिक रुख भी पूंजीवाद की ओर हो गया। चीन की आर्थिक नीति में तेंग श्याओफिंग के शासन के दौरान आए परिवर्तन तथा भारत में 1991 में हुए सुधारों में यह बात साफ नजर आई।

इक्कीसवीं सदी शुरू होते ही बदलाव आने लगा और खुद को अब भी सबसे बड़ी ताकत मानने वाले अमेरिका की आक्रामकता ने हालात बदतर बना दिए हैं। के कारण स्थिति और बिगड़ गई है। वैचारिक बाधा नहीं हुई तो वह चीन और रूस के साथ मिलकर आधिपत्य स्थापित कर सकता है क्योंकि ये देश भी राष्ट्रों के समूह में यकीन नहीं करते।

संयुक्त राष्ट्र मूल्यों, मानकों और नीतिगत ढांचों पर सहमति बनाने का काम करता है और दूसरी कोई भी अंतरराष्ट्रीय संस्था व्यापक स्वीकार्यता के साथ ऐसा नहीं कर सकती। वजह यह है कि संयुक्त राष्ट्र सार्वभौम है, उसे सबने मिलकर अधिकार दिए हैं और उसके काम करने के तरीके में नागरिक समाज के लिए गुंजाइश बनती है। मगर वास्तव में बड़ी प्रगति किसी मुद्दे पर बने देशों के ऐसे समूह के प्रयासों का नतीजा है, जो विश्व हित के लिए काम करने को तैयार हैं। संयुक्त राष्ट्र के पास मौजूद राजनीतिक प्रक्रिया ऐसे गठबंधन बनने देती है और सार्थक प्रगति के लिए ज्यादा संगठित हित समूहों को काम करने देती है।

अमेरिकी राजनीति के रुझान को देखें तो वह दबदबा बनाने की कोशिश करता रहेगा। इसलिए जरूरी है कि संयुक्त राष्ट्र इस राजनीतिक बदलाव से प्रभावित देशों की मजबूत आवाज बना रहे क्योंकि बंटी हुई दुनिया में उसकी अहम भूमिका है। उसके महासचिव किसी समुदाय के नेता की तरह काम कर सकते हैं, जिनका प्रभाव विश्व समुदाय के साझा मूल्यों को बरकरार रखने की क्षमता के कारण होता है । अमेरिका जैसी महाशक्तियों के दुनिया भर की आका बनने के प्रयासों की तपिश जिन देशों ने झेली है, उन्हें दूसरे देशों के साथ जुड़े रहने और साम्राज्यवादी खतरों का सही जवाब देने के लिए संयुक्त राष्ट्र का इस्तेमाल करना चाहिए। उम्मीद है कि यूरोपीय देश ऐसे उभरते गठजोड़ का समर्थन करेंगे।

संयुक्त राष्ट्र और उससे जुड़ी संस्थाएं पूरी तरह राज्य की शक्ति पर निर्भर हैं। साम्राज्यवाद के मौजूदा प्रयासों का सही जवाब देने के लिए शायद वे नाकाफी हैं। पारस्परिक निर्भरता नाटकीय रूप से बढ़ी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा बहुराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों का नेटवर्क अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अहम होते जा रहे हैं। जन संचार की बढ़ती पहुंच राजनीति को बदल रही है। इंटरनेट लोगों तथा उद्यमों को अभूतपूर्व तरीके से जोड़ रहा है। साम्राज्यवाद का जवाब अब इस गैर सरकारी नेटवर्क पर भी निर्भर करेगा।

बहुपक्षीयता के भविष्य का यह नजरिया पूरी तरह निराशावादी नहीं है। यह दबावों से जूझ रहे देशों के मिल-जुलकर दिए जवाब की उम्मीद पर टिका है। यह कारोबार, शिक्षाविदों और गैर सरकारी संगठनों के बीच अंतरराष्ट्रीय भावना बढ़ने पर भी टिका है। मेरे शोकगीत को शायद डॉनल्ड ट्रंप के मागा का जवाब देने के लिए बहुपक्षीयता के फिर खड़े होने की संभावना कहना ज्यादा सही होगा। मागा को भी ‘मेकिंग अमेरिका अ ग्रेट अग्रेसर’ कहना शायद ज्यादा सही होगा।


Date: 19-03-25

समरसता पर चोट

संपादकीय

अफवाहें जंगल में आग की तरह फैलती हैं नागपुर में औरंगजेब की कब्र हटाने को लेकर हुए प्रदर्शन के दौरान एक समुदाय की धार्मिक पुस्तक जलाए जाने की अफवाह के बाद जिस तरह हिंसा और आगजनी हुई, उससे जाहिर है कि अफवाह किसी भी शहर और समाज के लिए घातक होती है। इस हिंसा में कई लोग जख्मी हो गए। कोई दोराय नहीं कि इस घटना ने शहर की समरसता पर चोट की है। पिछले कुछ वर्षों में देश में अलग-अलग राज्यों में हुई हिंसा को कई घटनाओं के पीछे किसी न किसी अफवाह की भूमिका पाई गई। मगर नागपुर में हिंसा के पीछे असल मुद्दा औरंगजेब की क का है, जिसे हटाने के लिए पिछले कई दिनों से मांग उठ रही है। दुर्भाग्यवश न केवल इस पर राजनीति हो रही, बल्कि इस मुद्दे को जिस तरह हवा दी जा रही है, वह चिंता का विषय है। सभी जानते हैं कि इतिहास से जुड़ी धरोहरों को खत्म नहीं किया जा सकता कोई सभ्य देश अपने इतिहास को मिटाता नहीं है। यह ऐतिहासिक स्थलों को संरक्षित करता है, ताकि आने वाली पीढ़ियां अपने इतिहास को जानें और उससे सबक लें।

नागपुर में हुई हिंसा को इसलिए भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए कि इस तरह की घटना से सामाजिक समरसता को गहरी ठेस पहुंचती है। तीन सौ साल से भी अधिक पुराने मुद्दे पर अचानक विवाद खड़ा करने के पीछे की राजनीति निराशाजनक है। इस घटना ने सभी को झकझोर कर रख दिया है। दुखद यह कि हिंसा ऐसे शहर में हुई, जहां हर धर्म और समुदाय के लोग वर्षों से सद्भाव के साथ रहते आए हैं। वह अपनी संस्कृति और विरासत के लिए जाना जाता है। यहां सभी मिल-जुल कर त्योहार मनाते और दुख-सुख साझा करते रहे हैं। मगर कटु सत्य है कि उपद्रवियों का कोई नैतिक मूल्य नहीं होता। उनमें मानवीय संवेदना नहीं होती। नागपुर में हिंसा भड़कने के पीछे कोई पूर्व नियोजित साजिश हो सकती है। यह जांच का विषय है। मगर इस समय आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से ऊपर उठने की जरूरत है। नागपुर की खूबसूरती उसके सौहार्द में निहित है। इसे बचाना सभी का दायित्व है।


Date: 19-03-25

नागपुर का तनाव

संपादकीय

नागपुर में जिस तरह का सांप्रदायिक तनाव पैदा हुआ है, वह भावनात्मक मुद्दों को जरूरत से ज्यादा तूल देने के खतरों को बताता है। यह ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए है कि जिस मुद्दे को लेकर एक शांतिपूर्ण शहर में हिंसा भड़काई गई है, वह कोई समकालीन या तात्कालिक महत्व का मुद्दा नहीं है। मुगल सम्राट औरंगजेब को मरे हुए तीन सौ साल से भी ज्यादा हो चुके हैं। हमारे वर्तमान सामाजिक जीवन में उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है, पर अजीब बात है कि इसे लेकर भावनात्मक उबाल है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का अपना शहर नागपुर है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय भी यहीं है, पर यहां सांप्रदायिक तनाव का कोई इतिहास नहीं है। जिस क को लेकर विवाद है, वह नागपुर में नहीं है, औरंगाबाद या संभाजी नगर के करीब ऐतिहासिक कस्बे खुल्दाबाद में एक प्रख्यात सूफी संत की दरगाह के अहाते में है। अचरज है कि वहां से दूर नागपुर में एक प्रदर्शन के दौरान विवाद हो गया और झगड़ा बढ़ गया ।

मुख्यमंत्री का यह कहना सही है कि विवाद फिल्म छावा के प्रदर्शन से पैदा हुआ है। यह भी एक विडंबना ही है। ऐसा इसलिए कि छत्रपति शिवाजी के पुत्र संभाजी मराठा इतिहास में काफी विवादास्पद चरित्र रहे हैं। काफी वक्त तक सामान्य ऐतिहासिक मान्यता थी कि संभाजी अपने समय में गैरजिम्मेदार रहे थे, लेकिन उनकी वीरतापूर्वक मृत्यु ने उनके चरित्र के दाग धो दिए। फिर बीच के दौर में जो मुहीम सी चली थी, जिसमें ऐतिहासिक या पौराणिक चरित्रों का पुनर्मूल्यांकन किया जा रहा है, उसके तहत यह भी कहा गया कि संभाजी के साथ इतिहास में अन्याय हुआ है। कई इतिहासकारों ने यह साबित करने की कोशिश की कि वह एक उज्ज्वल चरित्र के व्यक्ति थे। संभाजी की इस नई छवि को आधार बनाकर मराठी के एक लोकप्रिय उपन्यासकार शिवाजी सावंत ने छावा नामक उपन्यास लिखा, जो बहुत लोकप्रिय हुआ । पिछले दिनों आई फिल्म छावा इसी
उपन्यास पर आधारित है। इस फिल्म में औरंगजेब के किरदार को जैसा दिखाया गया है, उसे देखकर कुछ लोग औरंगजेब की कब्र उखाड़ने की मांग करने लगे हैं। कुछ लोगों ने औरंगजेब के पक्ष में बयान दे दिया और इससे सचमुच दंगे की स्थिति पैदा हो गई है।

अगर उपन्यास को उपन्यास की तरह पढ़ा जाए और फिल्म को फिल्म की तरह देखा जाए, तो कोई समस्या नहीं है। उससे मनोरंजन भी होता है और कुछ समझदारी भी हासिल हो सकती है, लेकिन उसे इतिहास समझ लेना और उसके किरदारों के पक्ष-विपक्ष में सचमुच लड़ बैठना तो कोई समझदारी नहीं है। किसी भी समाज की परिपक्वता और समझदारी की कसौटी यह होती है कि वह कितने संयत और संतुलित ढंग से अपने इतिहास को देखता है। हमारे समाज और संस्कृति की कई शताब्दियों पुरानी अविच्छिन्न परंपरा है, इसलिए हमसे यह उम्मीद की जानी चाहिए कि हम इतिहास और परंपरा की बारीकियों को समझें और चीजों का भौंडा सरलीकरण न करें। हर कदम संभलकर रखें। तीन सौ साल पुराने किरदारों और घटनाओं को लेकर आज खून बहाना किसी भविष्योन्मुखी समाज की निशानी नहीं है। साथ ही, तात्कालिक व्यावसायिक या राजनीतिक फायदों के लिए भावनाओं को भुनाने की प्रवृत्ति को भी हतोत्साहित करना बहुत जरूरी है। जो युवा बहुल देश विश्व में महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा रखता है, उसे ऐसे भटकावों से बचना चाहिए।


Date: 19-03-25

प्रकाश पर नए परीक्षण से फिर सही साबित हुए आइंस्टीन

निरंकार सिंह, ( पूर्व सहायक संपादक, हिंदी विश्वकोश )

विख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने आज से 110 साल पहले कहा था कि पदार्थ और ऊर्जा अलग-अलग नहीं हैं। उन्हें एक-दूसरे में बदला जा सकता है। इटली के वैज्ञानिकों ने प्रकाश, यानी ऊर्जा को ठोस रूप में बदलकर आइंस्टीन की भविष्यवाणी को सच साबित कर दिया है। जाहिर है, यह खोज क्वांटम भौतिकी में मील का महत्वपूर्ण पत्थर है। इससे क्वांटम कंप्यूटर और संचार प्रणाली में क्रांति आ सकती है। ऊर्जा के उत्पादन से लेकर कई क्षेत्रों में संभावनाओं के नए द्वार खुलेंगे। आइंस्टीन के सिद्धांत से पहले माना जाता था कि पदार्थ और ऊर्जा भिन्न-भिन्न सत्ताएं हैं, किंतु आइंस्टीन के सापेक्षता के विशिष्ट सिद्धांत के अनुसार, दोनों एक ही मूल सत्ता के दो भिन्न रूप हैं। उनके सिद्धांत की पहली बार पुष्टि तब हुई, जब परमाणु बम बना और जापान के नागासाकी और हिरोशिमा में उसकी विध्वंसक क्षमता देखी गई।

कई अरब वर्षों से सूर्य ऊर्जा का उत्सर्जन कर रहा है। इसका रहस्य भी ऐसी ही क्रिया में निहितहै। आज सापेक्षता का ऊर्जा और पदार्थ संबंधी समीकरण कई प्रयोगों से प्रमाणित हो गया है। भौतिकी में इस सिद्धांत को अहम स्थान प्राप्त है। 20 वीं सदी में, जब क्वांटम मैकेनिक्स और आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत आया, तब जाकर प्रकाश की दोहरी प्रकृति, यानी कण और तरंग, दोनों के रूप का पता चला। फिर भी इसे ‘ठोस’ बनाने का विचार अव्यावहारिक था, क्योंकि इसके लिए अविश्वसनीय रूप से जटिल प्रक्रियाएं चाहिए थीं। मगर अब इसे इटली के वैज्ञानिकों ने साबित कर दिखाया है। यह सफलता न केवल प्रकाश के भौतिक गुणों को समझने में सहायक होगी, बल्कि यह नई क्वांटम सामग्रियों व प्रौद्योगिकियों के विकास में भी क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है।

इस अध्ययन से पता चला है कि प्रकाश न केवल तरल व्यवहार कर सकता है, बल्कि इसे ठोस अवस्था में भी बदला जा सकता है। वैज्ञानिकों ने अब इसे एक नई अवस्था में बदला है, जिसे ‘क्वांटम सुपरसॉलिड’ कहा जाता है। यह खोज दर्शाती है कि प्रकाश में कठोरता और प्रवाहशीलता, दोनों गुण मौजूद हो सकते हैं, जो इसको पारंपरिक पदार्थों से अलग बनाते हैं।

वैज्ञानिकों ने एक विशेष रूप से डिजाइन किए गए अर्द्धचालक(सेमीकंडक्टर) पर एक लेजर बीम को केंद्रित किया। इस प्रक्रिया में प्रकाश और पदार्थ के बीच एक जटिल आंतरिक क्रिया, जिससे प्रकाश के संकर (हाइब्रिड) कणों का निर्माण हुआ । इनको ‘पोलारिटॉन’ कहा जाता है। सुपरसॉलिड अवस्था एक दुर्लभ क्वांटम स्थिति है, जिसको पाना बहुत मुश्किल माना जाता था। पहले वैज्ञानिकों ने इस अवस्था को बहुत कम तापमान ( अत्यधिक ठंडे परमाणुओं) में ही संभव पाया था, पर अब शोधकर्ताओं ने दिखाया है कि यह सुपरसॉलिड अवस्था सामान्य परिस्थितियों में भी बनाई जा सकती है। उन्होंने एक विशेष रूप से डिजाइन की गई संरचना का उपयोग करके पोलारिटॉन को नियंत्रित किया। उन्हें इस नए रूप में बदला।

इस खोज से ऊर्जा उत्पादन और भंडारण के नए समाधान मिल सकते हैं। सौर ऊर्जा, बैटरी, टेक्नोलॉजी और सुपरकंडक्टिविटी को बेहतर बनाया जा सकता है, जिससे विद्युत खपत कम होगी और ऊर्जा दक्षता बढ़ेगी। लंबे समय में यह तकनीक हरित ऊर्जा (ग्रीन एनर्जी) को और प्रभावी बना सकती है, जिससे पर्यावरण संरक्षण में मदद मिलेगी। इस तकनीक से अत्याधुनिक ऑप्टिकल व इलेक्ट्रॉनिक उपकरण विकसित किए जा सकते हैं। भविष्य में, बेहतर कैमरे, अधिक शक्तिशाली प्रोसेसर और अल्ट्रा थिन डिस्प्ले वाले स्मार्टफोन व गैजेट्स संभव हो सकते हैं। बैटरी लाइफ बढ़ाने व फास्ट चार्जिंग जैसी सुविधाएं और बेहतर हो सकती हैं। यह खोज बेहतर संचार प्रणाली विकसित करने में मदद कर सकती है, जिससे अंतरिक्ष अन्वेषण को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है। लंबी दूरी के मिशन, जैसे मंगल ग्रह और उससे आगे के अभियानों के लिए नई तकनीक का उपयोग किया जा सकेगा।

हालांकि, इस खोज की सटीक तिथि और इसे पूरा करने में लगे समय के बारे में अभी ज्यादा जानकारी नहीं दी गई है। इस खोज का एक आम आदमी की जिंदगी पर प्रत्यक्ष प्रभाव तुरंत भले न दिखे, पर आने वाले समय में हमारी रोजमर्रा की जिंदगी इससे प्रभावित होने जा रही है।