19-01-2021 (Important News Clippings)

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19 Jan 2021
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Date:19-01-21

Lending A Hand

Setting up a bad bank may help to clean up banks’ balance sheet. But it should not be used to paper over structural deficiencies

Editorial

The idea of floating a bad bank to tackle the worsening asset quality of the banking system in India has surfaced once again. RBI governor Shaktikanta Das recently indicated that the central bank could consider it to address the issue of stressed loans in the system. This comes after stress tests carried out by the RBI, published in its latest financial stability report, found that gross non-performing loans of the banking system could rise to 13.5 per cent of advances by September 2021, up from 7.5 per cent last year. The Economic Survey 2016-17 had also argued in favour of setting up a “Public Sector Asset Rehabilitation Agency” to help tackle the problem of bad loans. There is a reasonable argument to be made in favour of setting up a bad bank. Such an institution, by taking over the stressed loans off their balance sheets, will leave the banks unencumbered to lend — reviving credit growth is after all critical for a sustainable economic recovery. And as loans of a stressed entity are often held across several banks, aggregating them into a single entity may pave the way for a quicker, more effective restructuring of the loans. However, before proceeding, several concerns need to be addressed.

First what kind of loans will be taken over? Will only those loans that have turned stressed due to the economic distress stemming from the COVID-19 pandemic be included? Or will loans extended to firms in sectors like power and real estate, which had soured even before the pandemic had hit, also be brought into its ambit? Considering that banks have in the past been reluctant to decide on the extent of haircut they were willing to take, how will the prices at which these loans are transferred to the bad bank be determined? Who will absorb the losses? And will the new entity be professionally managed, operating at an arms length from the political dispensation? Or will political considerations influence decision making?

There is also the concern that setting up a bad bank will free lenders from the repercussions of their actions. And if allowed, there may not be any incentive for banks to focus on the quality of credit extended, or for them to monitor loans, and guard against ever-greening. While the idea of setting up a bad bank may sound appealing, this once in a generation crisis must not be used to paper over the inherent problems in the banking system. A bad bank does not address the structural weaknesses in public sector banks. Neither does bank recapitalisation. The larger systemic issues need to be attended. The upcoming budget must lay out a clear roadmap on how the government plans to address the weaknesses in public sector banks.


Date:19-01-21

साख के संकट से जूझती राजनीति

जीएन वाजपेयी, ( लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं )

इतने बड़े पैमाने पर अज्ञानता और गरीबी होने के बावजूद भारत में लोकतंत्र का स्वरूप देखकर दुनिया को बड़ा अचंभा होता है। भारत 20वीं सदी में राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने वाले चुनिंदा देशों में से एक है जहां मतदान के आधार पर ही रक्तहीन सत्ता हस्तांतरण हुआ है। लोकतंत्र के रूप में दुनिया में सबसे अधिक सराहे जाने वाले अमेरिका के निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के उलट भारत में मुख्य चुनाव अधिकारी के प्रमाण पत्र को सभी प्रत्याशी गरिमापूर्वक स्वीकार करते हैं। प्रमुख अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने भी अपने हालिया अंक में यह लिखा है कि भले ही भारत में कुछ संस्थानों का पराभव हो रहा हो, परंतु वहां लोकतंत्र का अस्तित्व अक्षुण्ण है।

स्वतंत्रता के बाद उच्च सरकारी पदों पर स्वतंत्रता सेनानी या अपने क्षेत्रों में महारत हासिल कर चुके भद्र लोग ही आसीन हुए। उन्होंने एक आधुनिक लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना कर नागरिकों की सेवा की। यह सेवा उन्होंने उस देशभक्ति के कारण की जो उनके मूल सिद्धांतों में शामिल थी। उनके शब्दों और फैसलों ने यही जाहिर किया। मुझे 1996 में अंडमान स्थित सेल्युलर जेल देखने का अवसर मिला जो ‘काला पानी’ के नाम से कुख्यात थी। वहां स्वतंत्रता सेनानियों को भयावह प्रताड़नाएं दी जाती थीं। उनमें से तमाम ने भावी पीढ़ियों के बेहतर भविष्य के लिए अपना जीवन उन्हीं कष्टों में होम कर दिया। वहां उन सेनानियों से जुड़े रजिस्टर में दर्ज एक वाकये ने मुझे बहुत मर्माहत किया। वह एक ऐसे कैदी से जुड़ा था जिसे फांसी होने वाली थी। उसने रिहा हुए अपने साथी के जरिये गांव वालों को यही संदेश भिजवाया कि वह उन्हें यही बताए मैं अपना फर्ज निभा चुका हूं और अब उन्हें अपना कर्तव्य निभाना होगा। उस दौरे में मेरी सबसे छोटी बेटी भी साथ थी जिसकी उम्र तब 15 वर्ष रही होगी। उसने मुझसे उस संदेश का मर्म समझाने को कहा। मैंने कहा कि संभव है कि गांव को उनका संबोधन मात्र एक प्रतीक हो और वह समूचे देश को यह संदेश देना चाहते हों कि उनके बलिदान से देश को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली और यह अगली पीढ़ियों की जिम्मेदारी है कि वे लाखों लाख गरीबों के आर्थिक उद्धार की लड़ाई लड़ें।

दक्षिण कोरिया, मलेशिया और सिंगापुर जैसे अधिकांश पूर्वी एशियाई देशों को भी 20वीं शताब्दी में आजादी मिली और उन्होंने व्यापक स्तर पर गरीबी दूर करके संपन्नता की राह पकड़ी है। वहीं भारत गरीबी उन्मूलन और आम आदमी को संपन्न बनाने की दिशा में अभी भी संघर्ष ही कर रहा है। वहीं बीते कुछ दशकों के दौरान भारतीय लोकतंत्र के संचालन में व्यापक गिरावट देखने को मिली है। जनप्रतिनिधियों और सरकार में महत्वपूर्ण पद संभालने वालों की गुणवत्ता को देखकर इसका स्पष्ट आभास होता है। बताया जाता है कि देश में फिलहाल 36 प्रतिशत सांसद और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। पारिवारिक मिल्कियत जैसे राजनीतिक दल, धार्मिक हितों से जुड़े समूह, धनबल-बाहुबल और उत्तराधिकार की महत्ता खासी बढ़ गई है। यहां तक कि अगर कुछ विषय विशेषज्ञ पेशेवरों को भी सरकार में महत्वपूर्ण पद मिलते हैं तो अधिकांश मामलों में वे भी पद प्रदान करने वाली पार्टी के अहसान तले ही दबे रहते हैं और किसी वाजिब मसले पर एक राजनेता के रूप में अपनी आवाज बुलंद करने से हिचकते हैं। प्रत्येक विधानसभा और आम चुनाव में यह दिखता भी है। हालिया बिहार विधानसभा चुनाव भी इसका गवाह बना।

बहरहाल सार्वभौमिक मताधिकार और एक व्यक्ति-एक मत वाले उस लोकतंत्र में जहां अशिक्षा और आर्थिक विपन्नता व्यापक रूप से पसरी हुई हो, वहां बड़ी संख्या में अयोग्य व्यक्तियों के चुने जाने की संभावनाएं एवं गुंजाइश काफी बढ़ जाती हैं। ऐसे में सक्षम, ईमानदार और प्रेरित करने वाले नेताओं के लिए पर्याप्त जगह बनानी होगी। हालांकि अनुभवजन्य साक्ष्यों के अभाव में ऐसे नेताओं की कमी के कारण तलाशना कठिन है, वह भी तब जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी पिछड़ी हुई है और लाखों लोग आर्थिक मुश्किलों को झेल रहे हैं। इसके बावजूद कृषि सुधारों जैसे मसलों पर राजनीतिक सहमति बन पाना मुश्किल है। यह स्थिति तब है जब हर एक नेता गरीब किसानों के कल्याण की कसमें खाकर नमक का हक अदा करने का दावा करता है।

हमें यह नहीं भूलना होगा कि ढांचागत सुधारों के अभाव में संस्थागत सुधार अर्थव्यवस्था के लिए पूरी तरह फलदायी नहीं हो सकते। आइबीसी इसका एक उदाहरण है। संस्थागत सुधारों में जहां गड़बड़ियां और निहित स्वार्थ बेलगाम होते हैं, सभी पक्षों की सहमति के अभाव में उनकी राह खुल पाना असंभव होगा। उधर सत्ता में आने पर प्रत्येक राजनीतिक दल और उसके मंत्री बने नेता यही दावा करते हैं कि उनका हर एक कदम गरीबों के हित में उठाया गया है। इसके साथ ही ‘प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद’ का पिटारा खुलता ही जाता है। फिर उसके तात्कालिक और दीर्घकालिक आर्थिक परिणामों की परवाह नहीं की जाती। असल में अधिकांश समय तो संकीर्ण राजनीतिक हितों की पूर्ति में ही लग जाता है। वे एक मामूली नेता (पॉलिटिशियन) और महान राजनेता (स्टेट्समैन) के बीच अंतर को समझने से ही इन्कार करते हैं। जबकि सरकार में होने का तकाजा ही यही होता है कि नेता एक राजनेता के रूप में उभरकर अधिक से अधिक लोगों की भलाई के लिए कदम उठाएं, न कि अपने राजनीतिक दल के हितों को पोषित करें। अफसोस की बात यही है कि परिपक्व लोकतंत्रों में भी राजनेताओं की प्रजाति धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है।

हमारे नेताओं की मौजूदी पीढ़ी उन स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान के प्रति निष्ठुर है जिन्होंने हमें राजनीतिक स्वतंत्रता की सौगात दी। उन सेनानियों ने इन भावी नेताओं पर ही आर्थिक विपन्नता को मिटाने और गरिमा एवं सम्मान से जीने को संभव बनाने का दारोमदार सौंपा था। यह तभी संभव है जब भद्र एवं योग्य नेताओं को निर्णय प्रक्रिया एवं नीति निर्माण में पर्याप्त अवसर मिले। हाल में एक टिप्पणीकार के हवाले से मैंने पढ़ा कि हमारी युवा पीढ़ी को राजनीति एवं नेताओं पर भरोसा नहीं है। ऐसे में यह मतदाताओं के सम्मान और भरोसे को जीतने का समय है। भारत ने लंबे समय से इसकी प्रतीक्षा की है तो अब इस मोर्चे पर परिणाम भी दिखने चाहिए।


Date:19-01-21

आत्मनिर्भर भारत को नई पहचान देंगे युवा

महेंद्र नाथ पाण्डेय, ( लेखक केंद्रीय कौशल विकास और उद्यमशीलता मंत्री हैं )

किसी भी देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास में कौशल का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। कौशल एक ऐसा साधना है, जिसके द्वारा युवाओं को सशक्त एवं आत्मनिर्भर बनाने के साथ ही उद्योगों की मांग के अनुसार कुशल कार्यबल तैयार करके स्किल गैप को आसानी से भरा जा सकता है। कौशल सिर्फ एक व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि उसके साथ-साथ समाज और राष्ट्र को भी आगे बढ़ाता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए केंद्रीय कौशल विकास और उद्यमशीलता मंत्रालय राज्य सरकारों, प्रशिक्षण भागीदारों और अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ मिलकर देश के युवाओं को कौशल प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है। आज इसी का परिणाम है कि विभिन्न कौशल संस्थानों में प्रशिक्षण ले रहे युवाओं ने अपनी क्षमता एवं कुशलता का परिचय देते हुए नवाचार के क्षेत्र में अनेक नए प्रयोग किए हैं, जो भविष्य में अन्य छात्रों के लिए प्रेरणादायी साबित होंगे। हमारे युवाओं में वह सामथ्र्य एवं हुनर है, जिसके बल पर भारत को विश्व की कौशल राजधानी बनाया जा सकता है। वर्ष 2030 तक भारत के पास दुनिया का सबसे बड़ा कार्यबल होने की उम्मीद है। इसमें सबसे ज्यादा संख्या युवाओं की होगी। इस युवा कार्यबल को कौशल प्रशिक्षण प्रदान कर उन्हें भविष्य के लिए तैयार किया जा सकता है, ताकि रोजगार के नए अवसरों में तेजी से वृद्धि की जा सके। कौशल के द्वारा ही हम 21वीं सदी के नए भारत की नींव रख सकते हैं। कौशल हमें रोजगार के अनेक अवसर प्रदान करता है। साथ ही स्व-रोजगार के लिए भी प्रेरित करता है। इसमें वह शक्ति है, जिसके द्वारा हम भारत को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा सकते हैं। कौशल के द्वारा युवा अपने सपनों को साकार कर सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने युवाओं को प्रासंगिक रहने के लिए ‘स्किल, अपस्किल और रीस्किल’ का मंत्र दिया था। इस मंत्र का उपयोग कर युवा दूसरों से हटकर अपनी एक अलग पहचान बना सकते हैं।

युवाओं को नई-नई तकनीकों में कौशल प्रशिक्षण प्रदान करने और जिला स्तर पर आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (पीएमकेवीवाई) 3.0’ को पिछले साल अक्टूबर/नवंबर में कुछ अहम दिशानिर्देशों के साथ लांच किया गया। इस योजना का लक्ष्य वित्तवर्ष 2020-21 के दौरान आठ लाख उम्मीदवारों को प्रशिक्षित करना है। यह मांग और उद्योगों पर आधारित एक ऐसी योजना होगी, जो आधुनिक कौशल पर काम करेगी और जिला स्तर पर युवाओं को सशक्त बनाएगी। इसके अंतर्गत जिला स्तर पर उद्योगों एवं अन्य क्षेत्रों की मांग के आधार पर जॉब की पहचान की जाएगी। साथ ही जिला स्तर पर जिला कौशल समिति (डीएससी) का गठन किया जाएगा। ये समितियां उद्योगों की मांग के अनुसार स्थानीय स्तर पर स्किल्स की पहचान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। विभिन्न स्थानों पर कौशल मेलों का भी आयोजन करेंगी जिसमें युवाओं को कौशल प्रशिक्षण के बारे में अवगत कराया जाएगा। सभी उम्मीदवारों को प्लेसमेंट, स्वरोजगार और शिक्षुता के समान अवसर प्रदान करने में भी अपनी भागीदारी निभाएंगी। इस योजना के अंतर्गत संकल्प प्रोजेक्ट के द्वारा स्थानीय स्तर पर श्रमिकों को प्रमाणित किया जाएगा और बड़े स्तर पर उन्हें स्थायी आजीविका के अवसर प्रदान किए जाएंगे। इसमें राज्य कौशल विकास मिशन की भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2015 में ‘स्किल इंडिया मिशन’ की शुरुआत की थी। इस मिशन का उद्देश्य युवाओं का कौशल विकास कर उन्हेंं रोजगार के स्थायी अवसर प्रदान करना था। आज इस मिशन के द्वारा प्रत्येक वर्ष एक करोड़ से अधिक युवाओं का कौशल विकास किया जा रहा है। इसके अलावा प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के द्वारा युवाओं को नवीन तकनीकों पर आधारित कौशल प्रशिक्षण प्रदान किया जा रहा है। इसके अंतर्गत अब तक एक करोड़ से अधिक युवाओं को कौशल प्रशिक्षण दिया जा चुका है और लाखों लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान किए गए हैं। आज देश भर में 700 से अधिक जिलों में 26,000 से अधिक प्रशिक्षण केंद्रों का एक मजबूत नेटवर्क स्थापित किया जा चुका है। जहां पर युवाओं को कौशल प्रशिक्षण के साथ-साथ उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में 48.7 करोड़ श्रमिक हैं। आज भी हमारे देश में ऐसे श्रमिकों की संख्या अधिक है, जो अपने काम में निपुण तो होते हैं, लेकिन प्रमाणित नहीं होते हैं। इसीलिए कौशल विकास और उद्यमशीलता मंत्रालय संकल्प प्रोजेक्ट के द्वारा ऐसे श्रमिकों को प्रमाणित कर रहा है, ताकि उन्हें भविष्य में बेहतर रोजगार के अवसर मिल सकें। इसके साथ ही भविष्य के कौशल निर्माण के लिए भी श्रमिकों को तैयार किया जा रहा है, ताकि उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जा सके। हमारी महत्वपूर्ण पहलों में से एक आरपीएल (रिकगनाइजेशन ऑफ प्रायर लर्निंग) के द्वारा भी श्रमिकों के हुनर को एक अलग पहचान मिल रही है। हाल में राष्ट्रीय कौशल विकास निगम द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार आरपीएल प्रमाणीकरण के बाद लगभग 47 प्रतिशत लोगों ने स्वीकार किया है कि उनकी आय में वृद्धि हुई है। इतना ही नहीं, नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार जिन उम्मीदवारों ने आरपीएल में प्रशिक्षण प्राप्त किया है उनमें से 59 प्रतिशत उम्मीदवारों ने स्वीकार किया है कि वह उनके कौशल को सशक्त बनाता है और बाजार में उन्हें रोजगार के बेहतर अवसर दिलाने में उनकी मदद करता है।

हमारा उद्देश्य जिला स्तर पर अधिक से अधिक युवाओं को प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के साथ जोड़ना है, ताकि कौशल विकास कर उन्हें रोजगार के स्थायी अवसर प्रदान किए जा सकें। कुशल युवा ही आत्मनिर्भर भारत के विजन को नई दिशा प्रदान कर सकते हैं।


Date:19-01-21

भ्रष्टाचार की जड़ें

संपादकीय

भ्रष्ट अधिकारियों पर सतत निगरानी और कार्रवाई के दावों के बावजूद सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार किस कदर हावी है, हाल की कुछ घटनाओं ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है। दो दिन पहले गुवाहाटी में रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी को एक करोड़ रुपए की घूस मांगने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। इस अधिकारी ने एक निजी कंपनी को ठेका दिलवाने के एवज में यह रकम मांगी थी। पिछले हफ्ते राजस्थान में दौसा जिले की एसडीएम और पुलिस अधीक्षक को लाखों रुपए की घूस लेने के मामले में पकड़ा गया। देश सेवा का संकल्प लेकर प्रशासनिक सेवा में आए इन अधिकारियों ने राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने के काम में लगी कंपनी से यह घूस ली थी। इसी महीने राजस्थान में ही एक जिला कलक्टर और उनके निजी सचिव को मोटी घूस लेने के मामले में गिरफ्तार किया गया था। ये घटनाएं बताती हैं कि चाहे बड़े स्तर पर हो या फिर जिला, तहसील या पंचायत स्तर पर, भ्रष्टाचार से मुक्त प्रशासन की कल्पना नहीं की जा सकती। भले कोई राज्य कितने दावे क्यों न करे कि उसके यहां भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन है, लेकिन भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी और अधिकारी जिस तरह से लूट-खसोट मचा रहे हैं, वह सरकारों के भ्रष्टाचार मुक्त होने के दावों की पोल खोलने के लिए काफी है।

भारत के शासन-प्रशासन में भ्रष्टाचार का रोग जन्मजात है। पिछले तीन-चार दशकों में यह समस्या और विकट हुई है। आश्चर्य की बात तो यह है कि चुनावों में कोई भी राजनीतिक दल इसे मुद्दा बनाने से चूकता नहीं है और भ्रष्टाचार खत्म करने और साफ-सुथरा प्रशासन देने का वादा करता है, लेकिन सत्ता में आते ही यह वादा हवा हो जाता है। सरकारों और प्रशासन में हर स्तर भ्रष्टाचार पर जिस तेजी से बढ़ा है, उससे आमजन की मुश्किलें ज्यादा बढ़ी हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल इक्यावन फीसद लोगों ने घूस देकर अपने काम निकलवाए। सबसे ज्यादा यानी छब्बीस फीसद लोगों को संपत्ति और भूमि संबंधी कामों के लिए घूस देनी पड़ी, बीस फीसद लोगों को पुलिस में पैसे खिलाने पड़े। इसी तरह नगर निगम, बिजली विभाग, जल विभाग, आरटीओ दफ्तर और अस्पताल ऐसे ठिकाने हैं, जिनसे आमजन का सीधा साबका पड़ता है और जहां बिना घूस के काम करा पाना संभव नहीं है।

भारत में केंद्रीय जांच ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय, राजस्व खुफिया निदेशालय सहित कई जांच एजेंसियां हैं जिन पर भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की जिम्मेदारी है। हालांकि जांच एजेंसियां भी इस बीमारी से पूरी तरह मुक्त होंगी, कह पाना मुश्किल है। सीबीआइ को लेकर तो समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट ने जो तल्ख टिप्पणियां की हैं, वे स्थिति की गंभीरता को बताने के लिए पर्याप्त हैं। राज्यों में भी भ्रष्टाचार निरोधक विभाग और लोकायुक्त जैसी संस्थाएं हैं। फिर भी भ्रष्ट अधिकारियों के हौसले बुलंद होना बताता है कि उनके आगे सरकारी तंत्र बौना पड़ चुका है। इसकी वजह यह है कि भ्रष्टाचार के मामलों में त्वरित और ठोस कार्रवाई नहीं होती और ज्यादातर मामलों में आरोपियों को बचाने में एक बड़ा तंत्र जुट जाता है। पकड़े गए अधिकारियों और कर्मचारियों को दिखावे के तौर पर निलंबित भले कर दिया जाए, लेकिन थोड़े समय बाद ही सब कुछ पहले की तरह हो जाता है। वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने कर महकमों से जुड़े कई अफसरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर यह संकेत दिया था कि वह भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करेगी। लेकिन भ्रष्टाचारियों का तंत्र सरकार के तंत्र से कहीं ज्यादा सुसंगठित और मजबूत है। ऐसे में भ्रष्टाचारियों से निपटने के लिए सख्त कानूनों के उपयोग से भी ज्यादा जरूरी है मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना, जिसका अभाव भ्रष्ट तंत्र के विकास को बढ़ावा देता है।


Date:19-01-21

उपभोक्ता संरक्षण की चुनौती

जयंतीलाल भंडारी

आज के बाजारवादी युग में उपभोक्ता संरक्षण बड़ी जरूरत के रूप में सामने आ चुका है। जिस तेजी से आर्थिक गतिविधियां बढ़ रही हैं और अर्थव्यवस्थाएं बाजारोन्मुख हो चुकी हैं, उसमें उपभोक्ता ही सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण घटक है। बिना उपभोक्ता के बाजार की कल्पना संभव ही नहीं है। ऐसे में उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा भी सरकारों की बड़ी जिम्मेदारी हैं, खासतौर वैश्विक बाजार जब डिजिटल रूप में तब्दील हो चुका हो। पिछले एक साल में कोरोना महामारी के बीच ई-कॉमर्स का चलन तेजी से बढ़ा है। भारत में भी ऑनलाइन बाजारों और कंपनियों की भरमार देखने को मिल रही है और कई बड़ी कंपनियां इनमें स्थापित भी हो चुकी हैं। भारत ही नहीं दुनिया के सभी देशों में जैसे-जैसे ई-कॉमर्स और डिजिटल लेन-देन बढ़े हैं, वैसे-वैसे उपभोक्ताओं को बढ़ती हुई डिजिटल धोखाधड़ी और बढ़ते हुए साइबर अपराधों का सामना करना पड़ रहा है। दूसरी ओर परंपरागत बाजारों में भी उपभोक्ताओं के साथ तरह-तरह की धोखाधड़ी के मामलों में कमी देखने को नहीं मिल रही है। यह चुनौती ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में कहीं ज्यादा है।

जिस उपभोक्ता को बाजार की आत्मा कहा जाता है, उसे अभी भी बाजार में तरह-तरह की धोखाधड़ी का सामना करना पड़ता है। आम उपभोक्ता खाद्य सामग्री में मिलावट, बिना मानक की वस्तुओं की बिक्री, अधिक दाम, कम नाप-तौल जैसी समस्मयाओं से आए दिन रूबरू होते हैं। इतना ही नहीं, बड़ी मात्रा में हरी सब्जियां बाजारों में रंगी जाती हैं, दूध और तेल में मिलावट का धंधा किसी से छिपा नहीं है। मिठाइयों और मावे में भी मिलावट की घटनाएं देखने को मिलती रहती हैं। जाहिर है, उपभोक्ताओं की जेब ही नहीं कट रही, बल्कि उनके स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ हो रहा है। ऐसे में देश के कोने-कोने में उपभोक्ता संरक्षण संबंधी विभिन्न चुनौतियां बढ़ गई हैं।

हालांकि हर साल चौबीस दिसंबर को देश में राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस मनाया जाता है। इस दिन 1986 में राष्ट्रीय उपभोक्ता संरक्षण कानून लागू किया गया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि उपभोक्ता संरक्षण कानून 1986 को उपभोक्ताओं के अधिकारों की रक्षा करने वाले और उपभोक्ताओं को न्यायिक अधिकारों के माध्यम से मुआवजा सुनिश्चित करने वाले सशक्त कानून के रूप में रेखांकित किया गया है। इस कानून ने भारत में उपभोक्ता आंदोलन को एक आंदोलन का रूप दे दिया है। इस कानून के तहत उपभोक्ताओं के अधिकारों की रक्षा के मद्देनजर निमार्ताओं, सेवा प्रदाताओं और सरकार द्वारा किए जाने वाले सभी कार्यकलापों को सम्मिलित किया गया। साथ ही उपभोक्ता संरक्षण में व्यापारियों और उत्पादकों द्वारा उपभोक्ता विरोधी व्यवहारों के खिलाफ आश्वासन भी शामिल किए गए हैं, जिनसे उपभोक्ताओं को ठगी से बचाया जा सके और उनकी शिकायतों का त्वरित निपटान किया जा सके। लेकिन उपभोक्ता संरक्षण कानून 1986 लागू होने के बाद भी स्थिति यह है कि देश के उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है। पिछले एक-डेढ़ दशक में लगातार यह महसूस किया गया कि वैश्वीकरण और ई कॉमर्स के दौर में भारत में उपभोक्ता अधिकारों के संरक्षण के लिए एक नए और व्यापक कानून होने चाहिए। इसी परिप्रेक्ष्य में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 को निरस्त करके 9 अगस्त, 2019 को नया उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 प्रतिस्थापित किया गया और इसे पिछले साल 20 जुलाई को लागू किया गया था।

इस समय कोविड-19 के बीच देश में उपभोक्ता बाजार के बदलते स्वरूप, ई-कॉमर्स और डिजिटलीकरण के नए दौर में नए उपभोक्ता संरक्षण कानून का कारगर साबित हो सकता है। यदि हम नए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की तस्वीर देखें तो पाते हैं कि इसके तहत उपभोक्ताओं के हितों से जुड़े विभिन्न प्रावधानों को प्रभावी बनाने के लिए कई नियमों को प्रभावी किया गया है। इनमें उपभोक्ता संरक्षण (सामान्य) नियम 2020, उपभोक्ता संरक्षण (उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग) नियम 2020, उपभोक्ता संरक्षण (मध्यस्थता) नियम 2020, उपभोक्ता संरक्षण (केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद) नियम 2020 और उपभोक्ता संरक्षण (ई-कॉमर्स) नियम 2020 आदि शामिल हैं। जाहिर है, नया उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम न केवल पिछले 1986 के अधिनियम की तुलना में अधिक व्यापक है, बल्कि इसमें उपभोक्ता अधिकारों का बेहतर संरक्षण भी किया गया है। नए उपभोक्ता अधिनियम के तहत केंद्रीय स्तर पर एक केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (सीसीपीए) का गठन भी 24 जुलाई, 2020 को किया गया। इसके तहत उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए सीसीपीए को शिकायतों की जांच करने, असुरक्षित वस्तुओं व सेवाओं को वापस लेने के आदेश देने, अनुचित व्यापार व्यवस्थाओं और भ्रामक विज्ञापनों को रोकने के आदेश देने और भ्रामक विज्ञापनों के प्रकाशकों पर जुर्माना लगाने के अधिकार प्रदान किए गए हैं। पहली बार उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में ई-कॉमर्स, ऑनलाइन, प्रत्यक्ष बिक्री और टेलीशॉपिंग कंपनियों को भी इसके दायरे में लाया गया है।

महत्त्वपूर्ण खास बात यह है कि नए उपभोक्ता कानून से जहां अब एक करोड़ रुपए तक के मामले जिला विवाद निवारण आयोग में दर्ज कराए जा सकेंगे, वहीं एक करोड़ रुपए से अधिक लेकिन दस करोड़ रुपए तक राशि के उपभोक्ता विवाद राज्यस्तरीय आयोग में दर्ज कराए जा सकेंगे। राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग में दस करोड़ रुपए से अधिक मूल्य वाले उपभोक्ता विवादों की सुनवाई होगी। यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि नए अधिनियम में जिला आयोग के निर्णय की अपील राज्य आयोग में करने की समयावधि को तीस दिन से बढ़ा कर पैंतालीस दिन किया गया है। इसी तरह किसी उत्पादक और विक्रेता के विरुद्ध शिकायत अभी तक उसके क्षेत्र में ही दर्ज कराई जा सकती थी। लेकिन अब नए अधिनियम के तहत उपभोक्ता के आवास एवं कार्यक्षेत्र से भी शिकायत दर्ज कराई जा सकेगी। नए उपभोक्ता कानून के तहत दावा अब उपभोक्ता अदालत में ही किया जा सकेगा। मध्यस्थता के जरिए मामलों के निपटान का प्रावधान भी इस कानून में किया गया है। भ्रामक विज्ञापनों के मामलों में सजा के कड़े प्रावधान नए कानून में हैं। ऐसे विज्ञापनों के मामले में विज्ञापन करने वाली हस्तियों को भी जवाबदेह माना गया है और उन पर भी जुर्माना लगाया जा सकेगा। जाहिर है, नया उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम भारत के बढ़ते हुए विविधतापूर्ण उपभोक्ता बाजार के लिए कारगर साबित होगा।

देश के करोड़ों उपभोक्ता रिश्वतखोरी के चिंताजनक परिदृश्य के बीच उपभोक्ता संतुष्टि से बहुत दूर दिखाई देते हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने भ्रष्टाचार पर अपनी रिपोर्ट- एशिया सर्वे में बताया है कि एशिया में सर्वाधिक रिश्वतखोरी भारत में है। यह सर्वे पिछले साल जुलाई से सितंबर के बीच छह सरकारी सेवाओं- पुलिस, अदालत, सरकारी अस्पताल, पहचान पत्र लेने की प्रक्रिया और बिजली, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए रिश्वत दिए जाने संबंधी प्रश्नों के जवाब पर आधारित है। भारत में उनतालीस फीसद लोगों ने कहा कि उन्हें सरकारी सुविधाओं की इस्तेमाल करने के लिए रिश्वत देनी पड़ी। देश में व्याप्त रिश्वतखोरी को लेकर सैंतालीस फीसद भारतीयों की आम राय है कि बीते एक वर्ष में देश में रिश्वतखोरी बढ़ी है। इससे स्पष्ट होता है कि रिश्वतखोरी उपभोक्ताओं की संतुष्टि के मामले में बड़ी बाधा बनी हुई है। निश्चित रूप से रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार केवल कुछ रुपयों की बात नहीं होती है, बल्कि इसका सबसे ज्यादा नुकसान देश का गरीब और ईमानदार उपभोक्ता उठाता है। देश की व्यवस्था पर उपभोक्ताओं का जो भरोसा होता है, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार उस भरोसे पर हमला करते हैं। इसमें कोई दो मत नहीं कि सरकार ने भ्रष्टाचार को कम करने के लिए कई कदम उठाए हैं, लेकिन उस अनुपात में सफलता कम मिल पाई है। उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा तभी संभव है जब घूसखोरी और भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए और सख्त कानून बनें और उन पर अमल में सख्ती हो।