18-12-2019 (Important News Clippings)

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18 Dec 2019
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Date:18-12-19

वर्तमान का उत्सव

डॉ॰ विजय अग्रवाल ,(लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एवं विचारक हैं )

समय के बारे में जितना गहन, व्यापक एवं व्यावहारिक चिंतन भारतीय मनीषा ने किया है, उतना किसी भी अन्य संस्कृति ने नहीं। इसके एक छोटे से प्रमाण के रूप में मैं यहाँ बिना मात्राओं वाले दो अक्षरों से बने एक छोटे से शब्द ‘कल‘ का उल्लेख करना चाहूंगा। जब हम बिना किसी क्रिया के (जाऊंगा, गया था आदि) ‘कल‘ कहते हैं, तो पता ही नहीं चलता कि यह कौन सा कल है – आने वाला कल या वह कल; जो बीत गया। यहाँ प्रश्न यह है कि हमारे पूर्वजों ने ऐसा किया क्यों ? क्या हमारे पास शब्दों का अकाल था ?

नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नही था। ऐसा उन्होंने बहुत गहरे चिन्तन-मनन के बाद किया होगा। मुझे इसमें समय के प्रति उनकी अखण्ड दृष्टि यानी कि एक अविच्छिन प्रवाह के विचार का बोध होता है। हम काल की गणना की सुविधा की दृष्टि से समय को मुख्यतः तीन भागों – अतीत, वर्तमान एवं भविष्य में बाँटकर देखते हैं। अतीत और भविष्य के लिए एक ही शब्द ‘कल‘ का उपयोग करके उन्होंने यह उद्घोषित किया है कि ये दोनों अलग-अलग नहीं, बल्कि एक ही हैं। दोनों का मूल तत्व एक ही है। फर्क केवल स्थान का है कि एक हो चुका, तो दूसरा होने वाला है। और ये दोनों एक-दूसरे से इतनी निकटता से किसी गांठ की तरह बंधे हुए हैं कि अलग-अलग होकर भी एक ही हैंं। लेकिन इन तीनों में मुख्य कौन है ? मुख्य है- वर्तमान। यह वर्तमान इन दोनों की जननी है।

बीता हुआ कल भी कभी वर्तमान था और जो आने वाला कल है, वह भी वर्तमान के स्पर्श करने के बाद अतीत बन जायेगा। यानी कि यह वर्तमान ही इन दोनों की विभाजन रेखा है – इधर का हिस्सा अतीत और उधर का हिस्सा भविष्य। तो यहाँ यह सीधी सी बात है कि हम अतीत का कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि वह हमारे हाथ से छूट चुका है। कर सकते थे, लेकिन तब, जब वह हमारे हाथ में था। हमारा अपना सारा अतीत हमारे अपने सारे वर्तमानों का ही तो संचयन है। इसलिए यदि मैं चाहता हूँ कि मेरा अतीत सुखद हो, तो मैं ऐसा अपने वर्तमान को सुखद बनाकर ही कर सकता हूँ; अपने वर्तमान के प्रत्येक पल को सुखद बनाकर, क्योंकि प्रत्येक गुजरता हुआ पल तत्काल अतीत में तब्दील होता रहता है। जिसे हम अपनी स्मृति कहते हैं, दरअसल वह हमारे अपने अतीत के अतिरिक्त कुछ अन्य नही है। हमारा अतीत ही हमारे मस्तिष्क में दर्ज है, जिसे हम जब-तब याद करके फिर से जीने की कोशिश करते हैं। जाहिर है कि यदि यादें (अतीत) बेहतर हैं, तो जीवन भी बेहतर होगा।

अब हम आते हैं – भविष्य पर। यह आया नहीं है, लेकिन आयेगा। अतीत तो चूंकि हमारे अपने अनुभवों से बना हुआ है, इसलिए वहाँ का तो सब कुछ ही यथार्थ है। किन्तु भविष्य के साथ ऐसा नही है। वहाँ जो कुछ भी है, सब काल्पनिक है। वे सब या तो मन की रंगीन तरंगे हैं, या आशंकाओं के काले डरावने तूफानी बादल। इनके बारे में हम तब तक कुछ नहीं कर सकते, जब तक कि भविष्य के क्षण वर्तमान में परिवर्तित नहीं हो जाते। हाँ, यह जरूर है कि वर्तमान में हम जो कुछ भी कर रहे होते हैं, वह सब भविष्य के लिए ही कर रहे होते हैं। इसलिए वर्तमान पर हम लगातार हस्तक्षेप करके उसे अपनी इच्छा के अनुसार स्वरूप देने में लगे रहते हैं। यहाँ मेरे कहने का आशय केवल इतना है कि भविष्य के लिए भी हम जो कुछ करते हैं, वह भी केवल वर्तमान में ही, क्योंकि वर्तमान में ही कर्म किया जा सकता है, और हमारे ही कर्म हमारा अतीत बनेंगे, और ये ही करेंगे हमारे भविष्य का निर्धारण। इसे ही गीता में ‘कर्मण्येवाधिकारस्तु‘ कहा गया है। कर्म पर ही मनुष्य का अधिकार है। और कर्म केवल वर्तमान में ही संभव है।

अब सवाल आता है कि आखिर मैं ये सब बातें कर क्यों रहा हूँ। निश्चित रूप से इन बातों के पीछे एक बड़ा उद्देश्य है, और वह उद्देश्य यह है कि मैं आपके मन और मस्तिष्क में वर्तमान की सर्वोकृष्टता एवं इसके अस्तित्व को स्थापित कर सकूं। यदि इसमें मुझे थोड़ी सी भी सफलता मिल गई है, तो आपको मेरे इस अनुरोध के अनुरूप अपने जीवन को जीने में सफलता मिलने की संभावना बढ़ जायेगी कि “वर्तमान में ही रहना जीवन को जीना है।” व्यवहार में होता यह है कि या तो हमारा मस्तिष्क, जिसे आप यहाँ ‘हमारा मन‘ भी कह सकते हैं, अतीत की गोद में बैठा रहता है, या फिर भविष्य में जाकर कल्पनाओं की उड़ानें भरता रहता है। वर्तमान में भी वह रहता है, लेकिन बहुत ही कम, लगभग नहीं के बराबर। जबकि होना चाहिए इसके बिल्कुल उलट। इसका नतीजा यह होता है कि हम हमेशा तनाव दबाव और चिन्ताओं से दबे रहते हैं। हमारा दम घुटता रहता है, हमारी चेतना सिसकती रहती है, और हमारे कर्म की तेजस्विता घट जाती है। इसका सीधा और तत्काल प्रभाव हमारे भविष्य पर पड़ता है। इस प्रकार हम अपनी ही करनी से; जो हमारी नासमझी की देन होती है, स्वयं को एक ऐसे दुषचक्र का शिकार बना देते हैं कि न तो भविष्य संवर पाता है और न ही हम वर्तमान को जी पाते हैं। हमारा जीवन; जो वर्तमान के असंख्य छोटे-छोटे टुकड़ों से जुड़कर बनता है, उसका सारा रस निचुड़ जाता है, उसके आनंद के सारे स्रोत सूख जाते हैं। क्या यही हमारे आज के जीवन की महाविडम्बना नहीं हैं ? बेहतर होगा कि यहाँ आप थोड़ी देर रुककर अपने जीवन के कुछ उन क्षणों को टटोलें, जिन क्षणों में आप वर्तमान में मौजूद रहे थे। उदाहरण के तौर पर दोस्तों के साथ गप्पे मारते हुए, सिनेमा देखते हुए, संगीत सुनते हुए, अपने बच्चे के जन्म की खबर या इसी तरह की कोई अच्छी सूचना सुनते हुए आदि। कभी-कभी तो यहाँ तक होता है कि आप अचानक अपने हाथ में एक लम्बी खरोंच देखते हैं लेकिन आपको याद ही नहीं आता कि यह खरोंच लगी कब थी।

ये सब इस तथ्य के सच्चे एवं जीवन के व्यावहारिक उदाहरण हैं कि उन क्षणों में आप वर्तमान को जी रहे थे। आपकी चेतना की सम्पूर्ण ऊर्जा वर्तमान के एक बिन्दु के अग्र भाग (एकाग्र) पर इतनी केन्द्रीत हो गई थी कि आपको अपने आसपास का एहसास ही नहीं था। न तो आप अतीत में थे, और न ही भविष्य में। आप पूरी तरह वर्तमान में थे। इसलिए आप आनंदित थे, और उन क्षणों में इतने खोये हुये थे कि खरोंच लगने वाले दर्द तक का एहसास नहीं हो पाया। आपको दो लोग हमेशा वर्तमान में खोये हुए मिलेंगे- बच्चे और पागल। यदि हमारे पास बच्चे जैसा मन हो जाये, और अपने कर्म के प्रति पागलपन आ जाये, तो हम भी हर क्षण को उत्सव के रूप में जीने लगेंगे। जब हम वर्तमान की बात करते हैं, तो उसका स्वरूप लम्बाई में बिल्कुल भी नहीं होता। यह तो एक छोटे से बिन्दु से भी छोटा होता है। हाँ, इसकी गहराई अनुमान से परे होती है। इसलिए वर्तमान को जीना वर्तमान की गहराई में उतरकर ही संभव हो पाता है। इसे ही हमारे यहाँ ‘ध्यान‘ कहा गया है। ध्यान, यानी कि विचारों का एक बिन्दु विशेष पर टिक जाना। विचारों के टिकते ही, उसके रुकते ही हमारी चेतना में जीवन-ऊर्जा का संचयन होने लगता है। और ऊर्जा की यही अधिकता और सघनता हमे वर्तमान की गहराई की यात्रा पर ले जाती है। यहाँ इस बात का ध्यान रखना होगा कि वर्तमान का यह अनुभव विचारों के द्वारा संभव नहीं हो सकता। इसके लिए ऊँचे स्तर की संवेदनशीलता की जरूरत होती है। हम अपने मन को हृदय में विलीन करके इस संवेदनशीलता को प्राप्त कर सकते हैं। रचनाकार इसीलिए अधिक आनंद में होते हैं, आंतरिक रचनात्मक संघर्ष के बावजूद। आप भी ऐसा कर सकते हैं।


Date:18-12-19

Justice Too Late ?

To convict Kuldeep Sengar of rape, the survivor battled patriarchy and political power

TOI Editorials

Uttar Pradesh MLA Kuldeep Sengar has been convicted of raping a minor girl from Unnao in 2017. That experience would have been horrific enough for the survivor, but her fight for justice in the intervening years inflicted further grave traumas. The special court that convicted Sengar on Monday pointed to some of the ways in which her struggle for justice had to be a struggle against the system meant to give her justice. For example, it found that the CBI investigation “suffered from patriarchal approach”, had a mindset of “brushing the issues of sexual violence against children under the carpet”, and was in fact not “fair” to either the survivor or her family members.

That the safeguards for preventing the “re-victimisation” of rape survivors completely failed, is an experience shared with too many other cases. This is the core challenge in addressing crimes against women in India, bringing de facto practices in line with de jure law. The investigation should have involved a woman officer, it did not. The survivor should not have been called to the CBI office for recording successive statements, she was. The accused was a four-time BJP MLA, she was “under threat, worried … a village girl”. Her safety should have been guaranteed. Instead her father died suspiciously in custody, her aunts in an equally suspicious traffic accident, where she was seriously injured alongside her lawyer. Trials in these cases continue.

The widespread public outrage that erupted after the 2012 Nirbhaya case, did impel a notable strengthening of anti-rape legislation but not a true course correction in the justice system. Failures in registering crimes, safeguarding witnesses, reducing pendency and delivering convictions continue. Meanwhile, as seen in last month’s Hyderabad gang rape and murder of a young veterinary doctor, new horrors such as setting the victim/ survivor on fire seem to be “trending”. The encounter killing of the four accused just feeds into a climate of impunity.

True deterrence requires timely legal processes and calibrated punishment. And in cases where the rape accused is politically influential, the state must go the extra mile in delivering a fair probe to the survivor. Doing so will send a powerful message to the public as well as police. As will political parties refraining from fielding candidates charged with crimes against women. During 2009-19 the number of Lok Sabha MPs charged with such offences actually rose by 850%, to 19 now.


Date:18-12-19

हैदराबाद रेप से उभरा जनाक्रोश बनाम सुप्रीम कोर्ट का आदेश

संपादकीय

सत्ता वर्ग का मानना है कि दुष्कर्म के मामलों को बढ़ा-चढ़ाकर न दिखाया जाए और न ही इसे मुद्दा बनाया जाए। इसकी पुष्टि के लिए उसके समर्थक और नेता मीडिया के जरिये अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में प्रति एक लाख आबादी पर दुष्कर्म के आरोपों की संख्या भी बता रहे हैं। दरअसल, उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा है कि उन देशों और भारत में दुष्कर्म की परिभाषा अलग है। भारत में दुष्कर्म को आज भी सामाजिक कलंक मानने, दबंगों का डर होने और न्याय में असाधारण विलंब से पनपी उदासीनता के कारण ग्रामीण इलाकों से ऐसे मामले पुलिस तक बेहद कम जा पाते हैं। हैदराबाद में केवल दुष्कर्म नहीं था, सामूहिक दुष्कर्म था, फिर हत्या हुई और उसके बाद भी शव से यही घृणित काम किया गया। उन्नाव में आरोपी ने जमानत पर छूटने के 24 घंटे में आरोप लगाने वाली महिला को जला दिया। उसी जिले का एक सत्ता पक्ष का विधायक महीनों से जेल में इसलिए है कि उस पर न केवल दुष्कर्म का, बल्कि शिकायत से नाराज होकर लड़की के पिता की हत्या का भी आरोप है। आरोप यह भी है कि उसने गवाही देने जा रही इस लड़की को भी सड़क दुर्घटना में मरवाने का प्रयास किया। देशभर में जनाक्रोश सामान्य दुष्कर्म की शिकायत पर सड़कों पर नहीं दिखता, लेकिन जब निर्भया और हैदराबाद के दुष्कर्म की प्रकृति पता चलती है या पता चलता है कि कोई ताकतवर किस तरह से सिस्टम को अपनी बपौती बनाकर रखता है तो दुष्कर्म की शिकार महिला की चीख उनके कानों को चीरती है। जब पुलिस हैदराबाद के आरोपियों का ‘एनकाउंटर’ करती है तो इस आक्रोश को भावनात्मक संतुष्टि मिलती है। सभी जानते हैं कि ‘एनकाउंटर’ कैसे हुआ, लेकिन पूरा देश इसलिए खुश हुआ। राम ने भी बाली को छल से ही मारा था फिर भी मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। यह सही है कि उदार प्रजातंत्र में राज्य और उसके अभिकरणों से छल की उम्मीद नहीं की जाती है और अगर इसे प्रोत्साहन मिला तो खतरनाक हो सकता है। लिहाज़ा, सुप्रीम कोर्ट का ‘एनकाउंटर’ की न्यायिक करवाना सिस्टम में भरोसा वापस लाने का प्रयास है। उन्नाव की पीड़िता की तो पुलिस ने छह माह तक रिपोर्ट ही नहीं लिखी। कोर्ट क्या कर लेगी? उसके पास ऐसी कोई ताकत नहीं है कि वह दरोगा या सीबीआई से सही जांच करवा सके, क्योंकि जांचकर्ता का तबादला तो सत्ता वर्ग करता है।


Date:18-12-19

नागरिकता के ‘फर्जी’ मुद्दे पर फंसी भाजपा

अगर नया कानून ठीक है तो फिर हिंदू और मुसलमान दाेनों ही क्यों कर रहे हैं इसका विरोध ?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक , भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष

कोई कानून हमारी संसद स्पष्ट बहुमत से बनाए और उस पर इतना देशव्यापी हंगामा होने लगे, ऐसा मुझे कभी याद नहीं पड़ता। संसद के दोनों सदनों ने नागरिकता संशोधन विधेयक पारित किया, जिसके अनुसार पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान की जाएगी। लेकिन, यह नागरिकता सिर्फ हिंदुओं, सिखों, ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों को दी जाएगी। इन देशों के मुसलमानों को नहीं दी जाएगी, क्योंकि हमारी सरकार का दावा है कि इन पड़ोसी मुस्लिम देशों के उक्त अल्पसंख्यकों पर काफी अत्याचार होते हैं। उन्हें शरण देना भारत का धर्म है। इसमें शक नहीं है कि शरणार्थियों को शरण देना किसी भी सभ्य देश का कर्तव्य है। इस दृष्टि से यह कानून सराहनीय है, लेकिन शरण देने के लिए जो शर्त रखी गई है, वह अधूरी है, अस्पष्ट है और भ्रामक है। भारतीय नागरिकता देने की वजह यह है कि इस्लामी देशों में गैर-मुस्लिमों पर अत्याचार होता है। मान लें कि यह सही है तो क्या धार्मिक अत्याचार के बहाने जो भी भारत पर लदना चाहे, उसे हम लाद लें? भारत आने वाले ऐसे लाखों लोगों में से कैसे तय होगा कि कितने लोग धार्मिक उत्पीड़न के कारण शरण मांग रहे हैं? हो सकता है कि वे बेहतर काम-धंधों के लालच में आए हों, भारत के जरिये अमेरिका और यूरोप जाने के लिए आए हों, अपने रिश्तेदारों के साथ रहने आए हों या उन सरकारों के लिए जासूसी करने के लिए भेजे गए हों। उनके पास तुरुप का बस एक ही पत्ता है कि वे मुसलमान नहीं हैं।

मूल प्रश्न यह है कि उत्पीड़न क्या सिर्फ धार्मिक होता है? यदि यह सही होता तो 1971 में बांग्लादेश से लगभग एक करोड़ मुसलमान भागकर भारत क्यों आए थे? पाकिस्तान के अहमदिया, शिया, बलूच, सिंधी और पठान लोग क्या मुसलमान नहीं हैं? वे भागकर अफगानिस्तान, भारत और पश्चिमी देशों में क्यों जाते हैं? क्या अफगानिस्तान के शिया, हजारा, मू-ए-सुर्ख, परचमी और खल्की लोग मुसलमान नहीं हैं? वे वहां से क्यों भागते रहे? इन तीनों देशों से भागने वाले लोगों में हिंदू कम और मुसलमान बहुत ज्यादा क्यों हैं? अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणा-पत्र और शरणार्थी अभिसमय के अनुसार कोई भी व्यक्ति सिर्फ धार्मिक उत्पीड़न ही नहीं, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आनुवांशिक उत्पीड़न से त्रस्त होने पर भी शरण पाने का अधिकारी होता है। इसलिए हमारा यह नागरिकता संशोधन कानून अधूरा है। यह कानून सपाट भी है। यह सिर्फ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों की ही चिंता करता है। क्यों करता है? क्योंकि 1947 में बहुत से गैर-मुस्लिम इन देशों में रह गए थे। वे मूलतः भारतीय ही हैं। यहां पहला सवाल है कि क्या 1947 में अफगानिस्तान भारत का हिस्सा था? यदि नहीं तो उसे क्यों जोड़ा गया? यदि उसे जोड़ा गया तो बर्मा, भूटान, श्रीलंका और नेपाल को क्यों छोड़ा गया? बर्मा और श्रीलंका तो ब्रिटिश भारत के अंग ही थे। इन देशों के हजारों-लाखों गैर-मुस्लिम शरणार्थी भारत आते रहे हैं। दुनिया के पचासों देशों में बसे दो करोड़ प्रवासी भारतीयों पर कभी संकट आया तो वे क्या करेंगे? यह ठीक है कि इस नए नागरिकता कानून से भारतीय मुसलमानों को कोई नुकसान नहीं है, लेकिन उन्हें क्या हुआ है? वे क्यों भड़क उठे हैं? क्योंकि इस कानून के पीछे छिपी सांप्रदायिकता दहाड़ मार-मारकर चिल्ला रही है। भाजपा ने अपने आप को मुसलमान विरोधी घोषित कर दिया है। भाजपा जब विपक्ष में थी, तब वोट पाने के लिए यह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण समझ में आता था, लेकिन अब सत्ता में है। किसे नागरिकता देना, किसे नहीं, यह आपके हाथ में है।

यदि हिंदुओं के वोट बैंक को मजबूत करने के लिए यह पैंतरा मारा गया है तो बंगाल, असम, त्रिपुरा और पूर्वोतर के अन्य प्रांतों में सारे हिंदू क्यों भड़के हुए हैं? वहां की भाजपा सरकारें क्यों हतप्रभ हैं? यह ठीक है कि इन प्रांतों के कुछ जिलों में शरणार्थी वर्जित हैं, लेकिन अभी राष्ट्रीय नागरिकता सूची तैयार की गई है, उसमें से 19 लाख लोग बाहर कर दिए गए। उनमें से 11 लाख हिंदू बंगाली हैं। इन सीमांत प्रदेशों में भाजपा का सूपड़ा साफ होने की पूरी आशंका है। भाजपा के इस कानून ने देश के परस्पर विरोधी दलों को भी एकजुट कर दिया है। यह कानून बनाते समय सरकार और हमारे सांसदों ने यह भी ठीक से नहीं सोचा कि इससे अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत की प्रतिष्ठा को कितनी ठेस पहुंचेगी। इस कानून के कारण मचे कोहराम के चलते गुवाहाटी में आयोजित भारतीय और जापानी प्रधानमंत्रियों की भेंट रद्द करनी पड़ गई। अमेरिकी सरकार और संयुक्तराष्ट्र के मानवाधिकार आयोग ने हमारे इस कदम की कड़ी आलोचना की है। पाकिस्तान के एक हिंदू सांसद और एक हिंदू विधायक ने इस कानून को वहां के हिंदुओं के लिए हानिकारक बताया है। बांग्लादेश, जो कि भारत का अभिन्न मित्र है, इस कानून से बहुत परेशान है। उसके विदेश मंत्री और गृहमंत्री ने अपनी भारत यात्रा स्थगित कर दी है। इमरान खान इस कानून की निंदा करें, इसमें कोई अचरज नहीं है। मुझे डर यह है कि कहीं अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और प्रधानमंत्री डाॅ. अब्दुल्ला भी भारत की आलोचना न करने लगें। भाजपा ने यह कानून लाकर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान को, जो कई मामलों में परस्पर विरोधी हैं, एकजुट कर दिया है। कहीं ये तीनों देश अपने यहां भारत जैसा कोई जवाबी कानून ही पास न कर दें। यानी वे भारत के अल्पसंख्यकों, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों और दलितों को नागरिकता देने का कानून न बना दें।

यदि भाजपा सरकार भारत में जनसंख्या का धार्मिक अनुपात सही करना चाहती है, जो कि उचित है, तो उसे चाहिए कि वह ‘हम दो और हमारे दो’ का सख्त कानून बनाए। मेरी राय में सरकार में इतना साहस और आत्मविश्वास होना चाहिए कि वह इस कानून को वापस ले ले। इस ‘फर्जी’ मुद्दे पर देश का समय बर्बाद करने की बजाय हमारे राजनीतिक दल देश की आर्थिक स्थिति को डावांडोल होने से बचाएं तो बेहतर होगा। यदि सर्वोच्च न्यायालय इस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दे तो वह भारत को इस निरर्थक और फर्जी संकट से बचा सकता है।


Date:18-12-19

अकेले पडऩे का जोखिम

संपादकीय

अंतरराष्ट्रीय संबंधों की मजबूती के लिए यह आवश्यक है कि भारत जैसी उभरती शक्तियों को अपने आसपास दोस्तों और सहयोगियों की तलाश करनी चाहिए और उनसे ऐसे रिश्ते रखने चाहिए जो दीर्घावधि में उनके आर्थिक उभार में काम आएं। स्वाभाविक सी बात है कि आंतरिक एकजुटता बनाए रखना भी महत्त्वपूर्ण है और आंतरिक राजनीति को यह इजाजत नहीं होनी चाहिए कि वह विदेश नीति के रुख और कदमों को इस तरह प्रभावित करे कि राष्ट्रीय हित को कोई लाभ न हो। दुर्भाग्य की बात है कि भारत इन बातों पर जरूरी ध्यान नहीं दे रहा है।

उदाहरण के लिए राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हो रहे व्यापक विरोध के बीच कुछ ऐसी बातें हैं जिनका असर हमारे अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर भी पड़ सकता है। प्रधानमंत्री शेख हसीना के अधीन बांग्लादेश पड़ोस में भारत का सबसे कद्दावर साझेदार रहा है। सुरक्षा और चरमपंथ के खिलाफ दोनों का सहयोग नई ऊंचाइयों पर पहुंचा और दोनों देशों के बीच आर्थिक रिश्ते मजबूत हुए हैं। हालांकि यह एकीकरण उस हद तक नहीं पहुंचा जहां तक इसे पहुंचना चाहिए था। इसके बावजूद बांग्लादेश भारत में एनआरसी को लेकर बढ़ते संकट से दूर रहना चाहता है और इस बात को समझा जा सकता है। जानकारी के मुताबिक हालांकि बांग्लादेश सरकार को सार्वजनिक तौर पर यह आश्वासन दिया गया है कि एनआरसी को भारत के आंतरिक विधिक मामले के तौर पर देखा जा रहा है लेकिन इस विषय पर संयुक्त आधिकारिक दस्तावेज को लेकर प्रतिरोध देखने को मिला। नागरिकता संशोधन कानून ने इस समस्या को और बढ़ा दिया क्योंकि यह कानून एक तरह से कहता है कि बांग्लादेश धर्मनिरपेक्ष मुल्क नहीं है। बांग्लादेश में इसे खासा बुरा माना गया क्योंकि संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता की तसदीक करने से पहले वहां उसकी पहचान को लेकर काफी विभाजनकारी बहस हुई थी। इन सारे मुद्दों की अनदेखी कर दी जाती, यदि बांग्लादेश को भारत समर्थक नीति का समुचित प्रतिफल मिलता। तीस्ता जल साझेदारी से लेकर तमाम मसलों पर भारत अपने पड़ोसी मुल्क के अनुमानों पर खरा नहीं उतरा। अल्पावधि के घरेलू राजनीतिक लाभ के लिए बांग्लादेश को अलग-थलग करना समझदारी नहीं होगी।

घरेलू राजनीतिक चिंताओं ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी से बाहर रहने के निर्णय में भी भूमिका निभाई होगी। आखिरकार इससे पहले के मुक्त व्यापार समझौतों पर कई प्रमुख राजनीतिक शक्तियों ने हल्ला बोला था। सत्ताधारी गठजोड़ में भी इनका विरोध हुआ था। भारत के अंतिम समय पर इससे बाहर होने के अहम कूटनयिक असर हुए होंगे और यदि इसे बदला नहीं गया तो आने वाले वर्षों और दशकों तक इसका असर पड़ सकता है। यदि ऐसा तात्कालिक राजनीतिक चिंताओं का शमन करने के लिए किया गया तो यह राष्ट्र हित को लेकर निहायत गंभीर गलत आकलन है। चाहे जो भी हो, आगे बढ़ते हुए भारत को इस बात पर विचार करना चाहिए कि वह दुनिया के सबसे बड़े उदार लोकतांत्रिक देश की अपनी उल्लेखनीय अंतरराष्ट्रीय पूंजी को किस हद तक दांव पर लगा सकता है। कश्मीर में इंटरनेट बंद करने से लेकर तमाम अन्य कदमों ने इस पूंजी को क्षति पहुंचाई है। वृद्घि में तीव्र कमी का अर्थ यह है कि भारत बतौर साझेदार आकर्षक नहीं रह गया है। वहीं भारत में संचालित विदेशी कंपनियों के खिलाफ उठाये गये कदमों (इनमें अंतिम समय में नियम बदलकर देसी कंपनियों को लाभ पहुंचाना) के कारण विदेश में भारत के हिमायती कम हुए हैं। आशंका यही है कि एनआरसी के तहत चिह्नित लोगों के लिए बनने वाले नजरबंदी शिविरों में एक धर्म विशेष के लोग ही अधिक होंगे। इस बीच छात्रों के विरोध प्रदर्शन और प्रतिष्ठित संस्थानों के इन प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस की सख्त कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि को नुकसान पहुंचा रही है।


Date:18-12-19

विधि का शासन जरूरी बदले का भाव नहीं

विधि के शासन को प्रोत्साहित करने के बजाय हैदराबाद में सामूहिक बलात्कार के आरोपियों की हत्या ने देश के सामने एक बदनुमा नजीर पेश कर दी है।

श्याम सरन , (लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)

बलात्कार के चार संदिग्धों की एक ‘मुठभेड़’ में हत्या करने वाली हैदराबाद पुलिस की हो रही तारीफों के अश्लील प्रदर्शन के बीच यह सुनना आश्वस्त करता है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस प्रवृत्ति को लेकर सजग किया है। उन्होंने त्वरित एवं सक्षम न्याय की जरूरत पर बल देने के साथ ही कहा, ‘मुझे नहीं लगता है कि न्याय कभी भी झटपट हो सकता है या उसे ऐसा होना चाहिए। न्याय को कभी भी प्रतिशोध का रूप नहीं लेना चाहिए। मेरा मत है कि न्याय अगर प्रतिशोध बन जाता है तो वह न्याय का चरित्र ही खो देता है।’

इस बयान को तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के बयान के बरक्स रखकर देखते हैं। राव ने दावा किया कि ‘यह मुठभेड़ पूरे देश के लिए एक संदेश देती है।’ उन्होंने मुठभेड़ में संदिग्धों की हत्या को सही ठहराते हुए ‘तत्काल कार्रवाई के लिए बन रहे दबाव’ की तरफ इशारा किया। उन्होंने कहा कि इस बात पर संदेह था कि अदालती रास्ते से क्या इंसाफ मिल पाएगा? कहा गया कि भारतीय न्यायिक प्रक्रिया लंबे समय तक चलती है। तेलंगाना सरकार ने इस गैरकानूनी कृत्य से खुद को अलग करने की बात तो दूर, सार्वजनिक रूप से इसका श्रेय लेने की भी कोशिश की। मानो मुठभेड़ में मार गिराने की इस घटना को राज्य के राजनीतिक नेतृत्व की मंजूरी हासिल थी। यह दिखावा करने की भी कोशिश नहीं की गई कि सुरक्षाबलों ने आत्मरक्षा में गोली चला दी। आपराधिक न्याय व्यवस्था को प्रभावी बनाने के साथ ही गली-मोहल्लों में पुलिस गतिविधि को भी अधिक असरदार बनाना होगा। लेकिन इसके लिए जरूरी कड़ी मेहनत एवं त्वरित सुधारों से बचने के लिए मनमाने ढंग से सजा देने का तरीका खतरनाक एवं निंदनीय है। आपराधिक न्याय व्यवस्था को कमतर करने वाले तत्त्व भी इसकी कमजोरी के लिए जिम्मेदार हैं। उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2006 में केंद्र एवं राज्य सरकारों को ‘पुलिस के कामकाज के लिए दिशानिर्देश जारी करने, पुलिस के प्रदर्शन की समीक्षा करने, ट्रांसफर एवं पोस्टिंग और पुलिस कदाचार की शिकायतों पर कार्रवाई के लिए निकाय बनाने’ को कहा था। ये निर्देश अभी तक महज कागज पर ही दर्ज हैं। नेता पुलिस को संरक्षण एवं विरोधियों को निशाना बनाने के साधन के तौर पर देखते हैं। न केवल पुलिस बल्कि शासन प्रणाली के भीतर भी पेशेवर रुख एवं जनसेवा की भावना का तेजी से क्षरण हुआ है।

भारत की आबादी के अनुपात में यहां पुलिस कर्मचारियों का घनत्व बेहद कम है। स्वीकृत अनुपात प्रति एक लाख आबादी पर 181 पुलिस कर्मियों का है लेकिन वास्तविक अनुपात महज 137 है। संयुक्त राष्ट्र ने पुलिसकर्मियों एवं जनसंख्या का आदर्श मानक 222 रखा हुआ है। पुलिसकर्मियों की गुणवत्ता खराब होने के साथ गिरावट पर है। जिस तेलंगाना में जघन्य बलात्कार एवं हत्या की वारदात हुई हैं, वहां पर पुलिस के 26 फीसदी पद रिक्त हैं जबकि राष्ट्रीय दर 24 फीसदी है। महिलाओं की सुरक्षा पर सबसे ज्यादा शोर मचाने वाले हमारे राजनीतिक नेता खुद ऐसे सुरक्षा घेरे में चलते हैं जिसमें सैकड़ों जवान होते हैं। इनमें कई सांसद भी शामिल हैं जिन पर हत्या एवं बलात्कार जैसे बेहद गंभीर मामले दर्ज हैं। क्या उन्हें इस आधार पर संक्षिप्त न्याय का विषय बनाना चाहिए कि ‘भारतीय न्यायिक प्रक्रिया अनंतकाल तक चलती रहेगी?’

सार्वजनिक सुरक्षा को सुधारने और कानूनों को लागू करने के बजाय सार्वजनिक गुस्सा कम करने के लिए सभी कानूनी मानकों को परे रखते हुए जानबूझकर एवं मनमाने ढंग से संदिग्धों को मार डाला गया। अगर ऐसे आचरण को राजनीतिक एवं लोकप्रिय स्तर पर वैधता मिल जाती है तो फिर आम नागरिक के पास कोई सुरक्षा ही नहीं रह जाएगी। यह दलील दी जा रही है कि इस मामले में संदिग्धों के दोषी होने को लेकर कोई संदेह नहीं था। अगर ऐसा था तब भी उन्हें निर्धारित प्रक्रिया के बगैर जीवन के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए था। एक खतरनाक नजीर पेश की जा रही है जो इस देश के सभी नागरिकों को उनके संवैधानिक अधिकारों के मनमाने उल्लंघन की जद में ला देता है। यह उच्चतम न्यायालय के लिए स्वत:संज्ञान लेने का एकदम वाजिब मामला है ताकि मुठभेड़ हत्या में शामिल लोगों और उकसाने वाले नेताओं को न्यायिक प्रक्रिया के दरवाजे पर खड़ा किया जाए।

इस तुरंत एवं कठोर ‘न्याय’ को सही ठहराने के लिए लोकप्रिय भावना और जन आक्रोश का हवाला दिया जाता है। यह भीड़ के शासन का दरवाजा खोल रहा है। ऐसे में राजनीतिक नेतृत्व की जिम्मेदारी बनती है कि वह लोकप्रिय भावना को प्रश्रय देने के बजाय कानून के शासन को सुनिश्चित करे। चुनावी जीत राजनीतिक नेतृत्व को यह विशेषाधिकार देती है कि वह संविधान के शब्दों एवं आत्मा दोनों का ध्यान रखते हुए देश की जनता की सेवा करे। लोकप्रिय मत कानून से ऊंचा नहीं हो सकता है। सदाशयी लोगों ने भी बलात्कार की घटना से पैदा हुए गुस्से और जल्द न्याय नहीं मिलने से उपजी हताशा के चलते मुठभेड़ में की गई हत्या का समर्थन किया है। लेकिन उन्हें थोड़ा पीछे हटकर यह देखने की जरूरत है कि असल में शासन के हर पहलू में हमें नाकाम बनाने वाले लोगों को ही यह अधिकार दिया जा रहा है कि वे नागरिकों को किसी कानूनी सुरक्षा-उपाय के बगैर जीवन के अधिकार से भी वंचित कर सकते हैं।

ऐसी सोच दिख रही है कि एक साथी नागरिक को आज जो झेलना पड़ रहा है वह कानून का पालन करने वाले हमारे जैसे लोगों के साथ कभी नहीं होगा। जब तक हमारे साथ ऐसा नहीं होता है तब तक यही सोचते रहते हैं। कश्मीर में अपने ही नागरिकों को आजादी से वंचित किए जाने पर तालियां बजाने की अदूरदर्शिता बेहद परेशान करती है। ऐसा हरेक मामला देश के दूसरे हिस्सों में वैसा ही काम दोहराने के लिए नजीर पेश करता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर नागरिकों को प्राप्त मूलभूत अधिकारों पर तर्कसंगत रोक लगाना जरूरी हो सकता है लेकिन यह कौन तय करेगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में क्या है और पाबंदियों के मामले में कौन सी बात तर्कसंगत है? अगर राज्य मनमाने ढंग से यह काम करता है तो ताकत के बेशर्म इस्तेमाल का दरवाजा खुल जाता है। हालिया मामलों में अदालतें यह बात मानती दिखी हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर राज्य उद्घोषणा के बगैर किसी भी तरह की पाबंदी लगा सकता है। इसके लिए अस्पष्ट आतंकी खतरों या कानून-व्यवस्था के उल्लंघन की आशंका का हवाला दिया जाता है। ठोस सबूतों के आधार पर संदिग्धों को दोषी सिद्ध करना अक्सर इसका मकसद भी नहीं होता है। जांच के दौरान की प्रताडऩा और सुनवाई के दौरान कारावास में रखा जाना अपने-आप में सजा होती है।

उच्चतम न्यायालय के प्रांगण में एक बच्चे को आश्रय दे रहीं मदर इंडिया की कांस्य प्रतिमा लगी हुई है। यह बच्चा भारतीय गणराज्य की बाल्यावस्था को प्रतिबिंबित करता है। मदर इंडिया की गोद में कानून की एक खुली किताब भी रखी है। उस पर एक तराजू उकेरा गया है जो न्याय की समानता प्रदर्शित करता है। इसका संदेश पूरी तरह साफ है: एक युवा गणराज्य को एक गौरवान्वित एवं स्थायी लोकतंत्र बनने के लिए जरूरी है कि बच्चा कभी भी देश के कानून से न भटके। सुरक्षा का अहसास देने वाली मां की गोद तभी तक मिलेगी जब तक कानून का सम्मान एवं पालन होता रहेगा।


Date:17-12-19

आंदोलन में हिंसा

संपादकीय

माहौल में गरमी हो और खबरें हिंसा की हों, तो तथ्यों से मुठभेड़ करना असंभव सा हो जाता है, और अक्सर यह निरर्थक भी होता है। यही बात दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुई हिंसा के बारे में कही जा सकती है। दोनों ही पक्षों के तर्क, दावे और प्रति-दावे इतने उलझाने वाले हैं कि उससे सच की थाह पाना आसान नहीं है। हालांकि कुछ चीजें सहज ही समझी जा सकती हैं। हमारे पास यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हिंसा की शुरुआत पुलिस की ओर से की गई होगी। यह जरूर है कि हिंसा अगर हो गई, तो उसे नियंत्रित करने का पुलिस का तरीका जरूर कुछ लोगों को आपत्तिजनक लग सकता है, कई बार वह होता भी है। हिंसा को रोकने के लिए पुलिस भी जवाबी हिंसा का इस्तेमाल करती रही है। एक तर्क यह भी है कि पथराव की शुरुआत छात्रों ने नहीं, बल्कि कुछ आसामाजिक तत्वों ने की। यह बात सही हो सकती है, लेकिन अगर किसी प्रदर्शन के दौरान पथराव हुआ है, तो उसे नियंत्रित करने के लिए आगे आने वाली पुलिस के लिए पथराव कर रहे और पथराव नहीं कर रहे छात्रों में फर्क करना लगभग असंभव होता है। क्या यह प्रदर्शन करने वालों की जिम्मेदारी नहीं मानी जानी चाहिए कि वे अपने विरोध को हिंसक बनाने वालों को खुद पकड़कर पुलिस के हवाले कर दें। जामिया मिल्लिया की कुलपति नजमा अख्तर ने पुलिस के विश्वविद्यालय परिसर में प्रवेश करने पर जो आपत्ति की है, वह बेशक जायज है। विश्वविद्यालय प्रशासन की अनुमित के बिना पुलिस का परिसर में प्रवेश किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। मगर ठीक यहीं पर यह सवाल भी रहेगा कि अगर किसी छात्र-आंदोलन के दौरान हिंसा हो जाती है, तो इसमें विश्वविद्यालय प्रशासन की भूमिका क्या होनी चाहिए?

उम्मीद तो हम यही करते हैं कि ऐसे में हिंसा को रोकने के लिए सबको आगे आना चाहिए। हमारे ज्यादातर विश्वविद्यालयों का प्रशासन छात्रों पर अनुशासन लागू करने के लिए बहुत कुछ कहता-करता रहता है, उसे विद्यार्थियों के मोबाइल फोन की घंटी तक आपत्तिजनक लगती है, वहीं अगर किसी आंदोलन के दौरान हिंसा हो जाती है, तो वह उसे तुरंत रोकने के लिए आगे क्यों नहीं आता? जब हिंसा हुई, तो क्यों नहीं विभिन्न दलों के नेता उसे रोकने के लिए आगे आए? कहीं दंगा हो जाए, तो अमन के लिए सर्वदलीय शांति समितियां बनाई जाती हैं। अलीगढ़ या दिल्ली में जब हिंसा हुई, तो ऐसी समितियां या ऐसे संगठन सामने क्यों नहीं आए?

इन दिनों यही चलन बन गया है। पहले आंदोलन शुरू होता है, उसमें हिंसा होती है, जिससे पुलिस अपने तरीके से निपटती है। इसके बाद एक पक्ष आंदोलनकारियों को दोषी ठहराता है, दूसरा सरकार और पुलिस बलों को। इसी के बीच राजनीति शुरू हो जाती है। एक धारणा यह भी बनाई जाने लगी है कि जब तक हिंसा न हो, आंदोलन की बात सुनी नहीं जाती। कौन कह सकता है कि यह वही देश है, जिसने दुनिया को अहिंसक आंदोलनों का ककहरा सिखाया था। सोमवार को जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, तो प्रधान न्यायाधीश ने यही कहा कि पहले हिंसा रोकें, तब आगे बात होगी। लेकिन जहां घटनाएं हो रही हैं, वहां कोई यह नहीं कह रहा। क्या हिंसा रुकवाने में किसी का हित नहीं ?


Date:17-12-19

कड़े और तुरंत दंड के नाम पर

विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी

मनुष्य के सभ्य होने की यात्रा कई चरणों से होकर गुजरती है। इस यात्रा का हर पड़ाव उसे हिंसा से दूर ले जाता है। कम से कम कोई समाज हिंसा की सैद्धांतिकी को सम्मानित कर अपने सभ्य होने का दावा नहीं कर सकता, वे समाज भी नहीं, जिन्होंने मानव-जाति के इतिहास में विनाश के अभूतपूर्व और भयंकरतम हथियारों का जखीरा अपने पास इकट्ठा कर रखा है। पिछले एक पखवाड़े में देश में कई ऐसी चिंताजनक घटनाएं घटी हैं, जो हमारे मन में शंका उत्पन्न कर सकती हैं कि क्या हम एक सभ्य समाज बन सके हैं या उस दिशा में बढ़ भी रहे हैं?

हैदराबाद में 6 दिसंबर की रात एक असहाय महिला पशु चिकित्सक की कुछ दरिंदों ने बलात्कार के बाद निर्मम हत्या कर दी। पूरे देश में इस घटना के बाद उबाल-सा आ गया और आज से ठीक सात साल पहले 16 दिसंबर, 2012 को देश की राजधानी दिल्ली में निर्भया के साथ घटी नृशंसता की याद ताजा हो गई। पूरा माहौल वैसा ही हो गया। हर तरफ मारो-काटो की आवाजें आने लगीं। दोनों मामलों में पुलिस पर कुछ कर दिखाने के लिए भयंकर दबाव था। निर्भया के मामले में छह हत्यारे पकड़े गए, फास्ट ट्रैक कोर्ट में उन पर मुकदमा चला और चार जीवित बालिग अभियुक्तों को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। सात वर्षों से वे दंड दिए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हैदराबाद में सरकार और पुलिस पर दबाव कितना अधिक था, इसका पता इसी से लगाया जा सकता है कि पुलिस ने चौबीस घंटों के अंदर दोषियों को पकड़कर जेल तो भेज दिया, पर निर्भया के हत्यारों को सात साल तक फांसी पर न लटकाए जाने से क्षुब्ध जन-भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए चारों हत्यारों को पुलिस रिमांड पर जेल के बाहर लाया गया और फिर एक ‘मुठभेड़’ में वे सभी मारे गए। यह मुठभेड़ किस हद तक वास्तविक या फर्जी थी, इसका पता तो उस जांच समिति की रिपोर्ट आने पर चल सकेगा, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्त किया है, पर तेलंगाना के एक मंत्री के बयान से यह स्पष्ट हो गया कि मुठभेड़ राज्य के मुख्यमंत्री की सहमति और जानकारी में हुई है।

हैदराबादी मुठभेड़ के बाद पूरे देश में जिस तरह से जश्न मनाया गया, महिलाओं ने पुलिसकर्मियों को राखियां बांधीं या मुठभेड़ करने वाले दल पर फूल बरसाए गए या फिर जैसा ओजपूर्ण उल्लास अखबारी सुर्खियों से छलक रहा था, वह राज्य-हिंसा के लिए भारतीय समाज में छिपी स्वीकृति का ही लक्षण है। इस स्वीकृति का ही एक बड़ा उदाहरण कुछ दशक पहले भागलपुर में पुलिस द्वारा कुछ दुर्दांत अपराधियों की आंखें फोड़े जाने के मौके पर भी दिखाई दिया था, जब शहर की जनता पुलिस के पक्ष में सड़कों पर निकल आई थी। यह स्वीकृति दर्शाती है कि हम भारतीय एक सभ्य समाज बनने के लिए जरूरी शर्त हिंसा के निषेध से कम से कम अभी तो बहुत दूर हैं।

हैदराबाद की दरिंदगी के बाद रक्षात्मक हुई आंध्र प्रदेश की सरकार ने अंग्रेजी मुहावरे ‘नी जर्क रिऐक्शन’ या घबराहट में समर्पण करते हुए एक कानून बना डाला। पूरी तरह से दिशाहीन यह ‘दिशा ऐक्ट’ हिंसा के समर्थन के अभूतपूर्व दस्तावेज के रूप में सामने आया है। इसके मुताबिक, दंड प्रक्रिया संहिता या सीआरपीसी में ऐसे परिवर्तन किए गए हैं, जिनके अनुसार कुछ खास श्रेणी के अपराधों में 21 दिनों के अंदर अदालती फैसला आ जाना चाहिए। ‘दिशा ऐक्ट’ पुलिस के विवेचक से तफ्तीश खत्म कर सात दिनों में चार्जशीट दाखिल करने और अदालत से चौदह दिनों के अंदर मुकदमे का फैसला सुनाने की अपेक्षा करता है। कानून कितनी हड़बड़ी में बना है, यह इसी से पता चलता है कि इसमें इस जमीनी यथार्थ की उपेक्षा की गई है कि ज्यादातर मामलों में तो दोषियों की शिनाख्त और गिरफ्तारी में ही महीनों-सालों लग जाते हैं। अब या तो दिशा ऐक्ट के निर्माता मानते हैं कि अपराधी कृत्य के बाद सीधे पुलिस के पास चला आएगा या फिर सात दिन की बंदिश के चलते पुलिस किसी निर्दोष को पकड़कर खानापूर्ति कर लेगी। एक बार चार्जशीट लग जाने के बाद तो अपेक्षा की जा सकती है कि अदालतें चौदह दिनों के अंदर फैसला सुना दें, पर यह भी आज के संसाधनों और कानूनी प्रक्रियाओं के बल पर नहीं हो सकता। इसके लिए सरकारों को न सिर्फ न्यायिक संसाधनों में कई गुना वृद्धि करनी पड़ेगी, वरन सीआरपीसी और साक्ष्य अधिनियम में भी वे बुनियादी परिवर्तन करने होंगे, जिनके अभाव में मुकदमे साल-दर-साल घिसटते रहते हैं। जाहिर है, इन सबमें तो लंबा समय लगेगा, फौरी जन-समर्थन के लिए आवश्यक था भावनाओं को संतुष्ट कर सकने वाला कोई धमाकेदार कदम, और तेलंगाना सरकार इसके लिए ‘दिशा बिल’ ले आई। इससे भारतीय समाज के अंदर छिपी हिंसक बदले की भावना निश्चित रूप से संतुष्ट हुई।

हिंसा के समर्थन की दूसरी चिंताजनक प्रवृत्ति सात वर्ष पूर्व निर्भया के साथ हुई दरिंदगी के बाद दिखी। यह घटना इतनी बर्बर और शर्मनाक थी कि उसने पूरे देश को हिला डाला। सड़कों पर उतरे आक्रोशित लोग हत्यारों को खुलेआम फांसी पर लटकाने की मांग कर रहे थे। आक्रोश का यह लाभ तो हुआ कि सरकार ने कानूनों और प्रक्रिया में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किए और समाज की सोच में भी एक बड़ा फर्क यह आया कि ज्यादा महिलाएं अपने खिलाफ होने वाली ज्यादतियों के खिलाफ मुखर हुई हैं और अब कम परिवार उनसे हुई छेड़छाड़ के लिए उन्हें ही दोषी ठहराते हैं। पर इन सबके साथ हिंसक प्रतिरोध की भावना भी अधिक मुखर हुई है। अब जब निर्भया के हत्यारों को फांसी आसन्न है, लोग बड़े चाव से संभावित जल्लादों के प्रोफाइल, फंदे की रस्सी के विवरण या फांसी घरों के क्षेत्रफल के बारे में पढ़ रहे हैं और हमारा मीडिया भी उन्हें निराश नहीं कर रहा है।

इन सबसे हमारे सभ्य बनने की यात्रा बाधित हो रही है। एक लैटिन कहावत है कि दंड की भयंकरता से अधिक उसकी सुनिश्चितता अपराध को रोकती है। यदि हम अपनी न्याय-प्रणाली में सुधार कर सकें और अपराधियों को कम समय में दंडित कर सकें, तो न तो हैदराबादी मुठभेड़ की जरूरत पड़ेगी और न ही बर्बर दंड के लिए जनता सड़कों पर निकलेगी।


Date:17-12-19

CoP That Flopped

Madrid meet’s failure to address differences over carbon markets, funding, invites questions over UNFCCC efficacy.

Editorial

The 25th Conference of Parties (CoP) of the UN Framework Convention on Climate Change (UNFCCC) was scheduled as a 12-day summit. Delegates from the 200-odd nations, who had assembled at the Spanish capital of Madrid for the meet, ended up working two more days. But for all their efforts, the negotiators only managed to highlight the disconnect between global climate diplomacy and the imperative of bringing down GHG emissions. The longest meet in the UNFCCC’s history concluded on Sunday with an “agreement” mired in generalities and which lacks a roadmap to meet the goals of the Paris Climate Pact. The main item on the meet’s agenda — framing rules for setting up a new carbon market under the Paris Agreement — has been deferred to next year.

The Madrid talks were expected to nudge all countries to scale up their commitments under the Paris Pact — Nationally Determined Contributions or NDCs — in view of recent studies which show that the world is not doing enough to prevent the extreme impacts of climate change. The Small Island Nations have been pushing for strong directives to all countries to upscale their NDCs in light of the changed realities. At Madrid, they were supported by the EU countries. The developed countries, including the EU, were, however, non-committal when it came to honouring their previous pledges on funds and technology transfers to the developing countries. The talks hit a roadblock when India, China and Brazil argued that they would not support strong language on raising ambitions without a similar call for rich countries to honour their past commitments. CoP 25’s final declaration does “invite new climate pledges that represent a progression beyond previous pledges and the highest possible ambition”. But it doesn’t stipulate a schedule for updating NDCs. And, the demand of the developing countries for a two-year programme to assess the performance of developed countries — reflected in the draft Madrid agreement — does not find a place in CoP 25’s final declaration.

The spirit of solidarity that tinged the Paris summit has been witnessed only sporadically after the landmark pact was inked. Individual NDCs have not added up to the pact’s goal of keeping global temperatures below 2 degrees celsius above pre-industrial levels. Framing the treaty’s rules has been a tortuous process that has re-animated past differences over funding and technology transfers. Meanwhile, protests in different parts of the world have called out environmental negotiators for their inertia. CoP 25 was an opportunity to answer the questions that have been raised over the UNFCCC’s processes. Unfortunately, the two weeks of negotiations at Madrid have been an opportunity lost.


Date:17-12-19

Navigating the Indo-Pacific

India will have to manage its relations with China, no matter the challenges. Ties with Japan would remain a key component of India’s vision for a stable Indo-Pacific and a cornerstone of its Act East policy.

Sujan R Chinoy , The writer was India’s ambassador to Japan and currently director general, IDSA, New Delhi.

“Indo-Pacific” is today a buzzword that has been interpreted differently by various countries in their outlook or vision documents.

Back in 1971, when Sri Lanka proposed the notion of an Indian Ocean Zone of Peace (IOZOP), it was more about the presence of Western powers and establishment of foreign bases. Ironically, China then stood with countries like India in opposing bases in the Indian Ocean Region (IOR). Its position was that it did not have, nor did it seek bases anywhere. That is a far cry from its strategy now of actively foraying into the Indian Ocean and seeking bases in Gwadar and Djibouti and special arrangements elsewhere. India’s position has also evolved. If India earlier opposed the presence of foreign powers in the Indian Ocean, it now carries out joint exercises with a number of them to promote interoperability. It welcomes the presence of the US, Japan and other partner countries in the Indian Ocean as a counter to the growing Chinese presence.

In the Pacific Ocean, the debate was never about the presence per se of great powers. There, the US military presence on land and sea was taken for granted after World War II. The French and British too, as in the Indian Ocean, continued to have their colonies. The debate was about nuclear tests in places such as Bikini Atoll, French Polynesia and Christmas Island.

As a legacy state of the Soviet Union, Russia has never ceased to be an Indo-Pacific power. It avenged the humiliating destruction of its navy in the 1904-05 Russo-Japanese war by driving Japan out of the northern Korean Peninsula and taking South Sakhalin and the Kuril Islands in 1945. It enjoyed a key base in Cam Ranh Bay during the Cold War. Today, it holds joint exercises with China in the South China Sea and a trilateral exercise with China and South Africa in the Indian Ocean.

The situation in the South China Sea is more complex. Various claimants are pitted against one another, with China’s irredentist nine-dash line engulfing the Exclusive Economic Zone of several others. China has yet to produce a clear line with exact co-ordinates on a large-scale map in support of its claims. Earlier, in 1974, China took the Paracel Islands from South Vietnam, with a US in retreat turning a Nelson’s eye. Later, China took Scarborough in 2012 and used swarming tactics involving fishing boats at Thitu Island against the Philippines in 2019, the defence treaty between the US and the Philippines notwithstanding. In general terms, the scramble in the SCS is more about fishing rights, natural resources and the domination of trade and energy sea lines of communication.

There are many contradictions in the context of the emerging construct of the Indo-Pacific. For example, the US, like India, Japan, Australia and many others, advocates freedom of navigation and over-flight, and respect for the rule of law and international norms. It adheres to many tenets of UNCLOS without having ratified the treaty. China’s adherence to UNCLOS is more honoured in breach than in observance.

Arguably, the US concept of “freedom of navigation” is hard on friend and foe alike. The US conducted freedom of navigation operations (FONOPs) in 2017 against a large number of countries, including friendly nations like India, Indonesia, Vietnam and the Philippines.Similarly, the US Asia Reassurance Initiative Act (ARIA) of 2018, which embraces the Indo-Pacific as against Asia Pacific, describes China as a strategic and economic competitor. Yet, it also has an entire section that seeks to “promote US values in the Indo-Pacific region”. There is a reiteration of the US commitment to upholding rights and promoting democratic values. Not only is China cited in this context along with Myanmar, but an alliance partner such as the Philippines is also in the cross-hairs.

On the other hand, China now justifies its increasing forays in the IOR, including with nuclear submarines, by claiming that it has “always” had a historical right to the Indian Ocean, citing the few voyages of Admiral Zheng He’s fleet more than five centuries ago. In fact, there was no Chinese presence in the intervening period because after the brief maritime interludes during the Ming dynasty, China was not a maritime power until recently.

The Belt and Road Initiative (BRI) is supposed to endure for half a century. Yet, the absence of a key neighbouring country like India, for very valid reasons, eroded its credibility. Now, many others are questioning the BRI.

The world today is undergoing a fundamental transformation. There are several facets to the emerging uncertainty. Traditional and non-traditional security threats have grown in magnitude. The spectre of terrorism, especially cross-border terrorism, continues to challenge peace and prosperity. Geopolitical considerations are increasingly driving trade and investment decisions; on the other hand, the geo-economic forces unleashed by China’s economic rise are redefining the geostrategic landscape of the Indo-Pacific.

There is no doubt that the US-China trade war has been disruptive. It has coincided with the waning of the global economy. No two rival powers are as interlinked by trade and investment as China and the US. Never before have all other countries been as intertwined in a web of relations with both China and the US. This makes for difficult choices. Power, whether economic, political or military, is fractured. No single country can dominate on all issues. Trade and technology are fiercely contested. Nationalism and regionalism are on the rise. There is less multilateralism but greater multi-polarity. Hedging and multi-alignment are part of every country’s strategic toolkit.The old consensus is fraying and a balance is yet to emerge. This calls for readjustments.

The “Asian Century” appears inevitable, but the question remains if it will be unipolar, bipolar or multipolar? Will it be a century of peace and development, or will it involve long-drawn contestations?

Asia is witnessing the simultaneous rise of several powers. Global engines of economic growth have shifted to Asia, first to the Asia-Pacific, and now, more widely, to the Indo-Pacific that includes South Asia. The continent, home to 60 per cent of the global population, has emerged as the new fulcrum for geo-economic and geostrategic realignment. One could argue that the natural evolution of trade, investment and energy flows favour the broader definition of the Indo-Pacific as against the narrower confines of Asia and the Asia-Pacific. The term Indo-Pacific is certainly more inclusive and better accommodates the growing aspirations of a wider constituency. However, the economic success in the Indo-Pacific region has not been matched by stable security architecture. The region has some of the highest military expenditures. Trade, territorial disputes and geo-strategic contestations are rampant. This places limitations on the region’s ability to engage in a process of give and take as seen in the RCEP negotiations.

There are fundamental disruptions to the existing equilibrium in the three sub-segments of the Indo-Pacific. The emergence of the US as a major energy exporter to Asia has eroded the importance of the Gulf oil producers in the Western Indian Ocean. In the South China Sea, the dependence of ASEAN on China for its prosperity and security assurances is growing. In the Pacific, there is a new contestation, which pits US programmes such as the BUILD Act, ARIA and Asia EDGE against the inducements offered by China to small island nations. Japan and Australia have also joined hands with the US in the Blue Dot network to promote infrastructure and connectivity.

The Chinese harbour suspicions about both the Indo-Pacific and the Quad as US devices to contain its rise. It regards trilateral compacts involving US, Japan and India and US, Japan and Australia as adjuncts to strengthening the Quad. However, Chinese scholars and officials are beginning to resort to a wait-and-see approach, since ASEAN centrality is an opportunity to lean on them to shape favourable outcomes through the BRI project and the draft Code of Conduct.

India will have to manage its relations with China, no matter the challenges. Ties with Japan would remain a key component of India’s vision for a stable Indo-Pacific and a cornerstone of its Act East policy. The Special Strategic and Global Partnership between India and Japan will be further strengthened during Prime Minister Shinzo Abe’s visit. However, India at this juncture does not have to make a binary choice in the Indo-Pacific between a development-centric agenda with ASEAN centrality and a security-centric outlook revolving around the Quad. Both are likely to remain parallel tracks with some overlap for the foreseeable future.