17-12-2019 (Important News Clippings)

Afeias
17 Dec 2019
A+ A-

To Download Click Here.


Date:17-12-19

Visibility: Very poor

UN climate talks at Madrid have failed but efforts to reach global consensus must continue

TOI Editorial

Scientific evidence for the devastating effects of the increasing quantity of anthropogenic emissions on the planet’s climate system is overwhelming. Yet, it has become harder than ever to persuade world leaders to prioritise the battle against climate change. The longest ever UN climate talks ended in Madrid on Sunday without a concrete plan to coordinate this battle. They failed to achieve consensus on key aspects of the Paris Agreement of 2015, such as rules for carbon markets. We are walking towards disaster with our eyes wide open.

The latest UN emissions gap report had grim news. Greenhouse gas emissions rose 1.5% a year over the last decade. With human induced warming at approximately 1°C above the pre-industrial level, the task ahead is tougher than ever. To illustrate, countries must increase their nationally determined contributions (NDCs) more than fivefold to limit warming at about 1.5°C by 2030. Every year we postpone the necessary work, the targets grow more formidable. This is why even the usually guarded UN secretary-general Antonio Guterres lamented the lost opportunity at Madrid.

On the upside, about 70 countries aim to enhance their NDCs next year and 65 countries are working towards new zero emissions by 2050. There is an acknowledgement at national level of the gravity of the situation. However, when it comes to coordinating actions and creating international platforms for carbon markets, there is no leadership available in the absence of the US which has rejected the Paris Agreement. The way forward will depend on another country or bloc filling the leadership vacuum. Despite its other challenges, EU needs to step up as it has set itself ambitious targets to reduce emissions. It must persuade other major emitters to do the same.


Date:17-12-19

After Madrid’s failure, climate is on us

ET Editorial

The latest round of the annual UN climate talks served more to add to climate change, with the tonnes of aviation fuel burnt to get delegates from around the world to Madrid and back, than to crystallise a plan to reduce it. Countries failed to commit themselves to domestic climate action in line with the demands of science and the public, in particular, the youth.When Spain stepped up to offer to host the meet after Chile announced in late October that it could not, given internal political unrest, it held out hopes for global collaboration and partnership.Madrid did not quite kill hope but has put it on a thin diet of continued talk.

The talks went overtime for 44 hours, but failed to develop transparent rules for global carbon trading and funds transfer to developing countries that are already battling rising sea levels, crippling floods and droughts.The 25th round was supposed to set the stage for a ramp up of efforts by countries to counter climate change. But there was little progress, partly because the developed world was unwilling to make good on past commitments.The failure to provide developing countries with funds and technology too has done little to keep faith in the system alive.An agreement was cobbled together at Madrid that would keep the process crawling on, but fell short of the measures required by science.

The next chair is the UK. It would struggle with Brexit and a successor deal with the EU than with restoring the faith of 200 countries in the possibility of striving, through give and take, ingenuity, innovation, trust and compromise, to preserve humanity’s common home. It would be useful for countries such as India to step up their own efforts in R&D, as well as in deploying established climate-friendly technology and practices.


Date:17-12-19

नागरिकता कानून के बावजूद इस उपद्रव से बच सकते थे

संपादकीय

प्रजातंत्र में राजा के पास केवल दंड ही नहीं विवेक भी होता है। केंद्र की सत्ता में बैठी भारतीय जनता पार्टी को अब ब्रह्मज्ञान आया है कि उन 11 राज्यों में जहां के लोग आंदोलन कर रहे हैं या जहां मुख्यमंत्रियों ने नया नागरिकता कानून मानने से इनकार कर दिया है, पार्टी कानून के प्रावधानों के बारे में लोगों की शंका दूर कर उनका भय खत्म करेगी। प्रजातंत्र का तकाजा है कि किसी भी विवादास्पद या गंभीर कानून बनाने से पहले सरकार लोगों को इसके बारे में बताती है और किसी की भावी शंकाओं को दूर करने की कोशिश करती है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने यह करना तो दूर, यह वक्तव्य देकर कि एनआरसी पूरे देश में लागू किया जाएगा, बेवजह इस बात को हवा दे दी कि हर मुसलमान को यह सिद्ध करना होगा कि वह कब से भारत में है। अव्वल तो असम में 1600 करोड़ रुपए खर्च कर किया गया एनआरसी का प्रयोग ही असफल रहा। अगर विवेक का इस्तेमाल पहले किया होता तो कानून बनाने से पहले एनआरसी लाना ही गलत था। फिर जब अचानक एक संप्रदाय विशेष को अलग कर कानून लाया गया तो सरकार की मंशा भी शक के घेरे में आ गई। उसी दिन गृहमंत्री का देशभर में नागरिकता रजिस्टर बनाने का दबंग ऐलान इस भय को और बढ़ाने वाला बन गया। ऐसा नहीं है कि यह कानून गलत है या इससे किसी वर्ग को वाकई दिक्कत होगी। यह संविधान सम्मत भी है, क्योंकि समानता के अधिकार वाला अनुच्छेद-14 किसी खास क्लास के लिए अलग कानून बनाने की छूट देता है। सुप्रीम कोर्ट ने 1951 में चिरंजीत लाल और फिर 1959 में डालमिया के मामले में तो यहां तक कहा कि अगर एक व्यक्ति के लिए कानून बनता है तो उस व्यक्ति को क्लास माना जाएगा, बशर्ते वह बाकी समाज से अलग हो। दूसरा, अनुच्छेद-15, जो देश को धर्म के आधार पर विभेद की शक्ति नहीं देता, केवल भारतीय नागरिकों के लिए है, न कि उन देशों के लिए जहां कुछ धर्म के अनुयाइयों को अमानुषिक प्रताड़ना दी जाती रही है। फिर उस क्लास में तमिलों या अहमदिया को इसलिए शामिल नहीं किया गया, क्योंकि उन पर अत्याचार के कारण अलग हैं। ‘सबको क्यों नहीं’ का तर्क भी गलत है। उदाहरण के लिए, यह नहीं कहा जा सकता कि जब तक सभी गरीबों के लिए सुविधाएं न हों, केवल किसी कमजोर वर्ग को ये नहीं दी जा सकतीं।


Date:16-12-19

जलवायु परिवर्तन की दर दुरुस्त करने की पहल

जमीनी हकीकत

जलवायु परिवर्तन पर चर्चा का एक और दौर मैड्रिड में संपन्न हुआ है। कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी-25) कुछ मामलों में अलग है। इस बार लगभग आम-सहमति बनी है कि जलवायु परिवर्तन वास्तव में हो रहा है। अब हर कोई यह मानता है कि इस दिशा में काम करने का वक्त हो गया है। अब और हीलाहवाली नहीं चलेगी। तथ्य यह है कि मैड्रिड में कदमों को गलत ठहराने या नाममात्र एवं सस्ते कदम उठाने के तरीके तलाशने को लेकर नए खेल खेले गए। सीओपी-25 सम्मेलन में विश्वसनीय बाजार प्रणाली के विकास को लेकर काफी चर्चा हुई। देशों को कार्बन-तटस्थ या विशुद्ध रूप से शून्य-कार्बन वाला बनाने के लिए ऐसी बाजार प्रणालियां बेहद जरूरी हैं।

यह सब सुनने में काफी अच्छा और बड़ा लग रहा है। लेकिन कहते हैं न कि प्याले से मुंह तक पहुंचने में बहुत कुछ हो सकता है। जलवायु संबंधी वार्ताओं में मैंने यह पाया है कि अक्सर सराहनीय विचार पेचीदा बहसों तक ही सीमित होकर रह जाते हैं। असल में यह रोजमर्रा का काम है। इसका पता आपको तब चलता है जब गुबार थम चुका होता है। मसलन, वर्ष 2015 में पेरिस में संपन्न सीओपी-21 की घटनाओं को लीजिए। उस समय मनोदशा उत्साह से भरपूर थी क्योंकि एक नया समझौता हुआ था। सभी देशों ने उत्सर्जन में कटौती संबंधी प्रतिबद्धता पर सहमति जताई थी। राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान (एनडीसी) कहे जाने वाले इन लक्ष्यों तक काफी चर्चा के बाद पहुंचा जा सका था। यह भी तय किया गया था कि एनडीसी का मकसद धरती का तापमान पूर्व-औद्योगिक काल से 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के खतरनाक स्तर से नीचे ही रखना है। लेकिन अब पेरिस की ‘सफलता’ के भेद खुल रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट 2019 में कहा गया है कि अगर सभी देश एनडीसी में दर्ज कदमों पर चलते हैं तो वर्ष 2100 तक वैश्विक तापमान में 3.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी। इतना ही नहीं, देश खासकर कार्बन बजट का बेजा इस्तेमाल कर चुके अमीर देश उतना भी नहीं कर रहे हैं जिनके लिए वे हामी भर चुके हैं। मसलन, जर्मनी स्थित संगठन क्लाइमेट ट्रैकर के मुताबिक, अमेरिका, रूस और सऊदी अरब के कदम 4 डिग्री सेल्सियस, चीन एवं जापान के कदम 3-4 डिग्री सेल्सियस और यूरोपीय संघ के भी कदम 2-3 डिग्री सेल्सियस वृद्धि का सबब बनते हैं। इसका मतलब है कि अगर सभी देशों ने उत्सर्जन के इसी स्तर का अनुसरण किया तो इस सदी के अंत तक तापमान 2-4 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। अब हकीकत पर लौटते हैं। ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन पर काबू पाने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए जा रहे हैं और ऐसा तब हो रहा है जब करोड़ों लोगों को बुनियादी ऊर्जा सुरक्षा मिलने का अब भी इंतजार है।

इस हकीकत के बीच विशुद्ध शून्य कार्बन का विचार सुनने में काफी अच्छा लगता है। इसका यह मतलब है कि देश अपने लक्ष्य से नीचे रह जाएंगे। यानी वे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करते रहेंगे लेकिन वे कार्बन के अवशोषण या निपटाने के तरीके निकालेंगे ताकि उनके बही-खाते में उत्सर्जन शुद्ध-शून्य नजर आए। लिहाजा इस कार्बन का अवशोषण कैसे काम करता है? एक, उत्सर्जन योग पेड़ों में मौजूद कार्बन डाई-ऑक्साइड की गणना करेगा कि कितना उत्सर्जन हुआ और कितना अवशोषित हुआ।

फिर ऐसी नई तकनीकें भी हैं जो वातावरण से कई टन कार्बन डाई-ऑक्साइड सोखने और उसे जमीन के भीतर दफनाने का काम करेंगी। इसका यह मतलब होगा कि देश अब न केवल उत्सर्जन में कटौती करने बल्कि प्रसार जारी रखने और फिर सबकी सफाई की योजना बना सकता है। वे दूसरे देशों में कार्बन-अनुकूल परियोजनाओं में निवेश कर क्रेडिट भी खरीद सकते हैं और उसे अपने बही-खाते में उसे जोड़ सकते हैं। यहां पर बाजारों को लेकर चर्चा भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। यह भी एक तथ्य है कि अफ्रीका या एशिया के सुदूर गांवों में पेड़ लगाना यूरोप या जापान में पेड़ लगाने से कहीं अधिक सस्ता है। हमारी दुनिया में अब भी उत्सर्जन कटौती के सस्ते विकल्प मौजूद हैं। लिहाजा बाजारों को इस तरह डिजाइन किया जा रहा है कि कार्बन धमक एवं क्रेडिट के लिए विकासशील देशों में निवेश किया जा सकता है। इन जलवायु परिदृश्यों में काम कर चुके हम जैसे अधिकतर लोगों के लिए ये शब्दावलियां जानी-पहचानी हैं।

वर्ष 1997 के क्योटो समझौते में क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म विकासशील देशों में तकनीकी संक्रमण के लिए भुगतान करने के ऐसे ही विचार से शुरू हुआ था लेकिन जल्द ही यह सस्ता एवं पेचीदा होते हुए भ्रष्ट विकास व्यवस्था में तब्दील होता चला गया। पेरिस समझौते के बाद इस बार सभी देशों को घरेलू स्तर पर उत्सर्जन कटौती करनी है। इसलिए अगर भारत अपना सस्ता उत्सर्जन कटौती विकल्प किसी अमीर देश को बेच देता है तो वह उस कटौती स्तर को कैसे हासिल कर पाएगा जिसकी जरूरत इस दुनिया को है? याद रखें कि अमीर एवं गरीब दोनों के लिए ही यह एक बड़ा संकट है क्योंकि तापमान वृद्धि का असर सब पर एक जैसा होगा। सवाल है कि क्या किया जाना चाहिए? शुद्ध-शून्य लक्ष्य तय करने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन इसका उद्देश्य देशों को घरेलू स्तर पर अधिक कदम उठाने के लिए प्रोत्साहित करना और फिर जो कुछ भी बचा हुआ है उसे वैश्विक लेनदेन प्रणालियों के जरिये खरीदने का होना चाहिए। लेकिन इसका मतलब कार्बन बिक्री पर एक आधार मूल्य तय करना है, इस दर से नीचे परियोजनाएं योग्य नहीं हो पाएंगी।

इसका यह मतलब होगा कि विकासशील देशों में केवल उन्हीं परियोजनाओं को फंड मिलेगा जो कायापलट करने वाली हैं। भारत जैसा देश अधिक स्वच्छ भविष्य की तरफ छलांग लगा सकता है। हम पहले प्रदूषण फैलाने और फिर उसकी साफ-सफाई से बच सकते हैं। हम इसी भविष्य की चाह रखते हैं। लेकिन ऐसा होने के लिए जलवायु समझौतों के शब्दों पर अमल करना होगा, केवल बात करने से काम नहीं चलेगा।


Date:16-12-19

नमामि गंगे की प्रगति

संपादकीय

कानपुर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में हुई राष्ट्रीय गंगा परिषद की बैठक इस मायने में उम्मीद जगाने वाली है क्योंकि गंगा में सर्वाधिक प्रदूषण की शुरुआत वहीं से होती है। अगर प्रधानमंत्री ने ‘‘नमामि गंगे’ योजना की समीक्षा के लिए वहां बैठक की तो जाहिर है, इतना काम हो चुका है जिसे दुनिया को दिखाया जा सके। पूरा तो नहीं मगर काफी हद तक यह सच है कि कानपुर की प्रदूषित गंगा पहले के समान नहीं है। प्रधानमंत्री ने जल शक्ति मंत्री, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के मुख्यमंत्रियों, बिहार के उप मुख्यमंत्री एवं अधिकारियों के साथ अलग-अलग घाटों का निरीक्षण कर स्वयं यह समझने की कोशिश की कि कितना काम हुआ है और कितना हुआ जाना हैं। कानपुर में गंगा को सड़ाने वाली 128 साल पुराने सीसामऊ नाला को बंद करना अत्यंत ही कठिन था किंतु यह काम हुआ और इससे निर्मल गंगा की राह आसान हुई। प्रधानमंत्री के उस नाले तक जाने का प्रभाव इतना हुआ कि सभी को यह पता चला कि वाकई यह नाला बंद किया जा चुका है एवं मां गंगा को अपवित्र करने के सबसे बड़े स्रेत का अब गंगा से कोई संबंध नहीं है। ‘‘नमामी गंगे’ योजना का लक्ष्य केवल गंगा को स्वच्छ बनाना ही नहीं है, इसे भारत के विकास, पर्यावरण सुधार तथा लोगों के स्वस्थ होने का आधार भी बनाना है। प्रधानमंत्री द्वारा समीक्षा बैठक में इसकी ओर ध्यान दिलाया जाना स्वाभाविक था। उन्होंने कहा कि ‘‘नमामि गंगे’ की धारा अब ‘‘अर्थ गंगा’ की ओर मुड़ने जा रही है। वस्तुत: जीरो बजट खेती, ईको-एडवेंचर टूरिज्म, रिवर फ्रंट बेसिन का विकास और डॉल्फिन प्रोजेक्ट आदि इसी का अंग तो है, जिसकी ओर प्रधानमंत्री ने ध्यान आकृष्ट किया। आय बढ़ाने के लिए गंगा के किनारे फलदार वृक्ष लगाने, नर्सरी बनाने, गंगा किनारे एडवेंचर स्पोर्ट्स, साइकिलिंग, वाकिंग पाथ-वे की व्यवस्था करने तथा गंगा में जलयान यानी क्रूज टूरिज्म का रोमांच देने की जो बातें प्रधानमंत्री ने की, उससे पता चलता है कि इस योजना का धरातल पर कितना व्यापक स्वरूप है। मोदी ने किसानों के साथ योजनाओं में महिलाओं, स्वयं सहायता समूहों व पूर्व सैनिक संगठनों को प्राथमिकता देने का सुझाव इसी दृष्टि से दिया होगा। जाहिर है, यह तभी हो सकता है जब परिषद को ज्यादा अधिकार मिले और बैठक में ही उसे इस दिशा में निर्णय लेने के अधिकार मिल गए। तो उम्मीद करनी चाहिए कि ‘‘नमामी गंगे’ योजना सफाई के साथ अपने समग्र लक्ष्य को लेकर बढ़ता रहेगा।


Date:16-12-19

सात साल बाद सबसे बड़े बदलाव का सवाल

सदानंद साही

निर्भया कांड को सात साल हो गए। 2012 में जब यह कांड हुआ था, पूरे देश में एक उद्वेलन महसूस किया गया। स्त्री के प्रति संवेदना और सहानुभूति की नदी बह चली थी। ऐसा लगा, जैसे आने वाले दिनों में स्त्री के प्रति हमारी सामाजिक सोच बदल जाएगी। पूरे देश में प्रदर्शन हुए, जुलूस और रैलियां निकाली गईं, भाषण हुए, लेख लिखे गए, संसद से सड़क तक हंगामा बरपा, लेकिन सात साल बाद अब लगता है कि जैसे कुछ नहीं बदला। स्त्री-हिंसा की भयावह घटनाएं अब भी हर रोज होती हैं। छह महीने की बच्ची से लेकर नब्बे साल की बूढ़ी महिला तक ऐसी वारदात की शिकार बनीं। धर्मगुरुओं से लेकर राजनेताओं तक की करतूतें सामने आईं। कोई धर्म, कोई जाति, कोई राजनीतिक समूह इसका अपवाद नहीं रहा। स्त्री-हिंसा और स्त्री से दुर्व्यवहार के मामले में सबके दामन दागदार हुए। पिछले दिनों हैदराबाद की घटना ने एक बार फिर वैसा ही विक्षोभ पैदा किया। फिर वैसी ही प्रतिक्रियाएं दोहराई जाने लगीं। फिर से अपराधियों को कड़ी सजा देने की मांग उठने लगी। इस बीच पुलिस ने चारों आरोपियों का एनकाउंटर कर कई जगह से प्रशंसा भी बटोर ली।

कड़ी सजा में ही सारा समाधान खोजने की कोशिश में हम अक्सर उन कारकों को नजरंदाज कर देते हैं, जो दुष्कर्म का कारण बनते हैं। बलात्कार या स्त्री के प्रति हिंसा की घटनाओं के मूल में जो स्त्री-विरोधी मनोरचना काम करती है, हम उसकी चर्चा नहीं करते। पुरुष का मर्दवादी रहन-सहन सहज रूप से स्त्री के प्रति अवज्ञा से भरा हुआ है। वह कदम-कदम पर स्त्री का अनादर करता चलता है। ऐसे करोड़ों अनादरों की परिणति बलात्कार में होती है। यह अनादर स्त्री के प्रति लोलुपता पैदा करता है। यह लोलुपता विकृति को जन्म देती है। अभी हाल में एक स्कूल शिक्षिका ने इसलिए पढ़ाना छोड़ दिया, क्योंकि जब वह कक्षा में पढ़ाने जाती थी, तो दर्जा आठ में पढ़ने वाले लड़के गलत टिप्पणी करते थे। यह जो लड़की को या स्त्री को कोई वस्तु या आइटम समझने वाला भाव है, वह भी मर्दानगी की ट्रेनिंग का ही नतीजा है। इसलिए स्त्री के प्रति होने वाले अपराध या हिंसा या अनादर को रोकने या खत्म करने के लिए मानसिकता बदलनी होगी।

यह मर्दवादी मानसिकता बनाई जाती है। इस प्रक्रिया के दो आयाम हैं। एक कहता है कि स्त्री को विनम्र होना चाहिए, लज्जाशील होना चाहिए, कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए, तपस्वी और मनस्वी होना चाहिए, लक्ष्मण रेखा में रहना चाहिए आदि। इसके विपरीत मर्द को उद्दंड, निर्लज्ज, अकर्मण्य, लंपट आदि होना चाहिए। सीमोन द बोउवा की यह बात कि औरत पैदा नहीं होती, उसे औरत बनाया जाता है, जितनी सच है, उतना ही सच यह भी है कि मर्द पैदा नहीं होता, उसे बनाया जाता है। बच्चा जैसे ही बड़ा होने लगता है, तो टोका-टाकी शुरू हो जाती है, क्या औरतों की तरह रो रहे हो। फिर वह चाह कर भी रो नहीं पाता। यह स्थिति संवदेनशीलता को छीन लेती है और हम एक खास तरह की मंदबुद्धिता के शिकार हो जाते हैं, जिसे मर्दानगी का नाम देकर महिमामंडित किया जाता है। यह मर्दानगी हमारे जीवन में है, हमारी भाषा में है, हमारी समाज-रचना और राजनीति में है। जीवन के युद्ध में, जय और पराजय, दोनों ही स्थितियों में कहर स्त्रियों पर बरपा होता है। भाषा में मौजूद गालियों की छानबीन करें, तो पाएंगे कि अधिकांश गालियां औरतों की बेइज्जती कर रही होती हैं।

राजनीति भी प्राय: स्त्री और स्त्री को अपमानित करते हुए चमकाई जाती है। राजनीति में चूड़ी के प्रयोग के छोटे-से उदाहरण से इस बात को समझ सकते हैं। हमारे यहां विरोधी नेताओं को चूड़ियां भेजकर यह संदेश देने की कोशिश होती है कि तुम औरत हो और तुम कुछ नहीं कर सकते, चूड़ी पहनकर घर में बैठो। इसी मर्दवादी राजनीति का भोंथरा रूप डींग हांकने, अकड़ने और तरह-तरह के अंग-प्रदर्शन में दिखाई पड़ता है। ऐसा करते समय हम यह भूल जाते हैं कि अतिरिक्त मर्दानगी से हमारी मनुष्यता छीजती है। अगर सचमुच हम स्त्री-हिंसा से उबरना चाहते हैं, इससे मुक्त समाज बनाना चाहते हैं, तो हमें इस अतिरिक्त मर्दवादिता से ऊपर उठना होगा। केवल कानून बनाना और कठोर सजा देना काफी नहीं होगा। जरूरी यह है कि मर्दवादी समाज का मानवीय समाज में रूपांतरण किया जाए। आइए, इस रूपांतरण का वातावरण तैयार करने में हम मिलकर जुटें।


Date:16-12-19

विद्रोह का रुख

संपादकीय

नागरिकता संशोधन विधेयक के संसद के दोनों सदनों में पारित हो जाने और राष्ट्रपति की भी स्वीकृति मिल जाने के बाद पूर्वोत्तर में विद्रोह की लपटें तेज हो गई हैं। विपक्षी दल तो शुरू से इस विधेयक का विरोध कर रहे थे, धीरे-धीरे राज्य सरकारों ने इसे लागू करने से मना करना शुरू कर दिया है। पहले पश्चिम बंगाल, पंजाब और केरल ने कह दिया था कि वे अपने यहां इस कानून को लागू नहीं करेंगे। अब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र ने भी इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया है। मगर केंद्र सरकार कह रही है कि इस कानून को लागू करना उनकी संवैधानिक बाध्यता है। उधर कुछ लोगों ने अदालत में इस कानून को चुनौती दी है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आना है। इस कानून को लेकर बहुत सारे समाजसेवी, बुद्धिजीवी विरोध में खड़े हैं। सर्वोच्च न्यायालय के एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश ने भी इसके विरोध में हस्ताक्षर किया है। मगर सरकार का तर्क है कि यह कानून मुसलिम समुदाय के लोगों के विरोध में नहीं है, इसलिए उनकी सुरक्षा को लेकर चिंताएं निर्मूल हैं। मगर हकीकत यही है कि सरकार इस कानून को लेकर चौतरफा घिरी नजर आ रही है

नागरिकता (संशोधन) विधेयक में, जो अब कानून का रूप ले चुका है, स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक आधार पर प्रताड़ित हिंदू, सिख, बौद्ध, सिख, ईसाई और पारसी समुदाय के लोगों को नागरिकता प्रदान की जाएगी। इसमें मुसलिम समुदाय के लोगों को बाहर रखा गया है। फिर श्रीलंका में धर्म के आधार पर प्रताड़ित हिंदुओं को इसमें शामिल नहीं किया गया है। इसके अलावा रोहिंग्या और अहमदिया जैसे समुदाय के लोग भी धर्म के आधार पर प्रताड़ित हैं, उनकी कोई सुध नहीं ली गई है। इसी को लेकर विरोध हो रहा है। इस कानून को संविधान की मूल भावना के विरुद्ध बताया जा रहा है। संविधान नागरिकता के मामले में सेक्युलर व्यवस्था देता है, उसमें किसी भी समुदाय के प्रति धर्म के अधार पर भेदभाव को गैरकानूनी करार दिया गया है। फिर यह भी संकल्प है कि संविधान की इस भावना के विरुद्ध कोई भी बदलाव नहीं किया जा सकता। इसलिए कई लोग आशान्वित हैं कि सर्वोच्च न्यायालय इस कानून को अवैध करार दे देगा। इस पर अदालत का क्या रुख होता है, देखने की बात है। पर नागरिकों के विद्रोह से निपटना फिलहाल सरकार के लिए बड़ी चुनौती है।

पूर्वोत्तर में हिंदू और मुसलमान का मामला नहीं है। वहां कई जनजातीय समुदाय हैं, जो अपनी पहचान के लिए लंबे समय से संघर्ष करते रहे हैं। असम समझौते में वहां के जनजातीय समुदाय के नागरिकों की पहचान सुरक्षित रखने का प्रावधान किया गया। अब नागरिकता (संशोधन) कानून लागू होने से पुराने प्रावधान अप्रभावी हो जाएंगे। दूसरे प्रदेशों और देशों के लोगों को वहां जाकर बसने की गुंजाइश बनेगी। इससे पूर्वोत्तर के लोगों का जीवन प्रभावित होगा। हालांकि वहां सरकार ने इनर लाइन परमिट लागू किया है, यानी वहां वही जा सकता है, जिसे परमिट हासिल है, पर वह आंशिक रूप से ही प्रभावी है। इसी को लेकर वहां नाराजगी फट पड़ी है। कर्फ्यू के बावजूद हजारों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। यह गुस्सा धीरे-धीरे दूसरे राज्यों में भी फैल रहा है। ऐसे में सरकार के लिए इस कानून को लागू करवा पाना आसान नहीं होगा। उसे इस पर पुनर्विचार कर व्यावहारिक रूप देने की जरूरत है।


Date:16-12-19

बोरिस की वापसी

संपादकीय

ब्रिटेन के आम चुनाव में कंजर्वेटिव पार्टी को भारी बहुमत से जिता कर देश की जनता ने ब्रेक्जिट पर अपनी मुहर लगा दी है। बोरिस जॉनसन फिर से प्रधानमंत्री बन सत्ता में पहुंचे हैं और अब उनका पहला काम देश की जनता से किए अपने सबसे बड़े वादे यानी ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग करना है। तीन साल पहले ब्रेक्जिट को लेकर ब्रिटेन में हुए जनमत संग्रह में बावन फीसद लोगों ने इसके पक्ष में वोट डाले थे। लेकिन ब्रेक्जिट की यात्रा आसान नहीं रही। पिछले साल ब्रेक्जिट से अलग होने के तरीके को लेकर सरकार में ही विवाद गहरा गए थे और प्रधानमंत्री थेरेजा मे की सरकार से एक साथ तीन मंत्रियों ने इस्तीफा देकर राजनीतिक संकट खड़ा कर दिया था। अब बोरिस जॉनसन के सामने सबसे बड़ी चुनौती 31 जनवरी, 2020 तक ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग कर लेने की है। बोरिस जॉनसन ने इस साल मई में सत्ता संभाली थी और 31 अक्तूबर तक ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग कर लेने का वादा किया था, लेकिन हाउस ऑफ लार्ड्स (उच्च सदन) में प्रस्ताव गिर गया और यह कवायद नाकाम हो गई। इसके बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। ऐसे में अब बोरिस जॉनसन कैसे इस दिशा में आगे बढ़ते हैं, यह देखने की बात है।

ब्रिटेन में पिछले पांच साल में तीन बार चुनाव हुए हैं और देश ने चार प्रधानमंत्री देखे हैं। इन चुनावों का सबसे बड़ा मुद्दा ब्रेक्जिट ही रहा है। कंजर्वेटिव पार्टी पिछली बार के मुकाबले सैंतालीस सीटें ज्यादा जीत कर तीन सौ पैंसठ पर पहुंच गई है। इससे पहले 1987 में मार्गरेट थैचर के नेतृत्व में इस पार्टी को तीन सौ संतानबे सीटें मिली थीं। दूसरी ओर, लेबर पार्टी सहित जिन सात दलों ने दोबारा जनमत संग्रह कराने और ब्रेक्जिट रद्द करने का वादा किया था, उन्हें उन्हें दो सौ सत्तर सीटें ही मिलीं। जाहिर है, ब्रिटेन की जनता अब फैसला कर चुकी है कि उसे यूरोपीय संघ से अलग होना है और इसके लिए भले कितनी अड़चनें आएं, कितना वक्त लगे, इसकी चिंता नहीं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोपीय देशों के बीच व्यापार और आर्थिक सहयोग को लेकर ही यूरोपीय संघ बना था और ब्रिटेन इसमें 1975 में शामिल हुआ था, लेकिन तबसे उसकी इस संघ में कोई ज्यादा अहमियत नहीं रही। उसे यूरोपीय संघ की उन शर्तों को मानने के लिए मजबूर होना पड़ रहा था, जो ब्रिटेन के हितों के खिलाफ थीं। इसलिए अब ब्रिटेन की नई पीढ़ी देश को हर मामले में स्वतंत्र देखना चाहती है, चाहे व्यापार, रोजगार, आर्थिक हितों के मुद्दे हों या सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे। यूरोपीय संघ से अलग होने पर सबसे बड़ा खतरा ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था और संघ के दूसरे देशों के साथ व्यापार को लेकर है। ऐसे में ब्रिटेन यूरोपीय संघ की शर्तों के आगे कितना झुक पाएगा, यह बड़ा सवाल है। हालांकि यूरोपीय संघ से पूरी तरह नाता तोड़ने के बाद देश को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, उससे बोरिस जॉनसन भी अच्छी तरह समझ रहे हैं।

बोरिस जॉनसन का सत्ता में और ताकतवर होकर लौटना भारत के लिए भी अच्छा संकेत हैं। वे भारत के पक्के समर्थक रहे हैं। हाल के महीनों में ब्रिटेन के प्रमुख विपक्षी दल लेबर पार्टी ने जिस तरह से भारत विरोधी रवैया अख्तियार किया था, उससे भारत असहज महसूस कर रहा था। अब बोरिस जॉनसन के सत्ता में वापसी से भारत-ब्रिटेन के बीच हर तरह के व्यापक सहयोग के रास्ते बनने की उम्मीद बनी है।


Subscribe Our Newsletter