18-11-2019 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
विविध असमताओं के लक्षित समाधान पर अब हो ध्यान
कनिका दत्ता
स्टालिन के बाद से ही मजबूत सरकारें ओलिंपिक की ऊंचाइयों को निर्बाध रूप से अपना लक्ष्य बनाती रही हैं। उनकी उपलब्धियां हमेशा सबसे बड़ी, सबसे लंबी, सबसे ऊंची और सबसे तेज जैसी श्रेणियों में रखी जाती हैं। खुद स्टालिन भी दुनिया का सबसे बड़ा डिपार्टमेंटल स्टोर होने का दावा करते हुए अपने पूंजीवादी प्रतिस्पद्र्धियों को निशाना बनाता था। एक खास सोच वाले भारतीय भी ऐसे दावे करने की आदत रखते हैं। मसलन भारत के कारोबारी प्रतिनिधिमंडल दावोस एवं अन्य वैश्विक मंचों पर ‘सबसे तेजी से बढ़ते लोकतंत्र’ के आख्यान को जोर-शोर से उछालते रहते थे। कुछ समय तक उस दावे में सच्चाई का अंश भी था। लेकिन अब हम उस बयान को नहीं दोहरा सकते हैं, लिहाजा हमारे पास दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाने, दुनिया का सबसे बड़ा स्वच्छता अभियान और दुनिया का सबसे बड़ा शिनाख्त कार्यक्रम चलाने जैसे फुटकर दावे ही करने की स्थिति रह गई है। केवल यही योजनाएं एवं कार्यक्रम ही ठोस उपलब्धि के तौर पर प्रशंसा के लायक हैं।
मौजूदा समय में खुद से बनाई आर्थिक सुस्ती के खत्म होने तक हम मिथकीय स्वर्ण युग वाली भारतीय महानता में सुरक्षित पनाह ले सकते हैं। उस स्वर्ण युग में परमाणु हथियारों और प्लास्टिक सर्जरी तक के बारे में हम सबकुछ जानते थे। इस तरह के बयान देने के लिए भारतीय नेताओं को मामूली जगहंसाई का पात्र नहीं बनना पड़ा है, लिहाजा उन्होंने भारत को एक राजनीतिक एवं आर्थिक महाशक्ति में तब्दील होने की संभावना संबंधी दावों से खुद को अलग कर लिया है। अगर हम इस दावे को प्रत्यक्ष मूल्य के रूप में लें कि दुनिया ने भारत को अचानक 21वीं सदी की एक गतिशील शक्ति के रूप में इज्जत देना शुरू कर दिया है तो दुनिया सर्वोच्च न्यायालय के हाल के एक फैसले को लेकर पूरे देश के आवेश में आ जाने पर काफी उलझन में पड़ गई होगी। यह विवाद इतिहास की धुंध में लिपटे दावों की ओट में था।
इस फैसले के गुण-दोष को किनारे रखकर देखें तो निश्चित रूप से दूसरे मसले भी हैं जिन पर देश की सर्वोच्च अदालत के लिए तत्काल ध्यान देना जरूरी है। अयोध्या मामले की सुनवाई को फास्टट्रैक किया गया था जबकि अदालत में करीब 60,000 मामले लंबित पड़े हुए हैं। अब जब इस मामले में बहुसंख्यक आबादी काफी हद तक संतुष्ट लग रही है, तब हमें आधुनिक एवं आकांक्षी भारत में मौजूद अन्य असमताओं पर करीबी निगाह डालनी चाहिए। इन असमताओं पर सरकार के लक्षित ध्यान की जरूरत है।
ऐसा ही एक मसला यह है। देश इलाज के लिए आने वाले विदेशी पर्यटकों का बड़ा केंद्र बनकर उभरा है। यह महज साधारण सर्जरी का ही मामला नहीं है, भारतीय डॉक्टर जटिल ऑपरेशन को भी बखूबी अंजाम दे सकते हैं जिन्हें मीडिया में जगह भी मिलती है। विडंबना यह है कि केवल समृद्ध विदेशी एवं बेहद अमीर भारतीयों का बहुत छोटा हिस्सा ही इन महंगी स्वास्थ्य सेवाओं का भार उठा सकते हैं। आयुष्मान भारत चिकित्सा बीमा योजना ने भारत के गरीब एवं निम्न मध्यम तबकों की पहुंच डायलिसिस एवं जटिल ऑपरेशन जैसे बेहतर स्वास्थ्य-देखभाल तक कर दी है। लेकिन डॉक्टरों, अस्पताल के बिस्तरों, नर्सिंग देखभाल एवं असली दवाओं की उपलब्धता जैसे बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं तक एक आम भारतीय की पहुंच अब भी काफी निचले स्तर पर बनी हुई है। आर्थिक समीक्षा में भी हर साल इन बिंदुओं का जिक्र रहता है।
एक और मसले पर गौर करते हैं। आईएटीए के आंकड़े बताते हैं कि भारत की घरेलू हवाई यात्रा में वृद्धि पिछले चार वर्षों से लगातार तीव्र वृद्धि पर है। नागरिक उड्डïयन महानिदेशालय के मुताबिक पिछले साल करीब 14 करोड़ भारतीयों ने हवाई यात्रा की थी। वैसे इस आंकड़े में थोड़े संशोधन की जरूरत है क्योंकि इन यात्रियों में कई लोग ऐसे भी होंगे जिन्होंने कई बार हवाई यात्रा की होगी। दुनिया में नौवां सबसे व्यस्त हवाईअड्डïा भारत में ही है। यह हवाई परिवहन में तेजी को दर्शाता है और यह एक-दूसरे से तगड़ी प्रतिस्पद्र्धा में लगीं निजी एयरलाइंस की सस्ती टिकटों की पेशकश के दम पर बढ़ा है। सस्ते टिकट मिलने से मध्य वर्ग के लिए भी हवाई यात्रा पहुंच में आ गई है। लेकिन अब भी बड़ी संख्या में लोग ट्रेनों से ही सफर करते हैं और भारतीय रेल नेटवर्क एवं ढांचे की तेजी से बिगड़ती हालत के चलते कई दशकों बाद भी रेल सफर को लेकर जारी चर्चाएं थम नहीं पाई हैं।
तीसरा मसला शिक्षा से जुड़ा हुआ है। यूं तो हर साल आईआईटी और आईआईएम से हजारों ऐसे छात्र पढ़कर निकलते हैं जिन्हें अपने यहां नौकरी देने के लिए दुनिया की शीर्ष कंपनियां भी बहुत ऊंचे वेतन की पेशकश करती हैं। इसके बावजूद तमाम सर्वे से पता चलता है कि देश के लाखों स्कूली बच्चे अपनी कक्षा से निचले स्तर के सवाल भी नहीं हल कर पाते हैं। इनमें से कोई भी समस्या मौजूदा सरकार की खड़ी की हुई नहीं है। असल में इन समस्याओं का वजूद तो दशकों से है। लेकिन प्रगति एवं विकास पर केंद्रित मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान के लिए ऐसे मसले एक मंदिर-मस्जिद मामले से कहीं अधिक राजनीतिक तवज्जो के हकदार नजर आते हैं।
आतंक के विरुद्ध
संपादकीय
पिछले कुछ सालों के दौरान यह साफ हो चुका है कि वैश्विक स्तर पर आर्थिक गतिविधियों के सहज संचालन और अलग-अलग देशों के विकास में आतंकवाद ने कैसी बाधाएं खड़ी की हैं। इसलिए आर्थिक सहयोग के लिए होने वाले तमाम अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में अगर आतंकवाद का सामना करने या उस पर काबू पाने को लेकर भी बातचीत केंद्र में होती है तो यह स्वाभाविक ही है। ब्राजील के ब्रासीलिया में गुरुवार को ग्यारहवें ब्रिक्स सम्मेलन में इस संगठन में शामिल देशों के बीच आपस में आर्थिक सहयोग के समांतर आतंकवाद भी चर्चा का विषय का बना है, तो इसकी वजह यही है। गौरतलब है कि ब्रिक्स सम्मेलन के पूर्ण सत्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि आतंकवाद से दुनिया की अर्थव्यवस्था को अब तक एक हजार अरब डॉलर का नुकसान हो चुका है। यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि विकास, शांति और समृद्धि के लिहाज से इतनी भारी रकम का क्या और कैसे इस्तेमाल हो सकता था, लेकिन आतंकी गतिविधियों की वजह से भारी नुकसान या फिर उसका सामना करने में खर्च की वजह से इतनी बड़ी राशि बर्बाद हो गई।
आतंकवाद केवल भारत नहीं, अलग-अलग पैमानों पर दुनिया के कई देशों की समूची राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। सच यह है कि विकास और शांति के लिए आतंकवाद आज सबसे बड़े खतरे के रूप में सामने है। इसके जगजाहिर होने के बावजूद दुनिया के कुछ देश न केवल इस समस्या की अनदेखी करते हैं, बल्कि परोक्ष रूप से आतंकी संगठनों के अपनी सीमा के भीतर से गतिविधियां संचालित करने को लेकर आंखें मूंदे भी रहते हैं। हालांकि भारत इस मसले पर अक्सर दुनिया को ध्यान दिलाता रहा है कि अगर इस प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगाई गई तो आतंकी समूह वैश्विक अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान पहुंचाएंगे।
भारत को इस दिशा में एक बड़ी कामयाबी तब मिली थी जब चीन में हुए नौवें ब्रिक्स सम्मेलन में जारी घोषणा-पत्र में पहली बार पाकिस्तान की जमीन से आतंक फैलाने वाले संगठनों लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, तहरीक-ए-तालिबान, हक्कानी नेटवर्क आदि का नाम सार्वजनिक रूप से शामिल करते हुए इनकी आलोचना की गई थी। तब ब्रिक्स देशों ने आतंकवाद को शह देने वाले देशों को तीखी फटकार भी लगाई थी।
यानी ब्रिक्स देशों के ताजा सम्मेलन में एक हद तक सही, लेकिन भारत को आतंकवाद के मसले पर दुनिया का ध्यान खींचने में फिर अहम कामयाबी मिली है। खासतौर पर रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के साथ द्विपक्षीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रणनीतिक साझेदारी को और मजबूत करने पर चर्चा की। इसका मुख्य उद्देश्य आतंकवाद निरोधक सहयोग के लिए एक व्यापक तंत्र बनाना है। रूस 2016 में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में भी आतंकवाद के मसले पर भारत का साथ दे चुका है।
इस बार दोनों नेताओं के बीच यह शिखर सम्मेलन इस लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण रहा कि भारत-रूस संबंधों के साथ-साथ इसमें व्यापार, सुरक्षा और संस्कृति जैसे क्षेत्रों में व्यापक सहयोग पर भी बातचीत आगे बढ़ी। इस समूची कवायद में न केवल भारत, बल्कि विश्व स्तर पर अर्थव्यवस्था के बाधक तत्त्वों की पहचान और उसकी चुनौतियों का सामना करने की ठोस योजनाओं पर बातचीत आगे बढ़ी और यह अंतरराष्ट्रीय शांति और विकास के लिहाज से महत्त्वपूर्ण है। यों भी ब्रिक्स देशों के आर्थिक सहयोग की ओर बढ़ते कदमों में आतंकवाद जैसी समस्याओं से निपटने के लिए ठोस कार्यक्रम को शामिल करना वक्त की जरूरत है।
हर उम्र की सांसों पर भारी है ग्लोबल वार्मिंग का असर
मदन जैड़ा, (ब्यूरो चीफ)
लांसेट काउंटडाउन की ताजा रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर प्रभावों को लेकर गहन चिंता पैदा करती है। चिंता यह है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जिस गति से प्रयास हो रहे हैं, खतरा उससे कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। नतीजा यह है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य से लेकर अन्य नीतियों में सुधार के हमारे मौके हाथ से निकल रहे हैं। वैश्विक नीति-निर्माता छोटे द्वीपों, गरीब व विकासशील देशों की चिंताओं को पहचानने में चूक कर रहे हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार, आज जन्म लेने वाला हर बच्चा अपने जीवन में एक बार ऐसी जलवायु में सांस लेगा, जो औद्यौगिक काल से पहले के दौर की तुलना में चार डिग्री ज्यादा गरम है। उसे बचपन, किशोरावस्था, वयस्क होने से लेकर वृद्धावस्था तक जलवायु परिवर्तन प्रभावित करेगा।
दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव सबसे ज्यादा बच्चों पर ही असर दिखा रहे हैं। बच्चे कई प्रकार से प्रभावित होते हैं। 1960 के बाद से देखा गया है कि सभी प्रमुख फसलों के उत्पादन में कमी आ रही है। यह खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा है। गरीब बच्चों में इससे कुपोषण बढ़ रहा है। इसी प्रकार डायरिया, डेंगू जैसी बीमारियों का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव भी बच्चों पर पड़ता है। ऐसे रोगों के विस्तार के लिए बढ़ती गरमी जिम्मेदार है। पिछले लगभग दो दशक डेंगू के संचरण की दृष्टि से सबसे भयावह साबित हुए हैं। इसी प्रकार यदि डायरिया के मामले देखें, तो 1980 के दशक की तुलना में ऐसे दिनों की संख्या दोगुनी हो गई है, जो इस बीमारी के फैलाव के लिए उपयुक्त होते हैं।
पहली बार इस रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि किस प्रकार से उम्र के हर पड़ाव को जलवायु परिवर्तन प्रभावित करता है। बाल्यावस्था के प्रभावों का जिक्र ऊपर किया गया है। उसके बाद किशोरावस्था में जब लोग प्रवेश करते हैं, तो यह खतरा और बढ़ जाता है। जीवाश्म ईंधन से होने वाला वायु प्रदूषण, हवा के प्रदूषित होने से होने वाली दिल, फेफड़ों आदि की बीमारियां। उम्र बढ़ने के साथ-साथ इन बीमारियों का खतरा बढ़ता जाता है, क्योंकि शरीर को लगातार इन प्रभावों का सामना करना पड़ता है। पीएम 2.5 जैसे सूक्ष्म कणों से 2016 में 29 लाख मौतें दुनिया में हुईं, जबकि इस दौरान वायु प्रदूषण से होने वाली कुल मौतें 78 लाख थीं। रिपोर्ट में कहा गया है कि आने वाले समय में जीवन में बार-बार चरम मौसमी कठिनाइयों का आना सबसे बड़ा खतरा होगा, जो स्वास्थ्य के लिए बड़ी चुनौती साबित होगा।
इसके प्रकोप का सर्वाधिक शिकार महिलाओं को होना पड़ सकता है। इतना ही नहीं, विश्व स्तर पर 77 देशों ने 2001-14 तथा 2015-18 के दौरान जंगलों की बढ़ती आग और उससे होने वाले जोखिम में वृद्धि का अनुभव किया है। भारत और चीन में ये घटनाएं सबसे ज्यादा बढ़ी हैं। उपरोक्त अवधि में भारत में ऐसी घटनाएं 2.1 करोड़ तक बढ़ी हैं, जबकि चीन में 1.7 करोड़ मामले बढे़ हैं। निम्न आय वाले देशों में इस प्रकार की मौसमी घटनाओं से होने वाली क्षति की भरपाई के लिए कोई बीमा नहीं होता है, जिससे परिवारों पर बोझ बढ़ता है। बढ़ते तापमान और अत्यधिक गरमी व लू जैसी घटनाओं से आबादी की श्रम क्षमता भी लगातार गिर रही है। रिपोर्ट कहती है कि 2018 में 45 अरब संभावित कार्य घंटे की क्षति तुलनात्मक रूप से जलवायु परिवर्तन के कारणों से हुई, जिसमें भारी गरमी, बारिश, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक घटनाएं शामिल हैं। अमेरिका और उसके दक्षिणी क्षेत्रों ने इस दौरान तापमान बढ़ने के कारण काम-काज के संभावित 15-20 फीसदी घंटे खो दिए।
रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि अभी यह प्रमाणित करना मुश्किल है कि जलवायु परिवर्तन के चलते पलायन, गरीबी की विकरालता, हिंसक प्रदर्शन, संघर्ष और मानसिक बीमारियां बढ़ रही हैं, लेकिन इतना तो तय है कि जलवायु परिवर्तन इनको बढ़ा रहा है। इस पर और शोध की जरूरत है। लांसेट की इस रिपोर्ट में एक और बड़ी चिंता यह व्यक्त की गई है। दुनिया में यह सोच बढ़ती जा रही है कि सब इसी तरह चलता है। यह और भी चिंताजनक है। इस रास्ते पर चलने का परिणाम यह होगा कि दुनिया का मौलिक रूप ही बदल जाएगा। जो चिंता ऊपर जाहिर की गई है, वह उससे कहीं ज्यादा विकराल रूप में दुनिया के सामने पेश आ सकती है।