18-10-2019 (Important News Clippings)

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18 Oct 2019
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Date:18-10-19

Export or stagnate

There is no substitute for export-led growth, decline indicates economy losing steam

TOI Editorials

The global economy is currently in the midst of a synchronised slowdown, with almost all major economies losing momentum. An important cause of this slowdown, according to IMF, is trade friction between the world’s largest economies. Two outcomes of this friction are a reduction in the volume of merchandise and the constant threat of tariff increases as countries turn insular. Given this context, India’s lacklustre two-way global trade in September may not seem disappointing. Exports declined 6.57% to $26 billion and imports fell by 13.9% to $36.9 billion. However, this view mischaracterises India’s challenge.

Prior to the current slowdown, there were a couple of years when the global economy recorded a synchronised pick-up. India missed the bus on that occasion; it coincided with demonetisation and the poorly managed transition to GST. India over the last three years has witnessed a slowdown in economic growth. For a longer period, we have seen a reduction in export intensity of growth. The signs point to an economy which has lost competitiveness in relation to its peer group over the last few years. This needs to be reversed as export-led growth is a tried and tested pathway to prosperity.

IMF has forecast that India will record an improvement in its growth rate next financial year. Of course, this is contingent on reforms. NDA did well recently to lower corporate tax rates as it influences investment decisions. But this needs to be accompanied by other changes which can actualise the potential of tax rate cut. For instance, the import tariff rates should be reduced to encourage a tighter integration of Indian firms in global value chains. This will lead soon to an increase in exports in both absolute and relative terms. If we want acche din, there’s no real substitute for export-led growth.


Date:18-10-19

अर्थशास्त्र के नोबेल से गरीबी मिटाने पर फिर फोकस

राम सिंह

पिछले तीन दशकों में दुनिया भर में गरीबों की संख्या में बहुत कमी आई है। इसमें भारत व चीन ने सबसे ज्यादा योगदान दिया है। 1995 और 2018 के बीच शिशु मृत्युदर भी 50 फीसदी से घटी है। स्कूल जाने वाले बच्चे 56 से बढ़कर 80 फीसदी हो गए हैं। किसी भी पैमाने से यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। लेकिन, भारत जैसे देश के लिए गरीबी अब भी बहुत बड़ी चुनौती है। अब भी 70 करोड़ से ज्यादा लोग कई तरह की गरीबी का सामना कर रहे हैं- आमदनी, सेहत और शिक्षा संबंधी गरीबी। दुनियाभर में हर साल 50 लाख से ज्यादा बच्चे बुनियादी मेडिकल सुविधा के अभाव में मर जाते हैं। बचे हुए बच्चों में से आधे से ज्यादा पढ़ने, लिखने और हिसाब लगाने की बुनियादी शिक्षा के बिना ही स्कूल छोड़ देते हैं। इस साल अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार ने अर्थशास्त्रियों और नीति-निर्धारकों का फोकस फिर गरीबों पर ला दिया है। विजेताओं- अभिजीत बनर्जी, उनकी पत्नी एस्तर डल्फो और माइकल क्रेमर ने गरीबी विरोधी नीतियों को प्रभावी बनाने के लिए अपने शोध में रैंडमाइज्ड कंट्रोल्ड ट्रायल (आरसीटी) नामक पद्धति अपनाई।

यह तकनीक एक सदी से भी ज्यादा समय से दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल में इस्तेमाल होती रही है पर इन अर्थशास्त्रियों ने इसका उपयोग कई देशों के गरीबों के व्यवहार का अध्ययन करने के लिए किया। इससे नीति के किसी एक आयाम पर ध्यान केंद्रित करना संभव होता है। जैसे भारत सहित विकसित देशों में खराब शिक्षा की समस्या को लें। कई बच्चों के पास किताबें नहीं होती और वे भूखे ही स्कूल जाते हैं। फिर सरकारी स्कूलों में एक ही टीचर एक साथ कई अलग-अलग ग्रेड के बच्चों को पढ़ाता है। सवाल है कि बच्चों की शिक्षा किस बात में बदलाव से बेहतर होगी अधिक किताबें, अधिक शिक्षक या बच्चों को दोपहर का मुफ्त भोजन देने से? क्रेमर ने जवाब तलाशने के लिए केन्या में कई आरसीटी प्रयोग किए। स्कूलों को बेतरतीब तरीके से तीन भिन्न समूहों में बांटकर एक को किताबें तो दूसरे को मुफ्त भोजन दिया और तीसरे को दोनों में से कुछ नहीं दिया। पता चला कि किताबें व भोजन देने से तीसरे ग्रुप की तुलना में कोई खास फर्क नहीं पड़ा।
बनर्जी और डफ्लो ने मुंबई व वडोदरा में धीमी गति से सीखने वाले बच्चो को शिक्षण सहायक मुहैया कराए गए। बच्चों का प्रदर्शन कहीं बेहतर रहा। उसके बाद से भारतीय स्कूलों में कई बच्चों को ऐसी शिक्षण सहायता पहुंचाने के कार्यक्रम शुरू हुए हैं।

इसी तरह उन्होंने डॉक्टरों के लिए प्रोत्साहन व जवाबदेही के अभाव का अध्ययन किया, जो सरकारी डॉक्टरों की गैर-मौजूदगी के रूप में दिखाई दे रहा था। पाया गया कि डॉक्टरों को जवाबदेह बनाकर प्रदर्शन सुधारा जा सकता है। क्रेमर व सहयोगियों ने अपने शोध में पाया कि परजीवियों से होने वाले संक्रमण में कृमि नाशक उपायों की कीमत में थोड़ी वृद्धि से भी मांग बहुत घट जाती है। ये नतीजे स्वाभाविक हैं खासतौर उनके लिए जो विकासशील देशों से वाकिफ हैं। हालांकि, शोध की उपयोगिता नीतिगत प्रभावों को ठीक-ठीक आंकने और यह समझने में है कि किसी नीति को कारगर बनाने में कैसे बदलाव किया जाए। जब अपने बच्चों का टीकाकरण कराने वाले परिवारों को मुफ्त में दालें दी गईं तो टीकाकरण 6 फीसदी से बढ़कर 39 फीसदी तक पहुंच गया।

एक अन्य प्रयोग में डफ्लो व क्रेमर ने बताया कि लोग आधुनिक टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल को लेकर उदासीन रहते हैं। कम लागत की प्राकृतिक खाद जैसे आसान उपाय भी छोटे खेतों के मालिक अपनाने से उदासीन रहते हैं, फिर चाहे उन्हें बहुत फायदा मिलने की संभावना क्यों न हो। उन्होंने प्रयोगों से दिखाया कि स्थायी के बजाय अस्थायी सब्सिडी ज्यादा असरदार होती है। जैसे यदि टॉयलेट बनाने के लिए थोड़े समय की सब्सिडी होती तो लोग तेजी से टॉयलेट बनवाते, क्योंकि उन्हें सब्सिडी गंवाने का डर होता। हालांकि नीति निर्धारिकों को रिसर्च और नीति निर्धारण को सीधे जोड़ने में सावधानी बरतनी चाहिए। जैसे मध्याह्न भोजन से सीखने का स्तर न बढ़ने का मतलब यह नहीं कि मध्याह्न भोजन रोक देना चाहिए। इसी तरह यह दलील की अल्पावधि के कॉन्ट्रेक्ट के जरिये शिक्षकों का प्रदर्शन सुधारा जा सकता है। यही स्कूलों के निजी क्षेत्र में होता है। पर औसत सरकारी व प्राइवेट स्कूल एक जैसे होते हैं। इसी तरह निजी अस्पताल कॉन्ट्रेक्ट पर डॉक्टर रखते हैं पर वे इतने महंगे होते हैं कि ज्यादातर भारतीयों की पहुंच से बाहर होते हैं। सारे सोच-विचार के बाद तीव्र आर्थिक प्रगति और अच्छी सार्वजनिक सेवाएं ही गरीबों की स्थिति सुधारने की कुंजी है। अब भारत घोर गरीबी में रहने वाली सबसे बड़ी आबादी वाला देश नहीं रहा है। जाहिर है पिछले तीन दशकों में हुई तीव्र प्रगति इसकी वजह है।


Date:18-10-19

गरीब की जिंदगी

(विवेक कौल), स्तंभकार अर्थशास्त्री एवं इजी मनी ट्राइलॉजी के लेखक हैं)

 वर्ष 2011 की बात है। अभिजीत बनर्जी मुंबई आए हुए थे और मुझे उनका साक्षात्कार करना था। साक्षात्कार के दौरान उन्होंने मोरक्को से जुड़ा एक दिलचस्प प्रसंग बयान किया। अपने मोरक्को दौरे के दौरान बनर्जी जब एक गरीब आदमी से मिले तो उन्होंने उससे पूछा कि अगर तुम्हे थोड़े और पैसे मिलें तो तुम उन पैसों का क्या करोगे? उस आदमी ने कहा कि वह उन पैसों से भोजन खरीदेगा। इस पर बनर्जी ने उससे पूछा कि अगर और भी पैसा मिले तो वह उन पैसों का क्या करेगा? आदमी ने फिर जवाब दिया कि वह और भी भोजन खरीदेगा।

बनर्जी को यह सुनकर काफी अजीब लगा, पर जब वह उस आदमी के घर पहुंचे तो हक्के-बक्के रह गए। उस आदमी के घर में टीवी और डीवीडी प्लेयर भी था। यह देखने के बाद बनर्जी ने उससे कहा कि अगर तुम्हारे पास खाने के लिए पर्याप्त आहार नहीं है तो फिर टीवी कैसे है? इस पर उसने जवाब दिया कि जिंदगी में टीवी होना खाने से अधिक जरूरी है। बनर्जी के लिए यह काफी चौंकाने वाली बात थी। इस अनुभव से दो-चार होने के बाद उन्होंने अपनी पत्नी एस्थर डुफ्लो के साथ विश्व के कई देशों में भोजन के अधिकार पर कई प्रयोग किए। इसके अलावा उन्होंने बाल शैक्षिक सुधार की दिशा में भी काफी काम किया। उन्हें इन क्षेत्रों में काम के लिए ही माइकल क्रेमर के साथ अर्थशास्त्र में इस साल के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

अधिकांश अर्थशास्त्री अपने काम के लिए प्रयोग आधारित दृष्टिकोण का पालन नहीं कर पाते, क्योंकि वास्तविक जीवन में प्रयोग करना काफी मुश्किल होता है, लेकिन अभिजीत बनर्जी और डळ्फ्लो के साथ ऐसा नहीं है। अर्थशास्त्र में उनके शोध प्रायोगिक दृष्टिकोण पर आधारित हैं। मोरक्को वाले उदहारण के आधार पर चीन में एक प्रयोग किया गया। इस प्रयोग की चर्चा बनर्जी ने उक्त साक्षात्कार में की थी। इसके बाद 2014 में मुंबई में हुए एक लिटरेचर फेस्टिवल में भी उन्होंने इसके बारे में काफी विस्तार से बताया। संयोग से मैं वहां मौजूद था। बनर्जी ने बताया कि हमने चीन में कुछ लोगों को सस्ते चावल खरीदने के लिए वाउचर दिए। हमारा अनुमान था कि इससे पोषण में सुधार होगा। चूंकि यह एक प्रयोग के रूप में किया गया था इसलिए कळ्छ लोगों को वाउचर दिए गए थे और कुछ को नहीं। इस प्रयोग का परिणाम उम्मीद से बहुत अलग निकला।

आशा यह की जा रही थी कि लोगों का पोषण सुधरेगा, पर ऐसा हुआ नहीं। बनर्जी ने बताया, वाउचर वाले लोग पोषण में बदतर निकले। दरअसल उन्हें लगा कि अब उनके पास वाउचर है सो वे पहले से ज्यादा अमीर हैं और अब उन्हें चावल खाने की जरूरत नहीं है। वे पोर्क, झींगा आदि खा सकते हैं। उन्होंने पोर्क और झींगा खरीदा और परिणामस्वरूप उनके शुद्ध कैलोरी ग्रहण में कमी हो गई। भले ही यह बात सुनने में थोड़ी अजीब लगे, पर बनर्जी इसे पूरी तरह तर्कसंगत मानते हैं। उनका कहना है कि वे लोग आनंद की प्रतीक्षा कर रहे थे। आनंद न केवल हमारे जीने के लिए, बल्कि हमारे भाग्य को नियंत्रित करने के संदर्भ में भी बहुत महत्वपूर्ण है। अगर किसी को लगता है कि उसे शेष जीवन दब्बू होकर जीना होगा तो इसका मतलब है कि उसका जीना बहुत मुश्किल हो गया है। बनर्जी के अनुसार, चीन के वे लोग अपने पोषण में सुधार कर सकते थे या अगले दस दिनों के लिए थोड़ा बेहतर खा सकते थे, लेकिन आनंद एक ऐसी चीज है जिसके बारे में हम भूल जाते हैं।

दुनिया भर के विभिन्न देशों ने भोजन के अधिकार को इसी विचार के साथ लागू किया है कि अगर गरीब लोगों को रियायती भोजन दिया जाएगा तो उनके पोषण में सुधार होगा। जब खाद्य सुरक्षा नीतियां तैयार की जाती हैं तो उन्हें तैयार करने वाले जीवन के आनंद के बारे में नहीं सोचते। वे यह मानकर चलते हैं कि अगर भोजन रियायती दरों पर उपलब्ध कराया जाएगा तो लोग स्वाभाविक रूप से पोषण के बारे में ही सोचेंगे, लेकिन ऐसा नहीं है। यह एक बहुत ही सरल, किंतु गहरी बात है जो किसी प्रयोग से ही बाहर आ सकती थी। यह प्रयोग बनर्जी और डळ्फ्लो ने किया। ऐसे ही प्रयोग उन्होंने शैक्षिक सुधार के क्षेत्र में भी किए और यह पाया कि भारत के सरकारी स्कूलों में शैक्षिक सुधार की काफी जरूरत है। ऊंची कक्षाओं के छात्र भी ठीक से पढ़-लिख नहीं पाते हैं। उन्हें बुनियादी गणित के सवाल हल करने में भी दिक्कत होती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सरकारी शिक्षकों के साथ एक प्रयोग किया।

बनर्जी दंपती ने शिक्षकों से कहा कि छह हफ्ते तक वे केवल छात्रों के बुनियादी कौशल पर ध्यान दें। यदि वे पढ़ नहीं सकते तो उन्हें पढ़ना सिखाएं। यदि वे गणित में दक्ष नहीं तो उन्हें गणित सिखाएं। इन शिक्षकों को थोड़ा वजीफा और साथ ही कळ्छ दिनों का प्रशिक्षण भी दिया गया। छह सप्ताह के इस प्रयोग से यह पता चला कि अगर एक अलग तरीके से पढ़ाया जाए तो बच्चों का भविष्य बदला जा सकता है। इस बारे में बनर्जी ने समझाया कि शिक्षकों को एक ऐसा काम करने के लिए कहा गया था जो वास्तव में उन्हें समझ में आता है। उन्हें बच्चों को वह सिखाने के लिए कहा गया जो बच्चे नहीं जानते थे। आम तौर पर शिक्षकों को पाठ्यक्रम पढ़ाने के लिए कहा जाता है।

शिक्षा अधिकार अधिनियम के तहत हर साल शिक्षकों को पाठ्यक्रम पूरा करना पड़ता है। बच्चे कळ्छ समझ रहे है या नहीं, इसकी उन्हें चिंता नहीं होती। जरा कक्षा चार में पढ़ने वाले उन बच्चों के बारे में सोचिए जो पढ़ नहीं सकते, लेकिन वे सामाजिक अध्ययन और अन्य सभी चीजें सीख रहे होते हैं। वे किसी विदेशी भाषा में कळ्छ फिल्में भी देखते हैं। बनर्जी के अनुसार, दरअसल वे कुछ नहीं सीख रहे होते हैं और इसीलिए ड्रॉपआउट दर अधिक हैं। शिक्षा की समस्या का एक सरल समाधान है। बनर्जी का कहना है, पहले चार वर्षों में हमें बुनियादी कौशल सिखाने को प्राथमिकता देनी चाहिए।

देश के इतिहास से परिचित कराने का काम बाद में भी हो सकता है। बनर्जी के अनुसार, हम यह भूल जाते हैं कि पूर्णता अच्छे की दुश्मन है। हम एक ऐसी शिक्षा प्रणाली की कोशिश कर रहे हैं, जो एकदम सही हो और हर बच्चा इसके अंत में ज्ञान के साथ सामने आए। इस कोशिश के कारण वे कुछ नहीं सीख पाते। ऐसे प्रयोगों से काफी लोगों का फायदा हुआ है। नोबेल पुरस्कार संबंधी प्रेस विज्ञप्ति में कहा भी गया है कि महज एक अध्ययन के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में पचास लाख से अधिक भारतीय बच्चों को स्कूलों में ट्यूशन के प्रभावी कार्यक्रमों से लाभ हुआ है। यह बहुत बड़ी बात है।


Date:18-10-19

पोषण का संकट

संपादकीय

इस हफ्ते जारी वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की रैंकिंग को लेकर चिंता जाहिर करना वाजिब ही है। हर साल जारी होने वाले इस सूचकांक में भारत को इस बार 117 देशों में से 102वां स्थान मिला है। इसका मतलब है कि भूख की तड़प एवं उसके विस्तार पर काबू कर पाने में केवल 15 देश ही भारत से पीछे हैं। मोटे तौर पर देखें तो भारत वर्ष 2010 में 95वें पायदान पर था, लिहाजा यही लगता है कि वह रैंकिंग में नीचे गिरा है।

इस सूचकांक में बच्चों का कद के अनुपात में कम वजन, उम्र के अनुपात में कम दिखना, बाल मृत्यु दर और जरूरत से कम पोषण जैसे तमाम संकेतक शामिल होते हैं। यह संभव है कि इन पैमानों पर कुल रैंकिंग भारांक या गणना-पद्धति में छोटे बदलावों के प्रति संवेदनशील हो। लेकिन सूचकांक में शामिल घटकों के अलग-अलग रुझान भी परेशान करते हैं। कद के अनुपात में वजन का पैमाना अधिक परेशान करता है।

रिपोर्ट कहती है कि जहां वर्ष 2012 के पहले 16.5 फीसदी बच्चों का वजन कद के अनुपात में नहीं था, वहीं 2014 के बाद से ऐसे बच्चों की संख्या 20 फीसदी से अधिक हो चुकी है। यहां यह खास तौर पर उल्लेखनीय है कि ये आंकड़े मोटे तौर पर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण जैसे स्रोतों से हासिल संकेतकों से मेल ही खाते हैं।

संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की इस हफ्ते जारी ‘विश्व बाल स्थिति’ रिपोर्ट में भी ऐसी ही चिंताएं जताते हुए कहा गया है कि 35 फीसदी भारतीय बच्चों का अपेक्षित कद नहीं बढ़ता है, 17 फीसदी दुबले रह जाते हैं और 33 फीसदी बच्चों का वजन कम रहता है। भारत का प्रदर्शन बेहद खराब रहने की पुष्टि इससे भी होती है कि इसके सारे पड़ोसी देश भूख सूचकांक में बेहतर स्थिति में हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार कुपोषण को राष्ट्रीय शर्म बताया था लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस मसले पर सरकारों की लगातार कोशिशों के बावजूद समुचित प्रगति नहीं हो पाई है। साफ-सफाई से जुड़ी समस्याएं भी कुपोषण की एक वजह हो सकती हैं, मसलन, स्वच्छ भारत अभियान। लेकिन रिपोर्ट बताती है कि खुले में शौच का सिलसिला अब भी जारी है जिसका पोषण पर दुर्भाग्यपूर्ण असर होता है। लेकिन अनवरत आर्थिक वृद्धि के दो दशक बाद भी खानपान के बुनियादी मसले नहीं निपटाए जा सके हैं।

हंगर रिपोर्ट कहती है कि छह महीने से लेकर दो साल तक के 90 फीसदी बच्चों को न्यूनतम स्वीकार्य आहार भी नहीं मिल पा रहा। यूनिसेफ रिपोर्ट के मुताबिक 40 फीसदी बच्चे एनीमिया की चपेट में हैं और केवल 40 फीसदी बच्चे, किशोर या माताएं ही हफ्ते में कम-से-कम एक बार दुग्ध उत्पादों का सेवन करते हैं। ऐसी हालत तब है जब दूध उत्पादन छह फीसदी दर से बढ़ा है और नवीनतम पशु गणना में दुधारू गायों की संख्या बढऩे की बात सामने आई है।

भारत राज्य को बुनियादी तत्त्वों पर जोर देना होगा और खाद्य वितरण के सवालों को हल करना होगा। किसी इलाके में गेहूं एवं धान उगाने की इच्छा रखने वाले किसानों के समर्थन का एक माध्यम भर रह गई मौजूदा सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार करने होंगे। यह एक वितरण प्रणाली है, केवल खरीद व्यवस्था नहीं।

अब यह सुनिश्चित करने पर जोर होना चाहिए कि कुपोषण का जोखिम झेल रहे बच्चों समेत तमाम भारतीयों को संतुलित एवं पोषक आहार मिले। अगर उत्तर प्रदेश के स्कूलों में बच्चों को मध्याह्न भोजन में चावल के साथ हल्दी का पानी भर मिल रहा हो तो अनाज के भंडारगृहों में गेहूं एवं चावल का ढेर लगा होने का कोई मतलब नहीं है। दोपहर में बच्चों को सब्जियों एवं प्रोटीन से भरपूर गरम खाना परोसना भूख से जुड़े सवाल हल करने का बढिय़ा शुरुआती बिंदु होगा।


Date:17-10-19

कुपोषित विकास

संपादकीय

इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि एक ओर दुनिया भर में अर्थव्यवस्था को पैमाना बना कर अलग-अलग देशों में विकास की चमकती तस्वीरें पेश की जा रही हैं और दूसरी ओर बड़ी तादाद में बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। संयुक्त राष्ट्र की ओर से मंगलवार को जारी बाल पोषण संबंधी रिपोर्ट में यह आंकड़ा सामने आया है कि विश्वभर में पांच साल से कम उम्र के लगभग सत्तर करोड़ बच्चों में से एक तिहाई बच्चे या तो कुपोषित हैं या फिर मोटापे से पीड़ित हैं। नतीजतन, इन बच्चों पर पूरे जीन कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त रहने का खतरा बना रहेगा।

‘स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्र्न’ रिपोर्ट की ताजा तस्वीर विकास के दावों की हकीकत बताने के लिए काफी है। सवाल है कि अर्थव्यवस्था के चमकते आंकड़ों के बरक्स अगर दुनिया के एक तिहाई बच्चे किसी न किसी बीमारी की चपेट में अपनी जिंदगी काटेंगे तो उस चमक को किस तरह देखा जाएगा! विकास के प्रचारित पैमानों में अगर बच्चों के पोषण पर केंद्रित कार्यक्रम दुनिया के देशों की प्राथमिकता में शुमार नहीं हुए तो सेहत की कसौटी पर आने वाली पीढ़ियों के व्यक्तित्व का अंदाजा भर लगाया जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हम स्वस्थ खानपान की लड़ाई हार रहे हैं। असल में एक नई समस्या यह खड़ी हो रही है कि कहीं जरूरत से ज्यादा और असंतुलित खानपान की वजह से बच्चों का वजन अत्यधिक है तो किसी परिवार में बच्चों को पेट भर खाना भी नहीं मिल पा रहा है। दोनों ही स्थितियों को कुपोषण के ही रूप में देखा गया है। एक में बच्चे मोटापे से पीड़ित हो रहे हैं तो दूसरे में बच्चों का कद अपनी आयु के मुताबिक काफी छोटा है और वे अत्यंत दुबलेपन की समस्या से जूझ रहे हैं।

कुपोषण, भोजन में पोषण तत्त्वों की कमी और मोटापा एक ही साथ आसपास और यहां तक कि कई बार एक परिवार में भी देखा जा सकता है। जहां विश्वभर में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में से करीब आधे बच्चों को भोजन में आवश्यक विटामिन और खनिज नहीं मिल पा रहे हैं, वहीं लगभग दो अरब लोग हानिकारक खाद्य पदार्थों का जरूरत से ज्यादा सेवन कर रहे हैं, जिसके चलते मोटापे, हृदय संबंधी और मधुमेह की बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं।

जहां तक भारत का सवाल है, यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक यहां हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। जबकि देश में हर साल एक लाख करोड़ रुपए का अनाज बर्बाद हो जाता है, यानी चालीस फीसद भोजन वार्षिक उत्पादन में बेकार हो जाता है। जाहिर है, पोषण का यह असंतुलन खानपान की स्थितियों से जुड़ा है, लेकिन दरअसल यह असंतुलित विकास नीतियों का नतीजा है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पूरी दुनिया को अगले दशक के आखिर तक भुखमरी से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया गया है और संयुक्त राष्ट्र के इस लक्ष्य से भारत भी जुड़ा हुआ है।

विकास के बरक्स व्यापक कुपोषण के विरोधाभास की यह हकीकत इक्कीसवीं सदी के उस दौर में भी कायम है, जब कई देश अपने सीमा-क्षेत्र में आम लोगों की जरूरतों और यहां तक कि बुनियादी समस्याओं से दो-चार होने के समांतर दुनिया में खुद को विकसित और ताकतवर देशों के साथ होड़ में होने का दावा कर रहे हैं। आखिर क्या वजह है कि विकास के पैमानों में वे सवाल हाशिये पर छोड़ दिए जा रहे हैं, जिनके नतीजों में एक बड़ी आबादी अपने बच्चों का पेट तक ठीक से नहीं भर पा रही है।


Date:17-10-19

Pullback and chaos

US withdrawal from Kurdish Syria, the manner in which it has been done, augurs more instability in the region

Editorial

On October 15, US President Donald Trump tweeted that “after defeating 100% of the ISIS caliphate… I said to my generals, why should we be fighting for Syria and Assad to protect the land of our enemy? Anyone who wants to assist Syria in protecting the Kurds, whether it is Russia, China or Napoleon Bonaparte. I hope they do great, we are 7,000 miles away”. The most charitable view of Trump’s withdrawal of US forces from north-east Syria, an area under Kurdish control with its capital in Rojava, is that he is attempting to fulfill his promise of extricating the US from the conflicts it has been embroiled in across the globe ahead of the 2020 US presidential elections. The manner of the troop withdrawal, though, has strengthened the Bashar al Assad regime, sharpened the conflict in the region, as well as increased the influence of Russia in West Asia. From a US foreign policy perspective, these outcomes are an unmitigated failure. For regional and global security, they augur a time of instability.

In the immediate aftermath of Trump’s decision, Turkey’s President Recep Erdogan ordered his troops into the region, and there are reports of civilian casualties. US troops had suffered minimal casualties and were a buffer protecting the Kurdish forces. Erdogan, who is facing a violent Kurdish-led in insurgency in his own country, seems to be seeking a deeper strategic buffer through military control of Syria’s autonomous Kurdish region. In a corner, and abandoned by their US allies, Rojava has sought assistance from Assad, and Russia and Iran too are expected to back the Assad regime, filling the power vacuum left by the US. Erdogan, for his part, seems undeterred by the sporadic threats of sanctions and other diplomatic consequences by the US and NATO.

Trump’s sudden withdrawal, without getting security guarantees from Ankara, is likely to be counterproductive. First, the claim that the “ISIS caliphate” has been defeated may be technically true, but many IS fighters retreated into remote parts of Iraq and Syria. Since the conflict in Syria began in 2015, the Kurds, helped by their US allies, were instrumental in the fight against the Islamic State. The remnants of the IS, now, may be emboldened. Second, the Assad regime, which the US accused of war crimes, has consolidated and its influence is certainly waxing, along with that of Russia. Finally, an aggressive and expansionist Turkey could pose a long-term challenge to the regional balance of power. It has long been a NATO ally and even houses a US military base with nuclear capabilities. In the near term, what is required is well-thought out, firm diplomacy by the US and other world powers, that goes far beyond what President Trump’s tweets have hinted at.


Date:17-10-19

Five Years of Make in India

There is a contradiction in trying to attract foreign investors before reforming labour, land acquisition laws

Christophe Jaffrelot, Vihang Jumle

Prime Minister Narendra Modi launched the Make in India campaign on September 25, 2014 with these words: “I tell the world, ‘Make in India’. Sell anywhere but manufacture here.” Modi aspired to emulate China — a country he had visited many times as Gujarat chief minister — in attracting foreign investment to industrialise India. The objective was, officially, to increase the manufacturing sector’s growth rate to 12-14 per cent per annum in order to increase this sector’s share in the economy from 16 to 25 per cent of the GDP by 2022 — and to create 100 million additional jobs by then.

Five years later, this policy has produced contrasting results. Foreign direct investment (FDI) has increased from $16 billion in 2013-14 to $36 billion in 2015-16. But this remarkable achievement needs to be qualified from two standpoints. First, FDIs have plateaued since 2016 and second, they are not contributing to India’s industrialisation. FDIs in the manufacturing sector, in fact, are on the wane. In 2017-18, they were just above $7 billion , as against $9.6 billion in 2014-15. Services cornered most of the FDIs — $23.5 billion, more than three times that of the manufacturing sector. This is a clear reflection of the the Indian economy’s traditional strong points, where computer services, for instance, are remarkably developed. But can a country rely on services without developing an industrial base? The response is clearly no and this is why “Make in India” was initiated.

The idea, then, was to promote export-led growth: Foreign investors were invited to make in India, not necessarily for India. But few investors have been attracted by this prospect, and India’s share in the global exports of manufactured products remains around 2 per cent — China’s is around 18 per cent.

Why has Make in India failed to deliver? First, a large fraction of the Indian FDI is neither foreign nor direct but comes from Mauritius-based shell companies. Indian tax authorities suspected that most of these investments were “black money” from India, which was routed via Mauritius. Second, the productivity of Indian factories is low. According to a McKinsey report, “workers in India’s manufacturing sector are almost four and five times less productive, on average, than their counterparts in Thailand and China”. This is not just because of insufficient skills, but also because the size of the industrial units is too small for attaining economies of scale, investing in modern equipment and developing supply chains. Why are companies small? Partly by choice, because labour regulations are more complicated for plants with more than 100 employees. Government approval is required under the Industrial Disputes Act of 1947 before laying off any employee and the Contract Labour Act of 1970 requires government and employee approval for simple changes in an employee’s job description or duties.


Date:17-10-19

Taking national data seriously

India must not trade away its national data rights at the Regional Comprehensive Economic Partnership negotiations

Parminder Jeet Singh

In a digital economy, data is the central resource. The Prime Minister recently compared data to property at the advent of the industrial era. Data is being considered as a nation’s new wealth. How data will be employed fruitfully, and its value captured, will decide a nation’s rank in the emerging new global geo-economic and geo-political hierarchies. The global digital or artificial intelligence (AI) economy is currently a two-horse race between the U.S. and China. It is feared that all other countries, including the European Union (EU) and major developing countries such as India, will have to become fully digitally dependent on one of these two digital superpowers. This will considerably compromise their economic and political independence, something referred to as digital colonisation.

The shift to digital power, and its concentration, is very evident. Seven of the top eight companies by market cap globally today are data-based corporations. A decade back, this list was dominated by industrial and oil giants. Almost all top digital corporations in the world are U.S. or Chinese.

Importance of data sharing

All credible efforts to escape such a dismal situation, like in the French and the U.K.’s AI strategies, numerous EU documents, and India’s NITI Aayog’s AI strategy, focus on one central issue — more data-sharing within the country, and better access to data for domestic businesses. But how is this to be actually achieved when a few global digital corporations such as Google, Facebook, Amazon and Uber, continually vacuum out India’s and Indians’ data, and then by default treat it as their private property, including freely sending it abroad? French AI strategy calls for an aggressive data policy, and control on data outflows. NITI Aayog’s AI strategy has sought mandated sharing of data for social purposes.

Appropriate data policies must ensure that the required data is actually available to Indian digital businesses. After all, most of this data in the first place is collected from Indian communities, artefacts and natural phenomenon, and is about them. Global corporations like to consider data as a freely shareable open resource till the data is out there, with the people, communities, outside ‘things’, etc. But the moment they collect the data, it seems to become their de facto private property and they refuse to share it, even for important public interest purposes.

This lawless logjam can only be broken by asserting a community’s legal right over data that is derived from, and is about, the community concerned, or about ‘things’ that belong to it. This is the concept of community data inscribed in India’s draft e-commerce policy.

Community data

To understand data’s value, and why a community should own data about itself, it helps to see data as the basis of detailed and deep intelligence about a community. We are careful in parting with personal data because it provides deep intelligence about us which can be used to manipulate us. Similarly, data about a group of people, even if anonymised, provides very wide and granular intelligence about that group or community. The very basis of a digital economy is to employ such data-based intelligence to reorganise and coordinate different sectors — think Uber in the transport sector and Amazon in consumer goods. But this data-based community intelligence can equally be used to manipulate or cause harm to the community, if in the hands of an untrusted or exploitative party. Such data-based harm could be economic — beginning with unfair sharing of the gains of digital efficiency, but also social, political security-related and military.

It is for this reason that communities, including a national community, should effectively control and regulate intelligence about them. This requires effective community control over its data that produces such intelligence. A complex and gradual process of classification of various kinds of data, and developing governance frameworks around them, is required.

A great amount of data would indeed be fully private to the corporation concerned. Public agencies and regulators may not be too bothered about how such private data is used, where it is moved to, etc. But a big part of data that comes into play in a digital economy is community data, which has to be treated carefully. In less important areas or sectors it may need no or very little regulation, but in other important areas, the community data concerned may require close regulation. This could be about accessing such data for social purposes, ensuring that important public interest is met in various uses of data, and to make data available to domestic businesses, to stimulate competition and for India’s digital industrialisation.

All this requires India to preserve its data policy space. We have not even begun dealing with the very complex data policy issues, including data classification, data ownership rights, data sharing, data trusts, and so on. This is a task that India should urgently embark upon, in full earnest. There is no time to lose as global advantages and vulnerabilities in terms of a digital economy are fast being entrenched. This is very similar to how the Industrial Revolution triggered fundamental changes and new global power configurations in the 19th century.

Preserving data policy space

News reports indicate that at the Regional Comprehensive Economic Partnership trade negotiations, being held with Association of Southeast Asian Nations, China, South Korea, Japan, Australia and New Zealand, India may accept free data flow clauses with some public policy exceptions.

The history of trade agreements clearly show that such public policy exceptions almost never work, especially for developing countries. It needs to be understood that suitable data controls and policies are not to be exceptions but the mainstream of a digital economy and society.

In signing on a free flow of data regime, however cleverly worded, India will largely end up ceding most of its data policy space, and data sovereignty. And with it, it will give up any chances for effectively using Indian data for India’s development, and for digital industrialisation to become a top digital power. It will effectively be laying the path for permanent digital dependency, with India’s data flowing freely to data intelligence centres in the U.S., and now some in China. From these global centres, a few global “intelligence corporations” will digitally, and intelligent-ally, control and run the entire world.

With countries yet hardly clear about appropriate data policies, and the data-related requirements for digital industrialisation, it is not clear what the hurry is to sign global free flow of data agreements. The digital economy seems to be growing and flourishing very well even without such regimes.

Disengaging from signing binding agreements on uninhibited data flows across borders does not mean that a country would simply localise all data. Some kinds of data may indeed need to be localised, while others should freely flow globally. It just means that a country retains complete data policy space, and the means to shape its digital industrialisation, and thus its digital future. Our understanding in these areas is just now beginning to take shape. It will be extremely unwise to foreclose our options even before we discover and decide the right data and digital polices and path for India.


Date:17-10-19

Restoring maritime commons

India and China must aspire to ensure that Asia’s seas are not arenas of contestation

Sourabh Gupta, [Senior fellow at the Institute for China-America Studies in Washington, D.C]

The bonds of commerce and cosmopolitanism that had illuminated the First Asian Millennium were on ample display at the second informal summit between Prime Minister Narendra Modi and Chinese President Xi Jinping in Mamallapuram.

At a time when China and India’s dash towards westernisation has left a residue of aggressive nationhood and mutual antagonism, Mamallapuram was a reminder of the syncretic values that had furnished a principle of order and self-restraint in an earlier age of Asia’s international relations. At a time when protectionism and xenophobic populism threaten to topple the edifice of the rules-bound international economic order, Mamallapuram was a reminder of an era when theological advances in Buddhist worship had catalysed triangular trading networks in pearls, precious stones and silks.

At a time when the threat of interdiction along Asia’s strategic maritime passageways is becoming a currency of geopolitical contestation and control, Mamallapuram was a reminder of an earlier golden age of sail when Asia’s seas were a common heritage of mankind. Each sovereign entertained a vested interest in preserving the freedom of Asia’s waterways and none sought to dominate. Beginning with the Capture of Malacca by the Portuguese in 1511, that norm died a slow death at the hands of state-controlled violence introduced into Asia’s seas by Westerners.

In this Asian Century, India and China must aspire to once again restore Asia’s seas to their former purpose as win-win economic passageways rather than zero-sum arenas of contestation. To this end, Mr. Modi and Mr. Xi should periodically issue strategic guidance to their respective foreign offices and navies.

Similar interests

For the most part, both New Delhi and Beijing share fundamentally similar interests in Asia’s maritime commons, yet each would rather pursue these interests and frame strategies separately. Both share an interest in keeping their overlapping sea lines of communication open to free navigation, yet both seek to exercise leverage via the veiled threat of interdiction over the choke points through which these sea lanes pass. Both retain an interest in securing sea-borne access to ensure the economic viability of their landlocked, underdeveloped regions, yet both would prefer to design connectivity initiatives that run at odds with their counterparts’. Since 2014, both navies have begun to bump-up more frequently in the proximity of each other’s naval bastions, yet neither has dialled-up a conversation to reassure its counterpart of its intentions.

Steps forward

As a first step, India and China must commit to respecting each other’s ‘core’ interests — reasonably defined — in their respective backyards. Conversely, both countries must respect each other’s maritime engagements with third parties so long as these engagements do not trample on their counterparts’ interests. Infrastructure investment must not be weaponised under any circumstance. Next, both India and China bear an obligation to keep their surface and sub-surface fleets at some distance from their counterparts’ naval bastions so as not to degrade the integrity of their second-strike deterrence capability. To the extent that India and China seek to exercise leverage over Asia’s maritime choke points, both countries would be better-off exploring a broader bargain that resists the temptation to challenge each other’s growing authority west and east of Sumatra, respectively. In the longer term, India, China and their Asian partners should aim to develop soft laws that fortify the ongoing development and conservationist orientation of global sea law, and to the relative disfavour of military and other non-peaceful uses of the sea. The lessons learnt by India and China in stabilising their disputed land boundary offer useful pointers to chart a framework to regulate their interactions at sea. Let this journey of a thousand miles commence with a single step at the next informal summit.