18-08-2021 (Important News Clippings)

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18 Aug 2021
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Date:18-08-21

Time, Cost Overruns Can Ruin Big Projects

Editorials

The ₹100 lakh crore Gati Shakti initiative for transport and logistics infrastructure announced by the prime minister calls for robust public institutional capacity to plan, prepare and duly complete on time big-ticket projects. Time and cost overruns would be inevitable, in the normal course. When ticket sizes are huge, it is imperative that we now revamp project preparation processes and systems for efficient and streamlined implementation. It is essential to have the initial assessment of projects, requisite gap analysis, and pre-feasibility reports independently vetted.

The way ahead is to have a standard platform developed for independent project appraisal akin to the Gateway peer review process in Britain, so that there is a transparent institutional mechanism for addressing critical issues and project challenges. The infrastructure strategy needs to factor in financial and environmental assessment. At the same time, we need an adequately deep pool of project developers with requisite experience, competence and execution capacity, with a conducive ecosystem for project development. And here, the sanctity of contracts and speedy dispute resolution processes, including mediation and conciliation, are of critical import. The Centre, states and developers need to build a culture of honouring contracts. It would help if, say, NITI Aayog were to sensitise stakeholders and develop model contracts, whether for railway station revamp or airport redevelopment.

Now that the New Delhi International Arbitration (NDIA) Centre Act, 2019 has been enacted, it needs to be set up post-haste as per global standards. The bottom line is that we need deep governmental commitment for efficient and stepped-up infrastructural modernisation.


Date:18-08-21

बारिशों में हिल नहीं, ‘किल’ स्टेशन बनते हमारे पहाड़

लक्ष्मी प्रसाद पंत, ( नेशनल एडिटर )

इस साल भी मानसून ने हिमालय के मायने बदल दिए हैं। भूस्खलन, अतिवृष्टि और बादल फटने जैसी त्रासदियों ने फिर बता दिया है कि हिमालय के गर्भ में खतरों के कितने भयावह संकेत छिपे हुए हैं। चिंताएं सिर्फ यही नहीं है। चौंकाने वाली एक सच्चाई यह भी है कि सरकारी वादाखिलाफी और उदासीनता के कारण हिमालय की पूरी व्यवस्था धीरे-धीरे विनाशकारी तूफान की तरफ बढ़ रही है। विकास के मानदंड बदले नहीं गए तो हर मानसून जानलेवा तारीखें दोहराता रहेगा। और एक दिन हिल स्टेशन नहीं, किल स्टेशन के रूप में पहाड़ों की डरावनी पहचान बन जाएगी।

अब बड़ा सवाल यह है कि हिमालय में तबाही का जिम्मेदार कौन है? क्या सिर्फ मौसमी बदलाव ही तबाही का इकलौता सच है? इन पर हम बात करेंगे लेकिन हिमालय के थर्राने की सबसे बड़ी वजह कुछ और है। हम सब मान चुके हैं कि प्राकृतिक संसाधन हिमालय की नहीं सरकार, बाजार और भ्रष्टाचार की संपत्ति है। हिमालय की उर्वर और उपजाऊ संसाधनों पर उसके सिवाय सबका हक है। यही वजह है कि पूरी व्यवस्था, प्रकृति को जाने बगैर विकास के बुलडोजर चला रही हैं। नतीजा हर मानसून मौत की तरह बरस रहा है। भूस्खलन, अतिवृष्टि और बादल फटना तब से जारी है जब से हिमालय पर इंसानी दस्तख्त नहीं थे। यह स्वाभाविक और प्राकृतिक प्रक्रिया है। जानलेवा यह तब हुआ जब हम दरकते पहाड़ के पेट में घुसकर विकास के नाम पर घर, बांध, दुकानें, सड़कें, सुरंगे बनाकर बैठ गए।

यह सही है कि हिमालय में बर्फ के पहाड़ तेजी से पिघल रहे हैं। हर साल अचानक बाढ़ और भूस्खलन की तीव्रता ने भी पहाड़ों को तबाही के नए ताबूत में तब्दील कर दिया है। किंतु इस तथ्य पर भी गौर करने की जरूरत है कि मौसम और तबाहियों से निपटने के लिए विज्ञान और सत्ता की तैयारी क्या है? हकीकत यह है कि हिमालय के भूगोल को नेतृत्व और उनकी नीतियों ने कभी समझा ही नहीं। जहां तक विज्ञान का सवाल है, तो उसके पास आपदा से बचने के उपाय तो छोड़िए, पूर्वानुमान या चेतावनी देने के लिए आंकड़े तक नहीं हैं। सरकार की प्राथमिकता या एजेंडे में हिमालय न था, न कभी होगा। नतीजा- पर्यावरण व विकास के बीच की दूरी भी लगातार बढ़ रही है। इसी के साथ बढ़ रहे हैं तबाही के आंकड़े।

हिमालय के दो पहलू हैं। मौसम और उससे होने वाली आपदा। लेकिन हैरानी की बात है कि मौसम विभाग और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन के बीच तालमेल नहीं है। मौसम विभाग जो चेतावनी जारी करता है, उसका विश्लेषण भी आपदा प्रबंधन तंत्र नहीं कर पाता। इसलिए आपदा से बचने के उपाय और प्रबंधन नहीं हो पाते। जाहिर है जब व्यवस्था में ऐसी स्थितियां हों, तो हिमालय में रहने वाले और वहां जाने वालों की जान-माल का भगवान ही मालिक है।

हिमालय में तबाही सिर्फ पहाड़ी राज्य या किसी खास भूभाग तक सीमित नहीं है। यहां हुई तबाही पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर असर डालती है। लिहाजा हिमालय की जड़ें खोद रहे लोगों को सोचना होगा कि प्रकृति की कोख का नाता जीवन से है। विकास का बीजगणित हिमालय से बड़ा नहीं हो सकता। हिमालय को जाने बिना अगर विकास का दायरा खोलेंगे तो वहां तबाही की सूची हर साल लंबी होती रहेगी। और अंत में हमारे जीवनदायी पहाड़ों को डेथ वैली की तरह डेथ माउंटेन का टैग लगाकर प्रतिबंधित कर दिया जाएगा। सोचिए जीवन की सबसे प्रतिनिधि इकाई ही प्रतिबंधित हो जाएगी तो जीवन कैसा होगा?


Date:18-08-21

तालिबान से भारत सरकार संवाद क्यों नहीं करती

डॉ. वेदप्रताप वैदिक, ( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )

अफगानिस्तान में अशरफ गनी सरकार गिर चुकी है, लेकिन तालिबान की सरकार ने अभी तक औपचारिक सत्ता-ग्रहण नहीं किया है। किसी भी देश में जब भी तख्ता-पलट होता है तो नए शासक की घोषणा तुरंत होती है लेकिन ऐसा लगता है कि तालिबान अभी सलाह-मश्विरा में मशगूल है। पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ होगा कि अशरफ गनी की साढ़े तीन लाख की फौज बिना लड़े ही हथियार डाल देगी।

तालिबान को क्या, अमेरिकियों को भी इल्म नहीं था कि अफगान-सेना इतनी जल्दी धराशायी हो जाएगी। अमेरिका का जासूसी तंत्र दुनिया का सबसे बड़ा तंत्र है, लेकिन राष्ट्रपति जो बाइडेन भी बिल्कुल गलत सिद्ध हो गए। और भारत को भी पता ही नहीं चला कि काबुल सूखे पत्ते की तरह टूटकर तालिबान के हाथ में गिरने ही वाला है। सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के नाते भारत चाहता तो काबुल में संयुक्त राष्ट्र की शांति-सेना भिजवा सकता था लेकिन यह मौका उसने खो दिया। हालांकि यह मौका तो अभी भी है।

अफगानिस्तान में जो भी उथल-पुथल होती है, उसका सबसे ज्यादा असर पहले पाकिस्तान और फिर भारत पर होता है लेकिन आप जरा देखें कि अफगान-संकट में सबसे सक्रिय भूमिका कौन से देश अदा कर रहे थे? अमेरिका, चीन, रूस, तुर्की, क़तर, यूएई और ईरान आदि! अफगान मुजाहिदीन और तालिबान ने रूस और अमेरिका के हजारों जवानों को मौत के घाट उतार दिया और उनके अरबों-खरबों डॉलरों पर पानी फेर दिया लेकिन इसके बावजूद वे उनके साथ पिछले दो साल से खुलकर बात कर रहे हैं लेकिन भारत आज क्या कर रहा है? भारत ने अपना दूतावास खाली कर दिया है। अपने राजदूत और अन्य राजनयिकों की जान बचाकर उन्हें किसी तरह भारत ले आया गया है। अभी भी भारत के लगभग डेढ़ हजार नागरिक वहां फंसे हुए हैं।

रूस और अमेरिका ने चाहे अफगानिस्तान में अरबों-खरबों रुपए बहा दिए लेकिन आम अफगान जनता में भारत की जो सराहना है, वह इन देशों की नहीं है। भारत खुद मालदार देश नहीं है लेकिन अफगानिस्तान के नव-निर्माण में भारत ने तीन बिलियन डॉलर लगाए हैं। उसके दर्जनों नागरिकों और राजनयिकों को आतंकवादियों ने अपना निशाना बनाया है। भारत ने 200 कि.मी. की जरंज-दिलाराम सड़क बनाकर अफगानिस्तान को फारस की खाड़ी तक जाने का वैकल्पिक मार्ग दिलवा दिया है। पाकिस्तान पर उसकी निर्भरता को ऐच्छिक बना दिया है। यह ठीक है कि हामिद करजई और अशरफ गनी सरकारों के साथ भारत के संबंध घनिष्ट रहे लेकिन वे खुद तालिबान के साथ खुलकर बात करती रहीं तो भारत सरकार को किसने रोका था? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी सरकार अमेरिका के भरोसे रह गई?

तालिबान को हम अछूत मानते रहे, क्योंकि वे पाकिस्तान के हमजोली रहे हैं लेकिन हम क्यों भूलते हैं कि तालिबान भारत के सीधे दुश्मन नहीं हैं। दिसंबर 1999 में जब हमारे अपहृत जहाज को कंधार ले जाया गया, तब उसे छुड़वाने में तालिबान ने मध्यस्थता की थी। अब भी तालिबान प्रवक्ता ने कहा है कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है। उसने यह भी कहा है कि अफगानिस्तान में तीन बिलियन डॉलर का निर्माण-कार्य करने के लिए वह भारत की सराहना करता है। इसके अलावा तालिबान ने अभी तक जो घोषणाएं की हैं, उनसे ऐसा लगता है कि पिछले 25 साल में उन्होंने कई सबक सीखे हैं। खबरों के अनुसार तालिबान ने अफगान महिलाओं से सरकार में हिस्सेदारी की अपील की है। उसने सर्वसमावेशी सरकार चलाने की घोषणा की है। अभी तक भयंकर खून-खराबे की कोई गंभीर खबर नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं कि तालिबान काबुल में अब कोई मिली-जुली सरकार चलाने के लिए तैयार हो जाएं।

जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, वह भी तालिबान की विजय से बाग-बाग है लेकिन वह डरा हुआ भी है। तालिबान नेता मुल्ला बिरादर पाकिस्तानी जेलों में आठ साल काट चुके हैं। तालिबान के भी कई खुदमुख्तार गुट हैं। उनमें से कुछ डूरेंड लाइन को अवैध मानते हैं और पठानों का राज पेशावर तक चाहते हैं। इस समय इस्लामाबाद में गैर-तालिबान नेताओं का एक दल काबुल में संयुक्त सरकार बनाने की कवायद भी कर रहा है। यदि इस मौके पर अमेरिका और चीन, जो एक-दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं, उनके विदेश मंत्री भी एक-दूसरे से बात कर रहे हैं तो भारत क्यों चुप बैठा है? भारत चाहे तो तालिबान से सीधा संवाद करके उन्हें लोकतांत्रिक मार्ग पर चलने के लिए भी प्रेरित कर सकता है।


Date:18-08-21

जातिगत जनगणना का जटिल सवाल

डा. एके वर्मा, ( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक हैं )

विभिन्न दलों द्वारा समय-समय पर जातीय जनगणना की मांग उठती रही है। सरकार ने संसद में स्पष्ट किया कि 2021 की जनगणना में 1951 से चली आ रही नीति नहीं बदलेगी। केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की गणना होगी, क्योंकि संविधान लोकसभा और विधानसभाओं में उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटों के आरक्षण का प्रविधान करता है। आखिर अन्य जातियों की गणना में समस्याक्या है? हिंदू समाज की समस्या जातियां नहीं, बल्कि ऊपरी सोपान पर स्थित जातियों को निचले सोपान पर स्थित जातियों से श्रेष्ठ मानने की है। इसीलिए आंबेडकर जातियों को समाप्त करना चाहते थे और राममनोहर लोहिया ने जाति तोड़ो आंदोलन चलाया।

भारत में 1881 से जो दशकीय जनगणना शुरू हुई, उसमें 1931 तक जातियों की गणना होती रही। तत्कालीन जनगणना आयुक्त डा. जेएच हटन ने जातियों और उपजातियों की विविधता, उनके वर्गीकरण की समस्या, कार्मिकों की कमी और उक्त प्रक्रिया खर्चीली होने आदि आधारों पर उसे न करने का अनुरोध किया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1941 में जैसे-तैसे जनगणना हुई, लेकिन स्वतंत्र भारत में जातीय जनगणना की परिपाटी नहीं शुरू की गई। 1951 में केवल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की गणना हुई। आज तक ओबीसी जनसंख्या के लिए 1931 का ही संदर्भ लिया जाता है, जिसमें उनकी संख्या 52 प्रतिशत थी। मई 2007 में तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री मीरा कुमार ने राज्यसभा को लिखित उत्तर में बताया था कि उत्तर प्रदेश में सात करोड़ और बिहार, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में तीन-तीन करोड़ ओबीसी हैं। ये आंकड़े राज्य-पंचायतीराज कार्यालयों या राज्य पिछड़ा वर्ग आयोगों द्वारा दिए गए थे। सितंबर 2007 में मनमोहन सरकार ने एनएसएसओ के आंकड़े प्रकाशित किए, जिनमें ओबीसी जनसंख्या घटकर 41 प्रतिशत रह गई, क्योंकि अनेक जातियों को ओबीसी से बाहर कर दिया गया। आज विभिन्न राज्यों में ओबीसी सूची से अनेक जातियों को बाहर करने की जरूरत है, क्योंकि अनुसूचित जनजाति आदेश 1950 ने अनेक ‘जनजातियों’ को अनुसूचित जनजाति में शामिल न कर ओबीसी या अनुसूचित जाति सूची में रख दिया था। स्वतंत्रता से पूर्व उत्तर प्रदेश में सैकड़ों जनजातियां थीं, मगर वहां केवल भोटिया, बुक्सा, राजी, जान्सारी और थारू को ही अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया, शेष को ओबीसी या अनुसूचित जाति में डाल दिया गया। कई दूसरे राज्यों में भी यही हुआ। अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की सूची में फेरबदल केवल संसद कर सकती है। इसलिए इस समस्या का निराकरण कठिन है। संसद ने 2002 में उप्र की 17 जातियों को अनुसूचित जाति से निकाल अनुसूचित जनजाति सूची में डाला, परंतु केवल 13 जिलों में ही ऐसा हुआ।

भारत में जातियां केवल सामाजिक इकाइयां नहीं हैं। उनकी राजनीतिक और व्यावसायिक पहचान भी है। इसीलिए पार्टियां उन्हें वोट बैंक समझती हैं। लोहिया ने दलित-पिछड़ों को मिलाकर राजनीति करने की असफल कोशिश की। कांशीराम ने बामसेफ और डीएस-4 द्वारा दलित-पिछड़ा वर्ग, महिला-मुस्लिम को मिलाकर राजनीति करने का प्रयास किया, लेकिन मुलायर्म ंसह और मायावती की कटुता से वह प्रयोग भी सफल नहीं हुआ। 2014 में भाजपा ने जब लोकसभा चुनावों की कमान नरेंद्र मोदी को सौंपी, तब एक मौलिक परिवर्तन हुआ। ‘पहचान की राजनीति’ पर ‘समावेशी-राजनीति’ हावी हो गई। यह 2019 के लोकसभा और अनेक विधानसभा चुनावों में भी दिखाई दिया। अधिकतर दलों को इसका अहसास नही कि ‘पहचान’ की देहरी से निकल मतदाता विकास और लोक कल्याणकारी योजनाओं के पंख लगा समावेशी राजनीति की ओर बढ़ चला है। इसके बावजूद सभी दल जातिवादी राजनीति को लेकर कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। वास्तव में समावेशी राजनीति में ही सांप्रदायिकता और जातिवाद, दोनों की काट छुपी है। जातीय जनगणना न कराने या 2011 में हुई सामाजिक-आर्थिक-जातीय जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक न करने के पीछे जो नीयत पिछली कांग्रेस सरकारों की थी, वही भाजपा की भी लगती है।

ओबीसी गणना का मुद्दा आरक्षण से जुड़ा है और आरक्षण सामाजिक न्याय से। भारत सरकार द्वारा गठित रोहिणी आयोग की अंतरिम रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय सूची की 2633 ओबीसी जातियों में 27 प्रतिशत ने 97 प्रतिशत नौकरियां पाई हैं, जबकि 983 पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ शून्य है। इसीलिए काका कालेलकर और मंडल आयोग दोनों में ओबीसी के उपवर्गीकरण की बात उठी थी। कर्नाटक, आंध्र, तमिलनाडु, तेलंगाना, झारखंड, हरियाणा, बिहार, महाराष्ट्र और बंगाल आदि में नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी उपवर्गीकरण लागू है। वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने हुकुम सिंह समिति के माध्यम से इसे लागू करने की कोशिश की, लेकिन विरोध के कारण ठिठक गई। रोहिणी आयोग के समक्ष उपवर्गीकरण विचाराधीन है और वह ओबीसी को चार उपवर्गों में बांटकर 27 फीसद आरक्षण को क्रमश: 2, 6, 9 और 10 फीसद के अनुपात में वितरित करना चाहता है। यह सामाजिक न्याय की अवधारणा को पुष्ट करेगा, पर इससे ओबीसी के भीतर ही विवाद संभव है, जहां प्रभावशाली जातियां इसका विरोध कर सकती हैं।

अनेक राज्यों में जातिगत जनगणना होती रही है, लेकिन 2018 में संविधान के 102वें संशोधन से अनुच्छेद-342 ए जोड़ा गया, जो केंद्र और राज्यों में ओबीसी सूची बनाने का एकाधिकार राष्ट्रपति अर्थात केंद्र को देता है। इस परिप्रेक्ष्य में ही सुप्रीम कोर्ट ने मई 2021 में राज्यों द्वारा ओबीसी सूची बनाने का अधिकार खत्म कर दिया। मोदी सरकार ने संविधान में संशोधन कर राज्यों का यह अधिकार बहाल कर दिया, जो न्यायसंगत तो लगता है, मगर संविधानसम्मत नहीं, क्योंकि संविधान की सातवीं अनुसूची में संघीय सूची क्रमांक 69 में जनगणना का एकाधिकार केंद्र को दिया गया है। फिलहाल ओबीसी के संबंध में ‘प्रो-एक्टिव’ नीति अपनाकर प्रधानमंत्री मोदी ने न केवल पहचान की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों को गंभीर चुनौती दी है, बल्कि समाज के सबसे बड़े वर्ग को क्षेत्रीयता की सीमा से निकाल कर व्यापक राष्ट्रीय राजनीति से जोड़ने का प्रयास भी किया है।


Date:18-08-21

खिसक रहा गुरुत्वाकर्षण केंद्र

सुरेश भाई

बरसात के मौसम में हिमालयी प्रदेशों में बाढ़ और भूस्खलन का खतरनाक दौर चल रहा है। भूगर्भ वैज्ञानिक कह रहे हैं कि पहाड़ों का गुरुत्वाकर्षण केंद्र अपनी जगह से खिसक रहा है‚ जिससे हिमालय के पहाड़ खोखले होते जा रहे हैं‚ और यह स्थिति आने वाले दिनों में लगातार बढ़ेगी। क्योंकि यहां पर छोटे–बड़े भूकंप के आने का सिलसिला जारी है‚ और ग्लेशियरों के खिसकने से भूस्खलन की घटनाएं कभी खत्म नहीं हो सकतीं। भारी निर्माण कार्यों से और भी मुश्किलें पैदा हो रही हैं। हिमालय के पर्वतों को खोखला करने वाले बड़े निर्माण कार्यों के दौरान की जा रही टी कटिंग के मलबा निस्तारण की वैज्ञानिक तकनीक का इस्तेमाल भी नहीं हो रहा है। निर्माण कंपनियां अपने मुनाफे के लिए खूबसूरत हिमालय की हालत को बिगाड़ने में कोई देरी नहीं कर रही हैं।

यह स्थिति केवल भारतीय हिमालयी राज्यों में ही पैदा नहीं की गई है‚ बल्कि नेपाल‚ भूटान‚ तिब्बत आदि में भी चट्टानों को गिराने और पेड़ों को काटने के साथ बेवजह तोड़–फोड़ से पहाड़ों को स्थिर रखने वाला गुरु त्वाकर्षण केंद्र अपनी जगह छोड़ता जा रहा है‚ जिससे लगता है कि पहाड़ कभी भी मैदान बन सकते हैं। इसलिए यहां पर जो भी बचा हुआ है‚ उसे संतुलित विकास की सीमाओं में बांधना जरूरी है। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के महानिदेशक डॉ. सोमनाथ चंदेल का कहना है कि पहाड़ों में हो रहे अतिक्रमण से गुरुत्वाकर्षण केंद्र डिस्टर्ब हो रहा है‚ और भविष्य में 8 रिक्टर स्केल का भूकंप मध्य हिमालय में आने की आशंका भी व्यक्त की गई है। वैसे जुलाई माह में भी बरसात के समय के औसत तापमान में आई वृद्धि का आंकड़ा भी चौंकाने वाला है। इससे लगता है कि भविष्य में पहाड़ों के साथ विकास के नाम पर अतिक्रमण होता रहा तो मानवीय त्रासदी को जानबूझकर बुलावा दिया जा रहा है। पहाड़ तभी टिके रह सकते हैं‚ जब उसका गुरुत्वाकर्षण केंद्र स्थिर हो। बड़े निर्माण कार्यों के नाम पर पहाड़ों की बैलेंस कटिंग न होने से गुरुत्वाकर्षण केंद्र अपनी जगह छोड़ देता है‚ जिससे कई दिनों की बारिश में लगातार मलबा गिरने की आशंका तेज हो जाती है। इस तरह की अनेक भूगर्भशा्त्रिरयों की रिपोर्ट सरकारी दफ्तरों की फाइलों में बंद पड़ी हुई हैं। चिंतनीय है कि हिमालय क्षेत्र में प्रस्तावित एवं निर्माणाधीन ऑलवेदर रोड़ का निर्माण करते समय ध्यान नहीं रखा गया है कि बारिश के समय वह फिर से भरभरा कर गिर जाएगा और किसी को भी जान से मार सकता है। यह दृश्य हिमालयी राज्यों की सड़कों से गुजरने वाले लोगों को देखना पड़ रहा है।

इसी दौरान हिमाचल की दूसरी घटना है। किन्नौर जिले के नेशनल हाईवे पर चट्टान खिसकने से तीन दर्जन से अधिक लोग मारे गए हैं। उत्तराखंड के मलारी हाईवे पर ग्लेश्यिर टूटने से जान–माल को बहुत नुकसान पहुंचा है। मध्य हिमालय क्षेत्र में चौड़ी सड़कों के निर्माण के बाद उसके आसपास की ढालदार पहाडि़यों पर चौड़ी दरारें आई हुई हैं। यमुनोत्री‚ गंगोत्री हाईवे में अधिकांश जगहों पर सड़कों के टूटने से ही बस्तियों तक भूस्खलन का खतरा बन गया है। ताजा उदाहरण है कि एनएचआईडीसीएल निर्माण कंपनी का है‚ जिसने गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर सिर्फ 200 मी. लंबी सड़क निर्माण पर लगभग 50 करोड़ से अधिक खर्च कर दिया है। इसके बाद भी भूस्खलन नहीं थम रहा। इस पर बनाई जा रही ओपन टनल से बड़ा हिस्सा टूटकर पिछले दिनों भागीरथी में समा गया था।

इस समय ऐसे ही निर्माण कार्यों से अकेले उत्तराखंड में लगभग 100 से अधिक डेंजर जोन बन गए हैं। हिमाचल की सड़कों की हालत भी यही है। फरवरी‚ 2021 में ग्लेशियर टूटने के कारण बांध–बैराजों को हुए भारी नुकसान ने 200 से अधिक लोगों की जान अलकनंदा की सहायक नदियों ने ले ली। इसके बाद भी नदियों की अविरलता को रोकने वाले नये बांधों के निर्माण करने की फाइलें खोली जा रही हैं। ध्यान इस ओर अवश्य जाना चाहिए था कि भूकंप और बड़े निर्माण कार्यों से पैदा हुई दरारों के कारण यहां की संवेदनशील धरती में भूस्खलन से जानलेवा स्थिति पैदा होगी। हाल के वर्षों में वनों का व्यावसायिक कटान‚ चाहे वह दिबांग घाटी में हो या गंगा घाटी में‚ बड़े खतरों को मोल ले रहा है। इससे हिमालयी राज्यों की सभी नदियों के उद्गम में जैव विविधता को नुकसान पहुंच रहा है। ऑलवेदर सड़क बनाने की घोषणा का पहाड़ों की छोटी भौगोलिक संरचना के कारण विरोध भी किया जा रहा है। इसके निर्माण के चलते हिमालय से मिट्टी और पानी का क्षरण बढ़ गया है‚ जबकि सभी लोग चाहते हैं कि दूरस्थ और सीमांत क्षेत्रों तक सुदृढ़ सड़कों का निर्माण हो‚ लेकिन यह तभी संभव है जब यहां की संवेदनशील पारिस्थितिकी का ध्यान निर्माण कार्यों के दौरान रखा जाए।


Date:18-08-21

शांत राज्य में हिंसा की आग

प्रभाकर मणि तिवारी, ( वरिष्ठ पत्रकार )

पूर्वोत्तर के स्कॉटलैंड के नाम से मशहूर मेघालय की राजधानी शिलांग एक बार फिर सुर्खियों में है। देश की आजादी के बाद से ही उग्रवाद के लिए सुर्खियां बटोरने वाले पूर्वोत्तर में मेघालय की गिनती सबसे शांत राज्यों में होती रही है। यह बात नहीं है कि राज्य में कभी उग्रवाद था ही नहीं, पर पड़ोसी असम के अलावा नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा जैसे राज्यों के साथ तुलना करें, तो फर्क साफ हो जाता है। यही मेघालय और खासकर इसकी राजधानी शिलांग बीते रविवार से एक बार फिर गलत वजहों से सुर्खियों में है। यह सुनकर हैरत हो सकती है, लेकिन अबकी हिंसा की वजह है उग्रवादी संगठन हनीट्रेप नेशनल लिबरेशन कौंसिल (एचएनएलसी) के शीर्ष नेता रहे चेरिस्टरफील्ड थांगखियु की कथित पुलिस मुठभेड़ में मौत। इसके खिलाफ पनपी नाराजगी के बाद शहर में हिंसा और आगजनी भड़क उठी। इस समय हालात यह है कि पड़ोसी असम ने फिलहाल राज्य के लोगों को मेघालय नहीं जाने की सलाह दी है।

हालात इतने बेकाबू हो गए कि राजधानी में कफ्र्यू लगाना पड़ा है। इसके साथ ही, अफवाहों और गलत सूचनाओं का प्रसार रोकने के लिए राज्य के चार जिलों में इंटरनेट पर पाबंदी लगा दी गई है। हिंसा के दौरान लोगों ने पुलिस के कई वाहन जला दिए। उधर, इस कथित हत्या के विरोध में घटना की न्यायिक जांच की मांग करते हुए राज्य के गृह मंत्री लहकमन रिंबुई ने इस्तीफा दे दिया है। मेघालय की राजनीति पर नजदीकी निगाह रखने वाले लोगों की राय में थांगखियु की कथित हत्या के बाद लोगों में जो नाराजगी उभरी है, उसका मतलब सिर्फ यही नहीं है कि उनमें एचएनएलसी के प्रति भारी सहानुभूति है। दरअसल, लोग कोविड प्रबंधन, लॉकडाउन के दौरान सरकार के उदासीन रवैये और लगातार बढ़ते भ्रष्टाचार से नाराज थे। थांगखियु की पुलिस मुठभेड़ में मौत ने उनकी इस नाराजगी को चिनगारी दिखा दी।

हालात पर काबू पाने के लिए शिलांग में केंद्रीय बलों की पांच कंपनियां तैनात कर दी गई हैं। मुख्यमंत्री कोनराड संगमा ने केंद्रीय गृह मंत्री से पांच अतिरिक्त कंपनियां भेजने का अनुरोध किया है। आशंका है कि हिंसा भड़क सकती है। शायद सरकार भी ऐसा ही मानती है। यही वजह है कि सोमवार को आनन-फानन में बुलाई गई कैबिनेट बैठक में जहां थांगखियु की मौत के मामले की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए गए, वहीं राज्य में शांति समिति और कानून-व्यवस्था उप-समिति का भी गठन करने का फैसला किया गया।

पूर्व उग्रवादी नेता की कथित हत्या के विरोध में गृह मंत्री रिंबुई के इस्तीफे ने राज्य सरकार के लिए मुसीबत पैदा कर दी है। रिंबुई की यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (यूडीपी) सरकार में मुख्यमंत्री संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) की सहयोगी है। रिंबुई ने कहा है कि उन्होंने पार्टी नेतृत्व से विचार-विमर्श के बाद ही इस मुठभेड़ के विरोध में इस्तीफा देने का फैसला किया है। हालांकि, मुख्यमंत्री ने अब तक उनके इस्तीफे पर कोई फैसला नहीं किया है।

आखिर थांगखियु जिस संगठन एचएनएलसी से जुड़े थे, उसकी इतनी अहमियत क्यों है? एचएनएलसी खासी और जयंतिया आदिवासी समुदाय के हितों की रक्षा के लिए देश के दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों के खिलाफ लड़ने का दावा करती है। मेघालय में सामाजिक अलगाव के बीज वर्ष 1972 में अलग राज्य की स्थापना के कुछ साल बाद ही पड़ गए थे। स्थानीय बनाम बाहरी विवाद की चिनगारी पर रोटी सेंकने वाले जिन आदिवासी संगठनों ने अस्सी के दशक में राज्य में सिर उठाया था, उनमें ‘हनीट्रेप अचिक नेशनल लिबरेशन कौंसिल’ पहला संगठन था। थांगखियु उसके सह-संस्थापक थे। हनीट्रेप शब्द का इस्तेमाल राज्य की खासी और जयंतिया जनजातियों के संदर्भ में किया जाता है और अचिक का गारो जनजाति के। राज्य में यही तीन प्रमुख जनजातियां हैं। एचएनएलसी ने शुरुआती दौर में भारत से अलग होने की मांग उठाई थी। उसकी दलील थी कि ब्रिटिश शासनकाल में भी खासी इलाका कभी भारत का हिस्सा नहीं रहा था।

इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में राज्य में एचएनएलसी की ओर से बंद, स्वाधीनता दिवस के बहिष्कार की अपील और जबरन उगाही आम बात हो गई थी। बाद में उग्रवाद-विरोधी अभियानों ने कुछ साल में इस संगठन की कमर तोड़ दी। एएनवीसी तो साल 2004 से ही सरकार के साथ युद्ध-विराम की राह पर चल रहा है, लेकिन एचएनएलसी का शीर्ष नेतृत्व किसी भी शांति समझौते के सख्त खिलाफ था। अब एचएनएलसी के नेता सरकार के साथ अपनी शर्तों पर शांति प्रक्रिया के पक्ष में थे, पर सरकार का रवैया साफ था। उसका कहना था कि पहले संगठन के तमाम काडर आत्मसमर्पण करें, उसके बाद ही कोई बातचीत शुरू हो सकती है, लेकिन एचएनएलसी को यह मंजूर नहीं था। हाल में हुए बम विस्फोटों को सरकार पर दबाव बनाने की संगठन की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है।

दरअसल, मेघालय में स्थानीय बनाम बाहरी विवाद कोई नया नहीं है। पहले भी इस मुद्दे पर रह-रहकर हिंसा भड़कती रही है। सबसे ताजा मामला जून, 2018 का है, जब एक खासी युवती के साथ कथित छेड़छाड़ के मुद्दे पर सिख समुदाय के खिलाफ बडे़ पैमाने पर हिंसा भड़क उठी थी। उस समय राजधानी शिलांग में 12 दिनों तक कफ्र्यू लगाए रखना पड़ा था। यह कहना ज्यादा सही होगा कि यहां सांप्रदायिक भेदभाव के बीज सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने में छिपे हैं। क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी सामाजिक भेदभाव की इस आग पर अपनी राजनीति की रोटियां ही सेंकते रहे हैं। पर्वतीय राज्य होने और रोजगार के ज्यादा अवसर न होने की वजह से मेघालय की अर्थव्यवस्था खदानों और पर्यटन पर ही आधारित है। ऐसे में, राज्य के लोगों में यह भावना घर कर गई है कि दूसरे राज्यों से यहां आने वाले लोग स्थानीय लोगों की कीमत पर रोजगार के बचे-खुचे मौके भी हथिया रहे हैं। राज्य के लोग नौकरी के लिए दूसरे राज्यों में जाना पसंद नहीं करते। उनको लगता है कि अगर बाहरी लोगों ने यहां आकर नौकरियों और उद्योग-धंधों पर कब्जा न किया होता, तो यह सब उनके जिम्मे ही आता, लेकिन हकीकत इसके अलग है। अस्सी के दशक में राज्य में नेपालियों, बंगालियों और बिहारियों के खिलाफ भी आंदोलन और हिंसक संघर्ष हो चुके हैं।

भेदभाव की लकीरों के दिन-ब-दिन गहराते जाने की वजह से ही बाहरी राज्यों से आए लोग स्थानीय आदिवासी समाज के साथ घुल-मिल नहीं सके हैं। ऐसी हालत में स्थानीय बनाम बाहरी का मुद्दा भविष्य में भी जारी रहने के आसार हैं।