18-06-2025 (Important News Clippings)

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18 Jun 2025
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Date: 18-06-25

A free hand

Science must be unfettered if it is to be useful

Editorials

Last week, the government issued a set of orders that scientists have heralded as ‘re- volutionary. A major change is in allow- ing scientific institutions to bypass the Govern- ment e-Marketplace (GEM), a Commerce Ministry initiative that is meant to prioritise made-in-India equipment. GEM norms require all government purchases from laptops to furni- ture-to be routed through the GEM-portal, with a mandate to buy from the vendor offering the lowest price. While technocrats in government amplified this bypass as a “landmark” initiative to promote ease of doing research and develop- ment,’ the fact is that until GEM-based procure- ment was made mandatory from 2020, the de- fault option was to allow individual scientific institutions the freedom to make their choices re- garding the vendors they procure. Take for exam- ple, sodium chloride. Something as common as table salt must be available in infinite supply and it is only proper that laboratories – they require great quantities for its myriad applications in re- search-source it from the supplier who offers it the cheapest. However, much like the avatars of salt – kosher, flat or sea- are uncommonly un- ique to the chef, the differences in purity even within common salt are critical to scientific re- search as well as the manufacture of pharmaceut- icals. This translates to some vendors being more reliable and, therefore, more preferred.

A major aspect of scientific research is about being able to reproduce results of experiments described in publications. Often, this requires fi- delity to the methods and materials of the origi- nal experimenter. Given the challenge of bud- gets, the inability to source the right material results in experiments being junked halfway, or crimping on experimental ambition, resulting, overall, in a net loss of resources, time and effort. If this is extended to materials more complicated than salt-precision lathes, customised lab-pro- duced diamonds, biological molecules, for exam- ple- it is easy to understand the gripe of scien- tists. It is understandable, and pardonable, when a government experiments with an untested pol- icy and runs into uncharted waters or unknown unknowns. In the case of GEM, it was a known fact that India lacked an industrial base for so- phisticated machinery, and it was inevitable that the hammer-head policy that saw all products as cookie-cutter nails would impede scientific re search. India’s scientific ministries are unique in that they are led by scientists, instead of the usual norm of having career bureaucrats. This was due to a recognition, dating back to the early years of the republic, that while science and technology can be employed to serve the state, science itself is unfettered and must be specially nurtured to be useful. A free hand is worth more than two fet- tered arms.


Date: 18-06-25

जी-7 में अब दो ही मुद्दे चर्चा के योग्य रह गए हैं

संपादकीय

ईरान-इजराइल युद्ध के मद्देनजर ट्रम्प जी-7 की बैठक से बीच में ही लौट आए। चूंकि बैठक के सारे मुद्दे प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर अमेरिका-केंद्रित ही थे और भारत सहित तमाम देशों के नेता ट्रम्प से सीधे बात करना चाहते थे, लिहाजा अब बैठक का नतीजा अहम नहीं होगा। बैठक में भारत मेहमान के तौर पर है। जी-7 एक अनौपचारिक संगठन है, जिसका कोई चार्टर या ट्रीटी नहीं है। फिर भी 40 साल पहले तक दुनिया की कुल जीडीपी का 62% इसके सदस्य देश देते थे। लेकिन आज इन सात देशों- यूएस, यूके, फ्रांस, जर्मनी, इटली, कनाडा और जापान का वैश्विक जीडीपी में योगदान मात्र 42% रह गया है। इस बीच चीन और भारत 106 ट्रिलियन डॉलर की कुल वैश्विक जीडीपी में क्रमशः 18 और 4% का योगदान देने लगे । ट्रम्प ने जिस तरह दुनिया में आर्थिक और जंगी हलचल बढ़ाई है, इसके बाद जी-7 में दो ही मुद्दे सार्थक चर्चा के लिए रह गए थे- पहला, क्या विश्व व्यापार में अमेरिका कोई स्पष्ट नीति देगा और दूसरा, क्या युद्ध के लिए कोई न्याय – आधारित नीति होगी, जिसमें ताकत के बल पर कमजोर देशों को समझौते के लिए मजबूर नहीं किया जाए? क्या मेजबान कनाडा सहित यूरोप के अन्य तीन देश और ऑस्ट्रेलिया ट्रम्प की अनुपस्थिति में कहेंगे कि हथियार सप्लाई रोकने की धमकी के दम पर महंगे खनिज का सौदा – जैसा यूक्रेन के साथ हुआ- अनैतिक है? क्या ट्रम्प की टैरिफ नीति के विकल्प के रूप में यूरोप भारत जैसे तमाम देशों के साथ एफटीए का नया विकल्प खड़ा करेगा ?


Date: 18-06-25

“यूज-एंड-थ्रो’ की संस्कृति से कचरा और बढ़ता जा रहा है

सुनीता नारायण, ( पर्यावरणविद् )

बीते करीब 50 सालों में दुनिया ने दीर्घजीवी और कभी ना नष्ट होने वाली ऐसी चीजों की भयावह समस्या के बारे में जाना है, जो कभी चमत्कारिक मानी जाती थीं। डीडीटी को ही ले लीजिए, जो पर्यावरण में इतने लंबे समय तक बना रहता है कि वह मनुष्य के रक्त और पक्षियों के अंडों तक में भी इकट्ठा होने लगता है। या फिर क्लोराफ्यूरोकार्बन जैसे रसायन, जिन्होंने सच में ही ओजोन पर्त में छेद कर दिया है।

इनसे भी बदतर कार्बन डाइ ऑक्साइड है, जो 150 से 200 वर्षों तक पर्यावरण में बनी रहती है और जलवायु परिवर्तन के तौर पर इसके विनाशकारी परिणाम सामने आ रहे हैं। प्लास्टिक को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए।

यह हमारे रोजमर्रा के जीवन का अनिवार्य अंग बन गया है, लेकिन अब वह हमारे पर्यावरण के लिए एक बड़ी मुसीबत बन चुका है। प्लास्टिक-कचरा समुद्रों को प्रदूषित कर रहा है और मछलियों के जरिए खाद्य शृंखला में भी प्रवेश कर गया है।

भारत में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने सिंगल यूज प्लास्टिक के तौर पर चिह्नित 19 वस्तुओं को प्रतिबंधित किया है। पैकेजिंग मैटेरियल समेत अन्य प्लास्टिक कचरे को एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी (ईपीआर) नियमों के अधीन लाया गया है, जिसके तहत कंपनियों को उनके द्वारा नि​र्मित प्लास्टिक कचरे की एक नियत मात्रा को वापस लेना होता है। हर कंपनी इसे या तो री-प्रोसेस करती है या इसे सुरक्षित तरीके से नष्ट करती है। इसके जरिए यह आशा की जाती है कि हमारी नदियों, सड़कों पर भर रहे इस प्लास्टिक का प्रबंधन बेहतर हो पाएगा।

लेकिन नियम-कायदे उस तरह से कारगर नहीं हो रहे, जैसे उनको होना चाहिए। सिंगल यूज प्लास्टिक अब भी उपलब्ध है। प्रतिबंधित कैरी-बैग्स की मोटाई को लेकर भारी असमंजस है। अधिकतर सिंगल यूज प्लास्टिक आइटम छोटे और अनौपचारिक क्षेत्र में तैयार हो रहे हैं, ऐसे में इन पर प्रतिबंधों को अमल में लाना चुनौती भरा है। पारदर्शिता और अनुपालन के अभाव में ईपीआर व्यवस्था कमजोर हो गई है।

यहां अच्छी खबर भी है। कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने प्लास्टिक कैरी-बैग्स के उपयोग पर रोक लगाई है। कई शहरों में गीले-सूखे कचरे को अलग-अलग संग्रहीत करना शुरू किया गया है, ताकि प्लास्टिक समेत अन्य सूखे कचरे को री-प्रोसेस्ड किया जा सके।

ये निकाय या तो मटेरियल रिकवरी फैसिलिटी (एमआरएफ) बना रहे हैं, जहां री-साइकल हो सकने वाले प्लास्टिक को छांटकर कचरे से अलग किया जा सके। या वे कचरे से इस “मूल्यवान’ हिस्से को निकालने के लिए सीधे अनौपचारिक क्षेत्र के साथ काम कर रहे हैं। री-साइकल नहीं हो सकने वाले प्लास्टिक कचरे को सीमेंट प्लांट की भट्टियों में थर्मल ट्रीटमेंट के लिए भेज दिया जाता है या सड़क निर्माण में इसे काम में ले लिया जाता है।

लेकिन अब भी बहुत चुनौतियां हैं। सब जानते हैं कि जिसे इकट्ठा करना ही मुश्किल है, उसे रीसाइकल करने के लिए नहीं भेजा जा सकता। इसीलिए 2016 के प्लास्टिक प्रबंधन नियमों में अनिवार्य किया गया कि गुटखा और चिप्स की पैकिंग में काम आने वाले प्लास्टिक समेत सभी प्रकार के बहुस्तरीय प्लास्टिक को 2018 तक चरणबद्ध तरीके से उपयोग से बाहर किया जाए।

लेकिन बाद में नियमों में संशोधन कर कह दिया गया कि ऐसा तभी किया जाएगा, जब बहुस्तरीय प्लास्टिक रीसाइकल करने और फिर से ऊर्जा प्राप्त करने योग्य नहीं होगा। जबकि कचरे और लैंडफिल्स में मिलने वाले इस प्लास्टिक का कोई मोल नहीं और इसे एकत्र करना और री-प्रोसेस करना मुश्किल है।

हमें यह भी समझना होगा कि आज यदि हम प्लास्टिक कचरा प्रबंधन कर पा रहे हैं तो यह अनौपचारिक क्षेत्र के उन लाखों मजदूरों की बदौलत है, जो हमारी फेंकी चीजों में से भी अपने लिए मूल्य निकाल पा रहे हैं। हमें हमारे कचरे के प्रति जिम्मेदार होना पड़ेगा। यूज-एंड-थ्रो के बजाय, जिम्मेदारी से उपयोग करें। प्लास्टिक का उपयोग कम से कम हो, कचरे को अलग-अलग संग्रहीत किया जाए और रीसाइकलर्स को सहयोग किया जाए।


Date: 18-06-25

मुश्किल डोर से गुजर रही है आईबीसी

आशीष मखीजा

भारतीय संसद ने 2016 में ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) का गठन किया ताकि देश को वित्तीय दिक्कत और फंसा कर्ज संभालने की चुनौतियों से उबारा जा सके। शुरुआती सालों में आईबीसी को संस्थागत तालमेल का फायदा मिला। विधायिका ने पहले पांच साल में संहिता में छह संशोधन किए ताकि क्रियान्वयन की चुनौतियां दूर की जा सकें और बदलते आर्थिक माहौल से कदमताल की जा सके। कार्यपालिका ने नियम-कायदे तैयार किए तथा भारतीय ऋणशोधन एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई) और राष्ट्रीय कंपनी विधि पंचाट (एनसीएलटी) का गठन किया। साथ ही ऋण शोधन पेशेवरों के साथ उपयुक्त व्यवस्था तैयार की गई। न्यायपालिका ने संहिता की उद्देश्य और समझदारी भरी व्याख्या के जरिये इसे वाणिज्यिक एवं समयबद्ध बनाए रखा।

शुरुआत में इन प्रयासों के उल्लेखनीय परिणाम सामने आए। मामले तेजी से निपटे, देनदारों का रवैया बदला और कर्ज के मामले में अनुशासन बढ़ा। आईबीसी लागू होने के बाद तीन साल में ऋणशोधन के मामले निपटाने में भारत दुनिया में 136वें पायदान से चढ़कर 52वें पायदान पर आ गया। मगर अब रफ्तार थमती लग रही है। ऋणशोधन प्रक्रिया में कमियां दिख रही हैं मगर इस लेख में चिंता की दो वजहों पर बात करेंगेः न्यायपालिका और कार्यपालिका, जिनके हालिया कदमों से ऋणोधन अक्षमता निपटाने का आईबीसी का बुनियादी मकसद ही मात खाता दिखता है।

सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसलों ने संहिता की बुनियाद ही बदल दी है और विधायिका के लक्ष्य को कमजोर कर दिया है। भूषण स्टील ऐंड पॉवर लिमिटेड में अदालती फैसला परेशान करने वाला है, जहाँ न्यायालय ने वर्षों पहले लागू हो चुकी समाधान योजना को नकार दिया। फैसले में हुई देर ने भी बेचैन कर दिया। एक ऐसे कानून के तहत फैसला लेने में पांच साल लग गए, जिसमें तय समय के भीतर समाधान जरूरी कहा गया है। इससे लगता है कि कितना भी पुराना और राज्य की मंजूरी वाला वाणिज्यिक लेनदेन भी आगे जाकर फंस सकता है। रेनबो पेपर्स लिमिटेड मामले में भी झटका लगा। वहां सर्वोच्च न्यायालय ने कंपनी की परिसंपत्तियों का जिम्मा सरकार को सौंप दिया, जबकि आईबीसी में सरकारी बकाये के भुगतान की प्रथामिकता का क्रम बदलने के बारे में स्पष्ट रूप से बताया गया है और कहा गया है कि सरकार का बकाया बिना रेहन के कर्ज के बाद आएगा। पश्चिमांचल के समन्वय पीठ ने देखा कि वैधानिक प्राथमिकता नियम या तो रेनबो मामले में न्यायालय के संज्ञान में नहीं लाया गया था उस पर ध्यान ही नहीं गया। उसने माना कि विधायिका सरकारी बकाये को ऋणदाताओं के बकाये के बाद रखना चाहती है।

एनसीएलटी पर बोझ कम करने और मामलों को जल्द स्वीकार करने के लिए विधायिका ने तय किया कि चूक यानी डीफॉल्ट होते ही कार्यवाही शुरू कर दी जाए। विधेयक में शामिल प्रावधानों नोट्स ने इस तर्क को बल दिया क्योंकि उनमें तेजी से बेहतर नतीजे हासिल करने के लिए त्वरित मंजूरी जरूरी बताई गई थी। मगर विदर्भ इंडस्ट्रीज पॉवर लिमिटेड मामले में अदालत ने अलग रुख अपनाते हुए एनसीएलटी को कंपनी की व्यवहार्यता तथा वित्तीय सेहत जांचने के लिए कहा, जबकि एनसीएलटी को न तो इसका अधिकार है और न ही इसकी क्षमता उसके पास है। उसने कहा कि एनसीएलटी ‘वित्तीय ऋणदाता के आवेदन को तब तक स्वीकार करने से टाल सकता है, जब तक मंजूरी की अच्छी वजह उसके पास न हो।’

कार्यपालिका की बात करें तो आईबीसी की अहमियत तय समय में काम करने के कारण ही है। संकट में फंसी कंपनी किसी लायक न बचे, इससे पहले समाधान योजना को स्वीकर कर लेना चाहिए। समाधान योजना मंजूर हो और दिवालिया होने से पहले ही लागू कर दी जाए। मुश्किल से गुजर रही कंपनियों में फंसे संसाधनों को बरबाद होने से पहले निकाल लेना चाहिए। इसी तरह बेजा लेनदेन के जरिये गया धन फौरन वापस लाना चाहिए वरना उसकी वसूली असंभव हो जाएगी।

दुर्भाग्य से आवेदन स्वीकार करने समाधान योजना मंजूर करने आदि में एनसीएलटी को अक्सर कई साल लग जाते हैं। इतना अटकने पर समाधान योजना बेशक अव्यावहारिक हो जाए, आवेदकों को उसी पर टिके रहना पड़ता है। इससे भी बुरी बात है कि लागू होने के कई साल बाद भी योजना रद्द की जा सकती है। इस तरह के विलंब और अनिश्चितताओं ने आईबीसी में भरोसा खत्म कर दिया है और फंसी संपत्तियों का बाजार भी कम हो गया है।

इसकी वजह यह है कि एनसीएलटी के पास सदस्यों, विशेषज्ञता, बुनियादी ढांचे, तकनीक, संस्थागत संस्कृति या बोझ संभालने की क्षमता कम है। शुरू में 63 सदस्यों के साथ गठित एनसीएलटी का काम कंपनी कानून देखना था मगर अब उसे आईबीसी के पेचीदा मामले भी देखने पड़ रहे हैं, जबकि सदस्य नहीं बढ़े हैं। विशेषज्ञता के मसले पर पिछले वर्ष नवंबर में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्ण पीठ ने कहा, ‘सदस्यों के पास अक्सर उस क्षेत्र की जानकारी ही नहीं होती, जो पेचीदा मामले सुलझाने के लिए जरूरी है समुचित जानकारी वाले विशेषज्ञों की नियुक्ति को तरजीह दी जानी चाहिए।’ एनसीएलटी में खास तौर पर कार्यपालिका वाले क्षेत्र में जल्द ही ढांचागत तथा कामकाजी कायाकल्प जरूरी है।

समाधान का काम ऑर्केस्ट्रा की तरह होता है, जहां हर किसी को एक साथ काम करना होता है। मगर राजस्व और प्रवर्तन अधिकारी अक्सर अलग सुर में गाते हैं अंशधारक मिल-जुलकर समाधान योजना तैयार कर रहे होते हैं और कर विभाग कंपनी बकाया वसूलने के लिए कंपनी की संपत्तियां नीलाम करने लगता है या कोई जांच एजेंसी उसके खाते या संपत्तियां सील कर देती है, जिससे प्रक्रिया रुक जाती है। इस प्रक्रिया के प्रमुख सूत्रधार ऋणशोधन पेशेवर को पुलिस समेत हर किसी से सहयोग चाहिए। मगर एक मामले में पेशेवर को ही गिरफ्तार कर लिया गया। कानून साफ कहता है कि एनसीएलटी की मंजूरी वाली समाधान योजना सभी अंशधारकों और सरकार को भी माननी पड़ेगी। जो दावा समाधान योजना में नहीं है, उसे खत्म मान लिया जाता है। इससे समाधान आवेदक नई शुरुआत कर सकता है। फिर भी कुछ कर अधिकारी तय मियाद में दावा नहीं पेश कर पाते। फिर वे समाधान योजना मंजूर होने के बाद भी दावा जमा करने की कोशिश करते हैं और सर्वोच्च न्यायालय पहुंच जाते हैं। मंजूर योजना में उनके दावे पूरे नहीं होने की बात कहकर वे नई मांग भी रख देते हैं।

सार्वजनिक कानूनों का मकसद है। अपराध से आई संपत्ति को अपराधियों की पहुंच से दूर रखना और अपराधियों को दंडित करना। ये संपत्ति कभी सरकार की नहीं थीं मगर उनकी जब्ती का फायदा सरकार को ही होता है। मगर हो सकता है। कि लेनदार ने ऐसी संपत्तियों के बदले ये कर्ज दिए हों, जो कंपनी की मिलकियत थीं मगर अपराध से तैयार की गई थीं। कंपनियों का पुनरुद्धार, संसाधनों का उपयोग और सुरक्षित लेनदारों की वसूली इन संपत्तियों पर निर्भर करती है। इसे स्वीकार करते हुए विधायिका ने अपराधियों पर मुकदमा चलाने की राज्य की शक्ति कम किए बिना समाधान की अनुमति देने के लिए आईबीसी में संशोधन किया। किंतु प्रवर्तन एजेंसियों और अदालतों का रुख एक जैसा नहीं लगता। जब तक न्यायपालिका और कार्यपालिका संहिता के मूल सिद्धांतों पर प्रतिबद्धता नहीं जतातीं, आईबीसी कमजोर ही रहेगी।


Date: 18-06-25

मनमानी के विरुद्ध

संपादकीय

देश में बौद्धिक विमर्श की क्या कोई गुंजाइश है या नहीं? अगर है तो फिर अभिनेता कमल हासन की फिल्म ‘ठग लाइफ’ का विरोध क्या सिर्फ इसलिए होना चाहिए कि उन्होंने कोई ऐसा बयान दिया जो लोगों को पसंद नहीं ? मंगलवार को सर्वोच्च न्यायालय ने इसे गंभीरता से लेते हुए कहा कि विरोध के बजाय इसे बौद्धिक बहस के तौर पर लिया जाना चाहिए था। सेंसर बोर्ड से प्रमाणित होने के बाद भी इस फिल्म के प्रदर्शन को जिस तरह रोका गया, उससे समझा जा सकता है कि विमर्श की कितनी जगह बची है । सहमति और असहमति के बीच संवाद भी एक रास्ता है। शीर्ष अदालत ने कहा कि अभिनेता ने कुछ असुविधाजनक कहा, तो वह अंतिम सत्य तो नहीं था। लोगों को अलग-अलग विचार रखने का अधिकार है। मगर इस वजह से फिल्म का प्रदर्शन रोका नहीं जा सकता । प्रमाणपत्र मिलने के बाद भी राज्य सरकार के मौखिक निर्देश और पुलिस की मदद से जिस तरह फिल्म के प्रदर्शन को रोका गया, उससे कई सवाल उठे हैं। सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा है कि लोगों को फिल्म देखने से रोकने के लिए उनके सिर पर बंदूक नहीं तान सकते। फिल्मों और विचारों के माध्यम से अभिनेता कमल हासन अपनी बात मुखर होकर रखते रहे हैं। इस बार वे विवादों में तब घिरे जब उन्होंने अपनी फिल्म ‘ठग लाइफ’ का आडियो जारी करने के समय कन्नड़ भाषा पर टिप्पणी की। इसका राज्य में तीखा विरोध हुआ। कर्नाटक फिल्म चैंबर आफ कामर्स ने यहां तक कह दिया कि जब तक कमल हासन माफी नहीं मांगेगे, तब तक उनकी फिल्म राज्य में प्रदर्शित नहीं होने दी जाएगी। हालांकि, पांच जून को फिल्म देशभर में प्रदर्शित हो गई, लेकिन कर्नाटक में इसे रोक दिया गया । शीर्ष न्यायालय ने राज्य सरकार से इसकी न केवल वजह पूछी, बल्कि यह भी कहा कि फिल्म | देखने से रोकने के लिए नैतिकता के कथित पहरेदारों को सड़कों पर कब्जा व हंगामा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। निस्संदेह विरोध के डर से राज्य सरकार अपने संवैधानिक दायित्व से मुकर नहीं सकती ।


Date: 18-06-25

मध्य एशिया से आंख न मूंदे भारत

श्री नाथ श्री धरन, ( कॉरपोरेट सलाहकार )

ईरान (फारस) के प्राचीन शहर पसेंपोलिस का जिन्न बोतल से बाहर आ गया है। लंबे समय तक कूटनीति, व्यापार और रणनीतिक शह-मात तले दफ्न फारसी साम्राज्य की पुरानी स्मृतियां एक बार फिर जंग की शक्ल में जिंदा हो उठी है। पिछले सप्ताह से ही इजरायल और ईरान द्वारा एक-दूसरे पर मिसाइलों की बरसात की जा रही है और इस टकराव ने शांति का नोबेल पाने की आस लगाए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के जन्मदिन (14 जून) के जलसे को फीका कर दिया है। राष्ट्रपति ट्रंप इस युद्ध में बीच-बचाव में लगे हुए हैं।

हालांकि, वाशिंगटन ने इजरायली हमलों को औपचारिक रूप से अपनी हरी झंडी नहीं दिखाई है, मगर तेहरान का स्पष्ट मानना है कि अमेरिका की मौन सहमति से ही इजरायल ने यह हिमाकत की है। घटनाएं इसी संदेह की पुष्टि करती हैं, क्योंकि ट्रंप ने तुरंत इजरायल की कार्रवाई को ‘उत्कृष्ट’ बताते हुए उसकी प्रशंसा की थी। अब पूरे क्षेत्र में प्रतिशोध की जो आग भड़क रही है, उससे न केवल पश्चिम एशिया की सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है, बल्कि यह एक ऐसी भू- राजनीतिक ज्वाला बन चुकी है, जिसकी जद में पेट्रोलियम आधारित तमाम अर्थव्यवस्थाएं, समुद्री मार्ग और कूटनीतिक प्रयास आने लगे हैं।

इजरायल का रुख बिल्कुल साफ है यद्यपि आधिकारिक रूप से वह यही कहता रहा है कि उसका इरादा ईरानी परमाणु खतरे को खत्म करना है, लेकिन वास्तव में उसकी महत्वाकांक्षा बहुत गहरी है। इजरायल का ईरान के लोगों से यह आह्वान करना कि वे अपनी प्राचीन पहचान को फिर से हासिल करने के लिए अपने दमनकर्ता इस्लामी निजाम के खिलाफ खड़े हों, यही संकेत देता है कि वह परमाणु खतरा रोकने से कहीं अधिक व्यापक इरादे वाला अभियान है। यह ईरान में सत्ता परिवर्तन का गहरा प्रयास है। लेकिन इतिहास हमें यही बताता है कि ऐसी कोशिशें शायद ही कभी कामयाब हुई हैं। आर्थिक नुकसान और आंतरिक दबाव झेलने के बावजूदईरान आज भी सुरक्षा के लिहाज से मजबूत, वैचारिक रूप से दृढ़ और क्षेत्रीय रूप से अच्छे नेटवर्क वाला मुल्क है।

निस्संदेह, 1980 के दशक में इराक के साथ आठ साल तक भीषण युद्ध लड़ने के बाद ईरान पहली बार इतनी गंभीर स्थिति से गुजर रहा है। पर यह पीछे नहीं हटेगा, बल्कि यह दोगुने उत्साह से राष्ट्रवाद का आह्वान कर सकता है, बुद्ध को और तेज कर सकता है और अपने पश्चिम विरोधी रुख को अधिक कठोर कर सकता है। इसका कूटनीतिक धैर्य पहले ही जवाब दे चुका है। अमेरिका के साथ उसकी परमाणु वार्ता बंद हो चुकी है। तेहरान समर्थित आतंकी गुट कमजोर पड़े हैं, लेकिन वे खत्म नहीं हुए हैं। वे फिर से मैदान में आ सकते हैं।

ईरान और इजरायल कभी मित्र भले न रहे हों, पर उनके बीच एक वक्ता गोपनीय सहयोग का रिश्ता था। शाह के शासनकाल में इन दोनों के बीच खुफिया तालमेल, रक्षा सामग्रियों का लेन-देन और व्यापार बहुत गहरा था। इस्लामिक राष्ट्र होने के बावजूद अरब देशों के मुंह मोड़ लेने के बाद ईरान इजरायल से जुड़ गया था। लेकिन दोनों के बीच का यह अल्पकालिक गठजोड़ 1979 की ईरान में इस्लामिक क्रांति के साथ ही समाप्त हो गया। इसके बाद दशकों से कायम आपसी संदेह, छद्म संघर्ष अब आमने-सामने की जंग में बदल गया है। यह युद्ध दो ऐसे पहलवानों के बीच है, जो एक-दूसरे की ताकत और कमजोरियों को बखूबी जानते हैं।

इस बीच, कनाडा में चल रहे जी7 शिखर सम्मेलन में यूक्रेन और व्यापार बुद्धों पर ध्यान केंद्रित किया जाना था, मगर अब पश्चिम एशिया का बुद्ध उसके एजेंडे पर हावी हो गया है। अमेरिका के साथी देश, जो पहले ही युद्ध की थकान और मुद्रास्फीति के दवाव से परेशान हैं, एक और अस्थिरता फैलाने वाला बड़ा संकट झेलने को तैयार नहीं हैं। आखिर इनमें से हरेक नेता को अपना घरेलू चुनाव भी जीतना है। ईरान-इजरायल बुद्ध का तेल बाजार में त्वरित प्रतिक्रिया हुई। कच्चे तेल की कीमत में करीब 10 प्रतिशत की तेजी आई और वह 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया था। इसके अलावा (होमुंज) जलडमरूमध्य की नाकाबंदी का खतरा उत्पन्न हो गया है। यह बुद्ध दुनिया में तेल आपूर्ति की राह में बाधा डाल सकता है। दुनिया के कुल तेल आपूर्ति का पांचवां हिस्सा इसी रास्ते से आता-जाता है। यदि यह मार्ग बाधित हुआ, तो वैश्विक स्तर पर मुद्रास्फीति को बढ़ाने के लिए पर्याप्त होगा।

ऐसे में, भारत को अब अस्थिर पड़ोस के साथ जीने के लिए खुद को तैयार रखना होगा। उसे पूरी स्पष्टता के साथ इस समय को पढ़ना चाहिए। इजरायल और ईरान, दोनों के साथ हमारे रणनीतिक संबंध हैं। ईरान से साझेदारी की हमारी जड़ें तेल आपूर्ति, बुनियादी ढांचे और भौगोलिकता में हैं। मध्य एशिया से जुड़ने का भारत का महत्त्वपूर्ण प्रवेश द्वार चाबहार बंदरगाह युद्धक्षेत्र के करीब ही है। ईरान संकट में आया, तो हमारी पश्चिमी आकांक्षाओं की राह में रुकावट आ सकती है। इजरायल से रक्षा, प्रौद्योगिकी व नवाचार के क्षेत्र में हमारा गहरा रिश्ता है। यह सैन्य व साइबर रक्षा प्रणालियों के सबसे भरोसेमंद सहयोगियों में से एक है।

इजरायल-ईरान टकराव कोई ऐसा संघर्ष नहीं है, जिससे भारत लंबे समय तक अपनी आंखें मूंद सके। भारत ने हाल ही में शंघाई सहयोग संगठन द्वारा इजरायली हमले की निंदा वाले बयान से खुद को अलग रखने का फैसला किया। निस्संदेह, यह उसके स्वतंत्र रुख और किसी गुटबाजी से इनकार का एक सुचिंतित संकेत है। मगर गुटनिरपेक्षता का मतलब चुप्पी नहीं होता। भारत को कूटनीतिक दांव-पेच से आगे का सोचना होगा और उसके लिए तैयार भी रहना पड़ेगा। भारत का अधिकांश तेल जलडमरूमध्य से होकर गुजरता है। इस मार्ग को खतरे में डालने वाली किसी भी गतिविधि से तेल की कीमतों, आपूर्ति सुरक्षा और घरेल मुद्रास्फीति पर दबाव बढ़ जाएगा। तेल ढुलाई की लागत बढ़ेगी, रुपये पर दबाव बढ़ेगा और हमारा मुद्रा भंडार कम होता जाएगा।

भारत को पहले से ही तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। तेल भंडारण के अलावा खाड़ी के तेल आपूर्तिकर्ता साझेदार देशों से गंभीर द्विपक्षीय आश्वासन पर बात होनी चाहिए। नई दिल्ली के पास अपूर्व कूटनीतिक पूंजी है। वह तेल अवीव और तेहरान, वाशिंगटन और रियाद, मास्को और ब्रुसेल्स से बेहिचक बात कर सकती है। अपनी इस कूटनीतिक क्षमता का उपयोग हमें वैश्विक कूटनीति, रणनीतिक जुड़ाव और दुनिया को दृढ़ संदेश देने के लिए करना चाहिए।


Date: 18-06-25

हमारी खगोलीय तरक्की के शानदार ग्यारह साल

डॉ जितेंद्र सिंह, ( केंद्रीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री )

केरल के थुंबा में मछली पकड़ने वाले एक शांत गांव के चर्चयार्ड से साउंडिंग रॉकेट के प्रक्षेपण के साथ शुरू हुई भारत की अंतरिक्ष यात्रा के बारे में शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि एक दिन देश इन ऊंचाइयों को छू लेगा। वह समय दृढ़ संकल्प का था, जब सितारों तक पहुंचने का सपना सीमित साधनों पर असीम महत्वाकांक्षा के साथ परवान चढ़ा ।

वह सपना विकसित होकर अब एक राष्ट्रीय मिशन का रूप अख्तियार कर चुका है और आज जब हम नरेंद्र मोदी सरकार के 11 वर्ष के सफर पर गौर कर रहे हैं, तब भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में आमूल-चूल बदलाव आ चुका है। यह परिवर्तन केवल रॉकेट और उपग्रहों से संबंधित नहीं है, बल्कि यह लोगों के जीवन के बारे में है । यह दर्शाता है कि दूरदराज के गांव के किसान से लेकर डिजिटल कक्षा के छात्र तक, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी किस प्रकार रोजमर्रा की जिंदगी में खामोशी से शामिल हो चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी के रणनीतिक नेतृत्व में भारत ने अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम की नए सिरे से परिकल्पना की है। साल 2014 से शुरू किए गए सुधारों ने नई संभावनाओं के द्वार खोले हैं। 2020 में इन स्पेस की स्थापना ने निजी कंपनियों को अंतरिक्ष गतिविधियों में भाग लेने का अवसर प्रदान किया, जिससे नवाचार की लहर उठी। आज 300 से भी अधिक अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी स्टार्ट अप उपग्रह बना रहे हैं, प्रक्षेपण वाहन डिजाइन कर रहे हैं तथा कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और नेविगेशन के क्षेत्र में सेवाएं देने वाले अनुप्रयोग विकसित कर रहे हैं। ये स्टार्टअप प्रौद्योगिकी ही नहीं सृजित कर रहे, खासकर टियर-2 व टियर-3 शहरों में युवा इंजीनियरों और उद्यमियों के लिए रोजगार के अवसरों का भी सृजन कर रहे हैं। उदारीकृत अंतरिक्ष नीति ने अंतरिक्ष सेवाओं को अधिक किफायती व सुलभ बना दिया है, जिससे उन्नत प्रौद्योगिकी का लाभ जमीनी स्तर पर पहुंच रहा है।

भारतीय उपग्रह मौसम पूर्वानुमान में अहम भूमिका निभाते हैं, जिनकी बदौलत किसानों को अपनी बुवाई व कटाई- चक्र की योजना सटीकता से बनाने में मदद मिल रही है। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में उपग्रह डाटा प्रारंभिक चेतावनी और आपदा प्रतिक्रिया को सक्षम बनाता है, जिससे जीवन व आजीविका की रक्षा होती है। इसी तरह, सैटेलाइट बैंडविड्थ समर्थित ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म दूरदराज के गांवों में बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर रहे हैं।

बीते दशक में शुरू किए गए मिशनों ने दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है। मंगलवान हमारी इंजीनियरिंग की उत्कृष्टता पर मुहर लगाते हुए अपने पहले ही प्रवास में मंगल पर पहुंच गया। चंद्रयान- 3 चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के निकट उतरा और इसके रोवर ने ऐसे प्रयोग किए, जो भविष्य के चंद्र मिशनों को महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान करेंगे। आदित्य-एल1 अब सौर तूफानों का अध्ययनकर रहा है, जिससे वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष के मौसम तथा संचार प्रणालियों व बिजली ग्रिड पर इसके प्रभाव को समझने में मदद मिल रही है। भविष्य पर गौर करते हुए भारत 2035 तक अपना अंतरिक्ष स्टेशन बनाने की योजना बना रहा है। इसका पहला मॉड्यूल 2028 में लॉन्च होने की उम्मीद है और अंतरिक्ष डॉकिंग प्रयोग की हाल की सफलता ने इस बड़े लक्ष्य के लिए आवश्यक तकनीक की पुष्टि की है। इस लिहाज से भारत अगली पीढ़ी के प्रक्षेपण यान (एनजीएलवी) का विकास कर रहा है, जो पृथ्वी की निचली कक्षा में 30,000 किलोग्राम वजन ले जाने में सक्षम है।

अगले दशक पर गौर करें, तो हमारे लक्ष्य स्पष्ट हैं साल 2040 तक चालक दल के साथ चंद्रमा पर उतरना, पूरी तरह से चालू अंतरिक्ष स्टेशन, और वैश्विक अंतरिक्ष नवाचार में नेतृत्व की भूमिका। ये केवल सपने नहीं है, ये एक ऐसे राष्ट्र की रणनीतिक अनिवार्यताएं हैं, जिसने हमेशा समाज को बदलने के लिए विज्ञान की शक्ति में विश्वास किया है। थुंबा के साइकिल शेड से लेकर कक्षा में डॉकिंग मैन्युवर तक भारत की अंतरिक्ष यात्रा दृढ़ता, कल्पनाशीलता और अथक प्रयास की दास्तान है। और अब, जब हम परिवर्तनकारी शासन के ग्यारह वर्षों का जश्न मना रहे हैं, तब हम एक ऐसे राष्ट्र का भी कीर्तिगान कर रहे हैं, जो वास्तव में सितारों तक जा पहुंचा है और उनकी रोशनी को वापस घर ले आया है।