18-05-2021 (Important News Clippings)
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Date:18-05-21
Spectre of 2012
Retrospective tax amendment needs to be buried for India’s long-term benefit
TOI Editorials
Pranab Mukherjee’s decision as finance minister in 2012 to retrospectively amend a section of the Income-tax Act was perhaps the most economically damaging decision of UPA-2. Its reverberations continue as NDA clings on to the underlying approach. The most recent fallout of the 2012 amendment showed up last week when UK’s Cairn Energy filed a lawsuit in New York, seeking to enforce an international arbitral tribunal’s award against India. Target is Air India, described in the suit as the “alter ego” of the country. Aim is to seize the airline’s assets.
The retrospective amendment was introduced in the 2012 Budget to nullify a Supreme Court verdict that went in favour of Vodafone International in its income tax dispute with the government. This tax amendment set off a chain reaction. It potentially opened up cases that were done and dusted. One case that was exhumed was a transaction that Cairn Energy had undertaken in 2006. In Cairn’s case, the income tax department even sold its financial assets to realise the tax demand. Both Vodafone and Cairn filed arbitrations abroad claiming the government’s actions violated its bilateral investment treaties with the Netherlands and UK respectively. India lost both cases.
At a legal level, it may be seen as a dispute between India’s sovereign right over tax law and its sovereign commitment to honour international treaties. In both arbitral awards, the commitment to treaties was given precedence. The government disagrees and has challenged the Vodafone award. But this approach is counterproductive. It will have an adverse impact on potential foreign direct investment as it vitiates the investment atmosphere. It also affects Air India’s disinvestment exercise. For India’s long-term economic benefit, the 2012 retrospective amendment needs to be buried. Reputations matter in investment decisions.
Date:18-05-21
चीन की वैज्ञानिक शक्ति
संपादकीय
बीते 10 दिन में चीन ने दो बार अपनी तकनीकी क्षमताओं का प्रभावशाली प्रदर्शन किया है। उसने एक नए अंतरिक्ष केंद्र को कक्षा में स्थापित किया और एक रोवर को मंगल ग्रह पर उतारा है। अंतरिक्ष केंद्र के मॉड्यूल को लेकर गए लॉन्ग मार्च 5 रॉकेट को अनियंत्रित ढंग से गिरने देकर उसने अंतरराष्ट्रीय मानकों के प्रति अपनी अवमानना भी जाहिर की। शानदार वैज्ञानिक उपलब्धियां और अंतरराष्ट्रीय मत की अवमानना करना चीन की विशेषता रही है। वह दुनिया के साथ ऐसा ही बरताव करता है। माओत्से तुंग के चीन का नेतृत्व करने के समय से अब तक काफी बदलाव आ चुका है। परंतु चीन ने लगातार वैज्ञानिक क्षमताएं हासिल करने का सिलसिला जारी रखा। सन 1960 के दशक में उसने परमाणु हथियार बनाए और अब वह जेनेटिक इंजीनियरिंग से लेकर, उच्चस्तरीय भौतिकी, क्वांटम कंप्यूटिंग और संचार, कृत्रिम मेधा तथा तंत्रिका विज्ञान जैसे विविध क्षेत्रों में अग्रणी बना हुआ है। इन क्षेत्रों में अहम उपलब्धियों के गहरे निहितार्थ हैं। चीन में होने वाला नवाचार भविष्य को आकार देने वाला साबित हो सकता है। यकीनन जेनेटिक शोध और कृत्रिम मेधा के क्षेत्र मेंं होने वाली नई खोज मानव होने के बारे में हमारी नैतिक समझ को तब्दील कर सकती हैं।
चीन को गैरकानूनी ढंग से बौद्धिक संपदा हथियाने में भी कभी कोई समस्या नहीं हुई या फिर उसने अपनी रेयर अर्थ पॉलिसी (मूल्यवान धातुओं से संबंधित) के माध्यम से जबरन तकनीक हस्तांतरण जैसे कदम भी उठाए। परंतु सांस्कृतिक क्रांति की शिक्षा विरोधी भयावहता से निजात पाने के बाद चीन ने उत्कृष्ट वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थान भी स्थापित किए। तंग श्याओफिंग के कार्यकाल में विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणितीय (एसटीईएम) क्षमताओं पर जमकर काम हुआ। तंग श्याओफिंग ने बाजार साम्यवाद की स्थापना की जहां पार्टी प्रभारी रहेगी, वह संसाधनों पर नियंत्रण करेगी लेकिन संपत्ति निर्माण को बढ़ावा दिया जाएगा। ऐसे में उपरोक्त चारोंं विषयों के ज्ञान का वाणिज्यीकरण हो सकता था। यह तरीका सोवियत मॉडल से बेहतर था जहां वाणिज्यिक अवसरों की अनदेखी की जाती।
सन 1990 के मध्य तक चीन विनिर्माण का गढ़ बन गया था। उसने श्रम की उपलब्धता की बदौलत वस्तु निर्यात का एक बड़ा बाजार तैयार किया। उसने संबंधित बौद्धिक संपदा भी हासिल की। जहां तकनीक स्थानांतरित नहीं हो सकी वहां हैकरों ने संवेदनशील सामग्री जुटाई। चीन में जमकर शोध भी होता रहा। चीन ने ऐसे युद्धपोत और लड़ाकू विमान बनाए हैं जो दुश्मन से छिप सकते हैं। वह कक्षा में मौजूद उपग्रह को नष्ट कर सकता है। वह लाखों स्मार्ट फोन बनाता है, बंदरगाह बनाता है, दूरसंचार नेटवर्क तैयार करता है, सड़क और पावर सिस्टम तैयार करता है।
वहां शोध और विकास एक बहुकोणीय व्यवस्था से उत्पन्न होता है। चीन की वैज्ञानिक अकादमी 120 से अधिक ऐसे संस्थानों की निगरानी करती है जहां वैज्ञानिक शोध होते हैं। वहां विभिन्न मंत्रालयों के अधीन भी शोध संस्थान हैं। ऐसे विश्वविद्यालय भी हैं जहां औद्योगिक संस्थानों के साथ सहयोग को बढ़ावा दिया जाता है और वे अपने शोध भी करते हैं। अनुमानों के मुताबिक कंपनी आधारित शोध विकास का 80 फीसदी हिस्सा एसटीईएम में निवेश किया जाता है। रक्षा शोध एवं विकास प्रतिष्ठान अन्य क्षेत्रों से मदद लेता है और चीन की सेना भी बाहरी शोध को वित्तीय मदद देती है।
इस पूरी प्रक्रिया में मुनाफा भी होता है और यह चीन के नीति निर्माताओं की वैचारिक अनिवार्यताओं के भी अनुकूल है। चीन केवल ऐसी महाशक्ति नहीं है जो एसटीईएम विषयों में अपनी ताकत दिखाए। वह अपने नागरिकों की निगरानी करने के मामले में भी बेहद कड़ाई बरतता है। यह बात अन्य वैज्ञानिक प्रगति वाले देशों के उलट है जो बौद्धिक संपदा और मानवाधिकार के मसलों पर बस जबानी जमाखर्च करते हैं। क्या एक अधिनायकवादी शासन में जो एक खास तरह के विचारों पर प्रतिबंध लगाता हो, वहां एसटीईएम संबंधी शोध फलफूल सकता है? चीन का भविष्य और भविष्य की दुनिया इस सवाल के जवाब पर निर्भर करेंगे।
Date:18-05-21
दायित्व के निर्वहन से पीछे नहीं हटे सरकार
श्याम सरन
भारत इस समय भीषण त्रासदी से गुजर रहा है। कोविड-19 महामारी से देश शवों के ढेर पर खड़ा है और अनगिनत परिवारों की दुनिया उजड़ गई है। इस महामारी ने यह बात भी उजागर कर दी है कि हमारा देश किस तरह अपने नागरिकों को न्यूनतम बुनियादी सुविधाएं देने में विफल रहा है और लोग स्वास्थ्य एवं जीने के अधिकार से वंचित रखे गए हैं। एक लोकतंत्र के तौर पर भारत अपने नागरिकों के लिए स्वाभिमान की जिंदगी सुनिश्चित करने में विफल साबित हुआ है और हालत इतनी खराब है कि मरने के बाद भी लोगों के शवों को उचित सम्मान नहीं मिल पा रहा है। इस गहरे संकट के दौर में देश के नागरिक भगवान भरोसे छोड़ दिए गए हैं। बस आपसी भाईचारे, नागरिक समाज की सहानुभूति, सामुदायिक स्तर पर हो रहे प्रयासों और कुछ लोगों के नेक कर्मों की बदौलत वे कोविड-19 महामारी से जूझ रहे हैं। देश के संघीय ढांचे में पहले ही दरार पड़ गई थी और इस महामारी में दरार और चौड़ी हो गई है। आखिरकार, आपदा प्रबंधन में राज्यों से समन्वय करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की बनती है। जैसे ही केंद्र को लगा कि वह कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर से निपटने में विफल हो गया है उसने तपाक से राज्यों पर दोषारोपण करना शुरू कर दिया।
आरोप-प्रत्यारोप की हवा जोर-जोर से बह रही है। केंद्र सरकार के एक वरिष्ठï मंत्री ने मौजूदा संकट से पल्ला झाड़ लिया और दावा कर डाला कि राज्य सरकारों को दूसरी लहर के प्रति पहले ही आगाह कर दिया गया था और उन्हें इसकी रोकथाम के आवश्यक उपाय करने के लिए कह दिया गया था। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस कथन का जिक्र करना किसी ने जरूरी नहीं समझा जो उन्होंने 28 जनवरी को विश्व आर्थिक मंच के सम्मेलन में कहा था। प्रधानमंत्री के उस कथन का निहितार्थ यह था कि भारत कोविड-19 महामारी को मात देने में सफल रहा है और इससे निपटने में अब दुनिया का नेतृत्व करने के लिए तैयार है। भारत का वह दावा भी खोखला साबित हुआ है जिसमें उसने कहा था कि वह दुनिया में गरीब से लेकर अमीर देशों को टीके मुहैया करा रहा है। नौबत यह आ गई है कि ‘दुनिया का दवाखाना’ होने का दावा करने वाला भारत स्वयं दूसरे देशों से दवाएं और टीके मांग रहा है। देश के नागरिक लॉकडाउन के कारण अपने घरों में बंद हैं लेकिन सरकार सेंट्रल विस्टा परियोजना को आवश्यक सेवा बताकर नैतिकता से संबंध तोड़ रही है। कोविड-19 महामारी से जान गंवा चुके लोगों की जलती चिताओं के बीच नए संसद भवन और प्रधानमंत्री के लिए भव्य आवास बनाने की परियोजना जारी रहने को एक विडंबना ही कहा जा सकता है। लोकतंत्र में जवाबदेही एक बुनियादी चीज है लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार का दूर तक इससे कोई लेना देना नहीं है। मैं इस बात की चर्चा पहले भी कर चुका हूं कि मौजूदा नेतृत्व किस तरह लोगों का ध्यान भटकाने में सफल रहा है। यह कार्य सांप्रदायिक धु्रवीकरण और राज्य सरकारों पर दोषारोपण करने से लेकर किसी बाहरी ताकत की साजिश बताने तक जैसे कई रूपों में हो रहा है। हालांकि देश जिस त्रासदी और संकट से जूझ रहा है उसमें लोगों का ध्यान भटकाना असंभव है। चारों तरफ के हालात चीख-चीख कर सच्चाई बता रहे हैं। क्या सब कुछ नियंत्रण में होने का दावा कर और विदेशी, खासकर पश्चिमी मीडिया में हो रही आलोचनाओं का त्वरित जवाब देकर एक देश के तौर पर हम अपनी विफलता छुपा सकते हैं? या फिर देश में सरकार के आलोचक दुनिया को नुक्ताचीनी करने का मौका दे रहे हैं, इसलिए उन्हें क्या नहीं रोका जाना चाहिए? इन बातों में उलझकर भारत अपने हित नहीं साध सकता है। हम अपनी कमजोरी स्वीकार कर ही दूर कर सकते हैं। वर्तमान परिस्थितियों में शासन व्यवस्था में कमियां पूरी तरह उजागर हो गई हैं और यह अब किसी से छुप नही सकतीं। हमें इस बात से विचलित नहीं होना चाहिए कि विदेशी समाचार माध्यमों में भारत की कैसी तस्वीर पेश हो रही है, बल्कि हमारा सारा ध्यान अपनी हताश जनता को राहत और सुविधाएं देने पर होना चाहिए। देश और सरकार की छवि सुधारने का काम तो बाद में भी चलता रहेगा।
किन खास बिंदुओं पर ध्यान देने की जरूरत?
सबसे पहले सरकार एवं प्रशासन को अपनी अति महत्त्वपूर्ण और स्वाभाविक जिम्मेदारियों के निर्वहन को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए। इनमें नागरिकों को सुरक्षा मुहैया कराना और उन्हें स्वास्थ्य एवं शिक्षा के अधिकार देना शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकारें इन दायित्वों का निर्वाह करने में असफल रही हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में निजी सुरक्षा, निजी शिक्षा और निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र सर्वाधिक तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और मुनाफा बटोर रहे हैं। सरकार अपनी जिम्मेदारियों के तहत ये सेवाएं सुचारु रूप से लोगों को देने में विफल रही है। मौजूदा हालात में इन क्षेत्रों को निजी क्षेत्र को थमाने के बजाय इन सेवाओं की आपूर्ति के ढांचे में सुधार की जरूरत आन पड़ी है। ये सेवाएं सार्वजनिक हित से जुड़ी हुई हैं और इसे सुनिश्चित करना सरकार का परम कत्र्तव्य है। जब सार्वजनिक हितों को प्राथमिकता दी जाती है तो परिणाम सकारात्मक होते हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं, जिन्होंने सार्वजनिक हितों को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई है।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया साक्ष्यों पर आधारित होनी चाहिए और इनके स्वतंत्र एवं आलोचनात्मक आकलन की भी गुंजाइश रखी जानी चाहिए। मुख्य नीतिगत निर्णय व्यापक एवं विश्वसनीय आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए। तकनीक की मदद से आवश्यक आंकड़े जुटाना अब पूरी तरह संभव है। संभाव्यता तय करने के लिए सबसे पहले प्रायोगिक परियोजनाएं सतर्कतापूर्वक तैयार की जानी चाहिए। जन जागरूकता पैदा करना परियोजना नियोजन का अवश्य हिस्सा होना चाहिए। भविष्य के लिए सबक लेने के लिए परियोजना के क्रियान्वयन के बाद स्वतंत्र आकलन की व्यवस्था होनी चाहिए।
तीसरी अहम बात यह है कि भारत को एक ऐसी अर्थव्यवस्था नहीं तैयार करनी चाहिए जिसमें बाजार और आर्थिक तंत्र का बेजा फायदा उठाने की खुली छूट होती है। उद्यमशीलता और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए आवश्यक ढांचा तैयार करने की बेहद जरूरत है। नियंत्रण एवं नियमन स्थापित करने से पहले सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इनके सफल एवं प्रभावी क्रियान्वयन के लिए इसके पास पर्याप्त तंत्र मौजूद हैं। ऐसी नीतियां लागू करने में विफल रहने से ही अर्थव्यवस्था में अवैध तरीके से आय अर्जित करने की बीमारी फैलती है। अगर रकम लोगों को अवैध तरीके से आसानी से मिल जाए तो कोई पूंजी लगाने और फिर आय अर्जित करने का जोखिम क्यों लेगा? भारत में यह व्यवस्था बीमारी की तरफ फैली है और इसी का नतीजा है कि इस महामारी के बीच हमें ऑक्सीजन, अस्पतालों में बिस्तर और अति आवश्यक दवाओं की कमी से जूझना पड़ रहा है।
अंत में, ज्ञान, विशेषज्ञता और वृत्ति दक्षता का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हमने विशेषज्ञों की चेतावनी की अनदेखी कर एक भीषण गलती की है। हमने एक ऐसा माहौल तैयार कर दिया है जिसमें पेशेवरों की भूमिका किसी एक राजनीतिक विचारधारा पर मुहर लगाने तक सीमित रह गई है। पंडित नेहरू ने जिस वैज्ञानिक धारणा की बात की थी उसे बढ़ावा देने के बजाय हमने इनकी राह में रुकावट पैदा कर दी है। नेहरू ने जिस सोच और बौद्धिक पूंजी तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी हमारा देश अब भी उनसे लाभान्वित हो रहा है। हालांकि अगर हमनें इनमें नयापन नहीं लाया और समय के साथ इनमें मूल्य वद्र्धन नहीं किया तो वांछित लाभ नहीं मिल पाएंगे।
Date:18-05-21
दांव पर यरूशलम
ब्रह्मदीप अलूने
मशहूर जर्मन सैन्य विशेषज्ञ क्लाजविट्ज ने कहा था कि राज्य अपनी नीतियों को लागू करने के लिए युद्ध का सहारा लेते हैं। मध्यपूर्व में इजराइल और फिलस्तीन की नीतियां बेहद साफ हैं। इजराइल का अस्तित्व यहूदियों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है, वहीं फिलस्तीनियों और अरब के नजरिए से इजराइल का खत्म होना जरूरी है। दुनिया के बेहद अशांत माने जाने वाले मध्यपूर्व के इजराइल और फिलस्तीन के कई इलाके इस समय दोनों ओर से भयानक हमलों का सामना कर रहे हैं। इससे मध्यपूर्व में हिंसा और तेज होने की आशंका गहरा गई है। इस विवाद को दो प्रमुख सभ्यताओं के संघर्ष के रूप में भी प्रचारित किया जाता रहा है और इसीलिए पूरी दुनिया में इसका असर होता है।
पूर्वी भूमध्य सागर के आखिरी छोर पर स्थित इजराइल उत्तर में लेबनान, उत्तर-पूर्व में सीरिया, पूर्व में जॉर्डन और पश्चिम में मिस्र से घिरा है। वर्ष 1967 में जब जॉर्डन, सीरिया और इराक सहित आधा दर्जन मुसलिम देशों ने एक साथ इजराइल पर हमला किया था तो उसने पलटवार करते ही मात्र छह दिनों में इन सभी देशों को धूल चटा दी थी। उस घाव से अरब देश अब भी नहीं उबर पाएं हैं। यह युद्ध पांच जून से ग्यारह जून 1967 तक चला था। इसने मध्यपूर्व संघर्ष का स्वरूप बदल डाला। इतिहास में इस घटना को ‘सिक्स वार डे’ के नाम से जाना जाता है। इजराइल ने मिस्र को गाजा से, सीरिया को गोलन पहाड़ियों से और जॉर्डन को पश्चिमी तट व पूर्वी यरूशलम से खदेड़ दिया था। इस युद्ध में करीब पांच लाख फिलस्तीनी बेघर हो गए थे। जीते गए इलाके अब इजराइल के कब्जे में हैं। खाड़ी देशों के लगातार दबावों के बावजूद इजराइल इन इलाकों को छोड़ने को तैयार नहीं है। वह पूर्वी यरूशलम के इलाके सहित पूरे यरूशलम शहर को अपनी राजधानी मानता है। जबकि फिलस्तीनी पूर्वी यरूशलम को भविष्य के एक आजाद मुल्क की राजधानी के तौर पर देखते हैं। इन इलाकों में यहूदी बस्तियां बसा कर इजराइल अपनी स्थिति को मजबूत करता जा रहा है, जबकि फिलस्तीनी अपने घरों को किसी भी हालात में छोड़ने को तैयार नहीं है।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यथास्थितिवाद का सिद्धांत शक्ति संतुलन के साथ शांति की स्थापना को भी सुनिश्चित करता है। लेकिन यथास्थितिवाद को लेकर अनिश्चितता बनी रहती है और यह किसी भी समय शक्ति संघर्ष का कारण बन जाती है। इजराइल और फिलस्तीन को लेकर दुनिया के कई देश यथास्थितिवाद को पसंद करते हैं, जबकि मध्यपूर्व की भू-राजनीतिक स्थिति इसकी इजाजत नहीं देती। यरूशलम न केवल राजनीतिक और सामरिक दृष्टि से बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी बेहद महत्त्वपूर्ण है। यहां मुसलमानों की पवित्र अल-अक्सा मस्जिद है, जिसे यहूदी टेंपल माउंट कहते हैं। वर्ष 2016 में यूनेस्को ने कहा था कि यरूशलम में मौजूद ऐतिहासिक अल-अक्सा मस्जिद पर यहूदियों का कोई दावा नहीं है। यूनेस्को की इस बात को मानने से इजराइल ने इनकार कर दिया था। अल-अक्सा मस्जिद में बड़ी संख्या में मुसलमान आना चाहते हैं, लेकिन इजराइल बलपूर्वक इन्हें रोकता रहा है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। ईद पर बड़ी संख्या में मुस्लिम अल-अक्सा मस्जिद में नमाज पढ़ना चाहते थे। लेकिन इजराइल ने उन्हें रोक दिया और वहां से खदेड़ दिया।
मध्यपूर्व में इजराइल की बढ़ती सामरिक ताकत अरब राष्ट्रवाद को चुनौती देती रही है। इस्लामिक नेतृत्व को लेकर अरब राष्ट्रों की आपसी प्रतिद्वंद्विता ने भी इजराइल को ताकत दी है। इजराइल को रणनीतिक रूप से घेरने वाले देश आंतरिक अशांति और राजसत्ता की अपनी मजबूरियों से जूझ रहे हैं। इजराइल के उत्तर में लेबनान और पूर्व में सीरिया है। ये दोनों देश गृहयुद्ध से प्रभावित हैं। जबकि उसके दूसरे पड़ोसी जॉर्डन और मिस्र 1967 के इजराइल-अरब युद्ध के बाद यहूदी राष्ट्र के साथ राजनयिक संबंध स्थापित कर खामोश हैं। इन सबके बीच इजराइल को मध्य पूर्व से खत्म कर अरब राष्ट्रवाद की अगुवाई के स्वप्न ने ही इस्लामिक दुनिया को दो भागों में बांट दिया है। इजराइल-फिलस्तीन विवाद की परछाई में शिया बाहुल्य ईरान ने लेबनान के आतंकवादी संगठन हिजबुल्ला को भारी मात्रा में हथियार और गोला बारूद देकर इजराइल पर हमला करने के लिए लगातार प्रोत्साहित किया, वहीं सुन्नी बाहुल्य सऊदी अरब ने हमास को हथियार देकर इजराइल को निशाना बनाने की कोशिश की। लेकिन इस्लामिक दुनिया में बादशाहत कायम रखने के लिए ईरान और सऊदी अरब इजराइल को निशाना बनाते-बनाते आपसी हितों के लिए कालांतर में एक दूसरे के ही प्रतिद्वंद्वी बन गए।
इस्लामिक देशों के संगठन (ओआइसी) के कई सदस्य देशों के साथ इजराइल के बेहतर संबंध हैं। शिया-सुन्नी विवाद का साया भी ओआइसी पर पड़ता रहा है। तुर्की और सऊदी अरब के बीच इस समय इस्लामिक दुनिया का नेतृत्व करने की होड़ मची है। तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोआन इजराइल की आलोचना तो कर रहे हैं, लेकिन वे इजराइल की राजनीतिक, सामरिक और आर्थिक शक्ति को भलीभांति जानते हैं। एर्दोआन की नीतियां अमेरिका के निशाने पर हैं और उन्हें अपनी स्थिति मजबूत रखने के लिए अमेरिका से बेहतर रिश्तों की जरूरत है। इसमें उनका बड़ा मददगार इजराइल हो सकता है। दरअसल तुर्की के लिए कुर्द बड़ी समस्या हैं। कुर्द मध्यपूर्व का चौथे सबसे बड़ा जातीय समूह है। इनकी संख्या करीब साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा है। वर्तमान में मध्यपूर्व का यह बेहद प्रभावशाली समुदाय है जो नस्ल, भाषा और संस्कृति के आधार पर विभिन्न देशों में एक दूसरे का सहयोग कर रहे हैं। कुर्दों का अभी कोई एक देश नहीं है। ये तुर्की में अपनी स्वायत्तता के लिए लड़ रहे हैं, तो सीरिया और इराक में अपनी अहम भूमिका के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ये इस्लामिक स्टेट (आइएस) का भी प्रतिरोध करते रहे हैं। दक्षिणी-पूर्वी तुर्की, उत्तरी-पूर्वी सीरिया, उत्तरी इराक, उत्तर-पूर्वी ईरान और दक्षिण-पश्चिमी आर्मेनिया तक कुर्द फैले हुए हैं। इनको लेकर अमेरिका का रुख भी की उदार ही रहा है। जाहिर है, एर्दोआन ऐसी किसी भी हिमाकत से बचेंगे जिससे अमेरिका और इजराइल नाराज हो जाएं और कुर्द समस्या तुर्की की एकता और अखंडता के लिए बड़ी चुनौती पेश करने लगे।
यूरोप के कई देश भी मध्यपूर्व में अशांति बने रहना हितकर समझते हैं। उन्हें लगता है कि यदि इस इलाके में शांति स्थापित हो जाएगी तो अरब राष्ट्रवाद मजबूत होकर यूरोप को चुनौती दे सकता है। और यदि यूरोप को मध्यपूर्व से तेल मिलना बंद हो गया तो उसके अधिकांश उद्योग धंधे बंद हो जाएंगे और इस प्रकार दुनिया के सबसे बड़े विकसित यूरोप महाद्वीप की औद्योगिक और सामरिक क्षमता बर्बाद हो जाएगी। यही कारण है कि पश्चिमी देश मध्यपूर्व पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं और वे मध्य-पूर्व में एक ठिकाने के रूप में इजराइल को सबसे सुरक्षित देश मानते हैं।
मध्यपूर्व में बड़ी प्रतिद्वंदिता ईरान और सऊदी अरब की रही है। ईरान को रोकने के लिए सऊदी अरब इजराइल को बेहतर विकल्प मानता है और इन दोनों देशों के बीच गोपनीय भागीदारी भी सामने आई है। सऊदी अरब अपने पारंपरिक और सामरिक मित्र अमेरिका की मध्यपूर्व की नीतियों का एकतरफा विरोध नहीं कर सकता। अत: सऊदी अरब का इजराइल विरोध शब्दों से आगे जाए, इसकी कोई संभावना नहीं है। इसके साथ ही सऊदी अरब कोई ऐसा कदम उठाने से भी बचना चाहेगा जिससे उसके कड़े प्रतिद्वंद्वी ईरान को किसी भी प्रकार से मजबूती मिल सके।
बहरहाल, इजराइल और फिलस्तीन के विवाद में जटिल संतुलन का सिद्धांत हावी है, जिसमें राष्ट्र या राष्ट्र समूह एक दूसरे को संतुलित करते हैं और फिर संतुलनों के भीतर संतुलन होता है। आने वाले दिनों में इस क्षेत्र में वैश्विक प्रयासों की बदौलत आधे-अधूरे समझौतों पर आधारित शांति एक बार स्थापित हो जाएगी। इस विवाद से विश्व के कई ताकतवर देशों के व्यापक आर्थिक और सामरिक हित जुड़े हैं। इसलिए फिलस्तीन के नए राष्ट्र का सपना पूरा होने की संभावना दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आती है।