18-03-2019 (Important News Clippings)
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Date:18-03-19
New Zealand Terror
Unite against hate, terror and gun violence. Be wary of attempts to mainstream extremism
TOI Editorials
The terror attack targeting mosques in pacific New Zealand indicates the spread of hate crimes to seemingly every corner of the world, an epidemic that nations cannot ignore. In this instance, the terror was perpetrated by a white supremacist on Muslims praying at their mosques; and among the 49 killed in the attacks were many Indian or Indian-origin people, while Bangladesh’s cricket team narrowly escaped.
Racism, Islamophobia and anti-immigrant sentiment appear to be the proximate reasons for the attacks, while New Zealand police appear to have not tracked the gunman’s social media rants or the ease of procuring semi-automatic weapons in their country. The government has promised to ban these killing machines which civilians have no business to own. New Zealand Prime Minister Jacinda Ardern has admitted the fault in her country’s lax gun control laws.
An equally vile and gruesome aspect of the gunman’s conduct was the tactic of live streaming his act of terror. Such actions are intended to send a twin message: to terrorise people and to inspire those attracted to violent ideals. The tactics of the Islamic State in broadcasting atrocities, or the Jaish-e-Muhammed which released a video clipping of the Pulwama bomber, or the Hindutva fringe groups that capture their lynchings on camera seek to draw out more bloodlust from partisans. These call for societies everywhere to isolate terror and yet, countries like Pakistan and China continue to shower patronage on terrorists like Masood Azhar.
Ardern has embraced the migrant and refugee community as New Zealand’s own while rejecting those perpetrating violence. Prime Minister Narendra Modi was right to promptly issue condemnation and stress that “hatred and violence have no place in diverse and democratic societies”. Some Indians may be wistful that their prime minister who they see abroad is not the same PM they see at home, where too hate and divisiveness run amok but condemnations are few and far between (famously, a Harvard-educated minister in the Union government even garlanded lynch convicts without inviting any action against himself). Hate crimes endanger the prospect of modern societies coexisting peacefully amid ethnic and religious differences. Preventing lone wolf attacks isn’t always possible but leaders like Ardern show capacity for the healing touch – which deserves emulation in India too.
Date:18-03-19
लोकपाल का गठन
संपादकीय
देश के पहले लोकपाल के तौर पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीसी घोष का नाम सामने आना एक अच्छी खबर तो है, लेकिन अगर उनके नाम की आधिकारिक घोषणा हो जाती है तो भी यह कहना कठिन है कि भ्रष्टाचार रोधी एक प्रभावी और विश्वसनीय व्यवस्था आकार लेने वाली है। एक तो अभी लोकपाल सदस्यों के नाम भी तय होने हैं और दूसरे, इसका निर्धारण भी होना है कि लोकपाल व्यवस्था कैसे काम करेगी और वह सीबीआइ और सीवीसी के बीच कैसे संतुलन बैठाएगी? इस सवाल के बीच लोकपाल प्रमुख और उसके सदस्यों को लेकर विवाद भी छिड़ने के आसार हैं।
सच तो यह है कि विवाद छिड़ता हुआ दिख भी रहा है। देश में कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें उच्च पद पर किसी का चयन तब तक मंजूर नहीं होता जब तक वह उसे सही होने का प्रमाण पत्र न दे दें। हैरत नहीं ऐसे लोग जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते नजर आएं। जो भी हो, इस पर हैरानी नहीं कि लोकपाल चयन समिति में लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे ने हिस्सा नहीं लिया। उनकी शिकायत यह थी कि उन्हें नेता विपक्ष के तौर पर नहीं, बल्कि विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर बुलाया जा रहा है। अपनी इसी शिकायत के बहाने वह लोकपाल चयन समिति की बैठकों का बहिष्कार यह जानते हुए भी करते रहे कि कांग्रेस नेता विपक्ष की हैसियत हासिल करने में नाकाम रही है। वह इससे भी परिचित थे कि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दलीलों पर गौर नहीं किया। ऐसा लगता है कि खड़गे असहयोग करने पर आमादा थे। पता नहीं उन्हें लोकपाल चयन समिति में अपनी राय रखने में क्या परेशानी थी? आखिर ऐसा भी नहीं कि इस पांच सदस्यीय समिति में वही सब कुछ होना था जो वह चाहते।
इस पर संतोष नहीं जताया जा सकता कि आखिरकार लोकपाल व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया आगे बढ़ी, क्योंकि इसमें पांच साल की देर हुई है। यह प्रक्रिया तब आगे बढ़ सकी जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और उसने लोकपाल के गठन में देरी को लेकर सवाल खड़े किए। अच्छा होता कि आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के पहले लोकपाल के गठन का काम पूरा हो जाता। यह सही है कि लोकपाल निर्माण की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आगे बढ़ रही है, लेकिन आखिर यह कितना उचित है कि जब आदर्श आचार संहिता अमल में आ चुकी है तब लोकपाल का गठन हो रहा है?
हो सकता है कि आगामी कुछ दिनों में लोकपाल व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया पूरी हो जाए, लेकिन अगर वह राज्यों के लोकायुक्त की तरह ही काम करती है तो वह सपना शायद ही पूरा हो जो लोकपाल आंदोलन के दौरान देखा गया था। भ्रष्टाचार विरोधी ऐसी व्यवस्था के निर्माण का कोई मतलब नहीं जो नेताओं और नौकरशाहों के कदाचार पर लगाम न लगा सके और जनता को राहत न दे सके। क्या कोई बता सकता है कि राज्यों में गठित लोकायुक्त व्यवस्था आम आदमी को किस तरह राहत दे रही है? बेहतर हो कि विचार इस पर भी हो कि भ्रष्टाचार विरोधी प्रभावी तंत्र कैसे बने ?
Date:18-03-19
अड़ियल चीन से निपटने की चुनौती
आतंकवाद पर दोहरा मापदंड अपनाते हुए चीन दक्षिण एशिया में अशांति को बढ़ावा देने का काम ही कर रहा है।
संजय गुप्त , (लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)
पाकिस्तान में पोषित और संरक्षित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर पर संयुक्त राष्ट्र की पाबंदी लगाने के लिए आए प्रस्ताव पर चीन ने एक बार फिर अड़ंगा लगा दिया। यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के तीन स्थायी सदस्यों फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका के साथ सभी अस्थायी सदस्यों की ओर से पेश किया गया था। चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चौथी बार मसूद अजहर का बचाव करके न केवल भारत को नीचा दिखाया, बल्कि विश्व समुदाय को ठेंगा दिखाते हुए आतंकवाद के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई को कमजोर करने का भी काम किया। वह इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकता कि पुलवामा हमले की जिम्मेदारी लेने वाले जैश-ए-मोहम्मद ने ही भारतीय संसद और पठानकोट एयरबेस पर हमला कराया था।
चीन ने मसूद अजहर पर पाबंदी के प्रस्ताव को तकनीकी आधार पर रोका और यह दलील दी कि इस मामले में सभी पक्षों को स्वीकार्य समाधान पर पहुंचा जाना चाहिए। बाद में उसने यह सफाई दी कि वह मसूद अजहर के खिलाफ सबूतों की जांच के लिए कुछ समय चाहता है। यह बहानेबाजी के अलावा और कुछ नहीं, क्योंकि चीन बीते दस सालों से मसूद अजहर का बचाव कर रहा है और वह भी तब जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इस आतंकी सरगना के संगठन पर पाबंदी लगा रखी है। वह एक कुख्यात आतंकी का साथ इसीलिए दे रहा है, ताकि पाकिस्तान को अपने पाले में रखा जा सके और उसे भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सके। पाकिस्तान को अपना मोहरा बनाने के फेर में वह वहां के आतंकी सरगना का बचाव यह जानते हुए भी कर रहा है कि सारी दुनिया में यह देश आतंकवाद के गढ़ के रूप में बदनाम है।
आतंकवाद पर दोहरा मापदंड अपनाकर चीन न केवल दक्षिण एशिया में अशांति को बढ़ावा दे रहा है, बल्कि अपने गैर-जिम्मेदाराना रवैये का प्रदर्शन भी कर रहा है। आज इस पर विचार होना ही चाहिए कि आखिर आतंकवाद की पैरवी करने वाले ऐसे गैर-जिम्मेदार देश को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य क्यों होना चाहिए? दुर्भाग्य से चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता भारत के ढुलमुलपन के कारण ही मिली थी। विश्व के कई देश यह नहीं चाहते थे कि विस्तारवादी प्रवृत्ति वाला चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बने और वीटो पावर से लैस हो, लेकिन भारत ने इन देशों का साथ देना जरूरी नहीं समझा। चीन आज भी अपनी विस्तारवादी और एकाधिकारवादी मानसिकता का परिचय दे रहा है। एक ओर वह दक्षिण चीन सागर में मनमानी कर रहा है, तो दूसरी ओर गरीब एशियाई और अफ्रीकी देशों को अपने कर्ज के जाल में फंसा रहा है। श्रीलंका और मालदीव इसके उदाहरण हैैं कि चीन कैसे छोटे देशों को कर्ज देकर उनका शोषण करता है। पाकिस्तान में बन रहा आर्थिक गलियारा भी चीन की विस्तारवादी नीति का ही एक नमूना है। वह मसूद अजहर का कवच इसीलिए बन रहा है, ताकि इस गलियारे के निर्माण के खिलाफ पाकिस्तान में कोई आवाज न उठा सके।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में आने के बाद से ही चीन को साधने की कोशिश करते आए हैं। बीच में चीन के साथ दोस्ताना माहौल भी बना और उसके साथ कुछ अहम समझौते भी हुए, लेकिन डोकलाम विवाद के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में तल्खी आ गई। डोकलाम में चीनी सेना की ओर से सड़क निर्माण पर भारत ने सख्ती दिखाकर चीन के मंसूबों को विफल कर दिया। चीन द्वारा डोकलाम से अपने कदम पीछे खींचने के बाद वुहान में दोनों देशों के नेतृत्व के बीच जो समझबूझ बनी, उसे चीन ने मसूद अजहर का बचाव करके ताक पर ही रखने का काम किया है।
चीन से सीमा विवाद के बावजूद भारत ने चीनी कंपनियों को भारत में व्यापार करने की एक तरह से खुली छूट दे रखी है। उसकी तमाम कंपनियां भारत में सड़क, पुल आदि बनाने का काम कर रही हैं। इसी तरह वे भारत में मोबाइल फोन भी बना रही हैं। इसके चलते मोबाइल फोन के बाजार में चीनी कंपनियों का दबदबा-सा है। व्यापार संतुलन भी पूरी तौर पर चीन के पक्ष में है। वह भारत से आयात कम कर रहा है और निर्यात अधिक। चीन यह अच्छी तरह जानता है कि भारत उसके लिए एक बड़ा बाजार है और उसकी कंपनियों को भारतीय बाजार की जरूरत है। वे इस जरूरत का लाभ भी उठा रही हैं, लेकिन इस सबके बावजूद वह पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने में लगा हुआ है। चीन को यह जो अहंकार है कि वह अपनी आर्थिक ताकत के बल पर हर तरह की मनमानी कर सकता है, उसे दूर करने के लिए भारत को कुछ उपाय करने ही होंगे। इस क्रम में चीनी आयात पर अंकुश लगाने के बारे में सोचा जाना चाहिए।
पुलवामा के हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान पर जो एयर स्ट्राइक की, उससे मोदी सरकार की विदेश नीति का एक नया आयाम सामने आया, लेकिन मसूद अजहर को लेकर चीन के रवैये को देखते हुए यही कहा जाएगा कि उसे साधने की नीति कारगर साबित नहीं हो रही है। यह ठीक है कि चीन के पास भारत से बड़ी सेना और आर्थिक मजबूती है, लेकिन चीन को यह पता होना चाहिए कि वास्तविक विश्व शक्ति बनने का उसका सपना भारत के सहयोग के बिना पूरा नहीं होने वाला। अब जब यह और साफ हो गया है कि चीन ने फिर से भारत विरोधी रवैया अपना लिया है और वह पाकिस्तान का अनुचित तरीके से संरक्षण करने पर आमादा है, तब फिर भारत को अपनी चीन नीति पर नए सिरे से विचार करना चाहिए।
यह ठीक है कि भारत में इस समय लोकसभा चुनाव हो रहे हैं और राजनीतिक दल आरोप-प्रत्यारोप में तमाम लक्ष्मण रेखाओं का भी उल्लंघन कर रहे हैं, लेकिन उन्हें यह तो समझना ही चाहिए कि चीन और पाकिस्तान को लेकर उनके अंतर्विरोध कुल मिलाकर भारत के हितों को ही नुकसान पहुंचाने का काम करेंगे। कांग्रेस मोदी सरकार की चीन और पाकिस्तान संबंधी नीति को लेकर कुछ ज्यादा ही हमलावर है, जबकि सच्चाई यह है कि इन दोनों देशों के मामले में पहले की कांग्रेस सरकारों ने ऐतिहासिक भूलें की हैं। अगर प्रधानमंत्री मोदी का विरोध करने के नाम पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी उल्टे-सीधे ट्वीट करेंगे तो उसका लाभ चीन और पाकिस्तान ही उठाएंगे। राहुल गांधी ने चुनावी लाभ लेने के लिए नरेंद्र मोदी के चीनी राष्ट्रपति के प्रति दोस्ताना व्यवहार को जिस ओछे ढंग से मुद्दा बनाया, उसकी कहीं कोई आवश्यकता नहीं थी।
आम चुनाव के उपरांत नई दिल्ली में जो भी सरकार बने, उसे अब चीन को उसके कमजोर पहलुओं पर घेरना होगा। चीन तिब्बत और ताइवान के मामले पर अत्यधिक संवेदनशील है। इसी तरह वह उइगर मुसलमानों के साथ अमानवीय व्यवहार को लेकर भी कठघरे में है। भारत अब तक इन तमाम मसलों पर एक नरम रवैया रखता आया है। अब समय आ गया है कि चीन को उसी की भाषा में जवाब देते हुए उसकी करतूतों के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई जाए।
Date:17-03-19
जीतना होगा कश्मीरियों का मन
डॉ. दिलीप चौबे
जैश-ए-मोहम्मद का आतंकवादी सरगना मसूद अजहर को नियंतण्र आतंकवादी घोषित करने की भारतीय मुहिम असफल नहीं हुईहै। उसमें कुछ समय के लिए व्यवधान आया है। विदेश मंत्रालय का मानना है कि सुरक्षा परिषद के पंद्रह में से चौदह सदस्यों का उसके साथ आना उसकी बड़ी कूटनीतिक जीत है। चीन के विरोधके कारण मसूद को नियंतण्र आतंकवादी घोषित किए जाने की मुहिम केवल कुछ महीनों के लिए ही टली है। तीन महीने बाद भारत फिर इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उठाएगा। विदेश मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि चीन के अड़ियल रुख के कारण वे अपना धैर्य खोने वाले नहीं हैं।
भारत ने इस मुद्दे पर जो लामबंदी की है, उसका दबदबा चीन भी महसूस कर रहा है। चीन के विदेश मंत्रालय ने अपने स्पष्टीकरण में कहा है कि वह इस मुद्दे पर विचार करने के लिए कुछ समय चाहता है। जाहिर है कि चीन नहीं चाहता कि विश्व बिरादरी में संदेश जाए कि किसी कुख्यात आतंकवादी का बचाव कर रहा है। चीन ने यह भी गौर किया होगा कि सुरक्षा परिषद में इस मुद्दे को टाले जाने के बाद फ्रांस सरकार ने मसूद के खिलाफ अपने स्तर पर ऐसे ही प्रतिबंध लगा दिए हैं। आने वाले दिनों में भारतीय भूमि पर यदि और कोई आतंकवादी कार्रवाई हुई तो चीन के पास कोईबहाना नहीं रहेगा। मौजूदा हालत यह है कि भले ही औपचारिक रूप से मसूद को नियंतण्र आतंकवादी घोषित न किया गया हो, लेकिन दुनिया ने मान लिया है कि वह ऐसा अवांछनीय व्यक्ति है, जिसकी गतिविधियों को सभ्य समाज में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। जहां तक भारत और चीन के द्विपक्षीय संबंधों का सवाल है, दोनों देश मसूद को लेकर आपसी संबंधों को बिगड़ने नहीं देंगे।
गौर करने वाली बात है कि भारत ने जब बालाकोट के आतंकी अड्डे पर हवाई कार्रवाई की थी, तब चीन ने तटस्थ रुख अपनाया था। भारत के लिए यह स्थिति बहुत अनुकूल है कि पाकिस्तान के साथ उसके शक्ति परीक्षण में चीन तटस्थ रहे और भारत-चीन सीमा पर शांति और सामान्य स्थिति बनी रहे। भारत मसूद के खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से अपनी मुहिम को आगे भी जारी रहेगा और रखना भी चाहिए, लेकिन वास्तविकता है कि पिछले बीस वर्षो का आतंकवादियों से संबंधित सुरक्षा परिषद का इतिहास देखा जाए तो इस नियंतण्र संगठन को कोईविशेष सफलता नहीं मिली है। 26/11 के मुंबई हमले के बाद हाफिज सईद को संयुक्त राष्ट्र ने नियंतण्र आतंकवादी घोषित किया था। मगर पाकिस्तान की अदालत से वह छूट गया और आज खुलेआम घूमता और आतंकी प्रशिक्षण केंद्र चलाता है। सुरक्षा परिषद की 1267 अल कायदा प्रतिबंधित समिति के तहत प्रतिबंधित करने के प्रस्ताव की धार कुंद करने के लिए पाकिस्तान ने जैसी रणनीति बनाई है, वह समझने वाली बात है। लादेन के विरुद्ध हो या तालिबान के विरुद्ध, इन सभी में अमेरिका और यूरोपीय देशों की कार्रवाइयां ही प्रभावी रही हैं।
इन सब घटनाओं से भारत को सबक लेने की जरूरत है। उसे सुरक्षा परिषद पर निर्भर रहने के साथ-साथ व्यक्तिगत तौर पर भी कार्रवाईकरने में सक्षम होना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद मसूद को आतंकवादी सूची में ला पाईया नहीं, भारत को जरूरत इस बात की है कि वह स्वयं अपने घर को मजबूत करे। वह सबसे पहले तो यह सुनिश्चित करे कि पाकिस्तान में जमे हुए आतंकवादी समूह भारतीय सीमा में घुस न सकें। इसके लिए उसे अपनी सीमाओं की चौकसी और अधिक मजबूत करनी होगी। लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उसे गंभीरता से इस पर विचार करना होगा कि जम्मू-कश्मीर में जैश-ए-मोहम्मद, लश्करे तैयबा, हिज्बुल मुजाहिद्दीन जैसे आतंकी समूह फिर से प्रभावशाली क्यों हो उठे हैं? और क्यों इनका प्रभाव बढ़ता जा रहा है?
भारत को इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि वह अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को, लोकतांत्रिक वैचारिकता को कश्मीरी मन में प्रभावी ढंग से स्थापित क्यों नहीं कर पाया? पिछले चार दशकों में वह कश्मीरी आतंकवाद का प्रभावी समाधान क्यों नहीं खोज पाया? भारत को ध्यान रखना चाहिए कि कश्मीरी जनता का मन बदले बिना वह न तो अलगाववाद पर काबू पा सकता है, और न ही पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को नियंत्रित कर सकता है। भारत की गंभीर समस्या यही है, जिस पर गहन विचार की जरूरत है।
Date:17-03-19
हैशटैग कल्चर
सुधीश पचौरी
सोशल मीडिया पर ‘‘हैशटैग’ की जातीं दो-चार लाइन की टिप्पणियां और ओपिनियनें ही आजकल खबर चैनलों की ‘‘सूचना स्रेत’ नजर आती हैं। सोशल मीडिया की हैशटैगित लाइनों के आसपास बहसें कराके खबर चैनल हर रोज विचारों का मलबा बनाते हैं, जो असली खबरों को आच्छादित कर लेता है। इसीलिए हम खबर का मूल रूप याद नहीं रख पाते। फेसबुक, इंस्टाग्राम या ट्विटर पर जो ‘‘हैशटैग’ ब्रांड माल नित्य उतरता है, वही इन दिनों टीवी के प्राइम टाइम में परोसा जाता है। उसे ही एंकर कज्यूम करते हैं, और दर्शकों को कंज्यूम कराते हैं। सोशल मीडिया में जिस शब्द या वाक्य के आगे ‘‘हैशटैग’ लगा दिया जाता है, वही सबसे अव्वल, निर्णायक खबर या ओपिनियन बन जाता है। ‘‘हैशटैग’ के निशान का अर्थ ही है : किसी बात को महत्त्व देना, एक मामूली-सी बात में भी बड़े मानी भरना। ‘‘हैशटैग’ का मतलब है किसी खबर का ‘‘अनिवार्य’ होना।
सोशल मीडिया के खिलाड़ी जब किसी मुद्दे को फोकस में लाना चाहते हैं, तो उसके आगे ‘‘हैशटैग’ लगा देते हैं। जिसके आगे यह लग जाता है, वही ‘‘हिट’ और ‘‘वायरल’ हो जाता है। एक आकलन के अनुसार देश में तकरीबन 30 करोड़ लोग फेसबुक पर हैं, और इसके आधे ट्विटर या इंस्टाग्राम पर हैं। अगर इनका एक प्रतिशत भी ‘‘हैशटैग’ छाप खिलाड़ी हुआ तो समझ लीजिए कि ‘‘हैशटैग’ छाप पलटन कितनी होगी? आज हर मीडियाकर्मी सोशल मीडिया के इसी हैशटैगिया कल्चर में जीता है। वे इनमें से हर ‘‘हैशटैग’ को तो महत्त्व दे नहीं सकते, सो एक न्यूज एंकर के रूप में अपनी राजनीतिक-सांस्कृतिक रुचि के अनुसार किसी एक खास एंगिल वाले ‘‘हैशटैग’ को उधार ले लेते हैं, और उसी के आसपास विचार-विमर्श कराते हैं। इसी कारण आज सोशल मीडिया मुख्यधारा के मीडिया का मुख्य कंटेंट प्रोवाइडर सा बन चला है, और कभी-कभी तो लगता है कि खबर चैनल सोशल मीडिया के ‘‘एक्सटेंशन’ बन गए हों।
हमारे खबर चैनल भी वैसे खबर चैनल नहीं हैं जैसे आज से पंद्रह-बीस साल पहले होते थे। तब वे ‘‘खबर’ अधिक देते थे और तरह-तरह के ‘‘विचार’ भी देते थे लेकिन विचारों का मलबा नहीं परोसते थे। परंतु आजकल बहुत-सी उत्तेजक टिप्पणियां और ओपिनियनें सोशल मीडिया से टीवी चैनलों द्वारा सीधे उठा ली जाती हैं, और उन्हीं के आसपास चरचा कराकर विचारों का गुस्से और खिसियाहट भरा मलबा पेश करते हैं, और आधा घंटा, घंटा या दो घंटा हर आदमी एक दूसरे के तर्क को काटने की जगह उसे चुप करने और लज्जित करने में लग जाता है, और इस क्रिया में हर कथित ‘‘विचारक’ लज्जित होने की जगह और अधिक ढीठ और बेशर्म होता जाता है। इस तरह, सोशल मीडिया और उसकी हैशटैगबाजी से उधार लेकर काम करने वाले खबर चैनलों ने खबर-दर्शकों को शिष्ट और सभ्यतापूर्ण विचार-विमर्श करना सिखाने की जगह अधिकाधिक अशिष्ट और निर्लज्ज होना सिखाया है। चिंता की बात है कि खबर के साथ सिर्फ ‘‘हैशटैग’ ही नहीं आता और भी बहुत कुछ अवांछित आता है, बहुत-सी बकवास, बहुत-सी घृणा, बहुत-सी हिंसा आती है। ‘‘हैशटैग’ कल्चर क्या गुल खिलाती है, और उसके चलते टीवी की कोई खबर या चरचा कितनी तरह की बकवास, घृणा और बदबू से घिरी रहती है, यह अनुभव एक शाम अचानक तब हुआ जब इस लेखक के टीवी की डीटीएच सेवा में खराबी आ गई और खबर देखने के लिए ‘‘यूट्यूब’ का सहारा लेना हुआ।
वहां, एक हिंदी चैनल पर ‘‘हैशटैग : आतकंवाद को खत्म करना है’ पर दो ध्रुवों में बंटी एक बहस आ रही थी। एक हिस्सा कहता था कि वक्त आ गया है, जब पाकिस्तान में जाकर मसूद अजहर को सीधे निशाना बनाया जाए। दूसरा कहता था कि यह काफी कठिन है। इसमें पाकिस्तान के साथ खुले युद्धका खतरा है, और हमें बातचीत से मामले का हल निकालना चाहिए। चैनल के फ्रेम में तो सिर्फ ‘‘बहस’ हो रही थी, लेकिन उसके ठीक नीचे सोशल मीडिया में आते कमेंट गाली-गलौज से भरे जा रहे थे। पांच दस लोग हर सेकेंड पर एक दूसरे की ‘‘मां-बहन की’ कर रहे थे। सोशल मीडिया में बातचीत के हिमायतियों को जिस तरह से गंदी गालियों से नवाजा जा रहा था, उसी तरह से टीवी चरचा में हड़काया जा रहा था। फर्क था तो इतना कि सोशल मीडिया में गालियां प्रमुख थीं जबकि टीवी में सिर्फ ‘‘शिष्ट गालियां’ थीं कि तुम ‘‘पाकिस्तान के एजेंट’हो। कहना न होगा कि आजकल हर खबर चैनल पर ऐसी ही बदतमीज बहसें नजर आती हैं। और यह सब है सोशल मीडिया की हैशटेग कल्चर की मेहरबानी।