18-01-2025 (Important News Clippings)

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18 Jan 2025
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Date: 18-01-25

Script reading

The deciphering of the Indus script should not be clouded by politics

Editorial

The recent announcement by Tamil Nadu Chief Minister M.K. Stalin, of a $1-million prize scheme for deciphering the script of the Indus Valley Civilisation (IVC), seems to have revived popular interest in the subject, which remains a puzzle to archaeologists, historians and linguists. His invitation for further research was made in the context of the centenary celebration of the IVC discovery, which was published by then chief of the Archaeological Survey of India , John Marshall, in September 1924. Spread across 1.5 million square kilometres in the territories of modern-day India, Pakistan, and Afghanistan during the Bronze Age (3000-1500 BCE), the IVC, also known as Harappan Civilisation, was regarded as complex as the better-known civilisations of Mesopotamia, Egypt and China. The Indus civilisation was essentially urban. Even though there has been a large number of objects and materials of archaeological value in support of the IVC, the decipherment of seals and tablets has not been to the satisfaction of all. About 20 years ago, a group of western scholars had argued that writing was not a necessity of ancient urban settlements, not even those as massive as those of the Harappans, and that “a handful of unknown symbols” could no longer be claimed as evidence of writing. Since then, there has been an exchange of scholarly views for and against the theory of the Indus civilisation being a highly literate society. It is against this context that Mr. Stalin’s announcement needs to be seen. There is also a school of thought that there was a script which was “proto-Dravidian”, “non-Aryan” and “pre-Aryan”. This could be a reason why a southern State, Tamil Nadu, has made the offer. The State government has also supported a study on Indus signs and graffiti marks of Tamil Nadu as part of a project of the documentation and the digitisation of graffiti and Tamili (Tamil-Brāhmī)-inscribed potsherds of Tamil Nadu.

Researchers face certain challenges while resolving the Indus riddle. There is a complaint that the entire database regarding the seals has not yet been made available in the public domain. While allowing free access to these resources, central and State authorities should ensure that context for them is also provided. More importantly, studies should be carried out without any interference. The likelihood of the proposed study’s findings going against the established and particular narrative should not be allowed to cloud intellectual pursuit. There is also scope for well-coordinated work among South Asian countries, including Sri Lanka, Bangladesh, Pakistan and Afghanistan, to unravel the mystery. But if political differences are permitted to adversely impact the execution of any such study, the world, and India, will be much the poorer for it.


Date: 18-01-25

प्रोत्साहन की प्रतीक्षा में छोटे उद्यम

गौरव वल्लभ, ( लेखक फाइनेंस के प्रोफेसर एवं भाजपा नेता हैं )

यदि समावेशी विकास के विकल्पों पर विचार करें तो सबसे प्रमुख विकल्प सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम यानी एमएसएमई के रूप में सामने आता है। यदि भारत इस दशक में एमएसएमई क्षेत्र का अपेक्षित रूप से कायाकल्प कर सके तो विकास को समावेशी बनाने में बड़ी सहायता मिलेगी।

एमएसएमई परिदृश्य पर दृष्टि डालने से इस क्षेत्र की भूमिका और उससे संबंधित संभावनाएं प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होती हैं। इस समय देश में 6.34 करोड़ छोटे उद्यम सक्रिय हैं। इनके जरिये 10 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है। वे जीडीपी में 30 प्रतिशत से अधिक का योगदान कर रहे हैं।

ये थाइलैंड और स्वीडन की आर्थिकी के बराबर हैं। इसके बाजवूद इस क्षेत्र की संभावनाओं को अभी तक पूरी तरह से भुनाया नहीं जा सका है, क्योंकि कई अवरोध उनकी राह रोके हुए हैं। आगामी बजट को इन अवरोधों को दूर करने की दिशा में समुचित उपाय करने चाहिए।

एमएसएमई की राह में सबसे बड़ी बाधा वित्तीय संसाधनों तक पहुंच है। यूके सिन्हा समिति के अनुसार ये इकाइयां करीब 240 से 300 अरब डालर की फंडिंग की कमी से जूझ रही हैं। अर्न्स्ट एंड यंग की रिपोर्ट के अनुसार भारत में एमएसएमई की कर्ज तक पहुंच केवल 14 प्रतिशत है, जबकि चीन में यह 37 और अमेरिका में 50 प्रतिशत तक है।

ऐसे में जर्मनी का केएफडब्ल्यू मॉडल भारत के लिए कारगर साबित हो सकता है। यह सरकारी स्वामित्व वाला एक विकास बैंक है, जो क्रेडिट गारंटी और तकनीकी सहायता प्रदान करते हुए वाणिज्यिक बैंकों के जरिये द्वितीयक स्तर पर काम करता है। इस मॉडल में ऋणदाता के स्तर पर जोखिम घट जाता है, तो निजी क्षेत्र को निवेश प्रोत्साहन मिलने के साथ ही न्यूनतम नाकामी दर के साथ नवाचार भी बढ़ता है।

भारत भी क्रेडिट गारंटी फंड ट्रस्ट फार माइक्रो एंड स्माल एंटरप्राइजेज यानी सीजीटीएमएससी का दायरा बढ़ाकर इस मॉडल से लाभ उठा सकता है।

डिजिटल मंचों के माध्यम से भी एमएसएमई की वृद्धि को पंख लगाए जा सकते हैं। भारतीय एमएसएमई द्वारा डिजिटल प्रणालियों को अपनाने की दर केवल 20 प्रतिशत है, जबकि ताइवान में यह 91 और सिंगापुर में 95 प्रतिशत तक है।

रेडसीर के अनुसार भारत में करीब साढ़े छह करोड़ एमएसएमई में से 77 लाख ही खुद को डिजिटल स्तर पर ढाल पाए हैं। उत्पादकता एवं प्रतिस्पर्धा क्षमताएं बढ़ाने की दृष्टि से डिजिटल कायाकल्प अपरिहार्य हो गया है। सिंगापुर ने सब्सिडी, प्रशिक्षण एवं समाधान प्रक्रियाओं की सहायता से डिजिटल विस्तार को 95 प्रतिशत तक बढ़ाने में सफलता हासिल की है।

जापान ने भी इस दिशा में टेक्निकल सेंटर्स स्थापित कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। भारत को भी आइटी कंपनियों के साथ मिलकर 100 डिजिटल ट्रांसफार्मेशन सेंटर्स बनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। जीईएम यानी गवर्नमेंट ई-मार्केटप्लेस जैसे प्लेटफार्म एमएसएमई को डिजिटल उपाय अपनाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकते हैं।

बाजार तक पहुंच भी एमएसएमई के लिए बाधा बनी हुई है। निर्यात में 49 प्रतिशत की हिस्सेदारी के बावजूद ये उद्यम वैश्विक वैल्यू चेन में अपेक्षित रूप से लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। इस स्थिति को सुधारने के लिए भारत को निर्यात विकास कोष की स्थापना करनी चाहिए।

साथ ही बाजार से जुड़ी सूचनाओं के लिए एक डिजिटल प्लेटफार्म भी उपयोगी रहेगा, जिसमें विदेश व्यापार महानिदेशालय यानी डीजीएफटी पोर्टल जैसे टूल की मदद ली जा सकती है। इससे प्राप्त सूचनाओं से जरूरतमंद उद्यमों की आवश्यकताओं की तत्काल पूर्ति में सहायता मिलेगी।

अमेरिका में ऐसी ही व्यवस्था है। इससे तत्काल ऋण मंजूरी और व्यापक वित्तीय समावेशन की स्थिति सुधरती है। भारत में भी निर्यात केंद्रित एमएमएसई के लिए उचित आधार तैयार कर वैश्विक बाजार तक उनकी बेहतर पहुंच बनाई जा सकती है।

सुगम कर एवं अनुपालन व्यवस्था से एमएमएमई पर प्रशासनिक बोझ घटने के साथ ही उन्हें संगठित बाजार में स्वयं को सुगठित करने में प्रोत्साहन मिलेगा। अभी इन उद्यमों को जीएसटी फाइल से लेकर आयकर ब्योरा देने जैसी जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है, जिससे उनकी परिचालन लागत बढ़ती है।

इसमें ब्राजील के सिंप्लेस कार्यक्रम से सीख ली जा सकती है, जिसके जरिये एकीकृत तंत्र बनाया जाए, जिसमें सरलीकृत दरों और पूर्वनियोजित प्रतिवेदन जैसे प्रविधानों की सुविधा उपलब्ध हो। इसमें एक ही बार में सभी मानकों की पूर्ति संभव हो।

जीएसटी सहज और उद्यम पंजीकरण जैसे मौजूदा प्लेटफार्म भी ऐसी सुविधाओं को नया आयाम प्रदान कर सकते हैं। संक्रमण अवधि में भी इन उद्यमों को सहारा देने की पर्याप्त व्यवस्था करनी होगी। इससे उनकी वृद्धि के साथ ही आर्थिकी में उनका समावेशन सुगम होगा।

रियल टाइम निगरानी से भी उनकी विभिन्न समस्याओं पर नजर रखते हुए उनके यथासंभव समाधान के प्रयास किए जाएं। जैसे सिडबी के एमएसएमई पल्स के जरिये कर्ज का प्रवाह तो डीजीएफटी के माध्यम से बाजार तक पहुंच और निर्यात प्रदर्शन को सुधारा जा सकता है। कौशल विकास की कड़ी को भी मजबूत करना होगा।

ऐसे उपायों को प्रभावी रूप से अमल में लाने के लिए एमएसएमई मंत्रालय के अंतर्गत एक उच्च-अधिकार प्राप्त एमएसएमई ट्रांसफार्मेशन काउंसिल गठित की जानी चाहिए। नियोजन से लेकर कार्यान्वयन तक ऐसे निकाय की जिम्मेदारी तय करना भी जरूरी होगा।

नि:संदेह इन उपायों को आजमाने से कुछ खर्च बढ़ेगा, मगर हमें उनसे मिलने वाले फायदों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। एमएसएमई से जुड़ी मलेशिया की योजना प्रमाण है कि ऐसे उपाय फलदायी सिद्ध होते हैं।

इनके जरिये 2018 से 2023 के दौरान मलेशिया की जीडीपी में एमएसएमई का योगदान 32 से बढ़कर 38 प्रतिशत हो गया। यदि भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप ढालकर ऐसे उपाय अपने देश में किए जाएं तो पांच ट्रिलियन डालर की आर्थिकी के लक्ष्य को पाने में बड़ी मदद मिलेगी। इसमें सरकारों, वित्तीय संस्थानों और उद्योग संस्थाओं में उचित समन्वय भी आवश्यक होगा। बजट इसकी शुरुआत के लिए एक आदर्श मंच हो सकता है।


Date: 18-01-25

आफत बनती बनती जंगल की आग

अभिषेक कुमार सिंह

अमेरिका अब तक की सबसे भीषण आग से झुलस रहा है। इसके प्रांत कैलिफोर्निया के बड़े इलाके में जंगल धधक उठे हैं। दो दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत हो गई है। हजारों घर राख हो गए हैं। बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हो चुके हैं। हजारों एकड़ क्षेत्र बर्बाद हो गया है। यह आग असाधारण इसलिए भी कही गई। क्योंकि आम तौर पर जनवरी में वहां जंगल की आग का कोई मौसम नहीं होता। दावा किया गया कि जलवायु परिवर्तन, ऊंचे तापमान, शुष्क मौसम और सूखे ने अचानक ऐसे हालात पैदा कर दिए कि भड़की चिंगारियों ने तेज हवाओं के संग खौफनाक रूप धर लिया और बड़े इलाके को इस तरह तबाह कर दिया, मानो वहां कोई बड़ा बम गिरा दिया गया हो।

पहली बार ऐसा लगा कि दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क, कैलिफोर्निया के लास एंजिलिस इलाके में बेहद तेजी से फैली आग के आगे निरुपाय हो गया। इस आग से निपटने की नीतियों को लेकर वहां राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। जहां तक पर्यावरणीय और वैज्ञानिक कारणों की बात है, तो अमेरिका के ‘नेशनल ओसियानिक एंड एटमास्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन’ (नोआ) का कहना है कि पिछले दो दशकों में पश्चिमी अमेरिका में जलवायु परिवर्तन के कारकों की अनदेखी ने जो हालात पैदा किए हैं, वे इस आग के लिए मुख्यतः जिम्मेदार हैं। आमतौर पर वहां मई जून से लेकर अक्तूबर के बीच जंगल की आग लगने की कुछ घटनाएं हर साल होती रही हैं, लेकिन इधर लगने लगा है कि इस आग की समयावधि का दायरा बढ़ गया है। इस बार सबसे पहले जंगल की आग कैलिफोर्निया के पैलिसेड्स इलाके में भड़की। आसमानी बिजली या किसी इंसान की करतूत से छोटे स्तर पर जंगल में लगी आग वहां बहने वाली तेज हवाओं के कारण इस कदर बेकाबू हो गई कि एक बड़ा इलाका देखते-देखते राख हो गया, जहां हालीवुड की अनेक हस्तियों के आलीशान घर थे।

लॉस एंजिलिस के इंटन नामक उत्तरी हिस्से में लगी आग आल्टाडेना जैसे शहरों में फैल गई। कहने को तो यह सिर्फ जंगल की आग है, लेकिन जिन कारणों से अमेरिका बुरी तरह झुलसा है, उससे पूरी दुनिया में यह चिंता फैल रही है कि ऐसा तो कहीं भी और कभी भी हो सकता है। जलवायु परिवर्तन, गर्म और शुष्क मौसम और सूखे की स्थितियों में अमेरिका के इस इलाके में यह आग तब लगी, जब इसके लगने की कोई आशंका नहीं थी। यानी जिस मौसम में इन इलाकों के जंगल करीबन हर वर्ष या दूसरे वर्ष दहकते थे, वह मौसम अभी वहां आया ही नहीं था। इसलिए बेमौसम लगी जंगल की आग ने ऐसा तांडव मचा दिया कि महाशक्ति अमेरिका की सांसें भी फूल गई।

वन क्षेत्रों में आग लगने के सबसे अहम कारणों में सूखे का मौसम और तेज हवाओं के साथ आकाशीय बिजली गिरने को गिना जाता लेकिन लास एंजिलिस में फैली आग के पीछे इंसानी हाथ हो सकता है, ऐसा एक दावा कैलिफोर्निया की दमकल सेवा के प्रमुख डेविड एक्यूना ने किया। उन्होंने कहा कि इस इलाके में 95 फीसद आग इंसान ही लगाते आए हैं और हो सकता है कि इस बार भी ऐसा हुआ हो। मौसम विशेषज्ञों ने पश्चिमी अमेरिकी जंगलों में आग के खतरे और इसकी प्रमुख वजह के रूप में जलवायु परिवर्तन को चिह्नित किया है। जलवायु संकट से तापमान बढ़ा है, लंबे समय तक सूखे और शुष्क मौसम की स्थितियां बनी हैं, जिनसे अब पूरे वर्ष आग लगने और उसके फैल जाने की आशंका पैदा हो गई है। इसमें सितंबर के अंत से मई तक बीच-बीच में सौ मील या उससे ज्यादा रफ्तार से चलने वाली ‘सेंटा एना’ हवाओं ने आग में घी का काम किया है। कैलिफोर्निया के पहाड़ों से समुद्र की तरफ बहने वाली ये हवाएं जब जंगल की आग के साथ बहती हैं, तो त्रासदी कुछ उसी तरह बढ़ती है, जैसी इस बार बढ़ी है।

आमतौर पर जिन इलाकों में बारिश होती है, वहां अनुकूल वातावरण मिलने से पेड़-पौधे और जंगली इलाके में झाड़ियों की भरमार हो जाती है। गर्मियों में झाड़ियां और घास-फूस सूख कर आग लगने का माहौल तैयार कर देते हैं। प्राकृतिक रूप से जंगलों में लगने वाली आग से वहां के पेड़-पौधों को निपटने का तरीका मालूम है। कहीं पेड़ों की मोटी छाल बचाव का काम करती हैं, तो कहीं आग लगने के बाद भी जंगल को फिर से फलने-फूलने आता है। अफ्रीका के सवाना जैसे घास के मैदानों में बार-बार आग लगती रहती है, लेकिन घास-फूस जल्दी जलने से आग का असर जमीन के अंदर, जड़ों तक नहीं पहुंचता। यही वजह है कि आग खत्म होते ही मैदान फिर से हरे हो जाते हैं। अगर घास-फूस में आग नहीं लगेगी, तो इसके विशाल बेर आगे चल कर बारूद का काम करते हैं।

हमारे देश के उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर के जंगलों की आग के पीछे भी कुछ ऐसे ही कारण हैं। यहां के जंगलों में चीड़ की बहुतायत है। जब चीड़ की पत्तियों के ढेर ज्यादा लग जाते हैं, तो जंगलों में जरा सी चिंगारी विशाल रूप ले लेती है। उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग के पीछे यही तथ्य बताया जाता है कि वहां हर साल करोड़ों टन चीड़ की सूखी पत्तियां जमा हो जाती हैं। सूखे मौसम में चीड़ की पत्तियों के ढेर किसी कारण आग पकड़ते हैं, तो यह प्रायः अनियंत्रित हो जाती है।

जंगल की आग बुझाने के तीन तरीके विशेषज्ञ सुझाते हैं। पहला, मशीनों से जंगलों की नियमित सफाई हो। सूखी पत्तियों और झाड़ियों को समय रहते हटाया जाए, लेकिन यह बेहद महंगा विकल्प है। दूसरा विकल्प यह सुझाया जाता है कि मानव आबादी के नजदीकी जंगलों में नियंत्रित ढंग से आग लगाई जाए, ताकि गर्म मौसम में वहां खुद कोई आग न भड़के। अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका समेत कई देशों में यही किया जा रहा है, लेकिन इसके लिए भी काफी संसाधन चाहिए। तीसरा यह है कि पर्वतीय इलाकों में पलायन रोक कर जंगलों पर आश्रित व्यवस्था को बढ़ावा दिया जाए। इससे जंगलों की साफ-सफाई होगी और आग के खतरे भी कम होंगे। अमेरिका के जिस इलाके में इस बार आग फैली है, अमीरों ने वहां की प्राकृतिक सुंदरता पर रीझ कर अपने आलीशान घर बनाए हैं। मगर इन लोगों की कोई भूमिका जंगलों की साफ-सफाई में रहती होगी, इसकी कोई सूचना नहीं है।

जहां तक हमारे देश की बात है, यहां नीति निर्माताओं और योजनाकारों ने जंगलों की आग की गंभीरता को ठीक से समझा नहीं है। इसलिए कहना मुश्किल है कि जंगल की आग को भड़कने से रोकने से संबंधित कोई भी तरीका उन्हें रास आएगा। ऐसे में इकलौता तरीका यही है कि सूचना मिलते ही विशालकाय बाल्टियों से लैस हेलिकाप्टर पानी के साथ दहकते जंगलों की तरफ रवाना किए जाएं। गांव, प्रशासन और सुरक्षा बल ऐसे नाजुक मौकों पर सजग रहें, लेकिन ये तरीके एक हद तक ही कारगर रहते हैं। अमेरिका में रोके नहीं रुक रही आग ने यह साबित कर दिया है।


Date: 18-01-25

युद्धविराम और शांति

संपादकीय

इस्राइल और हमास के बीच करीब 15 महीना से जारी युद्ध के बाद आखिरकार शांति समझौता हो गया जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने जब तक इस शांति समझौते का अनुमोदन नहीं किया था तब तक विश्व समुदाय में असमंजस की स्थिति बनी हुई थी। ऐसी अफवाहें थी कि इस्राइल के कुछ घुर दक्षिणपंथी नेता इस समझौते का विरोध कर रहे थे और प्रधानमंत्री नेतन्याहू इस दबाव में शांति समझौते का अनुमोदन करने के लिए कैबिनेट वोट में देरी की। खुशी की बात है कि उन्होंने समझौते का अनुमोदन कर दिया है और अब कैबिनेट से पारित हो जाएगा। हालांकि इस क्षेत्र की भू-रणनीति की स्थिति इतनी जटिल है जिसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि शांति समझौते की जमीन बहुत भुर भुरी है। आने वाला समय ही बता पाएगा कि क्या इस शांति

समझौते से अस्थाई शांति का रास्ता निकल पाएगा या नहीं। अमेरिका और कतर की मध्यस्थता में यह शांति समझौता संभव हो सका है, लेकिन विश्व समुदाय के नेताओं को इस समझौते को सफलतापूर्वक लागू करवाने के लिए और अधिक प्रयास करने की जरूरत है। दोनों युद्धरत देश के बीच युद्ध विराम के कई प्रयास पहले भी हुए हैं, लेकिन समझौते पर पारस्परिक सहमति न बनने के लिए जितना हमास के नेता जिम्मेदार हैं उससे कहीं अधिक प्रधानमंत्री नेतन्याहू है। समझौते के प्रावधानों के तहत शुरुआती छह सप्ताह तक युद्ध विराम रहेगा। इस दौरान हमास 33 इस्राइली बंधकों को रिहा करेगा। दूसरे चरण में सभी बंधकों की रिहाई हो जाएगी और अस्थाई शांति समझौता लागू हो जाएगा। इस दौरान गाजा से सभी इस्राइली सैनिकों की वापसी हो जाएगी। इस शांति समझौते को जमीन पर उतरने में अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप की बड़ी भूमिका है जिन्होंने चेतावनी दी थी कि उनके पद ग्रहण (20 जनवरी) से पहले बंधकों की रिहाई हो जानी चाहिए। गौरतलब है कि गाजा पर इस्राइल की सैनिक कार्रवाई में 46 हजार से ज्यादा लोग मारे गए। बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए की इस शांति समझौते के बाद विश्व समुदाय गाजा के पुनर्निर्माण में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेंगे और स्थाई शांति का हर संभव प्रयास करेंगे।


Date: 18-01-25

सैटेलाइट जोड़ने से अंतरिक्ष बाजार में बढ़ी भारत की साख

निरंकार सिंह, ( पूर्व सहायक संपादक, हिंदी विश्वकोशभारत )

भारत ने अंतरिक्ष में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के स्पैडेक्स मिशन ने ऐतिहासिक ‘डॉकिंग’ में सफलता हासिल की है। भारत यह उपलब्धि हासिल करने वाला अमेरिका, रूस और चीन के बाद चौथा देश बन गया है। इसरो ने पहले पृथ्वी की कक्षा में दो उपग्रहों को सफलतापूर्वक स्थापित किया, फिर दोनों को आपस में जोड़ दिया। यह एक बड़ी कामयाबी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वाभाविक ही इस ऐतिहासिक उपलब्धि के लिए इसरो को बधाई देते हुए कहा कि आने वाले वर्षों में भारत के महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष मिशनों के लिए यह एक महत्वपूर्ण कदम है।

इससे पहले 7 और 9 जनवरी को तकनीकी कारणों से इसे टाल दिया गया था। 12 जनवरी को इसरो ने एक परीक्षण किया, जिसमें उपग्रहों को तीन मीटर की दूरी तक लाया गया और फिर आगे के विश्लेषण के लिए उनको सुरक्षित दूरी पर ले जाया गया। इसरो ने स्पैडेक्स मिशन के तहत अंतरिक्ष में दो उपग्रहों को जोड़ने का चौथा प्रयास किया था, जो सफल रहा। इसरो ने अपने बयान में कहा कि दो उपग्रहों को जोड़ने के बाद, दोनों को एक ही वस्तु के रूप में नियंत्रित करने में उसे सफलता मिली है। आने वाले दिनों में उपग्रहों को अलग करने व विद्युत हस्तांतरण की जांच की जाएगी।

भारत ने यह मिशन पूरा करके शून्य गुरुत्वाकर्षण में जटिल तकनीकी उपलब्धि हासिल की है। इस ऐतिहासिक उपलब्धि के बाद इसरो ने सोशल मीडिया ‘एक्स’ पर अपने हैंडल से पोस्ट किया- ‘भारत ने अंतरिक्ष अभियान के इतिहास में अपना नाम दर्ज कर लिया है। इस क्षण का गवाह बनकर गर्व हो रहा है’। यह इसलिए भी बड़ी बात है, क्योंकि इससे पहले केवल अमेरिका, चीन और रूस ही अंतरिक्ष में सैटेलाइट डॉकिंग कर पाए हैं। अब भारत ने भी इस छोटी, लेकिन महत्वपूर्ण सूची में अपना नाम दर्ज करा लिया है।

वास्तव में, डॉकिंग बहुत ही जटिल प्रक्रिया होती है, जिसमें उपग्रहों को आगे-पीछे ले जाया जाता है, जिसे इसरो ने अंतरिक्ष में दो उपग्रहों के ‘रोमांचक हैंडशेक’ के रूप में वर्णित किया। यह तकनीक तब आवश्यक होती है, जब सामान्य मिशन के लिए कई रॉकेट लॉन्च करने की जरूरत पड़ती है। चूंकि यह एक कठिन प्रक्रिया है, इसलिए इसके लिए इसरो ने ट्रायल भी किए।इस मिशन की कामयाबी से चंद्रयान-4, गगनयान और भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन जैसे मिशनों की राह आसान हुई है।

चंद्रयान-4 मिशन में चंद्रमा की मिट्टी के सैंपल पृथ्वी पर लाए जाएंगे, वहीं गगनयान मिशन में इंसान को अंतरिक्ष में भेजा जाएगा। इसरो के लिए इस मिशन का सफल होना बहुत जरूरी था, क्योंकि इसका उपयोग उपग्रहों की सर्विसिंग, अंतरिक्ष स्टेशन संचालन और ग्रहों के बीच आपस में चल रहे मिशनों में खूब होता है। भारत की यह सफलता अंतरिक्ष में छिपे कई रहस्यों और जानकारियों के उद्घाटन में बहुत काम आएगी। उल्लेखनीय है कि इसरो ने पीएसएलसी-सी 60 की मदद से इन दोनों उपग्रहों को श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से लॉन्च किया था। रॉकेट ने उड़ान भरने के करीब 15 मिनट बाद 220 किलोग्राम वजन वाले इन दोनों उपग्रहों को 475 किलोमीटर ऊपर की कक्षा में स्थापित किया था।

तकनीकी दक्षता के साथ-साथ इस मिशन के जरिये भारत वैश्विक व्यावसायिक अंतरिक्ष बाजार में अपनी जगह सुनिश्चित कर रहा है। 2030 तक यह बाजार एक ट्रिलियन डॉलर का हो सकता है। फिलहाल इसमें भारत की हिस्सेदारी सिर्फ आठ अरब डॉलर की है। सरकार का लक्ष्य 2040 तक इसे बढ़ाकर 44 अरब डॉलर करना है। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ही सरकार ने श्रीहरिकोटा में तीसरे लॉन्च पैड के निर्माण को मंजूरी दी है। इस प्रोजेक्ट की लागत 3,985 करोड़ रुपये है और इसके 48 महीने में पूरा होने का अनुमान है। फिलहाल यहां दो लॉन्च पैड मौजूद हैं। नया लॉन्च पैड इन दोनों लॉन्च पैड से अधिक क्षमता वाला होगा। नए लॉन्च पैड को अंतरिक्ष क्षेत्र की भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बनाया जाएगा। इस पैड के बनने पर अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले सैटेलाइट और स्पेस्क्रॉफ्ट के प्रक्षेपण में तेजी लाई जा सकेगी। इससे भारत अपनी जरूरत के मिशन को अंजाम देने के साथ-साथ विश्व की मांग भी पूरी कर सकेगा। सरकार के ताजा फैसले से नई पीढ़ी के लॉन्च व्हीकल प्रोग्राम को आगे बढ़ाने में भी मदद मिली है।