
03-02-2025 (Important News Clippings)
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Budget Shield in a New Export Order
Editorial
The budget has brought labour-intensive export performance to the fore through customs duty rationalisation, credit support to small enterprise, a mission to negotiate the tariff and non-tariff barriers, and a review of non-financial regulation that stunts enterprises. Exports are vital to achieving 8% aspirational growth, and the policy interventions in the budget coincide with US efforts to set its trade balance in order. India is not among the first list of the US’ trading partners to face tariffs, but it has to prepare for the eventuality. Small exporters also need hand-holding over new sustainability requirements the EU has drawn up. Deleveraged corporate balance sheets allow for greater credit pass-through to MSMEs.
The interventions announced in the budget, however, could be overwhelmed by external developments. Donald Trump may insist on deeper import tariff roll-backs for India to secure a favourable position in manufacturing exports. His immigration policies could affect India’s software export earnings. The EU’s effort to stop carbon leakage will have an undue influence on textile, leather and toys exports. India’s trade promotion, on its part, must be sensitive to the likelihood of exporting scarce resources such as water through industrialisation. The MSME export sector is up against a challenging external environment even as internal conditions improve slowly.
The emphasis in the budget on small exporters addresses some of the imbalance in capital-intensive manufacturing exports subsidised by production incentives. This can deliver outsized dividends if India succeeds in capitalising on the changing dynamics of international trade. Alongside a stimulus for domestic consumption, the budget contains a fair bit for manufacturing for industry to recover from a slump.
Crisis in Congo
For peace, the country should take Tutsis into confidence
Editorial
The Democratic Republic of the Congo is no stranger to civil conflicts. But the latest advances made by M23, a rebel coalition, capturing the mineral-rich city of Goma, is a humiliating setback for the Congolese government, which had vowed to crush the rebellion in the east. M23, which takes its name from a failed peace agreement signed between a Tutsi-led rebel group and the Congolese government on March 23, 2009, claims it is fighting to protect the rights of Congo’s Tutsi ethnic minority. Congo and UN experts say neighbouring Rwanda, ruled by a Tutsi-led government, is backing M23. In 2012, shortly after it was founded, M23 seized much of Goma. But it withdrew as Rwanda came under international pressure. There was a short spell of calmness with M23 rebels agreeing to join the Congolese army in return for state protection for the Tutsis. But in 2021, the group took up arms again and started the latest spell of fighting. After Goma fell last week, Paul Kagame, Rwanda’s President, called for a ceasefire but with little impact. Congo, on the other side, has termed the fall of Goma “a declaration of war” and vowed a “vigorous military response”.
The crisis in Congo can be traced to the Rwandan genocide in 1994 in which about 8,00,000 people, mostly Tutsis, were massacred by ethnic Hutu militias. When tens of thousands of Hutus fled Rwanda for Congo in the mid-1990s after the fall of the genocidal regime in Kigali, Congo’s local Tutsis took up arms in ‘self-defence’. Rwanda has made military incursions into Congo in the past, accusing it of harbouring those who were complicit in the genocide. Today’s Rwanda is much stronger than what it was in 2012. Mr. Kagame, a former guerrilla leader, has modernised the economy and built a disciplined military. Rwanda has also developed close ties with western countries, who see Mr. Kagame as a force of stability in an unstable region as well as a major contributor of forces to UN missions. So, unlike in 2012, Mr. Kagame seems to be making his moves from a position of strength this time. The conflict has exposed Congo’s inherent vulnerabilities and Rwanda’s insecurities and ambitions. But it is also a testament to the unresolved ethnic anxieties of the region, 30 years after the genocide was brought to an end. The international community should push Mr. Kagame to rein in the rebels. Congo should also realise that for long-term peace, it should take action against the genocide-linked groups that operate from its soil and take the Tutsi minorities, for whom the memories of the massacre are still fresh, into confidence.
ट्रंप का टैरिफ वार
संपादकीय
आखिरकार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ वार शुरू कर दिया। उन्होंने पहले दी गई अपनी चेतावनी के अनुसार कनाडा, मेक्सिको और चीन से आयातित सामग्री पर आयात शुल्क बढ़ा दिया। जहां कनाडा और मेक्सिको पर 25-25 प्रतिशत आयात शुल्क लगाया गया वहीं चीन पर 10 प्रतिशत। यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने कनाडा और मेक्सिको की तुलना में चीन पर कुछ नरमी बरती। यह नरमी इसलिए एक पहेली जैसी है कि चीन तो अमेरिका के प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरा है और उसके वर्चस्व को कम करना चाहता है वहीं कनाडा और मेक्सिको अमेरिका के पड़ोसी हैं। इनमें भी कनाडा अमेरिका का खास सहयोगी रहा है। स्पष्ट है कि ट्रंप अमेरिका को फिर से महान बनाने के अपने अभियान के तहत निकटतम सहयोगियों पर भी कोई कृपा दिखाने को तैयार नहीं, लेकिन इसमें संदेह है कि ट्रंप ने जो टैरिफ वार शुरू किया है, उससे अमेरिका को लाभ ही लाभ होगा। पूरे आसार हैं कि इससे अमेरिका को नुकसान भी हो सकता है, क्योंकि अब कनाडा, मेक्सिको और चीन से आने वाला सामान महंगा हो जाएगा और इसके दुष्परिणाम अमेरिकी जनता को भोगने पड़ेंगे।
आश्चर्य नहीं कि ट्रंप के फैसले के जवाब में कनाडा ने भी अमेरिकी आयात पर अतिरिक्त शुल्क लगाने का फैसला किया और मेक्सिको तथा चीन ने भी जवाबी कार्रवाई करने की घोषणा की है। हो सकता है कि आगे चलकर अमेरिकी राष्ट्रपति इन तीनों देशों से अपने मन-मुताबिक समझौते करने में सफल हो जाएं, लेकिन भारत को सतर्क हो जाना चाहिए, क्योंकि वह भारत को टैरिफ किंग कहते रहे हैं। पिछले दिनों बजट के जरिये वित्त मंत्री ने आयातित मोटरसाइकिलों और अन्य वाहनों पर आयात शुल्क घटाया है, लेकिन देखना यह है कि ट्रंप इससे संतुष्ट होते हैं या नहीं। चूंकि अगले कुछ दिनों में भारतीय प्रधानमंत्री का अमेरिकी दौरा संभावित है इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि दोनों देश बातचीत के जरिये किसी सहमति पर पहुंचने में समर्थ होंगे। यदि भारत और अमेरिका के बीच आयात शुल्क को लेकर कोई सहमति बन जाती है तो इससे दोनों देशों को लाभ होगा। भारत की कोशिश बातचीत के जरिये समस्या के समाधान की होनी चाहिए, लेकिन बात तब बनेगी जब ट्रंप यह समझेंगे कि वह अमेरिका को आगे रखने के फेर में अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाने के साथ ही विश्व व्यापार में असंतुलन पैदा करने का ही काम करेंगे। अमेरिका एक प्रभावशाली राष्ट्र है और यदि वह अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखना चाहता है तो उसे एक जिम्मेदार देश की भूमिका का निर्वाह करना होगा। फिलहाल तो ट्रंप अहंकार प्रदर्शित कर रहे हैं। यदि वह यह चाह रहे हैं कि अमेरिका डालर के प्रभुत्व का अतिरिक्त लाभ उठाता रहे और फिर भी अन्य देश अपने व्यापारिक हितों की चिंता न करें तो यह संभव नहीं।
Date: 03-02-25
बजट में परमाणु ऊर्जा पर ध्यान
संपादकीय
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शनिवार को बजट में वर्ष 2047 तक कम से कम 100 गीगावॉट परमाणु ऊर्जा उत्पादन क्षमता हासिल करने की घोषणा की है। वित्त मंत्री ने बजट भाषण में कहा कि देश में ‘स्वच्छ ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाने के लिए यह आवश्यक’ है। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए परमाणु ऊर्जा मिशन के नाम से एक खास पहल की जाएगी जिसके लिए सरकार 20,000 करोड़ रुपये का प्रावधान करेगी। देर से ही सही मगर सरकार ने यह महसूस किया है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए देश के ऊर्जा स्रोतों में तत्काल विविधता लाने की जरूरत है। शहरीकरण की प्रक्रिया तेज होने, ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युतीकरण के गति पकड़ने और गर्मी में तापमान अत्यधिक बढ़ने से पिछले एक दशक के दौरान देश में बिजली की मांग खासी बढ़ गई है। फिलहाल देश में बिजली की कुल मांग का 89 प्रतिशत हिस्सा जीवाश्म ईंधन से आ रहा है। ऊर्जा के दूसरे वैकल्पिक स्रोतों जैसे सौर और पवन ऊर्जा की राह में तकनीकी एवं मूल्य नीतियों से जुड़ी बाधाएं सामने आ रही हैं। बजट में घोषित इस मिशन के अंतर्गत 2033 तक पांच छोटे आकार के मॉड्यूलर रिएक्टर (एसएमआर) का परिचालन शुरू करने का लक्ष्य तय किया गया है। ये सभी उच्च क्षमता वाले रिएक्टर होंगे जिनकी बिजली उत्पादन क्षमता 300 मेगावॉट (ई) प्रति यूनिट या परंपरागत परमाणु बिजली संयंत्रों की उत्पादन क्षमता की एक तिहाई होगी। पिछले महीने अमेरिका ने भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, इंदिरा गांधी परमाणु अनुसंधान केंद्र और इंडियन रेअर अर्थ्स लिमिटेड पर लगी पाबंदियां हटा दी थीं। भारत अमेरिका के इस कदम का तेजी से लाभ उठाना चाहता है।
भारत में वर्ष 2024 में 8.18 गीगावॉट परमाणु ऊर्जा का उत्पादन हुआ था जो वर्ष 2014 में दर्ज 4.78 गीगावॉट उत्पादन के दोगुने से थोड़ा ही अधिक था। अगले 22 वर्षों में 100 गीगावॉट परमाणु ऊर्जा का उत्पादन एक चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है। सरकार एसएमआर में निजी क्षेत्र से निवेश पर निर्भर दिखाई दे रही है। निजी क्षेत्र पर निर्भरता इस बात से भी झलकती है कि सरकार नियंत्रित भारतीय परमाणु ऊर्जा निगम लिमिटेड (एनपीसीआईएल) के लिए रकम का आवंटन वित्त वर्ष 2025-26 में 472 करोड़ रुपये घटा दिया गया है। सरकार ने परमाणु ऊर्जा विभाग का बजट भी 402 करोड़ रुपये कम कर दिया है। निजी क्षेत्र से निवेश स्वीकार करने की तत्परता दिखाने के लिए वित्त मंत्री ने घोषणा की है कि सरकार परमाणु ऊर्जा अधिनियम और परमाणु क्षति के लिए नागरिक उत्तरदायित्व अधिनियम (सीएलएनडीए) में संशोधन करेगी। पहले कानून में संशोधन के बाद भारत में परमाणु ऊर्जा उत्पादन में एनपीसीआईएल का बोलबाला खत्म हो जाएगा। संभव है कि सरकार उस शर्त का समाधान निकालने की कोशिश करेगी जिससे भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते के बाद दुनिया में निजी क्षेत्र की परमाणु ऊर्जा कंपनियां निवेश के लिए आगे नहीं आ रही हैं। इस समझौते के अंतर्गत किसी परमाणु दुर्घटना से हुए नुकसान की सूरत में आपूर्तिकर्ताओं और परिचालनकर्ताओं की जवाबदेही तय की गई थी।
एसएमआर तकनीक अपेक्षाकृत नई जरूर है मगर भारत छोटे रिएक्टर तैयार करने और इनका परिचालन करने में अपनी क्षमता की बखूबी नुमाइश कर चुका है। देश में स्थानीय स्तर पर तैयार एवं परिचालन करने वाले 22 परमाणु रिएक्टरों में से ज्यादातर की क्षमता रेटिंग 220 मेगावॉट (ई) है। भारत को परमाणु ऊर्जा से संचालित अपनी पनडुब्बी के लिए 85 एमडब्ल्यूई संयंत्र तैयार करने का भी अनुभव है। परमाणु ऊर्जा विभाग के अंतर्गत डिजाइन टीम एक मॉड्यूलर संयंत्र प्रक्रिया में देश के इस अनुभव का लाभ उठाने में जुटा हुई है। इससे निजी क्षेत्र की इकाइयों के साथ तकनीक साझा करने की संभावनाएं मजबूत हो रही हैं। रिएक्टर तेजी से स्थापित करने, लागत में कमी, सुरक्षा चाक-चौबंद रखने की ताकत और रिएक्टरों की स्थापना में लचीलापन जैसी खूबियां होने के बावजूद कई दूसरी तरह की बाधाएं एसएमआर से जुड़ी भारत की महत्त्वाकांक्षाओं की राह में अवरोध पैदा कर सकती हैं। इन बाधाओं में लाइसेंस देने की मौजूदा व्यवस्था और ग्रिड-पावर प्राइसिंग का पुराना झमेला भी शामिल हैं। ग्रिड-पावर प्राइसिंग की दिक्कत तीन दशकों से अधिक समय से बिजली उत्पादन इकाइयों को चोट पहुंचा रही है। अधिकांश विश्लेषकों को लगता है कि अगले 22 वर्षों में 100 गीगावॉट परमाणु बिजली क्षमता के विकास उत्पादन का लक्ष्य हासिल करना कठिन होगा।
नशे के खिलाफ
संपादकीय
भारत युवाओं का देश है। मगर जब बुनियाद ही खोखली होने लगे, तो देश के उज्ज्वल भविष्य के सामने एक बड़ी बाधा जरूर खड़ी हो जाती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान युवाओं के बीच जिस रफ्तार से मादक पदार्थों के सेवन की लत बढ़ी है, वह सभी के लिए चिंता का विषय है। मुंबई विश्वविद्यालय की 2019 की एक अनुसंधान रपट के अनुसार पचहत्तर फीसद युवा इक्कीस साल की उम्र से पहले ही नशे का सेवन कर लेते हैं। वहीं अठारह साल या इससे कम उम्र के बच्चे अलग-अलग नशा करते पाए गए हैं। बीते पांच वर्षों में यह आंकड़ा बढ़ा ही है। यह छिपा नहीं है कि किशोरों और युवाओं तक मादक पदार्थ किस तरह और किनके माध्यम से पहुंचते हैं। इसके बावजूद न तो नशे के सौदागरों के खिलाफ व्यापक स्तर पर कार्रवाई होती है और न ही युवाओं को नशे के जाल से निकालने के लिए ठोस उपाय किए जाते हैं। यहां तक कि सामाजिक और राजनीतिक संगठन भी आमतौर पर इसे आंदोलन का मुद्दा नहीं बनाते हैं। मगर हिमाचल प्रदेश में कुल्लू के आनी विधानसभा क्षेत्र में नशे के अधिक सेवन से एक युवक की मौत के बाद नागरिकों ने सड़क पर उतर कर और जन आक्रोश रैली निकाल कर पूरे देश के भविष्य के लिए एक सकारात्मक और उम्मीदों से भरा संदेश दिया है।
भारत के कई राज्यों खासकर उत्तर भारत में बड़ी संख्या में युवा नशे की गिरफ्त में हैं। ज्यादातर ऐसे युवक अपने स्वास्थ्य से तो खिलवाड़ करते ही हैं, वहीं गलत संगत में पड़ कर कभी-कभी अपराध भी कर बैठते हैं। अत्यधिक नशा हर दिन उन्हें मौत के करीब ले जाता है। उन्हें नशीले पदार्थ उपलब्ध न हों, यह सुनिश्चित करने की जवाबदेही किसकी है? कभी-कभी कुछ मात्रा में मादक पदार्थों की जब्ती होने की खबर आती है, लेकिन उसके सौदागर गिरफ्त में क्यों नहीं आते? नतीजा यह है कि मादक पदार्थों को खरीदने और बेचने का धंधा बदस्तूर चलता रहता है। इसलिए कुल्लू में लुहरी बाजार से उठी आवाज को ध्यान से सुनने और इस आक्रोश को समझने का यही वक्त है। इसमें महिलाएं बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। नशे के विरुद्ध इस तरह के जन-जागरण से ही देश के भविष्य को बचाया जा सकता है।
Date: 03-02-25
जीवन में संतुलन और काम की गुणवत्ता
सोनम लववंशी
कर्मचारियों के लिए सप्ताह में सत्तर और नब्बे घंटे काम करने की बहस के बीच इस बार के देश के बजट के पहले आर्थिक सर्वेक्षण में यह दावा किया गया कि हफ्ते में साठ घंटे से ज्यादा काम करने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। दरअसल, हाल में काम के घंटे और भारत में कार्य संस्कृति को लेकर एक बहस शुरू हो चुकी है। भारत में फैक्टरी कानून 1948 की धारा 51 के तहत किसी भी कर्मचारी से सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम कराना अवैध है। इसी कानून की धारा 55 में कहा गया है कि कोई कर्मचारी लगातार पांच घंटे से ज्यादा काम नहीं करेगा। यह प्रावधान कर्मचारियों की सुरक्षा और उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर बनाया गया है। इसी कानून के तहत पांच घंटे काम के बाद एक घंटे के विराम की व्यवस्था भी की गई है। इसके बावजूद, भारत में ज्यादातर कर्मचारी सप्ताह में औसतन 48 घंटे काम करते हैं, जो कई विकसित देशों की तुलना में अधिक है। फिर भी, भारत की उत्पादकता अपेक्षाकृत कम है। इसका मुख्य कारण है कि लंबे समय तक काम करने से कर्मचारियों की कार्यक्षमता और रचनात्मकता प्रभावित होती है।
दुनिया के विकसित देशों में काम के घंटे और कार्य- जीवन संतुलन को लेकर बेहतर नीतियां अपनाई गई हैं। जर्मनी में औसतन 35-40 घंटे का कार्य सप्ताह है वहां कर्मचारियों की उत्पादकता विश्व में सबसे अधिक है। स्वीडन में छह घंटे काम का चलन है, जिससे कर्मचारियों की उत्पादकता और संतुष्टि दोनों में वृद्धि हुई है। वहीं, जापान जैसे देशों में काम के अधिक दबाव के कारण मृत्यु की घटनाएं इस बात का उदाहरण हैं कि काम के घंटे बढ़ाने का निर्णय कर्मचारियों के लिए कितना घातक हो सकता है भारत में आलवेज आन’ की कार्य संस्कृति ने कर्मचारियों के व्यक्तिगत जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है। वर्तमान समय में डिजिटल तकनीक और ‘वर्चुअल मीटिंग’ ने काम और निजी जीवन को काफी हद तक प्रभावित किया है। ऐसे में, नब्बे घंटे काम करने की वकालत न केवल सवालों के घेरे में है, बल्कि यह कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है।
हमारे देश के अलग-अलग राज्यों में काम के घंटे तय करने के लिए ‘शाप्स एंड एस्टेब्लिशमेंट्स एक्ट’ भी बनाए गए हैं। यह कानून कार्यालयों, दुकानों और सेवा इकाइयों में काम करने वालों पर लागू होता है। इसके तहत काम के नौ घंटे तय किए गए हैं। हालांकि, यहां भी हर हफ्ते 48 घंटे से अधिक काम कराने की मनाही है। संयुक्त राष्ट्र की वर्ष 2021 की रपट की मानें, तो काम से जुड़ी चोटों और बीमारियों के कारण दुनिया भर में हर साल लगभग 20 लाख लोग अपनी जान गंवा बैठते हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि काम और जीवन के बीच संतुलन बनाए रखना बेहद जरूरी है। लंबे समय तक काम के दौरान बीच में थोड़ा विराम लेना चाहिए। इससे तनाव कम होता है। साथ ही प्रतिदिन व्यायाम को भी अपनी दिनचर्या में शामिल करना चाहिए। वहीं संतुलित और पोषक आहार भी जरूरी है। लंबे समय तक काम करने के क्रम में मधुमेह और सर्वाइकल संबंधी बीमारियां और लगातार बैठे रहने से रक्त से संचार कम होने की आशंका रहती है। इसके साथ ही, देर तक काम करने आंखों की रोशनी पर असर पड़ने का खतरा भी बढ़ जाता है। मनुष्य मशीन नहीं है। पशु को भी आराम की जरूरत होती है, तो फिर मनुष्य को क्यों नहीं मिलना चाहिए। बात अगर मशीनों की करें तो इसके रख-रखाव में और अधिक खर्च आता है। उन्हें भी बीच-बीच में बंद कर दिया जाता है। समय-समय पर उसकी ‘सर्विसिंग’ की जाती है। कंप्यूटर हो या एसी, लगातार चलते रहने से ये भी बंद हो जाते हैं। फिर हमारा शरीर और दिमाग कैसे लगातार काम करते रह सकते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर चिकित्सकों तक का कहना है कि सप्ताह में पैंतीस से चालीस घंटे से ज्यादा काम करने से न केवल सेहत खराब होती है, बल्कि कर्मचारियों की जान तक जा सकती है। उनकी क्षमता और उत्पादकता दोनों पर बुरा असर पड़ता है। इस विमर्श के बीच में आनंद महिंद्रा का वक्तव्य भी चर्चा में रहा। उनका मानना है कि काम के घंटे से कहीं ज्यादा ‘काम की गुणवत्ता और परिणाम अधिक महत्त्वपूर्ण हैं’। उन्होंने यह भी कहा कि काम का उद्देश्य केवल आर्थिक विकास नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि कर्मचारी संतुलित और खुशहाल जीवन जी सकें। इसके अलावा, यह भी देखा गया है कि जिन संस्थानों ने अपने कर्मचारियों को काम के लचीले घंटे और पर्यास आराम का अवसर दिया, वहां उनका प्रदर्शन बेहतर रहा है। काम के घंटे की इस बहस ने वेतन असमानता का मुद्दा भी उजागर किया है। ‘आटोनामी’ की एक रपट के मुताबिक, कृत्रिम मेधा (एआइ) आने के बाद ब्रिटेन में 88 फीसद कंपनियां अपने कर्मचारियों के काम के घंटे दस फीसद तक कम कर रही हैं। यानी दुनिया में काम के घंटे कम करने की दिशा में पहल की जा रही है। जबकि हमारे देश में जहां काम के घंटे पहले से ही ज्यादा हैं, उन्हें बढ़ाने की वकालत की जा रही है। देश में बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई के चलते मजदूर वर्ग की मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश की जा रही है।
हमारे संविधान की प्रस्तावना में हर व्यक्ति की गरिमा की बात कही गई है। मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्वों में इसकी स्पष्ट व्याख्या की गई है। अनुच्छेद 42 जहां काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं के लिए राज्य की जवाबदेही तय करता है, वहीं अनुच्छेद 43 मजदूरों को काम बेहतर जीवन स्तर के साथ ही अवकाश की संपूर्ण सुविधा सुनिश्चित करने और सामाजिक तथा सांस्कृतिक अवसर प्राप्त करने के लिए राज्य की जिम्मेदारी मानता है। ऐसे में राज्य सरकारों का यह दायित्व बनता है कि वह अपने कर्मचारियों और मजदूर वर्ग का पूरा ध्यान रखें। उनका भी यह दायित्व बनता है कि एआइ के दौर में जब दुनिया बड़े पैमाने पर बेरोजगारी के खतरे का सामना कर रही है, ऐसे में काम के घंटे बढ़ाने से बेरोजगारी और भी बढ़ेगी।
आज के समय में, जब तकनीकी प्रगति ने काम को आसान बना दिया है, तब हमें ‘काम के घंटे’ की बजाय ‘काम के परिणामों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह समझना होगा कि लंबे समय तक काम करने से उत्पादकता नहीं बढ़ती, बल्कि काम की गुणवत्ता और कर्मचारियों की संतुष्टि पर ध्यान देना भी जरूरी है। अब समय आ गया है कि हम अपनी कार्य संस्कृति पर पुनर्विचार करें। इसे संतुलित बनाएं। काम का उद्देश्य केवल परिणाम देना नहीं है, बल्कि कर्मचारियों को सार्थक और खुशहाल जीवन जीने का अवसर प्रदान करना भी है। एक स्वस्थ और संतुलित कार्य संस्कृति न केवल कर्मचारियों की भलाई के लिए, बल्कि देश और समाज की प्रगति के लिए भी अनिवार्य है। इसलिए जरूरी है कि पहले काम के तरीके और गुणवत्ता को सुधारा जाए। तभी हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं, जहां कर्मचारी और संस्थान दोनों अपनी पूरी क्षमता का उपयोग कर सकेंगे और खुशहाल तथा संतुलित जीवन जी सकेंगे।
एआई क्रांति
संपादकीय
कृत्रिम बुद्धिमत्ता के नए एप डीपसीक का भारत में सर्वाधिक डाउनलोड होना कतई नहीं चौंकाता। वैसे तो पूरी दुनिया में डीपसीक संबंधी मोबाइल एप को डाउनलोड किया जा रहा है, लेकिन भारत में सर्वाधिक लगभग 16 प्रतिशत डाउनलोड हो चुके हैं। भारत में अत्यधिक डाउनलोड स्वाभाविक भी है, क्योंकि भारत आबादी के हिसाब से दुनिया में सबसे अग्रणी है। यहां संख्या के लिहाज से शिक्षित लोगों की संख्या भी चीन के बाद सबसे ज्यादा है। युवा बहुल भारत में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के प्रति जिज्ञासा भी बहुत ज्यादा है, लोग नई-नई तकनीक को आजमाने या अपनाने में आगे रहते हैं। ऐसे में, डीपसीक का भारत में सर्वाधिक डाउनलोड होना स्वाभाविक है। चीनी एआई चैटबॉट डीपसीक विशेष कौतूहल का विषय बना हुआ है, तो इसका सबसे बड़ा कारण इसकी तीव्र गति है। पहले से जो एआई एप उपलब्ध हैं, उनसे कहीं ज्यादा तेजी से यह काम करता दिख रहा है। यदि यही तेजी बनी रहती है, तो एआई की दुनिया में डीपसीक के वर्चस्व का कोई विकल्प नहीं होगा। बेशक, डीपसीक से भी ज्यादा सक्षम एआई का आगमन होगा, लेकिन तब तक डीपसीक का ही राज चलेगा।
आंकड़े बताते हैं कि डीपसीक को जितने समय में 160 लाख बार डानउलोड किया गया है, उतने ही समय में ओपनएआई के चैटजीपीटी को 90 लाख बार डाउनलोड किया गया था। डीपसीक के दोगुने डाउनलोड के पीछे और भी कारण होंगे, पर इसके पीछे एक बड़ा कारण सूचनाओं का विस्तार भी है। आप गलत शब्द के साथ एक सवाल पूछते हैं और डीपसीक न केवल आपके भाव को समझता है, वह शब्द को सही भी करता है और पलक झपक विस्तार विभिन्न स्रोतों से सूचनाएं जुटाते हुए सामने पेश कर देता है। आधिकारिक तौर पर केवल चीन, अमेरिका और वियतनाम में उपलब्ध होने के बावजूद डीपसीक को वैश्विक बाजारों में तेजी से अपनाया जाना प्रभावशाली है, खासकर यह देखते हुए कि इसने न्यूनतम विज्ञापन के साथ कामयाबी हासिल की है। 26 जनवरी को ही डीपसीक एप ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचकर अपनी जोरदार मौजूदगी दर्ज करा दी है। इस अभूतपूर्व कामयाबी पर वैश्विक तकनीकी कंपनियों की ओर से सुखद प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, जिससे एआई की दुनिया में मानो एक नई क्रांति का एहसास हो रहा है। डीसी के साथ मुकाबले के लिए अब चैटजीपीटी को बड़े पैमाने पर निवेश और नवाचार की जरूरत पड़ेगी। इस दिशा में चैटजीपीटी ने प्रयास तेज कर दिए हैं। डीपसीक तो अभी नई कंपनी है, लेकिन चैटजीपीटी का मूल्यांकन जल्दी ही 340 अरब डॉलर होने जा रहा है, इससे सहज ही यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि दुनिया में एआई का बाजार किस तेजी से बढ़ रहा है।
बहरहाल, एआई की दुनिया में आज भारत कहां खड़ा है ? क्या हम केवल उपभोक्ता बने रहेंगे? क्या यहां ऐसी कंपनियां नहीं हैं, जो एआई पर विश्वस्तरीय काम कर रही हो? हम डाटा सुरक्षा की चिंता कर रहे हैं, पर क्या दिग्गज एआई कंपनियों से अपने डाटा को बचा पाएंगे? अपने डाटा की सौ फीसदी सुरक्षा हमारे लिए संभव नहीं है और ऐसा करना भी नहीं चाहिए। हां, सरकार अपना गोपनीय डाटा संभाले और लोग भी अपनी गोपनीयता की रक्षा कर सकें, इसका प्रबंध पुख्ता होना चाहिए। एआई की तेज तरक्की को रोका नहीं जा सकता और एक शुद्ध सक्षम भारतीय एआई की उम्मीद हम अवश्य कर सकते हैं।
Date: 03-02-25
मध्यवर्ग को मजबूती देगा यह बजट
आलोक जोशी, ( वरिष्ठ पत्रकार )
यह बिहार का बजट है। यह दिल्ली वालों का बजट है। यह मध्यवर्ग का बजट है। यह समझदारी का बजट है। यह भारत की तरक्की का बजट है। आप इनमें से जो चाहें, वह विशेषण इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्द उधार लें, तो फिर मानना पड़ेगा कि इस बजट में देश के मध्यवर्ग पर मां लक्ष्मी की कृपा हुई है। इससे देश के 80 प्रतिशत आयकर दाताओं को फायदा होने का अनुमान है।
बजट से पहले अनुमान लगाया जा रहा था। बहुत से खबरनवीस पक्की जानकारी लाए थे। अर्थशास्त्रियों से लेकर इंडस्ट्री के संगठनों तक ने सिफारिश की थी, मगर तब भी सुनने वालों को यकीन नहीं हो पा रहा था। बजट भाषण की शुरुआत में जिस अंदाज में बिहार पर कृपा बरसी उसके बाद लगा कि शायद मायूसी हाथ लगेगी। मगर इनकम टैक्स का जिक्र हुआ और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एलान किया कि अगले हफ्ते डायरेक्ट टैक्स कोड संसद में रखा जाएगा, इसके बाद तो सुनने वालों को लगभग यकीन हो गया कि इनकम टैक्स का मामला अब बट्टे खाते में गया। फिर वित्त मंत्री ने कहा कि पर्सनल इनकम टैक्स का जिक्र वह अंत में करेंगी।
इंतज़ार बहुत लंबा नहीं था। करीब एक घंटे चौदह मिनट के बजट भाषण के अंत में वित्त मंत्री ने जैसे ही इनकम टैक्स में बदलाव का एलान किया कि मानो चारों ओर बहार आ गई। खासकर सरकारी और निजी दफ्तरों में, जहां भी अनेक लोग साथ बैठकर बजट सुन रहे थे, वहां एकदम वन डे मैच की जीत जैसा माहौल बन गया। काफी लंबे इंतजार के बाद आखिरकार इस बार वित्त मंत्री ने मध्यवर्ग की सुन ली 12 लाख रुपये तक की सालाना कमाई अब टैक्स फ्री होगी। मध्यवर्ग की कमाई, महंगाई का हाल और बड़े शहरों के किराये या घरों की कीमत देखते हुए बहुत से लोगों को शायद यह बड़ी बात न लग रही हो। इसलिए भी, क्योंकि बहुत से लोग पंद्रह लाख रुपये तक की सालाना कमाई पर टैक्स छूट की मांग कर रहे थे, लेकिन यह जानना और समझना जरूरी है कि यह लिमिट सात लाख से बढ़ाकर सीधे 12 लाख रुपये की गई है, यानी 70 फीसदी से ज्यादा।
और यह भी समझ लेना चाहिए कि इनकम टैक्स भरने वालों के लिए यह 1997 के बाद की सबसे बड़ी सौगात है। साल 1997 का बजट तब के वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने पेश किया था और आज तक उसे ‘ड्रीम बजट’ कहा जाता है। तब वित्त मंत्री ने इनकम टैक्स की सबसे ऊंची दर को 40 प्रतिशत से घटाकर 30 प्रतिशत किया था, जो बहुत बड़ा फैसला था ।
इस बार अपने आठवें बजट में सीतारमण ने लगभग वैसा ही काम किया है। 12 लाख रुपये सालाना या एक लाख रुपये महीना कमाने वालों को लगभग 30,000 रुपये का फायदा होगा। वेतनभोगी कर्मचारियों को 75,000 रुपये के स्टैंडर्ड डिडक्शन का फायदा भी मिलेगा, यानी उनकी 12.75 लाख रुपये तक की कमाई टैक्स फ्री हो जाएगी। अलग- अलग स्लैब पर कितनी बचत होगी, इसका हिसा भी सामने आ चुका है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ 12 लाख रुपये तक की कमाई वालों को ही राहत मिली है। 20 से 24 लाख सालाना कमाने वालों के लिए भी एक नया टैक्स स्लैब आ गया है। इन लोगों के इनकम टैक्स की दर अब 25 प्रतिशत होगी, यानी उन्हें बीस से चौबीस लाख रुपये के बीच की कमाई पर पांच फीसदी कम टैक्स भरना होगा। और सालाना दो करोड़ रुपये से ज्यादा कमाने वालों को भी एक राहत दी गई है। उन्हें इनकम टैक्स पर जो सरचार्ज भरना पड़ता है, उसका रेट कम करके पच्चीस प्रतिशत कर दिया गया है।
कहा जा सकता है कि मध्यवर्ग के लिए वित्त मंत्री ने अपनी झोली खोल दी है। उन्होंने बताया भी है कि आयकर में इस राहत से सरकारी खजाने पर एक लाख करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहें, तो उन्होंने मध्यवर्ग को एक लाख करोड़ रुपये का सीधा तोहफा दिया है, लेकिन इस तोहफे के साथ कुछ किंतु- परंतु भी जुड़े हैं। सबसे पहले तो यह साफ रहे कि 12
लाख रुपये की टैक्स फ्री कमाई के लिए इनकम टैक्स के नए रिजीम यानी नई कर प्रणाली से जुड़ना जरूरी होगा। अगर आप पुरानी रिजीम से रिटर्न भरना चाहते हैं, तो आपको पुराने स्लैब और पुराने रेट पर ही टैक्स भरना पड़ेगा। वित्त मंत्री पुरानी टैक्स व्यवस्था को खत्म करना चाहती हैं और 80सीसी यानी बीमा या निवेश के जरिये टैक्स में मिलने वाली राहत का फायदा लेने वालों को यह नई टैक्स छूट नहीं मिल पाएगी।
दूसरी और ज्यादा बड़ी बात यह है कि वित्त मंत्री ने आखिर टैक्स से होने वाली कमाई में से करीब एक लाख करोड़ रुपये का त्याग करने का फैसला क्यों किया? उसकी वजह साफ है। अर्थव्यवस्था में रफ्तार लाने के तमाम तरीके उतने कारगर होते नहीं दिख रहे, जिसकी जरूरत है। चालू वित्त वर्ष में सरकार को इन्फ्रास्ट्रक्चर या पूंजी निर्माण पर जितना खर्च करना था, वह लक्ष्य भी पूरा हो नहीं पाया है और निजी क्षेत्र आगे बढ़कर कारोबार में नया पैसा लगाए, इसके लिए माहौल बनता नहीं दिख रहा। ऐसे में, सरकार को लग रहा है कि अगर वह मध्यवर्ग के हाथ में कुछ पैसा डाल दे या कम से कम उनकी कमाई से जो हिस्सा टैक्स के रूप में लिया जाता है, वही कम कर दे, तो काम बन सकता है।
काम ऐसे बनेगा कि जब लोगों को टैक्स कम भरना पड़ेगा, तो फिर वे इस बची रकम को खर्च करेंगे। कुछ जरूरी चीजों पर और कुछ अपने शौक पूरे करने के लिए। इन दोनों का ही असर होगा कि बाजार में बिक्री बढ़ेगी, कारोबारियों का काम तेज होगा, अर्थव्यवस्था में जान आएगी और उसकी रफ्तार तेज होगी। अर्थव्यवस्था में रफ्तार तेज होने का एक असर यह भी होगा कि दूसरे रास्ते से यानी जीएसटी और कॉरपोरेट टैक्स के मोर्चे पर सरकार की कमाई बढ़ेगी। ऐसा नहीं है कि इनकम टैक्स की सारी रकम घूमकर उसके पास आ जाएगी। जब अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ेगी, तो फिर लोगों की कमाई भी बढ़ेगी और उसके साथ ही, इनकम टैक्स वसूली भी।
कान घुमाकर पकड़ने जैसी बात है, मगर अर्थव्यवस्था ऐसे ही चलती या चलाई जाती है। इस बार के बजट में खासकर मध्यवर्ग के लिए तो इनकम टैक्स का यह एलान ही है। आज शायद बात अटपटी लगे, लेकिन कुछ साल बाद इस बजट को इस फैसले के लिए ही याद किया जाएगा।