18-01-2019 (Important News Clippings)
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Date:18-01-19
न्यायपालिका में नियुक्तियों पर विवाद चिंताजनक
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट में कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिनेश माहेश्वरी और दिल्ली हाई कोर्ट के जज संजीव खन्ना की नियुक्ति पर उठा विवाद न्यायपालिका की निष्पक्ष छवि पर संदेह उत्पन्न कर रहा है। इस बारे में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जज संजय कौल, दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज एसएन धींगरा और बार कौंसिल के पदाधिकारियों ने पत्र लिखकर प्रतिरोध जताया है वह चिंताजनक है। आपत्तियां न्यायमूर्ति माहेश्वरी और न्यायमूर्ति खन्ना की योग्यता को लेकर नहीं है। आपत्तियां उनकी वरिष्ठता के बारे में है। जब उनसे ज्यादा वरिष्ठ जज मौजूद हैं तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट तक लाने में इंतजार करवाया जा सकता था। आपत्ति उससे भी ज्यादा 12 दिसंबर के उस फैसले को पलटे जाने से है जिसमें राजस्थान हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन और दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नंदराजोग को सुप्रीम कोर्ट में लाने का निर्णय लिया गया था। इस बात को कॉलेजियम के पूर्व सदस्य और हाल में ही रिटायर हुए न्यायमूर्ति मदन लोकुर ने कुछ लोगों को बता भी दिया था कि नंदराजोग और मेनन के नामों पर निर्णय हो चुका है। कहा गया है कि दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति नंदराजोग की अध्यक्षता वाली बेंच ने एक ऐसा फैसला दिया, जिसमें 2013 के एक आलेख के 35 पैरा हूबहू उतार लिए गए। उन्होंने माना भी है कि यह क्लार्क की गलती से हुआ।
इस बात को नई कॉलेजियम के सदस्य न्यायमूर्ति अरुण मिश्र ने गंभीरता से उठाया और इसके कारण नंदराजोग का नाम हटाया गया। जबकि आपत्ति उठाने वालों का कहना है कि कर्नाटक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिनेश माहेश्वरी की भी न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने कड़ी आलोचना की थी। संजीव खन्ना अच्छे जज होने के साथ उन मशहूर न्यायमूर्ति एचआर खन्ना के भतीजे हैं, जिन्होंने आपातकाल के विरोध का अकेले साहस दिखाया था। इन नामों को तत्काल अंतिम रूप देने के पीछे न्यायपालिका में जजों की कमी भी बताई जा रही है। इसके बावजूद लगता है कि सारी आपत्तियों का समुचित उत्तर मिलना अभी बाकी है। हाल में न्यायमूर्ति एके सीकरी ने जब कामनवेल्थ की नियुक्ति से नाम वापस लिया तब भी एक विवाद हुआ था। इससे पहले मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर और कार्यपालिका के विवाद में कॉलेजियम की लाचारी दिख चुकी है। ऐसे में संवैधानिक संस्थाओं का दायित्व बनता है कि वे निष्पक्षता और स्वायत्तता बरकरार रखें।
Date:18-01-19
‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ : सुखद घटना
मनप्रीत बादल
अगर मनमोहन सिंह ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ थे तो फिर मुझे कहना होगा कि यह एक सुखद और गंभीर घटना थी। वास्तव में उनका जीवन भारत के लोगों विशेषकर युवाओं के लिए महान सबक और प्रेरणा प्रदान करता है। मनमोहन सिंह का प्रारंभिक जीवन एक ऐसे लड़के की कहानी है जिसने अपनी मां को कम उम्र में खो दिया था और जिसका परिवार विभाजन से विस्थापित हो गया था। उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले वह अपने परिवार में शायद पहले सदस्य थे। लगभग हर परीक्षा में वह अव्वल रहे। कैंब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन करने के लिए उन्होंने छात्रवृत्ति हासिल की जहां उन्होंने प्रसिद्ध एडम स्मिथ (पिछले विजेताओं में जेएम कीन्स) सहित कई पुरस्कार जीते।
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ फिलोसॉफी हासिल करने के बाद वह आधुनिक युग के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों में से एक के रूप में दुनिया भर में पहचान बनाते गए। भाजपा की ‘प्रचार मशीन’ द्वारा प्रसारित की जा रही अतिरंजित कथाओं की अपेक्षा उनकी यह उपलब्धि भरी कहानी निश्चित रूप से आज की युवा पीढ़ी के लिए कहीं अधिक प्रेरणादायी है। अपने पूरे जीवन में मनमोहन सिंह ने कभी भी किसी पद के लिए इच्छा नहीं जताई। प्रधानमंत्री जैसे किसी बड़े सार्वजनिक कार्यालय की महत्वाकांक्षा भी उनकी कभी नहीं रही।
लेकिन जब भी कभी देश को जरूरत पड़ी तो यह मृदुभाषी, प्रतापी देशभत न केवल आगे आया, बल्कि अपने कर्तव्य से बढ़कर भी कार्य किया। वह चाहे भारतीय शिक्षण संस्थानों के लिए उनका योगदान हो या सरकारी संस्थानों के लिए बतौर सलाहकार विभिन्न भूमिकाएं रही हों या फिर रिजर्व बैंक के सलाहकार के रूप में उनका कार्यकाल, उन्होंने परिश्रम और लगन से कार्य करते हुए ईमानदारी के उच्चतम मानक स्थापित किए हैं।जब भारतीय अर्थव्यवस्था गर्त की ओर जा रही थी और आइजी पटेल ने वित्त मंत्रालय के सामने हाथ खड़े कर दिए थे तो पूर्व मंत्री नरसिम्हा राव ने देश को आर्थिक संकट से बचाने के लिए मनमोहन सिंह की ओर रुख किया। जिस नॉर्थ ब्लॉक में अव्यवस्था और असमंजस की स्थिति बरकरार थी, वहां नए वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने सकारात्मक तरीके से सही दिशा में काम शुरू किया। आर्थिक सुधारों को शुरू करते हुए उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था की तमाम बुराइयों को उखाड़ फेंका। वह इस बात के प्रति सचेत थे कि यह कार्य अधूरा नहीं रहना चाहिए। उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था की ओवरहॉलिंग का बीड़ा उठाया।
उनके प्रयासों से देश को गौरव और समृद्धि मिली, जिसका आनंद हम आज ले रहे हैं। एक प्रधानमंत्री के रूप में भी मनमोहन सिंह का योगदान असाधारण रहा। भारतीय जनता पार्टी के हालिया आंकड़े इस तथ्य को झुठला नहीं सकते कि एनडीए के शासनकाल के दौरान इस सदी के आरंभिक दौर में छद्म ‘इंडिया शाइनिंग’ अभियान की अपेक्षा मनमोहन सिंह के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रगति कहीं ज्यादा सही और समावेशी थी। मनमोहन सिंह की नीतियों की वजह से ‘मनरेगा’ जैसी योजना के परिवर्तनकारी प्रभाव रहे जो विशेष रूप से ग्रामीण भारत में वास्तविक मजदूरी और खर्च करने की शति के संदर्भ में सामने आए। भारत-अमेरिका परमाणु समझौते की सफलता ने भारत के परमाणु अलगाव को समाप्त कर दिया। उन्होंने दूरसंचार और हवाई यात्रा को आम आदमी के लिए सुलभ करा दिया। लंबे समय से व्याप्त पोलियो जैसी बड़ी स्वास्थ्य समस्या को दूर करने के लिए देशव्यापी कार्यक्रम की शुरुआत की गई। शहरी नवीनीकरण योजनाएं बनीं। नए आइआइटी, आइआइएम के अलावा नॉलेज सिटी का निर्माण हुआ। जीएसटी के अलावा खुदरा और बीमा सुधारों का ब्लू प्रिंट मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही तैयार किया गया। सबसे महत्वपूर्ण रहा सरकार के साथ नागरिकों का संपर्क और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए आरटीआइ को शुरू करना। ये सभी वास्तविक उपलब्धियां हैं केवल नारेबाजी नहीं।
एक वह ‘एसीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ हैं जिनकी वजह से बढिय़ा जीडीपी हासिल हुई और कई संस्थानों की स्थापना हुई, दूसरी ओर वह प्रधानमंत्री जिन्होंने जानबूझकर नोटबंदी जैसी दुर्घटनाएं करवाईं और देश के शीर्ष संस्थानों को कमजोर कर दिया। जैसे-जैसे 2019 के लोकसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, भाजपा ने फिर से गांधी परिवार को निशाना बनाने के लिए पुराने हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए हैं। वह एक ऐसे आडंबरी अधिकारी के संस्मरणों पर आधारित फिल्म को बढ़ावा दे रही है जो व्यावसायिक शुचिता से ज्यादा अपनी निजी अहमियत को आंकता था। हैरानी होती है कि दस साल के कार्यकाल में भी जो केवल चार साल मीडिया सलाहकार रहा, या वह वाकई इतना प्रभावशाली था कि प्रधानमंत्री कार्यालय के सभी गोपनीय मामलों की उसे जानकारी होती थी। सिंह ने इस विवाद से खुद को जिस विनम्र भाव और प्रतिष्ठा के साथ अलग कर लिया है वह सर्वोत्कृष्ट है।
दूसरी ओर पुस्तक के लेखक और फिल्म के निर्माताओं के प्रति कड़ा रुख अपनाया जाना चाहिए। कोई यह मान लेगा कि लोग अपनी गलतियों से सीखते हैं, लेकिन यह भाजपा के लिए सही नहीं है। वर्ष 2004 के चुनावों में भाजपा के कुछ वर्गों ने सोनिया गांधी पर सियासी हमला किया और उनके भारत का प्रधानमंत्री होने के अधिकार पर सवाल उठाया, जबकि उनके नेतृत्व में यूपीए ने निर्णायक जनादेश हासिल किया था। सोनिया गांधी द्वारा देश की सबसे बड़ी जिम्मेदारी वाला पद छोडऩे के कारण भाजपा बेचैन हो गई थी। उपलब्धियों वाले जीवन, बेदाग छवि और सद्चरित्र व्यति को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित करके उन्होंने देश को एक महान नेता दिया। पिछले पांच वर्षों में अपने खराब प्रदर्शन और हाल के चुनावी झटके से घबराई भाजपा अब उम्मीद कर रही है कि ‘मुर्गा और बैल, की एक कहानी उसे 2019 के चुनावों में काफी फायदा पहुंचा सकती है, लेकिन यह उसके लिए दुर्भाग्य की बात है कि कल्पनाओं में किए गए कार्यों के आधार पर भारतीय मतदाता वोट नहीं देता।
Date:18-01-19
नियुक्ति का पैमाना
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के पुलिस महानिदेशकों यानी डीजीपी की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की मांग वाली याचिकाओं को खारिज करके सही ही किया। डीजीपी की नियुक्ति में स्थानीय कानूनों को महत्व देने की मांग का औचित्य इसलिए नहीं बनता, क्योंकि ऐसे कानून सत्तारुढ़ राजनीतिक दलों को मनमानी करने का ही मौका अधिक देते हैं। इस महत्वपूर्ण पद पर नियुति तो वरिष्ठता और काबिलियत के आधार पर ही होनी चाहिए। बेहतर हो कि डीजीपी की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की मांग वाली याचिकाएं दाखिल करने वाले हरियाणा, पंजाब, बिहार, पश्चिम बंगाल और केरल की सरकारें यह समझें कि सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस महानिदेशकों की नियुति प्रक्रिया के नियम इस उद्देश्य से तय किए थे ताकि पुलिस के काम में राजनीतिक दखलंदाजी रोकी जा सके। इन नियमों के तहत सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि संघ लोक सेवा आयोग वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का एक पैनल तैयार करेगा और राज्य सरकारें इस पैनल में से ही किसी को डीजीपी बना सकती हैं। समझना कठिन है कि राज्य सरकारों को ऐसा करने में या समस्या है? उनकी समस्या जो भी हो, केवल इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट डीजीपी की नियुति संबंधी अपने आदेश के पालन को लेकर प्रतिबद्ध दिख रहा है, क्योंकिपुलिस सुधार संबंधी उसके अन्य दिशा निर्देशों पर अभी भी पालन होता नहीं दिख रहा है। डीजीपी की नियुति प्रक्रिया तो उसके सात सूत्रीय दिशा निर्देशों में से एक का ही हिस्सा है। आखिर इसकी सुध कब ली जाएगी कि शेष दिशा निर्देशों पर भी अमल हो? नि:संदेह यह सवाल सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ केंद्र सरकार से भी है,क्योंकि अभी तक आदर्श पुलिस अधिनियम भी अस्तित्व में नहीं आ सका है।
ध्यान रहे कि इस अधिनियम का मसौदा भी 2006 में तैयार हुआ था और सुप्रीम कोर्ट के सात्र सूत्रीय दिशा निर्देश भी इसी साल सामने आए थे। यह ठीक नहीं कि जैसे राज्य सरकारें पुलिस सुधारों को लेकर अनिच्छा प्रकट कर रही हैं वैसे ही केंद्र सरकार भी। यदि यह समझा जा रहा है कि केवल डीजीपी की नियुति में राजनीतिक दखलंदाजी रोकने से पुलिस की कार्यप्रणाली और उसकी छवि में सुधार आ जाएगा तो यह सही नहीं। पुलिस की कार्यप्रणाली तो तब सुधरेगी जब थाना स्तर के पुलिस अधिकारियों के काम में भी अनुचित राजनीतिक दखलंदाजी को रोकने के साथ ही यह सुनिश्चित किया जाएगा कि पुलिस नियम-कायदे से काम करे। बगैर यह सुनिश्चित किए बात बनने वाली नहीं है, भले ही डीजीपी की नियुति सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय प्रक्रिया के हिसाब से होने लगे। यह एक विडंबना ही है कि पुलिस सुधार संबंधी सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश 12 साल बाद भी अमल से दूर हैं। यह स्थिति तो यही बताती है कि सुप्रीम कोर्ट भी अपने आदेश पर अमल कराने में सक्षम नहीं। स्पष्ट है कि एक ओर जहां सुप्रीम कोर्ट को यह देखना चाहिए कि पुलिस सुधारों संबंधी उसके आदेश पर सही तरह अमल हो वहीं केंद्र और राज्य सरकारों को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पुलिस की कार्यप्रणाली बदले। वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकतीं कि आम आदमी पुलिस की कार्य प्रणाली से संतुष्ट नहीं।
Date:18-01-19
जजों की नियुक्ति का जटिल सवाल
प्रो. मक्खनलाल, (लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट, दिल्ली के संस्थापक निदेशक हैं)
हाल में सुप्रीम कोर्ट में दो जजों की नियुक्ति के बाद कोलेजियम व्यवस्था एक बार फिर सवालों से दो-चार है। इस व्यवस्था पर विचार करने से पहले यह जानना जरूरी है कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने ऐसा क्या कुछ किया कि मौका मिलने पर न्यायाधीशों ने अदालती निर्णयों के माध्यम से सरकार से काफी कुछ न केवल छीन लिया, बल्कि जजों की नियुक्ति के मामले में शासन और प्रशासन के हाथ भी बिल्कुल बांध दिए। आपातकाल के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी ने उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को प्रताड़ित, अपमानित एवं भयभीत करने के लिए स्थानांतरण प्रक्रिया अपनाई। हालांकि पहले भी उनके स्थानांतरण हुए थे, किंतु वे सब जजों के निवेदन और उनकी सहमति से हुए थे। आपातकाल में जबरन स्थानांतरण किए गए और अधिकतर उन जजों के जिन्होंने आपातकाल या उससे पहले सरकार की मर्जी के खिलाफ फैसले दिए थे। पहली किस्त में जिन 16 जजों के स्थानांतरण किए गए, उनमें बंगलौर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश चंद्रशेखर एवं सदानंद स्वामी थे, जिन्होंने लालकृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते आदि की याचिकाएं सुनी थीं।
इसी तरह मध्य प्रदेश के एपी सेन थे, जिन्होंने बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका सुनी थी। मनमाने स्थानांतरण को लेकर जजों की असहमति पर उन्हें परोक्ष तौर पर अपमानित किया गया। इस पर कभी इंदिरा गांधी की ही सरकार में शिक्षा और विदेश मंत्री रहे जस्टिस छागला ने कहा था कि हमारी न्यायिक परंपरा एवं इतिहास का यह सबसे निकृष्ट काल है। सरकार इतना सब इसलिए कर सकी, क्योंकि तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस अजित नाथ रे अत्यंत कमजोर एवं भीरू व्यक्ति थे। वह हर बात के लिए श्रीमती गांधी या उनके सहयोगियों के मार्गदर्शन का इंतजार करते थे। बदले की भावना से भरी इंदिरा गांधी ने उच्च न्यायालयों के कई अतिरिक्त न्यायाधीशों को सर्वोच्च न्यायालय की संस्तुति के बाद भी स्थायी करने से इनकार कर उन्हें बर्खास्त कर दिया। ये वे न्यायाधीश थे, जिन्होंने आपातकाल के दौरान सरकार के खिलाफ निर्णय दिए थे। इनमें से एक दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस आरएन अग्रवाल भी थे, जिन्होंने कुलदीप नैयर की गिरफ्तारी को अवैध करार दिया था। सरकार यहीं नहीं रुकी। तत्कालीन विधि एवं न्याय मंत्री एचआर गोखले और कुमारमंगलम, चंद्रजीत यादव, केपी उन्नीकृष्णन जैसे अन्य कांग्रेसी नेता तो प्रतिबद्ध न्यायिक व्यवस्था व प्रतिबद्ध न्यायाधीशों की बात करने लगे।
लोकसभा में कुमारमंगलम ने कहा, हम ऐसे न्यायाधीशों को आगे बढ़ाना चाहेंगे, जो हमारे दर्शन एवं विचारधारा से सहमति रखते हों, न कि असहमति। एक मंत्री ने तो पूरी न्यायिक व्यवस्था को विपक्षी दल करार दिया था। विधि एवं न्याय मंत्री गोखले ने न्यायाधीशों के नाम एक खुले पत्र में लिखा कि सरकार उन सभी न्यायाधीशों से सहानुभुति रखती है, जो सिद्धांतत: सरकार के खिलाफ निर्णय नहीं देते। ऐसे सभी जजों को हम उच्चतम न्यायलय तक ले जाने का विचार रखते हैं। इंदिरा गांधी ने न्यायपालिका से खिलवाड़ करने के साथ संविधान में जो मनमाने संशोधन किए, उससे ईमानदार और निष्पक्ष न्यायाधीशों का चिंतित होना स्वाभाविक था। जजों की नियुक्ति में सरकार की मनमानी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय पहले से ही क्षुब्ध था। उसने कुछ करने का मन बना लिया। तब तक संविधान के अनुच्छेद 124 (2) और 217 के तहत राष्ट्रपति स्वहस्ताक्षर से उच्च एवं उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते थे। वह सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एवं संबंधित उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से विचार-विमर्श भी करते थे, लेकिन कोलेजियम व्यवस्था बनाकर यह सब किनारे कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता संघ बनाम भारत सरकार मामले में दिया गया फैसला (06.10.1993) कोलेजियम का आधार बना।
सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीश नियुक्ति संबंधी सभी अधिकार राष्ट्रपति से छीनकर अपने हाथ में ले लिए। यह व्यवस्था 1993 से ही लागू हो गई और सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश अपने वरिष्ठ सहयोगियों से विचार-विमर्श कर नियुक्त किए जाने वाले जजों के नाम सीधे राष्ट्रपति को भेजने लगे। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी व्यवस्था दी कि राष्ट्रपति को संस्तुत किए गए नामों का अनुमोदन हर हाल में करना होगा। धीरे-धीरे इस व्यवस्था के विरोध में अंदर से ही यानी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों द्वारा ही आवाज उठाई जाने लगीं। यह तो कहा ही गया कि इसके कहीं कोई मानदंड नहीं कि जजों को कैसे चुना जाए और संबंधित बैठकों का विवरण नहीं तैयार किया जाता। इसके अलावा जजों की नियुक्ति में भाई-भतीजावाद का बोलबाला होने और हद से ज्यादा गोपनीयता बरतने की बात भी कही गई। यह सब कहने वालों में जज भी शामिल थे। सेवानिवृत्त जस्टिस रूमा पाल ने एक बार कहा था कि पूरी प्रक्रिया न केवल बहुत ही गोपनीय है, बल्कि एक तरह की बंदरबांट है। जस्टिस चेलमेश्वर तो पूरी प्रक्रिया से इतने क्षुब्ध थे कि उन्होंने कई बार कोलेजियम की मीटिंग में शामिल होने से ही इनकार कर दिया। कोलेजियम व्यवस्था में जजों की वरिष्ठता का किस तरह उल्लंघन होता है, इसका संकेत इससे मिलता है कि अल्तमस कबीर 13वें, अमिताव राय 35वें, वीएन कृष्णा 33वें और एसएच वरियावा 38वें नंबर पर होने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट के जज नियुक्त हुए।
1993 में कॉलेजियम व्यवस्था लागू होने के बाद कुछ जजों को सुप्रीम कोर्ट पहुंचने में 14-15 वर्ष लगे, लेकिन कुछ जज मात्र नौ वर्ष उच्च न्यायालय में बिताने के बाद ही सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। वीआर कृष्ण अय्यर तो उच्च न्यायालय में तीन साल बिताने के बाद ही सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए थे। अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट के जज बने केएम जोसेफ वरिष्ठता सूची में 42वें स्थान पर थे। सुप्रीम कोर्ट के कम से कम छह पूर्व जजों के बेटे भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। ये हैं पीएन भगवती, एसएम फजल अली, बीपी सिंह, एन संतोष हेगड़े, बीएन अग्रवाल और डीवाई चंद्रचूड़। तमाम पूर्व न्यायाधीशों के पुत्र और पौत्र भी उच्च न्यायलय के जज बने। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में ऐसे भी बहुत से जज हैं, जिनके पिता, भाई, रिश्तेदार या दोस्त राजनीति, बार या प्रशासन में काफी रसूख वाले थे। यह बहुत अच्छी स्थिति नहीं है, न तो न्याय व्यवस्था के लिए और न ही न्यायालयों और न्यायधीशों की प्रतिष्ठा के लिए। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनने और लागू होने के बाद यह जो आशा बंधी थी कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में न केवल पारदर्शिता आएगी, वरन उनका मान सम्मान भी बढ़ेगा, वह ध्वस्त हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ चार-एक के बहुमत से इस आयोग और संबंधित संविधान संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर चुकी है। यह आयोग एक दिन भी काम नहीं कर सका। इस आयोग को अंसवैधानिक बताने वाले फैसले में जजों ने यह भी कहा था कि कोलेजियम व्यस्था में सब कुछ ठीक नहीं है। जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही कहा था कि वह एक नीति निर्धारित करेगा। तबसे तीन वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन वह नीति नदारद है। एक तरह से अब हम फिर से चौराहे पर आ खड़े हैं। अपेक्षा की जाती है कि सुप्रीम कोर्ट खुद ही पहल कर इस स्थिति को जल्द खत्म करे, ताकि न्यायालयों एवं न्यायाधीशों की प्रतिष्ठा को लेकर किसी तरह के कोई सवाल न उठें।
Date:17-01-19
ब्रिटेन की अस्थिरता और हमारी उम्मीद
शशांक, पूर्व विदेश सचिव
ब्रिटिश संसद की मौजूदा ब्रेग्जिट बिल पर रजामंदी न मिलने से इंग्लैंड में अनिश्चितता का माहौल बन गया है। हर तरफ सवाल यही है कि अब आगे क्या होगा? विश्व राजनीति में ब्रिटेन की हैसियत पर भी सवाल उठने लगे हैं। हालांकि लेबर पार्टी के प्रमुख और ब्रिटिश संसद में नेता प्रतिपक्ष जेरेमा कॉर्बिन ने प्रधानमंत्री थेरेसा मे के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आगे बढ़ा दिया है,पर ऐसा नहीं है कि मे के लिए अब सारे रास्ते बंद हो गए हैं। बेशक इस प्रस्ताव के पारित होने का अर्थ होगा, थेरेसा मे का अपनी कुरसी गंवाना, लेकिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री के सामने अब भी कई विकल्प मौजूद हैं। इसीलिए सांसदों के इस एक निर्णय से यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के रिश्तों का फैसला नहीं होने वाला। यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के हटने की अंतिम तारीख 29 मार्च है। ऐसे में, प्रधानमंत्री थेरेसा मे ‘प्लान बी’ के साथ आगे बढ़ सकती हैं, और उन्होंने इसके संकेत भी दिए हैं। मे ने कहा है कि वह विपक्षी नेताओं के साथ ‘सकारात्मक बातचीत’ कर रही हैं, लिहाजा इस बात की संभावना ज्यादा है कि प्रधानमंत्री यूरोपीय संघ से और अधिक रियायतें लेने की कोशिश करेंगी और नए प्रस्ताव के साथ संसद में आएंगी। अगर दूसरा प्रस्ताव भी संसद में पारित नहीं हो पाता, तो सरकार तीसरे विकल्प में अपने लिए उम्मीद खोज सकेगी। मगर यहां मुश्किल यह भी है कि प्रधानमंत्री का समर्थन उनकी पार्टी के कुछ सांसद भी नहीं कर रहे। इसीलिए थेरेसा मे को अपने सांसदों का विश्वास सबसे पहले जीतना होगा।
तमाम उपायों के बाद भी यदि सरकार ब्रेग्जिट बिल पर संसद का भरोसा नहीं जीत पाती है, तो इस मसले पर फिर से जनमत संग्रह हो सकता है। चूंकि ‘ब्रेग्जिट’ की प्रक्रिया को अगले दो महीने में उसके अंजाम तक पहुंचाना अनिवार्य है, इसलिए जनमत संग्रह फिलहाल एक मुश्किल काम लग रहा है। ठीक यही स्थिति आम चुनाव को लेकर भी है। अव्वल तो ब्रिटेन में ‘फिक्स्ड टर्म पार्लियामेंट ऐक्ट’ है, जिसका अर्थ है कि संसद पांच साल की अपनी अवधि पूरी करेगी। लेकिन यदि बीच में ही सरकार के अस्तित्व पर संकट आता है, तो नए चुनाव हो सकते हैं। मगर इससे पहले थेरेसा मे को सांसदों का विश्वास फिर से जीतने का एक मौका दिया जाएगा। आगे की तस्वीर अभी पूरी तरह साफ नहीं है। आम जनता में भी इसे लेकर एक उलझन है। ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से बाहर जाने का फैसला कई कारणों से लिया था, जिनमें से एक बड़ी वजह प्रतिस्पद्र्धा थी। यह प्रतिस्पद्र्धा कई स्तरों पर रही है। मसलन, यूरोपीय संघ के सदस्य होने के नाते यूरोपीय देशों को कई रियायतें देना ब्रिटेन की मजबूरी थी। चूंकि इंग्लैंड आर्थिकी के लिहाज से विश्व का एक प्रमुख ठिकाना है, इसीलिए दूसरे यूरोपीय देशों से अनगिनत प्रतिभाएं ब्रिटेन आ रही थीं। इससे स्थानीय नौजवानों के लिए रोजगार के अवसर सिमट रहे थे।
उन्हें दूसरे यूरोपीय देशों की प्रतिभाओं से कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा था और कौशल में अपेक्षाकृत कमतर होने की वजह से उन्हें नुकसान भी हो रहा था। इसी तरह, अमेरिका के नजदीक होने के कारण ब्रिटेन विश्व राजनीति में अपनी एक अलग पहचान की ख्वाहिश भी पाले हुए था। दरअसल, वह 20वीं सदी के शुरुआती वर्षों को फिर से जीना चाहता था, जब उसके शासन क्षेत्र में सूरज कभी डूबता नहीं था। मगर यूरोपीय संघ की छाया में उसके लिए उस मुकाम तक पहुंचना संभव नहीं दिख रहा था। तुर्की जैसे नाटो सदस्य देश भी उसकी राह के रोडे़ जैसे थे। ब्रिटेन यूरो मुद्रा अपनाने को लेकर भी बहुत संतुष्ट नहीं था। लेकिन जब ‘ब्रेग्जिट’ को लेकर यूरोपीय संघ से बातचीत आगे बढ़ी, तो तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को यह एहसास हो गया कि यूरोपीय संघ उसे आसानी से छोड़ने को तैयार नहीं है। यूरोपीय संघ ने करीब 60 अरब यूरो वापस मांगने की बात कही, जो सब्सिडी आदि पर ब्रिटेन को उसने लाभ पहुंचाया था। फिर स्पेन, आयरलैंड जैसे देश ‘मुक्त आवागमन’ को लेकर ब्रिटेन के दायित्व को खत्म करने के पक्ष में नहीं हैं। इस तरह की बातें ही ब्रिटिश सांसदों के लिए चिंता का विषय थीं। ब्रिटिश सांसद अब भी अपनी सीमाओं पर नियंत्रण और देश में काम के वास्ते या बसने के लिए आने वाले लोगों की संख्या नियंत्रित करने के पक्ष में दिखते हैं, पर उनका ऐतराज उन दायित्वों को लेकर है, जो यूरोपीय संघ से अलग होने की सूरत में ब्रिटेन के हिस्से में आने की बात कही जा रही है।
जनमत संग्रह के बाद से अब तक यह साफ हो चुका है कि यूरोपीय संघ से अलग होने के बाद भी ब्रिटेन उन दायित्वों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकेगा, जिसके सपने के साथ वहां के लोगों ने जनमत संग्रह का साथ दिया था। इसके अलावा, दूसरे यूरोपीय देशों की भी अपनी मांग है, जिसको पूरा करना ब्रिटेन के लिए जरूरी होगा। हालांकि इन तमाम मसलों में पश्चिम एशिया भी एक अहम कड़ी है, क्योंकि यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के लिए ब्रिटेन पर इसलिए भी दबाव बढ़ा, क्योंकि वहां अस्थिर पश्चिम एशिया से लोगों की आमद बढ़ गई थी। चूंकि तुर्की पर अमेरिका ने दबाव बढ़ा दिया है, इसलिए आशंका यह जताई जा रही है कि सीरिया के बाद तुर्की से भागने वाले लोग ब्रिटेन आ सकते हैं। बहरहाल, भारत इसमें लिए अपनी उम्मीदें देख सकता है। जिस तरह से दुनिया भर में दक्षिणपंथ का उभार हुआ है और शरणार्थियों की समस्या बढ़ी है, उसमें चीन और भारत जैसे एशियाई देश नेतृत्व की भूमिका में सामने आ सकते हैं। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों के साथ नए समझौते भी किए जा सकते हैं। हालांकि इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था को और अधिक मजबूत बनाएं। ऐसा करने पर ही बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत का रुख कर सकेंगी।
Date:17-01-19
The coast is unclear
The Coastal Regulation Zone notification of 2018 increases the vulnerability of coastal people to climate disasters
Manju Menon, Kanchi Kohli, ( Manju Menon and Kanchi Kohli are environmental researchers at Centre for Policy Research, New Delhi)
The National Democratic Alliance government has unleashed several extremely unimaginative developmental policies that target areas that have retained some degree of ecological value to turn them into sites for industrial production. This is despite evidence of the damaging effects of such policies. The latest instance of this is the Coastal Regulation Zone (CRZ) notification of 2018. The government has announced “amendments” to the CRZ law which, in the words of the fisher leader from Goa, Olencio Simoes, spell the death of the coasts. These changes negate the coastal space entirely of its special socio-ecological uniqueness and open up this niche space that joins land and sea to mindless real estate development, mass scale tourism, and industry.
Devalued fisheries economy
Successive governments have created the impression that India’s coastline is a vast, empty space that economic actors can take over. Industrialists and real estate developers share this view because coastal lands are for the most part outside the regime of individual property rights. Land grabbing by private and government actors has been the norm. These actors forget that this space is the common property of coastal villages, towns and cities, and public beaches. Over 3,000 fishing hamlets reside along India’s coast, park and repair their nets and boats and organise their economic and social activities here. The fisheries sector employs 4-9 million people. The self-reliant fisher communities generates ₹48,000-₹75,000 crore for the economy, with almost no support from governments in the form of subsidies.
A government that has performed dismally on its promise of employment generation should avoid taking away the jobs of people engaged in this sector. Yet, that is exactly what this notification seeks to do. The misfortune of the fisher communities is their lack of effective political representation. Even though at least 75 MPs are elected from coastal constituencies, as stated by V. Vivekanandan of South Indian Federation of Fishermen Societies, fisher people are not a vote bank as they are spread across the coast. This may be why they are the targets of hostile government policies.
With rapid urbanisation and industrialisation, coasts have become convenient dumping grounds. Sewage, garbage and sludge from industrial processes land up on the coastline and makes life for coastal dwellers a living hell. The new amendments legalise the setting up of common effluent treatment plants (CETPs), an impractical technology for cleaning up waste, on the most fragile parts of the coast. These projects have made the coastal people of Saurashtra and south Gujarat more vulnerable to toxicity in their food, water and air. Since India’s systems to reduce waste generation and comply with pollution standards are so poor, the law now makes the coasts legitimate receptacles for all waste.
India’s coasts are already facing climate change events such as intensive, frequent and unpredictable cyclones and erosion. In 2017, cyclone Ockhi killed over 300 people on the west coast, a region not familiar with such events. The combined effects of harmful coastal development and climate change are apparent in the form of mass migrations from coastal areas like Odisha and the Sundarbans in West Bengal. These lessons have already sparked decentralised action: mangroves are being planted, sand dunes and coastal wetlands are being protected, and coastal communities and local governments are collaborating on disaster preparedness. But the top-down policy of the Central government to encroach what’s left of the coasts and increase activities that involve dredging, sand removal, and large-scale constructions contradict grass-roots and scientific wisdom.
Risking lives
It is untrue that this notification has been introduced after consultations with “other stakeholders”. The National Fishworkers Forum (NFF), for instance, has vociferously opposed these amendments since the review was announced in June 2014 by the Shailesh Nayak Committee. It has carried out protests demanding fisher rights to the coastal commons and legal action against corporate and government violators of coastal laws. The indifference of the government to coastal and marine regions has even led the forum to demand a separate Fisheries Ministry. Instead of using the NFF’s knowledge to craft an effective policy, the government has peddled the same development model that has generated conflict and impoverishment. The notification now exposes more people to the unassessed impacts of climate change-related coastal damages. Is the capital too far from coastal India to understand this?
Date:17-01-19
Learning to compete
Skill India needs a sharp realignment if it is to meaningfully transform people’s life chances
Santosh Mehrotra, Ashutosh Pratap, (Santosh Mehrotra is Professor of Economics, Centre for Labour, JNU, and a lead author of the NSQF. Ashutosh Pratap works on Skills and Jobs Policy)
In 2013, India’s skill agenda got a push when the government introduced the National Skills Qualification Framework (NSQF). This organises all qualifications according to a series of levels of knowledge, skills and aptitude, just like classes in general academic education. For instance, level 1 corresponds to Class 9 (because vocational education is only supposed to begin in secondary school in many countries, including India). Levels 1, 2, 3 and 4 correspond to Classes 9, 10, 11 and 12, respectively. Levels 5-7 correspond to undergraduate education, and so on. For each trade/occupation or professional qualification, course content should be prepared that corresponds to higher and higher level of professional knowledge and practical experience.
The framework was to be implemented by December 27, 2018. The Ministry mandated that all training/educational programmes/courses be NSQF-compliant, and all training and educational institutions define eligibility criteria for admission to various courses in terms of NSQF levels, by that time.
In this article, we look at NSQF implementation through the prism of national skill competitions, or India Skills, a commendable initiative of the Ministry of Skill Development and Entrepreneurship (MSDE). Twenty-seven States participated in India Skills 2018, held in Delhi. Maharashtra led the medals tally, followed by Odisha and Delhi. Now, teams will be selected to represent India at the 45th World Skills Competition, scheduled in Russia this year. It was also heartening that the Abilympics was included in India Skills 2018, for Persons with Disabilities.
Course curriculum not clear
However, there are two priorities requiring action before the next round of India Skills is held. There are five pillars of the skills ecosystem: the secondary schools/polytechnics; industrial training institutes; National Skill Development Corporation (NSDC)-funded private training providers offering short-term training; 16 Ministries providing mostly short-term training; and employers offering enterprise-based training. From which training programmes and NSQF courses did participants come to the competition? The answers to this would hold the key to improve Skill India government programmes dramatically.
Meanwhile, the India Skills competition has provided evidence that many reforms are critical and urgent. We have advocated these reforms in the Sharda Prasad Expert Group report, submitted to the MSDE in 2016.
India Skills was open to government industrial training institutes, engineering colleges, Skill India schemes, corporates, government colleges, and school dropouts. Skill India is understood to mean courses that are compliant with the NSQF. A majority of the participants were from corporates (offering enterprise-based training) and industrial training institutes; only less than 20% were from the short-term courses of the NSDC. Neither industrial training institutes nor corporates’ courses are aligned with the NSQF.
This points to the need for more holistic training and the need to re-examine the narrow, short-term NSQF-based NSDC courses to include skills in broader occupation groups, so that trainees are skilled enough to compete at the international level. If India Skills 2018 was only open for the NSQF-aligned institutions, it would have been a big failure. This indicates that the NSQF has not been well accepted or adopted across India. One reason for this is that unlike for general academic education, which requires the completion of certain levels of certification before further progression is permitted, there is no clear definition of the course curriculum within the NSQF that enables upward mobility. There is no connection of the tertiary level vocational courses to prior real knowledge of theory or practical experience in a vocational field, making alignment with the NSQF meaningless. Efforts to introduce new Bachelor of Vocation and Bachelor of Skills courses were made, but the alignment of these UGC-approved Bachelor of Vocation courses was half-hearted. There is no real alignment between the Human Resource Development Ministry (responsible for the school level and Bachelor of Vocation courses) and the Ministry of Skill Development (responsible for non-school/non-university-related vocational courses).
Too many councils
We must also reduce complications caused by too many Sector Skill Councils (SSCs) anchoring skill courses. World Skills holds competitions in construction and building technology, transportation and logistics, manufacturing and engineering technology, information and communication technology, creative arts and fashion, and social and personal services. To cater to these sectors, 19 SSCs participated in India Skills 2018 as knowledge partners with the help of industry or academic institutions. But India has 38 SSCs (earlier it had 40). Why did the others not participate? The first reason is that the representation of their core work was done by the other SSCs. For example, we have four SSCs for manufacturing: iron and steel, strategic manufacturing, capital goods, and, infrastructure equipment. In effect these are treated as one in World Skills courses. As we had proposed, there should be just one SSC called the Machinery and Equipment Manufacturing Council, in line with the National Industrial Classification of India. Similarly, there is no reason to have four SSCs (instead of one) each of textile, apparel made-ups and home furnishing, leather and handicrafts.
It was a mistake to create 40 SSCs. Outcomes have shown that they have been ineffective. If we want Skill India trainees to win international competitions and if we want competitors to come from schemes of the Ministry, we must find a way to provide broader skills in broader occupational groups.
The second, and related, reason is that the other SSC courses were not comprehensive enough for students to compete. Most of their NSDC-SSC- approved training does not produce students who can showcase “holistic” skills for broad occupational groups in such competitions. This takes us back to the point made in our report: sectors should be consolidated in line with the National Industrial Classification of India. This will improve quality, ensure better outcomes, strengthen the ecosystem, and help in directly assessing the trainee’s competence. It might also bring some coherence to our skills data collection system.
India could learn a lesson from Germany, which imparts skills in just 340 occupation groups. Vocational education must be imparted in broadly defined occupational skills, so that if job descriptions change over a youth’s career, she is able to adapt to changing technologies and changing job roles. Skill India needs a sharp realignment, if India is to perform well in the World Skills competition later this year.
Date:17-01-19
Not by words alone
Slogans, critical of govt, are not anti-national and do not amount to sedition
Soli J. Sorabjee, (The writer is a former attorney general of India.)
Sedition was aptly described by Gandhiji “as the prince of the Indian Penal Code” (IPC). Regrettably, it has become the king of the IPC as evidenced by the indiscriminate manner in which charges are filed against an ex-president of the JNU Student’s Union and former students for allegedly “raising and supporting anti-national slogans”. What is sedition, which is enacted by Section 124-A of the IPC? According to the Privy Council, it meant any statement that caused “disaffection”, namely, exciting in others certain bad feelings towards the government, even though there was no element of incitement to violence or rebellion. The Constituent Assembly debates shed useful light on the subject of sedition. In the Draft Constitution, one of the heads of restrictions proposed on freedom of speech and expression was “sedition”.
In the heyday of British colonialism, the sedition law was frequently invoked to crush the freedom movement and to incarcerate prominent nationalist leaders like Bal Gangadhar Tilak, Gandhiji, Jawaharlal Nehru and others. K M Munshi opposed the inclusion of “sedition” as a head of restriction and moved an amendment for its deletion. In the course of the debates, Munshi urged that “now that we have a democratic government, a line must be drawn between criticism of government which should be welcome and incitement to violence which would undermine security or order on which civilised life is based. As a matter of fact the essence of democracy is criticism of government. The party system, which necessarily involves advocacy for the replacement of one government by another is its only bulwark; the advocacy of a different system of government should be welcome because that gives vitality to democracy.”
The founding fathers agreed with Munshi and deliberately omitted “sedition” as one of the permissible grounds of restriction on freedom of speech and expression under Article 19(2). Sedition remained as a criminal offence in the IPC and provides inter alia for a sentence of life imprisonment and fine upon conviction. How did courts in India construe ‘sedition’? The Federal Court of India presided over by the distinguished chief justice, Maurice Gwyer, ruled that the sedition law is not to be invoked “to minister to the wounded vanity of government . The acts or words complained of must either incite disorder or must be such as to satisfy reasonable men that is their intention or tendency”. Thereafter, our Supreme Court in its landmark decision pronounced in 1962 in Kedarnath vs. State of Bihar dissented from the view of the Privy Council and adopted the view of the Federal Court.
The Court ruled that mere criticism of the government or comments on the administration, however vigorous or pungent or even ill-informed, did not constitute sedition. The Supreme Court limited the application of Section 124A (sedition) to acts involving intention or tendency to create disorder, or disturbance of law and order, or incitement to violence. Therefore, incitement to violence is the essential ingredient of the offence of sedition (emphasis added). In 1995, the Supreme Court in the case of Balwant Singh vs. State of Punjab applied the principle in Kedarnath’s case to the prosecution of certain persons who raised the following slogans: One, “Khalistan Zindabad”; two “Raj Karega Khalsa” and three, “Hinduan Nun Punjab Chon Kadh Ke Chhadamge, Hum Mauka Aya Hai Raj Kayam Karan Da”.
The Court ruled that in view of the prosecution evidence that the slogans were raised a couple of times and that the slogans did not evoke any response from any other person of the Sikh community or reaction from people of other communities, raising of such casual slogans a couple of times without any other act whatsoever, did not justify prosecution for sedition and Section 124-A could not be invoked. Thereafter in 2003, in the case of Nazir Khan vs. State of Delhi the Supreme Court emphasised that: “It is the fundamental right of every citizen to have his own political theories and ideas and to propagate them and work for their establishment so long as he does not seek to do so by force and violence or contravene any provision of law. and that the mere use of the words ‘fight’ and ‘war’ in their pledge did not necessarily mean that the society planned to achieve its object by force and violence.”
One wonders what is meant by anti-national slogans. Slogans, however critical or censorious of government, are not anti-national and per se do not amount to sedition. If the slogans had stated that the Indian state is tyrannical and it is necessary to overthrow it, that could possibly attract Section 124-A. It is shocking that Section 124-A has often been misused by ill-informed and over-enthusiastic prosecuting agencies. However, that is no ground for repealing Section 124-A. Invocation of the section should only be in cases of slogans or statements which incite violence and have a manifest tendency to create public disorder. The right remedy is to educate our law enforcement agencies and impress upon them that incitement to violence is the indispensable pre-requisite for invoking Section 124-A. Our state rests on solid foundations, which cannot be disturbed by ill-tempered or pungent or stupid slogans. Misuse of the sedition law should attract appropriate penalties for law enforcement agencies coupled with a provision for compensation to the injured party.