17-01-2019 (Important News Clippings)

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17 Jan 2019
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Date:17-01-19

Dumbing Down

Quotas across the board will be disastrous for higher education

TOI Editorials

While India’s agrarian crisis is well recognised by now, less mentioned is that India also has a full-blown education crisis on its hands – of which the latest ASER report by NGO Pratham is an indicator. Among class VIII children 56% are unable to divide a 3 digit number by a 1 digit one; a quarter of them lack even basic reading skills. Standards have declined even over the past decade. In 2008, 37% of class V children could do basic math and 84.8% of class VIII students could read class II level texts; now those numbers have declined to 28% and 72.8% respectively.

Moreover, recent government actions appear calculated to make India’s education crisis worse. Scrapping the no-detention policy means that children will be penalised for the education system’s failures. It is also likely to increase the dropout rate. Alongside, HRD minister Prakash Javadekar announced reservations will be extended to all private higher educational institutions, including unaided ones. This means that merit as well as the fundamental right to equality will be superseded by caste. It also destroys space for policy autonomy of private institutions, including unaided ones, and is legally contentious. The Allahabad high court ruled in 2011 that quotas do not apply to private unaided institutions.

The government is likely to introduce a bill to override legal objections. But SC should not allow legislation to trample on the fundamental right to equality, part of the Constitution’s basic structure. The Centre seems to be extending a familiar povertarian logic into education, which will only deepen its crisis: make up for public sector deficiencies by beating up on the private sector. If schools functioned well and imparted decent education to all, there would be no need for reservations in higher education.

While India seems to have adopted the Maoist dictum of “politics in command” when it comes to education, it’s instructive to look at how far China has come since it discarded Maoist precepts (at which time India and China were roughly level in scientific, educational and economic terms). Now, Times Higher Education rankings feature seven Chinese universities in the top 200, and zero Indian. The emerging economy rankings feature 25 Indian but 72 Chinese institutions, including four in the top five. China has overtaken the US in number of scientific papers. Meritocracy and vaulting ambition, in place of pretend egalitarianism and fake science, make China five times richer than India today. And thereby hangs a tale.


Date:17-01-19

आशा की किरण

संपादकीय

शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाला गैर सरकारी संगठन प्रथम 2005 से ही सालाना शैक्षणिक स्थिति रिपोर्ट (असर) जारी करता आ रहा है। हर वर्ष जारी की जाने वाली रिपोर्ट दुनिया की दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा की खस्ता होती स्थिति की निराशाजनक तस्वीर पेश करती है। ये रिपोर्ट देश के ग्रामीण अंचल में 6 से 14 वर्ष की उम्र के बच्चों पर केंद्रित रहती हैं और उनकी स्कूली शिक्षा तथा बच्चों के मूलभूत पाठन तथा गणितीय कार्यों को हल करने में उनकी प्राथमिक शिक्षा के प्रभाव का आकलन करती हैं।

वर्ष 2010 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम बन जाने के बाद हालांकि 6 से 14 वर्ष तक की उम्र के हर बच्चे को नि:शुल्क बुनियादी शिक्षा दिलाना राज्य का कर्तव्य हो गया लेकिन नतीजे उसके बाद भी कमजोर बने रहे। राहत की बात यह है कि असर 2018 पहले आई रिपोर्ट से थोड़ी अलग है। ताजा रिपोर्ट यह बताती है कि देश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद पहली बार सरकारी स्कूलों में कक्षा 5 में पढऩे वाले बच्चों की पाठ करने की क्षमता में सुधार हुआ है। उनकी गणितीय समझ में भी तेजी से सुधार हो रहा है। उदाहरण के लिए कक्षा 5 में पढऩे वाले जो छात्र कक्षा 2 के स्तर की पाठ्यपुस्तक पढ़ सकते हैं उनकी तादाद 2016 के 41.7 फीसदी से बढ़कर इस वर्ष 44.2 फीसदी हो गई। यह अनुपात 2008 के 53.1 फीसदी के स्तर के बाद से लगातार गिर रहा था। इसी प्रकार कक्षा 3 के 27.3 फीसदी छात्र अब कक्षा 2 की किताब पढ़ सकते हैं जबकि 2013 में यह स्तर 21.6 फीसदी था। कुछ अन्य मोर्चों पर भी अच्छी खबर हैं।

उदाहरण के लिए भारत लैंगिक समता के मोर्चे पर भी आगे बढ़ा है। 11 से 14 वर्ष के जो बच्चे स्कूली शिक्षा से बाहर रहे, उनकी तादाद 2010 के 6 फीसदी से गिरकर 2018 में 4.1 फीसदी रह गई। इतना ही नहीं, यह पहला मौका है जब स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर रहने वाले छात्रों का अनुपात 3 फीसदी से नीचे हुआ है। एक ओर जहां ये रुझान सुखद हैं, वहीं व्यापक रुझान अभी भी चिंतित करने वाले हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि कक्षा 8 के छात्रों में बुनियादी गणित और पाठ करने की क्षमता में निरंतर गिरावट जारी है। सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले कक्षा 8 के जो बच्चे कक्षा 2 की किताब पढ़ सकते हैं उनकी तादाद 83.6 फीसदी से घटकर 2018 में 69 फीसदी रह गई है।

गणितीय क्षमता को लेकर भी रुझान ऐसा ही है। कक्षा 3 के स्तर पर जरूर नतीजे उत्साहित करने वाले हैं जहां 2014 से लगातार सुधार आ रहा है। वर्ष 2018 में भी कक्षा 3 के 30 फीसदी से भी कम छात्र अपनी कक्षा के स्तर पर हैं और वे कक्षा 2 की किताब पढऩे और दो अंकों तक का घटाना कर लेते हैं। निजी स्कूलों का प्रदर्शन सरकारी स्कूलों की तुलना में बेहतर है। वहां कक्षा 5 और कक्षा 8 के बच्चों की पाठन और गणितीय क्षमताओं में सुधार हुआ है। यानी शैक्षणिक उपलब्धियों में सुधार का दायरा व्यापक नहीं है। खासतौर पर उच्च प्राथमिक शिक्षा यानी कक्षा 6 से कक्षा 8 तक की शिक्षा में बहुत अधिक सुधार देखने को नहीं मिला है। यह वह समूह है जो शिक्षा के अगले चरण में या श्रम बाजार में प्रवेश करता है। असर 2018 में देश के 596 जिलों के 5.46 लाख से अधिक बच्चों को शामिल किया गया और वह दिखाता है कि स्कूली बच्चों को पर्याप्त बुनियादी कौशल यानी साक्षरता और गणितीय जानकारी की जरूरत है। अगर ठोस उपाय नहीं किए गए तो हम यकीनन संकट की ओर बढ़ रहे हैं।


Date:17-01-19

सिलेबस से फोकस हटेगा, तभी होगा स्कूली शिक्षा में सुधार

संपादकीय

शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी संस्था प्रथम की इकाई ‘असर’ (एन्यूअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) सेंटर का आकलन हताशाजनक है। देश में स्कूली शिक्षा का स्तर बताने वाली इसकी ताजा रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी स्कूलों में पांचवीं कक्षा के 44.2 फीसदी बच्चे ही दूसरी कक्षा की किताब पढ़ने के काबिल पाए गए। यदि सरकारी स्कूलों की हालत देखते हुए इस पर अचरज न हो तो प्राइवेट स्कूलों की दशा भी बहुत बेहतर नहीं है। वहां 2008 में जहां पांचवीं के 67 फीसदी से ज्यादा बच्चे दूसरी की किताब पढ़ पाए थे वहीं ताजा रिपोर्ट में यह प्रतिशत गिरकर 65.1 फीसदी हो गया है। प्राइवेट स्कूलों का जैसा हव्वा हमारे यहां है, उसे देखते हुए पांचवीं के शत-प्रतिशत बच्चों में नीचे की कक्षाओं की कोई भी किताब पढ़ने की योग्यता होनी चाहिए। रिपोर्ट में कई और आंखें खोल देने वाले तथ्य हैं।

स्कूली बच्चे मोटे तौर पर आबादी का दस फीसदी हिस्सा हैं इसलिए उनके शैक्षणिक कौशल का सीधा असर हमारी अर्थव्यवस्था की स्पर्धात्मक क्षमता पर पड़ता है। गौर करें तो पाएंगे कि प्राथमिक स्कूल में सीखने में जो कमी दिखाई देती है, वह किशोरों और बाद में युवाओं में चली आती है। यह हमारे लिए गहरी चिंता का विषय है। मजे की बात है कि जहां क्षेत्रीय भाषाओं व अंग्रेजी में पढ़ने की क्षमता में उम्र के साथ कुछ सुधार दिखता है वहीं गणित का बुनियादी कौशल हासिल न कर सकने वाला बच्चा 18 साल का होने के बाद भी ऐसा नहीं कर पाता। यह सरकारों के लिए राजनीतिक चुनौती भी है, क्योंकि शैक्षणिक कौशल के अभाव में इन युवाओं को देश के वर्कफोर्स में नहीं लिया जा सकता, जिससे बेरोजगार युवाओं की संख्या में वृद्धि होती है। ‘असर’ के नतीजे देश के लिए चेतावनी है, क्योंकि हमने दो दशकों से ज्यादा समय बाद 2021 में प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट परीक्षा में भाग लेने का फैसला किया है। 2009 में जब भारत ने इस अंतरराष्ट्रीय टेस्ट में भाग लिया था तो 74 देशों में हम नीचे से दूसरे रहे थे। इस आकलन में 15 साल के बच्चों के गणित, विज्ञान और पढ़ने की योग्यता के आधार पर संबंधित देश की शिक्षा व्यवस्था का स्तर आंका जाता है। हमारी स्कूली शिक्षा में बड़ा बदलाव तब आएगा जब फोकस सिलेबस की बजाय बच्चों के सीखने की क्षमता में सुधार पर होगा।


Date:17-01-19

अटके पुलिस सुधार

यह एक विडंबना ही है कि पुलिस सुधार संबंधी सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश 12 साल बाद भी अमल से दूर हैं।

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के पुलिस महानिदेशकों यानी डीजीपी की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की मांग वाली याचिकाओं को खारिज करके सही ही किया। डीजीपी की नियुक्ति में स्थानीय कानूनों को महत्व देने की मांग का औचित्य इसलिए नहीं बनता, क्योंकि ऐसे कानून सत्तारुढ़ राजनीतिक दलों को मनमानी करने का ही मौका अधिक देते हैं। इस महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति तो वरिष्ठता और काबिलियत के आधार पर ही होनी चाहिए। बेहतर हो कि डीजीपी की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की मांग वाली याचिकाएं दाखिल करने वाले हरियाणा, पंजाब, बिहार, पश्चिम बंगाल और केरल की सरकारें यह समझें कि सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस महानिदेशकों की नियुक्ति प्रक्रिया के नियम इस उद्देश्य से तय किए थे ताकि पुलिस के काम में राजनीतिक दखलंदाजी रोकी जा सके। इन नियमों के तहत सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि संघ लोक सेवा आयोग वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का एक पैनल तैयार करेगा और राज्य सरकारें इस पैनल में से ही किसी को डीजीपी बना सकती हैं।

समझना कठिन है कि राज्य सरकारों को ऐसा करने में क्या समस्या है? उनकी समस्या जो भी हो, केवल इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट डीजीपी की नियुक्ति संबंधी अपने आदेश के पालन को लेकर प्रतिबद्ध दिख रहा है, क्योंकि पुलिस सुधार संबंधी उसके अन्य दिशा निर्देशों पर अभी भी पालन होता नहीं दिख रहा है। डीजीपी की नियुक्ति प्रक्रिया तो उसके सात सूत्रीय दिशा निर्देशों में से एक का ही हिस्सा है। आखिर इसकी सुध कब ली जाएगी कि शेष दिशा निर्देशों पर भी अमल हो? नि:संदेह यह सवाल सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ केंद्र सरकार से भी है, क्योंकि अभी तक आदर्श पुलिस अधिनियम भी अस्तित्व में नहीं आ सका है। ध्यान रहे कि इस अधिनियम का मसौदा भी 2006 में तैयार हुआ था और सुप्रीम कोर्ट के सात्र सूत्रीय दिशा निर्देश भी इसी साल सामने आए थे।

यह ठीक नहीं कि जैसे राज्य सरकारें पुलिस सुधारों को लेकर अनिच्छा प्रकट कर रही हैं वैसे ही केंद्र सरकार भी। यदि यह समझा जा रहा है कि केवल डीजीपी की नियुक्ति में राजनीतिक दखलंदाजी रोकने से पुलिस की कार्यप्रणाली और उसकी छवि में सुधार आ जाएगा तो यह सही नहीं। पुलिस की कार्यप्रणाली तो तब सुधरेगी जब थाना स्तर के पुलिस अधिकारियों के काम में भी अनुचित राजनीतिक दखलंदाजी को रोकने के साथ ही यह सुनिश्चित किया जाएगा कि पुलिस नियम-कायदे से काम करे। बगैर यह सुनिश्चित किए बात बनने वाली नहीं है, भले ही डीजीपी की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय प्रक्रिया के हिसाब से होने लगे।

यह एक विडंबना ही है कि पुलिस सुधार संबंधी सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश 12 साल बाद भी अमल से दूर हैं। यह स्थिति तो यही बताती है कि सुप्रीम कोर्ट भी अपने आदेश पर अमल कराने में सक्षम नहीं। स्पष्ट है कि एक ओर जहां सुप्रीम कोर्ट को यह देखना चाहिए कि पुलिस सुधारों संबंधी उसके आदेश पर सही तरह अमल हो वहीं केंद्र और राज्य सरकारों को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पुलिस की कार्यप्रणाली बदले। वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकतीं कि आम आदमी पुलिस की कार्य प्रणाली से संतुष्ट नहीं।


Date:16-01-19

समन्वित रणनीति जरूरी

देवेश चतुर्वेदी

कृषि क्षेत्र का विकास आजकल सर्वाधिक चर्चा में है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत द्वारा पिछले 2-3 वर्षो से दलहन क्षेत्र को आत्मनिर्भर बनाने की नीतियों के परिणामों का विश्लेषण करना प्रासंगिक है। भारत में दलहन का वार्षिक उत्पादन कई वर्षो से 15-18 मिलियन टन के आसपास स्थिर चल रहा था, जबकि इसकी घरेलू मांग निरंतर बढ़ती जा रही थी। वर्ष 2015-16 में 23 मिलियन टन की मांग के सापेक्ष उत्पादन 16.35 मिलियन टन था। खाद्य एवं पोषण सुरक्षा के दृष्टिकोण से हर वर्ष वृहद स्तर पर दलहन आयात भी करना पड़ता था। इससे निष्कर्ष स्वत: निकाला जा सकता है कि पूर्व की कृषि नीतियां दलहन उत्पादन बढ़ाने में सफल नहीं हो पा रही थीं।

एक समन्वित रणनीति का क्रियान्वयन आवश्यक हो गया। प्रधानमंत्री के दिशानिर्देश पर कैबिनेट सचिव के स्तर पर गहन विचार-विमर्श के पश्चात समन्वित रणनीति का कार्यान्वयन शुरू हुआ। इसके मुख्य आयामों में उत्पादन/उत्पादकता बढ़ाना, उत्पाद के लिए समुचित दाम, उत्पाद के लिए आकषर्क बाजार विकसित करना तथा आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े परिवारों को सस्ती दरों पर दालें उपलब्ध कराना सम्मिलित था। परिणामस्वरूप दलहन का उत्पादन जो 2010-11 से 2014-15 तक लगभग गतिहीन रहते 2015-16 में 16.35 मिलियन टन था, वह 2016-17 में बढ़कर 23.13 मिलियन टन तथा 2017-18 में 25.23 मिलियन टन हो गया। इस रणनीति के दो सकारात्मक परिणाम परिलक्षित हुए हैं। पहला, दलहन के बाजार मूल्य में गिरावट परिलक्षित नहीं हुई जिससे किसानों को उनके उत्पादन का उचित मूल्य प्राप्त हुआ। साथ ही, दलहन का मजबूत बफर स्टॉक विकसित होने से मूल्य नियंत्रण को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सका। निर्णय लिया गया कि न्यूनतम 20 लाख टन का बफर स्टॉक सदैव बना रहेगा। इन्हीं प्रयासों का नतीजा है कि एक ओर किसानों को उपज का उचित मूल्य प्राप्त हो रहा है, वहीं उपभोक्ताओं को भी 2015-16 के बाद वाजिब मूल्य पर दलहन उत्पाद निरंतर प्राप्त हो रहा है। कालाबाजारी पर भी रोक लगी है।

किसानों को उनके उत्पादन का समुचित मूल्य मिलने से ही दलहन उत्पादन में आई वृद्धि को स्थायी रखा जा सकता है। इसीलिए 2018-19 में सरकार द्वारा एक समन्वित योजना ‘प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान’ (पीएम-आशा) आरंभ की गई है। इसके अंतर्गत राज्यों को दलहन की खरीद के लिए मूल्य समर्थन का विकल्प दिया गया है, जिसमें केंद्रीय एजेंसियां न्यूनतम समर्थन मूल्य राज्य के कुल उत्पादन का 25 प्रतिशत तक किसानों से खरीद कर सकेंगी। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, ओडिशा, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना तथा आंध्र प्रदेश में इस अभियान के अंतर्गत दलहन उत्पादनों की खरीद की जा रही है। इससे किसान दलहन के उत्पादन में सतत रूप से प्रोत्साहित होंगे। दलहन के उत्साहवर्धक उत्पादन को दृष्टिगत रखते हुए व्यापार नीति में भी किसान हित के निर्णय लिए गए हैं। दालों के निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक छूट दी गई हैं। सफल खरीद के कारण दलहन का स्टॉक भारी मात्रा में उपलब्ध होने के पश्चात यह निर्णय लिया गया कि मूल्य स्थायित्व के लिए आवश्यक बफर के अतिरिक्त, शेष स्टॉक को जनकल्याण के कार्यक्रमों में उपयोग में लाया जाएगा। सरकार नें राज्यों को विकल्प दिया है कि जन कल्याण की योजनाएं जैसे प्राथमिक विद्यालय में संचालित मध्याह्न भोजन योजना, आंगनबाड़ी केंद्रों के पुष्टाहार तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली आदि के माध्यम से दालों को सस्ती दरों पर उपलब्ध कराएं। इस हेतु केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को 15 रु. प्रति किलो की केंद्रीय सब्सिडी पर दालों को उपलब्ध कराया जा रहा है।

महाराष्ट्र, तमिलनाडु, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गुजरात तथा केरल जैसे राज्यों ने इस कार्यक्रम के अंतर्गत सस्ती दरों पर दालों का वितरण विभिन्न योजनाओं में करने का निर्णय लिया है। यह रणनीति ग्रामीण क्षेत्र के परिवारों को पोषण सुरक्षा तथा स्टंटिंग एवं वेस्टिंग जैसी कुपोषण की प्रवृत्तियों पर भी रोक लगाने हेतु कारगर साबित होगी। इस प्रकार समन्वित रणनीति से कई समस्याओं के एक साथ निराकरण का सफल प्रयास किया गया है। देश को दलहन के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने, महंगाई पर नियंत्रण तथा सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े उपभोक्ताओं को सस्ती दरों पर दलहन उत्पाद उपलब्ध कराने के जनकल्याणकारी उद्देश्यों की पूर्ति की जा रही है। स्पष्ट है कि समन्वित नीति व रणनीति से कृषि क्षेत्र में दरपेश चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करते हुए उपभोक्ताओं और उत्पादकों, दोनों के हितों की रक्षा की जा सकती है।


Date:16-01-19

चीन की बढ़ती ताकत और हमारी दुविधा

हर्ष वी पंत, प्रोफेसर, किंग्स कॉलेज लंदन

इस महीने की शुरुआत में सेंट्रल मिलिटरी कमिशन (सीएमसी) के शीर्ष अधिकारियों की एक बैठक में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश दिया, क्योंकि उनकी राय में देश को अभूतपूर्व जोखिम और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। बैठक में उन्होंने कहा, ‘सभी सैन्य इकाइयों को न सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास से जुड़ी प्रमुख प्रवृत्तियां सही ढंग से समझनी चाहिए, बल्कि अप्रत्याशित मुसीबत, संकट और युद्ध के प्रति अपनी समझ मजबूत करनी चाहिए’। यह बताते हुए कि ‘दुनिया ऐसे बड़े बदलावों से गुजर रही है, जो सदी में पहले नहीं देखे गए, और चीन अब भी विकास के लिए सामरिक अवसर की खोज में है’ जिनपिंग ने ‘सभी क्षेत्रों में उन्नत कामों को आगे बढ़ाने और मजबूत व कुशल ज्वॉइंट-ऑपरेशन कमांडिंग संस्थानों के विकास में तेजी लाने की जरूरत’ पर बल दिया, ताकि सेना की युद्ध जीतने की क्षमता व्यापक रूप से बढ़ाई जा सके। जिनपिंग ने सशस्त्र बलों के प्रशिक्षण के लिए एक आदेश पर भी हस्ताक्षर किए, जो सीएमसी का इस वर्ष का पहला आदेश है। यह प्रशिक्षण पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की सभी इकाइयों के लिए जरूरी है।

शी जिनपिंग सेना की सक्रियता के लिए खासे उत्साहित रहे हैं और पदभार संभालने के बाद से ही पीएलए को अपनी लड़ाकू क्षमता बढ़ाने पर जोर देते रहे हैं। साल 2017 में कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं कांग्रेस में उन्होंने कहा था कि 2035 तक चीन अपने सशस्त्र बलों को आधुनिक बना लेगा और 2050 तक इसकी गिनती एक ‘विश्व स्तरीय’ सेना में होने लगेगी, जो तमाम परिस्थितियों में लड़ने व जीतने में सक्षम होगी। पिछले साल उन्होंने दक्षिण चीन सागर और ताइवान की निगरानी करने वाली सैन्य इकाई को भी अपनी मुश्किल परिस्थितियों का आकलन करने व क्षमताएं बढ़ाने का आदेश दिया था, ताकि किसी भी आपात स्थिति को वह संभाल सके। कहा यह भी गया कि 2018 में चीन के लगभग 20 लाख सैनिकों ने 18,000 से अधिक सैन्य अभ्यासों में हिस्सा लिया, जबकि 2016 में अभ्यासों का आंकड़ा 100 था।

जाहिर है, शी जिनपिंग और चीन के लिए सैन्य आधुनिकीकरण सर्वोच्च प्राथमिकता में है, क्योंकि विवादित समुद्री सीमा अंतरराष्ट्रीय माहौल को प्रभावित करने लगी है। मगर इससे भी अधिक उनका यह कदम विदेश नीति में सेना को प्रभावी रूप से शामिल करना है, जो अब एक नियम सा बनता जा रहा है और दूसरे देशों के लिए चिंता का कारण भी। अमेरिका और चीन के बीच तनाव बढ़ रहा है और इसके खात्मे के संकेत भी नहीं हैं। ट्रंप प्रशासन दबाव कम करने के मूड में नहीं है। हाल ही में अमेरिकी उप-राष्ट्रपति माइक पेंस ने बीजिंग पर आरोप जड़ते हुए कहा कि ‘चीनी कम्युनिस्ट पार्टी तकनीक चुराकर बड़े पैमाने पर हल को तलवार बना रही है’। अमेरिका के कार्यवाहक रक्षा मंत्री पैट्रिक शानहन ने भी अमेरिकी सैन्य नेतृत्व को सिर्फ ‘चीन, चीन और चीन’ तक सीमित रहने को कहा था। जाहिर है, वह चीन को सत्ता संघर्ष की उभरती ताकत बता रहे थे। अमेरिकी नौसेना दक्षिण चीन सागर में ‘फ्रीडम ऑफ नेविगेशन एक्सरसाइज’ करती ही रहती है।

जवाब में चीन ने भी कहीं तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की। बीजिंग ने जहां अमेरिकी युद्धपोत के हांगकांग जाने का आदेश रद्द कर दिया, वहीं वाशिंगटन से अपने प्रमुख नौसैन्य अधिकारी को भी वापस बुला लिया। रूस से हथियारों की खरीद पर अमेरिकी प्रतिबंध को धता बताते हुए उसने मॉस्को से हथियार खरीदे और ताइवान का पक्ष लेने वाले अमेरिकी बयानों को मजबूती से नकार दिया। हाल ही में जिनपिंग ने ताइवान की औपचारिक स्वतंत्रता को खारिज करने और चीन के साथ ‘शांतिपूर्ण एकीकरण’ को स्वीकारने का आह्वान किया। उन्होंने हांगकांग की तरह ‘एक देश, दो प्रणाली’ की अवधारणा के अनुरूप आगे बढ़ने की बात कही। ताइवान को अपने पाले में रखने के लिए चीन ने सैन्य इस्तेमाल से भी इनकार नहीं किया है। चीनी प्रमुख ‘मातृभूमि का एक इंच टुकड़ा’ भी न सौंपने की कसम पहले खा चुके हैं और उन्होंने ताइवान के आसपास सैन्य अभ्यास भी बढ़ा दिया है। हालांकि ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने जिनपिंग की ‘एक देश, दो प्रणाली’ सलाह को साफ-साफ खारिज कर दिया है और कहा है कि 2019 में ताइवान की प्राथमिकता अपने लोगों की आजीविका में सुधार लाने के अलावा लोकतंत्र की रक्षा करना और अपनी संप्रभुता को बचाना है।

दरअसल, घरेलू आर्थिक मंदी और विदेशों से बढ़ते दबाव के कारण जिनपिंग सेना को लेकर इस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, ताकि अपने देशवासियों का भरोसा बनाए रख सकें। हालांकि इससे भी इनकार नहीं है कि चीन के इस सैन्य आधुनिकीकरण के कारण अमेरिका और चीन के बीच सैन्य अंतर घटने लगा है। बेशक अमेरिकी नौसेना तकनीकी रूप से कहीं ज्यादा उन्नत है, लेकिन चीन की नौसेना भी मजबूती से आगे बढ़ रही है। बेड़े में नए स्टील्थ लड़ाकू और लंबी दूरी के बमवर्षक शामिल किए गए हैं और चीन के युद्धपोत उन्नत राडार और नियंत्रण प्रणाली से लैस हो रहे हैं। इसी महीने की शुरुआत में चीन ने एक नए प्रकार के विशाल हवाई बम का परीक्षण किया, जो अमेरिका के सबसे शक्तिशाली गैर-परमाणु हथियार ‘मदर ऑफ ऑल बॉम्ब्स’ के जवाब में तैयार किया गया है। चीन के हथियार अमेरिकी संस्करण के मुकाबले छोटे और हल्के माने जाते हैं। उन्नत रक्षा तकनीक के मामले में भी वह तेजी से अगुवा बनता जा रहा है, जिसका गंभीर असर वैश्विक सत्ता के तकनीकी संतुलन पर पड़ेगा।

रही बात भारत की, तो भारतीय सेना भी तेजी से आधुनिक बन रही है, लेकिन यह काम नियमित रूप से नहीं हो रहा। यहां खासतौर से चीन द्वारा सीमा पर पेश की जा रही चुनौतियों के संदर्भ में एक सामंजस्यपूर्ण रणनीति का अब भी अभाव दिख रहा है। चूंकि वैश्विक सैन्य तस्वीर तेजी से बदल रही है, इसीलिए भारतीय गैर-परमाणु और परमाणु सैन्य ताकत को भी बदलते समय से कदमताल मिलाना होगा। हमें समझना होगा कि पुरानी सोच ज्यादा दिनों तक कारगर नहीं रहती।


Date:16-01-19

Making UBIS work

Universal Basic Income can be funded by reducing subsidies to the rich

Pranab Bardhan ,[ The writer is professor of graduate school at the department of economics, University of California, Berkeley.]

After my last op-ed in this paper (‘The safety net of the future) several readers, intrigued by the idea of a Universal Basic Income Supplement (UBIS) proposed in the article, asked me to elaborate. Hence this article.

There are reports that the ruling party in Sikkim has announced UBIS in its election manifesto, and, more intriguingly, the Centre is considering such a measure “for people below the Poverty Line”. The latter is a contradiction in terms: UBIS is an unconditional grant to all citizens, not just to the poor — that’s what “universal” means. As I wrote in my earlier piece, many people, who are much above the official poverty line, suffer from variety of insecurities — farmers, of course, face weather and market risks but non-farmers also face several kinds of risks, including in their jobs, often in the informal sector, where some of them are refugees from agrarian and ecological distress or are victims of the recent disaster of demonetisation.

UBIS avoids the problem of deciphering who is poor and who is not, which is an intricate problem in India — the India Human Development Survey found that in 2011-12 about half of the officially poor did not have the BPL card, while about one-third of the non-poor had it. In any case I look upon UBIS not as an administratively easier anti-poverty programme; to me it is more a part of a citizen’s right to minimum economic security, a right which many countries recognise, but so far India does not, even though it should easily fall under the Supreme Court’s interpretation of the “right to life” in the Constitution.

I am often asked: Do you want the government to give money to the Ambanis as well? My answer is yes, as citizens they are entitled to it, just as they have the right to get police protection, even though they can afford their own protection. (If in practice some rich people do not claim it or if there are transparent ways of excluding them — for example those above a certain threshold in income tax return or owning cars, etc. — I will not object strenuously, even though the conceptual point of a citizen’s right remains).

Since UBIS is to be given to the rich and the middle classes as well, it can be expensive. In my earlier piece, I suggested funding it from reducing some of the subsidies that are at present enjoyed mainly by the better-off, also taking a bit from the various tax concessions mostly to business (called “revenues foregone” in the Central Budget), and taxing the currently exempt wealth, inheritance, and long-term capital gains, and collecting more taxes from the currently under-assessed and under-taxed property values. Only a quarter of the 10 per cent of GDP thus potentially mobilisable could go to UBIS; the rest can be spent on infrastructure, health and education. This allows roughly a grant of about Rs 16,000 to each household. If, to start with, it is given only to women, it’ll halve the cost (in my earlier piece there are typos in the cost estimates given for UBIS for only women; the correct amount should be about Rs 2.1 trillion, at 1.25 per cent of the GDP). The special treatment to women is recognition of the hard work most of them do for their households, and outside. It is also a means to raise their (currently low) autonomy and status within the Indian family.

Of course, the better-off (businessmen, large farmers, the salaried class) will not easily give up on the subsidies they have enjoyed all these years or pay substantially more taxes. But without that, if UBIS merely adds significantly to the fiscal deficit or is funded by scaling down some of the current major anti-poverty programmes, then I’ll be generally against it. It will only show that the policy-makers are politically afraid to touch the rich. (This does not mean that the current anti-poverty programmes do not need to shed their waste and inefficiencies).

I think packaging a significant UBIS with a simultaneous increase in the taxes on the rich will help macro-economic stability, apart from assuaging the poor who will face some of the price rise in commodities or services, when subsidies are withdrawn (for example, the price of urea will rise for all farmers, if the fertiliser subsidy is curtailed, even though most of the subsidy goes to large farmers and factories). It is also important to keep in mind that if the declared UBIS amount is too small, only serving as a rhetorical token before elections, people will see through it as another electoral “jumla”, too many of which have been associated with the current regime.

Then there are some practicalities of UBIS any policy-maker has to consider. One, how do you reach everybody in India when many people still do not have bank accounts or access to banking agents (although once such a programme starts, banking agents are likely to be induced to expand their operations, as fixed costs are spread out over larger numbers)? Two, Aadhaar or some other form of identification will be necessary, but the horror stories one has heard about the poor being denied PDS because of the lack of Aadhaar authentication make one wary of bureaucratic callousness in this respect. Three, UBIS needs to be transparently linked right from the beginning to some cost of living index — this is particularly important because of the callous way Indian governments have let their contribution under the National Old Age Pensions Scheme stagnate at a measly Rs 200 per month per pensioner for the last 12 years. Four, UBIS could be different for adults and children, but one probably should not go that way because in the absence of proper age records it may give an opportunity to some corrupt officials. Five, how should the grant money be allocated between the Centre and the states? The state governments have to be part of the active negotiations. Different states may have different fiscal capacities and also different kinds of logistical capabilities in reaching out to people particularly in remote areas. In the estimate for subsidies to the better-off (referred to in my earlier piece), state-level subsidies have been included. In the beginning, however, the central government may have to bear most of the cost, and the Finance Commission may have to work out the eventual modalities of allocation of the burden between the Centre and the states.

UBIS is a policy issue that requires our serious attention and deliberation. It is not one for politicians in desperation for something to do for angry voters just before elections.


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