17-04-2019 (Important News Clippings)

Afeias
17 Apr 2019
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Date:17-04-19

Fired By Passion

Built 850 years ago, Notre Dame cathedral can be rebuilt

TOI Editorials

When a man understands the art of seeing, he can trace the spirit of an age and the features of a king even in the knocker on a door, wrote Victor Hugo in The Hunchback of Notre Dame. That’s a very tall order. But we all attempt it, at the Hampi complex, Sistine Chapel, Taj Mahal, Blue Mosque … . We are filled with wonder at our ancestors, at masterstrokes undefeated by time. The grief that is pouring in from across the world after Notre Dame cathedral’s ravaging by fire is a measure of the awe it inspired among visitors – 12 million a year. Some felt divinity here, others a secular mystery, few were left unmoved.

If the world is feeling hurt that’s nothing to France’s agony. This is ‘point zero’ in the country, to and from which all distances are measured. When the cathedral’s spire fell to the flames, citizens said it seared their hearts. Even as the smell of smoke lessens the Paris skyline remains broken. This is where the coronation of Napoleon and the canonisation of Joan of Arc took place. Here a special mass celebrated the liberation from the Nazis and the bell named Emmanuel was rung to mark the tragedy of 9/11. This is where France came to cheer or to mourn. Where will the country turn to mourn the cathedral ?

But Notre Dame may rise again to glory. In its 850 years’ history it has seen desecration and reconstruction before. French President Emmanuel Macron has vowed to rebuild the “epicentre of our life”. Some of the country’s richest families are pledging hundreds of millions of euros for this effort. Citizens of other countries are telling their governments to help. Together there is a promise of resurrection.


Date:17-04-19

घोषणापत्र को मजाक बना देता है चुनाव आयोग का रवैया

सोमशेखर सुंदरेशन , (लेखक एक वरिष्ठ अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)

हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। हम चुनावों के निरंतर ‘स्वतंत्र एवं निष्पक्ष’ संपन्न होने पर काफी गर्व महसूस करते हैं। आम तौर पर हरेक साल देश में कहीं-न-कहीं चुनाव होता ही रहता है। फिर भी चुनाव घोषणापत्र जैसा बुनियादी मुद्दा भी इतने बुरे ढंग से संचालित किया जाता है कि समूची चुनाव प्रक्रिया एक मजाक बनने के कगार पर पहुंच जाती है। एक सार्वजनिक अनुबंध का मूलभूत अवयव यह है कि अनुबंध को आकार देने वाली प्रतिज्ञा एवं दो पक्षों के बीच की प्रतिज्ञा साफ तौर पर समझ में आ रही हो, उन्हें अच्छी तरह समझाया जा सके और आम जनता ‘जानकारी पर आधारित फैसला’ ले सके। जब कोई कंपनी प्रारंभिक सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) के जरिये पैसे जुटाती है तो उसे एक ‘प्रॉस्पेक्टस’ जारी करना होता जिसमें उसे अपनी कारोबारी गतिविधियों और भावी योजनाओं के बारे में जानकारी देनी होती है। उस कंपनी को इस पेशकश से जुड़े जोखिमों के बारे में भी बताना होता है।

फिर भी जब सभी सार्वजनिक अनुबंधों में सबसे ऊपर माने जाने वाले चुनाव का मामला आता है तो ‘प्रॉस्पेक्टस’ जैसी अहमियत रखने वाले दस्तावेज से संबंधित नियमन की स्थिति काफी दयनीय है। ऐसा तब है जब चुनाव से ही तय होता है कि हम अपने भाग्य-विधाता के रूप में किसे चुन रहे हैं? चुनावी प्रक्रिया का नियमन देश का सर्वाधिक ताकतवर नियामक भारत का चुनाव आयोग करता है जो एक संवैधानिक निकाय भी है। इसके बावजूद चुनाव की जान कही जाने वाली सार्वजनिक प्रतिज्ञा के इतने अहम हिस्से के नियमन को लेकर उथले एवं लापरवाही भरे रवैये के चलते भड़काऊ एवं अस्वीकार्य नतीजे सामने आते हैं।

भारतीय गणराज्य के सातवें दशक के अंत में जाकर इस साल चुनाव आयोग ने घोषणापत्र जारी करने के लिए 48 घंटे की समयसीमा लागू की है। एक चुनाव सुधार के रूप में इस कदम की प्रशंसा की गई है। लेकिन इसका यह मतलब भी है कि आयोग की नजर में मतदाता के लिए किसी दल का घोषणापत्र पढऩे, उसे समझने और उससे सहमत होने पर उस दल को अपना मत देने का फैसला करने के लिए महज 48 घंटे ही काफी हैं। चुनाव आयोग से कम शक्तियां रखने वाले नियामक भी सार्वजनिक दस्तावेज रखने वाले पक्षों को इससे अधिक समय देने के लिए कहते हैं। मसलन, एक प्रतिभूति की पेशकश के दौरान मसौदा प्रॉस्पेक्टस को लोगों के लिए ऑनलाइन पोस्ट करना पड़ता है।

घोषणापत्र में जो भी वादे किए गए हों लेकिन चुनाव नतीजों की घोषणा होने के बाद उस घोषणापत्र में किए गए किसी भी वादे के लिए उस दल को जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसे में बहुत नाराज होने पर मतदाता केवल इतना ही कर सकता है कि वह उस दल को अगले चुनाव में वोट न दे। कोई भी घोषणापत्र यह जिक्र भी नहीं करता है कि पार्टी उस घोषणापत्र में किए गए वादों को नकार सकती है या उनमें संशोधन कर सकती है। संक्षेप में कहें तो किसी पार्टी के घोषणापत्र का असल में कोई मतलब ही नहीं होता है। चुनाव घोषणापत्रों में ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ की संभावना को लेकर कभी भी कोई चेतावनी नहीं दी जाती है। वहीं अगर कोई कंपनी प्रॉस्पेक्टस में कहती है कि वह किसी खास मकसद से धन जुटा रही है लेकिन बाद में वह उस राशि का इस्तेमाल किसी अन्य मकसद से करेगी तो उसके लिए पैसे जुटाना काफी भारी हो जाएगा। किसी भी सत्ताधारी दल के चुनाव घोषणापत्र में ऐसे बिंदु नहीं होते हैं जो यह दिखाएं कि पिछले घोषणापत्र में किए गए वादों के बरक्स उसने कितने वादों को लागू किया है। वादा बनाम प्रदर्शन का यह पहलू हरेक नियामकीय परिवेश का एक अनिवार्य पहलू है लेकिन चुनावों में यह नदारद होता है।

संक्षेप में, चुनाव घोषणापत्र एक ऐसा रस्मी दस्तावेज है जिसके बारे में कोई भी फिक्रमंद नहीं होता है। न तो घोषणापत्र जारी करने की समयसीमा तय करने वाला नियामक और न ही सारे चुनावी वादों को एक जगह देखने की इच्छा रखने वाला मतदाता ही चिंतित होता है। ऐसे में अधिक वास्तविक व्याख्या शायद यही होगी कि चुनावों के दौरान घोषणापत्र जारी करना ही बंद कर दिया जाए। हालांकि पूंजी बाजार में भी कोई निवेशक शायद ही प्रॉस्पेक्टस पढ़ता है। लिहाजा किसी को भी प्रॉस्पेक्टस की भूमिका को लेकर बहुत चिंतित नहीं होना चाहिए। अगर आप सच में प्रॉस्पेक्टस में यकीन करते हैं तो इसका मतलब है कि आप यह मानते हैं कि सहारा के साथ जो कुछ भी हुआ, वह उसके लिए रत्तीभर भी जिम्मेदार नहीं थी।

सहारा के खिलाफ दायर मुकदमे का आधार ही यह था कि उसने शेयरों के जरिये निवेशकों से फंड जुटाने की कवायद के दौरान कोई प्रॉस्पेक्टस ही नहीं जारी किया था। इस चर्चा के केंद्र में रहने वाला चुनाव घोषणापत्र महज मजाक बनकर रह गया है। यह चुनाव नियमन करने वाली संस्था चुनाव आयोग के निष्क्रिय रवैये और मतों के बाजार में जुटे बेफिक्र मतदाताओं के रवैये को भी बयां करता है। कुछ राजनीतिक दलों का घोषणापत्र बनाने के पहले व्यापक सार्वजनिक विमर्श करना तारीफ के लायक है। यह बेहद निष्ठुरता ही होगी अगर दलों को अपने कथित घोषणापत्र के बारे में अधिक चिंता न हो। अगर ‘अंपायर’ निर्वाचन प्रक्रिया के इस अहम दस्तावेज के नियमन की जरूरत नहीं समझता है तो वह दिन अधिक दूर भी नहीं है।


Date:16-04-19

शिक्षा और रोजगार से ही थमेगी आबादी वृद्धि दर

संचिता शर्मा हेल्थ एडीटर, हिन्दुस्तान टाइम्स

गत सप्ताह यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड की वर्ल्ड पॉपुलेशन रिपोर्ट 2019 जारी हुई। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 10 से 24 वर्ष की आयु की 36.5 करोड़ युवा आबादी रहती है, यह अमेरिका की कुल आबादी से कहीं ज्यादा है। वर्ष 2020 में भारत की औसत आबादी 29 वर्ष होगी, भारत दुनिया का सबसे युवा देश हो जाएगा, लेकिन जहां तक नीति की बात है, तो युवा लोग दिखते हैं, गिने भी जाते हैं, लेकिन सुने नहीं जाते। युवा आबादी, विशेष रूप से गरीब, ग्रामीण, सीमांत समुदायों की लड़कियों के पास न तो ऐसी सूचनाएं हैं और न सेवाएं कि वे अपनी शिक्षा, करियर, यौन व प्रजनन अधिकार के बारे में फैसला ले सकें। क्या पढ़ना है, कब तक पढ़ना है, रोजगार के अवसर, कब शादी करनी है, और कितने बच्चे पैदा करने हैं, उन्हें नहीं पता।

महिलाएं और लड़कियां अपने रास्ते में कदम-कदम पर सामाजिक और आर्थिक अवरोधकों से जूझती हैं। भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 2015-16 के अनुसार, बमुश्किल किशोरवय से निकलते ही उनमें से ज्यादातर मां बन जाती हैं। करीब 27 प्रतिशत महिलाएं 18 वर्ष की होने से पहले ही बालिका वधू बन जाती हैं। 15 से 19 साल की मात्र 12 प्रतिशत लड़कियां आधुनिक प्रजनन रोधी उपायों का इस्तेमाल करती हैं। आठ प्रतिशत लड़कियां 19 वर्ष की होने तक बच्चे जनने लगती हैं। यौन शिक्षा एक और अपूर्ण एजेंडा है, जिसकी जरूरत युवाओं को है। निम्न स्तरीय राजनीतिक और सामाजिक विरोध के कारण यौन शिक्षा जैसे पारिभाषिक पद की जगह जीवन कौशल जैसे पद ने ले ली है। 10 से 14 वर्ष की भारतीय आबादी के लिए इंटरनेट और वाट्सएप पर साझा हो रहे वीडियो ही उनके लिए यौन सूचनाओं के अकेले स्रोत होते हैं, जो बहुधा सही नहीं होते। 15 से 24 आयु की विवाहित महिलाओं को गर्भ-निरोधक की जरूरत है, लेकिन उनमें से 22 प्रतिशत महिलाएं इनसे वंचित रहती हैं। यहां तक कि 15 से 49 की उम्र की 12.9 प्रतिशत विवाहित महिलाओं को भी जरूरत के समय गर्भ निरोधक उपलब्ध नहीं होते।

कोई आश्चर्य नहीं, देश की जनसंख्या वर्ष 2060 से 2070 के बीच चीन को पार करके 1.7 अरब पहुंच जाएगी। देश के विकास के लिए श्रम शक्ति में युवाओं और विशेष रूप से महिलाओं की ज्यादा भागीदारी जरूरी है, लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। सांख्यिकीय और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के अनुसार, 15 से 29 वर्ष के हर तीन पुरुष में से दो से भी कम वर्ष 2012 में श्रम शक्ति का हिस्सा थे। इस आयु वर्ग में ग्रामीण आबादी के 63 प्रतिशत और शहरी आबादी के 60 प्रतिशत ही श्रम शक्ति का हिस्सा थे। इस आयु वर्ग की महिलाओं में 18 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएं और 16 प्रतिशत शहरी महिलाएं ही श्रम शक्ति का हिस्सा थीं।

सांख्यिकीय और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि विगत 25 वर्षों में बहुत कुछ हासिल हुआ है। प्रजनन स्वास्थ्य के क्षेत्र में तरक्की हुई है। यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड के भारत स्थित कार्यालय के प्रभारी व क्षेत्रीय सलाहकार क्लॉज बेक बताते हैं, जहां भारत में प्रति महिला औसत प्रजनन दर वर्ष 1971 के 5.2 मुकाबले 2.3 हो गई है, वहीं गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल वर्ष 1969 के नौ प्रतिशत के मुकाबले वर्ष 2019 में बढ़कर 54 प्रतिशत हो गया है। इतने बड़े पैमाने पर बदलाव आसान नहीं, भारत ने प्रतिबद्धता दिखाते हुए प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं में अपना धन लगाया है।

महिला स्वास्थ्य के लिए सक्रिय एक स्वयंसेवी संगठन की समन्वयक अदसा फातिमा कहती हैं, चुनौती सेवा के अंतिम चरण में है। अब भी बधियाकरण करवाने वालों में 93 प्रतिशत महिलाएं हैं, जबकि पुरुषों का बधियाकरण ज्यादा सुरक्षित, त्वरित और आसान है। सुरक्षित गर्भपात सेवाओं का भी अभाव है। यह दोहराने की जरूरत नहीं कि गर्भ-निरोधन और परिवार नियोजन सेवाओं से परिवार का आकार छोटा होता है। पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यक्रम निदेशक पूनम मुतरेजा कहती हैं, गरीबों और अमीरों में वांछित परिवार आकार 1.8 बच्चों का है। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश ने अभी वांछित जन्म दर हासिल नहीं की है। वांछित जन्म दर हासिल करने के लिए विशेष रूप से युवाओं को शिक्षा-रोजगार देने का लक्ष्य बनाकर काम करने में तेजी लानी पड़ेगी।


Date:16-04-19

Weathervane of democracy

The Election Commission’s weakening commitment to the Model Code of Conduct is cause for concern

Rashmi Sharma is a former IAS officer

For the first time since the general election of 1996, the reputation of the Election Commission of India (ECI) has taken a beating. Subsequent to the 1996 election, which marked a turning point in the reduction of electoral malpractices, surveys showed that trust in the ECI was the highest among the major public institutions in India. However, there are now perceptions that the ECI has responded inadequately, or not at all, to violations of the Model Code of Conduct (MCC), which is in effect from March 10 to May 23. Some examples in this election include the Prime Minister’s announcement on national television of India’s first anti-satellite weapon test, the Rajasthan Governor making statements in favour of the ruling party, leaders of the ruling party invoking the Indian Army in their election campaign, and, in a spate of dubious media initiatives, a continuous line of statements along communal lines.

The MCC, like the ECI itself, is a unique Indian innovation and encapsulates an important story about democracy in India — the conduct of free and fair elections. Though just a brief set of guidelines, not law, the MCC is a powerful instrument. It comes into force when the ECI announces election dates and comprises directions to government functionaries, political parties and candidates aimed at an impartial election process. Important provisions include barring governments from making policy announcements to sway voters and restraining political actors from inciting hatred against any group, or bribing or intimidating voters.

Down the years

The origins of the MCC lie in the Assembly elections of Kerala in 1960, when the State administration prepared a ‘Code of Conduct’ for political actors. The leading political parties of the State voluntarily approved the code, which proved useful during the elections. Subsequently, in the Lok Sabha elections in 1962, the ECI circulated the code to all recognised political parties and State governments; reports were that it was generally followed. The emergence of the code and its voluntary acceptance by political parties showed the commitment of the political elite to the holding of free and fair elections.

However, from 1967 till 1991, as political competition intensified, political actors began to resort to corrupt electoral practices. Governments made populist announcements on the eve of elections, had pliant officials in key positions while intimidation of voters and booth capturing increased. The ECI’s appeals to observe the code of conduct were largely ignored. The ECI now resorted to a familiar, but ineffective, strategy in Indian public life. It refined the code, making it more stringent by including a section about the misuse of powers by ruling parties and renamed it the MCC. Though it demanded that the MCC be incorporated in the law, no such law could be passed.

A turning point

After 1991, the ECI used new means to enforce the MCC. The then-Chief Election Commissioner, T.N. Seshan rebuked prominent political actors publicly and even postponed elections, thereby re-interpreting the ECI’s power to fix election dates. The burgeoning electronic media of the time reported these initiatives with enthusiasm, while candidates were happy to capitalise on the mistakes made by their rivals. Consequently, political actors began to take the MCC seriously, fearing it even if they did not respect it. The MCC now countered the lack of commitment of the political class to free and fair elections, the ECI began to command a new respect and electoral malpractices declined dramatically.

New flashpoints

Today, the MCC is at a crossroads, as is the ECI. Two distinct trends are visible. One, electoral malpractice has appeared in new forms. Voter bribery and manipulation through the media have become the techniques of unethically influencing voters in place of voter intimidation and booth capturing. These malpractices are harder to stem. Booth-capturing is an identifiable event, taking place at a particular time and place. Voter bribery is spread over time and space. Voters resent being intimidated and are likely to cooperate with authorities in preventing it, but may be willing to be bribed. The misuse of the media is difficult to trace to specific political parties and candidates.

The ECI’s response to the new challenges has been inadequate. It has appointed expenditure observers, evolved a code for social media, and, very recently, after a spate of criticism, stopped the release of biographical pictures that could influence voters. But there is little evidence that it has got to the core of the problem as it did after 1991. As in the pre-1991 phase, its efforts have hardly borne fruit. At the same time, the misuse of money and media power has intensified since the last two elections.

The second trend is that the ECI’s capacity to respond to the older types of violations of the MCC has weakened. Its response to inappropriate statements by powerful political actors has been weak, or delayed. Consequently, political actors are regaining the confidence to flout the MCC without facing the consequences. As the ECI’s capacity to secure a level playing field has dipped, attacks on it have increased. They now encompass its processes such as the use of electronic voting machines, which had become acceptable when the ECI was stronger. A vicious cycle has been set in motion.

The MCC is, in many ways, the weathervane of our democracy. The initial idea of free and fair elections was embraced by the political elite voluntarily, and the MCC emerged. Over time, the commitment of the political class to free and fair elections declined, and it flouted the MCC. During the early to mid-1990s, the ECI enforced the MCC on reluctant political actors, and MCC began to feared, if not voluntarily followed. Today, the ECI’s own commitment to the MCC seems to have weakened, a bad omen for our democracy.