17-01-2025 (Important News Clippings)

Afeias
17 Jan 2025
A+ A-

To Download Click Here.


Date: 17-01-25

Sarkari Salaries

Eighth Pay Commission should avoid another templated hike. It should think radically

TOI Editorial

Cabinet approved the Eighth Pay Commission yesterday. There’s no arguing govt employees must receive fair compensation. Governance is complex, and compensations and allowances must meet demands of the job. That said, if India is to continue on the path to becoming a developed economy, radical reforms are required – and well…charity begins at home. On the HR front, GOI is bogged down by one, a critical gap in skills with governance needs, and two, a bruising cost of salaries and wages, so much so that even filling vacancies is arduous. Senior bureaucracy is slathered with nawabesque benefits but their salaries don’t compete with what counterparts in private sector earn. Add to that the possibility that the old pension scheme may come back – not just the sheer scale that’s bound to expand as longevity twins with improved healthcare – but also the ironic fact that retired govt brass ends up in top tax-paying category courtesy earnings off pensions.

The reality is, however, even more twisty at the entry level. Job security and assurance of high wages ensure millions of job-ready young men and women would rather wait to land a govt job – akin to buying the moon – than enter the much lower paying, uncertain, workforce that private sector employs. Add to that the mismatch between skill and job requirements and it’s the perfect disaster. On the one hand, jobless growth, on the other, inability of govt to recruit, which in turn impacts delivery of services including in law enforcement, education and healthcare.

If the Gordian knot of joblessness is to be loosened, it must start with reconstructing how central govt employees’ salaries are designed. One, corporatise bureaucrats’ salaries, kill the OTT luxuries and kill pension. NPS, unfortunately partially rolled back, is the reasonable go-to. Two, lower entry-level wages, recruit, train, reskill a young workforce that can be assured of job security and promotions. Fact is, India’s govt is small in terms of capacity – per ILO, India’s public sector size (number of public sector employees as percentage of total workforce) is among the world’s lowest, but it’s a very expensive operation to run. That’s the skew Pay Commission needs to fix.


Date: 17-01-25

Gates in the sky

Docking technology allows ISRO to think of longer space flights

Editorial

On December 30, 2024, the Indian Space Research Organisation (ISRO) launched its PSLV-C60 mission. Its primary payload was a pair of satellites for the Space Docking Experiment, or SpaDeX, to demonstrate orbital rendezvous and docking. The ability to execute it in orbit is an essential stepping stone to more complex missions. The launch was also hailed as ISRO ending the year on a high, but SpaDeX reminded us that sophisticated spaceflight missions care little for arbitrary deadlines. The satellites successfully docked on January 16 after a few abortive attempts. They were expected to dock on January 7, which ISRO postponed to January 9, then brought them close without docking on January 12 in an apparent data-taking effort. It nixed the January 9 attempt after the satellites were found to have drifted more than expected, prompting measures to arrest the displacement and reinitialise the experiment. Once docked, ISRO began tests to verify if the satellites could exchange electric power, then undock and separate, followed by testing their own payloads that would be spread over two years. The C60 mission also launched the fourth stage of the rocket as an orbital platform. It carried 24 payloads from various ISRO centres and private enterprises testing various technologies. The Vikram Sarabhai Space Centre’s Compact Research module for Orbital Plant Studies was able to have cowpea seeds germinate in orbit, capturing the popular imagination.

Docking allows spacefaring components to be launched separately and assembled in space to form a larger module. This allows a space agency to plan interplanetary missions whose spacecraft are heavier than what the heaviest rockets can launch. Docking is thus a symbolic gateway to new opportunities, with the Chandrayaan-4 lunar sample return mission being a good example. In anticipation, ISRO loaded the SpaDeX satellites with enough fuel for multiple tries and also continuously collected data. Its own nervousness became evident, too: after the first two attempts, it backed down from its promise to live-stream the successful one. Docking technology has become desirable thanks to the perceived inevitability of long-duration spaceflight. The pressure to lower costs imposed by, say, crewed missions to Mars or space-mining operations has rendered ideas such as in-space satellite servicing and orbital resupply platforms, both of which require docking, more lucrative. ISRO plans to start launching the ‘Bharatiya Antariksh Station’ (BAS) later this decade. As it embarks on a new phase of operations, with V. Narayanan as its new chairman, ISRO should also describe a coherent vision for the ex ante utility expected of BAS. Without this context, the larger pieces of the Indian space programme and their purpose relative to other countries’ plans seem adrift.


Date: 17-01-25

बच्चों के विकास में राज्यवार भेद के मायने

संपादकीय

अगर एक बच्चा बिहार या यूपी में पैदा हुआ और दूसरा गोवा, दिल्ली या चंडीगढ़ में तो जन्म से ही दोनों की आय में छह गुने का अंतर होगा। उसी तरह जब वह स्कूल जाएगा तो एक को कंप्यूटर या नेट सुविधा मात्र 11 और 18% स्कूलों में मिलेगी, जबकि केरल वाले बच्चे को 98% स्कूलों में। भारत में 75 साल पहले संविधान की प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोगों’ ने ‘अवसर की समानता’ का वादा किया था। गरीब राज्यों में स्वास्थ्य के मद में सरकारी खर्च भी प्रति व्यक्ति काफी कम होता है, जिसकी वजह से बीमारी में अपनी जेब से खर्च गरीबों की कमर तोड़ देता है। इसी कारण से बिहार या उत्तर भारत के राज्यों से समृद्ध और औद्योगिक पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों में पलायन होता है। अगर आर्थिक विकास का सही बंटवारा होता है, तो कम से कम मानव विकास के मूल उपादानों जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य में विभेद भी कम होता । ऐसा नहीं है कि बेहतर मानव विकास के लिए आर्थिक समृद्धि एक मात्र शर्त है। सबसे अच्छे मानव विकास वाले केरल की प्रति व्यक्ति जीडीपी महाराष्ट्र और गुजरात से बेहतर नहीं है, लेकिन शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात में बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल सबसे पीछे हैं जबकि सिक्किम और अन्य उत्तर-पूर्वी राज्य आगे। सीधा सवाल राजनीतिक नेतृत्व की प्राथमिकताओं का है।


Date: 17-01-25

आठवां वेतन आयोग

संपादकीय

जब इस पर संशय था कि आठवें वेतन आयोग का गठन होगा या नहीं, तब केंद्र सरकार ने ऐसा करके केंद्रीय कर्मचारियों के मन की मुराद पूरी कर दी। इस निर्णय से करीब 50 लाख केंद्रीय कर्मचारियों को लाभ मिलेगा। इस वेतन आयोग से देर-सवेर राज्य सरकारों के कर्मचारी भी लाभान्वित होंगे, क्योंकि इस आयोग की संस्तुतियां स्वीकार होने के बाद राज्य सरकारों के लिए भी उन्हें मंजूर करना आवश्यक हो जाएगा नया वेतन आयोग गठित करने के फैसले के आधार पर ऐसे निष्कर्ष निकाला जाना स्वाभाविक है कि इसका लाभ अर्थव्यवस्था को भी मिलेगा, क्योंकि सरकारी कर्मचारियों की क्रयशक्ति चड़ेगी तो खपत में भी वृद्धि होगी। निःसंदेह ऐसा होगा, लेकिन क्या सरकाशी कर्मचारियों को दक्षता एवं कुशलता भी बड़ेगी और वे जवाबदेह बनेंगे? इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि औसत सरकाशी कर्मियों में कार्य के प्रति निष्ठा और समर्पण के अभाव का सवाल रह-रहकर उभरता रहता है। यह किसी से छिपा नहीं कि सरकारी कामकाज में लेटलतीफी और भ्रष्टाचार की शिकायत बहुत आम है। इसी तरह मुश्किल से ही सरकारी कर्मी ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी सेवाएं देने के लिए तत्पर रहते हैं यह तब है, जब देश की अधिसंख्य आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है।

सरकारें अपने विभागों के कामकाज को लेकर चाहे जैसा दावा क्यों न करें तथ्य यह है कि आम नागरिक सरकारी कर्मियों की कार्यशैली से नाखुश रहते हैं। वे सरकारी कर्मचारियों में सेाभात्र की कमी की शिकायत भी करते रहते हैं। उचित यह होगा कि आठवें वेतन आयोग से यह कहा जाए कि वह अपनी सिफारिशों इस तरह तैयार करे जिससे सरकारी कर्मचारियों को कार्यकुशल और जवाबदेह बनाया जा सके। यह तब संभव हो पाएगा, जब सरकारी नौकरियां सुनिश्चित सेवा अवधि और आरामतलबी की पर्याय नहीं रह जाएंगी। यह समय की मांग है कि सरकारी कर्मियों के वेतन-भत्ते का निर्धारण उनके प्रदर्शन के आधार पर किया जाए। जो कर्मचारी बेहतर कार्य करे, उसे पुरस्कृत किया जाए और जो कसौटी पर खरा न उतरे, उसे हतोत्साहित किया जाए। अब जब आट वेतन आयोग के गठन का फैसला ले लिया गया है, तब कह भी आवश्यक है कि मिनिमम गवर्नमेंट- मैक्सिमम गवर्नेस वानी न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन के विचार को साकार करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं। इस बारे में बातें तो बहुत हुई हैं, लेकिन उनके अनुरूप काम कुछ नहीं हुआ समझना कठिन है कि दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह लागू क्यों नहीं किया जा सका है? यदि सरकारी विभागों का कामकाज दुरुस्त किया जा सके तो इसका लाभ समाज और सरकारों को भी मिलेगा। चौके आठवें वेतन आयोग का लाभ पेंशनधारकों को भी मिलेगा, इसलिए निजी क्षेत्र के संगठित एवं असंगठित कर्मियों की सामाजिक सुरक्षा की भी सुध ली जानी चाहिए।


Date: 17-01-25

मनुष्य को मशीन न बनाए

प्रो. रसाल सिंह, ( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामानुजन कालेज में प्राचार्य हैं )

आजकल वर्क-लाइफ बैलेंस पर बहस जोर पकड़ती जा रही है। इस बहस में कुछ दिग्गज उद्योगपतियों के बयान हतप्रभ करने वाले हैं। हम जानते हैं कि कोविड जैसी आपदा से निपटने के बाद हम सभी ने बहुत मुश्किल से अपने कार्य और परिजनों के मध्य समय का संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया है, परंतु पिछले दिनों लार्सन एंड टुब्रो के चेयरमैन एसएन सुब्रमण्यन ने हफ्ते में 90 घंटे काम करने का विचार रखा।

उन्होंने दांपत्य जीवन का मखौल उड़ाते हुए कहा कि आखिर आप कब तक अपनी पत्नी को निहारेंगे। उन्होंने रविवार के अवकाश को भी गैर-जरूरी बताया। लगता है कि उन्हें न तो मानव-प्रबंधन की पेशेवर समझ है और न ही उनके भीतर मानवीय संवेदनाएं हैं। शायद उनका भारतीय जीवन-पद्धति, जीवन-दर्शन के साथ-साथ मानव-प्रबंधन क्षेत्र में हो रहे नवाचारों से भी कोई सराकोर नहीं। क्या वह मनुष्य को रोबोट से अधिक कुछ नहीं समझते? यह विडंबना ही है कि वह यह भी भुला बैठे कि रोबोट को भी देखभाल और रीचार्जिंग की आवश्यकता होती है।

कामकाजी घंटों की बहस कुछ समय पहले इन्फोसिस के सहसंस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने शुरू की थी। उन्होंने कहा था कि वैश्विक स्तर पर अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराना है तो हमें सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहिए। इसके बाद कई कारोबारी ऐसी पैरवी कर चुके हैं, मगर महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा, आइटीसी के चेयरमैन संजीव पुरी और ओयो के सह-संस्थापक रितेश अग्रवाल ने काम के घंटे बढ़ाने का विरोध करते हुए काम और जीवन की गुणवत्ता को प्राथमिकता देने की बात की है।

सनातन परंपरा में मानव जीवन और उसकी कार्यक्षमता के संबंध में मानव-केंद्रित वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया गया है। इस परंपरा में हम विकास और भौतिकवाद की अंधी दौड़ में शामिल होकर गलाकाट प्रतिस्पर्धा नहीं करते, अपितु स्वस्थ और संतुलित जीवनशैली अपनाते हुए अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक उत्पादकता के शिखर तक पहुंचने का प्रयास करते हैं।

इस क्रम में हम यह भी देखते हैं कि जीवन और जीवन-मूल्य हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं। हम उत्पादकता को बढ़ाने के लिए शारीरिक-मानसिक संतुलन को नहीं बिगड़ने देते, क्योंकि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्।’ हमारे जीवन-दर्शन का लक्ष्य व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का सर्वांगीण विकास है, न कि एकाग्र भौतिक विकास हमारा एकमात्र ध्येय है। यही कारण है कि हमारे यहां सफलता की जगह सार्थकता पर बल है।

महात्मा गांधी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे भारतीय विचारकों के अनुसार जीवन के परम लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थ-चतुष्टय की प्राप्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का स्वास्थ्य, संतुलन और समन्वय आवश्यक है। यही चरम सुख और परम वैभव का प्रशस्त पथ है। किसी भी राष्ट्र की प्रगति के मूल्यांकन का आधार विकास दर मात्र नहीं, बल्कि हैप्पीनेस इंडेक्स होना चाहिए।

व्यक्ति न केवल परिवार बसाता है, बल्कि समाज से भी जुड़ता है। वह प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करके जीवन को सरल एवं सरस बनाता है। वह जीव और जगत के मध्य संतुलन स्थापित करता है। दूसरी ओर, भोगवादी जीवन पद्धति मानव को मशीन के रूप में देखती है। मानव जीवन का मशीनीकरण होने से उसके जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होती है।

मनुष्य का मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। यदि उपयोगितावादी दृष्टि से मानव जीवन को देखा जाएगा तो केवल मानसिक संताप बढ़ेगा। परिवार और समाज जैसी संस्थाएं भी संकटग्रस्त होंगी। उपयोगितावादी दृष्टि से समाज में विखंडनकारी और विभेदकारी जीवन पद्धति को प्रोत्साहन मिलता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो सप्ताह में 70 या 90 घंटे कार्य करने से सेहत पर दीर्घकालिक दुष्प्रभाव पड़ेगा। 2021 की संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट भी लंबी कार्यावधि का विरोध करती है। विभिन्न शोध बताते हैं कि अत्यधिक काम करने वाले उच्च रक्तचाप, मधुमेह, अवसाद और हृदय संबंधी बीमारियों से ग्रस्त हो सकते हैं। लंबे समय तक बैठ कर काम करने वालों में जीवनशैली संबंधी ऐसी बीमारियों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।

युवाओं में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति और कम होती प्रजनन क्षमता भी काम के अतिशय दबाव और नकारात्मक वातावरण की देन है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआइ और मशीनीकरण के इस युग ने निश्चित ही मानव जीवन तथा मानवीय संवेदनाओं पर प्रश्नचिह्न लगाया है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विचारों का आदि-स्रोत मानव मस्तिष्क ही है।

यदि हम नवीन तथ्यों का अनुसंधान करना चाहते हैं तो इसके लिए मानसिक स्वास्थ्य दुरुस्त रखना होगा। यह तभी संभव होगा, जब वर्क-लाइफ बैलेंस होगा। मौलिक चिंतन स्वस्थ मस्तिष्क से ही संभव हो पाता है। हम एआइ और रोबोटिक्स आदि के द्वारा कार्यों को आसान तो बना सकते हैं, लेकिन उसी कार्य को नवीनता या मौलिकता के साथ नहीं कर सकते। मशीन मनुष्य की जगह नहीं ले सकती।

अवसाद और अकेलेपन से बचने के लिए व्यक्ति परिवार और प्रकृति के साहचर्य में अपने तन-मन को दुरुस्त करता है। काम के अनावश्यक दबाव के कारण जीवनशैली प्रभावित होती है। जीवन की उत्पादकता और उपलब्धियों को संपूर्णता में देखने की आवश्यकता होती है। परिवार और समाज से अलग व्यक्ति का न कोई व्यक्तित्व है और न ही अस्तित्व। परिवार और समाज में रहकर ही व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होता है तथा रचनात्मकता एवं उत्पादकता बढ़ती है। इसलिए पारिवारिक और पेशेवर जीवन में उचित तालमेल बनाना होगा।

बहुत ज्यादा काम के घंटों से बच्चे भटकावग्रस्त और बुजुर्ग उपेक्षित और एकाकी हो जाएंगे। ऐसी स्थिति समाज एवं राष्ट्र के लिए शुभ नहीं। संवाद के लिए बने इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म भी संवादहीनता और अकेलेपन के कारक बनते जा रहे हैं। चूंकि कार्यजीवन में संतुलन से ही व्यक्ति समाज एवं संस्थान में सर्वोत्तम योगदान दे सकता है, इसलिए जरूरी है कि कंपनियां कर्मियों को उनकी आवश्यकता समझकर अपेक्षित अवकाश प्रदान करें।


Date: 17-01-25

कायम होगा अमन

संपादकीय

दुनिया भर में प्रसन्नता की लहर के बावजूद इजरायल और हमास के बीच 15 महीनों से चल रहे संघर्ष में स्थायी शांति की संभावना बहुत कम नजर आती है। इस संघर्ष में अब तक 1.20 लाख लोग हताहत हो चुके हैं। इनमें अनेक महिलाएं और बच्चे हैं। इस दौरान 19 लाख गाजावासी विस्थापित हुए। तीन चरणों वाले संघर्ष विराम समझौते में सद्भाव की कमी नजर आती है। खबरों के मुताबिक इजरायल और हमास कतर और अमेरिका की कठिन अप्रत्यक्ष वार्ता के बाद इसके लिए सहमत हुए लेकिन दोनों देशों के बीच गहरा अविश्वास कायम है। फिलहाल इजरायल की कैबिनेट ने अंतिम हस्ताक्षर करने में देरी की है जबकि इस पर गुरुवार को हस्ताक्षर होने थे। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू जो अपने देश में अत्यधिक अलोकप्रिय हैं, उन्होंने कहा है कि इजरायल की कैबिनेट तब तक बैठक नहीं करेगी जब तक हमास अपने दावे के मुताबिक ‘अंतिम समय की रियायत’ से पीछे नहीं हट जाता। संघर्ष विराम पर सहमत होने को लेकर नेतन्याहू की अनिच्छा का कारण घरेलू राजनीतिक अनिवार्यताओं में शामिल है।

वह 2022 से ही दक्षिणपंथी कट्‌टरपंथी दलों के साथ वाली सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं और उनका सत्ता में बने रहना हमास के साथ संघर्ष को लंबा खींचने पर निर्भर है। अक्टूबर 2023 में इजरायली नागरिकों पर हमास के हमले के बाद उनकी सरकार ने कहा था वह हमास को नष्ट कर देगी। उस हमले में 1,200 लोग मारे गए थे और 250 से अधिक लोगों को बंधक बना लिया गया था। संघर्ष विराम की घोषणा के कुछ ही घंटों के भीतर इजरायल द्वारा गाजा पर हमला किया गया जिसमें 70 से अधिक लोग मारे गए। यह भी बताता है कि समझौते का सम्मान होना मुश्किल नजर आ रहा है।

संघर्ष विराम के रविवार से प्रभावी होने की उम्मीद है। इसे लेकर फिलिस्तीन के लोगों ने राहत की सांस ली है क्योंकि अमेरिका में ट्रंप की सरकार बनने के बाद उन्हें अधिक राहत की उम्मीद नहीं है। ईरान को भी राहत मिली है जो लेबनान स्थित समूह हिजबुल्ला की मदद से इस जंग में छद्म रूप से शामिल है। हालांकि इस बारे में विस्तृत घोषणा होनी बाकी है लेकिन समझौते में बंधकों का आदान प्रदान, इजरायली सैनिकों की वापसी, गाजा के पुनर्निर्माण के लिए प्रतिबंधरहित सहायता और विस्थापित फिलिस्तीनियों की वापसी शामिल है। हमास के पास अभी भी 94 बंधक हैं। बदले में इजरायल करीब 1,000 फिलीस्तीनी कैदियों को रिहा करेगा। इनमें से कुछ तो एक दशक से जेल में हैं। सैनिकों की वापसी और कैदियों की अदला बदली इस समझौते के पहले दो चरण होंगे और तीसरे चरण में गाजा का पुनर्निर्माण शामिल होगा। यह समझौता 84 दिन तक के लिए लागू है लेकिन यह कई अनुत्तरित सवालों का केवल एक पहलू है।

उदाहरण के लिए इजरायल संघर्ष विराम के पहले चरण में गाजा में एक बफर जोन में मौजूदगी बनाए रखेगा। इजरायली रक्षा बलों का फिलिस्तीनी भूभाग में लगातार बने रहना कैदियों की अदला बदली के पहले विश्वास बहाल करने में मदद नहीं करेगा। इस समझौते की जटिलताएं भी युद्ध विराम को नाजुक बना रही हैं। कोई छोटी सी घटना भी शत्रुता को दोबारा हवा दे सकती है। इजरायली पक्ष की शिकायत है कि हमास की बंधकों को रिहा करने की प्रतिबद्धता अस्पष्ट है। इसी तरह संघर्ष विराम फिलिस्तीन की चिंताओं को भी पूरी तरह दूर करने वाला नहीं है।

अक्टूबर 2023 में हमास के हमले के बाद से ही इजरायल ने पश्चिमी तट पर पर बड़ी संख्या में फिलिस्तीनियों को मारा और विस्थापित किया है। इस क्षेत्र में फिलिस्तीनियों की सुरक्षा के आश्वासन के बिना संघर्ष विराम कायम रहना मुश्किल है। इस लंबे और निराश करने वाले संघर्ष में जहां लाखों लोग अपने घरों से विस्थापित हुए वहीं इतिहास बताता है कि संघर्ष विराम अस्थायी ही साबित हुए हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि इस बार कुछ अलग होगा।


Date: 17-01-25

शांति की उम्मीद

संपादकीय

इजराइल और हमास के बीच युद्ध विराम पर सहमति की घोषणा निश्चित रूप से एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन जब तक यह वास्तव में जमीन पर नहीं उतरेगी, तब तक फिर से जंग की आशंका बनी रहेगी। दरअसल, पिछले वर्ष मई के बाद कई बार तात्कालिक या अस्थायी युद्धविराम को लेकर पहलकदमी हुई, लेकिन फिर कुछ दिनों बाद हमलों में लोगों के मारे जाने की खबरें आती रहीं। जाहिर है, यह कुछ दिनों के लिए भी युद्ध को विराम देने को लेकर प्रतिबद्धता में कमी और शांति के प्रति उपेक्षा का भाव ही रहा कि अब तक हजरावली हमलों में फिलिस्तीनी लोगों के मारे जाने की खबरें आ रही हैं। मगर अब युद्ध विराम के सवाल पर जराहल और हमास के बीच ताजा सहमति की खबर से इस बार शांति की राह तैयार होने की उम्मीद पैदा हुई है। फिलहाल समझीते का जो स्वरूप सामने आया है उसके मुताबिक हमास की ओर से चरणबद्ध तरीके से हजराहली बंधकों और इजराइल में सैकड़ों फिलिस्तीनी कैदियों की रिहाई सुनिश्चित की जाएगी। साथ ही, गाजा में विस्थापित लोगों को वापस लौटने की भी अनुमति दी जाएगी। इसके अलावा, बुद्ध से प्रभावित इलाकों में मानवीय सहायता पहुंचाने की व्यवस्था होगी।

गौरतलब है कि मौजूदा युद्ध की शुरुआत सात अक्तूबर, 2023 को इजराइल पर हमास के उस हमले से हुई थी, जिसमें करीब बारह सौ लोग मारे गए थे। उसके बाद हमास को जवाब देने के नाम पर इजराइल के गाजा पर हमले की एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया माना गया था। मगर तब से लेकर पंद्रह महीने बीत चुके हैं और गाजा पर इजराइल का हमला लगातार जारी है। एक आंकड़े के मुताबिक, इजराइल के हमले में अब तक करीब पचास हजार लोग मारे गए हैं। गाजा में बीस लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हो चुके हैं। हजराल का कहना है कि वह हमास के आतंक का खात्मा कर देगा। लेकिन यह पड़ताल का मसला है कि बजराल के हमले में हमास के कितने सदस्य मारे गए और कितने आम लोगों को जान गंवानी पड़ी। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इस युद्ध में मारे गए आम लोगों में बड़ी संख्या बच्चों और महिलाओं की है जिनका बुद्ध से कोई वास्ता नहीं था। गाजा पर हमले के क्रम में अस्पताल, स्कूल और हमले से बचने के लिए पनाह लेने वाली जगहों को भी नहीं बख्शा गया। बुद्ध को लेकर अंतरराष्ट्रीय नियम-कायदों का भी कोई खयाल रखना जरूरी नहीं समझा गया। इस सबके लिए हजराल पर जनसंहार और वहां के प्रधानमंत्री पर युद्ध अपराध का आरोप भी लगाया गया।

इजराइल और हमारा के बीच युद्ध को खत्म कराने के लिए संयुक्त राष्ट्र से लेकर कई स्तर पर कोशिशें जारी थीं, मगर उसका कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकल पा रहा था। अब इतने लंबे समय के बाद अगर युद्धविराम पर दोनों पक्षों के बीच सहमति बन सकी है तो इस बात की कोशिश होनी चाहिए कि अब उसमें कोई अड़चन न खड़ी की जाए उस पर अमल भी सुनिश्चित किया जाए और शांति निरंतरता में कायम हो। ऐसी स्थिति फिर नहीं पैदा होनी चाहिए कि एक ओर बुद्ध विराम पर सहमति की घोषणा हो और दूसरी ओर हमले और उसमें लोगों का मारा जाना जारी रहे। वह एक स्थापित हकीकत है कि किसी भी समस्या या विवाद का हल अंतहीन युद्ध नहीं हो सकता। संभव है कि इस कुद्धविराम से इजरायल और फिलिस्तीन के बीच लंबे समय से चली आ | रही कड़वाहट पूरी तरह खत्म न हो, मगर कितने भी जटिल मसले का हल आखिर संवाद के रास्ते से ही गुजरता है।


Date: 17-01-25

अंतरिक्ष में कामयाबी

संपादकीय

भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में एक और बड़ी कामयाबी दर्ज की है, जिसकी खूब सराहना हो रही है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने गुरुवार को दो सैटेलाइट को अंतरिक्ष में परस्पर जोड़कर एक सैटेलाइट बनाने का कारनामा कर दिखाया है। इसे वैज्ञानिक भाषा में स्पेस डॉकिंग एक्सपेरिमेंट (स्पाडेक्स) कहा जाता है और ऐसी क्षमता हासिल करने वाला भारत दुनिया का चौथा देश बन गया है। भारत से पहले अमेरिका, रूस और चीन ने ही इस कारनामे को अंजाम दिया है। अत: इस बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि के वैश्विक महत्व को समझा जा सकता है। भारत ने अपनी क्षमता का स्वयं विकास किया है। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद भारत की यह कामयाबी दूसरे देशों को चकित और प्रेरित करेगी। अमेरिका और रूस की वैज्ञानिक तरक्की किसी से छिपी नहीं है। इसके अलावा चीन को पहले अमेरिका से और अब रूस से किस तरह तकनीकी सहयोग मिल रहा है, यह भी गोपनीय नहीं है। प्रगतिशील देश के रूप में देखें, तो भारत की यह कामयाबी अलग से रेखांकित की जा सकती है।

इस बड़ी कामयाबी की तारीफ सभी पक्ष या दलों के नेताओं ने की है, तो आश्चर्य नहीं। यह घोषणा करते हुए इसरो के उत्साह को भी समझा जा सकता है। इसरो ने एक्स पर किए गए अपने एक पोस्ट में कहा है, ‘भारत ने अंतरिक्ष इतिहास में अपना नाम दर्ज करा लिया! गुड मॉर्निंग इंडिया…।’ ध्यान रहे, स्पेस डॉकिंग एक्सपेरिमेंट मिशन 30 दिसंबर, 2024 को सफलतापूर्वक लॉन्च किया गया था और डॉकिंग या सैटेलाइट जोड़ने की मुख्य प्रक्रिया को 12 जनवरी को अंजाम दिया गया। भारतीय वैज्ञानिकों ने न केवल सैटेलाइट को जोड़कर एक बनाया, बल्कि उन्हें वापस अलग भी किया। यह तकनीक बहुत काम की है, क्योंकि भविष्य में भारत को अपना अंतरिक्ष केंद्र बनाना है। अंतरिक्ष केंद्र बनाते समय एक यंत्र को दूसरे से जोड़ने की कला में माहिर होना सबसे जरूरी है। अंतरिक्ष में कोई भी निर्माण एक झटके में नहीं पूरा होगा। मान लीजिए, अंतरिक्ष में कोई हल्का या छोटा ही घर बनाना हो, तो भी उस घर के टुकड़ों को बारी-बारी अंतरिक्ष में ले जाने की जरूरत पड़ेगी। अगर एक बड़े सैटेलाइट को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करना मुश्किल हो, तो छोटे-छोटे सैटेलाइट जोड़कर बड़ा सैटेलाइट तैयार किया जा सकता है।

इस तकनीक में जब भारत माहिर हो जाएगा, तब अंतरिक्ष में किसी भी पुराने पड़ते सैटेलाइट को फिर से रिचार्ज या दुरुस्त किया जा सकेगा। अंतरिक्ष विज्ञान में कामयाबी के लिए किसी देश का पावर ट्रांसफर में सक्षम होना भी जरूरी है। यह क्षमता बहुत उपयोगी है। क्या इस क्षमता के जरिये अंतरिक्ष कक्षा की सफाई भी की जा सकती है? हम अक्सर सुनते हैं कि अंतरिक्ष में बेकार की चीजें भी हवा में तैर रही हैं। अगर इस बारे में अमेरिका, रूस और चीन ज्यादा नहीं सोच रहे हैं, तो भारत को अपनी सीमित क्षमता के बावजूद अंतरिक्ष में सफाई अभियान के बारे में सोचना चाहिए। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में इसरो को ऐसे अच्छे काम करते रहने चाहिए, ताकि भारतीय विज्ञान की सकारात्मक चर्चा दुनिया के तमाम देशों में जारी रहे। गौर करने की बात है, अंतरिक्ष विज्ञान क्षेत्र में व्यवसाय विकसित हो रहा है, जिसमें भारत की भी हिस्सेदारी है और यह हिस्सेदारी तेजी से बढ़नी चाहिए। इसरो को ज्यादा पेशेवर या व्यावसायिक दृष्टि से काम करना चाहिए, ताकि भारत अंतरिक्ष विज्ञान में विकसित के साथ ही, आत्मनिर्भर भी बने।


Date: 17-01-25

बुरे दौर की ओर इशारा कर गए बाइडन

अश्विनी महापात्रा, ( प्रोफेसर, जेएनयू )

अपने विदाई भाषण में निवर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अमेरिका में लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट, बढ़ती असहिष्णुता और खत्म हो चुकी राजनीतिक सहमति की तरफ जो इशारा किया, उसके गहरे निहितार्थ लगाए जा सकते हैं। दरअसल, वह बताना चाह रहे थे कि जिन लोकतांत्रिक मूल्यों की बुनियाद पर अमेरिका की नींव पड़ी है, उसे खोखला किया जा रहा है। हालांकि, ऐसा कहते हुए वह परोक्ष रूप से अपनी विफलता ही गिना रहे थे। सवाल तो यही है कि अपने चार साल के कार्यकाल में वह अमेरिकी मूल्यों को बनाए रखने में इस कदर विफल क्यों रहे?

वास्तव में, बाइडन के लिए चुनौती नवंबर, 2020 में तभी शुरू हो गई थी, जब उन्होंने राष्ट्रपति पद का चुनाव जीता था। जनादेश को न मानते हुए रिपब्लिकन नेता डोनाल्ड ट्रंप ने 6 जनवरी, 2021 को अपने समर्थकों के साथ कैपिटल हिल (संसद भवन) पर चढ़ाई कर दी थी। इस घटना से सबक लेकर यदि बाइडन ने रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी में आमराय बनाने की कोशिश की होती, तो शायद आज की तस्वीर अलग होती। मगर वह ऐसा करने में विफल रहे, जिसकी वजह से अपने पूरे कार्यकाल में उन्हें तमाम तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा। यहां तक कि उन्हें अपनी पार्टी में भी विरोध का सामना करना पड़ा, जिसकी झलक पिछले राष्ट्रपति चुनाव में भी दिखी। बाइडन को बेमन से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी छोड़नी पड़ी और कमला हैरिस का नाम आगे करना पड़ा।अमेरिका बेशक दूसरे देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण को लेकर उत्सुक रहा हो, लेकिन बाइडन के कार्यकाल में उसे अपने ही घर में इन मूल्यों को बनाए रखने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा।

अमेरिका की छवि अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी से भी प्रभावित हुई। अगस्त, 2021 में करीब दो दशक पुरानी जंग का अंत करते हुए बाइडन ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला लिया। हालांकि, इसके बारे में दोहा समझौता सन् 2020 में ट्रंप के पिछले कार्यकाल में ही हो गया था, लेकिन उनकी विदाई के जो वीडियो आए या जिस तरह से उन्होंने वहां अपने टैंक और हथियार छोड़े, उससे विश्व बिरादरी में यही संदेश गया कि अमेरिका को वहां से भागना पड़ा है।

यूक्रेन युद्ध को न रोक पाना भी बाइडन की विफलता मानी जाएगी। अमेरिका ने यूक्रेन को पैसे दिए, हथियार दिए और रसद भी दिए, बावजूद इसके तीन साल से यह जंग जारी है। इसने नाटो देशों तक में मतभेद पैदा कर दिया। हां, इस युद्ध के बहाने रूस को कुछ हद तक कमजोर कर पाने में बाइडन जरूर सफल हुए हैं, पर प्रतिबंधों के बावजूद जिस तरह से मॉस्को अपनी अर्थव्यवस्था चलाता रहा, उससे वाशिंगटन को बहुत फायदा नहीं हो सका। यहां तक कि परमाणु युद्ध की आशंका भी बनती-बिगड़ती रही है।

कुछ यही स्थिति पश्चिम एशिया की रही। उनके पूरे कार्यकाल में यहां उथल-पुथल बनी रही। वास्तव में, इस क्षेत्र को लेकर बाइडन सरकार की कोई खास नीति रही ही नहीं, जिस कारण स्थानीय खिलाड़ियों को अपना घेरा मजबूत बनाने में कामयाबी मिली। हमास और हिजबुल्लाह जैसे संगठनों ने इसका अपने हित में फायदा उठाया। यहां ईरान जैसी ताकतों के खिलाफ विशेष नीति की दरकार थी, पर बाइडन खामोश बने रहे। नतीजतन, ईरान और चीन में करीबी बढ़ने लगी। ट्रंप बतौर राष्ट्रपति कभी-कभी सख्त नीति अपना लिया करते थे, लेकिन बाइडन ने बिल्कुल शांत रहना ही उचित समझा।

चीन को लेकर बाइडन ने ट्रंप की नीति को ही आगे बढ़ाया। ट्रंप ने क्वाड (भारत, ऑस्टे्रलिया, जापान और अमेरिका का संगठन) को एक सांगठनिक रूप देने का प्रयास किया था और बाइडन ने इसकी ऑनलाइन बैठक आयोजित करके इस संगठन को शासनाध्यक्षों के स्तर तक सक्रिय कर दिया। यह उनकी एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। हिंद प्रशांत क्षेत्र पर भी सामरिक सहमति बनाने में बाइडन कुछ हद तक सफल रहे। बेशक, उन्होंने चीन से सीधे-सीधे मोर्चा नहीं लिया, पर एक तरह से यह संदेश देने से भी नहीं चूके कि हिंद महासागर पर किसी एक का दबदबा नहीं हो सकता। इसका असर भी पड़ा। चीन अगर दबाव में आया है और नई दिल्ली के साथ उसने सीमा समझौता किया है, तो उसकी एक बड़ी वजह भारत-अमेरिका दोस्ती है, जिसे वह अपने लिए बड़ी चुनौती मानता है।

यही वह मुकाम है, जहां हम कह सकते हैं कि बाइडन के दौर में भारत और अमेरिका के रिश्तों में काफी सुधार आया। अव्वल तो हमने चीन पर काफी हद तक दबाव बनाए रखा है, फिर तमाम प्रतिबंधों के बावजूद हमने रूस के साथ अपने व्यापारिक रिश्ते भी बनाए रखे, जिसका वाशिंगटन ने कभी विरोध नहीं किया। यहां तक कि बाइडन के जाते-जाते भी एक अच्छी खबर हमारे लिए आई कि अमेरिका अब हमारे परमाणु संस्थानों पर से प्रतिबंध हटाने की कवायद शुरू करने जा रहा है।वैसे, बाइडन का कार्यकाल इसलिए भी याद रखा जाएगा, क्योंकि उन्होंने सेना का ज्यादा इस्तेमाल नहीं किया। ऐसा शायद इसीलिए, क्योंकि वह अमेरिका की छवि और उसके लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर ज्यादा संजीदा रहे हैं। अपने विदाई भाषण में ही उन्होंने यह चेतावनी दी कि अमेरिका में सत्ता पर प्रभाव डालने वाला एक ओलिगार्की (कुलीन तंत्र) आकार ले रहा है, जिसकी कमान दौलतमंदों के हाथों में है। उन्होंने फर्जी खबरों के प्रसार और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) को भी अमेरिकी लोकतंत्र के सामने संभावित खतरा बताया है। बाइडन के मुताबिक, ‘टेक-इंडस्ट्रीयल कॉम्प्लैक्स’ है, यानी आज के अमेरिका में तकनीक व उद्योग से जुडे़ लोग सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं पर हावी हो गए हैं। यह सीधे-सीधे डोनाल्ड ट्रंप और उनकी टीम, विशेषकर टेस्ला के मालिक एलन मस्क पर की गई टिप्पणी है।वाकई, यह विडंबना ही है कि आज अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट नेताओं में इस कदर दूरी बन गई है कि मुल्क में आम राजनीतिक सहमति नहीं बन पा रही। वे दिन लद गए, जब दोनों प्रमुख पार्टियां राष्ट्रहित में एक साथ आ जाती थीं, लेकिन आज मसला जलवायु संरक्षण का हो, ग्लोबल वार्मिंग, एआई या फिर चीन से मुकाबला, दोनों दल एक-दूसरे के आमने-सामने जंग की मुद्रा में हैं। बाइडन आंतरिक रूप से विभाजित इस अमेरिका को एक करने में विफल रहे। देखना यह है कि बतौर नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक बहुध्रुवीय और परस्पर निर्भर दुनिया में अमेरिका को प्रभावी नेतृत्व दिलाने में कितना सफल हो पाते हैं? उनके सामने भी वही चुनौतियां हैं, जो बाइडन के सामने थीं।