16-12-2019 (Important News Clippings)
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Diplomatic setback
Citizenship Amendment Act is jeopardising India’s foreign policy objectives
TOI Editorials
With a tense situation prevailing in north-east states – particularly in Assam, Meghalaya and Tripura – due to protests against the Citizenship Amendment Act (CAA), it appears the Centre miscalculated the intensity of the blowback. North-east states have long been sensitive about migration to their region and fear that the new legislation will endanger their cultural and linguistic identities. Elsewhere as in Bengal where protests have turned violent, CAA is being criticised for unconstitutionally equating citizenship with religion and discriminating against Muslims.
But another unintended consequence of CAA has been on the diplomatic front. Two Bangladeshi ministers cancelled their India visit after CAA was passed in Parliament. Then Japanese Prime Minister Shinzo Abe postponed his India trip for an annual bilateral summit with PM Narendra Modi after hosting the meet in Guwahati became virtually impossible due to the protests. This is a big blow for India’s ‘Act East’ policy. Simultaneously, the UN human rights office issued a statement that CAA was fundamentally discriminatory and inconsistent with India’s international obligations on human rights.
If this weren’t enough two US panels – Commission on International Religious Freedom and the House Foreign Affairs Committee – have criticised CAA for undermining the basic tenets of democracy. This is bad for India’s foreign policy objectives and image abroad. One of the things for which the Modi government rightly deserves credit is strengthening India’s foreign policy heft and outreach. Over the last six years, India has been recognised as a rising power and has cemented its place on important international platforms. In fact, the US and other Western powers had come to see India as an important democratic partner in hedging against China’s aggressive power projection in Asia, the most important factor constraining India’s rise. But all of that risks coming undone with New Delhi’s recent moves such as CAA, nationwide NRC or overly tough restrictions in Kashmir.
It will be a real tragedy if foreign governments as well as foreign investors think twice before pegging India as a stable and functional democracy and instead re-hyphenate it with Pakistan. Against this backdrop, government needs to ask itself if pushing CAA is worth it. Internally, if the Modi government wants to bring about a strong and united India, CAA is defeating the purpose. It should be rolled back. There is no harm in admitting a mistake. Or if that proves too difficult, perhaps a ten-year moratorium can be declared, while more consensus is generated around it.
बांटो फिर पछताओ
संपादकीय
अपना बहुसंख्यकवादी सामाजिक एजेंडा पूरा करने के उत्साह में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भारत के बहु-सांस्कृतिक नागरिक समुदाय के अधिकारों एवं आकांक्षाओं को समझने के मामले में कान बंद कर लिए हैं। राज्य सभा में चतुर प्रबंधन के दम पर पारित विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) ने पार्टी को अपने घोषणापत्र का एक बड़ा वादा पूरा करने का मौका दिया है। हालांकि इसके एवज में उसे केरल, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश जैसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले राज्यों में प्रदर्शनों का भी सामना करना पड़ रहा है। इस कानून का बहिष्कारी चरित्र पूरी तरह स्पष्ट है। अगर सीएए का आधार धार्मिक उत्पीडऩ है तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में मौजूद मुस्लिम संप्रदायों के साथ श्रीलंका, म्यांमार और नेपाल के लोगों को भी इसमें शामिल करना चाहिए।
यह विडंबना ही है कि यह कानून लाए जाने पर पूर्वोत्तर क्षेत्र सुलग उठा है। गत जनवरी में इस विधेयक का पहला संस्करण पेश किए जाने के बाद इसे पूर्वोत्तर की आपत्तियों के हिसाब से संशोधित किया गया है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पूर्वोत्तर के नेताओं के साथ चर्चा में कई घंटे बिताने की बात स्वीकार करते हैं। सीएए को लेकर पूर्वोत्तर की आशंकाएं दूर करने के लिए कई बदलाव किए गए। इन छह राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों एवं अन्य को संशोधित विधेयक में बाहर रखा गया है। शायद पिछले आम चुनाव में पूर्वोत्तर राज्यों की कुल 24 में से 17 लोकसभा सीटें जीतने के बाद शाह को लगा कि हर कोई इसके लिए तैयार है। लेकिन असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) तैयार करते समय भी यह दिखा कि भाजपा नेतृत्व को पूर्वोत्तर क्षेत्र में जातीय एवं धार्मिक पहचान पर लगातार भ्रम रहा है। यह क्षेत्र धर्म की सीमाओं से परे बंगाली निवासियों के खिलाफ है जबकि भाजपा का एजेंडा बंगाली मुस्लिमों पर केंद्रित है। इसीलिए बंगाली मुस्लिमों ने एनआरसी से बाहर रह गए हिंदुओं की बड़ी आबादी के खिलाफ प्रदर्शन किया है।
पूर्वोत्तर के प्रदर्शनकारियों से सहमत होना मुश्किल है लेकिन यह भी सच है कि ये राज्य भारतीय संघ में इसी आश्वासन पर शामिल हुए थे कि उनकी जटिल आदिवासी एवं जातीय पहचान बनाए रखी जाएगी। भूमि अधिग्रहण एवं निवास पर लगी कानूनी पाबंदियां जम्मू कश्मीर से हटाए गए प्रावधानों की ही तरह हैं। अपने दूसरे कार्यकाल में छह महीने बीतने के बाद यह नहीं कहा जा सकता है कि इस सरकार की अगुआ भाजपा के विचार देश के लिए रचनात्मक रहे हैं। संवैधानिक बाजीगरी से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और जम्मू कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांट देने से भी यह क्षेत्र मुख्यधारा में नहीं आ पाया है। संवैधानिक स्थिति में बदलाव के चार महीने बाद भी यह इलाका बंदी की हालत में है। पूर्वोत्तर में ऐसे प्रदर्शन अस्सी के दशक में हुए असमिया छात्रों के विरोध के बाद नहीं देखने को मिले थे।
हालत यह हो गई कि सेना को बुलाना पड़ा और गुवाहाटी में होने वाला भारत-जापान शिखर सम्मेलन भी रद्द करना पड़ा। यह भी कम चिंता की बात नहीं है कि भारत के बेहद मजबूत सहयोगी बांग्लादेश के साथ हमारे रिश्तों में खटास आ गई है। बांग्लादेश इस्लामी आतंकवाद पर काबू पाने में भारत को अमूल्य सहयोग देता रहा है। लेकिन बांग्लादेश में रहने वाले हिंदुओं पर अत्याचार के आरोप लगने पर वहां के विदेश एवं गृह मंत्रियों ने भारत के दौरे रद्द कर दिए हैं। शाह अब कह रहे हैं कि सीएए में बदलाव किए जा सकते हैं। यह कहना मुश्किल है कि ऐसा करने से सीएए के कारण राष्ट्रीय विमर्श पर छाए विभाजनकारी ध्वंस पर कितना काबू पाया जा सकेगा? अगर शाह वास्तव में इस कानून का घातक प्रभाव कम करने को लेकर चिंतित हैं तो उन्हें देश भर में एनआरसी लागू करने का विचार छोड़ देना चाहिए। अर्थव्यवस्था के मुश्किलों में घिरे होने से भारत पहचान के विवाद में फंसने का जोखिम नहीं उठा सकता है।
Date:16-12-19
क्यों क्रांतिकारी कदम है फास्टैग
शुभमय भट्टाचार्य
सड़क क्षेत्र में भारत का तीसरा बड़ा प्रयोग तीन साल से भी कम समय में दिसंबर में शुरू हो गया है। हालांकि राष्ट्रीय राजमार्गों के टोल प्लाजा पर फास्टैग को अनिवार्य रूप से लागू करने की अंतिम तिथि 15 दिसंबर थी, लेकिन सरकार ने लोगों को थोड़ी रियायत दी है। सरकार ने कहा है कि टोल प्लाजा पर कम से कम 75 फीसदी लेन को इलेक्ट्रॉनिक टोल संग्रह फास्टैग का इस्तेमाल करना होगा। सड़क एवं परिवहन मंत्रालय ने कहा है कि राष्ट्रीय राजमार्ग टोल प्लाजा पर 25 फीसदी तक फास्टैग लेन को एक महीने के लिए हाइब्रिड लेन बनाया जा सकता है। इसका मतलब है कि वे 15 जनवरी तक नकदी स्वीकार करेंगे, लेकिन वाहनों से जुर्माने के तौर पर दोगुना टोल वसूला जाएगा। हालांकि लोग अब भी फास्टैग खरीद सकते हैं।
एक साल पहले देश में वाहनों के लिए एक वर्ष की बीमा नीति से बहुवार्षिक नीति की योजना लागू की गई थी। अगले साल अप्रैल से देश में बिकने वाले हर नए वाहन को कड़े बीएस-छह उत्सर्जन मानकों का पालन करना होगा। इस दौरान नियमों में कई और बदलाव किए गए जैसे ड्राइविंग लाइसेंस के नियमों को सख्त बनाया गया और यातायात नियमों का उल्लंघन करने पर जुर्माने में भारी बढ़ोतरी की गई। कुल मिलाकर देश में राजमार्गों पर वाहन चलाने के नियमों में पहले कभी भी इतने कम समय में इतने अधिक बदलाव नहीं हुए थे।
इनमें से सभी वाहनों पर फास्टैग लगाने की योजना क्रांतिकारी साबित हो सकती है। इसके तहत सभी वाहनों पर रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (आरएफआईडी) चिप लगाए जाएंगे। हालांकि दिसंबर 2017 के बाद से शोरूम से बाहर आने वाले हर वाहन पर ये उपकरण लगाए जा रहे हैं लेकिन ये केवल सजावटी बनकर रह गए थे। पुराने वाहनों को विंडस्क्रीन पर यह चिप लगानी होगी।
लेकिन 1 दिसंबर से यह चिप सक्रिय हो गई है। अब केवल इसी चिप से टोल का भुगतान किया जा सकता है। 15 दिसंबर से जिन वाहनों पर यह चिप नहीं होगी, उन्हें टोल की राशि से दोगुना जुर्माना देना होगा। सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के एक सूत्र ने कहा, ‘सरकार जुर्माना से पैसा नहीं बनाना चाहती है। इसका मकसद लोगों में इलेक्ट्रॉनिक तरीके से टोल के भुगतान की आदत डालना है।’ हर जगह फास्टैग के इस्तेमाल को सुनिश्चित करने के लिए मंत्रालय 2012 से प्रयास कर रहा है। तब उसने इसके लिए एक संयुक्त उपक्रम इंडियन हाइवेज मैनेजमेंट कंपनी लिमिटेड (आईएचएमसीएल) बनाई थी। यह एनएचएआई, बैंक और प्रमुख सड़क निर्माण कंपनियों का संयुक्त उपक्रम है।
आईएचएमसीएल में एनएचएआई की 41.38 फीसदी, निर्माण कंपनियों की 33.81 फीसदी और वित्तीय संस्थानों की 24.81 फीसदी हिस्सेदारी है। देश की डिजिटल अर्थव्यवस्था अन्य कई चीजों की तरह यह भी नंदन निलेकणी द्वारा लिखी गई रिपोर्ट पर आधारित है।
कई प्रयासों के बाद मंत्रालय को उम्मीद है कि इस महीने से देश के राष्ट्रीय राजमार्गों पर टोल संग्रह की व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव आएगा और यह पूरी तरह इलेक्ट्रॉनिक तरीके से वसूला जाएगा। आईएचएमसीएल के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक आशीष शर्मा कहते हैं कि फास्टैग से किसी सड़क पर चलने वाले वाहनों की सटीक संख्या का पता चल सकेगा। उन्होंने कहा, ‘इससे टोल-ऑपरेट-ट्रांसफर सड़क परियोजनाओं के लिए बोली लगाने वाली कंपनियों को सटीक आंकड़े मिलेंगे जो उन्हें अभी नहीं मिल रहे हैं। साथ ही इन आंकड़ों से सरकार को भी इन परिसंपत्तियों की बिक्री में बेहतर कीमत मिलेगी।’
आईएचएमसीएल के आंकड़ों के मुताबिक नंवबर के पहले सप्ताह में फास्टैग के जरिये 72.5 लाख टोल का भुगतान किया गया था। राजस्व के संदर्भ में यह संग्रह 173 करोड़ रुपये से थोड़ा अधिक था। अगर पूरे महीने के लिए यह रुझान देखा जाए तो फास्टैग के जरिये टोल भुगतान की संख्या करीब तीन करोड़ होगी और इससे करीब 700 करोड़ रुपये का राजस्व आएगा। देश में कुल टोल संग्रह में फास्टैग की हिस्सेदारी 30 फीसदी से कम है लेकिन सरकारी सूत्रों के मुताबिक पिछले कुछ सप्ताह में यह संख्या 50 फीसदी पहुंच चुकी है। प्राइसवाटरकूपर्स के एक अध्ययन के मुताबिक अप्रैल 2017 में सभी टोल प्लाजा पर ई-टोल लेनदेन की औसत संख्या करीब 75 लाख थी।
दुनिया में बहुत पहले से ही राजमार्गों पर टोल के भुगतान के लिए त्वरित, सुगम और नकदीरहित व्यवस्था के रूप में इलेक्ट्रॉनिक टोल का इस्तेमाल किया जा रहा है। दुनिया का पहला इलेक्ट्रॉनिक टोल प्लाजा नॉर्वे में 1986 में शुरू किया गया था। इस शताब्दी के शुरू होने कई देशों ने इस व्यवस्था को अपना लिया था। एशिया में जापान ने 2001 में और चीन ने 2014 में इसे अपनाया था। जाहिर है कि इसमें भी भारत पिछड़ गया था। इसके लिए एक जरूरी शर्त देश में सभी राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित टोल प्लाजा को जोडऩे के लिए एकीकृत केंद्रीय व्यवस्था मुहैया कराना है। भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (एनपीसीआई) के गठन से अब यह संभव हो गया है।
कैसे काम करता है फास्टैग
यह एक सामान्य प्रौद्योगिकी है जो कुछ ही सेकंड में सिग्नल साझा करने के आठ चरणों से गुजरती है। इसमें फास्टैग जारी करने वाले बैंक, एनपीसीआई द्वारा संचालित नैशनल इलेक्ट्रॉनिक टोल कलेक्शन और टोल गेट शामिल होता है।
जब फास्टैग लगी कोई कार टोल प्लाजा की तरफ बढ़ती है तो गेट पर लगा एंटीना टैग की रेडियो फ्रीक्वेंसी को लॉक कर लेता है और संबंधित बैंक को उसकी जानकारी सत्यापित करने के लिए मैसेज भेजता है। बैंक एनपीसीआई स्विच को वाहन की जानकारी को सत्यापित करने को कहता है। अगर दोनों का ब्योरा मेल खाता है तो स्विच बैंक को इस बात की पुष्टिï करता है कि टैग सही है। बैंक फिर टोल की राशि की गणना करता है। बैंक फिर एनपीसीआई स्विच को ग्राहक के फास्टैग से टोल की राशि काटने को कहेगा। राशि कटने पर बैंक ग्राहक को एसएमएस अलर्ट भेजेगा। अगर निर्धारित समय के भीतर बैंक से जवाब नहीं मिला तो इस लेनदेन को स्वीकार्य माना जाएगा। लेकिन सिग्नल की व्यवस्था अभी पूरी नहीं हुई है। एनपीसीआई स्विच बैंक को सूचित करेगा कि लेनदेन हो चुका है और बैंक इसकी सूचना टोल ऑपरेटर को देगा।
एनपीसीआई की मौजूदगी से निश्चित है कि कोई भी बैंक फास्टैग जारी कर सकता है। हालांकि अभी केवल 24 बैंकों को ही इसके लिए अधिसूचित किया गया है। लेकिन 10 बैंकों ने ही इसके लिए प्रौद्योगिकी प्लेटफॉर्म की व्यवस्था की है। इनमें ऐक्सिस बैंक, एसबीआई, एचडीएफसी बैंक, आईसीआईसीआई बैंक और पीएनबी शामिल हैं। साफ है कि फास्टैग में वाहन की जानकारी रहती है। इसे एक वाहन से दूसरे वाहन पर नहीं लगाया जा सकता है। ग्राहक इसे अपने बैंक खाते से जोड़कर इसमें पैसा हस्तांतरित कर सकता है या प्रीपेड व्यवस्था अपना सकता है। दोनों मामलों में वे 2.5 फीसदी छूट के हकदार हैं। लेकिन प्रीपेड अकाउंट के साथ समस्या यह है कि ग्राहक को इसे रिचार्ज करना होगा। अगर टैग में पैसा नहीं होगा तो यह टोल प्लाजा पर ब्लैकलिस्ट हो जाएगा और इसे दोबारा शुरू करने के लिए बहुत झंझट है।
Improving the Code
Amendments to Insolvency and Bankruptcy Code will reduce uncertainty, shore up confidence in resolution process
Editorials
On Wednesday, the Union cabinet approved amendments to the Insolvency and Bankruptcy Code (IBC) aimed at strengthening its functioning. The amendments seek to ring-fence assets of companies from offences committed by the previous management or promoters. They have also sought to raise the minimum threshold for initiating the resolution process, and have clarified that licences, permits and clearances cannot be suspended during the moratorium period. Each of these amendments, designed to address specific concerns, will help reduce investor uncertainty, and go a long way in shoring up confidence in the resolution process.
The decision to ring-fence assets of companies comes at a time when there have been instances of government agencies initiating action against companies whose resolution process has been completed. A case in point is the complication that arose in JSW Steel’s plan to acquire Bhushan Power and Steel (BPSL) with the Enforcement Directorate attaching some of BPSL’s assets. While under the law, dues owed to the central government rank below those due to financial creditors, the lack of clarity on the issue injected a degree of uncertainty in the process, led to delays, and disincentivised buyers. The amendment now seeks to address this issue. The cabinet has also increased the minimum threshold for initiating the resolution process. In the case of real estate projects, the minimum number of applicants has been increased to 100 or 10 per cent of the total applicants. This is designed to bring an end to the filing of frivolous cases in the NCLT. Further, by ensuring that licences, permits, concessions, and clearances are not terminated, suspended or renewed during the moratorium period, the amendment seeks to ensure the continuation of a business as a going concern. It will help preserve its value and retain its attractiveness for prospective buyers.
These latest amendments come after the Supreme Court judgment in the case of Essar Steel that restored the primacy of the committee of creditors on the issue of distribution of funds from the sale of stressed assets. Coupled with that judgment, these amendments address some of the remaining contentious issues surrounding the functioning of the IBC. The government should now step up its efforts to ensure that the promise of speedy resolution, one of the most appealing aspects of the IBC, is delivered upon.
Date:14-12-19
A new Britain
Boris Johnson’s landslide victory seals Britain’s exit from Europe. Delhi needs to re-imagine the relationship with London
Editorial
Conservative leader and UK Prime Minister Boris Johnson’s promise to “get Brexit done” has found unexpectedly wide resonance with the people of Great Britain. With 364 seats out of 650 in the House of Commons, the election marks the largest victory for the Tories in recent memory. That the Conservatives were able to breach traditional bastions of the Labour Party, including in North England, and erode its working class base, signals the entrenching of the disenchantment with globalisation and European integration. In 2016, when Britain chose to exit the EU after a referendum, it marked the beginning of the West’s retreat from the global order it had set up, and the liberal values that shored it up. Nearly four years later, even as the complexities and costs of Brexit have become apparent, the British people have chosen to overwhelmingly back it once again. For the UK, in the short term, the verdict holds an answer on how to proceed on a vexed question. But it has also raised more fundamental and complex concerns on the relationship between democracy, liberal values and populism.
This election was, first and foremost, an attempt by Johnson to secure legitimacy for a hurried Brexit deal — Parliament had insisted on a more considered approach. The Conservative PM can now ensure that the deal is pushed through by the January 31 deadline. For Jeremy Corbyn, who has pushed Labour more to the Left, this is the third consecutive electoral defeat. In the near future, the prospects for both Corbyn and Labour appear dim. But even for PM Johnson, the road ahead will be challenging. He must now rise to the more arduous task of steering Britain through life after Brexit. This will involve negotiating new trading arrangements with the EU — the UK’s largest trading partner — along with rejoining the WTO and unveiling a new strategy for the country’s economic growth. Another problem that will confront the new government comes from within the UK: The anti-Brexit Scottish National Party has won in 48 of the 59 seats in Scotland, and it could push for another referendum on Scottish independence. As new border mechanisms come into play between the UK and Ireland after Brexit, Johnson must pay heed to Irish concerns.
As Britain leaves Europe, India may need to boldly reimagine the bilateral relationship. Delhi needs to look beyond the questions of Pakistan and Kashmir and seize the new opportunities for trade with Britain. As Tories revive the British interest in the Commonwealth, India has an opportunity to restructure this organisation. Britain will now likely try and recover a global role for itself, and reclaim its maritime orientation — on this front, there will be much Delhi could do with London. To succeed, though, Delhi needs to get its own house in order, especially on the economic front. An India that turns on itself at home and retreats into protectionist mode will find it hard to engage the new Britain.