16-12-2016 (Important News Clippings)

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16 Dec 2016
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TOI-LogoDate: 16-12-16

Winter wipeout

Winter session wasted by petty politics, parties must debate and conduct business in Parliament

Senior BJP leader LK Advani’s anguish over disruption politics taking centre stage is justified as the winter session of Parliament ends today without much business being transacted. Both government and opposition are equally to blame, especially in the backdrop of the NDA government having conducted a major exercise like demonetisation that affects every aspect of society. Earlier, opposition parties had closed ranks to force the government into a debate on demonetisation that would entail voting. By the time they came around to debate the issue without any rule this week, the government seemingly didn’t oblige.

This is reminiscent of 2010 when the entire winter session was washed out over the 2G spectrum allocation scam during UPA-II. Now the opposition, led by Congress, claims this is the first time in history that treasury benches have disrupted Parliament proceedings, while government has blamed opposition for running away from debates. Both sides need to heed elder statesman Advani’s advice, especially when he invoked Atal Bihari Vajpayee. Prime Minister Narendra Modi too should take inspiration from Vajpayee who thrived on engaging debate in Parliament. If Modi had spoken in Parliament on demonetisation, that would have given opposition one less reason to disrupt it. His predecessor Manmohan Singh sat through debates on 2G spectrum and coal allocation scams and sometimes even participated in them.

There was a glimmer of hope when the Rights of Persons with Disabilities Bill, 2014 was passed in Rajya Sabha, but subsequently more than 80% of time has been lost to partisan bickering this winter session. Both government and opposition parties agree that GST will be beneficial for the economy. Centre and states now need to finalise three GST legislations – CGST, IGST and compensation law – so that they can be introduced and passed in Parliament early in the next session if GST is to become a reality by the next financial year.

The government cannot afford disruptions of such magnitude which have dealt a severe blow to the institution of Parliament. Government’s crisis managers need to reach out to the opposition and have better floor management in the House. Both sides must realise that debate is the only democratic way of making the government accountable for its actions. If opposition wants to create a favourable public opinion on their view of demonetisation, the best way would be to get the better of the government in a parliamentary debate.


business-standard-hindiDate: 16-12-16

फेड का अहम कदम

अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने उमीद के मुताबिक ही प्रधान ब्याज दर में 0.25 फीसदी की बढ़ोतरी की है लेकिन उसने अपने वक्तव्य में कहा है कि वर्ष 2017 में यह दर और तेज हो सकती है। वक्तव्य में कहा गया है कि फेडरल रिजर्व वर्ष 2017 में दरों में तीन बार इजाफा करने को तैयार है। बाजार का अनुमान अधिक से अधिक दो इजाफों का था। फेडरल रिजर्व ने सकल घरेलू उत्पाद से संबंधित अनुमानों में कोई बदलाव नहीं किया। अब भी उसका मानना यही है कि अगले तीन वर्ष तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था दो फीसदी की दर से विकसित होगी। परंतु मुद्रास्फीति बढ़ रही है और केंद्रीय बैंक को उम्मीद है कि दो फीसदी की खुदरा महंगाई का उसका लक्ष्य जल्दी ही पीछे रह जाएगा। उच्च मुद्रास्फीति के अनुमानों को शायद डोनाल्ड ट्रंप के आगामी प्रशासन में होने वाले नीतिगत बदलावों के संकेत के चलते भी तब्दील किया गया हो। फेड चेयरपर्सन जैनेट येलेन ने कहा कि आर्थिक नीतियों में बदलाव को लेकर अनिश्चितता है और यह भी स्पष्टï नहीं है कि वे अर्थव्यवस्था पर क्या असर डालेंगी। ट्रंप ने वादा किया है कि वे बुनियादी ढांचे पर खर्च बढ़ाएंगे, संरक्षणवादी नीतियां अपनाएंगे और करों में कटौती करेंगे। दुनिया भर में फेड के कदम और उसके वक्तव्य ने डॉलर को मजबूती प्रदान की। डॉलर वाले बॉन्ड और अमेरिकी प्रतिभूतियों के दाम बढ़े और डॉलर में ही संदर्भित सोने और कच्चे तेल के दाम गिरे। अधिकांश शेयर बाजारों की प्रतिक्रिया नकारात्मक रही।

 अनुमान यह भी है कि जोखिम भरे उभरते बाजारों और धीमे विकास वाले यूरो क्षेत्र से पूंजी का बहिर्गमन होगा और वह अमेरिकी बॉन्ड बाजार का रुख करेगी। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक पिछले कुछ महीनों से अपनी रुपये वाली परिसंपत्ति की बिक्री कर रहे हैं। ऐसे निवेशकों ने अक्टूबर से अब तक 57,000 करोड़ रुपये की पूंजी निकाली है। इसमें से 45,201 करोड़ रुपये की बिक्री ऋण में जबकि 22,609 करोड़ रुपये की बिक्री इक्विटी में की गई। फेड के हालिया कदम के बाद इसमें इजाफा हो सकता है। संरक्षणवाद न केवल अमेरिका में महंगाई लाएगा बल्कि उभरते बाजारों से निर्यात भी कमजोर होगा। नीतिगत बदलाव सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग को भी प्रभावित कर सकते हैं। आशंका है कि वहां वर्क वीजा कोटा कम किया जाएगा। डॉलर के मुकाबले रुपया पहले ही ऐतिहासिक गिरावट पर है। करीब 28 अरब डॉलर मूल्य की विदेशी मुद्रा के स्वैप के अलावा एफपीआई द्वारा की गई बिकवाली ने भी रुपये पर दबाव बनाया है।
दिसंबर में दरों में कटौती की भारतीय रिजर्व बैंक से उम्मीद थी पर वह पूरी नहीं हो सकी लेकिन खुदरा महंगाई के ताजातरीन आंकड़े बताते हैं कि नवंबर में यह रिकॉर्ड स्तर तक गिरी। माना जा रहा है कि रिजर्व बैंक जल्द ही दरों में कटौती करेगा। अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वालों को उम्मीद है कि वर्ष 2017-18 के बजट में राजकोषीय नीति को थोड़ा सहज बनाया जाएगा ताकि विमुद्रीकरण के बाद मंद पड़ी आर्थिक गतिविधियों में जान फूंकी जा सके। रुपये के मूल्य में आ रही गिरावट के चलते क्रॉस-करेंसी प्रतिफल में आ रही कमी और डॉलर की कीमतों में आ रही तेजी के चलते रुपया और कमजोर हो सकता है। निश्चित तौर पर एक प्रतिष्ठिïत वित्तीय सलाहकार ने कहा है कि वर्ष 2017 के अंत तक रुपया डॉलर के मुकाबले 70.5 के स्तर पर जा सकता है। रुपया कमजोर होने से और अधिक एफपीआई पूंजी देश से बाहर जाएगी और प्रत्यक्ष निवेशक भी चौकन्ने होंगे। लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि कमजोर रुपया निर्यात को बढ़ावा देगा। अमेरिका में बढ़ता संरक्षणवाद जरूर राह में रोड़ा बनेगा। फेडरल रिजर्व का वक्तव्य यही बताता है कि अब मामला केवल मौद्रिक नीति तक सीमित नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था को अमेरिकी राजकोषीय नीति में नाटकीय बदलावों के लिए तैयार रहना चाहिए।

Dainik Bhaskar LogoDate: 16-12-16

सड़क दुर्घटना में मौतें रोकने की दिशा में अच्छी पहल

liquor-shop1राष्ट्रीय और राज्य के राजमार्गों के किनारे शराब की दुकानों पर प्रतिबंध लगाने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला सड़क सुरक्षा और लोक कल्याण की दिशा में ऐतिहासिक है, लेकिन डर यही है कि कहीं व्यवस्था में सुधार के लिए दिए गए सुप्रीम कोर्ट के अन्य फैसलों की तरह कार्यपालिका इसे आधे-अधूरे तरीके से लागू करके इसके मूल उद्‌देश्य को भुला न दे। यह फैसला सड़क हादसों में होने वाली मौतों की दारुण स्थिति में एक सदिच्छा भरी पहल है, जिसे अगर समझदारी से लागू किया जाए तो निश्चित तौर पर हर साल सड़क हादसों में होने वाली 1.42 लाख मौतों का आंकड़ा नीचे आएगा।
हादसों में होने वाली मौतों के आंकड़ों के अलावा वह संख्या भी बहुत बड़ी है, जिसमें लोग विकलांग होते हैं और आजीवन रोजगार से हाथ धोकर किसी और पर निर्भर हो जाते हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट यह आदेश तत्काल प्रभाव से जारी कर सकता था लेकिन, उसने राज्य सरकार की विभिन्न क्रियान्वयन एजेंसियों की स्थिति को देखते हुए व्यावहारिक आदेश दिया है, जिसके तहत अगले साल 1 अप्रैल के बाद राष्ट्रीय और राज्य के राजमार्ग से पांच सौ मीटर की दूरी तक न तो किसी शराब दुकान को लाइसेंस दिए जाएंगे और न ही पुराने लाइसेंसों का नवीकरण किया जाएगा। आंकड़े बताते हैं कि राजमार्गों पर हर पांच किलोमीटर की दूरी पर औसतन शराब की तीन दुकानें हैं। इसीलिए अदालत ने 2015 में ही सड़क सुरक्षा पर एक समिति बना दी थी और कुछ राज्य उस दिशा में काम भी कर रहे थे। विशेष तौर पर हरियाणा, मध्यप्रदेश और उड़ीसा ने इस बारे में पहल की थी।
हरियाणा ने सड़क से सौ मीटर की दूरी तक की शराब की दुकानें हटाने के निर्णय के साथ शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों पर सख्ती भी की थी। उधर उत्तराखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप कुछ कदम उठाए हैं, क्योंकि उत्तराखंड की 68 प्रतिशत शराब की दुकानें सड़क के किनारे ही हैं और इस साल के आठ महीनों में 641 लोग सड़क हादसों में मारे जा चुके हैं।शराब के दुष्प्रभाव के प्रति सरकारों और न्यायपालिका की बढ़ती संवेदना सराहनीय है और इस दिशा में बिहार की नीतीश सरकार की पहल विशेष रूप से प्रशंसनीय है। इसके बावजूद शराब की लॉबी और हमारी आदतें बार-बार उठाए गए इन कल्याणकारी कदमों पर पानी फेर देती हैं, इसलिए किसी भी कड़े कदम के साथ इन शक्तियों और प्रवृत्तियों का ध्यान रखना भी जरूरी है।

Date: 16-12-16

नोटबंदी और शराबबंदी के नतीजे भिन्न क्यों?

वर्ष 2016 को आर्थिक उथल-पुथल के तौर पर जाना जाएगा। बात 10 नवंबर की है जब मैं अपने गांव में बैठा था तो अचानक गांव की ही एक महिला माताजी के पास आकर रोते हुए बोली कि ‘अब आपन बिटिया की शादी कैसे करी। सब रुपैयवा तो माटी हो गइल।’ जवाब में मेरी ग्राम प्रधान मां ने कहा चिंता मत करो बेटा दिल्ली से आया है, मैं कुछ समाधान करवाती हूं। हालांकि, 8 नवंबर के बाद लगभग हर गली, चौराहे पर ऐसी चर्चा आम रही कि नोटबंदी से कालाधन खत्म होगा। कैसे खत्म होगा यह पूछने पर किसी के पास कोई जवाब नहीं था। खाली पर्यटन स्थल और बैंक की लंबी कतारें अपने आप में बदहवासी को और बढ़ा देती है। चिंता तब और गहरी हो जाती है जब पता चलता है कि लंगरों में खाने वालों की सख्या इन दिनों में दोगुनी से ज्यादा हो गई है।
प्रसिध्द दार्शनिक हीगल ने कहा था, ‘हम इतिहास से केवल यह सीखते हैं कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा।’ यह बात मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले पर पूरी तरह सटीक लगती है। अगर हम दूसरे देशों के अनुभवों की बात करें तो नोटबंदी से लगभग एक प्रतिशत कालेधन की सफाई का रिकॉर्ड है। दूसरी बात यह कि सरकार के पास भी ऐसा कोई अध्ययन उपलब्ध नहीं है, जो यह बता सके कि कितना कालाधन कैश में है। एक अनुमान के अनुसार केवल 6 प्रतिशत ही कालाधन कैश में है, जिसका 50 प्रतिशत भारत के बड़े लोगो के पास है, जो इसके प्रबंधन में पूरी तरह सक्षम हैं। इसका प्रमाण पिछले एक महीने में देशभर के विभिन्न स्थानों से बड़ी मात्रा में पकड़े गए नए नोट हैं। 8 नवंबर से अब तक नोटबंदी संबंधी नियम इतनी बार बदले जा चुके हैं कि सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक भी भूल गए होंगे कि शुरुआत कहां से हुई थी और किस निर्णय का क्या प्रभाव रहा होगा।
अब तो स्वयं भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी समीक्षा में भारत का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के गिरने की बात कही है, जो युवाओं के देश के लिए चिंताजनक बात है, क्योंकि नोटबंदी के कारण भारत मंदी के चक्र में जाता दिखाई दे रहा है, जिसका दीर्घकालीन असर होने वाला है। वैसे भी प्रधानमंत्री मोदी की कथनी और करनी में केवल इतना फर्क आया है कि वे कहते थे कि वे कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति को आर्थिक न्याय दिलाने के लिए राजनीति में हंै, जबकि हकीकत में उन्होंने समाज के उसी कामगार वर्ग को कतार में खड़ा कर दिया है। राजनीतिक लाभ के लिए जल्दबाजी और बिना तैयारी के निर्णय का खामियाजा विविधता वाले देश को तो चुकाना ही पड़ता है। वैसे भी भारत के लाखों गांव है जहां औसतन एक घंटे ही बिजली की आपूर्ति होती है और पहाड़ी क्षेत्रों में लोगों को बैंकों तक पहुंचने में पूरा दिन लग जाता है। यही कारण है कि लोगों की नगदी की असुविधा बढ़ती ही जा रही है। साथ ही पंचायत स्तर पर एटीएम और मीनीएटीएम अब भी उपलब्ध नहीं है, जो इतने बड़े निर्णय के पीछे कमजोर तैयारी को जाहिर कर रही है।
ऐसे ही एक प्रतिबंध का फैसला नीतिश कुमार ने शराब को लेकर बिहार में किया, जिसके आरंभ में हर जगह विरोध के स्वर तो सुनाई दिए, लेकिन समय बीतने के साथ अब बिहार की जनता विशेषकर महिलाएं पूरी तरह से इस निर्णय के साथ है। हालांकि, इस निर्णय से बिहार सरकार को राजस्व की बड़ी हानि भुगतनी पड़ रही है, लेकिन सराकर ने नशाबंदी के दूरगामी लाभ के लिए तात्कालिक हानि उठाना उचित समझा, जिसका परिणाम अब नज़र आने लगा है।
नीतिश कुमार ने शराबबंदी को लागू करते समय कानूनों में आवश्यकतानुसार बदलाव किए और साथ ही लीक से हटकर ऐसे कदम उठाए कि हर परिस्थिति में इसे लागू किया जा सकें। जैसे पहली बार होमगार्ड जवानों को पंचायत स्तर पर शराबबंदी लागू करने के लिए तैनात किया गया, भटि्ठयों के पाए जाने पर पंचायतों की सामुहिक जिम्मेदारी तय की गई और शराब के ठेकेदारों को दुध जैसे व्यवसाय अपनाने को प्रोत्साहित किया गया। इस तरह के कदमों से जनमानस में शासन के प्रति भरोसे को और मजबूती मिली, जिससे शराबबंदी सुनिश्चित हो सकी।
एक तरह से नीतिश कुमार के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट ने भी मोहर लगा दी है। शराबबंदी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक अहम फैसला सुनाते हुए देशभर के प्रादेशिक व राष्ट्रीय राजमार्गों पर शराबबंदी करने का निर्देश दिया है। चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने ये निर्देश जारी किए हैं। कोर्ट ने कहा है कि राजमार्गों पर शराब की कोई दुकान नहीं होनी चाहिए। यहां तक कि यदि ये राजमार्ग गांव या कस्बे के बीच से गुजर रहे हों तो भी उन्हें इस नियम का पालन करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि शराब के दुकानदारों के पास जब तक लाइसेंस है, वे बिक्री कर सकते हैं, लेकिन लाइसेंस का रिन्यूअल नहीं होगा |अगर अब नोटबंदी और शराबबंदी के फैसले की तुलना करें तो नोटबंदी आरम्भ में सही लगने वाला फैसला लगा, जबकि समय बीतने के साथ लोग इसके दुष्परिणाम की चर्चा करते हुए दुखी हो जाते है। दूसरी तरफ शराबबंदी को शुरू में लोग आत्मघाती फैसला मानते थे, जबकि अब इसे सुशासन का प्रतीक मानने लगे हैं। इसकी वजह यह है कि नोटबंदी के फैसले में जहां न तो अभी तक कोई व्यापक प्रचार अभियान चलाया गया है न ही निर्णय की सटीक सूचना आम लोगों तक पहुंची वहीं शराबबंदी के पक्ष में बिहार के गांव-गांव में प्रचार अभियान चलाया गया, जिससे जनता को इसका लाभ समझ में आया।
विवधतापूर्ण देश में निर्णय को लागू करते समय संवाद माध्यमों को प्रयोग करते हुए जनता को पूरी तरह से जागरूक किया जाए। यहीं पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया का महत्व सामने आता है। जोखिम लेकर फैसले लेने में हर्ज नहीं है, लेकिन फिर उसे लोकतांत्रिक कसौटी पर कसने के बाद उसकी खामियां दूर की जानी चाहिए। मीडिया और लोगों के बीच चर्चा होने के साथ संसद में भी सार्थक चर्चा होनी चाहिए ताकि खामियों का अनुमान पहले ही लगाकर उपाय खोजे जा सके। नोटबंदी के मामले में हम संसद के मंच का उपयोग नहीं कर पाए इसी वजह से समस्या दिन-ब-दिन विकराल रूप लेती जा रही है।
सर्वेश कुमार तिवारी,समाज विज्ञानी और निदेशक, पीपल फॉर लेजिस्लेटिव एडवोकेसी रिसर्च(लेखक के अपने विचार हैं) 

450x100-paperDate: 16-12-16

संकट नहीं समाधान है नोटबंदी

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने बड़े नोटों के विमुद्रीकरण के फैसले की कड़ी आलोचना करते हुए उसे अभूतपूर्व विफलता करार दिया है। इस आशय का एक लेख लिखते समय वह अर्थशास्त्री की तरह कम, पूर्व प्रधानमंत्री की तरह अधिक दिखे हैं। कोरी बयानबाजी नहीं, बल्कि तथ्यों के आधार पर यह निर्णय होना चाहिए कि विमुद्रीकरण आफत है या उपचार?यह अर्थव्यवस्था का अभूतपूर्व कुप्रबंधन है जैसा कि डॉ. सिंह आरोप लगा रहे हैं या यह सत्तर सालों की जमा हुई गंदगी का इलाज है जैसा कि नरेंद्र मोदी दावा कर रहे हैं? इसका उत्तर जानने के लिए 1999 से 2004 तक के राजग और 2004 से 2014 तक के संप्रग शासनकाल की अर्थव्यवस्था पर निगाह डालनी होगी।

1999 से 2004 तक के राजग शासनकाल के दौरान सालाना 5.5 प्रतिशत के हिसाब से वास्तविक जीडीपी की विकास दर 27.8 प्रतिशत थी। सालाना धन आपूर्ति जो मुद्रास्फीति का वाहक है, 15.3 प्रतिशत रही। कीमतें सालाना 4.6 प्रतिशत के हिसाब से 23 प्रतिशत बढ़ीं। इन पांच वर्षो में संपत्ति की कीमतें मामूली दर से बढ़ीं। स्टॉक 32 प्रतिशत की दर से बढ़ा। सोने की कीमतें 38 प्रतिशत की दर से बढ़ीं। चेन्नई को उदाहरण के रूप में लें तो वहां जमीन की कीमतें 32 प्रतिशत की दर से बढ़ीं। करीब 600 लाख नई नौकरियां पैदा हुईं। 2002 से 2004 के दौरान व्यापार संतुलन में भारत को 20 अरब डॉलर का सरप्लस भी हासिल हुआ।

अब अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई वाले संप्रग के शासनकाल पर आते हैं। घपलों-घोटालों में घिरने से पहले, 2004 से लेकर 2010 तक संप्रग शासनकाल में सालाना 8.4 प्रतिशत के हिसाब से जीडीपी की वृद्धि दर 50.8 प्रतिशत थी, जो राजग के शासनकाल की तुलना में डेढ़ गुना अधिक थी। इसे लेकर दुनिया ने डॉ. सिंह की भरपूर सराहना की। संप्रग उच्च विकास दर को देखकर मुग्ध था, लेकिन आखिर संप्रग के उच्च विकास दर ने नौकरियां कितनी पैदा कीं? एनएसएसओ के आंकड़े के अनुसार तब देश में सिर्फ 27 लाख नई नौकरियां पैदा हो पाई थीं, जबकि राजग के पांच साल के कार्यकाल में 600 लाख नई नौकरियां पैदा हुई थीं।

संप्रग ने राजग से डेढ़ गुना अधिक विकास दर हासिल की, पर नई नौकरियां पैदा होने की दर सिर्फ पांच प्रतिशत रही। अब डॉ. सिंह विलाप कर रहे हैं कि मोदी सरकार का विमुद्रीकरण का फैसला नौकरियों को खत्म करेगा? राजग के समय 4.6 प्रतिशत की तुलना में संप्रग के 2004 से 2010 तक के कालखंड में कीमतें 6.4 प्रतिशत की दर से बढ़ीं। व्यापार घाटा 100 अरब डॉलर रहा, जबकि राजग के समय यह 20 अरब डॉलर सरप्लस था। क्या इसके लिए पेट्रोलियम पदार्थो की ऊंची कीमतें जिम्मेदार थीं? नहीं, बल्कि सीमा शुल्क की शून्य दर ने पूंजीगत वस्तुओं के आयात को प्रेरित किया। संप्रग के वक्त उच्च विकास दर रोजगारविहीन क्यों थी? दरअसल संपत्ति की ऊंची कीमतें, मुद्रास्फीति और उत्पादन में कमी ने उच्च विकास दर के प्रभाव को धूमिल किया था। संप्रग के पहले छह साल के कार्यकाल में स्टॉक और सोने की कीमतों में तीन गुनी बढ़ोतरी दर्ज की गई। संपत्ति की कीमतें हर दो साल में दोगुनी हो गईं।

गुड़गांव, जो 1999 में संपत्ति के नक्शे पर नहीं था, में जमीन की कीमतें दस से बीस गुनी बढ़ गईं। छह सालों में संपत्ति में मुद्रास्फीति की दर वार्षिक जीडीपी की विकास दर की तीन गुना अधिक थी। जमीन-जायदाद की कीमतों में मुद्रास्फीति परिणाम नहीं थी, बल्कि संप्रग की उच्च विकास दर का कारण थी। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि पैसा, विकास, कीमतें और रोजगार आपस में जुड़े हुए होते हैं। अब राजग और संप्रग के शासन में इस नियम को लागू कीजिए। 2004 से 2010 के बीच औसत धनापूर्ति में वार्षिक 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि राजग के समय यह 15.3 प्रतिशत थी, लेकिन संपत्ति की कीमतें इससे कई गुना बढ़ीं। राजग के समय धनापूर्ति में सामान्य वृद्धि संपत्ति की कीमतों में विशाल बढ़ोतरी को बयान नहीं करती है। असली बात बिना निगरानी वाले पांच सौ और हजार रुपये के नोटों की भारी-भरकम संख्या में छिपी हुई है। 1999 में लोगों के पास मौजूद पैसा जीडीपी का महज 9.4 प्रतिशत था। 2007-08 तक बैंक और डिजिटल पेमेंट में बढ़ोतरी के बावजूद यह आंकड़ा 13 प्रतिशत तक पहुंच गया। इसके बाद यह 12 प्रतिशत के आसपास बना रहा। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों के पास मौजूद बड़े नोटों का जो प्रतिशत 2004 में 34 था वह 2010 में 79 प्रतिशत तक पहुंच गया। आठ नवंबर 2016 को यह आंकड़ा 87 प्रतिशत था।


logo-hindustanDate: 15-12-16

राजनीतिक दलों की संख्या से उपजे गंभीर सवाल

चुनाव आयोग ने जब से यह कहा है कि उसके यहां पंजीकृत करीब 1,900 राजनीतिक पार्टियों में से 400 ऐसी हैं, जिन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं लड़़ा, उन पर कई दृष्टिकोणों से विचार किया जा रहा है। चुनाव आयोग ने जिन अर्थों में इसकी चर्चा की, उसके अनुसार वह इन पार्टियों की जांच करके इनके रजिस्ट्रेशन रद्द करने पर विचार करेगा। सवाल यह है कि अगर ये दल चुनाव ही नहीं लड़ते, तो फिर करते क्या हैं? इनके राजनीतिक पार्टी होने का उद्देश्य क्या है? 400 की संख्या कम नहीं है। हम जानते हैं कि राजनीतिक पार्टियों को चंदा लेने तथा बीस हजार रुपये से कम के चंदे का हिसाब न देने से छूट है। राजनीतिक पार्टियों को आयकर में भी छूट मिली हुई है। तो क्या ये केवल चंदा लेने व आयकर छूट का लाभ उठाने के लिए बनी हैं? इनमें से अनेक ऐसी हो सकती हैं। इस समय काला धन के खिलाफ एक माहौल बना हुआ है, इसलिए यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या काला धन खपाने के लिए राजनीतिक दल का मुखौटा ओढ़ा गया?

इन तमाम सवालों के उत्तर तभी मिलेंगे, जब उनकी व्यापक जांच होगी? इसलिए लेन-देन के ब्योरों के साथ-साथ उनकी गतिविधियों की गहराई से छानबीन जरूरी है। हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो निहित स्वार्थों के तहत राजनीतिक पार्टी बनाते हैं और कई रूपों में उसका लाभ उठाते हैं। एक राजनीतिक पार्टी की क्या निर्धारित भूमिका है, उससे इनका कोई लेना देना नहीं। ऐसी पार्टियों की देश को आवश्यकता नहीं और इनका निबंधन रद्द होना ही चाहिए। किंतु क्या ये सब बातें उतनी ही आसान हैं, जितनी हमें दिखाई दे रही हैं? बिल्कुल नहीं। यह ठीक है कि संसदीय लोकतंत्र में किसी दल की उपयोगिता तभी दिखती है, जब वह चुनाव लड़े और उसके जरिए संसद, विधानसभाओं या स्थानीय निकायों में पहुंचे।

आखिर वहां तक पहुंचकर ही सरकार या विपक्ष के रूप में आप नीति-निर्माण में भूमिका निभाते हैं। इसलिए चुनाव लड़ना एक पक्ष है। लेकिन चुनाव लड़ना किसी पाार्टी पर थोपा नहीं जा सकता है। राजनीतिक पार्टी बनाने का अर्थ केवल चुनाव लड़ना नहीं होता। इसका मतलब है कि उसकी एक विचारधारा हो, जो अपने नजरिये से जनहित की चिंता करती हो, उसके पास ऐसे नेताओं-कार्यकर्ताओं का समूह हो, जो उस विचारधारा के प्रति समर्पित होकर काम करें। यह चुनाव आयोग तय नहीं कर सकता कि किस पार्टी की क्या विचारधारा हो। कोई पार्टी जनता के बीच काम कर रही हो, तो उसे हम केवल इस आधार पर खारिज कर दें कि वह चुनाव नहीं लड़ती, उचित नहीं।

वैसे भी, आज के समय में चुनाव लड़ना सबके बूते की बात नहीं है। आज चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए एक उम्मीदवार को 40 लाख तथा विधानसभा में 25 लाख तक खर्च की छूट देता है। व्यवहार में इससे कई गुणा ज्यादा खर्च होता है। एक ईमानदार व्यक्ति ने जन-कल्याण की अपनी निश्चित विचारधारा से पार्टी बनाई, पर उसके पास इतने धन नहीं आए, फिर वह क्या करेगा? जाहिर है, चुनाव नहीं लड़ेगा। वह राजनीति तो करेगा, लेकिन गैर-चुनावी राजनीति। उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। वैसे भी, इस मामले में चुनाव आयोग की भूमिका सीमित है। किसी पार्टी का पंजीकरण रद्द करने का यह आधार हो ही नहीं सकता कि वह चुनाव नहीं लड़ती। कोई पार्टी समय पर अपने संगठनात्मक चुनाव कराती है, आयकर रिटर्न दाखिल करती है, और किसी अवांछित गतिविधि में शामिल नहीं, तो फिर उसका निबंधन रद्द नहीं किया जा सकता। आयोग ने एकतरफा कार्रवाई की, तो उसे न्यायालय में जाने का अधिकार है। इसीलिए आयोग ने कहा है कि प्रक्रिया लंबी है।

हमारे देश में किसी भी नागरिक को राजनीतिक पार्टी बनाने का अधिकार है। इसके लिए अर्हताएं काफी आसान हैं। यह हमारे संसदीय लोकतंत्र की खूबी है। इस पर किसी प्रकार का अंकुश उचित नहीं होगा। किसी दुरुपयोग के कारण इसमें बाधा डालना लोकतंत्र के स्वस्थ विकास में बाधा डालने वाला साबित होगा। कुछ लोग अमेरिका व ब्रिटेन की तरह हमारे यहां भी दो या तीन दलीय प्रणाली के समर्थक हैं। पर यह हमारे देश में न तो संभव है, और न यथेष्ट ही। हां, समय-समय पर सफाई होनी चाहिए।

 अवधेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार(ये लेखक के अपने विचार हैं)


logoDate: 15-12-16

प्रतिनिधि के इलाके

चुनाव आयोग ने एक बार फिर सरकार से राजनेताओं को एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ने से रोकने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव की सिफारिश की है।

8532election-commissioner-of-indiaचुनाव आयोग ने एक बार फिर सरकार से राजनेताओं को एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ने से रोकने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव की सिफारिश की है। इससे पहले 2004 में भी उसने यह सिफारिश की थी, मगर उस पर कोई पहल नहीं हो पाई। न्यायमूर्ति एपी शाह की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने भी एक उम्मीदवार के दो सीटों से चुनाव लड़ने पर रोक लगाने संबंधी सिफारिश की थी। चुनाव आयोग ने 2004 में सुझाव दिया था कि अगर कोई उम्मीदवार विधान परिषद के लिए दो सीटों से चुनाव लड़ता और जीतता है, तो खाली की गई सीट के लिए उससे पांच लाख रुपए वसूले जाएं। इसी तरह लोकसभा की खाली की जाने वाली सीट के लिए दस लाख रुपए जमा कराए जाएं। अब चुनाव आयोग ने कहा है कि 2004 में प्रस्तावित राशि में उचित बढ़ोतरी की जानी चाहिए। आयोग का मानना है कि इस कानून से लोगों के एक साथ दो सीटों से चुनाव लड़ने की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी

दरअसल, अभी तक जन प्रतिनिधित्व कानून में यह अधिकार दिया गया है कि कोई व्यक्ति आम चुनाव, विधान परिषद चुनाव या फिर उप चुनाव में एक साथ दो सीटों पर अपनी किस्मत आजमा सकता है। 1996 से पहले इस प्रकार की कोई बंदिश नहीं थी। कोई व्यक्ति कितनी भी सीटों से चुनाव लड़ सकता था। मगर देखा गया कि कुछ लोग सिर्फ अपनी पहचान बनाने की मंशा से कई सीटों से चुनाव लड़ जाते थे। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के मकसद से 1996 में जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके अधिकतम दो सीटों से चुनाव लड़ने का नियम बनाया गया। मगर इससे भी निर्वाचन आयोग को छोड़ी गई सीटों पर दुबारा चुनाव कराने के लिए खासी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इससे दुबारा वही प्रक्रिया शुरू करनी पड़ती है। उसी प्रकार फिर पैसे खर्च करने पड़ते हैं। प्रशासन को नाहक अपना तय कामकाज रोक कर चुनाव प्रक्रिया में भाग-दौड़ करनी पड़ती है। इसलिए लंबे समय से मांग की जाती रही है कि लोगों के कर से जुटाए पैसे को दो बार चुनाव पर खर्च करने की कोई तुक नहीं, इस नियम में बदलाव होना चाहिए।

दरअसल, एक साथ दो सीटों से चुनाव लड़ने के पीछे बड़ी वजह असुरक्षा की भावना होती है। राजनीतिक दल खासकर ऐसे नेताओं को दो जगहों से उम्मीदवार बनाते हैं, जो उनका प्रमुख चेहरा होते हैं। मसलन, वर्तमान लोकसभा के लिए हुए चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो सीटों से चुनाव लड़ा था। समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने भी दो सीटों से चुनाव लड़ा। कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी को भी दो सीटों से चुनाव लड़ाया जाता रहा है। विधानसभा चुनाव में भी पार्टियों के प्रमुख चेहरे अक्सर दो सीटों से चुनाव लड़ना सुरक्षित समझते हैं। इसलिए यह भी सवाल उठता रहा है कि अगर कोई उम्मीदवार दो में से किसी एक सीट पर चुनाव हार जाता है, तो उसे सरकार में किसी अहम पद की जिम्मेदारी सौंपना कहां तक उचित है। मगर सबसे अहम बात कि कोई उम्मीदवार महज असुरक्षाबोध के चलते दो सीटों से चुनाव लड़ता है और फिर जीतने के बाद एक सीट खाली कर उस पर दुबारा चुनाव कराने में सार्वजनिक धन के अपव्यय का कारण बनता है तो वह कहां तक उचित है। इस तरह दुबारा चुनाव पर आने वाले खर्च का कुछ हिस्सा वसूला जाना अनुचित नहीं माना जाना चाहिए।


hindu1Date: 15-12-16

Rights for the rightful owners

On the tenth anniversary of the historic passage of the Forest Rights Act, tribal resistance to defend their rights is growing even as government after government tries to dilute its provisions

On this day 10 years ago the historic Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act was passed in the Lok Sabha. Its conception and passage was the result of the decades of struggles and sacrifices of millions of tribals across India, of their organisations, of numerous activists and intellectuals working on tribal issues, and because of the commitment and efforts of the Left parties.

 Attempts at dilution

A century ago colonial chicanery had turned tribal owners of the forests and its resources into encroachers. A decade ago, the Indian inheritors of this legacy of fraud were working against the Bill till literally the last moment. The real encroachers and plunderers of the forests, the mining companies, the private power sector companies, those involved in irrigation projects, the timber and paper industries, the forest resort tourist industry had high stakes in preventing the passage of the Bill. They were in the company of fundamentalist wildlife and environmentalist groups with their close links with the powerful forest bureaucracy. They made a motley though influential crowd and had the ear of very important people in the United Progressive Alliance (UPA) government hierarchy.

They succeeded in diluting some important recommendations of the Parliamentary Select Committee on community forest rights, access to minor forest produce and so on. The clause that Non-tribal Traditional Forest Dwellers would have to show evidence of their occupation of the land for 75 years virtually negated the inclusion of these largely poorer sections, many of them Dalits, in the law. The Left had proposed that for these sections the Supreme Court-proposed cut-off year of 1980 would be appropriate, while for tribal communities the cut-off year should be 2005. But at the last moment the government surreptitiously brought in the three generation or 75-year clause.

The Bill with these obnoxious clauses was circulated and listed for immediate discussion and passage. As soon as we saw it, the Chairman of the Select Committee, Kishore Chandra Deo, and I rushed to the chamber of Pranab Mukherjee, then External Affairs Minister, who was the point person for the Bill on behalf of the government in the negotiations with the Left. There was a mini-drama and heated discussion which finally ended with the arrival of the Tribal Affairs Minister, P.R. Kyndiah, who had been summoned by his senior. In the discussions he assured us that he would move amendments to the Bill. At that time there was no choice but to accept the assurance at face value. It had taken more than a year of struggle to finally get the Bill included in the business agenda of Parliament and listed. The powerful lobbies against the Bill would have used our opposition to once again shelve it. The Bharatiya Janata Party (BJP) was playing a duplicitous role — its Adivasi MPs supported the Bill while others were dead against it. They ran a campaign among MPs from the Northeast that if passed, the law would legalise encroachment by “illegal Bangladeshis”. This was utterly misleading, but anything was fair in the war against tribal rights.

 The missing amendments

The Bill became law, but without the amendments promised. After much discussion and pressure, some of them were included in the Rules. This also was a big struggle and there was a strong group of activists who along with the Left representatives could work out a fairly good set of Rules. It included giving prime importance to the role of the gram sabhas.

In spite of its inadequacies, there can be little doubt that the Forest Rights Act (FRA) stands as a powerful instrument to protect the rights of tribal communities. It is a hindrance to corporate interests to their free loot and plunder of India’s mineral resources, its forests, its water. But the Narendra Modi government is systematically implementing its plan to weaken and dilute the Act in several ways.

 New attempts at dilution

First, it has brought a series of legislation that undermine the rights and protections given to tribals in the FRA, including the condition of “free informed consent” from gram sabhas for any government plans to remove tribals from the forests and for the resettlement or rehabilitation package. The laws were pushed through by the Modi government without any consultation with tribal communities. They include the amendments to the Mines and Minerals (Development and Regulation) Act, the Compensatory Afforestation Fund Act and a host of amendments to the Rules to the FRA which undermine the FRA. The requirement of public hearings and gram sabha consent has been done away with for mid-sized coal mines. BJP State governments and partners in the National Democratic Alliance such as the Telugu Desam Party government in Andhra Pradesh have introduced government orders to subvert the FRA. In Telangana, in total violation of the FRA, the government has illegalised traditional methods of forest land cultivation. The Jharkhand government has brought amendments to the Chotanagpur and also the Santhal Pargana Tenancy Acts which eliminate rights of gram sabhas and permit tribal land to be taken over by corporates, real estate players, private educational and medical institutions in the name of development, without tribal consent. In Maharashtra the government has issued a notification of “Village Rules” which gives all rights of forest management to government-promoted committees as opposed to the gram sabha. This is the law-based offensive.

Second, there is the policy-based war. The Modi government has declared its commitment to ensuring “ease of business”, which translates into clearing all private sector-sponsored projects in tribal-inhabited forest areas. The National Board for Wildlife, with the Prime Minister as Chairperson, was reconstituted, slashing the number of independent experts from 15 members to three, packing it with subservient officials. In the first three months of assuming office, the Modi government cleared 33 out of 41 proposals diverting over 7,000 hectares of forest land. Of this the major share was for Gujarat companies. In two years the clearances for projects have included “diversion” — or more appropriately land grab — to the extent of 1.34 lakh hectares of forest land. In many areas this will lead to massive displacement of tribal communities. In the multipurpose Polavaram project in Andhra Pradesh alone, now given a national status by the Central government, 2 lakh hectares of forest land will be submerged affecting around 85,000 families, more than half tribals, including 100 habitations of particularly vulnerable tribal communities. In almost all these projects, the affected tribal families have not yet received their pattas (land ownership documents), one of the conditions set by the FRA. This wilful disregard and blatant violation of the legal protections given to tribals has become the cornerstone of the policy.

Third, there is the deliberate freeze of the actual implementation of the FRA. Neither individual pattas nor pattas for community forest resources are being given. During the UPA-II government the implementation of the Act was virtually hijacked by the Ministry of Environment and Forests and rejections of claims increased. However, now the situation has worsened, and the rate of rejections has gone up during the Modi regime. According to one analysis, between May 2015 and April 2016, eight out of every 10 claims were rejected. This is the ‘Gujarat model’ in operation. The State has one of the worst records in implementation of the FRA. Although 98 per cent of the approximately 1.9 lakh tribal claims had been approved by the gram sabhas, the bureaucrats in the sub-divisional committee and above brought the acceptance down to just 38 per cent. This is in sharp contrast to a Left-led State such as Tripura, where 98 per cent of tribal claims have been recorded and titles given.

 Mixed signals from the judiciary

The judiciary has also had a role to play. The same institution, which gave tribals hope through the Samata judgment, the historic Niyamgiri judgment, has also clubbed together a number of hostile petitions to the FRA and is giving them a sympathetic hearing. In January last year the court in an ominous intervention in a writ petition filed by Wildlife Trust of India and others issued notice to all State governments to “file an affidavit giving data regarding the number of claims rejected within the territory of the State and the extent of land over which such claims were made and rejected and the consequent action taken up by the State after rejection of the claims”.

This has rightly been taken by tribal communities and their organisations as a prelude to mass evictions. Maharashtra issued a notification dated April 23, 2015, directing the police to take action against “identified encroachers”, namely those whose claims have been rejected. Till 1985, the department of “Tribal Affairs” was under the Home Ministry. Tribal rights and struggles for justice were viewed as a “law and order issue, always a problem”. Under the present dispensation this retrograde approach seems to have been resurrected.

On the tenth anniversary of the historic passage of the FRA, tribal resistance is growing all over the country to defend their rights under FRA and other related issues.


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