16-05-2025 (Important News Clippings)

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16 May 2025
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Date: 16-05-25

Vijay Can’t Win

His party must punish the MP minister for his comments on Col Sofiya Qureshi, set an example

TOI Editorials

Supreme Court will hear today Madhya Pradesh state minister Vijay Shah’s appeal to quash a case against him filed on the direction of MP HC’s Jabalpur bench. The bench had strongly, and correctly, reacted to Shah’s derogatory and “dangerous” comments -“speaking venom”-about army officer Colonel Sofiya Qureshi. It observed Shah’s public comments “encourage feelings of separatist activities by imputing separatist feelings to anyone who is Muslim.” The court listed “prima facie”, Shah’s offences. Thus, the FIR-filed six hours after HC’s deadline – included BNS sections 152 (acts endangering India’s sovereignty, unity, integrity), considered the provision of ‘sedition’, as well as disturbing public tranquillity,acts prejudicial to social harmony, and causing feelings of enmity or hatred. Penalty for any of these includes at least a three-year prison term. If found guilty, Vijay Shah will automatically be disqualified from the House. Yet, the FIR – HC noted with alarm on Thursday-was “obscure”. It had no reference to Shah’s comments. HC called it “gross subterfuge on the state’s part.”

Whatever SC decides, Jabalpur bench did well to act on Shah’s comments. It must be noted that the minister’s delayed apology was made worse by his calling the colonel “my sister”. It is time desi politicians understand India’s women are not all their relatives – women are individuals, citizens. Coming especially after his appalling comments, the ‘sister’ descriptor devalued the army officer. To hammer home the message that communally-charged behaviour is a political red line, BJP must make Vijay Shah pay. It is for party leadership to establish disincentives for this brand of politics by exemplary punishment for Vijay Shah. Post-Pahalgam, all of civil society and India’s political class have demonstrated admirable unity. Their collective outrage and collective support for the military have been a balm for a wounded nation. Such solidarity is a lesson for those, like Vijay Shah, who would damage India’s social fabric. Seeds of all communal rifts are sown by politicians. Swift and exemplary action by party leadership can put a stop to such divisive and communally charged politics.


Date: 16-05-25

पाकिस्तान जल संधि पर बातचीत क्यों चाहता है?

संपादकीय

65 साल में पहली बार पाकिस्तान का सिंधु जल संधि पर वार्ता के लिए राजी होना बहुत कुछ कहता है। पहलगाम हमले के बाद नई दिल्ली ने संधि मुल्तवी की और पाकिस्तान में घुसकर सैनिक कार्रवाई की। इसके पूर्व पिछले दो वर्षों में दो बार (जनवरी 2023 और सितम्बर 2024) समझौता वार्ता के आग्रह के भारत के पत्रों को इस्लामाबाद नजरअंदाज करता रहा। संधि को निलंबित करने के भारतीय फैसले को पाक हुक्मरानों ने एक्ट ऑफ वॉर माना था, लेकिन भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान की कई रक्षा इकाइयों को ध्वस्त करने की कार्रवाई के बाद पाकिस्तान का बदला रवैया बहुत कुछ कहता है भारत के प्रधानमंत्री ने भी स्पष्ट किया है कि खून और पानी साथ नहीं बहेगा। कार्रवाई पर विराम की शर्त है कि उधर से कोई भी हरकत न हो। संधि की शर्तों में बदलाव के पीछे भारत के दो तर्क हैं। पहला, पाकिस्तान की ओर से छाया प्रत्यक्ष हिंसात्मक गतिविधियों की स्थिति में संधि के प्रावधानों पर अमल करना मुश्किल है और दूसरा, तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं और दुनिया के देश स्वच्छ ऊर्जा को ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। हाइड्रो इलेक्ट्रिक स्वच्छ ऊर्जा है, जिसके प्रति भारत प्रतिबद्ध है। पाक जल संसाधन मंत्री का बातचीत पर रजामंदी के आशय से लिखा पत्र यह बताता है कि फौज और आतंकी तंजीमें चाहे जो चाहती हों, इस्लामाबाद में बैठे हुक्मरानों को शायद अब अक्ल आ रही है।


Date: 16-05-25

सवालों से घिरा सुप्रीम कोर्ट

संपादकीय

न्यायिक सक्रियता अच्छी बात है, लेकिन जब वह अति सक्रियता में बदल जाए और इस क्रम में संविधान की अनदेखी कर अपनी सीमा का अतिक्रमण करता दिखने लगे तो फिर उससे सवाल किए ही जाने चाहिए। यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य था कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु सुप्रीम कोर्ट से अन्य प्रश्नों के साथ यह पूछतों कि जब संविधान में विधेयकों की मंजूरी के लिए समय सीमा का प्रविधान नहीं है तो फिर वह यह काम कैसे कर सकता है ? राष्ट्रपति को ऐसे कई सवाल इसलिए पूछने पड़ रहे हैं, क्योंकि कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु मामले में अपने निर्णय में वहां के राज्यपाल को आदेशित किया था कि उन्हें विधानसभा से पारित विधेयकों पर तय समय में फैसला लेना होगा । उसने यह भी कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा और यदि तय समय सीमा में फैसला नहीं लिया जाता तो राष्ट्रपति को राज्य को इसका कारण बताना होगा। वह यहीं नहीं रुका था, उसने ऐसे किसी विषय पर राष्ट्रपति को खुद से सलाह लेने को भी कह दिया था। ऐसा आदेश देकर सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्तियों में बदलाव कर दिया था। किसी के लिए समझना कठिन था कि ऐसा किस अधिकार से किया गया ? इससे भी विचित्र बात यह हुई थी कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के पास विचारार्थ तमिलनाडु के विधेयकों को खुद मंजूरी देकर उनके कानून बनने का रास्ता साफ कर दिया था। ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ। उसने एक तरह से राज्यपाल और राष्ट्रपति, दोनों की शक्तियों को अपने हाथ ले लिया था। इसी कारण इस फैसले पर सवाल उठे थे और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने तो सुप्रीम कोर्ट को निशाने पर लेते हुए तीखी टिप्पणी थी। सुप्रीम कोर्ट के उक्त विवादित और हैरान करने वाले फैसले पर इसलिए और भी सवाल उठे थे, क्योंकि वह फैसला दो न्यायाधीशों की पीठ ने दिया था, किसी संविधान पीठ ने नहीं। यह न्यायिक सीमा का अतिक्रमण नहीं तो और क्या था?

इससे इन्कार नहीं कि राज्यपाल कई बार विधानसभा से पारित विधेयकों पर कोई फैसला नहीं लेते और महीनों उन्हें दबाए बैठे रहते हैं। इस समस्या का समाधान निकाला ही जाना चाहिए, लेकिन इसके नाम पर सुप्रीम कोर्ट ऐसा निर्णय कैसे दे सकता है, जो संविधानसम्मत न हो। सुप्रीम कोर्ट को संविधान की व्याख्या का अधिकार है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वह संविधान को नए सिरे से लिखता हुआ दिखने लगे। यह पहली बार नहीं है, जब उसने न्यायिक सक्रियता की अति की हो। उसने कृषि कानूनों की परख किए बिना ही उन पर रोक लगाकर भी ऐसा ही किया था।


Date: 16-05-25

भारत को विकसित बनाने वाली योजना

सीएस सेट्टी, ( लेखक एसबीआइ के चेयरमैन हैं )

सुक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) भारतीय अर्थव्यवस्था के आधार स्तंभ हैं। ये व्यवसाय मुख्य रूप से अपंजीकृत संगठनों के रूप में कार्य करते हुए भारत के सकल घरेलू उत्पाद में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। 2024-25 में भारत के कुल निर्यात में उनका योगदान 45.79 प्रतिशत रहा। एमएसएमई को ऋण उपलब्ध कराना हमारी वित्तीय प्रणाली के लिए एक चुनौती रही हैं, लेकिन हाल के समय में बैंकों द्वारा भारत की नवीन प्रौद्योगिकी को पूरी तरह आत्मसात कर लिया गया है। प्रधानमंत्री मुद्रा योजना यानी पीएमएमवाई उद्यमशीलता और स्वरोजगार को गति देकर व्यापक परिवर्तन लाने में सफल रही है। पीएमएमवाई के अधिकांश लाभार्थी सामान्य शुरुआत कर पहली पीढ़ी के व्यवसायी बने हैं। वित्त वर्ष 2015-16 से आरंभ पीएमएमवाई एक युगांतकारी अग्रणी कार्यक्रम है। इसका उद्देश्य वित्त विहीन सूक्ष्म उद्यमों और छोटे व्यवसायों को वित्त उपलब्ध कराना है। प्रारंभ में इस योजना का लक्ष्य विनिर्माण, व्यापार और सेवा क्षेत्रक सहित गैर-कृषि क्षेत्र था। बाद में इसके अंतर्गत कृषि गतिविधियों को भी शामिल कर लिया गया। पीएमएमवाई के तहत कुल ऋण भुगतान वित्त वर्ष 2016 में 1.37 लाख करोड़ रुपये रहा, जो वित्त वर्ष 2025 में फरवरी के अंत तक 4.8 लाख करोड़ रुपये हो गया । औसत ऋण राशि जो 2016 में 38,100 रुपये थी, वह 2025 में बढ़कर 1,02,870 रुपये हो गई। इस दौरान लगभग सभी बैंकों में औसत ऋण राशि में वृद्धि देखी गई।

पीएमएमवाई की कुछ प्रमुख विशेषताएं इसे पिछली ऐसी योजनाओं से अलग करती हैं। पीएमएमवाई को जोखिम मुक्त रखने की कोशिश की गई है, ताकि ऋण प्रवाह निरंतर सुनिश्चित हो। पीएमएमवाई में सिक्योरिटी / जमानत आधारित ऋण के बजाय नकदी प्रवाह आधारित ऋण देने पर जोर दिया गया है। अब ऋण लेने वाले उद्यम मित्र पोर्टल पर आनलाइन आवेदन कर सकते हैं। इस योजना के अंतर्गत लगभग 52 करोड़ मुद्रा ऋणों में 33.19 लाख करोड़ रुपये की राशि प्रदान की गई है। पीएमएमवाई का सामाजिक प्रभाव भी बहुत गहरा है। इसे सामाजिक समूहों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों पर इसके प्रभाव से समझा जा सकता है। सामाजिक समूहों के संदर्भ में पीएमएमवाई ने कमजोर वर्गों को चरणबद्ध तरीके से ऋण प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित किया है। इसमें एससी- एसटी और ओबीसी जैसी उपश्रेणियों की हिस्सेदारी लगातार बढ़ी हैं, जो लाभार्थियों का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा ( 52 करोड़ में से 26 करोड़ रुपये) हैं। महिलाएं भी पीएमएमवाई का अभिन्न हिस्सा हैं। कुल खातों का लगभग 69 प्रतिशत महिला लाभार्थियों का है। पीएमएमवाइ ने समावेशन के मामले में भी अच्छा प्रदर्शन किया है। अल्पसंख्यक समुदायों के लाभार्थियों द्वारा 5.70 करोड़ मुद्रा ऋणों का लाभ उठाना इसका उदाहरण है।

मुद्रा इकोसिस्टम के साथ जुड़ाव समग्र रूप से बैंक और उसके कार्यबल के लिए एक उत्साहवर्धक अनुभव रहा है। भारतीय बैंकर के रूप में एसबीआइ नेक और न्यायपूर्ण उद्देश्यों को पूरा करने में सदैव सबसे आगे रहा है। हम लाखों सूक्ष्म और लघु उद्यमियों, विशेष रूप से नए आवेदकों को अपनी वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के लिए अथक प्रयास करते हैं। हमारी शाखाओं के साथ-साथ हम अपने डिजिटल बुनियादी ढांचे की उपलब्धता यथासमय सुनिश्चित करते हैं, जिससे बैंक रहित या अल्प-बैंकिंग सुविधा वाले लोगों की जरूरतों और आशाओं के अनुरूप सरलता से समयबद्ध ऋण वितरण किया जाता है। बैंक ने 1.72 करोड़ से अधिक मुद्रा ऋणों का वित्तपोषण किया है, जिसमें तीन लाख करोड़ से अधिक की राशि स्वीकृत की गई। इससे देश के आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने के लिए एक गतिशील व्यवसाय अनुकूल इकोसिस्टम बना है। अभी, यह केवल एक शुरुआत मात्र है।

डिजिटलीकरण और मुद्रा ऋणों की लोन प्रोसेसिंग और उसकी मंजूरी को सुव्यवस्थित करने पर ध्यान केंद्रित करने के कारण हम इसमें अधिकाधिक योगदान देने में सक्षम हुए हैं। एसबीआइ ने जनसमर्थ प्लेटफार्म के माध्यम से 10 लाख तक के ऋण के लिए एक डिजिटल ऋण निर्णय माडल मुद्रा – बीआरई शुरु किया है। यह पहल मानवीय हस्तक्षेप को कम करती है और त्वरित ऋण मंजूरी सुनिश्चित करती है। जैसे-जैसे महत्वाकांक्षी इकाइयां तेजी से विकास करती हैं, वैसे-वैसे हमारे बैंक की उपस्थिति एवं निगमित ऋण से जुड़ाव उन्हें सहयोग प्रदान करता है। नए बाजारों में पैठ बनाने / सही तकनीक आत्मसात करने एवं मूल्यवान संसाधनों की बचत के साथ उपयुक्त भागीदारों के साथ जुड़ने की इच्छुक इकाइयों के लिए हमारी कागज रहित ऋण वितरण प्रणाली में असीम संभावनाएं हैं।

विकसित भारत के हमारे सपने को साकार करने में मुद्रा सर्वथा उपयुक्त पहल हैं, क्योंकि यह जनसांख्यिकीय स्थिति का लाभ उठाने की दिशा में शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ दूरदराज के स्थानों में भी सदैव आकांक्षी वर्ग की उद्यमशीलता की क्षमता को सक्रिय करती है और उत्पादन के दो महत्वपूर्ण कारकों विनिर्माण और कृषि/संबद्ध गतिविधियों को मजबूत करती है। जब यह योजना अपने अतुल्य प्रभाव के 10 वर्ष पूरे कर रही हैं, तब हमें इसकी व्यापक उपलब्धियों पर गर्व की अनुभूति होती है।


Date: 16-05-25

बेलगाम बोल

संपादकीय

पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर भारत के ‘आपरेशन सिंदूर’ की कामयाबी पर जहां पूरा देश गौरवान्वित है, वहीं मध्य प्रदेश सरकार के एक मंत्री विजय शाह की बदजुबानी से सभी देशवासियों को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। सार्वजनिक मंच पर कर्नल सोफिया कुरैशी के संदर्भ में मंत्री ने जिस तरह की बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी की, उससे भारत की सौहार्द और धर्मनिरपेक्षता की भावना को ठेस पहुंची है। स्वाभाविक ही सभी ने इसकी भर्त्सना की। इस मामले की गंभीरता का अंदाजा मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के न्यायाधीश की टिप्पणियों और मंत्री के खिलाफ बिना देर किए प्राथमिकी दर्ज करने के आदेश से लगाया जा सकता है। इस मामले में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने साफ शब्दों में कहा कि मंत्री का बयान न केवल व्यक्तिगत मानहानि है, बल्कि समाज के ताने-बाने पर भी चोट करता है। इसके अलावा, जब एक न्यायाधीश को कानूनी कार्रवाई शुरू करने के लिए यह कहना पड़े कि ‘हो सकता है कि कल मैं जीवित न रहूं… चार घंटे में आदेश का पालन हो’ तो इससे व्यवस्था की जटिलता और उदासीनता का पता चलता है। विडंबना यह है कि अदालत के इस तरह के रुख के बावजूद आरोप को स्पष्टता के साथ दर्ज करने में लापरवाही बरती गई।

सवाल उठता है कि जिस बेहद संवेदनशील समय में भारत ने पाकिस्तानी के खिलाफ कार्रवाई करते हुए भी बेहद संयमित और नपा-तुला रुख अपनाया, उससे हासिल गरिमा को कायम रखने के बजाय उसे बिगाड़ने की कोशिश करने वाले व्यक्ति को कैसे देखा जाना चाहिए। मंत्री ने महिला सैन्य अधिकारी की गरिमा को ही ठेस नहीं पहुंचाई, बल्कि सेना की प्रतिष्ठा को भी धूमिल करने की कोशिश की। मामले के तूल पकड़ने के बाद भले ही मंत्री ने सफाई दी, लेकिन ऐसे बयानों के असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति की अशोभनीय और आपत्तिजनक भाषा का समर्थन देश के प्रति सम्मान रखने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं करेगा। जरूरत इस तरह की बदजुबानी और बेलगाम बयानबाजी पर पूरी तरह रोक लगाने के लिए ठोस और नीतिगत पहल करने की है, ताकि देश के संविधान के मर्म और सौहार्द को कोई नुकसान न पहुंचे।


Date: 16-05-25

जहर वाली बोली

संपादकीय

मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री विजय शाह के कर्नल सोफिया कुरैशी को लेकर दिए गए बयान को लेकर लोगों में जबरदस्त नाराजगी है। आदिम जाति कल्याण मंत्री शाह के खिलाफ उच्च न्यायालय के आदेश पर इंदौर के मानपुर पुलिस थाने में एफआईआर भी दर्ज हो चुकी है जो बीएनएस की धारा 152 (भारत की संप्रभुता, एकता व अखंडता को खतरे में डाले का कृत्य) धारा 196 (1) (बी) (अलग-अलग समुदायों के आपसी सद्भाव पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला कृत्य, जिससे सार्वजनिक शांति भंग हो / भंग होने की आशंका हो) तथा 197 (1) (सी) (किसी भी सुमदाय के शख्स को लेकर की गई बात, जिससे विभिन्न समुदायों के आपसी सद्भाव पर विपरीत असर पड़ता हो या उनके दरम्यान शत्रुता / घृणा या दुभावना की भावना पनपती हो या पनपने की आशंका हो) के तहत दर्ज की गई। है। मप्र उच्च न्यायालय ने सेनाधिकारी कुरैशी के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी को गटर की भाषा बताते हुए शाह को कड़ी फटकार लगाई। इसके खिलाफ शाह ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया वहां भी उन्हें फटकार मिली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उन्हें पता होना चाहिए कि वह क्या कह रहे हैं। जब देश ऐसी स्थिति से गुजर रहा है तो संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को जिम्मेदार होना चहिए। विजय शाह ने महू में एक कार्यक्रम में पहलगाम हमले का जवाब देने के लिए प्रधानमंत्री ने उनकी ही बहन को भेजने की बात की थी। मंत्री ने कहा- जिन्होंने (पाकिस्तानी आतंकियों) हमारी बेटियों के सिंदूर उजाड़े थे, उन कटे-पिटे लोगों को हमने उनकी बहन भेज कर ऐसी-तैसी कराई। मोदी जी स्वयं तो उनके कपड़े उतार नहीं सकते थे, इसलिए उनके समाज की बहन को भेजा कि तुमने हमारी बहनों को विधवा किया है, तो तुम्हारे समाज की बहन आकर तुम्हें नंगा करके छोड़ेगी। इस बयान को विपक्ष ने विकृत मानसिकता वाला ठहराया तो भाजपा के भीतर भी इसकी निंदा की गई जिस पर शाह को माफी मांगनी पड़ी। बेशक, माफी काफी नहीं है। देश की अखंडता और सद्भावना को अक्षुण्ण रखने के लिए जरूरी है कि कड़ा संदेश दिया जाए। यह न सिर्फ स्त्री, बल्कि देश की सुरक्षा व्यवस्था पर निंदनीय कटाक्ष है। अति उत्साह में या दुश्मन को नीचा दिखाने के लिए बोली पर संयम आवश्यक है।


Date: 16-05-25

फुटपाथ पर अधिकार

संपादकीय

फुटपाथ पर पैदल चलने के अधिकार के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्वागतयोग्य है। सर्वोच्च न्यायालय ने जोर दिया है कि बिना किसी बाधा के फुटपाथ का उपयोग करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के मौलिक अधिकार का अनिवार्य हिस्सा है। यह सराहनीय बात है कि एस राजसीकरन बनाम भारत संघ और अन्य मामले में न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने सभी राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को दो महीने के भीतर पैदल यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने, विशेष रूप से विकलांग व्यक्तियों के लिए दिशा-निर्देश तैयार करने के निर्देश दिए हैं। सड़क सुरक्षा के लिए वाकई फुटपाथ सुरक्षा जरूरी है। फुटपाथ न होने से ही लोग सड़क पर चलने के लिए मजबूर होते हैं। फुटपाथ सुरक्षा की जरूरत को रेखांकित करते हुए याचिकाकर्ताओं में से एक, अधिवक्ता किशन चंद जैन ने बताया है कि सड़क दुर्घटना में होने वाली 19.5 प्रतिशत मौतें पैदल यात्रियों से संबंधित हैं । यथोचित फुटपाथ पैदल चलने वालों के लिए किसी वरदान या सम्मान से कम नहीं है। फुटपाथ का अभाव दरअसल पैदल चलने वालों का अपमान है।

अगर किसी सड़क पर पैदल चलने वालों के लिए जगह न हो, तो उस सड़क का क्या मतलब है? यहां तक कि एक्सप्रेस-वे बनाते समय भी अनेक जगह पैदल चलने वालों का ध्यान रखा जा रहा है। यह ध्यान देने की बात है कि फुटपाथ की व्यवस्था का काम बिल्कुल निर्धारित है । स्थानीय शासन-प्रशासन की यह प्राथमिक जिम्मेदारी है कि वे तमाम सड़कों पर फुटपाथ की व्यवस्था करें। जहाँ जगह नहीं है या जहां सड़कें बहुत पतली हैं, वहां भी पैदल चलने वालों की सुविधा का प्रबंध किया जा सकता है। पतली सड़कों पर तेज या बड़े वाहनों की कोई जरूरत नहीं है। अक्सर यह भी देखा जाता है कि फुटपाथ पर व्यापारियों या अराजक तत्वों का कब्जा हो जाता है। किसी भी बड़े बाजार में चले जाइए, पैदल चलने वालों को देखकर कष्ट होता है। फुटपाथ को पैदल यात्रियों के लिए बचाए रखना प्राथमिकता होनी चाहिए, मगर व्यावसायिक या गैर-कानूनी प्राथमिकताएं हावी हो जाती हैं। गौर करने की बात है, इधर के वर्षों में भीड़ भरे बाजारों में बुजुर्ग ग्राहकों की संख्या लगभग खत्म हो चुकी है। बुजुर्ग सड़क पर निकलने से डरने लगे हैं। अगर कोई सड़क पर निकलने से डरे, तो जाहिर है, यह उसके जीवन के हक पर चोट है। इस हक को हर जगह बहाल करना प्राथमिक काम में शुमार हो।

बच्चों, बुजुर्गों के अलावा यह दिव्यांगों के लिए भी सोचने का समय है। अगर फुटपाथ नहीं होंगे, तो दिव्यांग लोग अपने घर से बाहर कैसे निकलेंगे ? क्या दिव्यांगों को अपने घरों में ही कैद करके उनसे जीने का अधिकार छीन लिया जाए ? केंद्रीय और राज्य के शहरी मंत्रालयों को युद्ध स्तर पर फुटपाथ संरक्षण का काम करना चाहिए। देश में सड़कों पर अतिक्रमण के खिलाफ भी बड़े अभियान की जरूरत है । सर्वोच्च न्यायालय का भी यही निर्देश है। सड़कों को बच्चों, बुजुर्गों और दिव्यांगों के मुताबिक ढालना होगा। अब इस मामले में ढिलाई अमानवीय ही कही जाएगी। लगे हाथ, न्यायालय ने केंद्र सरकार को राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा बोर्ड की स्थापना छह महीने के अंदर करने का निर्देश दिया है। एक ऐसे बोर्ड की बड़ी जरूरत है, जो समर्पित भाव से सड़कों और फुटपाथ को तमाम आम लोगों की जरूरतों के अनुरूप विकसित करने मैं सबसे अहम भूमिका निभाए।