16-03-2024 (Important News Clippings)

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16 Mar 2024
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Date:16-03-24

Not Just Polls: Fifty Shades of Democracy

ET Editorial

Elections are in the air. Whether it’s India’s that’s around the corner, Russia’s currently underway, or Britain’s and America’s this winter, democracies take pride in conducting elections — even when some do it less freely and fairly than others. Incumbent Vladimir Putin, for instance, will be declared victor for the fifth — and third consecutive — time. And we know this not because we’re clairvoyant, but because Kremlin-style democracy is markedly ‘different’ from ours, even as on paper, it may be the same process, with similar rules of popular political representation and ‘mandate’.

The democratic process, even at its most efficient, faces myriad challenges. While in some countries, opposition leaders are pushed out of the fray, imprisoned or worse, in others, disinformation can, and does, play havoc. Mud-slinging and questions raised about the voting process — remember the last US elections — can make elections extra challenging. There is also the genuine concern that the world is moving away from liberal democracy, as politicians stoke fear and promote identity politics.

This weekend, as Russians engage in a form of democracy that is akin to Roman acclamations, it’s essential to remember that holding elections alone is not the only parameter for a successful democracy. Not even when they are free and fair. Institutions, conventions and practices that sustain and protect the people’s right to make an informed choice without fear are also chief ingredients. The popular vote and elections, serving as handrails for democratic principles, ensure that divergent voices retain their potency. Yet, while the spectrum of democracies may fall short of perfection, they are, warts and all, the ‘least bad’ option for free citizens.


Date:16-03-24

‘कूलिंग ऑफ’ के नियम का दायरा व्यापक हो

संपादकीय

नैतिक मूल्यों को व्यक्ति के निजी, सामजिक और आध्यात्मिक जीवन में बड़ा स्थान दिलाने वाली संस्थाएं समय के साथ खत्म होती गईं। लिहाजा आम आदमी का संस्थाओं व उनके किरदारों में विश्वास कम होता गया । अगर कोई न्याय के तराजू पर सत्य तौलता हुआ अचानक रिटायरमेंट के चंद हफ्ते बाद ही सरकार द्वारा उपकृत होकर कोई पद (या विधायिकाओं में सदस्यता) लेता है तो उसके पूर्व के आचरण पर शंका लाजिमी है। हृदय परिवर्तन और नैतिक मानदंड में बदलाव कोई बिजली का स्विच नहीं हैं कि जब चाहा ऑन-ऑफ किया। रिटायर्ड अफसरों के वाणिज्यिक संस्थाओं में सेवा करने पर एक साल की रोक तो है लेकिन राजनीति में आने पर कोई नहीं। जब कई ‘मी लॉर्ड्स’ देश के भविष्य से जुड़े अहम मुद्दों पर फैसला देने के बाद रिटायर होकर राजनीति में आते हैं। तो देश की सामूहिक चेतना हिल जाती है। प्रजातंत्र, संविधान, न्याय-व्यवस्था और राज्य संस्थाओं पर भरोसा बनाए रखने के लिए ‘कूलिंग ऑफ’ (सेवा-मुक्ति के बाद किसी आर्थिक उपक्रम में जाने के लिए तीन साल की रोक) का नियम जजों व अफसरों पर लागू करने पर विचार करना चाहिए। चुनाव आयोग ने 2012 में इसकी सिफारिश की थी, लेकिन तब अटॉर्नी जनरल ने इसे व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन बताया था। पर व्यक्ति से बड़ा अधिकार समाज का है।


Date:16-03-24

न्यायपालिका सरकार के प्रभाव से मुक्त ही बनी रहे

पवन के.वर्मा, ( राजनयिक,पूर्व राज्यसभा सांसद )

हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ कड़े फैसले देकर नागरिकों को आश्वस्त किया है कि वह संविधान की रक्षा के लिए सतर्क प्रहरी बना हुआ है। लेकिन चुनौतियां अब भी कायम हैं। 5 मार्च 2024 को, 2018 से कोलकाता हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति रहे अभिजीत गंगोपाध्याय ने इस्तीफा दिया और घोषणा की कि वे भाजपा में शामिल हो रहे हैं। उन्होंने कहा वे कुछ समय से पार्टी के संपर्क में थे। इस सार्वजनिक स्वीकारोक्ति ने सवाल खड़ा कर दिया कि क्या निष्पक्षता की अपनी संवैधानिक शपथ के अनुसार वे टीएमसी से संबंधित मामलों में भी निष्पक्ष रह सके होंगे? अप्रैल 2023 में उन्होंने एक बंगाली समाचार चैनल को एक मामले पर साक्षात्कार दिया था, जिस पर अभी भी उनके द्वारा फैसला सुनाया जा रहा था। भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी. वाई.. चंद्रचूड को यह कहते हुए फटकार लगानी पड़ी कि ‘न्यायाधीशों को लंबित मामलों पर साक्षात्कार देने का कोई अधिकार नहीं है।’

लेकिन भारत में राजनीति और न्यायपालिका के बीच की संधिरेखा का धुंधलाना कोई नई बात नहीं है। न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्णा अय्यर, शुरुआत में सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बने । के.एस. हेगड़े कांग्रेस के राज्यसभा सांसद थे, जब उन्होंने मैसूर हाई कोर्ट बेंच में शामिल होने के लिए इस्तीफा दे दिया था, और बाद में उन्हें सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया। लेकिन वे फिर से राजनीति में लौट आए और 1977 में लोकसभा अध्यक्ष बने सीजेआई के. सुब्बा राव भी इस्तीफा देकर 1967 में राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्ष के उम्मीदवार बने थे। किसी भी लोकतंत्र के लिए एक स्वतंत्र न्यायपालिका अनिवार्य है। लेकिन लगभग हर लोकतंत्र में सरकारें जो कि न्यायालय में सबसे बड़ी वादी होती हैं- तुलनात्मक रूप से लचीला रुख रखने वाली न्यायपालिका चाहती हैं। 1970 के दशक में तो इंदिरा गांधी ने खुले तौर पर एक ऐसी प्रतिबद्ध न्यायपालिका पर जोर दिया था, जो सत्तारूढ़ दल के एजेंडे का समर्थन करती हो। उन्होंने आज्ञाकारियों को पुरस्कृत करते हुए ‘असुविधाजनक’ स्थितियां निर्मित करने वाले जजों को हटा दिया था।

1981 में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका की शक्तियों पर अंकुश लगा दिया। उसने फैसला सुनाया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति सीजेआई के परामर्श से की जानी चाहिए। 1993 में कोर्ट ने कहा कि ‘परामर्श’ का मतलब ‘सहमति’ है, जिससे सीजेआई की मंजूरी अनिवार्य हो गई। 1998 में कोर्ट ने एक ‘कॉलेजियम’ प्रणाली की स्थापना की, जिसमें सीजेआई के अलावा सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल थे। 2014 में सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (अधिनियम) लागू किया, जिसने कार्यपालिका की भूमिका को बढ़ा दिया, लेकिन 2015 में पाँच न्यायाधीशों वाली सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने इसे न्यायिक स्वतंत्रता के लिए हानिकारक बताते हुए रद्द कर दिया। सरकार के पास एक और कार्ड था। वर्तमान प्रणाली के तहत, जब सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए नामों की सिफारिश करता है, तो सरकार नाम वापस भेज सकती है। लेकिन अगर इनमें से कोई भी दोहराया जाता है, तो उसका अनुपालन करना होगा। हालांकि सरकार द्वारा जवाब देने के लिए कोई समय सीमा निर्दिष्ट नहीं की गई है। इसका मतलब यह है कि कॉलेजियम की सिफारिशों में अनिश्चित काल तक देरी हो सकती है। शीर्ष अदालतों से सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को

सरकार से कोई भी कार्यभार स्वीकार करने से पहले कम से कम दो साल की कूलिंग ऑफ अवधि मिलनी चाहिए। दुर्भाग्य से, ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है। 1953 में, न्यायमूर्ति फजल अली को सेवानिवृत्ति के बाद ओडिशा का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया था; 1958 में मुंबई हाईकोर्ट के न्यायाधीश एम. सी. चागला को अमेरिका में राजदूत नियुक्त किया गया था; सितंबर 2014 में पहली बार एक सेवानिवृत्त सीजेआई पी. सदाशिवन केरल के राज्यपाल बनाए गए थे; और 2020 में सीजेआई रंजन गोगोई- जिन्होंने अयोध्या पर फैसला सुनाया था को सेवानिवृत्ति के बाद राज्यसभा के लिए नामित किया गया था। सेवानिवृत्त जजों को लुभाने के लिए असंख्य ट्रिब्यूनल्स भी हैं कॉलेजियम प्रणाली दोषरहित नहीं, लेकिन यह कार्यपालिका द्वारा नियंत्रित न्यायपालिका से बेहतर है।

स्वतंत्र न्यायपालिका के बिना शायर अमीर कजलबाश की ये पंक्तियां हमें दूर तक परेशान करती रहेंगी कि ‘उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ; हमें यकीन था हमारा कसूर निकलेगा।’


Date:16-03-24

चुनावी चंदे का हिसाब

संपादकीय

चुनावी बांड का विवरण तो सार्वजनिक हो गया, लेकिन अभी यह पता नहीं चल पाया कि चुनावी चंदा देने के लिए जो बांड खरीदे गए, उन्हें किस राजनीतिक दल ने भुनाया। चुनावी बांड के जरिये विभिन्न दलों को मिले चंदे की रकम अभी और बढ़ेगी, क्योंकि एक वर्ष का आंकड़ा सामने आना शेष है। इस पर हैरानी नहीं कि चुनावी बांड के जरिये चंदा पाने वाले दलों में भाजपा सबसे आगे है। केंद्र के साथ अनेक राज्यों में सत्तारूढ़ होने के कारण ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन यह एक पहेली सी है कि केवल एक राज्य में शासन करने वाली तृणमूल कांग्रेस तो चंदे की रकम के मामले में दूसरे स्थान पर है, लेकिन तीन राज्यों में सत्तारूढ़ कांग्रेस तीसरे स्थान पर इसका कारण कुछ भी हो, लेकिन यह ठीक नहीं कि चुनावी बांड के जरिये भारी-भरकम चंदा देने वालों में कुछ ऐसी कंपनियां भी हैं, जिनका कामकाज सवालों के घेरे में रहा है और जो प्रवर्तन निदेशालय अथवा आयकर विभाग की जांच के दायरे में रही हैं। इन कंपनियों के चंदा देने के कारण विपक्षी दलों को यह कहने का मौका तो मिल गया कि केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल करके भाजपा ने चंदा हासिल किया, लेकिन क्या वे यह दावा कर सकने की स्थिति में हैं कि ऐसी किसी कंपनी से उन्हें चंदा नहीं मिला ? संभवतः इस प्रश्न का उत्तर चुनावी बांड के विशिष्ट नंबर सार्वजनिक होने से मिलेगा सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट बैंक से पूछा है कि ये नंबर क्यों नहीं उपलब्ध कराए गए? स्टेट बैंक का जवाब जो भी हो, यदि ये नंबर उपलब्ध हो जाते हैं तो फिर चुनावी बांड का सारा कच्चा चिट्ठा सामने आ जाएगा और यह पता चल जाएगा कि 1. किसने किस राजनीतिक दल को कब कितना चंदा दिया ?

चुनावी चंदे की प्रक्रिया पारदर्शी होने के साथ ऐसी होनी चाहिए, जिससे आम जनता को भी यह पता चल सके कि किसने किस दल को कितना चंदा दिया। वैसे तो चुनावी बांड की व्यवस्था चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के इरादे से ही निर्मित की गई थी, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड की व्यवस्था खत्म कर दी, लेकिन फिलहाल कोई नहीं जानता कि भविष्य में चुनावी चंदे का लेन-देन किस तरह होगा। यदि चुनावी चंदे की किसी समुचित प्रक्रिया का निर्माण नहीं होता तो फिर गोपनीय तरीके से चंदा देने का वह सिलसिला शुरू हो सकता है, जिसमें जनता को इस बारे में कुछ पता ही नहीं चलेगा कि किसने किसको कितना चंदा दिया? इससे भी खराब बात यह हो सकती है कि राजनीति काले धन पर आश्रित हो जाए। अब तो इसकी भी आशंका है कि राजनीतिक दल और साथ ही उन्हें चंदा देने वाले गोपनीय तौर-तरीके ही अपनाना पसंद करें। चुनावी बांड को लेकर आरोप-प्रत्यारोप के शोर में यह न भूला जाए तो अच्छा कि चुनावी चंदे की नीर-क्षीर प्रक्रिया का निर्माण आवश्यक है।


Date:16-03-24

बेंगलुरु के जल संकट का सबक

पंकज चतुर्वेदी, ( लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं )

बेंगलुरु जैसे महानगर में उभरा जल संकट चेतावनियों पर समय रहते न चेतने का दुष्परिणाम है। वर्ष 2018 में दक्षिण अफ्रीका के शहर केपटाउन में पानी के भयंकर संकट को देखते हुए दुनिया के जिन 15 शहरों पर ‘शून्य जल’ स्तर के संकट का खतरा बताया गया था, उनमें भारत के बेंगलुरु का भी नाम था। इस पर ध्यान नहीं दिया गया और इसका ही परिणाम है कि भारत का ‘सिलिकन वैली’ कहा जाने वाला यह महानगर बीते कुछ दिनों से गंभीर जल संकट से दो-चार है। बेंगलुरु की जरूरत 2600 एमएलडी (मिलियन लीटर डे) है, लेकिन कावेरी नदी से मात्र 460 एमएलडी पानी ही मिल पा रहा है। महानगर के कोई 1200 से अधिक नलकूप सूख चुके हैं। बरसात अभी कम से कम दो महीने दूर है और इसीलिए कई स्कूल-कालेज दफ्तर बंद कर दिए गए हैं। पानी के दुरुपयोग पर पांच हजार रुपये के जुर्माने सहित कई पाबंदियां लगा दी गई हैं, जैसे कि गाड़ी धोने और पौधें में पानी देने पर रोक लगाने के साथ स्वीमिंग पूल भी बंद कर दिए गए हैं। स्थिति यह है कि अपार्टमेंट में रहने वाले लोग रोज नहा नहीं पा रहे हैं। जलसंकट के कारण आनलाइन फूड आर्डर की मांग बढ़ गई है।

यदि बेंगलुरु महानगर की जलकुंडली बांचें तो यह संकट अस्वाभाविक सा लगता है, क्योंकि यहाँ तो पग-पग पर जल निधियां हैं। इस जलकुंडली की ‘ग्रह दशा’ देखने से स्पष्ट होता है कि अंधाधुंध शहरीकरण और उसके लालच में उजाड़ी जा रही पारंपरिक जल निधियों और हरियाली को इसी प्रकार रौंदा जाता रहा तो बेंगलुरु को केपटाउन बनने से कोई नहीं रोक सकता। बैंगलुरु में उपजे जल संकट से देश के अन्य महानगरों और शहरों को भी सबक लेना चाहिए, क्योंकि वे भी अपनी परंपरागत जल निधियों की उपेक्षा कर रहे हैं और जल संचयन अथवा जल पुनर्भरण को लेकर सचेत नहीं हैं। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक 90 साल पहले बेंगलुरु में 2789 केरे यानी तालाब हुआ करते थे। वर्ष 1960 तक आते-आते इनकी संख्या घटकर 230 रह गई। वर्ष 1985 में केवल 34 तालाब बचे और अब तो उनकी संख्या 30 तक सिमट गई है। तालाबों और झीलों की उपेक्षा का ही परिणाम है कि न केवल महानगर का मौसम बदल गया है, बल्कि लोग बूंद- बूंद पानी को भी तरस रहे हैं। सेंटर फार कंजर्वेशन एनवायरमेंटल मैनेजमेंट एंड पालिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने अपनी रपट में कहा है कि बेंगलुरु में जिन जल निधियों का अस्तित्व बचा है, उनमें से नौ बुरी तरह और 22 बहुत हद तक दूषित हो चुकी हैं। इस महानगर की आधी जनसंख्या को पानी पिलाना टीजीहल्ली तालाब के जिम्मे है इसकी गहराई 74 फीट है, लेकिन 1990 के बाद से इसमें अरकावति जलग्रहण क्षेत्र से बरसाती पानी की आवक बेहद कम हो गई। अरकावति के आसपास कालोनियों, रिसार्ट्स और कारखानों की बढ़ती संख्या के चलते इसका प्राकृतिक जलग्रहण क्षेत्र चौपट हो चुका है। इस तालाब से 140 एमएलडी पानी हर रोज प्राप्त किया जा सकता है। चूंकि तालाब का जलस्तर घटता जा रहा है, इसलिए बैंगलुरु जल प्रदय संस्थान की 40 एमएलडी से अधिक पानी नहीं मिल पाता।

बेंगलुरु में पानी के संकट से गुस्साए लोग अब तोड़-फोड़ पर आमादा हैं, परंतु वे यह नहीं देख पा रहे कि उनकी जल गगरी ‘टीजीहल्ली’ को रीता करने वाले कंक्रीट के जंगल यथावत फल-फूल रहे हैं। बीते दो दशकों के दौरान महानगर के तालाबों में मिट्टी भरकर कालोनी बनाने के साथ-साथ तालाबों में पानी की आवक और निकासी की राह को भी पक्के निर्माणों से रोक दिया गया। बेंगलुरु की पुट्टनहल्ली झील की जल क्षमता 13.25 एकड़ है, जबकि आज उसमें महज पांच एकड़ पानी आ पाता है। बेंगलुरु की अल्सूर झील को बचाने के लिए गठित फाउंडेशन के पदाधिकारी राज्य के आला अफसर हैं। 49.8 हेक्टेयर में फैली इस जलनिधि को बचाने के लिए जनवरी 1999 में इस संस्था ने चार करोड़ की एक योजना बनाने के साथ कई उपाय सुझाए थे, लेकिन कागजी घोड़ों की दौड़ से आगे कुछ नहीं हो पाया।

बेंगलुरु के हैब्बाल तालाब और चेल्ला केरे झील को देवनहल्ली में बन रहे नए इंटरनेशनल एयरपोर्ट तक पहुंचने के लिए बनाए जा रहे एक्सप्रेस हाईवे का ग्रहण लग गया। कर्नाटक गोल्फ क्लब के लिए चेल्लाघट्टा झील को सुखाया गया तो कंटीरवा स्टेडियम के लिए संपंगी झील से पानी निकाला गया। अशोक नगर का फुटबाल स्टेडियम घुल्या तालाब हुआ करता था तो साई हाकी स्टेडियम के लिए अक्कीतम्मा झील की बलि चढ़ाई गई मेस्त्री पाल्या झील और सन्नेगुरवन हल्ली तालाब को सुखाकर मैदान बना दिया गया। गंगाशेट्टी और जकरया तालाबों पर कारखाने खड़े हो गए। आगसना तालाब अब गायत्री देवी पार्क बन गया। तुमकूर झील पर मैसूर लैंप की मशीनें हैं। असल में ये झीलें केवल पानी ही नहीं जोड़ती थीं, बगीचों का शहर कहे जाने वाले बेंगलुरु के मौसम के मिजाज को भी नियंत्रित रखती थीं। यदि आज भी सभी तालाबों और झीलों को सहेजना शुरू किया जाए तो बेंगलुरु को फिर से पानी से समृद्ध महानगर बनाया जा सकता है।

बेंगलुरु जिन कारणों से जल संकट से जूझ रहा है, उनसे देश के सभी छोटे-बड़े शहरों को परिचित होना चाहिए, क्योंकि उनमें से अनेक शहर जल संकट की और बढ़ रहे हैं और इसकी एक बड़ी वजह पानी के परंपरागत स्रोतों की परवाह न किया जाना है। बेंगलुरु का जल संकट यही कह रहा है। कि देश के अन्य शहरों को इस तरह की समस्या से बचने के लिए तुरंत कमर कस लेनी चाहिए। निःसंदेह शहरों का विकास आवश्यक है, लेकिन जल निधियों की कीमत पर नहीं बेंगलुरु से यह सबक लेना अपरिहार्य हो गया है।


Date:16-03-24

मॉरीशस में भारतीय नोसेना की उपस्थिति हो रही मजबूत

हर्ष वी पंत, समीर भट्टाचार्य, (लेखक ओआरएफ में क्रमशः अध्ययन एवं विदेश नीति के उपाध्यक्ष और एसोसिएट फेलो, अफ्रीका हैं)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 29 फरवरी को मॉरीशस के प्रधानमंत्री प्रविंद जगन्नाथ के साथ मिलकर संयुक्त रूप से मॉरीशस के एक द्वीपसमूह अगालेगा में एक नई हवाईपट्टी और जेट्टी का उद्घाटन किया। यह कदम हिंद महासागर क्षेत्र में एक प्रमुख सुरक्षा प्रदाता के रूप में भारत की भूमिका को रेखांकित करता है। भारत के समर्थन वाली छह अन्य विकास परियोजनाओं के साथ यह बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़ी परियोजना, मोदी सरकार की सबकी सुरक्षा एवं विकास नीति (सागर) का ही हिस्सा है।

इस नीति का लक्ष्य समुद्र के सहयोगी देशों के साथ भारत के आर्थिक एवं सुरक्षा सहयोग को और मजबूत करना है ताकि उनकी समुद्री सुरक्षा क्षमता को बेहतर बनाने में मदद दी जा सके। नया बुनियादी ढांचा एक समुद्री ताकत के रूप में भारत की छवि को भी मजबूत करेगा और हिंद महासागर क्षेत्र में इसकी दखल बढ़ाएगा।

मॉरीशस के मुख्य द्वीप से करीब 1,100 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर में मौजूद अगालेगा द्वीपसमूह के दो द्वीप हैं। यह द्वीप उत्तर में सेशेल्स, पूर्व में मालदीव, अमेरिकी बेस डिएगो गार्सिया और चागोस द्वीप और पश्चिम में मेडागास्कर, मोजांबिक चैनल और अफ्रीका के पूरे पूर्वी तट से घिरने की वजह से इसकी सामरिक स्थिति कुछ ऐसी है कि यह आतंकवाद, समुद्री लूटपाट और अवैध मादक पदार्थों के व्यापार के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र बन जाता है। इसके अलावा, हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में विदेशी जहाजों, खासकर चीन के युद्धपोतों की भारी तैनाती देखी गई है।

भारत वर्ष 2005 से ही इस हवाईपट्टी पर नए सिरे से काम करने के लिए जोर देता रहा है। हालांकि वर्ष 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मॉरीशस यात्रा के दौरान भारत ने समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते के तहत मौजूदा 800 मीटर की हवाईपट्टी का विकास एक बड़े हवाईक्षेत्र के रूप में करने की योजना थी ताकि वहां बड़े विमान जा सकें।

पहले भारत को अपने बड़े पी-81 विमान को पड़ोस में फ्रांस के रेयूनियो द्वीप में तैनात करना पड़ता था। इस हवाईपट्टी के विकास के बाद भारत अब सीधे तौर पर इस द्वीप पर तीन बड़े विमान को उतारने और उन्हें तैनात करने में सक्षम होगा।

इस नई हवाई पट्टी के साथ, समझौता ज्ञापन में मौजूदा जेट्टी के पास एक बंदरगाह बनाने, खुफिया एवं संचार सुविधाओं के लिए निकाय बनाने और हिंद महासागर से गुजरने वाले जहाजों की पहचान के लिए एक ट्रांसपॉन्डर प्रणाली स्थापित करने का प्रावधान था। मॉरीशस के प्रधानमंत्री के शब्दों में, नई सुविधाओं के चलते क्षेत्र में समुद्री सुरक्षा बेहतर तरीके से दुरुस्त होंगी। इस बंदरगाह का इस्तेमाल इलाके से गुजरने वाले भारतीय जहाजों द्वारा ईंधन भरने के लिए भी किया जाएगा।

हालांकि, इस बुनियादी ढांचे को तैयार करने का रास्ता इतना आसान नहीं था। वर्ष 2020 में, देश में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, जिसमें मॉरीशस की सरकार पर राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता करने के आरोप लगे। इन भारत विरोधी प्रदर्शनों में कुछ को शायद चीन का भी समर्थन था। फिर भी, महामारी तथा उससे जुड़ी अन्य चुनौतियों के बावजूद 2019 में शुरू हुआ निर्माण कार्य पांच साल के भीतर पूरा हो गया। बुनियादी ढांचे के संचालन के साथ ही भारत ने क्षेत्रीय समुद्री सुरक्षा को बढ़ाने की अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की है।

समुद्र में बढ़ते दबदबे को लेकर हो रहे विवाद को देखते हुए, यह बुनियादी ढांचा वास्तव में इस क्षेत्र में चीन के द्वारा तेजी से किए जा रहे विस्तार के चलते भारत की कुछ चिंताओं को कम करने में भी मददगार साबित होगा। वर्ष 2008 से ही चीनी युद्धपोत हिंद महासागर में गश्त लगा रहे हैं और 2017 से, चीन ने जिबूती में अपना एक नौसेना सैन्य आधार बना
रखा है।

मालदीव के भारत विरोधी रुख के संदर्भ में इस बुनियादी ढांचे का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। मालदीव को चीन द्वारा सैन्य सहायता दिए जाने से जुड़े समझौते से भी इसकी पुष्टि होती है और इसकी तस्दीक इस बात से भी होती है कि मालदीव ने भारतीय सैन्य बलों को जाने के लिए कहा है। मालदीव के साथ भारत के संबंध अब तक के सबसे खराब स्तर पर पहुंच गए हैं और हिंद महासागर क्षेत्र में अपना प्रभाव बनाए रखने की भारत की कोशिश के संदर्भ में मॉरीशस महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

भारत और मॉरीशस के संबंधों का एक लंबा इतिहास रहा है जो ब्रितानी जहाजों में भारत के गिरमिटिया मजदूरों के मॉरीशस पहुंचने, कारीगरों तथा राजमिस्त्री के रूप में काम करने और बाद में चीनी बागानों में काम करने से जुड़ा रहा है। महात्मा गांधी के दांडी मार्च के सम्मान में, मॉरीशस का राष्ट्रीय दिवस 12 मार्च को मनाया जाता है। इसके अलावा मॉरीशस में करीब 70 प्रतिशत से अधिक आबादी के भारतीय मूल की होने के कारण इस द्वीप में भारतीयों का प्रभाव महत्त्वपूर्ण बना हुआ है।

इसके ऐतिहासिक संबंधों के अलावा, भारत वर्तमान में मॉरीशस के शीर्ष व्यापारिक साझेदारों में से एक है जिसका वर्ष 2022-23 में द्विपक्षीय व्यापार 55.4 करोड़ डॉलर रहा। भारतीय उद्यमियों ने पिछले पांच सालों में यहां 20 करोड़ डॉलर से अधिक निवेश किया है।

वर्ष 2021 में, विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने व्यापक आर्थिक सहयोग एवं भागीदारी समझौते (सीईसीपीए) पर हस्ताक्षर किए जो किसी भी अफ्रीकी देश के साथ भारत का पहला व्यापार समझौता है। उन्होंने मॉरीशस के लिए 10 करोड़ डॉलर के रक्षा ऋण की घोषणा की। भारतीय नागरिक अब रुपये का का इस्तेमाल कर सुगमता से मॉरीशस में भुगतान कर सकते हैं जिसकी सुविधा रुपे कार्ड सेवाओं के चलते मिली है। इसी तरह, मॉरीशस के नागरिक भारतीय वस्तुओं एवं सेवाओं के भुगतान के लिए यूपीआई का उपयोग कर सकते हैं।

भारत किसी मंच/उपकरण, क्षमता निर्माण, संयुक्त गश्ती, जल विज्ञान सेवाओं आदि के लिए मॉरीशस का पसंदीदा रक्षा भागीदार भी है। मॉरीशस भारत की पड़ोसी देश से जुड़ी नीति का एक प्रमुख भागीदार है। भारत इस क्षेत्र में अपनी दखल को मजबूत कर रहा है ऐसे में निश्चित तौर पर चीन से चुनौती बढ़ने की संभावना बढ़ेगी। फिर भी, जैसा कि भारत का लक्ष्य हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी पैठ मजबूत करना और एक सुरक्षा प्रदाता के रूप में अपनी भूमिका को बढ़ाना है। इसके साथ-साथ भारतीय नौसेना का महत्त्व बनाए रखने के साथ ही मॉरीशस के साथ इसकी साझेदारी निर्णायक कारक बनी रहेगी।


Date:16-03-24

बेहतरी की उम्मीद

संपादकीय

किसी भी देश में आम लोगों के जीवन-स्तर में आई बेहतरी से ही यह आंका जाना चाहिए कि वहां सरकार की ओर से जनता की जीवन-स्थितियों में सुधार के किए वादे पर वास्तव में कितना काम हुआ। भारत में पिछले कई वर्षों से राजनीतिक बहसें और चुनावी मुद्दे के रूप में विकास एक बड़ा मुद्दा रहा है। आए दिन अर्थव्यवस्था से लेकर अन्य कई मोर्चों पर बेहतरी की तस्वीर पेश की जाती है, मगर सवाल है कि इस सबसे क्या सचमुच साधारण लोगों के जीवन-स्तर में कोई सुधार हुआ है, जीने के लिए अनिवार्य सुविधाओं तक समाज के सबसे कमजोर तबके की पहुंच सुनिश्चित हुई है? संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी मानव विकास रपट, 2023-24 के मुताबिक 2022 में भारत के स्थान में एक अंक का सुधार आया है और यह एक सौ तिरानबे देशों की सूची में एक सौ चौंतीसवें पायदान पर पहुंच गया है। गौरतलब है कि 2021 में भारत की स्थिति एक सौ इक्यानबे देशों के बीच एक सौ पैंतीसवें पायदान पर थी। इसे तुलनात्मक रूप से सुधार कहा जा सकता है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र ने भी भारत की प्रशंसा की है। हालांकि सूची में शामिल कुल देशों की संख्या के लिहाज से यह कोई बड़ा अंतर नहीं है, लेकिन बेहतरी की तस्वीर को देखते हुए भविष्य के लिए उम्मीद जरूर पैदा होती है। एक उल्लेखनीय सुधार लैंगिक असमानता सूचकांक के मामले में आई है, जिसमें 2022 में भारत एक सौ आठवें स्थान पर रहा। 2021 में भारत को इस मामले में एक सौ बाईसवें पायदान पर जगह मिली थी।हालांकि श्रमबल में भागीदारी की कसौटी पर देखें तो 76.1 फीसद पुरुषों के मुकाबले महज 28.3 फीसद महिलाओं की मौजूदगी अब भी बड़े लैंगिक अंतर को दर्शाता है। इसके अलावा, औसत के आधार आकलन में कई बार अलग-अलग सामाजिक वर्गों के बीच हाशिये के तबकों की वास्तविक स्थिति का आकलन सामने नहीं आ पाता। फिर भी मानव विकास सूचकांक के संकेतकों पर अगर जीवन प्रत्याशा, शिक्षा और प्रति व्यक्ति सकल आय में बेहतरी आई है, तो यह विकास के नजरिए से सकारात्मक और आने वाले दिनों के लिए बेहतरी का सूचक है।


Date:16-03-24

काम कर गए कोविंद

संपादकीय

रामनाथ कोविंद कमेटी ने ‘एक देश, एक चुनाव’ पर अपनी सिफारिश राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी है। पिछले साल 2 सितम्बर को पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अगुवाई में एक ताकतवर पैनल बनाया गया था। गृहमंत्री अमित शाह भी इसके हिस्सा थे। तभी साफ हो गया था कि नरेन्द्र मोदी सरकार ‘एक देश, एक चुनाव’ पर हर हाल में आगे बढ़ना चाहती है। तर्क यह है इससे साल दर साल देश के किसी न किसी हिस्से में होने वाले चुनाव, इसका बेतहाशा खर्च, आचार संहिता से प्रभावित होने वाले सरकार के अन्य नीतिगत फैसले और सुरक्षा एजेंसियों के लंबे समय तक इंगेज के नुकसान आदि से छुटकारा मिल जाएगा। बचे संसाधन एवं ताकत का इस्तेमाल विकास के कामों में किया जा सकेगा। इन तथ्यों को मानते हुए छोटे दल ‘एक चुनाव’ पर सहमत नहीं थे तो देश के संघीय ढांचे पर पड़ने वाले चोट की वजह से। उन्हें डर है कि इससे उनकी विधायी एवं संसदीय प्रतिनिधित्व का नुकसान होगा, जो अलग चुनाव में बना रहता आया है। पर यह डर फिजूल है क्योंकि 1967 से इसी व्यवस्था में छोटे दलों का कुछेक राज्यों में सत्ता थी। कोविंद की टीम ने इन मतभेदों और आलोचनाओं का बहुमत के आधार पर हल करने की कोशिश की है। फिर तो माना जाए कि इसे आसानी से लागू कर लिया जाएगा। नहीं, इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा। पहले चरण में लोक सभा और सभी विधानसभा चुनाव साथ कराएं जाएंगे और इसके लिए राज्यों से मंजूरी की जरूरत नहीं होगी। संविधान संशोधन के दूसरे चरण में लोक सभा, विधानसभा के साथ स्थानीय निकाय चुनाव हों। कोविंद कमेटी की ये भी सिफारिश है कि तीन स्तरीय चुनाव के लिए एक मतदाता सूची, फोटो पहचान पत्र जरूरी होगा। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 325 में संशोधन की जरूरत होगी, जिसमें कम से कम आधे राज्यों की मंजूरी चाहिए। साथ ही मध्यावधि चुनाव के बाद गठित होने वाली लोक सभा या विधानसभा का कार्यकाल उतना ही होगा, जितना लोक सभा का बचा हुआ कार्यकाल रहेगा। 32 राजनीतिक दल तो एक साथ सारे चुनावों के पक्ष में हैं, लेकिन कांग्रेस और टीएमसी समेत 15 दल इससे सहमत नहीं हैं। लोकतंत्र बहुमत से चलता है, फिर भी अधिकतम को साधने का प्रयास करना चाहिए।


Date:16-03-24

पारदर्शिता जरूरी

संपादकीय

इलेक्टोरल बॉन्ड की पूरे देश में चर्चा स्वाभाविक है और इसी कड़ी में देश के सर्वोच्च न्यायालय के प्रयासों और सबसे बड़े सरकारी बैंक- स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को फिर मिली फटकार कोदेखा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को एसबीआई को नोटिस जारी करके जवाब भी मांगा है। वास्तव में, चुनाव आयोग की वेबसाइट पर इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वालों की जो सूची पोस्ट हुई है, उसे अधूरा माना जा रहा है। इलेक्टोरल बॉन्ड किसने खरीदा, यह तो पता चल रहा है, लेकिन इससे किसे लाभ हुआ या उसका किस पार्टी ने लाभ लिया, इसकी जानकारी नहीं मिल रही है। कोई अल्फान्यूमेरिक नंबर है, जो सूची के साथ शामिल नहीं है। अब सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद एसबीआई को अपनी सूची को और स्पष्ट करना होगा। उसे सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप पहले ही कार्रवाई करनी ही चाहिए थी, ताकि उस पर उंगली न उठती।

इसमें कोई दोराय नहीं कि इलेक्टोरल बॉन्ड की शुरुआत राजनीतिक चंदे के लेन-देन को पारदर्शी बनाने के लिए की गई थी। यहां पारदर्शिता का सीधा अर्थ है कि लोगों को चंदे के बारे में पूरी सूचना होनी चाहिए। किस व्यक्ति ने किस पार्टी को कितने पैसे दिए हैं? जब एक बार पैसे के लेन-देन के बारे में साफ तौर पर पता चल जाता है, तब लोग यह आकलन करने की स्थिति में होते हैं कि पैसा क्यों लिया गया होगा या चंदा क्यों दिया गया होगा? दरअसल, चंदे की पूरी व्यवस्था ही विवेक पर निर्भर करती है। देने वाला अपने विवेक से देता है और जाहिर है, जो करोड़ों रुपये देगा, वह कुछ फायदे लेने के बारे में भी जरूर सोचेगा। आज के महंगे और पूंजीवादी दौर में यह सोचना बहुत भोलापन होगा, अगर हम यह सोचें कि अब तक करोड़ों रुपये का चंदा स्वेच्छा से लिया और दिया जाता रहा है। बहरहाल, जहां तक एसबीआई या किसी अन्य संस्था का सवाल है, तो हर हाल में पारदर्शिता के पक्ष को ही मजबूत किया जाना चाहिए। लोकतंत्र में किसी संस्था को जरूरी सूचना छिपाने का हक नहीं होना चाहिए। केवल देश की सुरक्षा से संबंधित दस्तावेजों की ही गोपनीयता सुनिश्चित रहनी चाहिए। बाकी तंत्र का कोई भी हिस्सा अगर किसी तरह का लेन-देन कर रहा है, तो इसके बारे में लोगों को पूरी सूचना होनी ही चाहिए। मतलब, एसबीआई को देश और उसके लोकतंत्र में पारदर्शिता बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए, अगर उसका व्यवहार कहीं से भी इस संदर्भ में उदासीन दिखे, तो चिंता होती है। पहले भी अनेक मौके आए हैं, जब हमने इस बैंक का पक्षपाती रवैया देखा है।

शीर्ष अदालत की पीठ ने वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल और वकील प्रशांत भूषण की दलीलों पर ध्यान दिया है कि एसबीआई द्वारा चुनावी बॉन्ड के अल्फान्यूमेरिक नंबरों का खुलासा नहीं किया गया है। अब एसबीआई को अपनी विश्वसनीयता बहाल करने की दिशा में गंभीरता से काम करना होगा। यह ध्यान देने की बात है कि इलेक्टोरल बॉन्ड की गहरी तफ्तीश के लिए अब एसआईटी के गठन की मांग हो रही है। इसका सीधा-सा मतलब है कि यह विवाद जल्दी नहीं सुलझने वाला। कुल मिलाकर, एसबीआई और अन्य सभी वित्तीय संस्थाओं को सावधान हो जाना चाहिए। इलेक्टोरल बॉन्ड पर आया फैसला एक नजीर है। अब सबको कानून सम्मत पारदर्शिता के लिए काम करना होगा। एसबीआई पर देश के लोगों का काफी भरोसा रहा है, उसकी साख को और चोट न पहुंचे, इसकी चिंता उसे ही करनी है।